My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2022

water bodies needs constant clean drive

 चार दिन की सफाई और फिर अंधेरी रात

चार दिवसीय छठ पर्व का समय आ गया, तो देश भर में तालाबों और नदियों के घाटों की सफाई शुरू हो गई है। समाज के लोग और युवा आगे आकर स्वयं सफाई में जुटने लगे हैं, क्या यही अभियान या प्रयास साल भर नहीं चल सकता? यदि देश भर की जलनिधियों को हर महीने मिल-जुलकर स्वच्छ बनाया जाए, तो कायाकल्प हो जाएगा। जरूरी होता जा रहा है कि प्रदूषण के खतरे को समझते हुए हम शपथ लें, त्योहार के भाव और जल, जीवन के महत्व को समझें, तभी हम अपना भविष्य सुधार पाएंगे।



देश का सबसे आधुनिक महानगर होने का दावा करने वाली नई दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा की तरफ सरपट दौड़ती चौड़ी सड़क के किनारे हिंडन नदी के पास बसे कुलेसरा व लखरावनी गांव में इन दिनों घाट की सफाई का काम चल रहा है। हिंडन यहां तक आते-आते नाला बन जाती है और कुछ ही किलोमीटर चलकर यमुना में विलीन हो जाती है। यह त्रासद है कि स्थानीय लोगों को इस नदी की याद बस छठ पर्व पर ही आती है। कहने को वहां स्थायी पूजा के चबूतरे बने हैं, लेकिन साल के 360 दिन ये सार्वजनिक शौचालय जैसे हो जाते हैं। गाजियाबाद हो या नोएडा, दोनों जगह लोगों को बदबूदार हिंडन किनारे छठ मनाने को तभी मिलेगा, जब सिंचाई विभाग गंगा नहर से कुछ पानी छोड़ देगा, लेकिन जैसे ही पर्व का समापन होता है, जिस नदी में भक्त खड़े थे, वह देखते ही देखते फिर काला-बदबूदार नाला बन जाती है। गांवों के गंदे पानी का निस्तार भी इसी में होने लगता है।

बस नाम बदलते जाएं, देश के अधिकांश नदी और तालाबों की यही व्यथा-गाथा है। समाज कोशिश करता है कि घर से दूर अपनी परम्परा का जैसे-तैसे पालन हो जाए, चाहे सोसायटी के स्विमिंग पूल में या अस्थायी कुंड में, लेकिन वह बेपरवाह रहता है कि असली छठ मैया तो उस जलनिधि की पवित्रता में ही साकार होती होंगी, जिसे पूरे साल प्यार से सहेजा गया होगा।

यह ऋतु के संक्रमण काल का पर्व है, ताकि कफ-वात और पित्त दोष को नैसर्गिक रूप से नियंत्रित किया जा सके और इसका मूल तत्व है जल, स्वच्छ जल। वास्तव में यह बरसात के बाद नदी-तालाब व अन्य जलनिधियों के तटों पर बहकर आए कूड़े को साफ करने का समय है। अपने प्रयोग में आने वाले पानी को इतना स्वच्छ करने का समय है कि घर की महिलाएं भी उसमें घंटों खड़ी रह सकें। यह दीपावली पर मनमाफिक भोजन के बाद पेट को नैसर्गिक उत्पादों से पोषित करने और विटामिन के स्रोत सूर्य के समक्ष खड़े होने का वैज्ञानिक पर्व है। दुर्भाग्य है कि अब इसकी जगह ले ली है- आधुनिक और कहीं-कहीं अपसंस्कृति वाले गीतों ने, आतिशबाजी, घाटों की दिखावटी सफाई, नेतागिरी, गंदगी, प्लास्टिक-पॉलीथीन जैसी प्रकृति-हंता वस्तुओं और बाजारवाद ने।

अस्थायी जल-कुंड या सोसायटी के स्वीमिग पुल में छठ पूजा की औपचारिकता पूरी करना असल में इस पर्व का मर्म नहीं है। लोग नैसर्गिक जल-संसाधनों तक जाएं, वहां घाट व तटों की सफाई करें, संकल्प करें कि पूरे साल इस स्थान को देव-तुल्य सहेजेंगे और फिर पूजा करें। इसके बजाय अपने घर के पास एक गड्ढे में पानी भर कर पूजा के बाद उसे गंदा, बदबूदार छोड़ देना, तो इसकी आत्मा को मारना ही है।

इतना ही नहीं, पर्व समाप्त होते ही चारों तरफ फैली पूजा सामग्री में मुंह मारते मवेशी और उसमें से कुछ अपने लिए कीमती तलाशते गरीब बच्चे, आस्था की औपचारिकता को उजागर कर देते हैं।

जलवायु परिवर्तन की मार

इस साल बिहार और कुछ अन्य राज्य तो जलवायु परिवर्तन की मार को भी छठ में महसूस करेंगे। बिहार में गंगा, कोसी, गंडक, घाघरा, कमला-बलान जैसी नदियों का जलस्तर लगातार कभी ऊपर होता है, तो कभी घट जाता है, इसके चलते न तो तट पर घाट बन पा रहे हैं और न ही दलदल के चलते वहां तक जाने के मार्ग। तभी बिहार के 25 हजार से अधिक तालाब, नहर पर घाट बनाने की तैयारी हो रही है। इसके साथ ही लगभग 350 पार्कों में स्थित फव्वारे वाले तालाब को छठ के दौरान अर्घ्य के लिए तैयार किया जा रहा है। जान लें बिहार में कोई एक लाख छह हजार तालाब, 3,400 आहर और लगभग 20,000 जगहों पर नहर का प्रवाह है। लेकिन दिल्ली, जहां कोई एक तिहाई आबादी पूर्वांचल की है। यमुना में छठ का अर्घ देने पर सियासत हो रही है। पिछले साल झाग वाले दूषित यमुना-जल में महिलाओं के सूर्योपासना के चित्रों ने दुनिया में किरकिरी करवाई थी। इस बार दिल्ली में कोई 1100 अस्थायी तालाब, घाट सुधारे या बनाए जा रहे हैं, ताकि लोग सुविधा से छठ पर्व मनाएं। यहीं एक सवाल उठता है कि इन तालाबों या कुंड को नागरिक समाज को सौंपकर इन्हें स्थायी क्यों नहीं किया जा सकता?

प्रकृति की चिंता जरूरी

हमारे पुरखों ने जब छठ जैसे पर्व की कल्पना की थी, तब निश्चित ही उन्होंने हमारी जलनिधियों को एक उपभोग की वस्तु के बनिस्पत साल भर श्रद्धा और आस्था से सहेजने के जतन के रूप में स्थापित किया होगा। काश, छठ पर्व की वैज्ञानिकता, मूल-मंत्र और आस्था के पीछे के तर्क को भलीभांति समाज तक प्रचारित-प्रसारित किया जाए। जलनिधियों की पवित्रता, स्वच्छता के संदेश को आस्था के साथ व्यावहारिक पक्षों के साथ लोक-रंग में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ों की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए, तो यह पर्व अपने आधुनिक रंग में धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है।

कितनी गंदगी, कितनी सफाई

22 जुलाई 2021 को केंद्रीय जल संसाधन मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत ने एक प्रश्न के जवाब में संसद में बताया था कि वर्ष 2013-14 में संपन्न 5वीं नवीनतम गणना के अनुसार, देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 5,16,303 जलनिधियां हैं, जिनका उपयोग लघु सिंचाई योजनाओं के लिए किया जा रहा है। इनमें से 53,396 जल निकाय पानी, गाद, लवणता, आदि विभिन्न कारणों से उपयोग में नहीं आ रहे हैं।

जल-निधियों को पुनर्जीवित करने की आरआरआर योजना के तहत, बारहवीं योजना के बाद विभिन्न राज्यों में बहाली के लिए कुल 2,228 जल संसाधनों पर अनुमानित लागत 1,914.86 करोड़ रुपये थी। मार्च, 2021 तक, इस योजना के तहत राज्यों को 469.69 करोड़ रुपये की केंद्रीय सहायता जारी की गई और इस अवधि में मात्र 1,549 जलाशयों का ही काम पूरा हो सका।

भारत सरकार के मत्स्य विभाग का कहना है कि देश में 1,91,024 किलोमीटर नदी और नहरें हैं, जबकि 10 लाख बीस हजार हेक्टेयर में जोहड़े हैं। 23 लाख 60 हजार हैक्टेयर में तालाब हैं, 35 हेक्टेयर में झीलें हैं।

ईमानदारी से देखा जाए, तो हमारे यहां कुओं और बावड़ियों की सटीक गणना हुई ही नहीं है। जाहिर है, सरकार जिस स्तर पर इन जलनिधियों की साफ-सफाई करवा रही है, आने वाले सौ सालों में भी यह काम पूरा होने से रहा। सबसे बड़ी बात, इन सभी योजनाओं का क्रियान्वयन राज्य सरकारों के हाथों में है, केंद्र केवल धन देता है।

नदियों में बढ़ता प्रदूषण

पूरे भारत में प्रदूषित नदियों की संख्या 2015 से 2018 तक 302 से बढ़कर 351 हो गई है। सन 2021 में लोकसभा को पूरे भारत में नदियों की स्थिति के बारे में पूछे जाने पर सरकार ने यह सूचना दी थी। जैविक प्रदूषण के एक संकेतक जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग (बीओडी) के संदर्भ में निगरानी परिणामों के आधार पर, सीपीसीबी द्वारा समय-समय पर प्रदूषित नदी के हिस्सों की पहचान की जाती है। सन 2009 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश में कुल दूषित नदियों की संख्या 121 पाई थी, जो अब 275 हो चुकी है। यही नहीं आठ साल पहले नदियों के कुल 150 हिस्सों में प्रदूषण पाया गया था, जो अब 302 हो गया है। बोर्ड ने 29 राज्यों व छह केंद्र शासित प्रदेशों की कुल 445 नदियों पर अध्ययन किया, जिनमें से 225 का जल बेहद खराब हालत में मिला। इन नदियों के किनारे बसे शहरों के 302 स्थानों पर सन 2009 में 38 हजार एमएलडी सीवर का गंदा पानी नदियों में गिरता था, जो कि आज बढ़कर 62 हजार एमएलडी हो गया है।

चिंता की बात है कि सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता नहीं बढ़ाई गई है। सरकारी अध्ययन में 34 नदियों में बायो कैमिकल ऑक्सीजन डिमांड यानि बीओडी की मात्रा 30 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक पाई गई है और यह उन नदियों के अस्तित्व के लिए बड़े संकट की ओर इशारा करता है। चूंकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे। अनेक जीवों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा।

कागज पर एक कानून

जानकर आश्चर्य होगा कि नदियों की मुक्ति का एक कानून गत 64 सालों से किसी लाल बस्ते में बंद है। संसद ने सन 1956 में रिवर बोर्ड एक्ट पारित किया था। इस ऐक्ट की धारा चार में प्रावधान है कि केंद्र सरकार एक से अधिक राज्यों में बहने वाली नदियों के लिए राज्यों से परामर्श कर बोर्ड बना सकती है। इन बोर्ड के पास बेहद ताकतवर कानून का प्रावधान इस एक्ट में है, जैसे कि जलापूर्ति, प्रदूषण आदि के स्वयं दिशा-निर्देश तैयार करना, नदियों के किनारे हरियाली, बेसिन निर्माण और योजनाओं के क्रियान्वयन की निगरानी आदि। नदियों के संरक्षण का इतना बड़ा कानून उपलब्ध है, लेकिन आज तक किसी भी नदी के लिए रिवर बोर्ड बनाया ही नहीं गया। संविधान के कार्यों की समीक्षा के लिए गठित वैंकटचलैया आयोग ने तो अपनी रिपोर्ट में इसे एक ‘मृत कानून’ करार दिया था। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी कई विकसित देशों का उदाहरण देते हुए इस अधिनियम को गंभीरता से लागू करने की सिफारिश की थी। यह बानगी है कि हमारा समाज अपनी नदियों के अस्तित्व के प्रति कितना लापरवाह है।

ऐसी नदियों के कोई 50 किलोमीटर इलाके में खेतों की उत्पादन क्षमता लगभग पूरी तरह समाप्त हो गई है। इलाके की अधिकांश आबादी चर्मरोग, सांस और उदर रोगों से बेहाल है। भूजल विभाग का एक सर्वे गवाह है कि नदी के किनारे हैंडपंपों से निकल रहे पानी में क्षारीयता इतनी अधिक है कि यह न इंसान के लायक है, न ही खेती के लायक। सरकार के ही पर्यावरण और प्रदूषण विभाग बीते 20 साल से चेताते आ रहे हैं, लेकिन आधुनिकता का लोभ पूरी व्यवस्था को लापरवाह बना रहा है।

समस्या हम पहचान चुके हैं, लेकिन समाधान के लिए समर्पण का अभाव

सरकार ही नहीं, केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड के आंकड़े भी गवाह हैं कि नदियों और जलस्रोतों का हाल बुरा है। सफाई के लिए हो रहे प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा बराबर हैं। सफाई का काम अपने लक्ष्य से काफी पीछे चल रहा है और प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इस गति से सौ साल में भी सफाई मुश्किल है।

2228

जलनिधियों के जीर्णोद्धार की योजना थी

1,549

ही जलनिधियों की साफ- सफाई हो पाई

सबसे ज्यादा प्रदूषित

आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेड़ी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, मध्य प्रदेश की खान, उत्तर प्रदेश की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं। हालत यह है कि देश की 27 नदियां नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं। समस्या होने लगी है कि नालों को किस तरह से नदी की श्रेणी में रखा जाए। दरअसल पिछले 50 बरसों में श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई, जिसका खमियाजा हमारे देश में सर्वाधिक नदियों ने ही उठाया है। जिन प्रांतों में मानवीय संवेदना घटी है, वहां मरती नदियों की संख्या बढ़ी है।

मरती नदियों का देश

भारत में प्रदूषित नदियों के बहाव का इलाका 12,363 किलोमीटर मापा गया है, इनमें से 1,145 किलोमीटर का क्षेत्र पहले स्तर यानि बेहद दूषित श्रेणी का है। दिल्ली में यमुना शीर्ष पर है, इसके बाद महाराष्ट्र का नंबर आता है, जहां 43 नदियां मरने की कगार पर हैं। असम में 28, मध्य प्रदेश में 21, गुजरात में 17, कर्नाटक में 15, केरल में 13, पश्चिम बंगाल में 17, उत्तर प्रदेश में 13, मणिपुर और ओडिशा में 12-12, मेघालय में दस और कश्मीर में नौ नदियां अपने अस्तित्व के लिए तड़प रही हैं। अनेक नदियों का अस्तित्व समाप्त हो चुका है और उन नदियों को बचाने के लिए कोशिशें नदारद हैं। सरकारें नदियों पर नहीं बराबर ध्यान दे रही हैं।

जलनिधियों की स्वच्छता के संदेश को आस्था के साथ व्यावहारिकता में पिरोया जाए, लोक को अपनी जड़ों की ओर लौटने को प्रेरित किया जाए, तो यह पर्व धरती का जीवन कुछ और साल बढ़ाने का कारगर उपाय हो सकता है।

सीवर शहरों का साल 2009 में नदियों में ही गिरता था।

सफाई पर खूब खर्च करने के बावजूद नतीजा सिफर

अनुमान है कि आजादी के बाद से अभी तक गंगा की सफाई के नाम पर करीब 20 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। अप्रेल-2011 में गंगा सफाई की योजना सात हजार करोड़ की बनाई गई थी। विश्व बैंक से इसके लिए कोई एक अरब डॉलर का कर्ज भी लिया गया था, पर न तो गंगा में पानी की मात्रा बढ़ी और न प्रदूषण घटा। सनद रहे, यह हाल केवल गंगा का ही नहीं है। अधिकांश नदियों को स्वच्छ करने के अभियान कागज, नारों व बजट को ठिकाने लगाने से ज्यादा नहीं रहे हैं।

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

Deepawali: Not a religious festival, it is the identity of the nation

 दीपावली : धार्मिक पर्व नहीं राष्ट्र  की अस्मिता की पहचान है

पंकज चतुर्वेदी



उत्तर वैदिक काल में शुरू हुई आकाश दीप की परंपरा को कलियुग में दीवाली के रूप में मनाया जाता है।  श्राद्ध पक्ष में भारत में अपने पुरखों को याद करने के बाद जब वे वापस अपने लोकों को लौटते थे तो उनके मार्ग को आलोकित करने के लिए लंबे-लंबे बाँसों पर कंदील जलाने की परंपरा बेहद प्राचीन रही है। फिर द्वापर युग में राजा राम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने अपने-अपने घर के दरवाजों पर दीप जला कर उनका स्वागत किया। हो सकता है कि किसी सैनिक परिवार ने कुछ आग्नेय अस्त्र


-शस्त्र चलाए हों, लेकिन दीपावली पर आतिशबाजी चलाने की परंपरा के बहुत पुराना होने के कोई प्रमाण मिलते नहीं हैं। हालांकि अब तो उच्चतम न्यायालय ने इस साल भी कड़ा संदेश दे दिया कि दूसरों के जीवन की कीमत पर आतिशबाजी  दागने की छूट नहीं दी जा सकती है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “हम जश्न मनाने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन हम दूसरों के जीवन की कीमत पर जश्न नहीं मना सकते हैं। पटाखे फोड़कर, शोर और प्रदूषण करके उत्सव मनाया जाए? हम बिना शोर-शराबे के भी जश्न मना सकते हैं, ”जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने  सांसद मनोज तिवारी की याचिका पर स्पष्टकी दिया कि अकेले दीवाली ही नहीं, छट, गुरूपर्व और नये साल पर भी आतिशबाजी  पर पूरी पाबंदी रहेगी, यहां तक कि  ग्रीन आतिशबाजी  भी नहीं। विदित हो अदालत के जरिये आतिशबाजी  पर रोक की कोशिशें कई साल से चल रही हैं, अदालतें कड़े आदेश भी देती हैं, कुछ लोग खुद ब खुद इससे प्रभावित हो कर पटाकों को तिला जली भी दे रहे हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो कुतर्क और अवैज्ञानिक तरीके से अदालत की अवहेलना करते हैं।  यह कड़वा सच है कि पुलिस या प्रशासन के पास इतनी मशीनरी  है नहीं कि हर एक घर पर निगाह रख सके। असल में हमारा प्रशासन  ही नहीं ंचाहता कि अदालत के आदेशों से वायुमंडल शुद्ध रखने की कोशिश  सफल हो ।

विभिन्न धार्मिक ग्रंथों से यह स्पष्ट  हो चुका है कि बारूद के पटाखे चलाना कभी भी इस धर्म  या आस्था की परंपरा का हिस्सा रहा नहीं है।लेकिन यह भी जानना जरूरी है कि समाज व संस्कृति का संचालन कानून या अदालतों से नहीं बल्कि लोक कल्याण की व्यापक भावना से होता रहा है और यही इसके सतत पालन व अक्षुण्ण रहे का कारक भी है। दीपावली की असल भावना को ले कर कई मान्यताएं हैं और कई धार्मिक आख्यान भी। यदि सभी का अध्ययन करें तो उनकी मूल भावना भारतीय समाज का पर्व-प्रेम, उल्लास और सहअस्तित्व की अनिवार्यता है। 


विडंबना है कि आज की दीपावली दिखावे, परपीड़न, परंपराओं की मूल भावनाओं के हनन और भविष्य के लिए खतरा खड़ा करने की संवेदनशील औजार बन गई हे। अभी दीपावली से दस दिन पहले ही देश की राजधानी दिल्ली की आवोहवा इतनी जहरीली हो गई है कि हजारों ऐसे लेग जो सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं, उन्हें मजबूरी में शहर छोड़कर जाना पड़ रहा है, हालांकि अभी आतिशबाजी शुरू नहीं हुई है। अभी तो बदलते मौसम में भारी होती हवा, वाहनों के प्रदूषण, धूल व कचरे को जलाने से उत्पन्न धुंए के घातक परिणाम ही सामने आए हैं।  भारत का लोक गर्मियों में खुले में,छत पर सोता था,। किसान की फसल तैयार होती थी तो वह खेत में होता था। दीपावली ठंड के दिनों की शुरूआत होता हे। यानी लोक को अब अपने घर के भीतर सोना शुरू करना होता था। पहले बिजली-रोशनी तो थी नहीं। घरों में सांप-बिच्छू या अन्य कीट-मकोड़े होना आम बात थी। सो दीपावली के  पहले घरें की सफई की जाती थी व घर के कूड़े को दूर ले जा कर जलाया जाता था। उस काल में घर के कूड़े में काष्ठ, कपड़ा या पुराना अनाज ही हेता था। जबकि आज के घर कागज, प्लास्टिक, धातु व और ना जाने कितने किस्म के जहरीले पदार्थों के कबाड़े से भरे होते हैं। दीवारों पर लगाया गया इनेमल-पैंट भी रसायन ही हेता है। इसकी गर्द हवा को जबरदस्त तरीके से दूषित करती हे। सनद रहे कि दीपावली से पहले शहर की हवा विषैली होने के लिए दिल्ली का उदाहरण तो बानगी है, ठीक यही हालात देश के सभी महानगरों, से ले कर कस्बों तक के हैं।


दुखद है कि हम साल में एक दिन बिजली बंद कर ‘पृथ्वी दिवस’ मानते हैं व उस दौरान धरती में घुलने से बचाए गए कार्बन की मात्रा का कई सौ गुणा महज दीपावली के चंद घंटों में प्रकृति में जोड़ देते हैं। हम जितनी बिजली बेवजह फूंकते हैं, उसके उत्पादन में प्राकृतिक ईंधन, तथा उसे इस्तेमाल से निकली उर्जा उतना ही कार्बन प्रकृति में उड़ेल देता हे। कार्बन की बढती मात्रा के कारण जलवायु चक्र परिवर्तनधरती का तापमान बढना जैसी कई बड़ी दिक्कतें समाने आ रही हैं। काश हम दीपावली पर बिजली के बनिस्पत दीयों को ही प्राथमिकता दे। इससे कई लोगों को रोजगार मिलता है, प्रदूषण कम होता है और पर्व की मूल भावना जीवंत रहती है।



दीपावली का पर्व बरसात की समाप्ति और ठंड के प्रारंभ के संक्रमण काल में आता है। यह पर्व घर पर नई फसल आने का है।  चूंकि बरसात के चार महीने घरों में सीलन, गंदगी और खेतों में  खर-पतवार का अंबार हो जाता है। आने वाले महीनों में दिन छोटे व रातें लंबी या सूर्य का तप कम होना तय होता है। ठंड से पहले बारिश और गर्मी में घर का रंग-रोगन  फीका पड़ जाता है। गर्मी के बाद का बरसात के मौसम में ही कफ-वात-पित्त के कारण सर्वाधिक बीमारियां पनपती हैं । दीपावली से पहले घर के हर कोने का सफाई, पुताई आदि से बीते पांच महीने के गंदगी- विकार से निजात दिलवा देता है।  हर जगह रोषनी करने का भी यही कारण है कि घर के वे कोने जो कई महीनों से उपेक्षित पड़े थे, वहां रौशनी  की किरण पहुंचे व उससे वहां छिपे कीट-कीड़े भाग जाएं। फिर घर में नई फसल भी आनी है सो उसके लिए कूड़ा-कबाड़ा साफ हो और वह स्थान निरापद बने जहां फसल को रखना है। इसी दौरान धनवंतरी की पूजा यानि औशधि का आव्हान बैल-हल की पूजा यानि खेती-किसानी की तैयारी पौष्टिक  भोजन यानि शरीर को मेहनत के लिए तैयार करना-- कुल मिला कर दीपावली का पर्व एक सामाजिक,सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक और आर्थिक महत्व का पर्व है। यह जान लें कि दीपावली पर परंपराओं के नाम पर कुछ घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाईयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है। इसकी मूल आत्मा सभी के कल्याण की है और आतिशबाजी  का प्रयोग  समाज, प्रकृति और परिवेश  को नुकसान पहुंचाने वाला है।

दुनियाभर में दीपावली भारत का पर्व है, ना कि किसी जाति-धर्म का,। देष की अस्मिता यहां के लोक, पर्यावरण और आस्था में निमित्त है। जरूरत है कि आम लोग दीपावली की मूल भावना को समझें और आडंबररहित, सर्वकल्याणक और अपनी आय में समाज के अंतिम छोर में खड़े व्यक्ति की हिस्सेदारी की मूल परंपराओं की तरफ लौटें।

 

 

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

Find a solution to the compulsion of the farmer to burn the stubble

 पराली जलाने में किसान की मजबूरी का हल खोजें

पंकज चतुर्वेदी



पिछले साल कई करोड़ के विज्ञापन चले जिसमें किसी ऐसे घोल की चर्चा थी , जिसके डालते ही पराली गायब हो जाती है व उसे जलाना नहीं पड़ता लेकिन जैसे ही मौसम का मिजाज ठंडा हुआ जब दिल्ली’एनसीआर के पचास हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को स्मॉग ने ढंक लिया था । इस बार भी आश्विन मास विदा हुआ और कार्तिक लगा कि हरियाणा- पंजाब से  पराली जलाने के समाचार आने लगे. चूँकि इस बार बरसात देर तक रही और उसने खेती-किसानी को नुक्सान भी पहुंचाया है , इससे हवा की गुणवत्ता के आंकड़े ठीक दिख रहे हाँ लेकिन जान लें इस बार पराली से धुएं का संकट अधिक गहरा होगा - एक तो मौसम की अनियमितता और ऊपर से बीते चुनाव में पराली जलाने वाले किसानों पर आपराधिक मुकदमे को वापिस लेना राजनितिक वादा बन जाना. जब रेवाड़ी जिले के धारूहेडा से ले कर गाजियाबाद के मुरादनगर तक का वायु गुणवत्ता सूचकांक साढे चार सौ से अधिक था तो मामला सुप्रीम कोर्ट में गया व फिर सारा ठीकारा पराली पर थोप दिया गया। हालांकि इस बार अदालत इससे असहमत थी कि  करोड़ों लोगों की सांस घोटने वाले प्रदूशण का कारण महज पराली जलाना है। चुनावी साल और किसान आंदोलन के चलते पंजाब में वैसे ही सख्ती कम है और सामने दिख रहा है कि इस साल हर बार से ज्यादा पराली जल रही है। नासा का आकलन है कि 13 नवंबर तक अकेले पंजाब में पराली जलाने की 57 हजार घटनाएं हुई हैं।

विदित हो केंद्र सरकार ने वर्ष  2018 से 2020-21 के दौरान पंजाब, हरियाणा, उप्र व दिल्ली को पराली समस्या से निबटने के लिए कुल 1726.67 करेाड़ रूपए जारी किए थे जिसका सर्वाािक हिस्सा पंजाब को 793.18 करोड दिया गया। विडंबना है कि  इसी राज्य में सन 2021 में पराली जलाने की 71,304 घटनाएँ दर्ज की गईं , हालाँकि यह पिछले साल के मुकाबले कम थीं लेकिन हवा में जहर भरने के लिए पर्याप्त . विदित हो पंजाब में सन 2020 के दौरान पराली जलाने की 76590 घटनाएं सामने आई, जबकि बीते साल 2019 में ऐसी 52991 घटनांए हुई थीं। हरियाणा का आंकडा भी कुछ ऐसा ही है . जाहिर है कि आर्थिक मदद , रासायनिक घोल , मशीनों से परली के निबटान जैसे प्रयोग जितने सरल और लुभावने लग रहे हैं, किसान को वे आकर्षित नहीं कर रहे या उनके लिए लाभकारी नहीं हैं .

इस बार तो बारिश के दो लंबे दौर – सितंबर के अंत और अक्टूबर में आये उर इससे पंजाब और हरियाणा के कुछ हिस्सों में धान की कटाई में एक से दो सप्ताह की देरी हुई है,. यह इशारा कर रहा है कि अगली फसल के लिए अपने खेत को तैयार करने के लिए किसान समय के विपरीत तेजी से भाग रहा है, वह मशीन से अवशेष के निबटान के तरीके में लगने वाले समय के लिए राजी नहीं और वह अवशेष को आग लगाने को ही सबसे  सरल तरीका मान रहा है . कंसोर्टियम फॉर रिसर्च ऑन एग्रोइकोसिस्टम मॉनिटरिंग एंड मॉडलिंग फ्रॉम स्पेस के आंकड़ों के मुताबिक, अवशेष जलाने की नौ घटनाएं 8 अक्टूबर को, तीन 9 अक्टूबर को और चार 10 अक्टूबर को हुईं। पंजाब और हरियाणा में बादल छंटने के कारण 11 अक्टूबर को खेत में आग लगने की संख्या बढ़कर 45 और 12 अक्टूबर को 104 हो गई. पराली जलाने की खबर उत्तर प्रदेश भी आने लगी हैं .

 

किसान का पक्ष है कि पराली को मशीन  से निबटाने पर प्रति एकड़ कम से कम पांच हजार का खर्च आता है। फिर अगली फसल के लिए इतना समय होता नहीं कि गीली पराली को खेत में पड़े रहने दें। विदित हो हरियाणा-पंजाब में कानून है कि धान की बुवाई 10 जून से पहले नहीं की जा सकती है। इसके पीछे धारणा है कि भूजल का अपव्यय रोकने के लिए  मानसून आने से पहले धान ना बोया जाए क्योंकि धान की बुवाई के लिए खेत में पानी भरना होता है। चूंकि इसे तैयार होने में लगे 140 दिन , फिर उसे काटने के बाद गेंहू की फसल लगाने के लिए किसान के पास इतना समय होता ही नहीं है कि वह फसल अवषेश का निबटान सरकार के कानून के मुताबिक करे। जब तक हरियाणा-पंजाब में धान की फसल की रकवा कम नहीं होता, या फिर खेतों में बरसात का पानी सहेजने के कुंडं नहीं बनते और उस जल से धान की बुवाई 15 मई से करने की अनुमति नहीं मिलती ; पराली के संकट से निजात मिलेगा नहीं। इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ट्रापिकल मेट्रोलोजी, उत्कल यूनिवर्सिटी, नेषनल एटमोस्फिियर रिसर्च लेब व सफर के वैज्ञानिकों के संयुक्त समूह द्वारा जारी रिपोर्ट बताती है कि यदि खरीफ की बुवाई एक महीने पहले कर ली जाए जो राजधानी को पराली के धुए से बचाया जा सकता है। अध्ययन कहता है कि यदि एक महीने पहले किसान पराली जलाते भी हैं तो हवाएं तेज चलने के कारण हवा-घुटन के हालता नहीं होतेव हवा के वेग में यह धुआं बह जाता है। यदि पराली का जलना अक्तूबर-नवंबर के स्थान पर सितंबर में हो तो स्मॉग बनेगा ही नहीं।

किसानों का एक बड़ा वर्ग पराली निबटान की मशीनों पर सरकार की सबसिडी योजना को धोखा मानते हैं . उनका कहना है कि पराली को नष्ट  करने की मशीन  बाजार में 75 हजार से एक लाख में उपलब्ध है, यदि सरकार से सबसिड़ी लो तो वह मशीन  डेढ से दो लाख की मिलती है। जाहिर है कि सबसिडी उनके लिए बेमानी है। उसके बाद भी मजदूरों की जरूरत होती ही है। पंजाब और हरियाणा दोनों ही सरकारों ने पिछले कुछ सालों में पराली को जलाने से रोकने के लिए सीएचसी यानी कस्टम हाइरिंग केंद्र भी खोले हैं. आसान भाषा में सीएचसी मशीन बैंक है, जो किसानों को उचित दामों पर मशीनें किराए पर देती हैं।

किसान यहां से मशीन   इस लिए नहीं लेता क्योंकि उसका खर्चा इन मशीनों को किराए पर प्रति एकड़ 5,800 से 6,000 रूपए तक बढ़ जाता है। जब सरकार पराली जलाने पर 2,500 रुपए का जुर्माना लगाती है तो फिर किसान 6000 रूपए क्यों खर्च करेगा? यही नहीं इन मशीनों को चलाने के लिए कम से कम 70-75 हार्सपावर के ट्रैक्टर की जरूरत होती है, जिसकी कीमत लगभग 10 लाख रूपए है, उस पर भी डीजल का खर्च अलग से करना पड़ता है। जाहिर है कि किसान को पराली जला कर जुर्माना देना ज्यादा सस्ता व सरल लगता है। उधर  कुछ किसानों का कहना है कि सरकार ने पिछले साल पराली न जलाने पर मुआवजा देने का वादा किया था लेकिन हम अब तक पैसों का इंतजार कर रहे हैं।

दुर्भाग्य है कि पराली जलाना रोकने की अभी तक जो भी योजनाएं बनीं, वे मशीनी  तो हैं लेकिन मानवीय नहीं, वे कागजों -विज्ञापनो पर तो लुभावनी हैं लेकिन खेत में व्याहवारिक नहीं।  जरूरत है कि माईक्रो लेबल पर किसानों के साथ मिल कर  उनकी व्याहवारिक दिक्कतों को समझतें हुए इसके निराकरण के स्थानीय उपाय तलाशें , जिसमें दस दिन कम समय में तैयार होने वाली धान की नस्ल को प्रोत्साहित करना, धान के रकवे को कम करना , केवल  डार्क ज़ोन से बाहर के इलाकों में धान बुवाई की अनुमति आदि शामिल है .मशीने कभी भी र्प्यावरण का विकल्प नहीं होतीं, इसके लिए स्वनिंयंत्रण ही एकमात्र निदान होता है।

#parali

#Air pollution 

 

 

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2022

Falling mountain deteriorating natural balance

                                       ढहते पहाड़  से बिगड़ता प्राकृतिक संतुलन

पंकज चतुर्वेदी


भारत में बरसात  एक नियामत होती है, मानसून  हमारी अर्थ और सामाजिक व्यवस्था का आधार है,  लेकिन जलवायु परिवर्तन के असर के गहराते ही पहाड़ों पर पावस एक त्रासदी के रूप में कहर बरपा रहा है. सन 2015 से जुलाई 22 के बीच देश में पहाड़ों पर भूस्खलन की 2239 घटनाएँ  दर्ज की गईं जिसमें सबसे ज्यादा  पश्चिन बंगाल के दार्जलिंग  क्षेत्र में 376 हैं . तमिलनाडु में 196, कर्णाटक में 194 और जम्मू कश्मीर में 184 ऐसे बड़ी घटनाएँ हुईं जिनमें पहाड़  लुढ़क गया , देश के कोई 13 फ़ीसदी क्षेत्र, जो कि 4.3 लाख वर्ग किलोमीटर है , को अब भूस्खलन – संभावित माना गया है. बीते सात साल के आंकड़े बताते हैं राज्य में भूस्खलन की घटनाओं में 10 गुना से ज्यादा की बढौतरी हुई है. वैज्ञानिक शोध कहते हैं कि बढ़ते भूस्खलनों के लिए जलवायु परिवर्तन के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में बदल रही बरसात की प्रकृति और कथित विकास या मानवीय गतिविधियों के चलते  पर्वतों के आकार और उनके ढलान में हो रहे परिवर्तन इसकी प्रमुख वजह है.

 प्रकृति में जिस पहाड़ के निर्माण में हजारों-हजार साल लगते हैं, हमारा समाज उसे उन निर्माणों की सामग्री जुटाने के नाम पर तोड़ देता है जो कि बमुश्किल  सौ साल चलते हैं. पहाड़ केवल पत्थर के ढेर नहीं होते, वे इलाके के जंगल, जल और वायु की दशा  और दिशा  तय करने के साध्य होते हैं. जहां सरकार पहाड़ के प्रति बेपरवाह है तो पहाड़ की नाराजी भी समय-समय पर सामने आ रही है. यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है. वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है. ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है. यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘‘पहाड़’’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना.  विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया तो गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया.


भारत में भूस्खलन के लिहाज से सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्र में  अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, पश्चिमी घाट, दार्जिलिंग, सिक्किम और उत्तराखंड आते हैं . पूर्वोत्तर  राज्य , पूर्वी घाट, कोंकण पर्वतमाला , नीलगिरी के पहाड़ को उच्च संवेदनशील इलाकों में गिना जाता है .  जबकि हिमालय के उस पार के इलाके ,हिमाचल प्रदेश के लाहौल  स्पीति, गुजरात से दिल्ली तक की अरावली पर्वत, दक्कन का पठार, छत्तीसगढ़, झारखंड और  ओडिशा में भू स्खलन की संभावनाएं तो हैं लेकिन इन्हें कम संवेदनशील श्रेणी में रखा गया है . यदि राज्य के अनुसार देखें तो अरुणाचल प्रदेश का 71, 228 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में  भूस्खलन की प्रबल संभावना है . हिमाचल प्रदेश में 42108 वर्ग किमी  ,   लद्दाख 40065 वर्ग किमी , उत्तराखंड  39009,  कर्णाटक  31323 और असम में  24114  वर्ग किमी इलाका भयंकर भूस्खलन का शिकार है .


भूस्खलन अर्थात ऊँचाई से कीचड़, मलबा और चट्टानों का तेजी से नीचे आना . इससे जनजीवन ठहर सा जाता है .सडक और रेलवे लाइने बाधित होती हैं .  उत्तराखंड में तो बरसात के मौसम में  चीन सीमा तक जाने वाले रास्तों . बदरीनाथ  नेशनल हाई वे पर लगभग हर हफ्ते पहाड़ गिरते हैं . अचानक मलवा- पत्थर गिरने से सद्क्के अलावा  बहुत सी सार्वजानिक संपत्ति को नुक्सान होता है और उसके पुनर्निर्माण में भारी धन व्यय होता है .


ढलानों से नीचे खिसकने वाला मलबा नदी- नाले को पूरी तरह या आंशिक रूप से अवरुद्ध कर देता है उर ऐसे हालात में  बड़ी दुर्घटनाएं होती हैं , इसी साल मणिपुर के नोनी में  रेलवे ट्रेक डालने के काम में हुई बड़ी जनहानि हो या पिछले साल  उत्तराखंड में रैनी का हादसा, किसी जलधारा के नैसर्गिक भाव के अवरुद्ध होने से बनी अस्थाई झील और फिर उसके फटने से हुए जल-बम ने जानोमाल के बड़े नुक्सान किये हैं . जल धरा अवरुद्ध होने से उसके जल पर निर्भर आबादी के सामने  स्वच्छ जल का मिलना भी  मुश्किल हो जाता है. पहाड़  के क्षरण से बड़ी मात्रा में मालवा गिरता है जो कि  नदियों को उथला बना देता है, ऐसे में यदि बरसात भी हो रही हो तो बाढ़ का खतरा भी बढ़ जाता है।


भूस्खलन का सबसे बड़ा कारण तो धरती से हरियाली की छतरी का कम होना है . सरकार ने जिस अरुणाचल प्रदेश को भूस्खलन के लिए सर्वाधिक  संवेदनशील माना है वहां सन 2021 में 257500 वर्ग किलोमीटर में वनों की कटाई दर्ज की गई , पूर्वोत्तर राज्य तो  पहाड़ गिरने से अत्यधिक प्रभावित है और यहाँ  वनों की कटाई सर्वाधिक है . हिमालय क्षेत्र पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण भूस्खलन की चपेट में आ गया है.

पेड़ों की अनुपस्थिति में मिट्टी और चट्टानों को बाँध कर रखने वाले प्राकृतिक गुण कम हो जाते हैं। बगैर पेड़ की धरती पर बरसात की बूँदें गोली की तेजी से चोट करती हैं जिससे मिट्टी की उपरी परत कमजोर हो जाती है. यहां तक ​​कि जियोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया ने भी पुष्टि की  है कि अंधाधुंध वनों की कटाई के चलते पश्चिमी महाराष्ट्र और कोंकण क्षेत्र में भूस्खलन में इजाफा हुआ है . उत्तर पूर्व के राज्यों में पहाड़ ढहने का एक कारण झूम खेती भी है जिसके लिए जंगलों को जलाने से धरती की उपरी परत  को गंभीर नुक्सान होता है , जब तेज बरसात होती है तो  जमीन का क्षरण होता है। तभी यह इलाके भूस्खलन के प्रति अधिक संवेदनशील माने गए हैं .


सनद रहे हिमालय पहाड़ ना केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय उठापटक चलती रहती हैं. यहां पेड़ भूमि को बांध कर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं जो कि कटाव व पहाड़ ढहने से रोकने का एकमात्र उपाय है. जानना जरूरी है कि हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है और इसी से प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है जिससे क्रिस्टल छोटा हो जाता है और चट्टानों का विरुपण होता है. ये ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिए सामने आती है.  जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड होती है तो दिल्ली  तक भूकंप के खतरे तो बढ़ते ही हैं यमुना में कम पानी का संकट भी खड़ा होता है.


 

जलवायु परिवर्तन के चलते भारी और अनियमित बरसात  पहाड़ों के गिरने का बड़ा कारण हैं . उत्तराखंड में भूस्खलन की तीन चौथाई  घटनाएँ  बरसात के कारण हो रही हैं . कुमाऊं हिमालयी क्षेत्र का 40% से अधिक भूकंप के कारण भूस्खलन की चपेट में है. दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय  के पर्यावरणीय छेड़छाड़  कई बार अपना रौद्र रूप दिखा चुका है . पाहदों की नाराजी का बड़ा  कारण खनन है .खनन या उत्खनन जैसी इंसानी मनमानी हरियाली-आवरण और मिट्टी उपरी परत (टॉप साइल ) को नुक्सान पहुंचा रही है . इससे धरती की भूजल ग्रहण  क्षमता कम हो जाती है, फलस्वरूप  बाढ़ का खतरा भी बढ़ जाता है.  इसलिए, भूकंप और भारी वर्षा के दौरान कमजोर हो गई धरती के टुकड़े गिरने लगते हैं .


पहाड़ को सबसे बड़ा खतरा बढ़ते शहरीकरण और फिर वहां जन सुविधाएँ बढाने के लिए  किये जा रहे निर्माण कार्यों से हैं . धर्मशाला हो या नैनीताल , सभी जगह तेजी से कंक्रीट बढ़ रहा है और वहां  फाड़ से पत्थर –मलवा गिरना साल दर साल बढ़ता जा रहा है .

यदि पहाड़ से  गिरने वाली आफत से निजात पाना है तो पहाड़ों पर हरियाली को बढ़ाना होगा . नदी- सरिता के किनारे जल ग्रहण क्षेत्र को जितना  उन्मुक्त रखेंगे , जल जमाव नहीं होगा और इससे मिटटी कमजोर नहीं होगी . पहाड़ों पर  मवेशी की अत्यधिक चराई भी  कम करना होगा .

 

sewer convert in death hole

                                                मौत घर  बनते सीवर
                             पंकज चतुर्वेदी




छह अक्तूबर को  जिस समय दिल्ली हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश श्री सतीश  चंद्र की पीठ यह कह रही थी कि दुर्भाग्य है कि आजादी के 75 साल बाद भी मैला हाथ से ढोने की प्रथा लागू है व इस संबंध में कानून की परवाह नहीं की जा रही है  और दिल्ली विकास प्राधिकरण को निर्देष दिए थे कि बीते 09 सितंबर को मुंडका में सीवर सफाई के दौरान मारे गए दो  श्रमिकों के परिवार को तत्काल दस-दस लाख रूपए मुआवजा दिया जाए, ठीक उसी समय दिल्ली से सटे  फरीदाबाद के एक अस्पताल के सीवर सफाई में चार लोगों के मौत की खबर आ रही थी।  यह सरकारी आंकड़ा भयावह है कि गत बीस सालों  में देश में सीवर सफाई के दौरान 989 लोग जान गंवा चुके हैं । राष्ट्रीय  सफाई कर्मचारी आयोग  की रिपोर्ट कहती है कि सन 1993 से फरवरी -2022 तक देश में सीवर सफाई के दौरान सर्वाधिक लोग  तमिलनाडु में 218 मारे गए। उसके बाद गुजरात में 153 और बहुत छोट से राज्य दिल्ली में 97 मौत दर्ज की गई। उप्र में 107, हरियाणा में 84 और कर्नाटक में 86 लोगों के लिए सीवर मौतघर बन गया।


ऐसी हर मौत का कारण सीवर की जहरीली गैस बताया जाता है । हर बार कहा जाता है कि यह लापरवाही का मामला है। पुलिस ठेकेदार के खिलाफ मामला दर्ज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। यही नहीं अब नागरिक भी अपने घर के सैप्टिक टैंक की सफाई के लिए अनियोजित क्षेत्र से मजदूरों को बुला लेते हैं और यदि उनके साथ कोई दुर्घटना होती है तो ना तो उनके आश्रितों को कोई मुआवजा मिलता है और ना ही कोताही करने वालों को कोई समझाईश । शायद यह पुलिस को भी नहीं मालूम है कि सीवर सफाई का ठेका देना हाईकोर्ट के आदेश के विपरीत है। समाज के जिम्मेदार लोगों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि नरक-कुंड की सफाई के लिए बगैर तकनीकी ज्ञान व उपकरणों के निरीह मजदूरों को सीवर में उतारना अमानवीय है।

यह विडंबना है कि सरकार व सफाई कर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढ़ोन की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने के नारों से आगे इस तरह से हो रही मौतों पर ध्यान ही नहीं देता है। राश्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मुंबई हाईकोर्ट ने सात साल पहले सीवर की सफाई के लिए दिशा- निर्देश  जारी किए थे, जिनकी परवाह और जानकारी किसी को नहीं है। सरकार ने भी सन 2008 में एक अध्यादेश ला कर गहरे में सफाई का काम करने वाले मजदूरों को सुरक्षा उपकरण प्रदान करने की अनिवार्यता की बात कही थी। नरक कुंड की सफाई का जोखिम उठाने वाले लेगों की सुरक्षा-व्यवस्था के कई कानून हैं और मानव अधिकार आयोग के निर्देष भी । लेकिन इनके पालन की जिम्मेदारी किसी की नहीं। कोर्ट के निर्देषों के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजेंसी के पास सीवर लाईन के नक्शे, उसकी गहराई से संबंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई का दैनिक रिकार्ड, काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य की जांच, आवश्यक सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना, काम में लगे कर्मचारियों का नियमित प्रशिक्षण , सीवर में गिरने वाले कचरे की नियमित जांच कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं गिर रहे हैं; जैसे निर्देशों का पालन होता कहीं नहीं दिखता ळें सुप्रीम कोर्ट ने तो ऐसी दुर्घटनाओं में मरने वालों को 10 लाख मुआवजे का भी आदेश दिया था, लेकिन कागजों पर ऐसे मजदूरों का कोई रिकार्ड होता नहीं, सो मुआवजे की प्रक्रिया ही षुरू नहीं हो सकती।

भूमिगत सीवरों ने भले ही शहरी जीवन में कुछ सहूलियतें दी हों, लेकिन इसकी सफाई करने वालों के जीवन में इस अंधेरे नाले में और भी अंधेरा कर दिया है । अनुमान है कि हर साल देश भर के सीवरों में औसतन एक हजार लोग दम घुटने से मरते हैं । जो दम घुटने से बच जाते हैं उनका जीवन सीवर की विषैली  गंदगी के कारण नरक से भी बदतर हो जाता है । देश में दो लाख से अधिक लोग जाम हो गए सीवरों को खोलने , मेनहोल में घुस कर वहां जमा हो गई गाद, पत्थर को हटाने के काम में लगे हैं । कई-कई महीनों से बंद पड़े इन गहरे नरक कुंडों में कार्बन मोनो आक्साईड, हाईड्रोजन सल्फाईड, मीथेन जैसी दमघोटू गैसें होती हैं । मोटा अनुमान है कि ऐसे कार्य करते समय हर साल बीस हजार से ज्यादा लोग मारे जाते हैं।

यह एक शर्मनाक पहलू है कि यह जानते हुए भी कि भीतर जानलेवा गैसें और रसायन हैं, एक इंसान दूसरे इंसान को बगैर किसी बचाव या सुरक्षा-साधनों के भीतर ढकेल देता है । सनद रहे कि महानगरों के सीवरों में  महज घरेलू निस्तार ही नहीं होता है, उसमें ढ़ेर सारे कारखानों की गंदगी भी होती है । और आज घर भी विभिन्न रसायनों के प्रयोग का स्थल बन चुके हैं । इस पानी में ग्रीस-चिकनाई, कई किस्म के क्लोराईड व सल्फेट, पारा, सीसा के यौगिक, अमोनिया गैस और ना जाने क्या-क्या होता है । सीवरेज के पानी के संपर्क में आने पर सफाईकर्मी  के षरीर पर छाले या घाव पड़ना आम बात है । नाईट्रेट और नाईट्राईड के कारण दमा और फैंफड़े के संक्रमण होने की प्रबल संभावना होती है । सीवर में मिलने वाले क्रोमियम से शरीर पर घाव होने, नाक की झिल्ली फटने और फैंफड़े का कैंसर होने के आसार होते हैं । भीतर का अधिक तापमान इन घातक प्रभावों को कई गुना बढ़ा देता है । यह वे स्वयं जानते हैं कि सीवर की सफाई करने वाला 10-12 साल से अधिक काम नहीं कर पाता है, क्योंकि उनका शरीर काम करने लायक ही नहीं रह जाता है । ऐसी बदबू ,गंदगी और रोजगार की अनिश्चितता में जीने वाले इन लोगों का शराब व अन्य नशे  की गिरफ्त में आना लाजिमी ही है और नशे  की यह लत उन्हें कई गम्भीर बीमारियों का शिकार बना देती है । 

आमतौर पर ये लोग मेनहोल में उतरने से पहले ही षराब चढ़ा लेते हैं, क्योंकि नशे  के सरूर में वे भूल पाते हैं कि काम करते समय उन्हें किन-किन गंदगियों से गुजरना है । गौरतलब है कि शराब के बाद शरीर में आक्सीजन की कमी हो जाती है, फिर गहरे सीवरों में तो यह प्राण वायु होती ही नहीं है । तभी सीवर में उतरते ही इनका दम घुटने लगता है । यही नहीं सीवर के काम में लगे लोगों को सामाजिक उपेक्षा का भी सामना करना होता है ।, इन लोगों के यहां रोटी-बेटी का रिश्ताकरने में उनके ही समाज वाले परहेज करते हैं । ये श्रमिक आमतौर पर सांस की बीमारियों, खांसी व सीने में दर्द ,डरमैटाइसिस, एक्जिमा के साथ-साथ कान बहने व कान में संक्रमण, आंखों में जलन व कम दिखने की बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं।

वैसे यह सभी सरकारी दिशा- निर्देशों  में दर्ज हैं कि सीवर सफाई करने वालों को गैस -टेस्टर(विषैली  गैस की जांच का उपकरण), गंदी हवा को बाहर फैंकने के लिए ब्लोअर, टार्च, दस्ताने, चष्मा और कान को ढंकने का कैप, हैलमेट मुहैया करवाना आवष्यक है । मुंबई हाईकोर्ट का निर्देश  था कि सीवर सफाई का काम ठेकेदारों के माध्यम से कतई नहीं करवाना चाहिए। यहां जान लेना होगा कि अब दिल्ली व अन्य महानगरों में सीवर सफाई का अधिकांश काम ठेकेदारों द्वारा करवाया जला रहा है, जिनके यहां दैनिक वेतन पर कर्मचारी रखे जाते हैं । सफाई का काम करने के बाद उन्हें पीने का स्वच्छ पानी, नहाने के लिए साबुन व पानी तथा स्थान उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी भी कार्यकारी एजेंसी की है । सुप्रीम कोर्ट से ले कर मानवाधिकार आयोग भी इस बारे में कड़े आदेश जारी कर चुका है । इसके बावजूद ये उपकरण और सुविधाएं गायब है ।

 

 

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

Bru-Rehabilitation seems to be hanging in the balance

अधर में लटकता दिख रहा है ब्रू- पुनर्वास

पंकज चतुर्वेदी




पिछले साल सरकार के प्रयासों से अपने लिए जमीन के एक टुकड़े की आस के लिए आशान्वित अपने ही देश में तीन दशक से शरणार्थी “ब्रू” आदिवासियों के लिए त्रिपुरा में स्थानीय मिज़ो और बंगाली समुदाय के कारण संकट के नए बादल छाते दिख रहे हैं . अप्रैल 21 में त्रिपुरा सरकार ने संकल्प लिया था कि अगस्त 22 तक 37 हज़ार रियांग अर्थात ब्रू आदिवासियों का पुनर्वास कर दिया जायेगा. लेकिन अन्य समुदाय के प्रतिरोध, पुनर्वास के लिए निर्धारित स्थान और मूलभूत सुविधाओं जैसे कई अन्य मुद्दों के चलते यह काम अधुरा है , जान लें दिसम्बर 2020 में ब्रू आदिवासियों को बसाने को ले कर हिंसा हुई थी और उसमें दो लोग मारे भी गए थे . इस बार जे एम् सी अर्थात संयुक्त मोर्चा कमिटी , जिसमें नागरिक सुरक्षा मंच (एन एस एम् )सहित कई संगठन शामिल हैं , ब्रू लोगों के अनियोजित , उनके जीवन यापन , आर्थिक स्थिति आदि मुद्दों के साथ सड़कों पर हैं .


एन एस एम् का कहना है कि सरकार पहले से ही कंचनपुर उपखंड के गाँवों में 540 ब्रू निर्वासितों को बसा चुकी है और अब  किये गए समझौते के विपरीत 1250 और लोगों को बसाना चाहती है . चूँकि यह एक छोटा सा इलाका है और यहाँ पहले से मिज़ो और बंगाली जैसे  देशज समाज के लोग सदियों से सामंजस्य और सौहार्द के साथ रहते हैं . ऐसे में यहाँ  ब्रू लोगों को  बड़ी संख्या में बसाने से जनसंख्य का आंकड़ा गड़बड़ाएगा और नए तरीके के तनाव उभर सकते हैं . एन एस एम्  की मांग इन शरणार्थियों को अन्य किसी इलाके में बसाने की है .


जान लें  ब्रू आदिवासियों के कोई 7364 परिवार जिनमें 38072 सदस्य हैं पहले से ही कंचन पुर  और उसके करीबी पानिसागर उप मंडल  की शरणार्थी बस्ती में रह रहे हैं . जनवरी 2020 में केंद्र  सरकार, त्रिपुरा व मिजोरम सरकार व ब्रू आदिवासियों  के बीच हुए चतुष्पक्षीय समझौते से उनके स्थाई बसावट की जब बात शुरू हुई तो  त्रिपुरा में उन्हें ं स्थाई रूप से त्रिपुरा में बसाने की बात पर कुछ स्थानीय लोग सड़कों पर उतर कर हिंसक प्रदर्शन हुए थे. समझोते के तहत  त्रिपुरा में शेष रह गए 37136 ब्रू आदिवासियों को  त्रिपुरा के चार जिलों में अलग अलग स्थान पर बसाया जाना था . इसके लिए केंद्र  सरकार ने राज्य को 600 करोड़ की कार्ययोजना को भी मंजूरी दी थी .


इतिहास के मुताबिक तो उनका मूल घर मिजोरम में ही है। लेकिन मिजोरम के बाशिंदे  इन्हें म्यामार से आया विदेशी  कहते हैं। वे बीते पच्चीस सालों से जिस राज्य में रह रहे हैं वहां के लोग भी उन्हें अपने यहां बसाना नहीं चाहते। पूर्वात्तर के त्रिपुरा में इन्हें स्थाई रूप से बसाने की बात हुई तो हिंसा भड़क गई । यह आदिवासी समुदाय अनुसूचित जनजाति  परिपत्र में तो ये पीवीटीजी अर्थात लुप्त हो रहे समुदाय के रूप में दर्ज है। लेकिन ब्रू नामक जनजाति के इन लोगों का अपना कोई घर या गांव नहीं हैं। शरणार्थी के रूप में रहते हुए उनकी मूल परंपराओं, पर्यावास,कला, संस्कृति आदि पर संकट मंडरा रहा है.

किवदंतियों के अनुसार त्रिपुरा के एक राजकुमार को राज्य से बाहर निकाल दिया गया था और वह अपने समर्थकों के साथ मिज़ोरम में जाकर बस गया था। वहाँ उसने एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। ब्रू खुद को उसी राजकुमार का वंशज  मानते हैं। अब इस कहानी की सत्यता के भले ही कोई प्रमाण ना हों लेकिन इसके चलते ये हजारों लोग घर विहीन हैं। इनके पास ना तो कोई स्थाई निवास का प्रमाण है ना ही आधार कार्ड। मतदाता सूची के ले कर भी भ्रम हैं। आंकड़े तो यही कहते हैं कि ब्रू या रियांग मिजोरम की सबसे कम जनसंख्या वाली जनजाति है।


मिजोरम के मामित, कोलासिब और लुंगलेई जिलों में ही इनकी आबादी थी। सन 1996 में ब्रू और बहुसंख्यक मिजो समुदाय के बीच सांप्रदायिक दंगा हो गया। मिजोरम में, मिजो समुदायों के लोग ब्रू जनजाति के लोगों को बाहरी अथवा विदेशी मानते हैं, तथा इन्हें जातीय हिंसा का शिकार बनाते हैं। पिछले कई वर्षो से केंद्र और राज्य सरकारें त्रिपुरा के राहत शिविरों में रहने वाले ब्रू शरणार्थियों की मिजोरम वापसी के लिए प्रयास कर रही थी। सरकार की ओर से सुरक्षा और रोजगार के तमाम आश्वासनों के बावजूद ज्यादातर ब्रू जनजाति मिजोरम लौटने को तैयार नहीं हैं।


उधर मिजो आदिवासी संगठन इस बात पर आमदा रहे कि ब्रू लोगों के नाम राज्य की मतदाता सूची से हटाए जाएं क्योंकि वे बाहरी हैं। ऐसे ही मसलों को ले कर हुई हिंसक झड़प के बाद 1997 में हजारों ब्रू लोग भाग कर पड़ोसी राज्य त्रिपुरा के कंचनपुरा ब्लाक के डोबुरी गांव में शरण ली थी। दो दशक से ज्यादा समय से यहां रहने और अधिकारों की लड़ाई लड़ने के बाद इन्हें यहीं बसाने पर समझौता हुआ था ।



वैसे तो ब्रू लोग झूम खेती के माध्यम से जीवकोपार्जन करते रहे हैं। उनकी महिलाएं बुनाई में कुषल होती थीं। शरणार्थी षिविर में आने के बाद उनके पारंपरिक कौशल लुप्त हो गए। वे केंद्र सरकार से प्राप्त राहत सामग्री एक वयस्क के लिए प्रतिदिन 5 रुपए व 600 ग्राम चावल तथा किसी अल्पवयस्क को 2.5 रुपए व 300 ग्राम चावल पर निर्भर है। इसके अलावा उन्हें दैनिक उपभोग का सामान भी मिलता है , जिसका बड़ा हिस्सा बेच कर वे कपड़ा, दवा आदि की जरूरतें पूरा करते हैं। घर, बिजली, स्वच्छ पानी, अस्पताल तथा बच्चों के लिये स्कूल जैसी कई बुनियादी सुविधाओं से वे वंचित है।


वैसे तो ब्रू लोगों ने नईसिंगपरा, आशापरा और हेजाचेरा के तीन मौजूदा राहत शिविरों को पुनर्वास गांवों में तब्दील करने की मांग की थी . इसके साथ ही जाम्पुई पहाड़ियों पर बैथलिंगचिप की चोटी के पास फूल्डुंगसेई गांव सहित पांच वैकल्पिक स्थानों पर विचार करने का भी आग्रह किया था .इस पर स्थानीय आदिवासी आशंकित हैं  कि इससे उनके लिए खेती व पशु  चराने का स्थान कम हो जाएगा.

आज जिस जगह पर ब्रू लोगों को बसाया गया है, वह उनके अभी तक के घर अर्थात षरणार्थी षिविर से कोई 100 किलोमीटर दूर है। बिल्कुल वीरान है और रोजगार, षिक्षा, स्वास्थय के साधन विकसित होने में वहां समय लगेगा। त्रिपुरा के जनजातीय संगठन इसी बात के लिए  राजी भी हुए कि आम बस्ती से दूर इस स्थान पर फिलहाल उनका दखल नहीं हैं। हालांकि जब यह पहला जत्था अपने घरके लिए बसों से रवाना हुआ था  तो उनकी आंखें नम थीं, एक तो उनकी दूसरी पीढ़ी इसी शिविर  में जवान हुई जिसे उन्हें छोड़ना पड़ रहा था, दूसरा पुनर्वास के अन्य 11 शिविर भी बहुत दूर-दूर बसने वालें हैं और संभव है कि उनसे कई ऐसे  लोग बिछुड़ जाएं जो दो दशकों से साथ रह रहे थे. सबसे बड़ा भय अन्य जनजातियों, खासकर मिज़ो की तरफ से हमले का भी है . तभी वे पास –पास रहना चाहते हैं और स्थानीय समाज का विरोध भी यही है .

यदि आंकड़ों में देखें तो पूर्वोत्तर राज्यों में जनसंख्या घनत्व इतना अधिक है नहीं, मीलों तक इक्का-दुक्का कबीले बसे हैं, लेकिन एक आदिवासी समुदाय के लिए बेहतर जीवन के लिए जमीन नहीं मिल रही है। हालांकि इस बार  सरकार के पुनर्वास प्रयासों पर शक नहीं किया जा सकता लेकिन यह भी कटु सत्य है कि अपने संसाधन-धरती- अधिकांरों का बंटवारा स्थानीय समाज को कबूल नहीं है। कुछ राजनीतिक दल भी इस आग को हवा दिए हैं और अब स्थाई निवास से ज्यादा शांति  और सामंजस्य की जरूरत अधिक है।

 


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