My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 29 जून 2022

It is not so easy to stop the River water of Pakistan

 इतना आसान नहीं है पांकिस्तान का पानी रोकना
पंकज चतुर्वेदी



पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान के सरकार पोषित आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भारत ने पाकिस्तान को जाने वाली नदियों का पानी रोकने पर विचार की घोषणा क्या की थी, कुछ लोग मान बैठे थे कि यह रातों-रात संभव है। अभी भी यदा-कदा अखबारों में खबरें छपती हैं कि भारत पाकिस्तान को जाने वाले पानी को रोक  देगा जिससे शत्रु  को मुंह की खानी पड़ेगी।  हालांकि जमीन पर दोनो देशों के बीच पानी के बंटवारे को ले कर कोई  तनाव नहीं है और अभी भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि पर 31 मई को 118वीं द्विपक्षीय बैठक हुई। इसके लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की ओर से नियुक्त पांच सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल नई दिल्ली पहुंचा। बाढ़ की अग्रिम सूचना और सिंधु जल के स्थायी आयोग की सालाना रिपोर्ट पर भी चर्चा हुई। भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल समझौते के तहत 1,000 मेगावाट पकाल दुल, भारत द्वारा बनाई जा रही 48 मेगावाट लोअर कालनाई और 624 मेगावाट किरुहाइड्रोपावर प्रोजेक्ट पर भी चर्चा हुई।



दुनिया की सबसे बड़ी नदी-घाटी प्रणालियों में से एक सिंधु नदी की लंबाई कोई 2880 किलोमीटर है । सिंधु नदी का इलाका करीब 11.2 लाख किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है. ये इलाका पाकिस्तान (47 प्रतिशत), भारत (39 प्रतिशत), चीन (8 प्रतिशत) और अफ़गानिस्तान (6 प्रतिशत) में है । अनुमान है कि कोई 30 करोड़ लोग सिंधु नदी के आसपास के इलाकों में रहते हैं।

इसमें पानी  की मात्रा दुनिया की सबसे बड़ी नदी कहलाने वाली नील नदी से भी दुगनी है। तिब्बत में कैलाश पर्वत श्रंखला से बोखार-चू नामक ग्लेशियर (4164 मीटर) के पास से अवतरित सिंधु नदी भारत में लेह क्षेत्र से ही गुजरती है। लद्दाख सीमा को पार करते हुए जम्मू-कश्मीर में गिलगित के पास दार्दिस्तान क्षेत्र में इसका प्रवेश पाकिस्तान में होता है।  पंजाब का जिन पांच नदियों राबी, चिनाब, झेलम, ब्यास और सतलुज के कारण नाम पड़ा, वे सभी िंसंधु की जल-धारा को समृद्ध करती हैं। सतलुज पर ही भाखडा-नंगल बांध हैं।  भले ही भारत व पाकिस्तान के बीच भौगालिक सीमाएं खिंच चुकी हैं लेकिन यहां की नदियां, मौसम, संस्कृति, सहित कई बातें चाह कर भी बंट नहीं पाईं।



सन 1947 में आजादी के बाद से ही दोनो देशों के बीच अंतरराष्ट्रीय नदियों के जल बंटवारे को ले कर विवाद चलता रहा। कई विदेशी विशेषझों के दखल के साथ दस साल तक बातचीत चलती रही और 19 सितंबर 1960 को कराची में दोनों देशों ंके बीच जल बंटवारे को ले कर समझौता हुआ। भारत-पाकिस्तान के बीच इस समझौते की नजीर सारी दुनिया में दी जाती है कि तीन-तीन युद्ध और लगातार तनावग्रस्त ताल्लुकातों के बावजूद दोनों में से किसी भी देश ने कभी इस संधि को नहीं तोड़ा। इस समझौते के मुताबिक सिंधु नदी की सहायक नदियों को  दे हिस्सों - पूर्वी और पश्चिमी नदियों में बांटा गया। सतलज, ब्यास और रावी नदियों को पूर्वी जबकि झेलम, चेनाब और सिंधु को पश्चिमी क्षेत्र की नदी कहा गया। पूर्वी नदियों के पानी का पूरा हक भारत के पास है तो पश्चिमी नदियों का पाकिस्तान के पास। बिजली, सिंचाई जैसे कुछ सीमित मामलों में भारत पश्चिमी नदियों के जल का भी इस्तेमाल कर सकता है। समझौता भलीभांति लागू हो इसके लिए एक सिंधु आयोग है और दोनों देशो की तरफ से कमिश्नर नियमित बैठकें करते हैं।


 सिंधु-तास समझौते के तहत पश्चिमी नदियों यानी झेलम, सिंध और चिनाब का नियंत्रण पाकिस्तान को दिया गया है. इसके तहत इन नदियों के अस्सी फ़ीसदी पानी पर पाकिस्तान का हक़ है। भारत को इन नदियों के बहते हुए पानी से बिजली बनाने का हक़ है लेकिन पानी को रोकने या नदियों की धारा में बदलाव करने का हक़ नहीं है। पूर्वी नदियों यानी रावी, सतलुज और ब्यास का नियंत्रण भारत के हाथ में दिया गया है। भारत को इन नदियों पर प्रोजेक्ट बगैरह बनाने का हक़ हासिल है, जिन पर पाकिस्तान विरोध नहीं कर सकता है। यह समझौता बहुत सोच-समझकर किया गया था. नदियों का विभाजन, उनका जल विज्ञान, उनका प्रवाह, वे कहाँ जा रही हैं, उनमें कितना पानी है. इन सब बातों को ध्यान में रखकर यह समझौता किया गया है. हम चाहकर भी पाकिस्तान में बहने वाली नदियों को नहीं मोड़ सकते, क्योंकि वे ढलान की ओर (पाकिस्तान में) उतरेंगी.

यहां जानना जरूरी है कि पानी की बात केवल सिंधु नदी की नहीं होती, इसके साथ असल में पंजाब की पांच नदियों के पानी का मसला है। पाकिस्तान का कहना है कि भारत को अपने हिस्से की पूर्वी नदियों का पानी रोकने और उसका पूरा इस्तेमाल करने का पूरा हक है। सनद रहे कि भारत रावी नदी पर शाहपुरकंडी बांध बनाना चाहता था, लेकिन इस परियोजना को सन 1995 से रोका गया है। ठीक इसी तरह से समय-समय पर भारत ने अपने हिस्से की पूर्वी नदियों का पानी रोकने के प्रयास किए लेकिन सामरिक दृष्टि से ऐसी योजनाएं परवान नहीं चढ़ पाईं।

वैसे भी भारत-पाकिस्तान की जल-संधि में विश्व बैंक सहित कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं शामिल हैं और उन्हें नजरअंदाज कर पाकिस्तान का पानी रोकना कठिन होगा। हां, पाकिस्तान की सरकार का आतंकवदी गतिविधियों में सीधी भागीदारी सिद्ध करने के बाद ही यह संभव होगा। लेकिन असल सवाल है कि  हम पानी रोक सकते हैं क्या ? यदि हम नदी का पानी रोकते हें तो उसे सहेज कर रखने के लिए बड़़े जलाशय, बांध चाहिए और वहां जमा पानी के लिए नहरें भी। सिंधु घाटी के नदी तंत्र को गांगेय नदी तंत्र अर्थात गंगा-यमुना से जोड़ना तकनीकी रूप से संभव ही नहीं है। गौरतलब है कि केन-बेतवा नदियों को जोड़ने की परियोजना 20 साल बाद भी धरातल पर नहीं आ पाई है। ऐसे में यमुना में सिंधु-तंत्र की नदियों को मिलाना तात्कालीक तो क्या दूरगामी भी संभव नहीं है।  यदि पानी रोकने का प्रयास किया गया तो जम्मू, कश्मीर , पंजाब आदि में जलभराव हो जाएगा और इससे जमीन पर उर्वर क्षमता प्रभावित होने की पूरी गुंजाईश है।

आजादी के इतने साल बाद भी अपने हिस्से की नदियों का पूरा पानी इस्तेमाल करने के लिए बांध आदि ना बना पाने का असल कारण सुरक्षा व प्रतिरक्षा नीतियां हैं। सीमा के पार साझा नदी पर कोई भी विशाल जल-संग्रह दुश्मनी के हालात में पाकिस्तान के लिए जल-बमके रूप में काम आ सकता है। यहां जानना जरूरी है कि भारत में ये नदियों उंचाई से पाकिस्तान में जाती हैं। इनके प्राकृतिक जल-प्रवाह पर कोई भी रोक समूचे उत्तरी भारत के लिए बड़ा संकट हो जाएगा। हम पानी एकत्र भी कर लें तो हमारी उतनी ही बेशकीमती जमीन दल-दल में बदल सकती है।

यह संकट केवल इतना ही नहीं हैं, भारत से पाकिस्तान जाने वाली नदियों पर चीन के निवेश से कई बिजली परियोजनाएं हैं। यदि उन पर कोई विपरीत असर पड़ा तो चीन ब्रहंपुत्र के प्रवाह के माध्यम से हमारे समूचे पूर्वोत्तर राज्यों को संकट में डाल सकता है। अरूणाचल व मणिपुर की कई नदियों चीन की हरकतों के कारण अचानक बाढ़, प्रदूषण  और सूखे को झेल रही हैं। अब तो नेपाल भी चीन की गोद में बैठा है और बहुत सी हिमालयी नदियां नेपाले से ही हमोर यहां आती है।

पाकिस्तान के आतंकवादी तंत्र पर निर्णायक चोट हर भारतीय चाहता है लेकिन नदी के पानी या टमाटर-भिंडी या फिर महज गाने-बजाने वाले कलाकारों पर पाबंदी से यह लक्ष्य हासिल होने से रहा। वैसे भी नदी सारे संसार की हैं , उसे अपने बदले के लिए इस्तेमाल करने का विचार नैसर्गिक नहीं है।

 

गुरुवार, 23 जून 2022

Flood licks the economy of Assam

 असम की अर्थ व्यवस्था को चाट जाती है बाढ़

पंकज चतुर्वेदी



बीस दिन में दूसरी बार असम बाढ़ से बेहाल हो गया । इस समय  राज्य के 32 जिलों के 5424 गांव पूरी तरह पानी में डूबे हैं और कोई 47.72 लाख लोग इससे सीधे प्रभावित हुए हैं। मौत का आंकड़ा 80 को पार कर गया है। अभी तक एक लाख हैक्टेयर खेती की जमीन  के नश्ट होने की बात सरकार मानती है। इस बार सबसे ज्यादा नुकसान  पहाड़ी जिले डिमा हासो को हुआ जहां एक हजार करोड़ की सरकारी व निजी  नुकसान का आकलन है। यहां रेल पटरियों बह गई व पहाड़ गिरने से सड़कों का नामो निषान मिट गया। अभी तो यह षुरूआत है और अगस्त तक राज्य में यहां-वहां पानी ऐसे ही  विकास के नाम पर रची गई संरचनाओं को  उजाड़ता रहेगा। हर साल राज्य के विकास में जो धन व्यय होता है, उससे ज्यादा नुकसान दो महीने में ब्रह्मपुत्र और उसकी सख-सहेलियां का कोप कर जाता है।

असम पूरी तरह से नदी घाटी पर ही बसा हुआ है। इसके कुल क्षेत्रफल 78 हजार 438 वर्ग किमी में से 56 हजार 194 वर्ग किमी ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी में है। और बकाया 22 हजार 244 वर्ग किमी का हिस्सा बराक नदी की घाटी में है। इतना ही नहीं राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के मुताबिक, असम का कुल 31 हजार 500 वर्ग किमी का हिस्सा बाढ़ प्रभावित है। यानी, असम के क्षेत्रफल का करीब 40फीसदी हिस्सा बाढ़ प्रभावित है। जबकि, देशभर का 10.2प्रतिषत हिस्सा बाढ़ प्रभावित है। अनुमान है कि इसमें सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है जिसमें - मकान, सड़क, मवेषी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि षामिल हैं। राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं , जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। यानि असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है।  


असम में प्राकृतिक संसाधन, मानव संसाधन और बेहतरीन भौगोलिक परिस्थितियां होने के बावजूद यहां का समुचित विकास ना होने का कारण हर साल पांच महीने ब्रहंपुत्र का रौद्र रूप होता है जो पलक झपकते ही सरकार व समाज की सालभर की मेहनत को चाट जाता है। वैसे तो यह नद सदियों से बह रहा है । बारिष में हर साल यह पूर्वोत्तर राज्यों में गांव-खेत बरबाद करता रहा है । वहां के लेगों का सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन इसी नदी के चहुओर थिरकता है, सो तबाही को भी वे प्रकृति की देन ही समझते रहे हैं । लेकिन पिछले कुछ सालों से जिस तरह सें बह्मपुत्र व उसके सहायक नदियों में बाढ़ आ रही है,वह हिमालय के ग्लेषियर क्षेत्र में मानवजन्य छेड़छाड़ का ही परिणाम हैं । केंद्र हो या राज्य , सरकारों का ध्यान बाढ़ के बाद राहत कार्यों व मुआवजा पर रहता है, यह दुखद ही है कि आजादी के 72 साल बाद भी हम वहां बाढ़ नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं दे पाए हैं। यदि इस अवधि में राज्य में बाढ से हुए नुकसान व बांटी गई राहत राषि को जोड़े तो पाएंगे कि इतने धन में एक नया सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था। 


पिछले कुछ सालों से इसका प्रवाह दिनोंदिन रौद्र होने का मुख्य कारण इसके पहाड़ी मार्ग पर अंधाधुंध जंगल कटाई माना जा रहा है । ब्रह्मपुत्र का प्रवाह क्षेत्र उत्तुंग पहाड़ियों वाला है, वहां कभी घने जंगल हुआ करते थे । उस क्षेत्र में बारिष भी जम कर होती है । बारिष की मोटी-मोटी बूंदें पहले पेड़ोंं पर गिर कर जमीन से मिलती थीं, लेकिन जब पेड़ कम हुए तो ये बूंदें सीधी ही जमीन से टकराने लगीं । इससे जमीन की टाप सॉईल उधड़ कर पानी के साथ बह रही है । फलस्वरूप नदी के बहाव में अधिक मिट्टी जा रही है । इससे नदी उथली हो गई है और थोड़ा पानी आने पर ही इसकी जल धारा बिखर कर बस्तियों की राह पकड़ लेती है ।



असम में हर साल तबाही मचाने वाली ब्रह्यंपुत्र और बराक नदियां, उनकी कोई 48 सहायक नदियां और  उनसे जुड़ी असंख्य सरिताओं पर सिंचाई व बिजली उत्पादन परियोजनाओं के अलावा इनके जल प्रवाह को आबादी में घुसने से रोकने की योजनाएं बनाने की मांग लंबे समय से उठती रही है। असम की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार खेती-किसानी ही है, और बाढ़ का पानी हर साल लाखों हैक्टर में खड़ी फसल को नश्ट कर देता है। ऐसे में वहां का किसान कभी भी कर्ज से उबर ही नहीं पाता है। एक बात और ब्रह्यंपुत्र नदी के प्रवाह का अनुमान लगाना भी बेहद कठिन है। इसकी धारा की दिषा कहीं भी, कभी भी  बदल जाती है। परिणाम स्वरूप जमीनों का कटाव, उपजाऊ जमीन का नुकसान भी होता रहता है। यह क्षेत्र भूकंप ग्रस्त है। और समय-समय पर यहां धरती हिलने के हल्के-फुल्के झटके आते रहते हैं। इसके कारण जमीन खिसकने की घटनाएं भी यहां की खेती-किसानी को प्रभावित करती है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें धान, जूट, सरसो, दालें व गन्ना हैं। धान व जूट की खेती का समय ठीक बाढ़ के दिनों का ही होता है। यहां धान की खेती का 92 प्रतिषत आहू, साली बाओ और बोडो किस्म की धान का है और इनका बड़ा हिसा हर साल बाढ़ में धुल जाता है।  असम में मई से ले कर सितंबर तक बाढ़ रहती है और इसकी चपेट में तीन से पांच लाख हैक्टर खेत आते हैं । हालांकि खेती के तरीकों में बदलाव और जंगलों का बेतरतीब दोहन जैसी मानव-निर्मित दुर्घटनाओं ने जमीन के नुकसान के खतरे का दुगना कर दिया है। दुनिया में नदियों पर बने सबसे बड़े द्वीप माजुली पर नदी के बहाव के कारण जमीन कटान का सबसे अधिक असर पड़ा है। 

राज्य में नदी पर बनाए गए अधिकांष तटबंध व बांध 60 के दषक में बनाए गए थे । अब वे बढ़ते पानी को रोक पाने में असमर्थ हैं । फिर उनमें गाद भी जम गई है, जिसकी नियमित सफाई की कोई व्यवस्था नहीं हैं। पिछले साल पहली बारिष के दवाब में 50 से अधिक स्थानों पर ये बांध टूटे थे । इस साल पहले ही महीने में 27 जगहों पर मेढ़ टूटने से जलनिधि के गांव में फैलने की खबर है। वैसे मेढ़ टूटने की कई घटनाओं में खुद गांव वाले ही षामिल होते हैं । मिट्टी के कारण उथले हो गए बांध में जब पानी लबालब भर कर चटकने की कगार पर पहुंचता है तो गांव वाले अपना घर-बार बचाने के लिए मेढ़ को तोड़ देते हैं । उनका गांव तो थोड़ सा बच जाता है, पर करीबी बस्तियां पूरी तरह जलमग्न हो जाती हैं । बराक नदी गंगा-ब्रह्यपुत्र-मेधना नदी प्रणाली की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी नदी है। इसमें उत्तर-पूर्वी भारत के कई सौ पहाड़ी नाले आकर मिलते हैं जो इसमें पानी की मात्रा व उसका वेग बढ़ा देते हैं। वैसे इस नदी के मार्ग पर बाढ़ से बचने के लिए कई तटबंध, बांध आदि बनाए गए और ये तरीके कम बाढ़ में कारगर भी रहे हैं।

ब्रह्मपुत्र घाटी में तट-कटाव और बाढ़ प्रबंध के उपायों की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए दिसंबर 1981 में ब्रह्मपुत्र बोर्ड की स्थापना की गई थी । बोंर्ड ने ब्रह्मपुत्र व बराक की सहायक नदियों से संबंधित योजना कई साल पहले तैयार भी कर ली थी । केंद्र सरकार के अधीन एक बाढ़ नियंत्रण महकमा कई सालों से काम कर रहा हैं और उसके रिकार्ड में ब्रह्मपुत्र घाटी देष के सर्वाधिक बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में से हैं । इन महकमों नेे इस दिषा में अभी तक क्या कुछ किया ? उससे कागज व आंकड़ें को जरूर संतुश्टि हो सकती है, असम के आम लेगों तक तो उनका काम पहुचा नहीं हैं। असम को सालाना बाढ़ के प्रकोप से बचाने के लिए ब्रह्मपुत्र व उसकी सहायक नदियों की गाद सफाई, पुराने बांध व तटबंधों की सफाई, नए बांधों को निर्माण जरूरी हैं 



शुक्रवार, 17 जून 2022

Onion tears can be stopped by saving from wastage

 बर्बादी से बचा कर भी  रोके जा सकते हैं प्याज के आंसू

पंकज चतुर्वेदी



महाराष्ट्र  के नासिक की सताना, नांदगांव आदि मंडी में प्याज के दाम पचास रूपए कुटल तक गिर गए हैं। हालांकि प्याज की उत्पादन लागत 15 से 18 रूपए प्रति किलो है । कई किसान निराश हो कर फसल तक नहीं खोद रहे। महाराष्ट्र में कोई डेढ करोड लोग खेती-किसानी से अपना जीवन चलाते हैं और इनमें से दस फीसदी अर्थात 15 लाख लोग केवल प्याज उगाते हैं।  बरसात का खतरा सिर पर है और आढतिया अब उतना ही माल लेगा जिसे वह भंडारण कर सके। 



चीन के बाद भारत दुनिया में सर्वाधिक प्याज पैदा करे वाला देश है और यहां से हर साल 13 हजार करोड़ टन  प्याज का निर्यात होता है,लेकिन यहां की राजनीति में आए रोज प्याज की कमी और दाम आंसू लाते रहते हैं। यह गौर करना होगा कि जलवायु परिवर्तन की मार से प्याज की खेती को सबसे अधिक नुकसान हो रहा है। दुर्भाग्य है कि हमारे देश में प्याज  की मांग व उत्पादन  इतनी बड़ी समस्या नहीं है जितना संकट में प्याज की बंपर फसल होने पर उसे सहेज कर रखना है। आमतौर पर इसकी बोरियां खुले में रहती हैं व  बारिश होते ही  इनका सड़ना शुरू  हो जाता है। इसी के साथ अभी नए प्याज की आवक शुरू  होगी लेकिन दिल्ली के बाजार में फुटकर में इसके दाम चालीस रूपए से नीचे नहीं आ रहे।

भारत में प्याज की लगभग 70 फीसदी पैदावार रबी में होती है, यानी दिसंबर-जनवरी में रोपाई और मार्च से मई तक फसल की आवक। खरीफ यानी जुलाई-अगस्त में बोने व अक्तूबर-दिसंबर तक आवक का रकवा बहुत कम है।  पिछले कुछ सालों में प्याज  के बाजार में  हुई उठापटक पर गौर करें तो पाएंगे कि  जनवरी 2018 में कम आवक का कारण  महाराष्ट्र  में चक्रवात, पश्चिमी समुद्री तट पर कम दवाब  के क्षेत्र बनने पर  असामयिक बरसात के चलते  शोलापुर, नासिक, अहमदनगर आदि में फसल बर्बाद होता था। नवबंर-2019 से जनवरी 2020 तक भी प्याज के दाम बेशुमार बढ़े थे और उसका कारण बेमौसम व लंबे समय तक बरसात होना बताया गया था।  सन 2020 में खरीफ की फसल भी भयंकर बरसात में धुल गई थी। इस साल कर्नाटक व महाराष्ट्र  में सितंबर में बरसात हो गई थी। फरवरी  2021 में प्याज के आसमान छूते दाम व विदेश से मंगवाने का कारण जनवरी-2021 में उन इलाकों में भयंकर बरसात होना था जहां प्याज की खेती होती है।


इन दिनों मध्य प्रदेश में प्याज की बंपर फसल  किसानों के लिए आफत बनी है। शाजापुर मंडी में एक सप्ताह में 27 हजार बोरा प्याज ख्रीदा गया। यहां आगरा बांबे रोड़ पर ट्रैक्टर-ट्रालियों की लंबी कतार है व कई किसान माल बेचे बगैर लौट रहे है। यहां पिछले साल भी किसान वाजिब दाम ना मिलने के कारण आंदोलन कर चुके हैं। सनद रहे कि राज्य में हर साल लगभग 32 लाख टन प्याज होता है और उसके भंडारण की क्षमता महज तीन लाख टन यानि दस फीसदी से भी कम है। महाराष्ट्र  की सबसे बड़ी प्याज मंडी लासलगांव में शनिवार को 1 हजार 233 वाहनों से 17 हजार 826 क्विंटल प्याज की  आवक हुई और इसका .अधिकतम 1600 रुपये, न्यूनतम 1000 रुपये और औसत 2100 रुपये प्रति क्विंटल रहा। किसान के लिहाज से यह दाम बहुत कम है लेकिन  ना तो किसान इसे जमा कर रख सकता है और यदि यदि इस समय थोड़ी भी बरसात हो गई तो इस मंडी का अधिकांश माल सड़ कर बदबू मारने लगेगा। एक फौरी अनुमान है कि हर साल हमारे देश में 70 लाख टन से अधिक प्याज खराब हो जाता है जिसकी कीमत 22 हजार करोड़ होती है।  केंद्र सरकार के उपभाक्ता मामलों के मंत्रालय ने वर्श 2022 की आर्थिक समीक्षा में  बताया है कि सन 2020-21 में कोई 60 लाख टन प्याज सड़ने या खराब होने का आकलन  किया गया था जो सन 2021-22 में  72 लख टन है। इस समय देश में  प्याज की उपलब्ध्ता 3.86 करोड़ टन है, जबकि 28 लख टन आयात किया गया है। 


लेकिन दुर्भाग्य है कि इस स्टाक को सहेजने के लिए माकूल  कोल्ड स्टोरज हैं नहीं।  महज दस फसदी प्याज को ही सुरक्षित रखने लायक व्यवस्था हमारे पास है, साथ ही प्याज उत्पादक जिलो ंमें कोई खाद्य प्रसंस्करण कारखाने हैं नहीं।  किसान अपनी फसल  ले कर मंडी जाता है और यदि उसके माल बेचने के लिए सात दिन कतार में लगना पड़े तो  माल-वाहक वाहन का किराया व मंडी के बाहर  सारा दिन बिताने के बाद किसान को कुछ नहीं मिलता, फलस्वरूप आए दिन सड़क पर फसल फैक देने या खेत मेंही सड़क देने की खबरें आती है।

यह जान लें कि प्याज के कोल्ड स्टोरेज में अन्य कोई उत्पाद रखा नहीं जा सकता। इसके बाद  प्याज की फसल जिन दिनो ंमें आती है, उस समय प्रायः बरसात  होती है और गीला प्याज  भंडारण के लिए रखा नहीं जा सकता । हालांकि सरकार ने कम से कम दो हैक्टेर में प्याज उगाने वाले किसानों को 50 मेट्रीक टन क्षमता के  भंडारण गृह बाने पर  कोई पचास फीसदी सबसिड़ी का ऐलान किया है लेकिन अभी इसके जमीनी परिणाम सामने नहीं आए है। आज जरूरत है कि वैज्ञानिक, तकनीकी संस्थाएं कम लागत और किफायती संचालन खर्च की ऐसी तकनीक विकसित करं जिससे किसान अपनी फसल भी सुरक्ष्ति रख सके , साथ ही अतिरिक्त कमाई भी हो। यह किसी से छुपा नहीं है कि वर्तमान बिजली आधारित कोल्ड स्टोरज व्यवस्था सुदूर गावों को लिए  संभव नहीं है क्योंकि वहां एक तो बिजली की अनियमित सप्लाई है दूसरा मंडी तक आने का परिवहन व्यय अधिक है। 


यही नहीं जिला स्तर पर प्रसंस्करण कारखाने लगाने,  सरकारी खरीदी केंद्र ग्राम स्तर पर स्थापित करने, किसान की फसल को निर्यात के लायक उन्नत बनाने के प्रयास अनिवार्य है। किसान को केवल उसके उत्पाद का वाजिब दाम ही नहीं चाहिए, वह यह भी चाहता है कि उसके उत्पाद का सड़कर या फिंक कर अनादर ना हो और उससे लोगों का पेट भरे।

 

 

शनिवार, 11 जून 2022

Writing for children is not childish

 बचपना नहीं हैं बाल साहित्य लिखना

पंकज चतुर्वेदी



यदि भारत में सबसे अधिक बिकने वाली किताबों की बात की जाए तो बच्चों की किताबों के लेखक रॉयल्टी के मामले में सबसे अधिक माला माल हैं , संख्या में भी बच्चों की किताबे हिंदी में खूब छप रही हैं लेकिन उनमें से असली पाठकों तक बहुत कम पहुँचती हैं . बाल साहित्य लेखक का बड़ा वर्ग अभी भी बच्चों के लिए लिखने और “बचकाना “ लिखने में फर्क नहीं कर पा रहा . जानवरों को इंसान बना देना , राजा- मंत्री- रानी की कहानी , किसी बच्चे को चोट पहुंचा कर उसे सीख देना या दो बच्चों की तुलना कर उसमें अच्छा बच्चा –बुरा बच्चा तय कर देना या फिर नैतिक शिक्षा की घुट्टी पिलाना – अधिकाँश बाल साहित्य में समावेशित है , कविता के बिम्ब और संवाद वही - घड़ी, कोयल बंदर तक सीमित हैं . बाल साहित्य का सबसे अनिवार्य तत्व उसके चित्र हैं और चित्र तो इन्टरनेट से चुरा कर या किसी अधकचरे कलाकार द्वारा बनवाये गये होते हैं –ऐसी किताबे आपस में दोस्तों को बंटती हैं और और कुछ स्वयम्भू आलोचक मुफ्त में मिली किताबों में से ही सर्व श्रेठ का चुनाव कर सम्पादक के खतरे से मुक्त सोशल मिडिया पर चस्पा आकर देते हैं .


दुनिया बदल रही है , तकनीकी ने हमारे समाज को दो दशकों में जितना नहीं बदला था,उससे कही अधिक कोविड के 22 महीनों में मानव- स्वाभाव बदल गया , इससे बच्चा सर्वाधिक प्रभावित हुआ – उसके मित्र मिल नहीं पाए, वह खेलने नहीं जा सका, वह घर के परिवेश में दबा- बैठा रहा . जाहिर है कि बच्चो के लिए पठन सामग्री को भी उसके अनुरूप बदलना होगा . एक बात समझना जरुरी है की पाठ्य पुस्तक सामग्री, बोध या नैतिक पाठ्य और मनोरंजक पठन सामग्री में अंतर होता है और उनके उद्देश्य, सामग्री और प्रस्तुति भी अलग –अलग . पाठ्य पुस्तकों या बोध साहित्य के बोझ से थका बच्चा जब कुछ ऐसा पढ़ना चाहे जो उसका मनोरंजन करे , इस तरीके से ज्ञान या सूचना दे कि उसमें कोई प्रश्न पूछने या गलत-सही उत्तर से बच्चे के आकलन का स्थान न हो , वह कितना पढ़े, कब पढ़े उस का कोई दायरा न हो – ऐसी किताबें ही बाल साहित्य कहलाती हैं . अब किस आयु वर्ग का बच्चा क्या पढता पसंद करता है ? इस पर पहले बहुत सा लिखा जा चुका है लेकिन ध्यान यह रखना होगा कि बच्चे की पठन क्षमता और अभिरुचि बहुत कुछ उसके सामाजिक-आर्थिक परिवेश पर निर्भर करती है और इसी लिए ओई ऐसा मानक खांचा नहीं बना है है की अमुक किताब अमुक वर्ग का बच्चा ही पढ़ेगा .
बच्चा अपने परिवेश से बाहर की बातों और भाषा को रूचि के साथ पढता है , जान ले एक अच्छे बाल साहित्य का मूल तत्व है कौतुहल या जिज्ञासा ! आगे क्या होगा ? कोई कहानी का पहला शब्द ही यदि शुरू होता है कि- राजू शैतान है या रीमा पढने में अच्छी है – तो जान ले की बाल पाठक की उसमें कोई रूचि नहीं होगी- कथानक के मूल चरित्र के असली गुण या खासियत जब पहले ही शब्द में उजागर हो गई तो आगे की सामग्री बच्चा इस स्थाई धारणा के साथ पढ़ेगा की वह शैतान है या पढने में अच्छी .


क्या आपने बाल सहित्य में सरपंच, सांसद, विधायक का उल्लेख देखा है ? क्या अपने बेंक या अन्य किसी महकमे को काम करते देखा है ? केवल पुलिस वाला होगा या पहले कुछ कहानियों में डाकिया . अधिकांश लेखक किसी बच्चे को बहादुर बताने के लिए उसे चोर से या आतंकी से सीधा लड़ता बता देते हैं . कुछ साल पहले दिल्ली में एक महिला ने साहस के साथ एक ऐसे व्यक्ति को पकड़ा जो उसकी चैन छुडा रहा था . इलाके के डीसीपी ने स्पष्ट किया कि इस तरह के खतरे न मोल लें , इंसान का जीवन ज्यादा कीमती है , जाहिर है की बच्चे को जागरूक होना चाहिए, पेड़ काटने या आतंकी घटना करने वालों की सोचना तत्काल सम्बंधित एजेंसी को देना चाहिए .
यह लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ कार्यपालिका के प्रति भविष्य के नागरिक के दिल में भरोसा जताने का सबक होता है , आज भी कई युवा लोकतंत्र या नेता को गाली देते मिलते हैं , असल में उन्होंने बचपन में राजतन्त्र की इतनी कहानियाँ पढ़ी होती हैं की उनके मन में अभी भी राजा और मंत्री ही आदर्श होते हैं . यह जान लें लोकतंत्र में कमियां हो सकती हैं लेकिन देश का आज विश्व में जो स्थान है उसका मूल कारण हमारा महान लोकतंत्र ही है लेकिन बाल साहित्य में यह प्राय नदारद रहता है .


छोटी बातों, अपने आसपास घटित हो रही गतिविधियों को सूक्ष्मता से देखना और उसे शब्द में प्रकट कारन बाल साहित्य का एक गुण हैं , इधर उधर से एकत्र विज्ञानं सामग्री को एक वेबसाईट पर डाल कर खुद को स्वयम्भू विज्ञान और बाल साहित्य का तारनहार समझने वाले एक लेखक को सम्पादक द्वारा रचना लौटाना इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने देश एक एक बड़े और प्रतिष्ठित बाल पुस्तकों के प्रकाशक की पढ़ना बंद कर दिया ,
असल में हिंदी की यह त्रासदी है की कुछ स्थानीय पुरस्कार, इक्का- दुक्का किताबों के प्रकाशन और कतिपय मंचों पर भाषण देने के आमन्त्रण के बाद लेखक मान लेता है की वह ज्ञान और मेधा के उस उत्तुंग पर्वत पर विराजमान हैं जहां से अब उसे अन्वेषण,परिश्रम या नवाचार के जरूरत नहीं हैं , उसका काम केवल आशीर्वाद देना है ,


विश्व में बाल साहित्य नए विषयों के साथ आ रहा है , अकेले यूरोप या अमेरिका जैसे विकसित देश ही नहीं , अफ्रीका और अरब दुनिया में बाल साहित्य में बाल मनोविज्ञान, समस्या और सूचना के नए विषय तेजी से आरहे है और हिंदी में अभी भी पंचतन्त्र या हितोपदेश के मानिंद रचना या धार्मिक ग्रन्थ से कहानियों का पुनर्लेखन या किसी चर्चित व्यक्ति के जीवन से घटनाओं का बाहुल्य है , कई बार नए प्रयोग के नाम पर कथानक का पात्र बच्चा या जानवर होता है लेकिन कथानक का प्रवाह और निर्णायक मोड़ पूरी तरह वयस्क मानसिकता वाला .
एक किताब के कवर पेज पर ही एक व्यक्ति का कपाल खुला हुआ है और खून बह रहा है, ईद की कहानी में ईद का चाँद पूनम की तरह मुंह खोले हुए है --- कहानी गाँव की है लेकिन इन्टरनेट से उडाये चित्र में घर-खेत डेनमार्क के दिख रहे हैं --- एक बात समझना होगा की बाल साहित्य में चित्र , शब्दों का अनुवाद नहीं होते, बल्कि उनका विस्तार या एक्स्टेंशन होते हैं , ठीक उसी तरह शब्द भी चित्र का ही विस्तार होते हैं, -- जो बात शब्द में न आई वह चित्र कह देते हैं, दोयम दर्जे के बाल साहित्य में चित्र एक तरह से शब्दों की पुनरावृति ही होते हैं और जानलें बच्चे को ऐसी सामग्री में रस आता नहीं .

यह बात दीगर है कि आनंदकारी बाल साहित्य मूल रूप से पाठ्य पुस्तकों के मूल उद्देश्य की पूर्ति ही करता है – वर्णमाला और शब्द, अंक और उसका इस्तेमाल, रंग- आकृति की पहचाना उर मानवीय संवेदना का एहसास – बस उसका इम्तेहान नहीं होता – बाल साहित्य के चयन, लेखन और सम्पादन के प्रति संवेदनशील रहना इसी लिए जरुरी है की इन शब्द- चित्रों से हम देश का भविष्य गढ़ते है



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शुक्रवार, 3 जून 2022

Climate change has to be stopped if the world is to be saved

 दुनिया को बचाना है तो  जलवायु बदलाव को रोकना होगा



पंकज चतुर्वेदी

इस साल राष्ट्रीय राजधानी और इसके आसपास के इलाकों में रविवार को भीषण गर्मी तथा लू का प्रकोप रहा। उत्तर पश्चिमी दिल्ली के मुंगेशपुर में पारा जहां 49.2 डिग्री सेल्सियस को पार गया, वहीं दक्षिण-पश्चिमी दिल्ली के नजफगढ़ में अधिकतम तापमान 49.1 डिग्री दर्ज किया गया। मौसम विभाग के मुताबिक, स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में पारा 48.4 डिग्री दर्ज किया गया जबकि जफरपुर, पीतमपुरा और रिज में तापमान क्रमश: 47.5 डिग्री, 47.3 डिग्री और 47.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। पिछले साल तो जुलाई के पहले हफ्ते में दिल्ली-एनसीआर में भयंकर गर्मी से जैसे आग लगी हुई थी| 90 साल के बाद जुलाई में दिल्ली में सबसे ज्यादा गर्म दिन 43.1 डिग्री रिकॉर्ड किया गया. रूस का साइबेरिया क्षेत्र जिसे बर्फीला रेगिस्तान कहा जाता है , में वरखोयांस्क नामक जगह में पिछले महीने 37 डिग्री तापमान हो गया। जबकि ये जगह आर्कटिक सर्किल के ऊपर की सबसे ठंडी जगह है और यहां 1892 में तापमान माइनस 90 डिग्री हुआ करता था। भारत में ही साल भर बर्फ से ढके रहने वाले हिमाचल के कुल्लू, मनाली, लाहौल-स्पीती में साल 2022के मार्च में तापमान 27 डिगरी के पार होना एक बड़ी चेतावनी है |यह गर्मी कनाडा और अमेरिका प्रशांत-उत्तर पश्चिम में भी कहर बन कर टूटी | कनाडा के ओटावा में तापमान 47.9 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था। रॉयल कैनेडियन माउंटेड पुलिस (आरसीएमपी) के मताबिक अकेले वैंकूवर में कम से कम 69 लोगों की मौत दर्ज की गईं । वैंकूवर के बर्नाबी और सरे शहर में मरनेवालों में ज्यादातर बुजुर्ग या गंबीर बीमारियों से ग्रस्त लोग थे।

जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव अब सारी दुनिया में हर स्तर पर देखा जा रहा है – मौसम का अचानक , बेमौसम चरम पर आ जाना , चक्रवात, तूफ़ान या बिजली गिरने जैसे आपदाओं की संख्या में इजाफा  और खेती- पशु पालन, भोजन में  पोष्टिकता की कमी सहित कई अनियमितताएं उभर कर आ रही हैं , पहले विकसित देखों को लगता था की भले ही ग्रीन  हॉउस गैस उत्सर्जन में उनकी भागीदारी ज्यादा है लेकिन इससे उपजी त्रासदी को पिछड़े या विकासशील देश अधिक भोगेंगे, लेकिन आज यूरोप और अमेरिका भ धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों से अछूते नहीं हैं |

इस बात पर संयुक्त राष्ट्र भी चिंता जता चुका है कि 2021  में पूरी दुनिया का औसत तापमान सर्वाधिक दर्ज किया गया | सबसे गर्म दर्ज की गई थी। हाल ही में  ब्रिटिश कोलंबिया के प्रीमियर जॉन होर्गन ने एक संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनके लोगों ने अब तक का सबसे गर्म सप्ताह देखा लिया जो कई परिवारों और समुदायों के लिए विनाशकारी रहा है।

वर्ल्ड वेदर एट्रीब्युशन इनीशिएटिव (डब्लूडब्लूए) के 27 वैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय टीम की एक त्वरित स्टडी के मुताबिक ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते उत्तरी अमेरिका की गर्म लहरों के सबसे ज्यादा गरम दिन, 150 गुना अपेक्षित थे और दो डिग्री सेल्सियस ज्यादा गरम थे. अमेरिका के ओरेगन और वॉशिंगटन में तापमान के रिकॉर्ड टूटे और कनाडा के ब्रिटिश कोलम्बिया में भी. 49.6 डिग्री सेल्सियस की अधिकतम सीमा तक  तापमान पहुंच गया और यह  जलवायु परिवर्तन का ही कुप्रभाव है |

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एक रिपोर्ट में चेतावनी दी गई थी कि अभूतपूर्व स्तर की जलवायु अव्यवस्था से बचने के लिए  दुनिया को अपनी अर्थ व्यवस्था और सामजिक गतिविधियों में आमूल चूल बदलाव लाने होंगे | रिपोर्ट में कहा था की वर्ष २०३० से २०३५ के बीच धरती का तापमान १.५ डिग्री बढ़ सकता है | जलवायु परिवर्तन के कारणों का दुनिया भर की इंसानी आबादी के स्वास्थ्य पर भी भारी असर पड़ रहा है: रिपोर्ट दिखाती है कि वर्ष 2019 में तापमान में अत्यधिक वृद्धि के कारण जापान में 100 से ज़्यादा और फ्रांस में 1462 लोगों की मौतें हुईं | वर्ष 2019 में तापमान वृद्धि के कारण डेंगु वायरस का फैलाव भी बढ़ा जिसके कारण मच्छरों को कई दशकों से बीमारियों का संक्रमण फैलाना आसान रहा है| कोरोना वायरस के समाज में इस स्तर पर  संहारी होने का मूल कारण भी जैव विविधता से छेड़छाड़ और जलवायु परिवर्तन ही है | भुखमरी में अनेक वर्षों तक गिरावट दर्ज किए जाने के बाद अब इसमें बढ़ोत्तरी देखी गई है और इसका मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन व चरम मौसम की घटनाएँ हैं: वर्ष 2018 में भुखमरी से लगभग 82 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे|

हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका के देश वर्ष 2019 में विशेष रूप में ज़्यादा प्रभावित हुए, जहाँ की ज़्यादातर आबादी पर जलावायु संबंधी चरम घटनाओं, विस्थापन, संघर्ष व हिंसा का बड़ा असर पड़ा | उस क्षेत्र में भीषण सूखा पड़ा और उसके बाद वर्ष के आख़िर में भारी बारिश हुई| इसी कारण टिड्डियों का भी भारी संकट पैदा हुआ जो पिछले लगभग 25 वर्षों में सबसे भीषण था|

दुनिया भर में लगभग 67 लाख लोग प्राकृतिक आपदाओं के कारण अपने घरों से विस्थापित हुए, इनमें विशेष रूप से तूफ़ानों और बाढ़ों का ज़्यादा असर था. विशेष रूप से ईरान, फ़िलीपीन्स और इथियोपिया में आई भीषण बाढ़ों का ज़िक्र करना ज़रूरी होगा. रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2019 में लगभग दो करोड़ 20 लाख लोगों के देश के भीतर ही विस्थापित होना पड़ा जोकि वर्ष 2018 ये संख्या लगभग एक करोड़ 72 लाख थी.

यह बहुत भयानक चेतावनी है कि यदि तापमान में वृध्धि  दो डिगरी हो गई तो कोलकता हो या कराची , जानलेवा गर्मी से इंसान का जीवन संकट में होगा | गर्मी से ग्लेशियर के गलने, समुद्र का जल स्तर बढ़ने  और इससे तटीय शहरों में तबाही तय हैं | खासकर उत्तरी ध्रुव के करीबी देशों में इसका असर व्यापक होगा |

यह चेतावनी कोई नई नहीं है कि जलवायु परिवर्तन से उपजी त्रासदियों की सर्वाधिक मार महानगरों, खासकर समुद्र तट के करीब बस्तियों पर पड़ेगी।  अचानक चरम बरसात , ठंड या गरमी या फिर बेहद कम बरसात या फिर असामयक मौसम में तब्दीली, इस काल की स्वाभाविक त्रासदी है। इससे निबटने के तरीकों में सबसे अव्वल नंबर अधिक से अधिक प्राकृतिक संरचनाओं को सहेजना, उसे उसके पारंपरिक रूप में ले जाना ही है। पेड़ हों तो पारंपरिक , नदी-तालाब-झील के जल ग्रहण क्षेत्र, उनके बीते 200 साल के रास्ते , उनके सागत से मिलने के मार्गों से अक्रिमण समाप्त करने, मेग्रोव जैसी संरचनाओं को जीवतं रखने के त्वरित प्रयास ही कारगर हैं। यदि महानगरों की रौनक बनए रखना हैं, उन्हें अंतरराश्ट्रीय बाजार के रूप में स्थापित रखना है तो अपनी जड़ों की ओर लौटने की दीर्घकालीक योजना बनानी ही होगी ।

जलवायु परिवर्तन पर 2019 में जारी इंटर गवमेंट समूह (आईपीसीसी) की विशेष रिपोर्ट ओशन एंड क्रायोस्फीयर इन ए चेंजिंग क्लाइमेट के अनुसारसरी दुनिया के महासागर 1970 से ग्रीनहाउस गैस  उत्सर्जन से उत्पन्न 90 फीसदी अतिरिक्त गर्मी को अवशोषित कर चुके है। इसके कारण महासागर  गर्म हो रहे हैं और इसी से चक्रवात को जल्दी-जल्दी और खतरनाक चेहरा सामने आ रहा है।  निवार तूफान के पहले बंगाल की खाड़ी में जलवायु परिवर्तन के चलतेे समुद्र जल  सामान्य से अधिक गर्म हो गया था। उस समय समुद्र की सतह का तापमान औसत से लगभग 0.5-1 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म था, कुछ क्षेत्रों में यह सामान्य से लगभग 1.2 डिग्री सेल्सियस अधिक दर्ज किया गया था। जान लें समुद्र का 0.1 डिग्री तापमान बढ़ने का अर्थ है चक्रवात को अतिरिक्त ऊर्जा मिलना। हवा की विशाल मात्रा के तेजी से गोल-गोल घूमने पर उत्पन्न तूफान उष्णकटिबंधीय चक्रीय बवंडर कहलाता है।

पूरी दुनिया में बार-बार और हर बार पहले से घातक तूफान आने का असल कारण इंसान द्वारा किये जा रहे प्रकृति के अंधाधुध शोषण से उपजी पर्यावरणीय त्रासदी जलवायु परिवर्तनभी है। इस साल के प्रारंभ में ही अमेरिका की अंतरिक्ष शोध संस्था नेशनल एयरोनाटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन नासा ने चेता दिया था कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रकोप से चक्रवाती तूफान और खूंखार होते जाएंगे। जलवायु परिवर्तन के कारण उष्णकटिबंधीय महासागरों का तापमान बढ़ने से सदी के अंत में बारिश के साथ भयंकर बारिश और तूफान आने की दर बढ़ सकती है। यह बात नासा के एक अध्ययन में सामने आई है। अमेरिका में नासा के ‘‘जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी’’ (जेपीएल) के नेतृत्व में यह अध्ययन किया गया। इसमें औसत समुद्री सतह के तापमान और गंभीर तूफानों की शुरुआत के बीच संबंधों को निर्धारित करने के लिए उष्णकटिबंधीय महासागरों के ऊपर अंतरिक्ष एजेंसी के वायुमंडलीय इन्फ्रारेड साउंडर (एआईआरएस) उपकरणों द्वारा 15 सालों तक एकत्र आकंड़ों के आकलन से यह बात सामने आई। अध्ययन में पाया गया कि समुद्र की सतह का तापमान लगभग 28 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर गंभीर तूफान आते हैं। जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स’(फरवरी 2019) में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि के कारण हर एक डिग्री सेल्सियस पर 21 प्रतिशत अधिक तूफान आते हैं। जेपीएलके हार्टमुट औमन के मुताबिक गर्म वातावरण में गंभीर तूफान बढ़ जाते हैं। भारी बारिश के साथ तूफान आमतौर पर साल के सबसे गर्म मौसम में ही आते हैं। लेकिन जिस  तरह ठंड के दिनो में समुद्र में ऐसे तूफान के हमले बढ़ रहे हैं, यह दुनिया के लिए गंभीर चेतावनी है।

जरूरत है कि हम  प्रकृति के मूल स्वरुप को नुकसान पहुँचाने वाली गतिविधिओं से परहेज करें , भोजन हो या परिवहन ,  पानी हो या औषधी , जितना नैसर्गिक होगा, धरती उतनी ही दिन अधिक सुकून से  जीवित रह पाएगी . वायुमंडल में  कार्बन की मात्रा कम करना, प्रदूषण स्तर में कमी हमारा लक्ष्य होना चाहिए|

 

Sand mining is killing not only the river but also the human being

नदी ही नहीं इंसान की भी जान ले रहा रेत खनन

                        पंकज चतुर्वेदी



बीते सवा सालों के दौरान  नदियों से रेत निकालने को ले कर हमारे देश में  कम से कम 418 लोग मारे गए और 438 घायल हुए। गैर-सरकारी संस्था साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) द्वारा दिसंबर 2020 से मार्च 2022 तक, 16 महीने में रेत खनन की वजह से होने वाली दुर्घटनाओं और हिंसा के मामलों का मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर किए गए अध्ययन के मुताबिक इनमें 49 मौत खनन के लिए नदियों में खोदे गए कुंड में डूबने से हुई हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि खनन के दौरान खदान ढहने और अन्य दुर्घटनाओं में कुल 95 मौत और 21 लोग घायल हुए। खनन से जुड़े सड़क हादसों में 294 लोगों की जान गई और 221 घायल हुए हैं। खनन से जुड़ी हिंसा में 12 लोगों को जान गंवानी पड़ी और 53 घायल हुए हैं। अवैध खनन के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कार्यकर्ताओं-पत्रकारों पर हमले में घायल होने वालों का आंकड़ा 10 है। जबकि सरकारी अधिकारियों पर खनन माफिया के हमले में दो मौत और 126 अधिकारी घायल हुए हैं। खनन से जुड़े आपसी झगड़े या गैंगवार में सात मौत और इतने ही घायल हुए हैं।



नदी के एक जीवित संरचना है और रेत उसके ष्वसन तंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा। भीशण गर्मी में सूख गए नदी के आंचल को जिस निर्ममता से उधेड़ा जा रहा है वह इस बार के  विश्व पर्यावरण दिवस के नारे - केवल एक धरतीऔर प्रकृति के साथ सामंजस्य से टिकाऊ जीवन ’’ के बिलकुल विपरीत है।  मानव जीवन के लिए जल से ज्यादा जरूरी जल-धारांए हैं। नदी महज पानी के परिवहन का मार्ग नहीं होती, वह  धरती के तापमान के संतुलन, जल-तंत्र के अन्य अंग जैसे जलीय जीव व पौधों के लिए आसरा होती है।  नदी के तट  मानवीय संस्कृति के विकास के साक्षी व सहयोगी रहे हैं और ये तट नदियों द्वारा बहा कर लाई गई रेत के धोरों के आधार पर ही बसे हैं।



पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने भी चेतावनी जारी कर कहा था कि यदि रेत का खनन नियंत्रित नहीं किया गतोइसका संकट पैदा हो जाएगा। रेत बनने में सैकड़ों साल लगते हैं, लेकिन इससे भी ज्यादा तेजी से इसका भंडार खाली हो रहा है। कहा गया कि अनियंत्रित रेत खनन नदियों और समुद्र तटों को नुकसान पहुंचा रहा है तथा छोटे द्वीपों को खत्म कर रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में कांच, कंक्रीट और अन्य निर्माण सामग्री की खपत पिछले दो दशक में तीन गुना बढ़कर हर साल 50 अरब टन हो गई है। यानी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 17 किलोग्राम रेत खर्च हो रही है। खपत बढ़ने के कारण नदी के किनारों और समुद्र तटों पर रेत खनन बढ़ता जा रहा है। इससे गंभीर पर्यावरण संकट पैदा हो गया है। रेत पर्यावरण का अहम हिस्सा है। यह कई प्रजातियों के लिए आवास के रूप में कार्य करती है। तूफानी लहरों और क्षरण से बचाती है। रिपोर्ट में कहा गया कि रेत का अनियंत्रित इस्तेमाल पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील इलाकों के लिए खतरा पैदा करेगा और जैव विविधता पर दबाव डालेगा। समुद्री तटों के खनन पर प्रतिबंध की जरूरत है।



 समुद्र ही नहीं धरती के अस्तित्व  के लिए छोटी व मध्यम नदियां भी जरूरी हैं और रेत के कारण उन पर संकट अब इतना गंभीर हो गया है कि  सदानीरा कहलाने वाली जल-धाराओं में अब साल में बीस दिन पानी नहीं रहता । उधर रेत के बगैर सरकार के विकास ,जीडीपी, उत्पादन आदि को पंख लग नहीं सकते । विकास के मायने अधिक पक्का निर्माण, ऊंची अट्टालिकाएं और सीमेंट से बनीं चिकनी सड्कें हो चुकी हैं और इन सभी के लिए बालू या रेत चाहिए जोकि  जीवनदायिनी नदियों और उसके किनारे रहने वाली आबादी के लिए मौत का पैगाम साबित हो रहा है।

नदियों का उथला होना और थोड़ी सी बरसात में उफन जाना, तटों के कटाव के कारण बाढ् आना, नदियों में जीव जंतु कम होने के कारण पानी में आक्सीजन की मात्रा कम होने से पानी में बदबू आना; ऐसे ही कई कारण है जो मनमाने रेत उत्खनन से जल निधियों के अस्तित्व पर संकट की तरह मंडरा रहे हैं।यमुना-गंगा जैसी नदियों से रेत निकालने के लिए बड़ी-बड़ी मशीनें नदी में उतारी गई और वहां से निकली रेत को ट्रकों में लादा गया - इसके लिए नदी के मार्ग को बांध कर अस्थाई रास्ते व पुल बना दिए गए। हालात यह हैं कि कई नदियों में ना तो जल प्रवाह बच रहा है और ना ही रेत।



आज यह समझना जरूरी है कि रेत उगाहना अपने आप में ऐसी पर्यावरणीय त्रासदी का जनक है जिसकी क्षति-पूर्ति संभव नहीं है। देश में वैसे तो रेत की कोई कमी नहीं है - विशाल समुद्रीय तट है और कई हजार किलोमीटर में फैला रेगिस्तान भी, लेकिन समुद्रीय रेत लवणीय होती है जबकि रेगिस्तान की बालू बेहद गोल व चिकनी, तभी इनका इस्तेमाल  निर्माण में होता नहीं ।  प्रवाहित नदियों की भीतरी सतह में रेत की मौजूदगी असल में उसके प्रवाह को नियंत्रित करने का अवरेधक, जल को षुद्ध रखने का छन्ना  और  नदी में कीचड़ रोकने की दीवार भी होती है। तटों तक  रेत का विस्तार नदी को सांस लेने का अंग होता है। नदी केवल एक बहता जल का माध्यम नहीं होती, उसका अपना पारिस्थितिकी तंत्र होता है जिसके तहत उसमें पलने वाले जीव, उसके तट के सुक्ष्म वेक्टेरिया सहित कई तत्व षामिल होते हैं और उनके बीच सामंजस्य का कार्य रेत का होता है।  नदियों की कोख अवैध और अवैज्ञानिक तरीके से खोदने के चलते यह पूरा तंत्र अस्त-व्यस्त हो रही है। 



कानून तो कहता है कि ना तो नदी को तीन मीटर से ज्यादा गहरा खोदे और ना ही उसके जल के प्रवाह को अवरूद्ध करो ,लेकिन लालच के लिए कोई भी इनकी परवाह करता नहीं । रेत नदी के पानी को साफ रखने के साथ ही अपने करीबी इलाकों के भूजल को भी सहेजता है।  कई बार एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट  निर्देश दे चुकी है और राज्यों को जुर्माग्ना भी लगा चुकी है। एनजीटी कहती है कि रेत परिवहन करने वाले वाहलों पर जीपीएस अवश्य लगा हो ताकि उन्हें ट्रैक किया जा सके, लेकिन खेती कार्य के लिए स्वीकृत ट्रैक्टरों से रेत ढोई जाती है। स्वीकृत गहराइयों से दुगनी-तिगुनी गहराइयों तक पहुंच कर रेत खनन किया जाता है। जिन चिन्हित क्षेत्रों के लिए रेत खनन पट्टा होता है उनसे बाहर जाकर भी खनन होता है। बीच नदी में पॉकलैंड जेसी मशीने लंगाना आम बात है।



आज जरूरत इस बात की है कि पूरे देश में जिला स्तर पर व्यापक अध्ययन किया जाए कि प्रत्येक छोटी-बड़ी  नदी में सालाना रेत आगम की क्षमता कितनी है और इसमें से कितनी को बगैर किसी नुकसान के उत्खनित किया जा सकता है। फिर उसी के अनुसार निर्माण कार्य की नीति बनाई जाए।  कहने की जरूरत नहीं कि  इंजीनियरों को रेत के विकल्प खोजने पर भी काम करना चाहिए।  उसी के अनुरूप राज्य सरकारें उस जिले में रेत के ठेके दें।

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...