दीपावली : धार्मिक पर्व नहीं राष्ट्र की अस्मिता की पहचान है
पंकज
चतुर्वेदी
उत्तर वैदिक काल में शुरू हुई आकाश दीप की परंपरा को कलियुग में दीवाली के रूप में मनाया जाता है। श्राद्ध पक्ष में भारत में अपने पुरखों को याद करने के बाद जब वे वापस अपने लोकों को लौटते थे तो उनके मार्ग को आलोकित करने के लिए लंबे-लंबे बाँसों पर कंदील जलाने की परंपरा बेहद प्राचीन रही है। फिर द्वापर युग में राजा राम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे तो नगरवासियों ने अपने-अपने घर के दरवाजों पर दीप जला कर उनका स्वागत किया। हो सकता है कि किसी सैनिक परिवार ने कुछ आग्नेय अस्त्र
-शस्त्र चलाए हों, लेकिन दीपावली पर आतिशबाजी चलाने की परंपरा के बहुत पुराना होने के कोई प्रमाण मिलते नहीं हैं। हालांकि अब तो उच्चतम न्यायालय ने इस साल भी कड़ा संदेश दे दिया कि दूसरों के जीवन की कीमत पर आतिशबाजी दागने की छूट नहीं दी जा सकती है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “हम जश्न मनाने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन हम दूसरों के जीवन की कीमत पर जश्न नहीं मना सकते हैं। पटाखे फोड़कर, शोर और प्रदूषण करके उत्सव मनाया जाए? हम बिना शोर-शराबे के भी जश्न मना सकते हैं, ”जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने सांसद मनोज तिवारी की याचिका पर स्पष्टकी दिया कि अकेले दीवाली ही नहीं, छट, गुरूपर्व और नये साल पर भी आतिशबाजी पर पूरी पाबंदी रहेगी, यहां तक कि ग्रीन आतिशबाजी भी नहीं। विदित हो अदालत के जरिये आतिशबाजी पर रोक की कोशिशें कई साल से चल रही हैं, अदालतें कड़े आदेश भी देती हैं, कुछ लोग खुद ब खुद इससे प्रभावित हो कर पटाकों को तिला जली भी दे रहे हैं, लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो कुतर्क और अवैज्ञानिक तरीके से अदालत की अवहेलना करते हैं। यह कड़वा सच है कि पुलिस या प्रशासन के पास इतनी मशीनरी है नहीं कि हर एक घर पर निगाह रख सके। असल में हमारा प्रशासन ही नहीं ंचाहता कि अदालत के आदेशों से वायुमंडल शुद्ध रखने की कोशिश सफल हो ।
विभिन्न धार्मिक ग्रंथों से यह स्पष्ट हो चुका है कि बारूद के पटाखे चलाना कभी भी इस धर्म या आस्था की परंपरा का हिस्सा रहा नहीं है।लेकिन यह भी जानना जरूरी है कि समाज व संस्कृति का संचालन कानून या अदालतों से नहीं बल्कि लोक कल्याण की व्यापक भावना से होता रहा है और यही इसके सतत पालन व अक्षुण्ण रहे का कारक भी है। दीपावली की असल भावना को ले कर कई मान्यताएं हैं और कई धार्मिक आख्यान भी। यदि सभी का अध्ययन करें तो उनकी मूल भावना भारतीय समाज का पर्व-प्रेम, उल्लास और सहअस्तित्व की अनिवार्यता है।
विडंबना है कि आज की दीपावली दिखावे, परपीड़न, परंपराओं की मूल भावनाओं के हनन और भविष्य के लिए खतरा खड़ा करने की संवेदनशील औजार बन गई हे। अभी दीपावली से दस दिन पहले ही देश की राजधानी दिल्ली की आवोहवा इतनी जहरीली हो गई है कि हजारों ऐसे लेग जो सांस की बीमारियों से पीड़ित हैं, उन्हें मजबूरी में शहर छोड़कर जाना पड़ रहा है, हालांकि अभी आतिशबाजी शुरू नहीं हुई है। अभी तो बदलते मौसम में भारी होती हवा, वाहनों के प्रदूषण, धूल व कचरे को जलाने से उत्पन्न धुंए के घातक परिणाम ही सामने आए हैं। भारत का लोक गर्मियों में खुले में,छत पर सोता था,। किसान की फसल तैयार होती थी तो वह खेत में होता था। दीपावली ठंड के दिनों की शुरूआत होता हे। यानी लोक को अब अपने घर के भीतर सोना शुरू करना होता था। पहले बिजली-रोशनी तो थी नहीं। घरों में सांप-बिच्छू या अन्य कीट-मकोड़े होना आम बात थी। सो दीपावली के पहले घरें की सफई की जाती थी व घर के कूड़े को दूर ले जा कर जलाया जाता था। उस काल में घर के कूड़े में काष्ठ, कपड़ा या पुराना अनाज ही हेता था। जबकि आज के घर कागज, प्लास्टिक, धातु व और ना जाने कितने किस्म के जहरीले पदार्थों के कबाड़े से भरे होते हैं। दीवारों पर लगाया गया इनेमल-पैंट भी रसायन ही हेता है। इसकी गर्द हवा को जबरदस्त तरीके से दूषित करती हे। सनद रहे कि दीपावली से पहले शहर की हवा विषैली होने के लिए दिल्ली का उदाहरण तो बानगी है, ठीक यही हालात देश के सभी महानगरों, से ले कर कस्बों तक के हैं।
दुखद है कि
हम साल में एक दिन बिजली बंद कर ‘पृथ्वी दिवस’ मानते हैं व उस दौरान धरती में
घुलने से बचाए गए कार्बन की मात्रा का कई सौ गुणा महज दीपावली के चंद घंटों में
प्रकृति में जोड़ देते हैं। हम जितनी बिजली बेवजह फूंकते हैं, उसके उत्पादन में प्राकृतिक ईंधन, तथा उसे इस्तेमाल से निकली उर्जा उतना ही कार्बन प्रकृति
में उड़ेल देता हे। कार्बन की बढती मात्रा के कारण जलवायु चक्र परिवर्तन, धरती का तापमान बढना जैसी कई बड़ी
दिक्कतें समाने आ रही हैं। काश हम दीपावली पर बिजली के बनिस्पत दीयों को ही
प्राथमिकता दे। इससे कई लोगों को रोजगार मिलता है, प्रदूषण
कम होता है और पर्व की मूल भावना जीवंत रहती है।
दीपावली का
पर्व बरसात की समाप्ति और ठंड के प्रारंभ के संक्रमण काल में आता है। यह पर्व घर
पर नई फसल आने का है। चूंकि बरसात के चार
महीने घरों में सीलन, गंदगी और खेतों में खर-पतवार का
अंबार हो जाता है। आने वाले महीनों में दिन छोटे व रातें लंबी या सूर्य का तप कम
होना तय होता है। ठंड से पहले बारिश और गर्मी में घर का रंग-रोगन फीका पड़ जाता है। गर्मी के बाद का बरसात के
मौसम में ही कफ-वात-पित्त के कारण सर्वाधिक बीमारियां पनपती हैं । दीपावली से पहले
घर के हर कोने का सफाई, पुताई आदि से बीते पांच महीने के
गंदगी- विकार से निजात दिलवा देता है। हर
जगह रोषनी करने का भी यही कारण है कि घर के वे कोने जो कई महीनों से उपेक्षित पड़े
थे, वहां रौशनी की
किरण पहुंचे व उससे वहां छिपे कीट-कीड़े भाग जाएं। फिर घर में नई फसल भी आनी है सो
उसके लिए कूड़ा-कबाड़ा साफ हो और वह स्थान निरापद बने जहां फसल को रखना है। इसी
दौरान धनवंतरी की पूजा यानि औशधि का आव्हान बैल-हल की पूजा यानि खेती-किसानी की
तैयारी पौष्टिक भोजन यानि शरीर को मेहनत
के लिए तैयार करना-- कुल मिला कर दीपावली का पर्व एक सामाजिक,सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक
और आर्थिक महत्व का पर्व है। यह जान लें कि दीपावली पर परंपराओं के नाम पर कुछ
घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाईयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है। इसकी मूल आत्मा सभी
के कल्याण की है और आतिशबाजी का
प्रयोग समाज, प्रकृति
और परिवेश को नुकसान पहुंचाने वाला है।
दुनियाभर में
दीपावली भारत का पर्व है, ना कि किसी जाति-धर्म का,। देष की अस्मिता यहां के
लोक, पर्यावरण और आस्था में निमित्त है। जरूरत है कि आम लोग
दीपावली की मूल भावना को समझें और आडंबररहित, सर्वकल्याणक
और अपनी आय में समाज के अंतिम छोर में खड़े व्यक्ति की हिस्सेदारी की मूल परंपराओं
की तरफ लौटें।
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