न जलाएं सूखी पत्तियां
पंकज चतुर्वेदी
जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जलाने के लिए कोस रहा था, वह अब खुद अपने हाथों से अपनी तकदीर को आग लगा रहा है । दिल्ली का विस्तार कहलाने वाला गाजियाबाद जिला भले ही आबादी के लिहाज से हर साल विस्तार पा रहा है लेकिन जान कर आश्चर्य होगा कि अभी तक यहाँ के नगर निगम के पास कूड़ा निस्तारण का कोई स्थान है नहीं । चूंकि महानगर के बड़े हिस्से में अभी भी खुलापन, पेड़, हरियाली और बगीचे जिंदा हैं तो जगह-जगह सूखे पत्तों का ढेर लगा है । हर कॉलोनी में इनके निस्तारण के लिए आग लगाना आम बात है । गाजियाबाद केवल एक उदाहरण है , दिल्ली से जितनी दूरी बढ़ती जाएगी सूखे पत्तों को फूंकने की लापरवाही भी बढ़ेगी । कुछ लोगों के लिए यह झड़ते पत्ते महज कचरा हैं और वे इसे समेट कर जलाने को परंपरा, मजबूरी, मच्छर मारने का तरीका व ऐसे ही नाम देते हैं। असल में यह ना केवल गैरकानूनी है, बल्कि अपनी प्रकृति के साथ अत्याचार भी है।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने तो सन 2016 में बड़े सख्त लहजे में कहा था कि पेड़ों से गिरने वाली पत्तियों को जलाना दंडनीय अपराध है व प्रशासनिक अमले यह सुनिश्चित करें कि आगे से ऐसा ना हो। इस बारे में समय-समय पर कई अदालतें व महकमे आदेश देते रहे हैं, लेकिन कानून के पालन को सुनिश्चित करने वाली संस्थाओं के पास इतने लोग व संसाधन हैं ही नहीं कि हरित न्यायाधिकरण के निर्देश का शत-प्रतिशत पालन करवा सके। कुछ साल पहले लुटियन दिल्ली में एक सांसद की सरकारी कोठी में ही पत्ती जलाने पर मुकदमा कायम हुआ था , उसके बाद दिल्ली में तो इस विषय में जागरूकता और सतर्कता है । लेकिन कई जगह तो नगर को साफ रखने का जिम्मा निभाने वाले स्थानीय निकाय खुद ही कूड़े के रूप में पेड़ से गिरी पत्तियों को जला देते हैं। असल में पत्तियों को जलाने से उत्पन्न प्रदूषण तो खतरनाक है ही ,सूखी पत्तियां कई मानों में बेशकीमती हैं व प्रकृति के विभिन्न तत्वों का संतुलन बनाए रखने में उनकी महति भूमिका है।
सूखी पत्तियां जलाने से इंसान खुद ही कई बीमारियों को न्योता देता है । यह अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, आंखों में खुजली, सिरदर्द और नाक बहना और यहां तक कि जीवन के लिए खतरा पैदा करने वाली फैनफड़ों जटिलताएं भी हो सकती हैं। गिरी हुई पत्तियों को जलाने के अल्पकालिक और दीर्घकालिक संपर्क से अस्थमा के दौरे, दिल के दौरे और कार्बन मोनोऑक्साइड विषाक्तता का खतरा भी बढ़ सकता है।
दिल्ली हाई कोर्ट दिसंबर-1997 में ही आदेश पारित कर चुकी थी कि चूंकि पत्तियों को जलाने से गंभीर पर्यावरणीय संकट पैदा हो रहा है अतः इस पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जाए। सन 2012 में दिल्ल्ी सरकार ने पत्ते जलाने पर एक लाख रूपए जुर्माने व पांच साल तक की कैद का प्रावधान किया था।। ठीक ऐसे ही मिलते-जुलते कानून व आदेश हरयाणा व उ.प्र सरकार समय-समय पर जारी करती रहती है। एक तो ऐसे मामलों की कोई शिकायत नहीं करता, दूसरा पुलिस भी ऐसे पचड़ों में फंसती नहीं व स्थानीय निकाय के लोग खुद ऐसी हरकतें करते हैं; सो जाने-अनजाने पूरा समाज वातावरण में जहर घोलने की शव- यात्रा का सहयात्री बनता है। ऐसे विभागीय या अदालती आदेश कहीं ठंडे बस्तें में गुम हो गए हैं और दिल्ली एनसीआर की आवोहवा इतनी दूषित हो चुकी है कि पांच साल के बच्चे तो इसमें जी नहीं सकते हैं। दस लाख से अधिक बच्चे हर साल सांस की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। प्रदूषण कम करने के विभिन्न कदमों में हरित न्यायाधिकरण ने पाया कि महानगर में बढ़ रहे पीएम यानि पार्टीकुलेट मैटर का 29.4 फीसदी कूड़ा व उसके साथ पत्तियों को जलाने से उत्पन्न हो रहा है।
पेड़ की हरी पत्तियों
में मौजूद क्लोरोफिल यानि हरा पदार्थ , वातावरण
में मौजूद जल-कणों या आर्द्रता हाईड्रोजन व आक्सीजन में विभाजित कर देता है।
हाईड्रोजन वातावरण में मौजूद जहरीली गैस कार्बड डाय आक्साईड के साथ मिल कर
पत्तियों के लिए शर्करायुक्त भोजन उपजाता है। जबकि आक्सीजन तो प्राण वायु है ही।
जब पत्तियों का क्लोरोफिल चुक जाता है तो उसका हरापन समाप्त हो जाता है व वह पीली
या भूरी पड़ जाती हैं। हालांकि यह पत्ती पेड़ के लिए भोजन बनाने के लायक नहीं रह जाती है हैं लेकिन उसमें नाईट्रोजन, प्रोटिन, विटामिन, स्टार्च
व शर्करा आदि का खजाना होता है। ऐसी पत्तियों को जब जलाया जाता है तो कार्बन, हाईड्रोजन, नाईट्रोजन व कई बार सल्फर से बने
रसायन उत्सर्जित होते हैं। इसके कारण वायुमंडल की नमी और आक्सीजन तो नष्ट होती ही
है, कार्बन मोनो आक्साईड, नाईट्रोजन
आक्साईड, हाईड्रोजन सायनाईड, अमोनिया, सल्फर डाय आक्साईड जैसी दम घोटने वाली
गैस वातावरण को जहरीला बना देती हैं। इन दिनों अर्जुन, नीम, पीपल, इमली, जामुन, ढाक, अमलतास, गुलमोहर,शीशम जैसे पेड़ से पत्ते गिर रहे हैं और यह
मई तक चलेगा। अनुमान है कि दिल्ली एनसीआर में दो हजार हैक्टर से ज्यादा
इलाके में हरियाली है व इससे हर रोज 200 से 250 टन पत्ते गिरते हैं और इसका बड़ा हिस्सा जलाया जाता है।
एक बात और पत्तों के
तेज जलाने की तुलना में उनके धीरे-धीरे सुलगने पर ज्यादा प्रदूषण फैलता है। एक
अनुमान है कि दिल्ली एनसीआर इलाके में जलने वाले पत्तों से पचास हजार वाहनों से
निकलने वाले जहरीले धुएं के बराबर जहर फैलता है। यानि चाहे जितना प्रयास कर लें
पतझड़ के दो महीने में ही सालभर का जहर हवा में घुल जाता है। सनद
रहे पत्ते जलने से निकलने वाली सल्फर डाई आक्साईड, कार्बन मोनो व डय
आक्साईड आदि गैसे दमघोटूं होती हैं। शेष बची राख भी
वातावरण में कार्बन की मात्रा तो बढ़ती ही है, जमीन की
उर्वरा क्षमता भी प्रभावित होती है।
अमेरिका और यूरोप के
देशों में पेड़ से गिरी पट्टी को वहाँ से उठाने पर भी पाबंदी है क्योंकि वे जानते
हैं कि यह पट्टी सूख कर धरती को संरड़ध कर रही है । यदि केवल एनसीआर की हरियाली से
गिरे पत्तों को धरती पर यूं ही पड़ा रहने दें तो जमीन की गर्मी कम होगी, मिट्टी की नमी घनघोर गर्मी
में भी बरकरार रहेगी। यदि इन पत्तियों को महज खंती में दबा कर कंपोस्ट खाद में बदल
लें तों लगभग 100 टन रासायनिक खाद का
इस्तेमाल कम किया जा सकता है। इस बात का इंतजार करना बेमानी है कि
पत्ती जलाने वालों को कानून पकड़े व सजा दे। इससे बेहतर होगा कि समाज तक यह संदेश भली भांति पहुंचाया जाए कि सूखी पत्तियां पर्यावरण-मित्र हैं
और उनके महत्व को समझना, संरक्षित करना सामाजिक
जिम्मेदारी है। इसके लिए स्कूल स्तर पर बच्चों को जागरूक करने, आर डब्लू
ए स्तर पर जागरूकता और प्रशासन के स्तर पर निगरानी अनिवार्य है ।
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