My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 30 जनवरी 2023

Not easy to modify agreement on Sindhu River with Pakistan

 कैसे सुलझे सिंधु नदी जल विवाद
पंकज चतुर्वेदी


सिंधु जल के बंटवारे को ले कर एकबार फिर भारत ने पाकिस्तान को चेतावनी दे दी है। यह सच है कि पाकिस्तान हमारी दो परियोजनाओं - किशनगंगा और रातले पनबिजली परियोजनाओं पर तकनीकी आपत्तियों की जांच के लिए तटस्थ विशेषज्ञ की नियुक्ति करने के 2015 के आग्रह से खुद  पीछे हट कर अब मामले को मध्यस्थता अदालत में ले जाने पर अड़ा है।यह कदम संधि के अनुच्छेद 9 में विवादों के निपटारे के लिए बनाए गए तंत्र का उल्लंघन है। इसी लिए भारत ने सितंबर 1960 में हुई सिंधु जल संधि (आईडब्ल्यूटी) में संशोधन के लिए पाकिस्तान को नोटिस जारी किया है। भारत ने इस संधि या समझौते को लागू करने में इस्लामाबाद की ‘हठधर्मिता’ के बाद यह कदम उठाया । गौरतलब है कि अगस्त 2021 में अपनी रिपोर्ट में संसद की एक स्थायी समिति ने सिफारिश की थी कि आईडब्ल्यूटी पर फिर से बातचीत की जाए ताकि जलवायु परिवर्तन के नदी में जल उपलब्धता पर पड़े असर और अन्य चुनौतियों से जुड़े उन मामले को निपटाया जा सके जिनको समझौते में शामिल नहीं किया गया है।

पाकिस्तान के सरकार पोषित आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारत ने पाकिस्तान को जाने वाली नदियों का पानी रोकने पर विचार लंबे समय से चल रहा  है, लेकिन विचार करना होगा कि क्या यह व्याहवारिक रूप से तत्काल संभव होगा ? पानी रोकने का काम कोई बटन दबाने वाला है नहीं और पाकिस्तान को तत्काल जवाब दे कर ही सुधारा जा सकता है। दुनिया की सबसे बड़ी नदी-घाटी प्रणालियों में से एक सिंधु नदी की लंबाई कोई 2880 किलोमीटर है । सिंधु नदी का इलाका करीब 11.2 लाख किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. ये इलाका पाकिस्तान (47 प्रतिशत), भारत (39 प्रतिशत), चीन (8 प्रतिशत) और अफ़गानिस्तान (6 प्रतिशत) में है । अनुमान है कि कोई 30 करोड़ लोग सिंधु नदी के आसपास के इलाकों में रहते हैं। सिंधु नदी  तंत्र की छह नदियों में कुल 168 मिलियन एकड़ की जल निधि है। इसमें से भारत अपने हिस्से का 95 फीसदी पानी इस्तेमाल कर लेता है। षेश पांच  फीसदी पानी रोकने के लिए अभी कम से कम छह साल लगेंगे और इसकी कीमत आएगी 8327 करोड़। 

इसमें पानी  की मात्रा दुनिया की सबसे बड़ी नदी कहलाने वाली नील नदी से भी दुगनी है। तिब्बत में कैलाश पर्वत श्रंखला से बोखार-चू नामक ग्लेशियर (4164 मीटर) के पास से अवतरित सिंधु नदी भारत में लेह क्षेत्र से ही गुजरती है। लद्दाख सीमा को पार करते हुए जम्मू-कश्मीर में गिलगित के पास दार्दिस्तान क्षेत्र में इसका प्रवेश पाकिस्तान में होता है।  पंजाब का जिन पांच नदियों राबी, चिनाब, झेलम, ब्यास और सतलुज के कारण नाम पड़ा, वे सभी िंसंधु की जल-धारा को समृद्ध करती हैं। सतलुज पर ही भाखडा-नंगल बांध हैं।  भले ही भारत व पाकिस्तान के बीच भौगालिक सीमाएं खिंच चुकी हैं लेकिन यहां की नदियां, मौसम, संस्कृति, सहित कई बातें चाह कर भी बंट नहीं पाईं।

सिंधु नदी प्रणाली का कुल जल निकासी क्षेत्र 11,165,000 वर्ग किमी से अधिक है। वार्षिक प्रवाह की दृष्टि से यह विश्व की 21वीं सबसे बड़ी नदी है। यह पाकिस्तान के भरण-पोषण का एकमात्र साधन भी है। अंग्रेजों ने पाकिस्तान के पंजाब क्षेत्र की सिंचाई के लिए विस्तृत नहर प्रणाली का निर्माण किया था। विभाजन ने इस बुनियादी ढांचे का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में छोड़ दिया, लेकिन हेडवर्क बांध भारत में बने रहे, जिससे पाकिस्तान के बड़ी जोत वाले जमींदारों में हर समय एक डर का भाव रहा है। सिंधु नदी बेसिन के पानी को बंटवारे  के लिए कई वर्षों की गहन बातचीत के बाद विश्व बैंक ने भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि की मध्यस्थता की। । सन 1947 में आजादी के बाद से ही दोनो देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय नदियों के जल बंटवारे को ले कर विवाद चलता रहा। कई विदेशी विशेषझों के दखल के साथ दस साल तक बातचीत चलती रही और 19 सितंबर 1960 को कराची में दोनों देशों ंके बीच जल बंटवारे को ले कर समझौता हुआ। भारत-पाकिस्तान के बीच इस समझौते की नजीर सारी दुनिया में दी जाती है कि तीन-तीन युद्ध और लगातार तनावग्रस्त ताल्लुकातों के बावजूद दोनों में से किसी भी देश ने कभी इस संधि को नहीं तोड़ा। इस समझौते के मुताबिक सिंधु नदी की सहायक नदियों को  दे हिस्सों - पूर्वी और पश्चिमी नदियों में बांटा गया। सतलज, ब्यास और रावी नदियों को पूर्वी जबकि झेलम, चेनाब और सिंधु को पश्चिमी क्षेत्र की नदी कहा गया। पूर्वी नदियों के पानी का पूरा हक भारत के पास है तो पश्चिमी नदियों का पाकिस्तान के पास। बिजली, सिंचाई जैसे कुछ सीमित मामलों में भारत पश्चिमी नदियों के जल का भी इस्तेमाल कर सकता है। समझौता भलीभांति लागू हो इसके लिए एक सिंधु आयोग है और दोनों देशो की तरफ से कमिश्नर नियमित बैठकें करते हैं। 

यहां जानना जरूरी है कि पानी की बात केवल सिंधु नदी की नहीं होती, इसके साथ असल में पंजाब की पांच नदियों के पानी का मसला है। पाकिस्तान का कहना है कि भारत को अपने हिस्से की पूर्वी नदियों का पानी रोकने और उसका पूरा इस्तेमाल करने का पूरा हक है। सनद रहे कि भारत रावी नदी पर शाहपुर कंडी बांध बनाना चाहता था, लेकिन इस परियोजना को सन 1995 से रोका गया है। ठीक इसी तरह से समय-समय पर भारत ने अपने हिस्से की पूर्वी नदियों का पानी रोकने के प्रयास किए लेकिन सामरिक दृष्टि से ऐसी योजनाएं परवान नहीं चढ़ पाईं। लेकिन अब षाहपुर कंडी के अलावा  सतलुज-व्यास लिंक योजना और कष्मीर में उझा बांध पर भी काम हो रहा है। इससे भारत अपने हिस्े का सारा पानी इस्तेमाल कर सकेगा। 

वैसे भी भारत-पाकिस्तान की जल-संधि में विश्व बैंक सहित कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं शामिल हैं और उन्हें नजरअंदाज कर पाकिस्तान का पानी रोकना कठिन होगा। हां, पाकिस्तान की सरकार का आतंकवदी गतिविधियों में सीधी भागीदारी सिद्ध करने के बाद ही यह संभव होगा। लेकिन असल सवाल है कि  हम पानी रोक सकते हैं क्या ? यदि हम नदी का पानी रोकते हें तो उसे सहेज कर रखने के लिए बड़़े जलाशय, बांध चाहिए और वहां जमा पानी के लिए नहरें भी। सिंधु घाटी के नदी तंत्र को गांगेय नदी तंत्र अर्थात गंगा-यमुना से जोड़ना तकनीकी रूप से संभव ही नहीं है। गौरतलब है कि केन-बेतवा नदियों को जोड़ने की परियोजना 20 साल बाद भी धरातल पर नहीं आ पाई है। ऐसे में यमुना में सिंधु-तंत्र की नदियों को मिलाना तात्कालीक तो क्या दूरगामी भी संभव नहीं है।  यदि पानी रोकने का प्रयास किया गया तो जम्मू, कश्मीर , पंजाब आदि में जल भराव  हो जाएगा और इससे जमीन पर उर्वर क्षमता प्रभावित होने की पूरी गुंजाईश है। 

आजादी के इतने साल बाद भी अपने हिस्से की नदियों का पूरा पानी इस्तेमाल करने के लिए बांध आदि ना बना पाने का असल कारण सुरक्षा व प्रतिरक्षा नीतियां हैं। सीमा के पार साझा नदी पर कोई भी विशाल जल-संग्रह दुश्मनी के हालात में पाकिस्तान के लिए ‘जल-बम’ के रूप में काम आ सकता है। यहां जानना जरूरी है कि भारत में ये नदियों उंचाई से पाकिस्तान में जाती हैं। इनके प्राकृतिक जल-प्रवाह पर कोई भी रोक समूचे उत्तरी भारत के लिए बड़ा संकट हो जाएगा। हम पानी एकत्र भी कर लें तो हमारी उतनी ही बेशकीमती जमीन दल-दल में बदल सकती है। 

यह संकट केवल इतना ही नहीं हैं, भारत से पाकिस्तान जाने वाली नदियों पर चीन के निवेश से कई बिजली परियोजनाएं हैं। यदि उन पर कोई विपरीत असर पड़ा तो चीन ब्रहंपुत्र के प्रवाह के माध्यम से हमारे समूचे पूर्वोत्तर राज्यों को संकट में डाल सकता है। अरूणाचल व मणिपुर की कई नदियों चीन की हरकतों के कारण अचानक बाढ़, प्रदूषण  और सूखे को झेल रही हैं। 


रविवार, 29 जनवरी 2023

The chaupals of Gandhi's echo till the villages

 गांवों तक गांधी की गूंज के चौपाल

पंकज चतुर्वेदी



न को मंच , न अतिथी , न माला  या स्वागत – गाँव के किसी मंदिर में ,कसबे के किसी चबूतरे पर  या किसी के घर के आँगन  में या फिर खुले मैदान में – कभी बीस तो कभी 200 कभी  उससे भी ज्यादा लोग एकत्र होते हैं . रघुपति राघव  राजाराम – के गान से  सभा शुरू होती है  और फिर विमर्श खेती के संकट, गरीबी, महंगाई , गुस्से  की पटरी पर उतर आता है .  इन बैठकों को नाम दिया गया  है – गांधी चौपाल . इसमें शामिल लोग खाड़ी की सफ़ेद टोपी अवश्य लगाते हैं .गांधी का स्वावलम्बन का सिद्धांत  क्या था और आज भी वह क्यों प्रासंगिक है ? सवा रोजगार या कुटीर उद्योग कैसे शुरू करें ? शिक्षा क्यों जरुरी है, कुछ व्यक्तियों के हाथों में देश की अधिकाँश सम्पदा आ जाने के क्या नुक्सान है ? ऐसे ही सवाल और जवाब चलते हैं और केंद्र होता है कि महत्मा गांधी  आज की विषम परिस्थिति में गाँव – स्वराज के साथ कैसे अनिवार्य हैं ? 


पिछली दो अक्तूबर  से मध्य प्रदेश के गाँवों में गांधी  विमर्श का यहा स्वरुप लोगों को बहुत भा रहा है . यह सच है कि इसकी परिकल्पना करने वाले लेखक और सामाजिक कार्यकर्त्ता भूपेन्द्र गुप अगम , कांग्रेस से जुड़े हैं और गांधी चौपाल को पूर्व मुख्यमंत्री  कमल नाथ इस तरह चौपाल आयोजन में  नीति बनाने से ले कर  क्रियान्वयन तक सीधे शामिल हैं , लेकिन यह अनुशाशन स्थापित रखना कोई कम नहीं है कि इस तरह की आयोजनों में किसी नेता या राजनितिक दल के समर्थन या विरोध की तकरीर, नारे , प्रशस्ति आदि होती नहीं – केवल और केवल गांधी  की बातें है. इसमें भजन, सांस्कृतिक कार्यक्रम,नुक्कड़ नाटक, देशभक्ति व स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित लघु फिल्मों का प्रदर्शन, कांग्रेस के नेतृत्व में हुए स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास पर चर्चा, वर्तमान राजनीतिक स्थिति, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने सहित अन्य मुद्दों पर चर्चा होती है । महंगाई और बेरोजगारी पर आमजन से बात की जाती है  कई बार मंदिर का प्रसाद बाँट जाता है तो कभी कोई गाँव वाल चाय पिला देता है . कुछ जगह पूरे  गाँव के हर जाती-धर्म के लोगों ने एक साथ भोज भी किये—कहनी गकरियाँ तो कहीं पूड़ी >



दो अक्तूबर 22  को भोपाल  के करीब मुगलिया छाप के बम्होरी से जब यह गांधी चौपाल शुरू की गई तो – पता चला कि इस गाँव में तो बिजली ही नहीं हैं , विधायक पी सी शर्मा के फंड से खम्भे लगे और वहां बिजली जगमगा गई . पहली बार गाँव वालों को भी लगा कि  गांधी बाबा के जरिये अपनी मांग भी पूरी हो सकती है . आमतौर  पर गाँवों में चौपाल के बाद सामाजिक कार्यकर्त्ता बस्ती का चक्कर लगाते हैं, जी लोग सभी में नहीं आए , उनसे मिलते हैं, गाँव-मोहल्ले की  समस्याओं का आकलन करते हैं और उसके निराकरण के लिए लिखा पढी भी .इसका असर भी दिख रहा – सिंगरोली  में चौपाल से जानकारी मिली कि वहां छः महीने से राशन नहीं बनता और एक साथ दस्तखत करवा कर महज एक महीने का राशन  दिया . कुछ जगहों से पता चला कि वहां अब गेंहूँ  नहीं दिया जा रहा, केवल चावल दे रहे हैं – वह भी  घटिया .


मध्य प्रदेश में अभी तक  17  हज़ार गांधी चौपाल लग चुकी है और इससे कई लाख लोग जुड़ चुके हैं . कुछ लोग तो इतने  दीवाने हैं कि उनके कार में गाँधी बाबा की एक तस्वीर, एक दरी और ढोलक र्कही ही रहती हैं , रस्ते में जहाँ दो-पांच लगो दिखे, , वे रघुपति राघव  का गायन शुरू कर देते हैं . लोगों के करीब आने पर  उन्हें गांधी के किस्से, कहानी, गांधी की आज  जरूरत आदि पर बात  करते हैं .  कमल नाथ अपने क्षेत्र में कई चौपाल में खुद गये हैं . प्रदेश के सबसे कम उम्र में विधायक नीरज दीक्षित ने तो इन बैठकों के जरिये  आम लोगों की दिक्कतों को सीधे सुनने  और अपने वेतन का धन  लगा कर उनका निराकरण का संकल्प ले लीया है . ऐसी सभाओं में एकत्र लोगों के मोबाइल का रिकार्ड रखा जाता है और अब इन्हें नियमित रूप से गांधी  से जुडा  साहित्य, सन्देश , भाषण आदि व्हात्सेप पर भेजा जा रहा है . इससे एक नया विश्वास भी जागृत हुआ है . कुछ जगहों पर आपसी  झगड़ों का नीराकर्ण बगिर पुलिस- कचहरी  के  गांधी के चित्र के सामने हो गया . गांधी  चौपाल को जन आन्दोलन बनाने वाले भूपेन्द्र गुप्त के पिता   सेवादल से जुड़े थे और आज़ादी की लड़ी में कई बार जेल गए, उनके घर खादी और गांधी को पूजा जाता है . उनका कहना है कि  गांधी बाबा आज भी नफरत को मिटाने की एकमात्र जड़ी है.


गांधी जी ने गांवों की तीन बीमारियों को इस तरह बताया, पहला सार्वजनिक स्वक्षता की कमी। दूसरा पर्याप्त और पोषक आहार की कमी। तीसरा ग्राम वासियों की जड़ता। यही नही गांवों को इन बीमारियों से निजात दिलाने के लिए वो शहरवासियों का सहयोग भी जरूरी समझते थे। गांधी जी गांवों को अपनी आवश्यकाताओं के लिए स्वावलंबी भी बनते देखना चाहते थे।गांधीजी स्वतंत्र भारत को आत्मनिर्भर गांवों का महासंघ बनाना चाहते थे। गांधीजी ग्राम-सभ्यता को कभी-भी नष्ट नहीं होने देना चाहते थे। उनका कहना था कि, हम ऊंची ग्राम सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं। हमारे देश की विशालता, आबादी की विशालता और हमारी भूमि की स्थिति तथा आबोहवा ने मेरी राय में मानों यह तय कर दिया है कि उसकी सभ्यता ग्राम सभ्यता होगी, और दूसरी कोई नहीं। इन ग्राम सभाओं में गाँव का अस्तित्व क्यों जरुरी है ? खेती के साथ कुटी उद्योग किस  तरह  कम कर सकते हैं ? इनके लिए किस तरह की सरकारी योजनायें हैं ?  ऐसे मुद्दों पर भी  विमर्श होता है .



पहले यह अभियान 30 जनवरी 23  तक चलाया जाना था  लेकिन अब इसके प्रति लोगों की जिज्ञासा को देखा कर  इसे  अगले 2 अक्तूबर तक विस्तार  दिया जा रहा है . अगले चरण  में ई – चौपाल  पर अधिक जोर दिया जाएगा ताकि शहरी, युवा  और तकनिकी प्रेमी लोगों को घर बैठे गांधी विमर्श से जोड़ा जा सके , सोशल मिडिया और अन्य  डिजिटल मीटिंग प्लेटफोर्म अपर देश के जाने माने गान्धिवादियोंको आमंत्रित कियाजायेगा, एक छोटा सा विमर्श और फिर लोगों की जिज्ञासा, प्रश्नों के उत्तर . इस दौर में कई डिजिटल समूह भी बनाए जा रहे हैं जो वर्मान समस्या और उस अपर महात्मा गांधी के विचारों को संयोजित कर लोगों के मोबाइल तक भेजेंगे .

गाँव में गांधी की आत्मा को जीवंत रखने के इस प्रयोग पर  राजनीती के भी आक्षेप हैं , कहाँ जा रहा है कि कांग्रेस के लोग इस बहाने दूरस्थ अंचल तक अपनी टीम बना रहे हैं . हालाँकि गांधी को वोट की राजनीती स एपरे रखना चाहिए, फिर भी यदि कोई गांधी की निति का प्रसार कर सियासत कर रहा है तो यह देह के लोकतंत्र के लिए एक सकारात्मक कदम होगा – कम से कम नफरत के नाम पर तो कोई राजनीती नहीं कर रहा !

 

गुरुवार, 26 जनवरी 2023

Yamuna does not need alliance of promises

 यमुना को वादों की नहीं इरादों की दरकार है

पंकज चतुर्वेदी



 

कोई तीन दशक तक अदालती निगरानी के बावजूद  दिल्ली में यमुना के हालात नहीं बदले . सन 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी से पहले  राजधानी में  यमुना नदी को टेम्स की तरह  चमका देने के वायदे के बाद आम आदमी पार्टी के चुनावी घोषणा पात्र की बात हो या  केंद्र सरकार के दावे के , महज 42 किलोमीटर के दिल्ली प्रवास में  यह पावन  धारा हांफ जाती है , कई करोड़ रूपये इसकी बदतर हालत को सुधार नहीं पाए क्योंकि नदी धन से नहीं मन और आस्था से पवित्र बनती है . केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की वर्ष 2022 की नई रिपोर्ट ‘पाल्यूटिड रिवर स्ट्रेच्स फार रेस्टोरेशन आफ वाटर क्वालिटी’   की रिपोर्ट  कहती है कि जब 2018-19 में  राजधानी में यमुना की अलग- अलग लोकेशनों से पानी के नमूने लिए तब बायोलाजिकल आक्सीजन डिमांड (बीओडी) की सबसे ज्यादा मात्रा 83.0 मिलीग्राम प्रति लीटर थी और 2021- 22 में लिए गए नमूने में भी इसकी मात्रा 83.0 मिलीग्राम प्रति लीटर ही मिली. मतलब साफ है कि चार साल पहले यमुना में प्रदूषण की स्थिति जैसी थी, वैसी ही आज भी है.

एक बात स्पष्ट है कि जब तक दिल्ली अपने हिस्से की यमुना को  अविरल, स्वच्छ और प्रवाहमय नहीं रखती , यहाँ का जल संकट दूर होने वाला नहीं हैं . यदि दिल्ली में बरसात की हर बूंद को यमुना में रखने की व्यवस्था हो जाए तो यह राज्य अतिरिक्त जल निधि वाला बन सकता है लेकिन दिल्ली को यमुना से पानी तो चाहिए , उसका अस्तित्व नहीं . यमुना के संघर्ष भरे सफर को सर्वाधीक दर्द दिल्ली में ही मिलता है . अपने कूल प्रवाह का महज दो फीसदी अर्थात 48 किलोमीटर यमुना दिल्ली में बहती है, जबकि इसे प्रदूषित करने वाले कुल गंदे पानी का 71 प्रतिशत और बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड यानी बीओडी का 55 प्रतिशत यहीं से इसमें घुलता है। अनुमान है कि दिल्ली में हर रोज 3297 एमएलडी गंदा पानी और 132 टन बीओडी यमुना में घुलता है। दिल्ली में यमुना का प्रवेश पल्ला गाँव में होता है जहाँ नदी का प्रदूषण का स्तर 'ए” होता है, लेकिन यही उच्च गुणवत्ता का पानी जब दूसरे छोर जैतपुर पहुँचता है तो 'ई’ श्रेणी का जहर बन जाता है. इस स्तर का पानी मवेशियों के लिए भी अनुपयुक्त है. हिमालय के यमनोत्री ग्लेशियर से निर्मल जल के साथ आने वाली यमुना जैसे ही वजीराबाद बाँध को पार करती है , नजफगढ़ नाला इस ‘रिवर’ को ‘सीवर’ बना देता है . यह 38 शहरी व चार देहाती नालों की गंदगी अपने में समेटे वजीराबाद पुल के पास यमुना में मिलता है. फिर  महानगर की कोई दो  करोड़ आबादी का मल-मूत्र व अन्य गंदगी में सने मैगजीन रोड, स्वीयर कॉलोनी, खैबर पास, मेंटकाफ हाउस, कुदेसिया बाग, यमुनापार नगर निगम नाला, मोरीगेट, सिविल मिल, पावर हाउस,  जैसे  नाले यमुना में मिलते हैं. ऐसे  38 बड़े नालों पर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाया जाना था। लेकिन, दिल्ली सरकार ऐसा नहीं कर पाई। इस कारण सभी नालों का प्रदूषित पानी नदी में गिरकर उसे जहरीला बना रहा है।

 

 

 

 सन 1993  से अभी तक  दिल्ली में यमुना के हालात सुधारने के नाम पर  दिल्ली सरकार ने 5400 करोड़ का खर्चा हुआ , इसमें से 700 करोड़ की राशी सन 2015 के बाद खर्च की गई . किसी को याद भी नहीं होगा कि फरवरी-2014 के अंतिम हफ्ते में ही शरद यादव की अगुवाई वाली संसदीय समिति ने भी कहा था कि यमुना सफाई के नाम पर व्यय 6500 करोड़ रूपए बेकार ही गए हैं, क्योंकि नदी पहले से भी ज्यादा गंदी हो चुकी है। समिति ने यह भी कहा कि दिल्ली के तीन नालों पर इंटरसेप्टर सीवर लगाने का काम अधूरा है। गंदा पानी नदी में सीधे गिर कर उसे जहर बना रहा है।

विडंबना तो यह है कि इस तरह की संसदीय  और अदालती चेतावनियां, रपटें ना तो सरकार के और ना ही समाज को जागरूक कर पा रही हैं। यमुना की पावन धारा दिल्ली में आ कर एक नाला बन जाती है। आंकडों और कागजों पर तो इस नदी की हालत सुधारने को इतना पैसा खर्च हो चुका है कि यदि उसका ईमानदारी से इस्तेमाल किया जाता तो उससे एक समानांतर धारा की खुदाई हो सकती थी। ओखला में तो यमुना नदी में बीओडी स्तर सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय स्तर से 40-48 गुना ज्यादा है। पेस्टीसाइडस् और लोहा, जिंक आदि धातुएं भी नदी में पाई गई हैं। एम्स के फारेन्सिक विभाग के अनुसार, 2004 में 0.08 मिग्रा. आर्सेनिक की मात्रा पाई गई जो वास्तव में 0.01 मिग्रा होनी चाहिए।

यमुना जब देहरादून की घाटी में पहुंचती है तो वहां कालसी-हरीपुर के पास उसमें टौस (तमसा) आ मिलती है। षिवालिक पहाड़ों में तेजी से घूमते-घामते यमुना फैजाबाद में मैदानों पर आ जाती है।  फिर इससे कई नहरें निकलती है। पहले-पहल जिन नदियों पर नहरें बनीं, उनमें यमुना एक है। यमुना के इस संघर्ष भरे  सफर का सबसे दर्दनाक पहलू इसकी दिल्ली-यात्रा है। यमुना नदी दिल्ली में 48 किलोमीटर बहती है। यह नदी की कुल लंबाई का महज दो फीसदी है। जबकि इसे प्रदूषित  करने वाले कुल गंदे पानी का 71 प्रतिशत और बायोकेमिकल आक्सीजन डिमांड यानी बीओडी का 55 प्रतिषत यहीं से इसमें घुलता है। अनुमान है कि दिल्ली में हर रोज 3297 एमएलडी गंदा पानी और 132 टन बीओडी यमुना में घुलता है। दिल्ली की ऐतिहासिंक और सांस्कृतिक धरोहर कही जाने वाली यमुना का राजधानी में प्रवेष उत्तर में बसे पल्ला गांव से होता है। पल्ला में नदी का प्रदूशण का स्तर ‘ए’ होता है। लेकिन यही उच्च गुणवत्ता का पानी जब दूसरे छोर जैतपुर पहुचता है तो ‘ई’ श्रेणी का हो जाता है। सनद रहे कि इस स्तर का पानी मवेषियों के लिए भी अनुपयुक्त कहलाता है।

दिल्ली मे यमुना को साफ-सुथरा बनाने की कागजी कवायद कोई 40 सालों से चल रह है। सन अस्सी में एक योजना नौ सौ करोड़ की बनाई गई थी। दिसंबर-1990 में भारत सरकार ने यमुना को बचाने के लिए जापान सरकार के सामने हाथ फैलाए थे। जापानी संस्था ओवरसीज इकोनोमिक कारपोरेषन फंड आफ जापान का एक सर्वें दल जनवरी- 1992 में भारत आया था। जापान ने 403 करेड़ की मदद दे कर 1997 तक कार्य पूरा करने का लक्ष्य रखा था। लेकिन यमुना का मर्ज बढ़ता गया और कागजी लहरें उफनती रहीं। 12 साल  पहले एक बार फिर यमुना को अपने जीवन के लिए सरकार से उम्मीद बंधी थी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के निर्देश पर यमुना नदी विकास प्राधिकरण(वाईआरडीए) का गठन किया गया था। दिल्ली के उपराज्यपाल की अध्यक्षता में दिल्ली जल बोर्ड, प्रदूशण बोर्ड सहित कई सरकारी व गैर सरकारी संगठनों को साथ ले कर एक तकनीकी सलाहकार समूह का गठन हुआ था। उस समय सरकार की मंशा थी कि एक कानून बना कर यमुना में प्रदुषण  को अपराध घोशित कर राज्यों व स्थानीय निकायों को इसका जिम्मेदार बना दिया जाए। लेकिन वह सबकुछ कागजों से आगे बढ़ा ही नहीं । आज यह प्राधिकरण यमुना किनारे की जमीन पर व्यावसायिक गतिविधियों के लिए सौदर्यीकरण व रिवर फ्रंट बनाने की बात कर रहा है, जबकि इससे महज नदी की धारा सिकुडेगी, उसका नैसर्गिक मार्ग बदलेगा।

हरियाणा सरकार  इजराइल के साथ मिल कर यमुना के कायाकल्प की योजना बना रही है और इस दिशा में हरियाणा सिंचाई विभाग ने अपने सर्वे में पाया है कि यमुना में गंदगी के चलते दिल्ली में सात माह पानी की किल्लत रहती है। दिल्ली में यमुना, गंगा और भूजल से 1900 क्यूसेक पानी प्रतिदिन प्रयोग में लाया जाता है। इसका 60 फीसद यानी करीब 1100 क्यूसेक सीवरेज का पानी एकत्र होता है। यदि यह पानी शोधित कर यमुना में डाला जाए तो यमुना निर्मल रहेगी और दिल्ली में पेयजल की किल्लत भी दूर होगी।

 

एक बार फिर एन जी टी ने दिल्ली के उपराज्यपाल की अध्यक्षता में एक समिति बना कर यमुना को बचाने की कवायद शुरू की है . हमारी मान्यताओं के मुताबिक यमुना नदी महज एक पानी का जरिया मात्र नहीं है। बच्चे के जन्म के बाद मुंडन से ले कर अंतिम संस्कार के बाद अस्थि विसर्जन तक यमुना की पावनता इंसान के जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। यदि यमुना को एक मरे हुए नाला बनने से बचाना है तो इसके उद्धार के लिए मिले सरकारी पैसों का इस्तेमाल ईमानदारी से करना जरूरी है। वरना यह याद रखना जरूरी है कि मानव-सभ्यता का अस्तित्व नदियों का सहयात्री है और इसी पर निर्भर है।

पंकज चतुर्वेदी

संपर्क- 9891928376

 

 

 

 

शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

Dhirendra Shastri: Those who spread blind faith are actually vote brokers

 धीरेन्द्र शास्त्री : अंध विश्वास फैलने वाले असल में वोटो के दलाल है

मैं उसी छतरपुर जिले का हूँ जहां के धीरेंद्र शास्त्री इन दिनों हिन्दू -सनातन धर्म के रक्षक बने हैं , कोई बीस साल इस जिले के हर गाँव- मजरे तक गया हूँ --- गाँव गाँव में मंदिर मढ़ैया देखी हैं ,
सन 1994 में छतरपुर छोड़ा और उसके भी दस साल बाद तक वहाँ सीधे जुड़ा रहा- राजनीति से, समाज से , लोगों से -- वहाँ कभी भी गढा गाँव या वहाँ के किसी कथावाचक का नाम सुना नहीं गया। वहाँ कोई मंदिर है ? इसका कभी उल्लेख हुआ नहीं, बाला जी नाम के भगवान को वहाँ के लोग जानते नहीं थे।
बजरंगबली या हनुमाज जी को बाज़ार ने एक नाम दे दिया "बाला जी" और उस दुकान पर कई ठीये खुल गए . बुंदेलखंड की जनता आस्था में भरोसा रखती है लेकिन श्रम उसकी ताक़त रहा है । एक बात जान लें देश में कम से कम ऐसे दस कथा वाचक, सन्यासी, बाबा पैदा किए गए हैं जो खुद को त्रिकाल दर्शी कहते हैं । वास्तव में ये सभी संघ परिवार की अघोषित सेना है । जो धर्म ,आ स्था, चमत्कार के नाम पर लोगों को जोड़ते हैं ।
नागपूर प्रकरण के बाद अचानक हर चैनल पर धीरेन्द्र के साक्षात्कार आने लगे, हर एक ने आधे घंटे का कार्यक्र्म कर दिया, दीमक चोर-सिया उनसे लाइव बात कर रहे थे -- रजत शर्मा के चेनल का पुत्रकार तो चरणों में बैठा था ।
धीरेन्द्र के वक्तव्य गौर करें --
1। दूसरे धर्म पर सवाल क्यों नहीं उठाते, मजार पर क्या तुम्हारा बाप-दादा लेटा है जो वहाँ नहीं जाते
2। मुझ पर सवाल करना अर्थात हनुमान जी पर सवाल करना है
3। मैंने कुछ लोगों की हिन्दू धर्म में वापिसी कारवाई इस लिए विधर्मी मेरे पीछे लगे हैं
4। वामपंथी हिन्दू और सनातन धर्म के खिलाफ है
ऐसे ही बयान धीरेन्द्र टीवी पर दे रहे है, -- एक तो यह अन्य आस्था के खिलाफ नफरत और विद्वेष फैला रहे हैं , दूसरा केवल खुद को हनुमान जी का भक्त बता रहे हैं , जान लें यह उन सनातन धर्म मानने वालों के खिलाफ भी है जो हनुमान जी में आस्था रखते हैं । धीरेन्द्र के अनुसार वे केवल बड़े भक्त बाकी को उनके माध्यम से जाना होगा । सनातन में भगवान और भक्त के बीच किसी मध्यस्थ की जरूरत ही नहीं होती ।
असली सवाल चमत्कार की परीक्षा का था - भगवान की शक्ति का डीएम भरने वाले धीरेन्द्र जिस तरह से बौखला कर गालिया दे रहे हैं - ठठरी बांधने (अर्थात अंतिम संस्कार की तैयारी ) की बात कहर आहे हैं , उसे साफ है कि वह असली प्रश्नो पर उत्तर न दे कर भावनात्मक, सांप्रदायिक और गाली गलोज पर उतरे हैं ।
असल कमाई और धंधे का सवाल है - गुमनाम गाँव में हर दिन हजारों लोग आते हैं हर दिन डीएस हज़ार तो पानी को बोतलें बिकती हैं, धीरेन्द्र और उनके चेलों ने आधे गाँव की जमीन पर कब्जे किए हैं, सवा लाख रुपए रोज तो दुकानों का किराया है । छतरपुर जिला मुख्यालय से लगभग 35 किलोमीटर दूर गढ़ा गांव देखते ही देखते व्यवसाय का एक बड़ा केंद्र बन गया है। शनिवार और मंगलवार को धाम में लाखों की संख्या में लोग आते हैं। यहां लगने वाली दुकानों की बंपर कमाई होती है जिस वजह से यहां की जमीनों के दाम आसमान छू रहे हैं। गांव की जिस जमीन के दाम कभी हजारों में हुआ करते थे, आज वह करोड़ों में पहुंच गया है। यही वजह कि गांव में जमीन को लेकर संग्राम शुरू हो गया है।
दुकानों का किराया पहुंचा लाखों में
बागेश्वर धाम में लगने वाली दुकानों का किराया हजारों से शुरू होकर लाखों में पहुंच गया है। धाम में दुकान लगाने वाले एक युवा दुकानदार ने बताया कि वह चित्रकूट का रहने वाला है। वह पूजन सामग्री और धाम स्थल की तस्वीरें बेचता है। उसका दुकान महज 10×15 की है जिसका किराया 10 हजार रुपये है। यह किराया दुकान की साइज एवं धाम के नजदीक पहुंचते ही लाखों में पहुंच जाता है। धाम के अंदर रेस्टोरेंट चलाने वाले एक व्यवसाय मेवाराम जाट का कहना है कि वह राजस्थान का रहने वाला है। एक छोटे से रेस्टोरेंट के लिए उसे ₹50000 किराया देना पड़ता है। उसने सोचा है कि यहां पर जमीन खरीद ले। गांव की जमीन की कीमत पता की तो उसके होश उड़ गए। उससे करोड़ों रुपये कीमत मांगी गई।
इन दिनों धीरेन्द्र के चेले गाँव की तालाब में मिट्टी भरवा रहे हैं ताकि वहाँ बाज़ार बना सके । सब कुछ अवैध है लेकिन जेबी राजी का गृह मंत्री "दरबार" मे आता हो तो किस बात का डर? मंदिर से सटे खसरा नंबर 485/2, 482, 483, 428 (जो क्रमश: 0.421 हेक्टेयर, 0.388 हेक्टेयर, 0.401 हेक्टेयर और 1.121 हेक्टेयर है) जमीन राजनगर तहसील के सरकारी रिकॉर्ड में श्मशान, तालाब और पहाड़ के रूप में दर्ज है। धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री और उनके सेवादार तालाब काे पाटकर अब दुकान बनवा रहे हैं। निर्माण कार्य जोरों से चालू है। श्मशान में शव जलाने पर रोक लगा दी गई है।
सरकारी जमीन काे चारों ओर से घेरकर कब्जा किया जा रहा है। तहसीलदार ने निर्माण को लेकर एक नोटिस जारी किया है, लेकिन निर्माण जारी है। खसरा नंबर 428 पर अवैध टपरों का निर्माण करके लोगों को किराए पर देकर अवैध वसूली की जा रही है।
वर्तमान में पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जहां अपना दरबार लगाते हैं, वह एक सामुदायिक भवन है। सरकारी भवन का पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री निजी उपयोग कर रहे हैं। ग्रामीणों ने बताया कि पहले इस भवन का उपयोग ग्रामीण करते थे। इसमें शादियां होती थीं, लेकिन अब इस पर पंडित जी का कब्जा है।
धीरेन्द्र ने एक वेबसाईट भी बनाई है और उस पर वह गरीबी दूर करने का यंत्र बेचता है - मुझे लगता है की देश मेन हर महीने अस्सी आक्रोड को मुफ्त अनाज देने की जघ बाबा का जंतर हे देना चाहिए- ईमानदारी से यह भी अंध विश्वास उन्मूलन कानून के तरह अवैध है --विज्ञापन इस प्रकार है –
बागेश्वर धाम श्री यंत्रम् |
क्या आप खूब मेहनत करते हैं लेकिन आपकी गरीबी दूर नहीं हो रही है। दरिद्रता ने आपकी कमर तोड़ रखी है। आपकी दरिद्रता दूर होगी श्री बागेश्वर सरकार के महाप्रसाद से…
एक ऐसा श्री श्री यंत्रम् जिसमें मां लक्ष्मी की कृपा और दिव्यता का अलौकिक वरदान समाहित है लेकिन ये मौका पूरे भारतवर्ष के केवल 5 हजार लोगों को ही मिलेगा। 5 हजार भाग्यशाली भक्तों के घर में अभिमंत्रित, वैदिक ब्राह्मणों द्वारा विधिपूर्वक पूजन करवाकर सिद्ध किया हुआ श्री श्री लक्ष्मी यंत्रम् स्थापित करवाया जाएगा। अगर आप भी अभिमंत्रित श्री श्री लक्ष्मी यंत्रम प्राप्त करना चाहते हैं तो आपको रजिस्ट्रेशन करना होगा। रजिस्ट्रेशन के लिए क्लिक करें….
श्री श्री लक्ष्मी यंत्रम् सिर्फ बागेश्वर धाम से ही मिलेगा। इसकी कहीं और कोई शाखा नहीं है। इस संबंध में किसी अन्य संस्था या व्यक्ति के दावों से सावधान रहें। गलत लोगों की बातों में आकर कोई श्रद्धालु ठगा न जाए इसलिए इस सूचना को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें।
समझना होगा इस तरह के लोग न केवल लोगों को अंध विश्वास में धकेलते हैं , आस्था को व्यापार बना लेते हैं और लोकत्न्त्र के भी दुश्मन हैं । दुखद है कि कांग्रेस के विधायक भी ऐसे जहरीले बोल वाले धीरेन्द्र को सिर पर बैठाये रहते हैं ॰
चित्र में धीरेन्द्र मप्र के गृह मंत्री के साथ
May be an image of 5 people and people standing
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गुरुवार, 19 जनवरी 2023

disadvantages of tomato's bumper crop

 

टेक सेर टमाटर

पंकज चतुर्वेदी



 

झारखंड का लातेहार जिला  के बालूमाथ व बारियातू के इलाके में दो किस्म के टमाटर की खेती केलिए मशहूर हैं- एक है मोटे छिलके वाला गुलशन, जिसका इस्तेमाल सब्जी और विशेष तौर पर सलाद के रूप में किया जाता है। वहीं सलेक्शन नामक किस्म के टमाटर के छिलके की परत नरम होती है इसका इस्तेमाल सिर्फ सब्जी, चटनी और टोमैटो कैचअप के लिए किया जाता है. कुच्छ साल पहले तक टमाटर की लाली यहाँ के किसानों के गालों पर भी लाली लाती थी, लेकिन इस साल हालत यह हैं कि फसल तो बम्पर हुई लेकिन लागत तो दूर , तोड़ कर मंडी तक ले जाने की कीमत नहीं निकल रही. टमाटर की खेती के लिए एक एकड़ में लगभग 2 लाख रुपये खर्च आता है. बाज़ार में एक रूपये किलो के भी खरीदार हैं नहीं सो कई खेतों में खड़ी फसल सड रही है . दिल्ली और उसके आसपास भले ही बाज़ार में टमाटर के दम 20 रूपये किलो हों, लेकिन टमाटर उगाने के लिए मशहूर देश के विभिन्न जिलों में टमाटर कूड़े में पडा है .


मध्य प्रदेश के बैतूल और नीमच जिले में भी टमाटर किसान  निराश हैं .  बम्पर आवक के बाद मंडी में अधिकतम दाम छः से आठ रूपये मिल रहे हैं , जबकि लागत 14 रूपये से कम नहीं है . राजस्थान की झुंझनु मंडी में भी  टमाटर किसान  बगैर बेचे फसल फैंक कर जा रहा है . सबसे बुरे हालात तो आँध्रप्रदेश के रायलसीमा और चित्तूर जिलों के किसानों के है जहां बड़ा कर्ज ले कर   शानदार फसल उगाई गई . जहां बाजार में खुदरा भाव 10 रुपये प्रति किलो हैवहीं थोक बाजार में यह 5 रुपये प्रति किलो है। लेकिन किसान इसे 3 और 4 रुपये प्रति किलोग्राम के हिसाब से बेच रहे हैं. पहले यहाँ से टमाटर निर्यात हुआ करता था लेकिन इस बार कोई खरीदार है नहीं . एक पेटी में कोई तीस किलो टमाटर आते हैं, यहाँ प्रति एकड़ 150 बक्सों का उत्पादन किया। किसान को एक पेटी के 100 रुपये से ज्यादा मिले नहीं और यह कीमत विनाशकारी साबित हुई . निवेश किया डेढ़ लाख रुपये और बदले में उन्हें केवल 60,000 रुपये मिले। 


सत्य साईं और अनंतपुर दोनों जिलों में लगभग 45,000 एकड़ में टमाटर की खेती की जाती है। हालांकि दोनों जिलों में कुल अनुमानित निवेश लगभग 9.10 करोड़ रुपये हैलेकिन किसानों को लगभग 5 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ हैजिनमें से कई ने अपनी फसल को खेत में छोड़ना पसंद किया है। यहाँ कोई ऐसा किसान नहीं है जो टमाटर के कारण कर्ज में न फंस गया हो . असम के मंगलदे जिले के खरुपेतिया में एक किसान ने तीन बीघा में लगे छ क्विंटल टमाटर उगाये  और मंडी में उसे दाम मिले महज दो रूपये किलो –सीधे साथ हज़ार का घाटा हुआ. चूँकि पहले  मंगलदे  और दरंग जिले के टमाटर की  बंगाल, दिल्ली से ले कर पंजाब तक मांग रहती थी लेकिन इस बार सभी राज्यों में किसानों ने टमाटर अफरात में उगाया , सो यहाँ का माल दाम नहीं पा सका .

हालांकि न तो यह पहली बार हो रहा है और न ही केवल टमाटर के साथ हो रहा है. उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है- घर की नई छप्पर, बहन की शादी, माता-पिता की तीर्थ-यात्रा; ना जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर ‘ केश क्रॉप “ कहलाने वाली  फसल के साथ फैंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता-- खेती के लिए बीज,खाद के लिए लिए गए कर्जे को कैसे उतारा जाए? पूरे देश की खेती-किसानी अनियोजित ,शोषण की शिकार व किसान विरोधी है। तभी हर साल देश के कई हिस्सों में अफरात फसल को सड़क पर फैंकने और कुछ ही महीनों बाद उसी फसल की त्राहि-त्राहि होने की घटनाएं होती रहती हैं। किसान मेहनत कर सकता है, अच्छी फसल दे सकता है, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को भी उसके परिश्रम के माकूल दाम , अधिक माल के सुरक्षित भंडारण के बारे में सोचना चाहिए।


हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक कें कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मशहूर हरी मिर्चों को सड़क पर लावारिस फैंक कर अपनी हताशा का प्रदर्शन करते हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताश करती है। दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े, मवेशियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं। आश्चर्य इस बात का होता है कि जब हताश किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चौपट करता होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा, या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी ना निकले।


दुर्भाग्य है कि कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश में कृषि  उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है। सब्जी, फल और दूसरी कैश-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुष्परिणाम  दाल, तेल-बीजों(तिलहनों) और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं।



किसानों के सपनों की फसल को बचाने के दो तरीके हैं – एक तो जिला स्तर पर अधिक से अधिक  कोल्ड स्टोरेज हों और दूसरा  स्थानीय उत्पाद के अनुसार खाद्ध्य प्रसंस्करण  खोले जाएँ . यदि हर जिले में टमाटर के केचप और सौस के कारखाने हों तो किसान को फसल फैंकना न पड़ेगा .  हमारे देश में इस समय अंदाज़न आठ हज़ार कोल्ड स्टोरेज हैं जिनमे सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में 1817 , गुजरात में 827, पंजाब में 430 हैं लेकिन इनमे से अधिकाँश पर आलू और प्याज का कब्ज़ा होता है.  आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फॅसल और कितनी उगाई जाए, उसकी स्थानीय मांग कितनी है और कितने का परिवहन संभव है - इसकी नीतियां यदि तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें तो  पैदा फसल के  एक-एक कतरे के श्रम का सही मूल्यांकन होगा . एक बात और कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का नियंत्रण हो , न कि व्यापारी का कब्जा .

 

 

After all, why should there not be talks with Naxalites?

  आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ? पंकज चतुर्वेदी गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई   और   नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हा...