ecology , water and environment

My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

After all, why should there not be talks with Naxalites?

 

आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ?

पंकज चतुर्वेदी




गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई  और  नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हालांकि सरकार की कार्यवाही में बीते दो महीनों में 52 नक्सली मारे गए और कई बड़े  नाम आत्मसमर्पण कर चुके हैं । 29 तो अकेले एक ही मुठभेड़ में 16  अप्रेल को कांकेर जिले में मारे गए. छत्तीसगढ़ में नई सरकार बनते ही उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने दो बार मंशा जाहिर की कि सरकार बातचीत के जरिए नक्सली समस्या का निदान चाहती है । अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर  नक्सलियों के गढ़ दँतेवाड़ा में मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने नक्सलियों से हिंसा छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने की अपील करते हुए आश्वासन दिया था  कि उनकी सरकार उनके साथ बातचीत के लिए तैयार हैऔर वह हर जायज मांग को मानेगी । इसके बाद 21 मार्च को  दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी के प्रवक्ता विकल्प ने पत्र जारी कर कहा कि हम सरकार से बातचीत को तैयार हैं लेकिन सरकार पहले हमारी शर्तों को माने. शर्तों में सुरक्षा बलों के हमले बंद करना, गरीब आदिवासियों को झूठे मामलों में फँसने से रोकने जैसी बाते हैं । इधर बातचीत की तयारी चल रही थी और दूसरी तरफ  बस्तर की सीमा से लगे गढ़चिरोली में एक साथ कई कथित नक्सली मार दिए गये . उसके बाद 10 अप्रैल  को नक्सलियों ने पर्चा जारी कर  इसे सरकार की बातचीत की आड़  में धोखाधड़ी बताया . 16 अप्रैल की घटना को भी नक्सली धोखे से फंसा कर की गई फर्जी मुठभेड़ कह रहे हैं और इससे बातचीत का प्रस्ताव फिर से पटरी से नीचे उतरता दिख रहा है .


समझना होगा कि नक्सली कई कारणों से दवाब में हैं ।  सरकार की स्थानीय आदिवासियों को फोर्स मे भर्ती करने की योजना भी कारगर रही है ।  एक तो स्थानीय लोगों को रेाजगार मिला, दूसरा स्थनीय जंगल  के जानकार जब सुरक्षा बलों से जुड़ै तो अबुझमाड़ का रास्ता इतना अबुझ नहीं रहा। तीसरा जब स्थानीय जवान नक्सली के हाथों मारा गया और उसकी लाश  गांव-टोले  में पहुंची तो ग्रामीणें का रोष  नक्सलियों पर बढ़ा। एक बात जान लें कि दंडकारण्य में नक्सलवाद महज फेंटेसी, गुंडागिर्दी या फैशन नहीं है । वहां  खनज और विकास के लिए जंगल उजाड़ने व पारंपरिक जनजाति संस्कारों पर खतरे तो हैं और नक्सली अनपढ़- गरीब आदिवासियों में यह भरोसा भरने में समर्थ रहे है। कि उनके अस्तित्व को बचाने की लड़ाई के लिए ही उन्होंने हथियार उठाए हैं। यह भी कड़वा सच है कि नक्सलविरोधी कार्यवाही में बड़ी संख्या में निर्दोष लोग भी जेल में हैं व कई मारे भी गए, इसी के चलते अभी सुरक्षा बल आम लोगों का भरोसा जीत नहीं पाए हैं। लेकिन यह सटीक समय है जब नक्सलियों को बातचीत के लिए झुका कर इस हिंसा का सदा के लिए अंत कर दिया जाए।


बस्तर में लाल-आतंक का इतिहास महज चालीस साल पुराना है। बीते बीस सालों में यहां लगभग 15 हजार लोग मारे गए जिनमें 3500 से अधिक सुरक्षा बल के लोग हैं। बस्तर से सटे महाराष्ट्र , तेलंगाना, उड़ीसा, झारखंड और मध्यप्रदेश  में इनका सशक्त नेटवर्क है । समय-समय पर विभिन्न अदालतों में यह भी सिद्ध होता रहा है कि प्रायः सुरक्षा बल बेकसूर ग्रामीणों को नक्सली बता कर मार देते है।। वहीं घात लगा कर सुरक्षा बलों पर हमले करना, उनके हथियार छीनना भी यहां की सुखिर्यों में है। दोनो पक्षों के पास अपनी कहानियां हैं- कुछ सच्ची और बहुत सी झूठी।

यह बात किसी से छिपी नहीं है कि नक्सलियों का पुराना नेतृत्व अब कमजोर पड़ रहा है और नया कैडर अपेक्षाकृत कर आ रहा है। ऐसे में यह खतरा बना रहता है कि कहीं जन मिलिशिया  छोटे-छोटे गुटों में निरंकुश  ना हो जाएं  । असंगठित या छोटे समूहों का नेटवर्क तलाशना बेहद कठिन होगा। बस्तर अंचल का क्षेत्रफल केरल राज्य के बराबर है और उसके बड़े इलाके में अभी भी मूलभूत सुविधांए या सरकारी मशीनरी  दूर-दूर तक नहीं है।


नक्सली कमजोर तो हुए हैं लेकिन अपनी हिंसा से बाज नहीं आ रहे। कई बार वे अपने अशक्त  होते हालात पर पर्दा डालने के लिए कुछ ना कुछ ऐसा करते हैं जिससे उनका आतंक कायम रहे। याद करें 21 अक्तूबर 2016 को न्यायमुर्ति मदन लौकुर और एके गोयल की पीठ ने फर्जी मुठभेड़ के मामले में राज्य सरकार के वकील को सख्त आदेष दिया था कि पुलिस कार्यवाही तात्कालिक राहत तो है लेकिन स्थाई समाधान के लिए राज्य सरकार को नागालैंड व मिजोरम में आतंकवादियों से बातचीत की ही तरह बस्तर में भी बातचीत कर हिंसा का स्थाई हल निकालना चाहिए। हालांकि सरकारी वकील ने अदालत को आश्वस्त  किया था  कि वे सुप्रीम कोर्ट की मंशा  उच्चतम स्तर तक पहुंचा देंगे। लेकिन तत्कालीन  सरकार के स्तर पर ऐसे कोई प्रयास नहीं हुए जिनसे नक्सल समस्या के शांतिपूर्ण  समाधान का कोई रास्ता निकलता दिखे। दोनो तरफ से खून यथावत बह रहा है और सुप्रीम  कोर्ट के निर्देश किसी लाल बस्ते में कराह रहे हैं ।

बस्तर से भी समय-समय पर यह आवाज उठती रही है कि नक्सली सुलभ हैं, वे विदेश  में नहीं बैठे हैं तो उनसे बातचीत का तार क्यों नहीं जोड़ा जाए। हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा में सर्व आदिवासी समाज चिंता जताता रहा है कि अरण्य मे लगातार हो रहे खूनखराबे से आदिवासियों में पलायन बढ़ा है और इसकी परिणति है कि आदिवासियों की बोली, संस्कार , त्योहार, भोजन सभी कुछ खतरे में हैं। यदि ईमानदार कोशिश की जाए तो नक्सलियों से बातचीत कर उन्हें हथियार डाल कर देश  की लोकतांत्रिक मुख्य धारा में शामिल होने के लिए राजी किया जा सकता है ।

अब भारत सरकार के गृहमंत्रालय की 18  साल पुरानी एक रपट की धूल हम ही झाड़ देते हैं - सन 2006 की ‘‘आंतरिक सुरक्षा की स्थिति’’ विषय पर रिपोर्ट में स्पष्ट बताया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सल गतिविधियों से अछूता नहीं है। क्योंकि यह एक जटिल प्रक्रिया है - राजनीतिक गतिविधियां, आम लोगों को प्रेरित करना, शस्त्रों का प्रशिक्षण और कार्यवाहियां। सरकार ने उस रिपोर्ट में स्वीकारा था कि देश के दो-तिहाई हिस्से पर नक्सलियों की पकड़ है। गुजरात, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर में भी कुछ गतिविधियां दिखाई दी हैं। दो प्रमुख औद्योगिक बेल्टों - ‘भिलाई-रांची, धनबाद-कोलकाता’ और ‘मुंबई-पुणे-सूरत-अहमदाबाद’ में इन दिनों नक्सली लोगों को जागरूक करने का अभियान चलाए हुए हैं। इस रपट पर कार्यवाही, खुफिया सूचना, दूरगामी कार्ययाोजना का कहीं अता पता नहीं है।

भारत सरकार मिजोरम और नगालैंड जैसे छोटे राज्यों में शांति के लिए हाथ में क्लाषनेव रायफल ले कर सरेआम बैठे उग्रवादियों से ना केवल बातचीत करती है, बल्कि लिखित में युद्ध विराम जैसे समझौते करती है। प्रधानमंत्री निवास पर उन अलगाववादियों को बाकायदा बुलाया  जाता है और उनके साथ हुए समझौतों को गोपनीय रखा जाता है जो दूर देश  में बैठ कर भारत में जमकर वसूली, सरकारी फंड से चौथ  वसूलने और गाहे-बगाहे सुरक्षा बलों पर हमला कर उनके हथियार लूटने का काम करते हैं। फिर नक्सलियों मे ऐसी कौन सी दिक्कत है कि उनसे टेबल पर बैठ कर बात नहीं की जा सकती- वे ना तो मुल्क से अलग होने की बात करते हैं और ना ही वे किसी दूसरे देश  से आए हुए है। कभी विचार करें कि सरकार व प्रशासन में बैठे वे कौन लोग है जो हर हाल में जंगल में माओवादियों को सक्रिय रखना चाहते हैं। जब नेपाल में वार्ता के जरिये उनके हथियार रखवाए जा सकते थे तो हमारे यहां इऐसे प्रयास क्यों नहीं हुए ? 

हालांकि पूर्व में एक -दो बार बातचीत की कोशिश  हुई लेकिन कहा जाता है कि इसके लिए जमीन तैयार करने वाले लोगों को ही दूसरे राज्य की पुलिस ने मार गिराया। कई बार लगता है कि कतिपय लोगों के ऐसे स्वार्थ निहित हैं जिनसे वे चाहते नहीं कि जंगल में शांति  हो। लेकिन यह भी सच है कि दुनिया की हर हिंसा  का निदान अंत में एकसाथ बैठ कर शांति से ही निकला है। वाकई नक्सली भी अब देश-विरोधी खून खराबे से तौबा करना चाहते हैं तो उन्हें भी हथियार पड़े रखने की पहल करनी होगी ।

 

मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

Keep Katchatheevu away from electoral politics.

 

कच्चातिवु को परे  रखो चुनावी सियासत से

पंकज चतुर्वेदी



सन 1974 की सरकार का एक फैसला, जिसके बाद लगभग आधे समय गैरकान्ग्रेसी सरकार सत्ता  में रही , उसे अचानक सवालों में खड़ा करना असल में सियासत से अधिक है नहीं । यह कड़वा सच है कि हमारे मछुआरे आए दिन  श्रीलंका की सीमा में घुस जाते हैं और और फिर उनके नारकीय जीवन के दिन शुरू हो जाते हैं। जैसे तैसे वहाँ की जेलों से छूट भी आते हैं तो उनके जीवनयापन का जरिया नावें वहीं रह जाती हैं । इस त्रासदी के निदान के लिए कच्चातिवु द्वीप एक भूमिका निभा सकता है और यदि उसे वापिस लेने के  बजाय  वहाँ निराधरित शर्तों के कड़ाई से पालन की बात हो तो भारतीय मछुआरों के लिए  उचित ही होगा । लेकिन यह समझना होगा कि यह चुनावी मुद्दा नहीं है क्योंकि भारत ने भी श्रीलंका से इसके एवज में बेशकीमती  जमीन ली ही है ।


कच्चातिवु द्वीप 285 एकड़ का हरित क्षेत्र है जो एक  नैसर्गिक  निर्माण है और  ज्वालामुखी विस्फोट से 14 वीं सदी में उभरा था  । 17 वीं सदी में इसका अधिकरा मदुरै के राजा रामानद के पास होने के दस्तावेज हैं । ब्रितानी हुकूमत के दौरान यह द्वीप मद्रास प्रेसीडेंसी की अमानत था । इस पर मछुआरों के दावों को ले कर सन 1921 में भी सीलोन अर्थात श्रीलंका और भारत के बीच विवाद हुआ था । हालांकि सन 1947 में इसे भारत का हिस्सा माना गया । लेकिन श्रीलंका भए एस पर अपना दावा छोड़ने  को तैयार  नहीं था । इंदिरा गांधी के दौर में भारत के श्रीलंका से घनिष्ट संबंध थे ।

26 जून  1974 को कोलंबो और 28 जून को दिल्ली में दोनों देशों ने इस विषय  पर विमर्श कर एक समझौता किया । कुछ शर्तों के साथ इस द्वीप को श्रीलंका को सौंप दिया गया।  समझौते के मुताबिक़  दोनों देशों के मछुआरे कच्चातीवू का उपयोग आराम करने और अपने जाल  सुखाने के के साथ-साथ वहां सेंट एंथोनी पवित्र स्थान में पूजा कर सकते थे । सन 1983 तक ऐसा होता भी रहा – एक तो उस समय तक भारतीय मछुआरों की संख्या कम थी और जाफना में अशांति भी नहीं थी । अब श्रीलंका की सेना भारतीय मछुआरों को उधर फटकने नहीं देती ।

यह सच है कि बीजेपी से जुड़े मछुआरों के संगठन की लंबे समय से मांग रही है कच्चातिवु टापू को यदि वापिस ले लिया जाता है तो भारतीय मछुआरों को जाल डालने के लिए अधिक स्थान मिलेगा और वे  श्रीलंका की सीमा में गलती से भी नहीं जायेंगे । लेकिन यह भी सच है कि आज जिस डी  एम के  को इसके लिए जिम्मेदार कहा जा रहा है, वह सन 74 के बाद कई बार बीजेपी के साथ सत्ता में हिस्सेदार रहा है ।

यह सच है कि तमिलनाडु के मछुआरों का एक वर्ग कच्चातीवू के समझोटे से खुश नहीं था । तभी भारत सरकार और श्रीलंका के बीच 1976 में एक और करार हुआ जिसके तहत श्रीलंका ने हमें कन्याकुमारी के करीब वेज बेंक (Wadge Bank )सौंप दिया । यह 3,000 वर्ग किलोमीटर में फैला द्वीप है। इस संधि के कारण  भारतीय मछुआरों को इलाके में मछली पकड़ने का अधिकार मिला। यही नहीं इसके तीन साल बाद श्रीलंकाई मछुआरों के वहां जाने पर रोक लगा दी गई। वैसे वेज बेंक कच्चातिवु जैसे निर्जन द्वीप के मुकाबले अधिक सामरिक महत्व और कीमती है यहाँ तेल एवं गैस के बड़े भंडार भी मिले हैं । जब कोई कच्चातीवू  पर सियासत करेगा तो उसे वेज बेंक का भी हिसाब करना होगा । असल में इन द्वीपों के बीच वे लाखों तमिल भी है जो जाफन से आए और भारत में रहे रहे है ।

मछुआरों की समस्या  को समझे बगैर कच्चातिवु के महत्व को समझा जा  नहीं सकता । रामेश्वरम के बाद भारतीय मछुआरों को अंतर्राष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा (आईएमबीएल) लगभग 12 समुद्री माइल्स मिली है । इसमें भी छोटी नावों के लिए पहले पांच समुद्री माइल्स छोड़े गए हैं। यहाँ पांच से आठ समुद्री माइल्स के बीच का क्षेत्र चट्टानी है और मछली पकड़ने के जाल नहीं बिछाए जा सकते। रामेश्वरम तट से केवल 8-12 समुद्री माइल के बीच लगभग 1,500 मशीनीकृत नौकाओं द्वारा मछलियाँ पकड़ी जाती हैं । गत एक दशक के दौरान  हमारे  तीन हज़ार से ज्यादा मछुआरे श्रीलंका सेना द्वारा पकडे गए , कई को गोली लगी व् मारे गए – सैंकड़ों लोग सालों तक जेल में रहे ।

भारत और श्रीलंका  में साझा बंगाल की खाड़ी  के किनारे रहने वाले लाखों  परिवार सदियों से समुद्र  में मिलने  वाली मछलियों से अपना पेट पालते आए हैं। जैसे कि मछली को पता नहीं कि वह किस मुल्क की सीमा में घुस रही है, वैसे ही भारत और श्रीलंका की सरकारें भी तय नहीं कर पा रही हैं कि आखिर समुद्र  के असीम जल पर कैसे सीमा खींची जाए। 

यह भी कड़वा सच है कि जब से शहरी बंदरगाहों पर जहाजों की आवाजाही बढ़ी है तब से गोदी के कई-कई किलोमीटर तक तेल रिसने ,शहरी सीवर डालने व अन्य प्रदूषणों के कारण समुद्री  जीवों का जीवन खतरे में पड़ गया है। अब मछुआरों को मछली पकड़ने के लिए बस्तियों, आबादियों और बंदरगाहों से काफी दूर निकलना पड़ता है। जो खुले सागर  में आए तो वहां सीमाओं को तलाशना लगभग असंभव होता है ।  जब उन्हें पकड़ा जाता है तो सबसे पहले सीमा की पहरेदारी करने वाला तटरक्षक बल अपने तरीके से पूछताछ व जामा तलाशी  करता है। चूंकि इस तरह पकड़ लिए  गए लोगों को वापिस भेजना सरल नहीं है, सो इन्हें स्थानीय पुलिस को सौंप दिया जाता है। इन गरीब मछुआरों के पास पैसा-कौडी तो होता नहीं, सो ये ‘‘गुड वर्क’’ के निवाले बन जाते हैं। घुसपैठिये, जासूस, खबरी जैसे मुकदमें उन पर होते हैं।

दोनों देशों के बीच मछुआरा विवाद की एक बड़ी वजह हमारे मछुआरों द्वारा इस्तेमाल नावें और तरीका  भी है , हमारे लोग बोटम ट्रालिंग के जरिये मछली पकड़ते हैं, इसमें नाव की तली से वजन बाँध कर जाल फेंका जाता है .अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह से मछली पकड़ने को पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नुकसानदेह कहा जाता है . इस तरह जाल फैंकने से एक तो छोटी और अपरिपक्व मछलिया जाल में फंसती हैं, साथ ही बड़ी संख्या में ऐसे जल-जीव भी इसके शिकार होते हैं जो मछुआरे के लिए गैर उपयोगी होते हैं . श्रीलंका में इस तरह की नावों पर पाबंदी हैं, वहाँ गहराई में समुद्-तल से मछलियाँ पकड़ी जाती हैं और इसके लिए नई तरीके की अत्याधुनिक नावों की जरूरत होती है . भारतीय मछुआरों की आर्थिक स्थिति इस तरह की है नहीं कि वे इसका खर्च उठा सकें . तभी अपनी पारम्परिक नाव के साथ भारतीय मछुआर जैसे ही श्रीलंका में घुसता है , वह अवैध तरीके से मछली पकड़ने का दोषी बन जाता है  वैसे भी भले ही तमिल इलम आंदोलन का अंत हो गया हो लेकिन श्रीलंका के सुरक्षा बल भारतीय तमिलों को संदिग्ध नज़र से देखते हैं .

भारत-श्रीलंका जैसे पडोसी के बीच अच्छे द्विपक्षीय संबंधों की सलामती के लिए कच्चातिवु  द्वीप और मछुआरों का विवाद एक बड़ी चुनौतियों है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ सीज़ (यू एन सी एल ओ एस) के अनुसार जल सीमा निर्धारण और उस द्वीप को वापिस लेना इतना सरल नहीं है लेकिन  समझौते की शर्तों पर गंभीरता से याद दिलाया जाये, हमारे मछुआरे फिर से उसका इस्तेमाल तो कर ही सकते हैं । सनद रहे सन 2015 में ही हमने बांग्ला देश के साथ भूमि लेन –देन का बड़ा समझोत किया । यदि पूर्ववर्ती सरकारों के अंतर्राष्ट्रीय समझोतों  को चुनावी चुग्गा  बनाया जाएगा तो हमारी दुनिया में साख ही गिरेगी ।

 

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

Cities turning in heating island

 

तपते द्वीप में बदलते शहर

पंकज चतुर्वेदी



अप्रेल महिना शुरू होते ही एक तरफ मौसम विभाग ने चेताया कि  गर्मी और लू का असर  झेलने को जल्द तैयार हो जाएँ तो केन्द्रीय स्वास्थ्य विभाग ने भी राज्यों को बताया दिया है कि बढ़ती गर्मी पर निगाह रखें  और लोगों को इससे सतर्क रहने के लिए जागरूक करें । चिंता की बात यह है कि गंगा-यमुना के मैदानी इलाकों में लू का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है , खासकर यहाँ बढ़ रहे शहरों में तपन का एहसास समय से पहले और सीमा से अधिक है । खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश  जो कि गंगा-यमुना दे दोआब के साथ-साथ बहुत सी छोटी- माध्यम नदियों का घर है और कभी घने  जंगलों  के लिए जाना जाता था , बुंदेलखंड की तरह तीखी गर्मी की चपेट में आ  रहा है । यहाँ पेड़ों की पत्तियों में नमी  के आकलन से पता चलता है कि आने वाले दशकों में हरित प्रदेश कहलाने वाला  इलाका बुंदेलखंड की तरह सूखे- पलायन-निर्वनीकरण का शिकार हो सकता है । खासकर इस क्षेत्र में जहां शहरीकरण का विस्तार हुआ, वहाँ लू और गर्मी का विस्तार अधिक हुआ।  भारत के विश्वविध्यालयों  में  आपदा प्रबंधन के नेटवर्क में हो रहे शोध बताते हैं कि लू का देर बढ़ने और क्षारीकरण के विस्तार में सीधा संबंध हैं ।

यह सरकार का रिकार्ड बताया रहा है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में अब हर साल लगभग 272 “लू – दिन” दर्ज किए जा रहा हैँ । तकनीकी भाषा में इसे “अरबन हीट आई लेंड “ अर्थात शहरी ताप द्वीप “ प्रभाव कहा जा सकता है ।  जब किसी शहर में उसके आसपास के ग्रामीण क्षेत्र के मुकाबले तापमान अधिक बढ़ जाता है तो उसे अर्बन हीट आइलैंड कहते है। शहर अर्थात ऊंची इमारतें , हरियाली, खासकर पारंपरिक पेड़ों की कमी, जल-निधियों जैसे तालाब- जोहड़ और नदी का दायरा घटना ।  यही वे कारण है जो किसी शहर में गर्मी की मार को जानलेवा बना देते हैं। इसके कुप्रभावों को चौगुना करने में कंक्रीट की ऊंची इमारतें , इनमें लगे एयरकंडीशनर से निकलने वाली गर्मी, वाहनों के चलने से उत्सर्जित ऊष्मा और यातायात  थमने से उपजने वाली गैस भी शहरों को  तपा रही हैं । शहरों की गगनचुम्बी इमारतों की कंक्रीट भी गर्मी की विस्तारक हैं , ये भवन सूर्य की तपन  से गर्मी को परावर्तित और अवशोषित करते हैं। इसके अलावा, एक-दूसरे के करीब कई ऊंची इमारतें भी हवा के प्रवाह में बाधा बनती हैं, इससे शीतलन अवरुद्ध होता हैं।  शहरों की सड़कें उसका तापमान बढ़ने में बड़ी कारक हैं ।  महानगर में सीमेंट और कंक्रीट के बढ़ते जंगल, डामर की सड़कें और ऊंचे ऊंचे मकान बड़ी मात्रा में सूर्य की किरणों को सोख रहे हैं। इस कारण शहर में गर्मी बढ़ रही है।वाहनों के चलने और इमारतों में लगे पंखे, कंप्यूटर, रेफ्रिजरेटर और एयर कंडीशनर जैसे बिजली के उपकरण भले ही इंसान को सुख देते हों लेकिन  ये शहरी अप्रिवेश का तापमान बढ़ने में बड़ी भूमिका अदा करते हैं । फिर कारखाने , निर्माण कार्य और बहुत कुछ है जो शहर को उबाल रहा है ।

 

अंतरराष्ट्रीय  संगठनों के सहयोग से तैयार  जलवायु पारदर्शिता रिपोर्ट -2022  के अनुसार वर्ष 2021 में भीषण गर्मी के चलते भारत में सेवा, विनिर्माण, खेती और निर्माण क्षेत्रों में लगभग 13 लाख करोड़ का नुक्सान हुआ , रिपोर्ट कहती है कि गर्मी बढ़ने के प्रभाव के चलते 167 अरब घंटे संभावित श्रम का नुक्सान हुआ जो सन 1999 के मुकाबले 39 प्रतिशत अधिक  है । इस रिपोर्ट के अनुसार तापमान में डेढ़ फीसदी इजाफा होने पर बाढ़ से हर साल होने वाला नुकसान  49 प्रतिशत बढ़ सकता है ।  गर्मी बढ़ेगी तो समुद्र का तापमान भी बढ़ेगा और इससे उपजने वाले चक्रवात से होने वाली तबाही में भी इजाफा होगा ।

लेंसेट काउंट डाउन की  रिपोर्ट कहती है कि भारत में -2000-2004 और2017 – 21  के बीच भीषण गर्मी से होने वाली मौतों की संख्या में 55 प्रतिशत का उछाल आया है ।  बढ़ते तापमान से स्वास्थ्य प्रणाली पर हानिकारक असर हो रहा है । मार्च-24 में संयुक्त राष्ट्र के खाध्य और कृषि संगठन (एफ ए ओ ) ने भारत में एक लाख लोगों के बीच सर्वे कर एक रिपोर्ट में बताया है कि गर्मी/लू के कारण गरीब परिवारों को अमीरों की तुलना में पाँच फीसदी अधिक आर्थिक नुकसान होगा। चूंकि आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग बढ़ते तापमान के अनुरूप अपने कार्य को ढाल लेते हैं , जबकि गरीब ऐसा नहीं कर पाते ।

शहरों का बढ़ता तापमान न केवल पर्यावरणीय संकट है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक त्रासदी-असमानता और संकट का कारक भी बनेगा , गर्मी अकेले शरीर को नहीं प्रभावित करती, इससे इंसान की कार्यक्षमता प्रभावित होती है , पानी और बिजली की मांग बढती है , उत्पादन लागत भी बढती है ।  अमरीका की कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के शीर्ष वैज्ञानिकों के एक अध्ययन के मुताबिक बढ़ती आबादी और गर्मी के कारण देश के चार बड़े शहर नई दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई और चेन्नई सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। पूरी दुनिया में बांग्लादेश की राजधानी ढाका इस मामले में पहले पायदान पर है। कोलकाता में बढ़ते जोखिम के पीछे 52 फीसदी गर्मी तथा 48 फीसदी आबादी जिम्मेदार है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बाहरी भीड़ को नही रोका गया तो तापमान तेजी से बढ़ेगा यह स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह साबित होगा।

इस समय अनिवार्य है कि शहरों में रहने वाले श्रमजीवियों के लिए लू- भीषण गर्मी से जूझने में अनुकूल परिवेश और कार्य समय निर्धारित किया जाए । जिन्हें मजबूरी में  खुले में रहना है उन्हें  छाँव मिले, साफ पानी मिले इसके लिए सरकार और समाज दोनों को साथ आना होगा । यदि शहरों को उमरभरी गर्मी और उससे उपजने वाली लू की मार से बचना है तो अधिक से अधिक  पारम्परिक पेड़ों का रोपना  जरुरी है। शहर के बीच बहने वाली नदियाँ, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल और अविरल  रहेंगे  तो बढ़ी गर्मी को सोखने में ये सक्षम होंगे । खासकर बिसरा चुके कुएं और बावड़ियों को जीलाने से जलवायु परिवर्तन की इस त्रासदी से बेहतर तरीके से निबटा जा सकता है ।  कार्यालयों के समय में बदलाव , सार्वजनिक  परिवहन को बढ़ावा, बहु मंजिला भवनों का ईको फ्रेंडली होना , उर्जा संचयन  सहित कुछ ऐसे उपाय हैं जो बहुत कम व्यय में शहर को भट्टी बनने  से बचा सकते हैं ।  हां – दूरगामी  उपाय तो शहरों की तरफ बढ़ रहे पलायन रोकना ही होगा ।  

 

 

 

बुधवार, 3 अप्रैल 2024

If you want to save water, you have to save wells.

 

पानी बचाना है तो कुएं बचाना होगा

पंकज चतुर्वेदी



अभी गरमी शुरू ही हुई है, अभी एक हफ्ते पहले तक पश्चिमी विक्षोप के कारण जम कर बैमोसाम बरसात भी हो गई, इसके बावजूद बुंदेलखंड के बड़े हरों में से एक छतरपुर के हर मुहल्ले में पानी की त्राहि-त्राहि शुरू हो गई। तीन लाख से अधिक आबादी वाले इस शह र में सरकार की तरफ से रोपे गए कोई 2100 हैंडपंपों में से अधिकां या तो हांफ रहे हैं या सूख गए हैं। ग्रामीण अंचलों में भी हर बार की ही तरह हैंडपंप से कम पानी आने की शिकायत आ रही है। पानी की कमी के चलते छुट्टा मवेशियों की समस्या रबी की फसल के लिए खतरा बन गई है। बुंदेलखंड तो बानगी है , सारे देश में बरसात के बीत जाने के बाद पनि की त्राहि-त्राहि अब सामान्य बात हो गई है । हताश जनता को जमीन की छाती चीर कर पानी निकालने या बड़े बांध के सपने दिखाये तो जाते हैं लेकिन जमीन पर कहीं पानी दिखता नहीं , आखिर नदियों में भी तो प्रवाह घट ही रहा हैं । आने वाले साल मौसमी बदलाव की मर के कारण और अधिक तपेंगे  और ऐसे में पानी की मांग बढ़ेगी , ऐसे में हमारे  पारंपरिक कुएं ही मानव-अस्तित्व को बचा सकते हैं ।


हमारे  आदि-समाज ने कभी बड़ी नदियों को छेड़ा  नहीं, वे बड़ी नदी को अविरल बहने देते थे – साल के किसी बड़े पर्व-त्योहार पर वहाँ एकत्र होते बस । खेत- मवेशी के लिए  या तो छोटी नदी या फिर तालाब- झील । घर की जरूरत जैसे पीने और रसोई के लिए या तो आँगन में या फिर बसाहट के बीच का कुआं काम करता था । यदि एक बाल्टी की जरूरत है तो इंसान मेहनत से एक ही खींचता था और उसे किफायत से खर्च करता । अब की तरह नहीं कि  बिजली की मोटर से एक गिलास पानी की जरूरत के लिए स्वया दो बाल्टी व्यर्थ कर दिया जाए ।



पंजाब की प्यास भी बड़ी गहरी है। पाँच नदियों के संगम से बना यह समृद्ध  राज्य  खेती के लिए अंधाधुंध भूजल दोहन के कारण पूरी तरह “डार्क ज़ोन ” में है। यहाँ 150 में से 117 ब्लॉक में भूजल लगभग शून्य हो चुका है । कुछ साल पहले पलट कर देखें तो पाएंगे कि इस राज्य को खुश और हराभरा बनाने वाले दो लाख कुएं थे जो अब बंद पड़े हैं। गुरु की नगरी अमृतसर में ही 1200 कुएं हुआ करते थे चौथे पातशाही गुरु रामदास जी के निवास पर बना कुआं अमृतसर आबाद होने पर बनाया गया आठ जो सूख गया  इस शहर में पाइप से पानी घर तक भेजने का काम सं 1886 में शुरू हुआ था और तब शहर की प्यास बुझाने का जिम्मा 1200 कुओं पर था जो अब या तो लुप्त हो गए या बेपानी है,

भारत के लोक जीवन में पुरानी परंपरा रही है कि घर में बच्चे का जन्म हो या फिर नई दुल्हन आए, घर-मुहल्ले के कुंए की पूजा की जाती है-- जिस इलाके में जल की कीमत जान से ज्यादा हो वहां अपने घर के इस्तेंमाल का पानी उगाहने वाले कुंए को मान देना तो बनता ही है।  बीते तीन दशकों के दौरान भले ही प्यास बढ़ी हो, लेकिन सरकारी व्यवस्था ने घर में नल या नलकूप का ऐसा प्रकोप बरपाया कि पुरखों की परंपरा के निशान कुएं गुम होने लगे। अब कुओं की जगह हैंडपंप पूज कर ही परंपरा पूरी कर ली जाती है। वास्तव में यह हर नए जीवन को सीख होता था कि आँगन का कुआं ही जीवन का सार है ।

समझना होगा कि असली समस्या काम बरसात या तीखी गर्मी नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढ़ियों से होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट  हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों और नैसर्गिक जल साधनों के अधिक से अधिक शोषण की नीतियों  ने ले ली।  बड़े करीने से यहां के आदि-समाज ने बूंदों को बचाना सीखा था। । दो तरह के तालाब- एक केवल पीने के लिए , दूसरे केवल मवेशी व सिंचाई  के। पहाड़ की गोदी में बस्ती और पहाड़ की तलहटी में तालाब। तालाब के इर्द गिर्द कुएं ताकि समाज को जितनी जरूरत हो, उतना पानी खींच कर इस्तेमाल कर ले।

पिछले साल ही संसद में बताया गया कि छठवें लघु सिंचाई  गणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में अभी भी 82 लाख 78 हजार 425 कुएं बकाया हैं । इनमें सबसे अधिक 27 लाख 49 हजार 88 उस महाराष्ट्र में हैं जहां किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा सर्वाधिक है । उसके बाद उस मध्य प्रदेश में 13 लाख 3 6 हजार 682कुओं की चर्चा अकारण अहोगा जहां प्यास और पलायन के कारण बदनाम बुंदेलखंड है । तमिलनाडु में इससे अधिक 15 लाख 77 हजार 198 कुएं है लेकिन आज भी इस राज्य में ऐरी पद्धति के चलते दूरस्थ अञ्चल तक तालाब-कुओं का प्रबंधन बेहतर है । दुर्भाग्य है कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में महज  85224 कुएं का रिकार्ड मिल पाया । जबकि गंगा- यमुना सहित दर्जन भर बड़ी नदियों की गोद में बीएसई इस राज्य के हर आँगन- गाँव में कुएं होना अभी चार दशक पहले तक आम बात थी । अकेले लखनऊ में 12653 कुआ- तालाब का रिकार्ड तो सरकारी  फाइल में  ही है ।  

यदि बुंदेलखंड में ही देखें तो छतरपुर का महोबा रोड हो या फिर बांदा के कुओं के नाम पर पड़े मुहल्ले या फिर झांसी के खंडेराव गेट के शीतलामाता मंदिर की पंचकुईयां, आज भी इनसे सार्वजनिक नल-जल योजनाएं चल रही हैं । एक बात जाने कुओं का रखरखाव कम खरकिल अहै। कुओं के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन जैसे विषय धरती को गरम करते नहीं । कुओं को स्थानीय स्तर पर थोड़ी सी बरसात होने पर भी हर बूंद को एकत्र करने का पात्र बनाना बहुत सरल होता है । कुओं की मेंढ़ पर मवेशी और पक्षी भी प्यास बुझाते है और वहाँ लोक  और सहअस्तित्व का जीवन तो पुष्पित पल्लवित होता ही है ।  

प्राचीन जल संरक्षण व स्थापत्य के बेमिसाल नमूने रहे कुओं को ढकने, उनमें मिट्टी डाल पर बंद करने और उन पर दुकान-मकान बना लेने की रीत  सन 90 के बाद तब शुरू  हुई जब लोगों को लगने लगा कि पानी, वह भी घर में मुहैया करवाने की जिम्मेदारी सरकार की है और फिर आबादी के बोझ ने जमीन की कीमत को प्यास से अधिक महंगा बना दिया  तरह तरह की मशीन बेचने वालों ने खुले कुएं की पानी को अशुद्ध और बीमारी का घर बताने के प्रचार किये । सनद रहे जब तक कुएं से बालटी डाल कर पानी निकालना जारी रहता है उसका पानी शुद्ध  रहता है, जैसे ही पानी ठहर जाता है, उसकी दुर्गति शुरू  हो जाती है।

कई करोड़ की जल- आपूर्ति योजनाएं अब जल-स्त्रोत की कमी के चलते अपने उद्देयों को पूरा नहीं कर पा रही हैं। यह समझना जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन के साल दर  साल गहराने के चलते भारत  में लघु व स्थानीय परियोजनाएं ही जल संकट से जूझने में समर्थ हैं। चूंकि पर्यावास तथा उसके बीच के कुएं ताल-तलैयों के ईदगिर्द ही बस्तियां बसती रही हैं, ऐसे में कुएं  तालाबों से पानी का लेन-देन कर धरती के जल-स्तर को सहेजने, मिट्टी की नमी बनाए रखने जैसे कार्य भी करते हैं। अभी भी देश में बचे कुओं को कुछ हजार रूपए खर्च कर जिंदा किया जा सकता हे। ऐसे कुंओं को जिला कर उनकी जिम्मेदारी स्थानीय समाज की जल बिरादरी बना कर सौप दी जाए तो हर कंठ को पर्याप्त जल मुहैया करवाना कोई कठिन कार्य नहीं होगा। यदि देश में हर स्थानीय निकाय को सभी कुओं का अलग से सर्वेक्षण करा कर उन्हें पुनर्जीवित करने की एक योजना शुरू  की जाए तो यह बहुत कम कीमत पर जन भागीदारी के साथ हर घर को पर्याप्त पानी देने का सफल प्रयोग हो सकता है। एक बार कुओं में पानी आ गया तो समाज फिर खुद लोक परंपरा और प्यास दोनों के लिए कुओं पर निर्भर हो जाएगा।

 

 

 

Why such low turnout?

 

        इतना कम मतदान क्यों ?
                पंकज चतुर्वेदी

 

 

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में 18वीं लोकसभा को चुनने का उत्सव  शु रू हो चुका है। यह एक चिंता की बात है कि लोकतंत्र का मूल आधार जो “लोक” है , वह लगभग एक तिहाई वोट डालने ही नहीं आता आउट गणित के नजरिए ए देखें तो देश की सत्ता संभालने वाला दल कभी भी बहुमत आबादी का प्रतिनिधित्व करता नहीं । 2019 के चुनाव में पंजीकृत मतदाताओं की संख्या लगभग 91  करोड़ थी । मतदान हुआ 97.4 फीसदी । सबसे बड़े दल बीजेपी को  इसमें से मिले 37. 7 फीसदी वोट अर्थात कूल पंजीकृत मतदाताओं का महज 30 फीसदी । भला हो इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों  का वरना पहले गलत तरीके से मतदान के कारण देभर में इतने वोट तो अवैध होते थे, जिनकी संख्या दो लोकसभा क्षेत्रों के बराबर होती थी। हालांकि अब “कोई भी पसंद नहीं “ अर्थात नोटा है । 


यह विचारणीय है कि क्या वोट ना डालने वाले 33  फीसदी लोगों की निगाह में चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवार या मौजूदा चुनाव व्यवस्था नालायक थी या फिर वे मतदान से सरकार चुनने की प्रक्रिया के प्रति उदासीन हैं ? जिन परिणामों को राजनैतिक दल जनमत की आवाज कहते रहे हैं, वास्तव में वह बहुसंख्यक मतदाता की गैरभागीदारी का परिणाम होता है ।



जब कभी मतदान कम होने की बात होती है तो प्रषासन व राजनैतिक दल अधिक गरमी या सर्दी होने, छुट्टी ना होने जैसे कारण गिनाने लगते हैं । यदि पिकचले आंकड़ों को देखेनत ओ अभी तक छह बार मतदान 60 फीसदी के पार गया है जिसमें बीते दो चुनाव- 2014 में 66.44  और 2019 में 67.40 के अलावा  लोकतंत्र कि रक्षा के लिए लड़ा गया 1977 का चुनाव है जिसमें 60.49 फीसदी वोट पड़ा। फिर इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश की एकता-अखंडता पर खतरा दिखा आऊर 64.1 प्रतिशत वोट देने निकले। उसके बाद बोफोर्स का हाल हुआ और मतदान 61.96 हुआ। फिर 1998 में बदलाव के लिए वोट देने वाले 61.97 फीसदी रहे । 16वीं लोकसभा के चुनाव के वक्त भी आम लोग महंगाई,  भ्रष्टाचार  से हलाकांत थे सो मतदान का प्रतिशत तब तक का सर्वाधिक रहा  ये आँकड़े बताते हैं कि जब देश की जनता को अपने गुस्से का इजहार करना होता या चुनाव असली मुद्दों पर लड़ा जाता है  तो वह वोट डालने जरूर आती है ।


मूल सवाल यह है कि आखिर इतने सारे लोग वोट क्यों नहीं डालते हैं ? सर्वाधिक पढ़ा-लिखा, संपन्न और धनाढ्य, जागरूक और सक्रिय  कहा जाने वाला दे की राजधानी का दक्षिणी इलाका हो या सटे हुए गाजियाबाद व गुरुग्रं के बहुमंजिला अपार्टमेंट , सबसे कम मतदान वहीं होता है । यहीं नहीं देष के सर्वाधिक साक्षर राज्य के ‘देके पहले  पूर्ण साक्षर जिले’ एर्नारकुलम में महज 46 फीसदी लोग ही मतदान केंद्र तक आए यह विचारणीय है कि पढ़े-लिखे लोगों को राजनीतिक दल और सरकार के अधिक मतदान के अभियान आकर्षित क्यों नहीं कर पाते । ऐसा तो नहीं कि यह वर्ग मानता है कि  राजनीतिक दलों के लिए चुनाव महज सत्ता हड़पने का साधन व इसमें जनता साध्य मात्र हैं । पिछले कुछ दिनों के दौरान बड़े स्तर पर वैचारिक प्रतिबद्धता से पड़े हुए दल-बदल भी लोगों का मतदान के प्रति मन खट्टा करते हैं । ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो कि कहते हैं कि नागनाथ और सांपनाथ में से किसी एक को चुनन ेसे बेहतर है कि किसी को भी मत चुनों । ‘‘ कोई नृप हो हमें का हानि’’ या ‘‘हमारे एक वोट से क्या होना है’’ या फिर ‘‘ वोट देने पर हमें क्या मिलेगा ? कुछ नहीं ! फिर हम अपना समय क्यों खर्च करें । ?’’ ऐसा कहने वालों की भी बड़ी संख्या है ।


मतदाताओं की बढ़ती संख्या के साथ-साथ उम्मीदवारों की संख्या अधिक हो रही है । इसकी तुलना में नए मतदाता केंद्रों की संख्या नहीं बढ़ी है। मतदाता सूची में नाम जुड़वाना जटिल  है और उससे भी कठिन है अपना मतदाता पहचान पत्र पाना। उसके बाद चुनाव के लिए पहले अपने नाम की पर्ची जुटाओं, फिर उसे मतदान केंद्र में बैठे एक कर्मचारी को दे कर एक कागज पर दस्तखत या अंगूठा लगाओ । फिर एक कर्मचारी आपकी अंगुली पर स्याही लगाएगा । एक कर्मचारी ई वी एम शुरू करेगा , उसके बाद आप बटन दबा कर वोट डालेंगे । वीवीपेट के कारण सात सैकंड मतदाता इंतजार करेगा। पूरी प्रक्रिया में दो-तीन मिनट लग जाते हैं । प्रत्येक मतदाता केंद्र पर एक हजार से अधिक व कहीं -कहीं दो हजार तक मतदाता हैं । यदि एक मतदाता पर दो  मिनट का समय आंकें तो एक घंटे में अधिकतम 30 मतदाता होंगे । इसके चलते मतदाता केंद्रों के बाहर लबी-लंबी लाईनें लग जाती हैं । दे में 40 प्रतिषत से अधिक लोग ऐसे हैं जो कि ‘‘रोज कुआं खेद कर रोज पानी पीते ’’ हैं । यदि वे महज वोट डालने के लिए लाईन में लग कर समय लगाएंगे तो दिहाड़ी मारी जाएगी और शाम को घर का चूल्हा नहीं जल पाएगा ।


मतदान कम होने का एक कारण दे के बहुत से इलाकों में बड़ी संख्या में महिलाओं का घर से ना निकलना भी है । महिलाओं के लिए निर्वाचन में आरक्षण की मांग कर रहे संगठन महिलाओं का मतदान बढ़ाने के तरीकों पर ना तो बात करते हैं, और ना ही प्रयास । इसके अलावा जेल में बेद विचाराधीन कैदियों और अस्पताल में भर्ती मरीजों व उनकी देखभाल में लगे लोगों , चुनाव व्यवस्था में लगे कर्मचारियों, किन्हीं कारणो से सफर कर रहे लोग, सुरक्षा कर्मियों व सीमा पर तैनात जवानेां के लिए मतदान की माकूल व्यवस्था नहीं है । इनकी संख्या एक करोड के आसपास होती है। हालांकि अब बुजुर्ग और कई आने श्रेणियों के लिए डाक मतदान और घर जा कर वोट डलवाने की योजना आई है लेकिन यह निहायत राजनीतिक दलों के हितों के अनुरूप चुनिंदा लोगों तक ही सीमित है ।

कुछ सालों पहले चुनाव आयोग ने सभी राजनैतिक दलों के साथ एक बैठक में प्रतिपत्र मतदान का प्रस्ताव रखा था । इस प्रक्रिया में मतदाता अपने किसी प्रतिनिधि को मतदान के लिए अधिकृत कर सकता है  इस व्यवस्था के लिए जन प्रतिनिधि अधिनियम 1951 और भारतीय दंड संहिता में संषोधन करना जरूरी है । संसद में बहस का आश्वासन  दे कर उक्त अहमं मसले को टाल दिया गया ।

यहां जानना जरूरी है कि आस्ट्रेलिया सहित कोई 19 देशों  में वोट ना डालना दंडनीय अपराध है। क्यों ना हमारे यहां भी बगैर कारण के वोट ना डालने वालों के कुछ नागरिक अधिकार सीमित करने या उन्हें कुछ सरकारी सुविधाओं से वंचित रखने के प्रयोग किये जाएं। आज चुनाव से बहुत पहले बड़े-बड़े रणनीतिकार  मतदाता सूची का विष्लेशण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज या इलाके  के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां चाहे एक वोट से जीतो या पांच लाख वोट से , दोनों के ही सदन में अधिकार बराबर होते है। यदि कुल मतदान और जीत के अंतर  के हिसाब से इलाके की जन सुविधा, मंत्री बनाना आदि  तय होने लगे तो  प्रतिनिधि न केवल मतदाता सूचीं में लोगों के नाम जुडवायेंगे, बल्कि अधिक मतदान के लिए प्रेरित भी करेंगे .

राजनैतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि मतदान अधिक हो, क्योंकि इसमें उनके सीमित वोट-बैंक के अल्पमत होने का खतरा बढ़ जाता है । कोई भी दल चुनाव के पहले घर घर जा कर मतदाता सूची के नवीनीकरण  का कार्य करता नहीं और बी एल ओ पहले से ही कई जिम्मेदारियों में दबे सरकारी कर्मचारी  होते हैं .हमारा लोकतंत्र भी एक ऐसे अपेक्षाकृत आदर्श  चुनाव प्रणाली की बाट जोह रहा हैं , जिसमें कम से कम सभी मतदाताओं का पंजीयन हो और मतदान तो ठीक तरीके  से होना सुनिश्चित  हो सके ।

 

After all, why should there not be talks with Naxalites?

  आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ? पंकज चतुर्वेदी गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई   और   नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हा...