My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 31 मई 2023

cyclone are emerging due to climate change

 

जलवायु परिवर्तन  के कारण उभर रहे हैं समुद्री तूफान

पंकज चतुर्वेदी



यमन में लाल सांगर के तट पर बसे कॉफी के व्यापार के लिए महूर  मोचा  शहर के नाम पर मई के मध्य में बंगाल की खाड़ी में कहर बन कर आए मोचा चक्रवात ने भले ही भारत में कोई बहुत बड़ा नुकसान नहीं किया हो- इस साल के पहले समुद्री बवंडर के साथ भारत के तटीय आबादियों पर अब दिसंबर तक ऐसे ही कई खतरे मंडरा  रहे हैं। यह जानना जरूरी है कि यह एक महज प्राकृतिक आपदा नहीं है  असल में तेजी से बदल रहे दुनिया के प्राकृतिक मिजाज ने इस तरह के तूफानों की संख्या में इजाफा किया है । जैसे-जैसे समुद्र के जल का तापमान बढ़ेगा,उतने ही अधिक तूफान हमें झेलने होंगे । यह चेतावनी है कि इंसान ने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ को नियंत्रित नहीं किया तो साईक्लोंन या बवंडर के चलते भारत के सागर किनारे वालें शहरों में आम लोगों का जीना दूभर हो जाएगा ।



जलवायु परिवर्तन पर 2019 में जारी इंटर गवमेंट समूह (आईपीसीसी) की विशेष रिपोर्ट ओशन एंड क्रायोस्फीयर इन ए चेंजिंग क्लाइमेट के अनुसार सारी  दुनिया के महासागर 1970 से ग्रीनहाउस गैस  उत्सर्जन से उत्पन्न 90 फीसदी अतिरिक्त गर्मी को अवशोषित कर चुके है। इसके कारण महासागर  गर्म हो रहे हैं और इसी से चक्रवात को जल्दी-जल्दी और खतरनाक चेहरा सामने आ रहा है।  मोचा  तूफान के पहले बंगाल की खाड़ी में जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्र जल  सामान्य से अधिक गर्म हो गया था। उस समय समुद्र की सतह का तापमान औसत से लगभग 0.51 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म था , कुछ क्षेत्रों में यह सामान्य से लगभग 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया था। जान लें समुद्र का 0.1 डिग्री तापमान बढ़ने का अर्थ है चक्रवात को अतिरिक्त ऊर्जा मिलना। हवा की विशाल मात्रा के तेजी से गोल-गोल घूमने पर उत्पन्न तूफान उष्णकटिबंधीय चक्रीय बवंडर कहलाता है। पृथ्वी भौगोलिक रूप से दो गौलार्धों में विभाजित है। ठंडे या बर्फ वाले उत्तरी गोलार्द्ध में उत्पन्न इस तरह के तूफानों को हरिकेन या टाइफून कहते हैं । इनमें हवा का घूर्णन घड़ी की सुइयों के विपरीत दिशा में एक वृत्ताकार रूप में होता है। जब बहुत तेज हवाओं वाले उग्र आंधी तूफान अपने साथ मूसलाधार वर्षा लाते हैं तो उन्हें हरिकेन कहते हैं। जबकि भारत के हिस्से  दक्षिणी अर्द्धगोलार्ध में इन्हें चक्रवात या साइक्लोन कहा जाता है। इस तरफ हवा का घुमाव घड़ी की सुइयों की दिशा में वृत्ताकार होता हैं। किसी भी उष्णकटिबंधीय अंधड़ को चक्रवाती तूफान की श्रेणी में तब गिना जाने लगता है जब उसकी गति कम से कम 74 मील प्रति घंटे हो जाती है। ये बवंडर कई परमाणु बमों के बराबर ऊर्जा पैदा करने की क्षमता वाले होते है।


धरती के अपने अक्ष पर घूमने से सीधा जुड़ा है चक्रवती तूफानों का उठना। भूमध्य रेखा के नजदीकी जिन समुद्रों में पानी का तापमान 26 डिग्री सेल्सियस या अधिक होता है,वहां इस तरह के चक्रवातों के उभरने  की संभावना होती है। तेज धूप में जब समुद्र के उपर की हवा गर्म होती है तो वह तेजी से ऊपर की ओर उठती है। बहुत तेज गति से हवा के उठने से नीचे कम दवाब का क्षेत्र विकसित हो जाता है। कम दवाब के क्षेत्र के कारण वहाँ एक शून्य या खालीपन पैदा हो जाता है। इस खालीपन को भरने के लिए आसपास की ठंडी हवा तेजी से झपटती है । चूंकि पृथ्वी भी अपनी धुरी पर एक लट्टू की तरह गोल घूम रही है सो हवा का रुख पहले तो अंदर की ओर ही मुड़ जाता है और फिर हवा तेजी से खुद घूर्णन करती हुई तेजी से ऊपर की ओर उठने लगती है। इस तरह हवा की गति तेज होने पर नीेचे से उपर बहुत तेज गति में हवा भी घूमती हुई एक बड़ा घेरा बना लेती है। यह घेरा कई बार दो हजार किलोमीटर के दायरे तक विस्तार पा जाता है। सनद रहे भूमध्य रेखा पर पृथ्वी की घूर्णन गति लगभग 1038 मील प्रति घंटा है जबकि ध्रुवों पर यह शून्य रहती है।


इस तरह के बवंडर संपत्ति और इंसान को तात्कालिक नुकसान तो पहुंचाते ही हैं , इनका दीर्घकालीक प्रभाव पर्यावरण पर पड़ता है । भीषण बरसात के कारण बन गए दलदली क्षेत्र, तेज आंधी से उजड़ गए प्राकृतिक वन और हरियाली, जानवरों का नैसर्गिक पर्यावास समूची प्रकृति के संतुलन को उजाड़ देता है। जिन वनों या पेड़ों को संपूर्ण स्वरूप पाने में दशकों लगे वे पलक झपकते नेस्तनाबूद हो जाते हैं। तेज हवा के कारण तटीय क्षेत्रों में मीठे पानी मे खारे पानी और खेती वाली जमीन पर मिट्टी व दलदल बनने से हुए क्षति को पूरा करना मुश्किल होता है।


भारत उपमहाद्वीप में बार-बार और हर बार पहले से घातक तूफान आने का असल कारण इंसान द्वारा किये जा रहे प्रकृति के अंधाधुध शोषण से उपजी पर्यावरणीय त्रासदी जलवायु परिवर्तन भी है। अमेरिका की अंतरिक्ष शोध संस्था नेशनल एयरोनाटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन - नासा की चेतावनी है कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रकोप से चक्रवाती तूफान और खूंखार होते जाएंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण उष्णकटिबंधीय महासागरों का तापमान बढ़ने से सदी के अंत में बारिश के साथ भयंकर बारिश और तूफान आने की दर बढ़ सकती है। यह बात नासा के एक अध्ययन में सामने आई है। अमेरिका में नासा के जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी (जेपीएल) के नेतृत्व में यह अध्ययन किया गया। इसमें औसत समुद्री सतह के तापमान और गंभीर तूफानों की शुरुआत के बीच संबंधों को निर्धारित करने के लिए उष्णकटिबंधीय महासागरों के ऊपर अंतरिक्ष एजेंसी के वायुमंडलीय इन्फ्रारेड साउंडर (एआईआरएस) उपकरणों द्वारा 15 सालों तक एकत्र आकंड़ों के आकलन से यह बात सामने आई।




 अध्ययन में पाया गया कि समुद्र की सतह का तापमान लगभग 28 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर गंभीर तूफान आते हैं। जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स(फरवरी 2019,  में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि के कारण हर एक डिग्री सेल्सियस पर 21 प्रतिशत अधिक तूफान आते हैं। जेपीएल के हार्टमुट औमन के मुताबिक गर्म वातावरण में गंभीर तूफान बढ़ जाते हैं। भारी बारिश के साथ तूफान आमतौर पर साल के सबसे गर्म मौसम में ही आते हैं। लेकिन जिस  तरह ठंड के दिनों में भारत में ऐसे तूफान के हमले बढ़ रहे हैं यह मारे लिए गंभीर चेतावनी है।

 


 

शुक्रवार, 26 मई 2023

Disappearing water bodies of Raipur

 राजधानी बनते ही ताल तलैया चाट गया रायपुर

पंकज चतुर्वेदी



छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में इस बार अप्रेल का मौसम इतना गर्म नहीं था लेकिन पानी की किल्लत चरम पर रही . यदि शहर की जल कुंडली देखें तो चप्पे-चप्पे पर जल निधियों की का जाल है लेकिन नल रीते हैं और भूजल पाताल में तीन साल पहले एन जी टी में सुनवाई के समय सरकारी रिकार्ड के अनुसार बताया गया था कि शहर में  कुल 227 तालाब हुआ करते थे, जिनमे से 53 तालाब सूख गए या भूमाफियाओं की भेंट चढ़ गए और 175 ही  बाकी बचे . हाल ही में नगर निगम ने बताया है कि अब शहर में 109  ही तालाब बचे हैं अर्थात तीन साल में  66 तालाब लुप्त हो गए ? सरकारी रिकार्ड ही बानगी है कि रायपुर में तालाब लुप्त होने से पहले उनका क्षेत्रफल घटता है और फिर अचानक उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है .

 छत्तीसगढ़ राज्य और उसकी राजधानी रायपुर बनने से पहले तक यह नगर तालाबों की नगरी कहलाता था, ना कभी नलों में पानी की कमी रहती थी और ना आंख में । राज्य़ क्या बना, बहुत से दफ्तर,घर, सड़क की जरूरत हुई और देखते ही देखते ताल-तलैयों की बलि चढ़ने लगी। वैसे रायपुर में तालाबों को खुदवाना बेहद गंभीर भूवैज्ञानिक तथ्य की देन हे। यहां के कुछ इलाकों में भूमि में दस मीटर गहराई पर लाल-पीली मिट्टी की अनूठी  परत है जो पानी को रोकने के लिए प्लास्टिक परत की तरह काम करती है। पुरानी बस्ती, आमापारा, समता कालेानी इलाकों में 10 मीटर गहराई तक मुरम या लेटोविट, इसके नीचे 10 से 15 मीटर में छुई माटी या शेलयेलो और इसके 100 मीटर गहराई तक चूना या लाईम स्टोन है। तभी जहां तालाब हैं वहां कभी कुंए सफल नहीं हुए। यह जाना मान तथ्य है कि रायपुर में जितनी अधिकतम बारिश  होती है उसे मौजूद तालाबों की महज एक मीटर गहराई में रोका जा सकता था। जीई रोड पर समानांतर तालाबों  की एक श्रंखला है जिसकी खासियत है कि निचले हिस्से में बहने वाले पानी को यू-शेप  का तालाब बना कर रोका गया है। ब्लाक सिस्टम के तहत हांडी तालाब, कारी, धोबनी, घोडारी, आमा तालाब, रामकुंड, कर्बला और चौबे कालोनी के तालाब जुड़े हुए हैं। बूढा तालाब व बंधवा के ओवर फ्लो का खरून नदी में मिलना एक विरली पुरानी तकनीक रही है। बेतरतीब निर्माण ने तालाबों कं अंतर्संबंधेंा, नहरों और जल आवक रास्तो को ही निरूद्ध नहीं किया, अपनी तकदीर पर भी सूखे को जन्म दे दिया। रही बची कसर यहां के लोगों की धार्मिक आयोजनों बढती रूचि ने खड़ी कर दी। महानगर में हर साल कोंई दस हजार गणपति, दुर्गा प्रतिमा आदि की स्थापना हो रही है और इनका विसर्जन इन्ही तालाबों में हो रहा है। प्लास्टर आफ पेरिस, रासायनिक रंग, प्लास्टिक के सजावटी सामान , अभ्रक, आर्सेनिक, थर्मोकोल आदि इन तालाबों को उथला, जहरीला व गंदला कर रहे हैं।

कभी बूढ़ा तालाब शहर का बड़ा-बूढ़ा हुआ करता था। कहते हैं कि सन 1402 के आसपास राजा ब्रहृदेव ने रायपुर की स्थापना की थी और तभी यह ताल बना। सनद रहे बूढा तालाब पहले अन्य तालाबों से जुड़ा था कि इसमें पानी लबालब होते ही महाराजबंध तालाब में पानी जाने लगता था और उसके आगे अन्य किसी में। महाराजबंध  अभी आज़ादी के बाद तक 100 एकड़ का था अब महज 33 एकड़ रह गया, सरकारी एजेंसियों ने भी इस पर सडक बना कर इसकी जमीन के कब्जों को मान्यता दे दी . इन तालाब-श्रंखलाओं के कारण ना तो रायपुर कभी प्यासा रहता और ना ही तालाब की सिंचाई, मछली, सिंघाड़ा आदि के चलते भूखा। कहते हैं कि इस तालाब के किनारे से कोलकाता-मुंबई और जगन्नाथ पुरी जाने के रास्ते निकलते थे। बताते हैं कि एकबार पृथ्वीराज कपूर रायपुर आए थे तो वे बूढ़ा तालाब को देख कर मंत्र-मुगध हो गए थे। वे जितने दिन भी यहां रहे, हर रोज यहां नहाने आते थे। लेकिन आज यह जाहिरा तौर पर कूड़ा फैकने व गंदगी उड़ेलने की जगह बन गया है। वैसे आज इसका नाम विवेकानंद तालाब हो गया , क्योंकि इसके बीचों बीच विवेकानंद की एक प्रतिमा स्थापित की गई है, लेकिन यहां जानना जरूरी है कि बूढ़ा से विवेकानंद तालाब बनने की प्रक्रिया में इसका क्षेत्रफल 150 एकड़ से घट कर 60 एकड़ हो गया। बताते हैंकि जब स्वामी विवेकानंद 14 साल के थे तो रायपुर  आए थे व वे तैर कर तालाब के बीच में बने टापू तक जाते थे। जलकुंभी से पटे तालाब के बड़े हिस्से पर लोग कब्जा कर चुके हैं, जो रहा बचा है वहां जलकुभी का साम्राज्य है। यही कहानी दीगर तालाबों की है- दलदल, बदबू, सूखा, कचरा।

शहर के कई चर्चित तालाब देखते-देखते ओझल हो गए- रजबंधा तालाब का फैलाव 7.975 हैक्टर था, आज वहां चौरस मैदान है। छह हैक्टर से बड़े सरजूबंधा को पुलिस लाईन लील गई तो डेढ हैक्टर के  खंतो तालाब पर शक्तिनगर कालोनी बन गई। पचारी, नया तालाब और गोगांव ताल को उद्योग विभाग के हवाले कर दिया गया तो ढाबा तालाब(कोटा) औरडबरी तालाब(खमरडीह) पर कब्जे हो गए। ऐसे ही कंकाली ताल, ट्रस्ट तालाब, नारून तालाब आदि दसियों पर या तो कब्जे हो गए या फिर वे सिकुड कर षून्य की ओर बढ़ रहे हैं।

यहां जानना जरूरी है कि छत्तीसगढ़ में तालाब एक लोक परंपरा व सामाजिक दायित्व रहा है। यहां का लोनिया, सबरिया, बेलदार, रामनामी जैसे समाज पीढ़ियों से तालाब गढ़ते आए हैं। अंग्रेजी शासन के समय पड़े भीषण  अकाल के दौरान तत्कालीन सरकार ने खूब तालाब खुदवाए थे और ऐसे कई सौ तालाब पूरे अंचल में ‘लंकेटर तालाब’ के नाम से आज भी विद्यमान हैं।

यहां की पहली हिंदी पत्रिका कहलाने वाली  ‘छत्तीसगढ मित्र’ के मार्च-अप्रैल, 1900 के अंक का  एक आलेख गवाह है कि उस काल में भी समाज तालाबों को ले कर कितना गंभीर व चिंतित था । आलेख कुछ इस तरह था - ‘‘ रायपुर का आमा तालाब प्रसिद्ध है यह तालाब श्रीयुत् सोभाराम साव रायपुर निवासी के पूर्वजों ने बनवाया था। अब उसका पानी सूख कर खराब हो गया है। उपर्युक्त सावजी ने उसकी मरम्म्त पर 17000 रूप्ए खर्च करने का निश्चय  किया है। काम भी जोर शोर से जारी हो गया है। आपका औदार्य इस प्रदेश  में चिरकाल से प्रसिद्ध है। सरकार को चाहिए कि इसी ओर ध्यान देवे।’’

रायपुर का तेलीबांधा तालाब सन 1929-30 के पुराने राजस्व रिकार्ड में 35 एकड़ का  था,लेकिन आज इसके आधे पर भी पानी नहीं है। उस रिकार्ड के मुताबिक आज जीई रोड का गौरव पथ तालाब पर ही है। इसके अलावा जलविहार कालेनी की सड़क, बगीचा, आरडीए परिसर, लायंस क्लब का सभागार भी पानी की जगह पर बना है। यहां 12 एकड़ जमीन खाली करवा कर वहां बसे लोगों को बोरियाकला में विस्थापित किया गया। जब यह जमीन खाली हुई तो इससे दो एकड़ जमीन नगर निगम मकान बनाने के लिए मांगने लगा।

अब तो नया रायपुर बन रहा है, अभनपुर के सामने तक फैला है और इसको बनाने में ना जाने कितने ताल-तलैया, जोहड़, नाले दफन हो गए हैं। यहंा खूब चौड़ी सड़के हैं, भवन चमचमाते हुए हैं, सबकुछ उजला है, लेकिन सवाल खड़ा है कि इस नई बसाहट के लिए पानी कहां से आएगा ? तालाब तो हम हड़प कर गए हैं।

 

 

मंगलवार, 23 मई 2023

shrinking coastal line of india

 सिकुड़ती समुद्री तट रेखा

पंकज चतुर्वेदी



केंद्र सरकार के वन यथा पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत नेश्नल सेंतर फॉर कॉस्टल रिसर्च(एन सी सी आर ) की एक ताजातरीन रिपोर्ट चेतावनी दे रही है कि देश की समुद्री सीमा कटाव और अन्य कारणों केचलते सिकुड़ रही है और यह कई गंभीर  पर्यावरणीय, सामाजिक और  आजीविका के संकटों की  जननी है ।  अकेले तमिलनाडु में राज्य के कुल समुद्र किनारों का कोई 42. 7 हिस्सा संकुचन का शिकार हो चुका है । हालांकि कोई 235. 85 किलोमीटर की तट रेखा का विस्तार भी हुआ है । जब समुद्र के किनारे  कटते हैं  तो उसके किनारे रहने वाले मछुआरों ,किसानों और बस्तियों पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाता है । सबसे चिंता की बात यह है कि समुद्र से जहां नदियों का मिलन हो रहा है , वहाँ कटाव अधिक है और इससे नदियों की पहले  से खराब सेहत और बिगड़ सकती है .


ओडिसा केचहह जिलों – बालासोर , भद्रक , गंजम ,जगतसिंघपुर, पुरी  और केन्द्रपाड़ा के लगभग 480 किलोमीटर समुद्र रेखा पर भी कटाव का संकट गहरा गया है । ओडिसा जलवायु परिवर्तन कार्य योजना – 2021-2030 में बताया गया है कि राज्य मने 36.9 फीसदी समुद्र किनारे  तेजी से समुद्र में टूटकर गिर रहे हैं । जिन जगहों पर ऋषिकहुल्य , महानदी आदि समुद्र में मिलती हैं,उन स्थानों पर भूमि कटाव की रफ्तार  ज्यादा है । ओडिया में प्रसिध्द बंदरगाह पारादीप के एर्सामा ब्लोक  के सियाली समुद्र तट पर  खारे पानी का दायरा बढ़ कर सियाली,पदमपुर, राम्तारा , संखा और कलादेवी गाँवों के भीतर पहुँच गया है, करीबी जिला मुख्यालय जगतसिंह पुर में भी समुद्र के तेज बहाव से भूमि काटने का कुप्रभाव सामने आ रहा है .पारादीप के समुद्र किनारे के बगीचे  , वहां बने नाव के स्थान, महानदी के समुद्र में मिलने के समागम स्थल तक पर समुद्र के बढ़ते दायरे ने असर डाला है .

हालांकि बंगाल में समुद्री किनारे महज 210 किलोमीटर में है लेकिन यहाँ कटाव के हालात सबसे भयावह हैं । यूनिवर्सिटी ऑफ़ केरल , त्रिवेंद्रम द्वारा किये गये और जून -22 में प्रकाशित हुए शोध में बताया गया है कि त्रिवेन्द्रम जिले में पोदियर और अचुन्थंग के बीच के 58 किलोमीटर के समुद्री तट का 2.62 वर्ग किलोमीटर हिस्सा बीते 14 सालों में सागर की गहराई में समा गया . कई जगह कटाव का दायरा  10.5 मीटर तक रहा है . यह शोध बताता है की सन 2027 तक कटाव की रफ़्तार भयावह हो सकती है . वैसे इस शोध में एक बात और पता चली कि इसी अवधि में समुद्र के बहाव ने 700 मीटर नई धरती भी बनाई है .




पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत काम करने वाले  चेन्नई स्थित नेशनल सेंटर फॉर सस्टेनेबल कोस्टल मैनेजमेंट के आंकड़े बताते हैं की देश की कुल 6907 किलोमीटर की समुद्री तट सीमा है और बीते 28 सालों के दौरान हर जगह कुछ  न कुछ क्षतिग्रस्त हुई ही है . संस्थान  के आंकड़े बताते हैं की पश्चिम बंगाल में समुद्र सीमा 534.45किमी है और इसमें से 60.5 फ़ीसदी अर्थात 323.07 किमी हिस्से में समुद्र ने गहरे कटाव दर्ज किये हैं . देश में सर्वाधिक समुद्री तटीय क्षेत्र गुजरात में 1945.60 किमी है और यहाँ 537.50 किमी कटाव दर्ज किया गया है , आन्ध्र प्रदेश के कुल 1027.58 किमी में से 294.89, तमिलनाडु में 991.47 में से 422.94 किमी में कटाव देखा जा रहा हैं. पुदुचेरी जो कभी सबसे सुंदर समुद्र तटों के लिए विख्यात था, धीरे  धीरे अपने किनारों को खो रहा है . एक तरफ  निर्माण बढ़ रहे हैं तो दूसरी तरफ समुद्र का दायरा. यहाँ महज 41.66 किमी का समुद्र तट हैं जिसमें से 56.2 प्रतिशत को कटाव का ग्रहण लग गया है .  


दमन दीव जैसे छोटे द्वीप में 34.6 प्रतिशत तट पर कटाव का असर सरकारी आंकड़े मानते हैं . केरल के कूल 592. 96 किलोमीटर के समुद्री तट में से 56.2 फीसदी धीरे धीरे कट रहा है .ओड़िसा और महाराष्ट्र में भी समुद्र के कारण कटाव बढ़ रहा है . कोस्टल रिसर्च सेंटर ने देश में ऐसी 98 स्थानों को चिन्हित किया है जहाँ  कटाव तेजी से है इनमें से सबसे ज्यादा और चिंताजनक 28 स्थान तमिलनाडु में हैं . उसके बाद पश्चिम बंगाल में 16 और आंध्र में 07 खतरनाक कटाव वाले स्थान हैं .

कोई एक दशक पहले कर्नाटक के सिंचाई विभाग द्वारा तैयार की गई राष्ट्रीय समुद्र तट संरक्षण रिर्पोटमें कहा गया था  कि सागर-लहरों की दिशा बदलना कई बातों पर निर्भर करता है । लेकिन इसका सबसे बडा कारण समुद्र के किनारों पर बढ़ते औद्योगिकी करण और शहरीकरण से तटों पर हरियाली का गायब होना है । इसके अलावा हवा का रुख, ज्वार-भाटे और नदियों के बहाव में आ रहे बदलाव भी समुद्र को प्रभावित कर रहे हैं । कई भौगोलिक परिस्थितियां जैसे- बहुत सारी नदियों के समुद्र में मिलन स्थल पर बनीं अलग-अलग कई खाड़ियों की मौजूदगी और नदी-मुख की स्थिति में लगातार बदलाव भी समुद्र के अस्थिर व्यवहार के लिए जिम्मेदार है । ओजोन पट्टी के नष्ट होने और वायुमंडल में कार्बन मोनो आक्साईड की मात्रा बढ़ने से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है । इससे समुद्री जल का स्तर बढ़ना भी इस तबाही का एक कारक हो सकता है ।


समुद्र के विस्तार की समस्या केवल ग्रामीण अंचलों तक ही नहीं हैं , इसका सर्वाधिक कुप्रभाव समुद्र के किनारे बसे महानगरों पर पड़ रहा है पहले तो यहाँ  कई मन  मिटटी भर कर खूब इमारतें  खड़ी की गई, अब जब समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है और अनियमित या अचानक तेज बरसात अब सामान्य  बात हो गई है- लगता है अब समुद्र अपनी जमीं इंसान से वापिस मांग रहा है . वैसे ही बढ़ती आबादी के चलते जमीन की कमी विस्फोटक हालात पैदा कर रही है । ऐसे में बेशकीमती जमीन को समुद्र का शिकार होने से बचाने के लिए केंद्र सरकार को ही त्वरित सोचना होगा ।

जैसे जैसे दुनिया का तापमान बढेगा , समुद्र का जल स्तर ऊंचा होगा  तो समुद्र तटों का कटाव और गंभीर रूप लेगा . दक्षिण में तो कई स्थानों पर कई-कई किलोमीटर तक मिट्टी के कटाव के चलते जन जीवन प्रभावित हो रहा है। कानून में प्रावधान है कि समुद्र तटों की रेत में उगने वाले प्राकृतिक पौधों को उगने का सही वातावरण उपलब्ध करवाने के लिए कदम उठाना चाहिए । मुम्बई हो या कोलकाता हर जगह जमीन  के कटाव को रोकने वाले मेग्रोव  शहर का कचरा घर बन गए हैं . पुरी समुद्र तट पर लगे खजरी के सभी पेड़ काट दिए गए ।

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 में तहत बनाए गए सीआरजेड में समुद्र में आए ज्वार की अधिकतम सीमा से 500 मीटर और भाटे के बीच के क्षेत्र को संरक्षित घोषित किया गया है। इसमें समुद्र, खाड़ी, उसमें मिलने आ रहे नदी के प्रवाह को भी शामिल किया गया है।  ज्वार यानि समुद्र की लहरों की अधिकतम सीमा के 500 मीटर क्षेत्र को पर्यावरणीय संवेदनशील घोषित कर इसे एनडीजेड यानि नो डेवलपमेंट जोन(किसी भी निर्माण के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र) घोषित किया गया । इसे सीआरजेड-1 भी कहा गया । सीआरजेड-2 के तहत ऐसे नगरपालिका क्षेत्रों को रखा गया है, जो कि पहले से ही विकसित हैं । सीआरजेड-3 किस्म के क्षेत्र में वह समुद्र तट आता है जो कि सीआरजेड -1 या 2 के तहत नहीं आता है । यहां किसी भी तरह के निर्माण के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति आवश्यक है । सीआरजेड-4 में अंडमान, निकोबार और लक्षद्वीप की पट्टी को रखा गया है। सन 1998 में  केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय समुद्र तट क्षेत्र प्रबंधन प्राधिकरण और इसकी राज्य इकाइयों का भी गठन किया, ताकि सीआरजेड कानून को लागू किया जा सके । लेकिन ये सभी कानून कागज पर ही  चीखते हैं .

 

 

मंगलवार, 16 मई 2023

Why resident of big cities neglect voting in local body election

 

बड़े शहरों की बेरुखी क्यों ?

पंकज चतुर्वेदी

 


दिल्ली से सटे गाज़ियाबाद का एक  ऊँची इमारतों  वाला इलाका है – क्रोसिंग रिपब्लिक , जहां 29 हाऊसिंग सोसायटी हैं. साक्षरता दर लगभग शत प्रतिशत . यहा कुल 7358 मतदाता पंजीकृत हैं . उत्तर प्रदेश में दुसरे चरण के नगर निगम चुनाव में इनमें से महज 1185 लोग वोट डालने गए . महज कोई 16 फीसदी  . वैसे तो पूरे नगर निगम क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या किसी लोक सभा सीट से कम नहीं है – 15 लाख 39 हज़ार 822 , लेकिन इनमें से भी मात्र 36. 81 प्रतिशत लोग ही वोट डालने गए. यहाँ से विजेता मेयर पद की प्रत्याशी को 350905 वोट मिले  अर्थात कुल मतदाता के महज 22  फीसदी की पसंद का मेयर .  देशके सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकायों  के चुनाव में दो चरणों में संपन्न 17 नगर निगमों में चुनाव का मतदान बहुत ही निराशाजनक रहा . अयोध्या में मतदान हुआ- 47.92 प्रतिशत और विजेता को इसमें से भी 48 .67  प्रतिशत वोट ही मिले . बाकी बरेली 41.54 वोट गिरे और विजेता को उसमे से भी साढ़े सैतालिस प्रतिशत मिला , कानपुर 41.34 मतदान हुआ और विजेता को उसका भी 48 फीसदी मिला . मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ  के शहर गोरखपुर में तो मतदान 34 .6  फीसदी ही हुआ और विजेता को इसका आधा भी नहीं मिला . प्रधानमंत्री जी के संसदीय क्षेत्र बनारस के शहर की मात्र 38 .98 लोग  ही वोट डालने निकले और मेयर बन गए नेता जी को इसका 46 प्रतिशत मिला  . देश की सियासत का सिरमौर रहे इलाहबाद अर्थात प्रयागराज में तो मतदान महज 31. 35 फ़ीसदी रहा  और इसमें से भी 47 प्रतिशत पाने वला शहर का महापोत हो गया .


 राजधानी लखनऊ के हाल तो बहुत बुरे थे , वहां पड़े - मात्र 35 .4  फ़ीसदी वोट   और विजेता को इसमें से 48 फ़ीसदी .  सभी 17 नगर निगम में सहारनपुर के अलावा कहीं भी आधे लोग वोट डालने निकले नहीं और विजेता को भी लगभग इसका आधा या उससे कम मिला . जाहिर है विजयी मेयर भले ही तकनिकी रूप से  बहुमत का है लेकिन ईमानदारी से यह शहर के अधिकांश लोगों का प्रतिनिधित्व करता ही नहीं है  .

गौर करने वाली बात है जो शहर जितना बड़ा है, जहां विकास और जन सुविधा के नाम पर सरकार बजट का अधिक हिस्सा खर्च होता है, जहां साक्षरता दर, प्रति व्यक्ति आय आदि औसत से बेहतर है वहीँ के लोग वोट डालने निकले नहीं .


विदित  हो उत्तर प्रदेश में कुल 17 नगर  निगम में 1420  वार्ड है जिनमें मतदाताओं की संख्या एक करोड़ नब्बे लाख सित्यासी हज़ार सात  सौ चौतीस (1, 90, 87734) है जो कि देश के कई राज्यों से अधिक है. नगरपालिका की संख्या 199 है जिनमें 5327 वार्ड और ,एक करोड़ 79 लाख 1176  मतदाता हैं . नगर पंचायतों की संख्या 544 , इनमें वार्ड संख्या 7177  और मतदाता 93,50541  हैं .पहले चरण में नो मंडलों में कूल 390 स्थानों पर चुनाव हुए . सर्वाधिक निराशा महानगरों में मतदान को ले कर है और यह  यह लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है , भले ही कुछ लोग इसमें से जीत जाएँ लेकिन वे कुल मतदाता के महज पन्द्रह से बीस फीसदी लोगों के ही प्रतिनिधि होंगे. यह भी समझना  होगा कि जिन बड़े शहरों में कम मतदान हो रहा है  वहां विकास के नाम पर सबसे अधिक सरकारी धन लगाया जाता है  और अधिक मतदान वाले छोटे कसबे गंदगी, नाली जैसे मूलभूत सुविधाओं पर भी मौन रहते हैं .

एक बारगी  आरोप लगाया  जा सकता है कि पढ़ा लिखा माध्यम वर्ग घर बैठ कर लोकतंत्र को कोसता तो है लेकिन मतदान के प्रति  उदासीन रहता है . यह विचारणीय है कि क्या वोट ना डालने वाले आधे से अधिक  फीसदी से ज्यादा लोगों की निगाह में चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवार या मौजूदा चुनाव व्यवस्था नालायक थी ? जिन परिणामों को राजनैतिक दल जनमत की आवाज कहते रहे हैं, ईमानदारी से आकलन करें तो यह सियासती - सिस्टम के खिलाफ अविश्वास  मत था । जब कभी मतदान कम होने की बात होती है तो प्रशासन व राजनैतिक दल अधिेक गरमी या, छुट्टी ना होने जैसे कारण गिनाने लगते हैं । लेकिन इस बार तो मौसम भी सुहाना था और महानगरों में सभी प्रतिष्ठान भे बंद थे . इस कडवे सच को सभी राजनेताओं को स्वीकारना होगा कि मत देने ना निकलने वाले लोगों की बड़ी संख्या उन लोगों की है जो स्थानीय निकायों की कार्य प्रणाली से निराश और नाउम्मीद हैं .

यह भी दुखद पहलु है कि आम लोग यह नहीं जानते कि स्थानीय निकाय के प्रतिनिधि से उसे क्या उम्मीद है और विधायक और सांसद से क्या, वह सांसद से सडक नाली की बात करता है और पार्षद चुनाव में पाकिस्तान को मजा चखाने के भाषण सुनता है . एक बात और हज़ारों लोग ऐसे सड़क पर मिले जिन्होंने लोसभा और विधान सभा में वोट डाला , उनके पास मतदाता पहचान  पात्र है लेकिन उनके नाम   स्थानीय निकाय की मतदाता सूची में थे नहीं .

मतदाताओं की बढ़ती संख्या के साथ-साथ उम्मीदवारों की संख्या अधिक हो रही है लेकिन  इसकी तुलना में नए मतदाता केंद्रों की संख्या नहीं बढ़ी है। मतदाता सूची में नाम जुड़वाना जटिल  है और उससे भी कठिन है अपना मतदाता पहचान पत्र पाना। एक आंकड़े को बारीकी से देखे तो मतदाता सूची तैयार करने या उसमें नाम जोड़ने में आने वाली दिक्कतों का आकलन हो सकता है . उत्तर प्रदेश में नगर निगम वाले 17  शहरों में पुरुष मतदाता  तो एक करोड़ 27 हज़ार 203 हैं लेकिन महिला मतदाता की संख्या महज 88 लाख ,17 हज़ार 531. बड़े शहरों   में इतना अधिक लैंगिक विभेद का आंकडा होता नहीं लेकिन स्पष्ट है कि महिला मतदाता के पंजीयन के काम में उदासी है .

आज चुनाव से बहुत पहले बड़े-बड़े रणनीतिकार  मतदाता सूची का विष्लेशण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज या इलाके  के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां चाहे एक वोट से जीतो या पांच लाख वोट से , दोनों के ही सदन में अधिकार बराबर होते है। यदि नगरीय निकायों में कुल मतदान और जीत के अंतर  के हिसाब से इलाके की जन सुविधा और पार्षद की हैसियत तय करने का कानून आये तो  प्रतिनिधि न केवल मतदाता सूचीं में लोगों के नाम जुडवायेंगे, बल्कि मतदाता को वोट डालने के लिए भी प्रेरित करेंगे .

राजनैतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि मतदान अधिक हो, क्योंकि इसमें उनके सीमित वोट-बैंक के अल्पमत होने का खतरा बढ़ जाता है । कोई भी दल चुनाव के पहले घर घर जा कर मतदाता सूची के नाविनिकर्ण का कार्य अकर्ता नहीं और बी एल ओ पहले से ही कई जिम्मेदारियों में दबे सरकारी मस्त होते हैं .हमारा लोकतंत्र भी एक ऐसे अपेक्षाकृत आदर्श  चुनाव प्रणाली की बाट जोह रहा हैं , जिसमें कम से कम सभी मतदाताओं का पंजीयन हो और मतदान तो ठीक तरीके  से होना सुनिष्चित हो सके ।

 

 

शुक्रवार, 12 मई 2023

Why India turning in capital of diabetes

 मुसीबत बनना मधुमेह
पंकज चतुर्वेदी


भारत की कोई 82.9 करोड़ वयस्क आबादी का 8.8 प्रतिशत हिस्सा मधुमेह या डायबीटिज की चपेट में है। अनुमान है कि सन 2045 तक यह संख्या 13 करोड़ को पार कर जाएगी। मधुमेह वैसे तो खुद में एक बीमारी है लेकिन इसके कारण शरीर को खोखला होने की जो प्रक्रिया षुरू होती है उससे मरीजों की जेब भी खोखली हो रही है और देश के मानव संसाधन की कार्य क्षमता पर विपरीत असर पड़ रहा है। जान कर आश्चर्य होगा कि बीते एक साल में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत के लोगों ने डायबीटिज या उससे उपजी बीमारियों पर सवा दो लाख करोड़ रूपए खर्च किए जो कि हमारे कुल सालाना बजट का 10 फीसदी है। बीते दो दशक के दौरान इस बीमारी से ग्रस्त लोगों की संख्या में 65 प्रतिशत बढ़ौतरी होना भी कम चिंता की बात नहीं है।


एक अनुमान है कि एक मधुमेह मरीज को औसतन 4200 रूपये दवा पर ख्र्व्ह करने होते हैं और इस बीमारी के कारण उसका सालाना  औसतन अतिरिक्त व्यय 34100 रूपये हो जाता है . पहले मधुमेह, दिल के रेग आदि खाते-पीते या अमीर लोगों की बीमारी माने जाते थे लेकिन अब यह रोग ग्रामीण, गरीब बस्तियों और तीस साल तक के युवाओं को शिकार बना रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि डायबीटिज जीवन शैली के बिगड़ने से उपजने वाला रोग है तभी बेरोजगारी, बेहतर भौतिक सुख जोडने की अंधी दौड़ तो खून में शर्करा  की मात्रा बढ़ा ही रही है, कुपोषण , घटिया गुणवत्ता वाला सड़कछाप व पेक्ड भोजन भी इसके मरीजो की संख्या में इजाफा करने का बड़ा कारक है। बदलती जीवन शैली  कैसे मुधुमेह को आमंत्रित करती है इसका सबसे बड़ा उदाहरण लेह-लद्दाख है। भीषण  पहाड़ी इलाका, लोग खूब पैदल चलते थे, जीवकोपार्जन के लिए खूब मेहनत करनी पड़ती थी सो लोग  कभी बीमार नहीं होते  थे। पिछले कुछ दशकों में वहां बाहर प्रभाव और पर्यटक बढ़े। उनके लिए घर में जल की व्यवस्था वाले पक्के मकान बने। बाहरी दखल के चलते यहां अब चीनी यानि शक्कर का इस्तेमाल होने लगा और इसी का कुप्रभाव है कि स्थानीय समाज में अब डायबीटिज जैसे रोग  घर कर रहे हैं। ठीक इसी तरह अपने भोजन के समय, मात्रा, सामग्री में परिवेश व शरीर की मांग के मुताबिक सामंजस्य ना बैठा पाने के चलते ही अमीर व सर्वसुविधा संपन्न वर्ग के लोग  मधुमेह में फंस रहे हैं।


दवा कपंनी सनोफी इंडिया के एक सर्वे में यह डरावने तथ्य सामने आए हैं कि मधुमेह की चपेट में आए लोगों में से 14.4 फीसदी को किडनी और 13.1 को ओखें की रोशनी जाने का रोग लग जाता है। इस बीमारी के लोगों में 14.4 मरीजों के पैरों की धमनियां जवाब दे जाती हैं जिससे उनके पैर खराब हो जाते हैं। वहीं लगभग 20 फीसदी लोग किसी ना किसी तरह की दिल की बीमारी के चपेट में आ जाते हैं। डायबीटिज वालों के 6.9 प्रतिशत लोगों को न्यूरो अर्थात तंत्रिका से संबंधित दिक्कतें भी होती हैं।



यह तथ्य बानगी हैं कि भारत को रक्त की मिठास बुरी तरह खोखला कर रही है। एक तो अमेरिकी मानक संस्थाओं ने भारत में रक्त में चीनी की मात्रा को कुछ अधिक दर्ज करवाया है जिससे प्री-डायबीटिज वाले भी इसकी दवाओं के फेर में आ जाते हैं । यह सभी जानते हैं कि एक बार डायबीटिज हो जाने पर मरीज को जिंदगी भर दवांए खानी पड़ती हैं। मधुमेह नियंत्रण के साथ-साथ रक्तचाप और कोलेस्ट्राल की दवाओं को लेना आम बात है। जब इतनी दवाएं लेंगे तो पेट में बनने वाले अम्ल के नाश के लिए भी एक दवा जरूरी है। जब अम्ल नाश करना है तो उसे नियंत्रित करने के लिए कोई मल्टी विटामिन अनिवार्य है। एक साथ इतनी दवाओं के बाद लीवर पर तो असर पड़ेगा ही। अर्थात प्रत्येक मरीज हर महीने औसतन  डेढ़ हजार की दवा या इंसुलिन तो लेता ही है, अर्थात सालाना अठारह हजार। देश में अभी कुल साढे सात करोड मरीज का अनुमान है । इस तरह यह राशि तेरह लाख पचास हजार करोड़ होती है। इसमें षुगर मापने वाली मशीनों व दीगर पेथलाजिकल टेस्ट को तो जोड़ा ही नहीं गया है।


दुर्भाग्य है कि देश के दूरस्थ अंचलों की बात तो जाने दें, राजधानी या महानगर में ही हजारों ऐसे लेब हैं जिनकी जांच की रिपोर्ट संदिग्ध रहती है। फिर गंभीर बीमारियों के लिए प्रधानमंत्री आरोग्य योजना के तहत पांच लाख तक के इलाज की निशुल्क व्यवस्था में मधुमेह जैसे रोगों के लिए कोई जगह नहीं है। स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जरता की बानगी सरकार की सबसे प्रीमियम स्वास्थ्य योजना सीजीएचएस यानि केंद्रीय कर्मचारी स्वास्थ्य सेवा है जिसके तहत पत्रकार, पूर्व सांसद आदि भी आते हैं। इस योजना के तहत पंजीकृत लोगों में चालीस फीसदी डायबीटिज के मरीज हैं और वे हर महीने केवल नियमित दवा लेने जाते हैं। एक मरीज की औसतन हर दिन की पचास रूपए की दवा। एक मरीज डाक्टर के पास जाता है और उसे किसी विशेषज्ञ के पास भेजा जाता है। विशेषज्ञ कई जांच लिखता है और मरीज को फिर से अपनी डिस्पेंसरी में आ कर जांच को इंडोर्स करवाना होता है। उसके बाद उसके अगले दिन  खाली पेट जांच करवानी होती है। अगले दिन रिपोर्ट मिलती है और वह विशेषज्ञ डाक्टर के पास उसे ले कर जाता है। अब उसे जो दवाएं  लिखी जाती हैं उसे लेने उसे फिर डिस्पेंसरी आना होगा। यदि उनमें कुछ दवाएं उपलब्ध नहीं हो तो दो दिन बाद फिर दवांए लेने डिस्पेंसरी जाना होगा। ईमानदारी से तो डायबीटिज के मरीज को हर महीने विशेशज्ञ डाक्टर को पास जाना चाहिए । उपर बताई प्रक्रिया में कम से कम पांच दिन, लंबी कतारे झेलनी होती हैं। जो कि मरीज की नौकरी से छुट्टी या देर से पहुंचने के तनाव में इजाफा करती हैं। बहुत से मरीज इससे घबरा कर नियमित जांच भी नहीं करवाते। जिला स्तर के सरकारी अस्पतालों में तो जांच से ले कर दवा तक, सबकुछ का खर्चा मरीज को खुद ही वहन करना होता है।


लंदन में यदि किसी परिवर के सदस्य को मधुमेह है तो पूरे परिवार का इलाज सरकार की तरफ से निशुल्क है, ब्लड सेम्पल लेने वाला और दवाई घर पहुँचती है, डोक्टर ऑनलाइन र्रिपोर्ट देखता हैं . न किसी पंक्ति में खड़े होना न पैसे की परवाह .  भारत में भी मधुमेह  मरीजों को ले कर इस तरह का संवेदनशील नजरिया अनिवार्य है .

आज भारत मधुमेह को ले कर बेहद खतरनाक मोड़ पर खड़ा है। जरूरत है कि इस पर सरकार अलग से कोई नीति बनाए, जिसमें जांच, दवाओं  के लिए कुछ कम तनाव वाली व्यवस्था हो । वहीं स्टेम सेल से डायबीटिज के स्थाई इलाज का व्यय महज सवा से दो लाख है लेकिन सीजीएचएस में यह इलाज शामिल नहीं है। सनद रहे स्टेम सेल थेरेपी में बोन मेरो या एडीपेस से स्टेम सेल ले कर इलाज किया जाता है।  का इस इलाज की पद्धति को ज्यादा लोकप्रिय और सरकार की विभिन्न योजनाओं में शामिल  किया जाए तो बीमारी  से जूझने में बड़ा कदम होगा। बाजार में मिलने वाले पेक्ड व हलवाई दुकानों की सामग्री की कड़ी पड़ताल, देश में योग या वर्जिश को बढ़ावा देने के और अधिक प्रयास युवा आबादी की कार्यक्षमता और इस बीमारी से बढ़ती गरीबी के निदान में सकारात्मक कदम हो सकते हैं।

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...