My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 31 जनवरी 2020

When developments goes wild ---

विकास के विस्तारवादी होने से दूषित  हो रहा है पर्यावरण

पंकज चतुर्वेदी

लगभग एक साल से दिल्ली से सटा गाजियाबाद देश के सबसे दूषित  नगरों में अव्वल बना है। दिल्ली तो है ही जल-जमीन और वायू के दूषित  होने का विश्वव्यापी कुख्यात  स्थान। यदि गंभीरता से इस बात का आकलन करें तो स्पष्ट होता है कि जिन शहरों में पलायन व रेाजगार के लिए पलायन कर आने वालों की संख्या बढ़ी व इसके चलते उसका अनियेाजित विकास हुआ, वहां के हवा-पानी में ज्यादा जहर पाया जा रहा है। असल में शहरीकरण के कारण पर्यावरण को हो रहा नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृति पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया।

यह दुखद है कि आज विकास का अर्थ विस्तार हो गया है। विस्तार- शहर के आकार का, सड़क का, भवन का आदि-आदि। लेकिन बारिकी से देखें तो यह विस्तार या विकास प्राकृतिक संरचनाओं जैसे कि धरती, नदी या तालाब, पहाड़ और पेड़, जीव-जंतु आदि के नैसर्गिक स्थान को घटा कर किया जाता है। नदी के पाट को घटा कर बने रिवर फ्रंट हों या तालाब को मिट्टी से भर कर बनाई गई कालोनियां, तात्कालिक रूप से तो सुख देती है। लेकिन प्रकृति के विपरीत जाना इंसान के लिए संभव नहीं है और उसके दुष्परिणाम  कुछ ही दिनों मे ंसामने आ जाते हैं। पीने के जल का संकट, बरसात में जलभराव, आबादी और यातायात बढ़ने से उपजने वाले प्राण वायु का जहरीला होना आदि।
देश के अधिकांश उभरते शहर अब सड़कों के दोनेां ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। ना तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, ना ही सुरक्षा, ना ही बिजली-पानी की न्यूनतम मांग। असल में देश में बढ़े काले धन को जब बैंक या घर मे ंरखना जटिल होने लगा तो जमीन में निवेश के अंधे कुंए का सहरा लिया जाने लगा। इससे खेत की कीमतें बढ़ीं, खेती की लागत भी बढ़ी और किसानी लाभ का काम नहीं रहा गया। पारंपरिक शिल्प और रोजगार की त्यागने वालों का सहारा षहर बने और उससे वहां का अनियोजित व बगैर दूरगामी सोच के विस्तार का आत्मघाती कदम उभरा।

साल दर साल बढता जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और उसके कारण मौसम की अनियमितता,, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल,.. ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील व्यवस्था वाले देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता ‘शहरीकरण’ एक समग्र विषय  के तौर लगभग उपेक्षित है। असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का ; सभी के मूल में विकास की वह अवधरणा है जिससे षहररूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता।
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है । सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीनव फलता-फूलता रहा है । बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई । और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर । बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और, उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचाैंंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गयी है । जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे । यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है । इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गयी है । पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैंकड़ा हो गये हैंं । विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है ।

विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले षहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद मे ंयोगदान 70 प्रतिशत होगा। एक बात और बेहद चौकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या षहरों में रहने वाले गरीबों के बबराबर ही है । यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में ‘अरबन स्लम’ या षहरी मलिन बस्तियों में तब्दील ना हो जाए।
षहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए, इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। निर्माण कार्य के लिए नदियों के प्रवाह में व्यवधान डाल कर रेत निकाली जाती है तो चूने के पहाड़ खोद कर सीमेंट बनाने की सामग्री। इसके कारण प्रकृति को हो रहे नुकसान की भरपाई संभव ही नहीं है। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्त्रोत, सभी कुछ नश्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है। षहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूशित वायु। षहर को ज्यादा बिजली चाहिए, यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे।
षहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना का परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए , दैनिक कार्यों के लिए , नाकि उसमें गंदगी बहाने के लिए। गांवों के कस्बे, कस्बों के षहर और षहरों के महानगर में बदलने की होड़, एक ऐसी मृग मरिचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत  कुछ देर से खुलती है। दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख का केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है।
षहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का  आसान जरिया होते हैं, यहां दूशित पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है।  देश के सभी बड़े षहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका षमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। एक बार फिर षहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है।
केवल पर्यावरण प्रदूशण ही नहीं, षहर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूशण की भी ंगंभीर समस्या उपजा रहे हैं। लोग अपनों से मानवीय संवेदनाओं से , अपनी लोक परंपराओं व मान्यताओं से कट रहे हैं। इसकी जगह उनका झुकाव आधुनिक किस्म के बाबा-फकीरों, देवताओं और पंथों में बढ़ रहा है, जो अलग किस्म के अंधविश्वास और रूढ़ियों का कारक है।
तो क्या लोग गांव में ही रहें ? क्या विकास की उम्मीद ना करें ? ऐसे कई सवाल षहरीकरण में अपनी पूंजी को हर दिन कई गुणा होते देखने वाले कर सकते हैं। असल में हमें अपने विकास की अवधारणा को ही बदलना होगा- पक्की सड़क, अंग्रेजी दवाई स्थानीय भाशा को छो़ कर अं्रग्रेजी का प्रयोग, भोजन व कपड़े का पाश्चात्यीकरण असल में विकास नहीं है। यदि कोई चमड़े का काम करने वाला है, वह अपने काम को वैज्ञानिक तरीके से करना सीखता है, आपे श्रम की वास्तविक कीमत वसूलने के प्रति जागरूक होता है, अपने समान सामाजिक अधिकार के प्रति सचेत हो जाता है तो जरूरी नहीें है कि वह गावं में अपने हाथ के काम को छेाड़ कर षहर मे ंचपरासी या दैनिक मजदूर की नौकरी कर संकरी गलियों की गंदी झुगियों में रहे।  इंसान की क्षमता, जरूरत और योग्यता के अनुरूप उसे अपने मूल स्थान पर अपने सामाजिक सरोकारों के साथ जीवचनयापन का  हक मिले, यदि विकास के प्रतिमान ऐसे होंगे तो षहर की ओर लोगों का पलायन रूकेगा। इससे हमारी धरती को कुछ राहत मिलेगी।



पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376, 0120-4241060


River front is killing Gomti In Lucknow

कभी गोमती लखनऊ के बाशिंदों के जीवन-जगत का मुख्य आधार हुआ करती थी। सूर्य की अस्ताचलगामी किरणों इस नदी की जलनिधि से परावर्तित होकर पूरे शहर को सुनहरे लाल रंग से सराबोर कर देती थीं। लखनऊ में गोमती के बहाव की दिशा पूर्व-पश्चिम है सो डूबते सूरज की किरणों का सीधा परावर्तन होता है। लेकिन रिवर फ्रंट के नाम पर जैसे ही नदी को बांधा, गोमती गंदा नाला बन कर रह गई है। नदी में पानी कम और काई अधिक दिखाई देती है। सूरज की रोशनी वही है, उसके अस्त होने की दिशा भी वही है, लेकिन शाम-ए-अवध का सुनहरा सुरूर नदारद है ।
पीलीभीत से 32 किमी दूर पूर्व दिशा में ग्राम बैजनाथ की फुल्हर झील गोमती का उद्गम स्थल है। करीब 20 किमी तक इसकी चौड़ाई किसी छोटे से नाले सरीखी संकरी है, जहां गरमियों में अक्सर पानी नाममात्र होता है। फिर इसमें गैहाई नाम की छोटी सी नदी मिलती है और एक छिछला जल-मार्ग बन जाता है। उद्गम से 56 किमी का सफर तय करने के बाद जब इसमें जोकनई नदी मिलती है तब इसका पूरा रूप निखर आता है। शाहजहांपुर और खीरी होकर यह आगे बढ़ती है। मुहमदी से आगे इसका स्वरूप बदल जाता है और इसका पाट 30 से 60 मीटर चौड़ा हो जाता है। जब यह नदी लखनऊ पहुंचती है तो इसके तट 20 मीटर तक ऊंचे हो जाते हैं। फिर यह बाराबंकी, सुल्तानपुर और जौनपुर जिलों से गुजरती हुई जौनपुर के करीब सई नदी में मिल जाती है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार गोमती नदी लखनऊ आने तक काफी हद तक निर्मल रहती है। लेकिन लखनऊ के बाद इसमें ‘डी’ व ‘ई’ स्तर का प्रदूषण रहता है। बोर्ड के मानदंडों के मुताबिक ‘डी’ स्तर का पानी केवल वन्य जीवों और मछली पालन योग्य होता है, जबकि ‘ई’ स्तर के पानी को मात्र सिंचाई, औद्योगिक शीतकरण व नियंत्रित कचरा डालने लायक माना जाता है। वैसे गोमती नदी में प्रदूषण की शुरुआत लखनऊ से 50 किमी पहले सीतापुर जिले के भट्टपुर घाट से हो जाती है। यहां गोमती की एक प्रमुख सहायक नदी सरिया इसमें आकर मिलती है। सरिया के पानी में सीतापुर जिले में स्थित शक्कर और शराब के कारखानों का प्रदूषित स्त्रव होता है। जैसे-तैसे गोमती लखनऊ तक शुद्ध हो पाती है, लेकिन इस राजधानी शहर में पहुंचते ही यह नाले के स्वरूप में आ जाती है। करीब 28 लाख आबादी वाले इस शहर का लगभग 1,800 टन घरेलू कचरा और 33 करोड़ लीटर गंदा पानी हर रोज गोमती में घुलता है। लखनऊ में बीकेटी से इंदिरा नहर तक कुल 28 नाले नदी में गिरते हैं।
लगभग 1,500 करोड़ रुपये खर्च करके महानगर के साढ़े आठ किलोमीटर में गोमती को संवारने की योजना ने गोमती को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया। गोमती किसी ग्लेशियर से निकलने वाली नदी नहीं है, इसका उद्गम व संवर्धन भूजल से ही होता है। रिवर फ्रंट के नाम पर गोमती की धारा को संकरा कर दिया गया। इसके दोनों तरफ कंक्रीट की दीवार बना दी गई। जाहिर है कि इस दीवार को टिकाकर रखने के लिए गहराई में भी दीवार उतारी गई होगी। हर नदी के तट की मिट्टी, उसकी नमी, उसके लिए ऑक्सीजन उपजाती है, उसके पानी को शुद्ध करती है। गोमती को घेर कर खड़ी दीवारों ने नदी के जीवन को ही समाप्त कर दिया। शहर के भीतर स्थित कई कारखाने बगैर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए अपशिष्ट निकास गोमती में कर रहे हैं।
साबरमती : इसी प्रकार गुजरात के अहमदाबाद में साबरमती नदी के दोनों किनारों पर कंक्रीट की दीवार खड़ी करके जिस तरह से रिवर फ्रंट बनाया गया है उससे नदी का प्राकृतिक स्वरूप बिगड़ रहा है। हमें नदियों के प्राकृतिक स्वरूप को बचाए रखना होगा ताकि उसके अस्तित्व को कायम रखा जा सके।

बुधवार, 22 जनवरी 2020

water scarcity in rural India



कुप्रबंधन की भेंट चढ़ती भूजल योजनाएं

पंकज चतुर्वेदी

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर शुरू ‘अटल भूजल योजना’ में छह हजार करोड़ से छह राज्यों के हर गांव-घर तक पानी पहुंचाने की चुनौती बेहद जटिल है। यह समझना होगा कि भूजल प्यास बुझाने का जरिया नहीं हो सकता। आज 16 करोड़ से अधिक भारतीयों के लिए सुरक्षित पीने के पानी की आस अभी बहुत दूर है। आज भी देश की कोई 17 लाख ग्रामीण बसावटों में से लगभग 78 फीसदी में पानी की न्यूनतम आवश्यक मात्रा तक पहुंच है।
यह भी विडंबना है कि अब तक परियोजना पर 89,956 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होने के बावजूद, सरकार परियोजना के लाभों को प्राप्त करने में विफल रही है। आज महज 45,053 गांवों को नल-जल और हैंडपंपों की सुविधा मिली है, लेकिन लगभग 19,000 गांव ऐसे भी हैं जहां साफ पीने के पानी का कोई नियमित साधन नहीं है। हजारों बस्तियां ऐसी हैं जहां लोग कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर पानी लाते हैं। यह आंकड़े भारत सरकार के पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के हैं।

अगस्त, 2018 में सरकार की ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकारी योजनाएं प्रतिदिन प्रति व्यक्ति सुरक्षित पेयजल की दो बाल्टी प्रदान करने में विफल रही हैं। भारत सरकार ने प्रत्येक ग्रामीण व्यक्ति को पीने, खाना पकाने और अन्य बुनियादी घरेलू जरूरतों के लिए स्थायी आधार पर गुणवत्ता मानक के साथ पानी की न्यूनतम मात्रा उपलब्ध करवाने के इरादे से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम सन‍् 2009 में शुरू किया था। इसमें हर घर को परिशोधित जल घर पर ही या सार्वजनिक स्थानों पर नल द्वारा मुहैया करवाने की योजना थी। इसमें सन‍् 2022 तक देश में शत प्रतिशत शुद्ध पेयजल आपूर्ति का संकल्प था। भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट बानगी है कि कई हजार करोड़ खर्च करने के बाद भी यह परियोजना सफेद हाथी साबित हुई हैं।
हर जगह यह बात सामने आई है कि स्थानीय समाज से सलाह लिए बगैर, स्थानीय पारंपरिक स्रोतों में जल की उपलब्धता पर विचार किए बगैर योजनाएं बनाई गई और जब वे पूरी हुईं तो उनका इस्तेमाल ही नहीं हो सका। उदाहरण के लिए पारंपरिक कुओं को असुरक्षित पेयजल स्रोत घोषित कर दिया गया जबकि महज मामूली साधन व्यय कर इन कुओं को सुरक्षित बनाया जा सकता था। सारी योजना ऊंची टंकी खड़ी करने और पाइप डालने तक सीमित रह गई। यह सोचा ही नहीं गया कि गांव में जब बिजली की आपूर्ति ही नियमित नहीं है तो पानी टंकी में पहुंचेगा कैसे और वितरित कैसे होगा।

ग्रामीण भारत में पेयजल मुहैया करवाने के लिए 10वीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) तक 1,105 अरब रुपये खर्च किये जा चुके थे। इसकी शुरुआत 1949 में हुई जब 40 वर्षों के भीतर 90 प्रतिशत जनसंख्या को साफ पीने का पानी उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया। इसके ठीक दो दशक बाद 1969 में यूनिसेफ की तकनीकी मदद से करीब 255 करोड़ रुपये खर्च कर 12 लाख बोरवेल खोदे गए और पाइप से पानी आपूर्ति की 17,000 योजनाएं शुरू की गईं। उसके बाद 2009 से दूसरी योजना प्रारंभ हो गई। हजारों करोड़ रुपये और दसियों योजनाओं के बावजूद आज भी कोई करीब 3.77 करोड़ लोग हर साल दूषित पानी के इस्तेमाल से बीमार पड़ते हैं। लगभग 15 लाख बच्चे दस्त से अकाल मौत मरते हैं। अंदाजा है कि पीने के पानी के कारण बीमार होने वालों से 7.3 करोड़ कार्य-दिवस बर्बाद होते हैं। इन सबसे भारतीय अर्थव्यवस्था को हर साल करीब 39 अरब रुपये का नुकसान होता है।

गौरतलब है कि ग्रामीण भारत की 85 फीसदी आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है। एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है, दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है जो यदि दूषित हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। दिल्ली से सटे मेरठ मंडल के कई हजार हैंडपंपों में हिंडन नदी के जहर का असर हो जाने के कारण उखाड़ फेंकने के आदेश एनजीटी ने कोई तीन साल पहले दिए थे। चूंकि प्रशासन वहां पानी की केाई वैकल्पिक व्यवस्था कर नहीं पाया सो स्थानीय समाज जहर के वाकिफ होते हुए भी इन हैंडपंपों को उखाड़ने नहीं दे रहा।

यदि देश की जल कुंडली देखें तो नदी, तालाब, जोहड़, बावड़ी और कई अन्य पारंपरिक जल स्रोत पर्याप्त संख्या में हैं और ये बरसात की हर बूंद को सहेज कर हमारी आनी वाली 2050 तक की जल-मांग को पूरा करने में सक्षम हैं। आज जरूरत इस बात की है कि सुरक्षित जल मुहैया करवाने की योजनाओं का पैसा टंकी बनाने के बनिस्बत जल संसाधनों को निरापद बनाने, उनके जल ग्रहण क्षेत्र व आगम क्षेत्रों को अविरल रखने, जैसे कार्य पर व्यय करे। इससे भूजल तंदुरुस्त होगा।कुप्रबंधन की भेंट चढ़ती भूजल योजनाएं

गुरुवार, 2 जनवरी 2020

Hindon river now effecting health of Delhi

अब दिल्ली को बीमारी बांट रहा है ंिहंडन का जहरीला जल
पंकज चतुर्वेदी

राजधानी दिल्ली से सटे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कभी जीवन-रेखा रहीं हिंडन व उनकी सखा-सहेली कृश्णा और काली नदियों के हालात अब इतने खराब हो गए है कि उनका जहर अब दिल्ली के लोगों की सेहत भी खराब हो रही है। सहारनपुर, बागपत, मेरठ, षामली, मुजफ्फरनगर और गाजियाबाद के ग्रामीण अंचलों में नदियों ने भूजल को भी गहरे तक विशेैला कर दिया है। तीन साल पहले अक्तूबर 2016 में ही एनजीटी ने नदी के किनारे के हजारों हैंडपंप बंद कर गांवों में पानी की वैकल्पिक व्यवस्था का आदेश दिया था। कुछ हैंडपंप तो बंद भी हुए लेकिन विकल्प ना मिलने से मजबूर ग्रामीण वही जहर पी रहे हैं। एनजीटी ने यह भी यह मान ही लिया है कि पानी को प्रदूशण से बचाने के लिए धरातल पर कुछ काम हुआ ही नहीं।
हिंडन नदी भले ही उत्तर प्रदेश में बहती हो और उसके विषमय जल ने गांव-गांव में तबाही मचा रखी हो, लेकिन अब दिल्ली भी इसके प्रकोप से अछूती नहीं है। जानना जरूरी है कि हिंडन के पानी से सिंची गई फसल, फल-सब्जी, आदि दिल्ली की जरूरतों को पूरा करती है। हिंडन के हालात इतने खराब हैं कि एक तरफ एनजीटी राज्य सरकार को ख्ीिंचती रहती है तो दूसरी तरफ राज्य सरकार बैठकें व योजनाओं की बात करती है लेकिन जमीन पर हालात सुधरने की जगह बदतर ही हो रहे हैं। अगस्त 2018 में एनजीटी के सामने बागपत जिले के गांगनोली गांव के बारे में एक अध्ययन प्रस्तुत किया गया जिसमें बताया गया कि गांव में अभी तक 71 लोग कैंसर के कारण मर चुके हैं और 47 अन्य अभी भी इसकी चपेट में हैं। गांव में हजार से अधिक लोग पेट के गंभीर रोगों से ग्रस्त हैं और इसका मुख्य कारण हिंडन  व कृश्णा का जहर ही है। इस पर एनजीटी ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जिसकी रिपोर्ट  फरवरी 2019 पेश की गई। इस रिपोर्ट में बताया गया कि हिंडन व उसकी सहायक नदियों के प्रदूषण के लिए मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद और गौतमबुद्ध नगर जिलों में अनुपचारित सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट जिम्मेदार हैं। एनजीटी ने तब आदेश दिया कि यह सुनिश्चित किया जाए कि हिंडन का जल कम से कम नहाने काबिल तो हो। मार्च 2019 में कहा गया कि इसके लिए एक ठोस कार्ययोजना छह महीने में पेश की जाए। समय सीमा निकल गई लेकिन बात कागजी घोड़ो ंसे आगे बढ़ी ही नहीं।
गौर करने वाली बात है कि हिंडन का जहर अब दिल्ली के लिए भी काल बन रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश  चूंकि गंगा-यमुना के दोआब की उपजाउ भूमि वाला है  और यहां के किसान दिल्ली की सुरसामुख आबादी की जरूरतों के लिहाज से ही अपने खेतों में फल-सब्जी, अनाज उगाते हैं। सिंचाई भी हिंडन के जहरीले पानी से ही हो रही है और इसका जानलेवा असर इन खाद्य पदाथों के जरिये दिल्ली वालों को भी बीमारी बांट रहा है। अब यहां खेती नदी के जल से हीे रही हो या फिर भूजल से, भले ही कोई दावा करे कि उनकी खेती पूरी तरह रसायन-मुक्त या आर्गेंनिक है, हर तरह के पानी में इतना जहर घुला हुआ है कि उससे उपजे उत्पाद में उसका असर गहराई तक हो रहा है।
ऐसी कई रिपोर्ट सरकारी बस्तों में जज्ब है जिसमें कहा गया है कि अगर हिंडन नदी के पानी को पानी नहीं बल्कि जहरीले रसायनों का मिश्रण कहना बेहतर होगा। पानी में आक्सीजन षून्य है। पानी में किसी भी तरह का कोई जीव-जंतु बचा नहीं है। यदि पानी में अपना हाथ डुबो दें तो इससे त्वचा रोग हो सकता है और यदि आप इसे पीते हैं तो हेपेटाइटिस या कैंसर जैसी कई समस्याएं हो सकती हैं। हिंडन को सीवर से रिवर बनाने के लिए भले ही एनजीटी खूब आदेश दे लेकिन नीति-निर्मातओं को हिंडन की मूल समस्याओं को समझना होगा। एक तो इसके नैसर्गिक मार्ग को बदलना,दूसरा इसमें षहरी व औद्योगिक नालों का मिलना, तीसरा इसके जलग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण- इन तीनों पर एकसाथ काम किए बगैर नदी का बचना मुश्किल है।
दिक्कत यह भी है कि कतिपय कारखानों का बचाव कर रही सरकार मानने को तैयार नहीं है कि हिंडन का पानी जहर से बदतर है।  कुछ साल पहले  देश की नदियों में प्रदूषण की जांच में जुटे केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने उत्तर प्रदेश की हिंडन नदी के पानी को नहाने लायक भी नहीं पाया है। बोर्ड ने यह जानकारी राष्ट्रीय हरित पंचाट (एनजीटी) के तत्कालीन प्रमुख स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ को सौंपे हलफनामे में दी थी। सीपीसीबी ने प्रदेश के सहारनपुर, मेरठ और गाजियाबाद में नदी के पानी की जांच की। हलफनामे में बताया कि नदी का पानी पर्यावरण अधिनियम, 1986 के तहत तय नहाने के पानी के मानकों के अनुरूप नहीं है। इसके समाधान के लिए बोर्ड ने ठोस अवशिष्ट को नदी किनारे और नदी में न फेंकने की हिदायत दी है। इसके अलावा बोर्ड ने कहा है कि अशोधित कचरा नदी में न फेंका जाए बल्कि नगर पालिका अवशिष्ट प्रबंधन अधिनियम, 2000 के तहत इसकी सही व्यवस्था की जाए। इसके विपरीत उत्तर प्रदेश सरकार ने हिंडन नदी के पानी को जहरीला बताए जाने के केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण समिति के दावे को झुठला दिया है। उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण समिति ने कहा है कि नदी के पानी में कोई जहरीला पदार्थ नहीं है। जबकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण समिति ने ट्रिब्यूनल में स्वीकार किया था कि सहारनपुर से लेकर गौतमबुद्ध नगर तक हिंडन नदी का पानी है दूषित हो गया है।
हिंडन नदी जहां भी षहरी क्षेत्रों से गुजर रही है, इसके जल-ग्रहण क्षेत्र में बहुमंजिला आवास बना दिए गए और इन कालोनियों के अपशिश्ट भी इसी में जाने लगे हैं। नए पुल, मेट्रो आदि के निर्माण में हिंडन को सुखा कर वहां कंक्रीट उगाने में हर कानून को निर्ममता से कुचला जाता रहा । आज भी गाजियाबाद जिले में हिंडन के तट पर कूड़ा फैंकने, मलवा या गंदा पानी डालने से किसी को ना तो भय है ना ही संकोच। अब नदी केजहर का दायरा विस्तारित होता जा रहा है और उसकी जद में वे सभी भी आएंगे जो नदी को जहर बनाने के पाप में लिप्त हैं।



Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...