My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

uncontrolled internet is also responsible for minor rape

बच्चियों पर बढ़ती यौन हिंसा का दोषी निरंकुश इंटरनेट भी 

पंकज चतुर्वेदी


देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी चिंतित हैं नेट पर परोसे जा रहे नंगे बाजार से। हर तारीख पर सरकार का रवैया इस बात पर ढुल-मुल रहता है कि नंगी सामग्री परोसने वाली वेबसाईट पर पाबंदी के लिए क्या किया जाए। सनद रहे चीन सहित कई देशों में पोर्न को इंटरनेट पर देखा नहीं जा सकता, क्योंकि उनका अपना सर्च इंजन है। चूंकि यह विश्वव्यापी है और जाहिर है कि इस पर काबू पाना इतना सरल नहीं होगा, लेकिन असंभव नहीं है। । असल में हमारी मंशा ही नहीं है कि सस्ते इंटरनेट व कम कीमत के स्मार्ट फोन के घर-घर पहुंचने के बाद इसके दुरूपयोग को रोकें। बानगी है कि वे अखबार जो पहले पन्ने पर बच्चियों से बलात्कार के विरोध में क्रांति की अपील करते हैं लेकिन उनके भीतर के पन्नों पर यौन शक्ति बए़ाने से ले कर एस्कार्ट, नाईट सर्विस, मसाज होम सर्विस जैसे विज्ञापन छपते हैं और सभी जानते हैं कि इनका असली मकसद क्या होता है। दुर्भाग्य है कि हमारे देश के संवाद और संचार के सभी लोकप्रिय माध्यम देह-विमर्श में लिप्त हैं, सब कुछ खुला-खेल फर्रूकाबादी हो रहा है।  अखबार, मोबाईल फोन, विज्ञापन; सभी जगह तो नारी-देह बिक रही है।
अश्लीलता,या कंुठा और निर्लज्जता का यह खुला खेल आज संचार के ऐसेे माध्यम पर चल रहा है, जो कि हमारे देश का सबसे तेजी से बढ़ता उद्योग है । जो संचार माध्यम असल में लोगों को जागरूक बनाने या फिर संवाद का अवसर देने के लिए हैं, वे अब धीरे-धीरे देह-मंडी बनते जा रहे हैं । व्हाट्सएप जैसे कई संवाद- शस्त्र यैन जुजुग्सा को हर हाथ में बैखौफ पहुंचा रहे हैं। क्या इंटरनेट ,क्या फोन,  और क्या अखबार ? टीवी चैनल तो यौन कंुठाआंे का अड्डा बन चुके हैं ।

आज आम परिवार में महसूस किया जाने लगा है कि ‘‘ नान वेज ’’ कहलाने वाले मल्टीमीडिया लतीफे अब उम्र-रिश्तों की दीवारें तोड़ कर घर के भीतर तक घुस रहे हैं । यह भी स्पश्ट हो रहा है कि संचार की इस नई तकनीक ने महिला के समाज में सम्मान को घुन लगा दी है । टेलीफोन जैसे माध्यम का इतना विकृत उपयोग भारत जैसे विकासशील देश की समृद्ध संस्कृति,सभ्यता और समाज के लिए षर्मनाक है । इससे एक कदम आगे एमएमएस का कारोबार है । आज मोबाईल फोनों में कई-कई घंटे की रिकार्डिग की सुविधा उपलब्ध है । इन फाईलों को एमएमएस के माध्यम से देशभर में भेजने पर न तो कोई रोक है और न ही किसी का डर । तभी डीपीएस, अक्षरधाम, मल्लिका, मिस जम्मू कुछ ऐसे एमएमएस है, जोकि देश के हर कोने तक पहुंच चुके हैं । अपने मित्रों के अंतरंग क्षणों को धोखे से मोबाईल कैमरे में कैद कर उसका एमएमएस हर जान-अंजान व्यक्ति तक पहुंचाना अब आम बात हो गई है । खासतौर पर 12 से 14 साल के किशोर जब इस तरह के वीडियो देखते हैं, जब आर्थिक-सामाजिक तौर पर पिछड़े ऐसे वीडियों को देखते हैं तो उनका विपरीत देह के प्रति कुत्सित आकर्षण बढ़ता है और कई बार उनकी कुंठा अपराध में बदल जाती है। बच्चे मोबाईल पर अश्लील दुनिया में खो कर खेल के मैदान, दोस्ती, परिवार तक से परे हो रहे हैं व उनकी राह अनैतिकता की ओर मुड़ जाती है।

आज मोबाईल हैंड सेट में इंटरनेट कनेक्शन आम बात हो गई है । और इसी राह पर इंटरनेट की दुनिया भी अधोपतन की ओर है। नेट के सर्च इंजन पर न्यूड या पेार्न टाईप कर इंटर करें कि हजारों-हजार नंगी औरतों के चित्र सामने होंगे । अलग-अलग रंगों, देश, नस्ल,उम्र व षारीरिक आकार के कैटेलाग में विभाजित ये वेबसाईटें गली-मुहल्लों में धड़ल्ले से बिक रहे इंटरनेट कनेक्शन वाले मोबाईल फोन खूब खरीददार जुटा रहे हैं । साईबर पर मरती संवेदनाओं की पराकाश्ठा ही है कि राजधानी दिल्ली के एक प्रतिश्ठित स्कूल के बच्चे ने अपनी सहपाठी छात्रा का चित्र, टेलीफोन नंबर और अश्लील चित्र एक वेबसाईट पर डाल दिए । लड़की जब गंदे टेलीफोनों से परेशान हो गई तो मामला पुलिस तक गया । ठीक इसी तरह नोएडा के एक पब्लिक स्कूल के बच्चों ने अपनी वाईस पिं्रसिपल को भी नहीं बख्शा। हर छोटे-बड़े कस्बों अब युवाओं के प्रेम प्रसंग के दौरान अंतरंग क्षण या जबरिया यौन हिंसा के मोबाईल से वीडियो बना कर उसे सार्वजनिक करने या ऐसा करने की धमकी दे कर अधिक यौन शोषण करने की खबरें आ रही हैं। फेसबकु जैसे नियंत्रित करने वाले तंत्र पर हजारों हजार नंगे पेज उपलब्ध हैं जिनमें भाभी, चाची आंटी जसे रिश्तों के भी रिश्तों को बदनाम किया जाा है।
अब तो वेबसाईट पर भांति-भांति के तरीकों से संभोग करने की कामुक साईट भी खुलेआम है । गंदे चुटकुलों का तो वहां अलग ही खजाना है । चैटिंग के जरिए दोस्ती बनाने और फिर फरेब, यौन षोशण के किस्से तो आए रोज अखबारों में पढ़े जा सकते हैं । षैक्षिक,वैज्ञानिक,समसामयिक या दैनिक जीवन में उपयोगी सूचनाएं कंप्यूटर की स्क्रीन पर पलक झपकते मुहैया करवाने वाली इस संचार प्रणाली का भस्मासुरी इस्तेमाल बढ़ने में सरकार की लापरवाही उतनी ही देाशी है, जितनी कि समाज की कोताही । चैटिंग सेे मित्र बनाने और फिर आगे चल कर बात बिगड़ने के किस्से अब आम हो गए हैं । इंटरनेट ने तो संचार व संवाद का सस्ता व सहज रास्ता खोला था । ज्ञान विज्ञान, देश-दुनिया की हर सूचना इसके जरिए पलक झपकते ही प्राप्त की जा सकती है । लेकिन आज इसका उपयोग करने वालों की बड़ी संख्या के लिए यह महज यौन संतुश्टि का माध्यम मात्र है ।
दिल्ली सहित महानगरों से छपने वाले सभी अखबारों में एस्कार्ट, मसाज, दोस्ती करें जैसे विज्ञापनों की भरमार है। ये विज्ञापन बाकायदा विदेशी बालाओं की सेवा देने का आफर देते हैं। कई-कई टीवी चैनल स्टींग आपरेशन कर इन सेवाओं की आड़ में देह व्यापार का खुलासा करते रहे है।। हालांकि यह भी कहा जाता रहा है कि अखबारी विज्ञापनों की दबी-छिपी भाशा को तेजी से उभर रहे मध्यम वर्ग को सरलता से समझााने के लिए ऐसे स्टींग आपरेशन प्रायोजित किए जाते रहे हैं। ना तो अखबार अपना सामाजिक कर्तवय समझ रहे हैं और ना ही सरकारी महकमे अपनी जिम्मेदारी। दिल्ली से 200-300 किलोमीटर दायरे के युवा तो अब बाकायदा मौजमस्ती करने दिल्ली में आते हैं और मसाज व एस्कार्ट सर्विस से तृप्त होते हैं।
मजाक,हंसी और मौज मस्ती के लिए स्त्री देह की अनिवार्यता का यह संदेश आधुनिक संचार माध्यमों की सबसे बड़ी त्रासदी बन गया हैं । यह समाज को दूरगामी विपरित असर देने वाले प्रयोग हैं । जिस देश में स्त्री को षक्ति के रूप में पूजा जाता हो,वहां का सूचना तंत्र सरेआम उसके कपड़े उघाड़ने पर तुला है । वहीं संस्कृति संरक्षण का असली हकदार मानने वाले राजनैतिक दलों की सरकार उस पर मौन बैठी रहे । महिलाओं को संसद में आरक्षण दिलवाने के लिए मोर्चा निकाल रहे संगठन महिलाओं के इस तरह के सार्वजनिक चरित्र हनन पर चुप्पी साधे हैं । कहीं किसी को तो पहल करनी ही होगी , सो मुख्य न्यायाधीश पहल कर चुके हैं। अब आगे का काम नीति-निर्माताओं का है।

पंकज चतुर्वेदी
3/186 राजेन्द्र नगर सेक्टर 2
साहिबाबाद, गाजियाबाद 201005

Madhy Pradesh water crisis : lack of management

कमी प्रबंधन की

जल संकट
पंकज चतुर्वेदी 

राष्ट्रीय सहारा २८ अप्रेल १८ 
मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड के प्रमुख जिला मुख्यालय छतरपुर में प्रशासन ने स्पष्ट कर दिया है कि उनके पास केवल अप्रैल महीने के लायक ही पानी बचा है। शहर की कोई तीन लाख आबादी के कंठ तर करने वाले खोप ताल और बूढ़ा बांध में तलहटी दिखने लगी है। वहां बामुश्किल 25 अप्रैल तक पानी खींचा जा सकेगा। दीगर नलकूप और मुहल्ले-मजरों में लगे हैंडपंप पहले ही साथ छोड़ चुके हैं। मध्य प्रदेश के लगभग सभी जिलों के हालात यही है। मध्य प्रदेश की जल-कुंडली कागजों पर बांचें तो साफ लगेगा कि पानी का संकट मानवजन्य ज्यादा है। अनमोल जल संसाधनों को कहीं शहरीकरण निगल गया तो कहीं रेत के अवैध खनन ने सुखा दिया। सरकार अपनी मजबूरी का ठीकरा भूजल पर फोड़ रही है, जबकि असलियत में तो यह राज्य के ताल-तलैया, नदी-सरिताएं, कुंए-बावड़ी को बिसराने का प्रतिफल है। सूखे कंठ अपने मजरे-टोले में रहना लोगों के लिए संभव नहीं है। टीकमगढ़ जैसे जिलों की 35 फीसदी आबादी पलायन कर चुकी है। 1986 में तैयार की गई राष्ट्रीय जल नीति में क्रमश: पेय, कृषि, बिजली, जल परिवहन, उद्योग; इस क्रम में पानी की प्राथमिकता तय की गई थी। दावा किया गया था कि 1991 तक देश की सारी आबादी को शुद्ध पेयजल मिल जाएगा। लेकिन देश के दिल पर बसे मध्य प्रदेश में यह जलनीति रद्दी के टुकड़े से अधिक नहीं रही। कभी ‘‘सरोवर हमारी धरोहर’ तो कभी ‘‘जलाभिषेक’ के लुभावने नारों के साथ सरकारी धन पर पानी और जनता की आंखों में धूाल झोंकने में कोई भी सरकार पीछे नहीं रही। कहीं से पानी की चिल्ला-चोट अधिक होती तो गाड़ियां भेज कर नलकूप खुदवा दिए जाते। जनता को समझने में बहुत समय लग गया कि धरती के गर्भ में भी पानी का टोटा है, और नलकूप गागर में पानी के लिए नहीं, जेब में सिक्कों के लिए रोपे जा रहे हैं। प्रदेश में हर पांच साल में दो बार अल्प वष्ा होना कोई नई बात नहीं है। पहले लोग पानी की एक-एक बूंद सहेज कर रखते थे, आज बारिश की बूदों को नारों के अलावा कहीं समेटा नहीं जाता है। राज्य का लोक स्वास्य यांत्रिकी विभाग इस बात से सहमत है कि प्रदेश का साठ फीसदी हिस्सा भूगर्भ जल के दोहन के लिए अप्रयुक्त है। मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड की ताजा रिपोर्ट बताती है कि राज्य की कई नदियों का पानी हाथ धाने लायक भी नहीं बचा है। भोपाल के करीब मंडीदीप औद्योगिक क्षेत्र में बेतवा नदी में टोटल कालीफार्म और फीकल कालीफार्म इस स्तर पर बढ़ गए हैं कि यह जल मवेशियों को पिलाना भी जानलेवा है। शिप्रा और खान नदी में सीधे नालों का पानी मिल रहा है। चंबल का पानी नागदा में जहरीला है तो जानापाव गांव के करीब नदी पूरी तरह सूखी मिली। पानी की कमी के कारण सबसे विषम हालात झेल रहे टीकमगढ़ जिले में साठ के दशक तक 1200 से अधिक चंदेलकालीन तालाब हुआ करते थे। कभी प्रदेश के सबसे अधिक गेंहूं पैदा करने वाले जिले में साल दर साल तालाब से सिंचाई का रकवा घटना शुरू हुआ तो नलकूप के नशे में मस्त समाज ने इस पर गौर नहीं किया। तालाब फोड़ कर पहले खेत और फिर कालोनियां बन गई। दतिया, पन्ना, छतरपुर में भी ऐसी ही कहानियां दुहराई गई। मध्य प्रदेश नर्मदा क्षिप्रा, बेतवा, सोन, केन जैसी नदियों का उद्गम है। अनुमानत: प्रदेश के नदियों के संजाल में 1430 लाख एकड़ पानी प्रवाहित होता है। इसका नियोजित इस्तेमाल हो तो 2.30 लाख एकड़ खेत आसानी से सींचे जा सकते हैं। पर संकट यह है कि नदियां औद्योगिक और निस्तार प्रदूषण के कारण सीवर में बदल चुकी हैं। जंगलों की अंधाधुंध कटाई से जहां बारिश कम हुई तो मिट्टी के नदियों में सीधे गिरने से वे उथले होने भी शुरू हो गए। राज्य के चप्पे-चप्पे पर कुओं और बावड़ियों का जाल है, लेकिन ये सभी आधुनिकता की आंधी में उजड़ गए। पारंपरिक जल संसाधनों के प्रति बेरूखी का ही परिणाम है कि राज्य में पानी के लिए खून बह रहा है। वैसे तो प्रदेश में ‘‘सरेावर हमारी धरोहर’ और ‘‘जलाभिषेक’ जैसी लुभावनी योजनाओं के खूब विज्ञापन छपे हैं, कागजों पर करोड़ों का खर्च भी दर्ज है, लेकिन बढ़ती गरमी ने इनकी पोल खोल दी है। बस पुराने तालाबों, बावड़ियों को सहेजें, नदियों को गंदा होने से बचाएं, हरियाली की दीर्घकालीन योजना बनाएं; किसी बड़े खर्च की जरूरत नहीं है-प्रदेश को फिर से सदानीरा बनाया जा सकता है। जरूरत है तो व्यावहारिक प्रबंधन की।

शनिवार, 21 अप्रैल 2018

water crisis due to forgetting traditional water resources

लुप्त होती पारंपरिक जल-प्रणालियां

गरमी ने रंग दिखाना शुरू ही किया कि देश का जल संकट नीति निर्माताओं को पानी-पानी कर रहा है। असल में न तो हमारे यहां बरसात पानी की कमी है और ना ही उसे सालभर सहेज कर रखने की । दुर्भाग्य है कि जैसे-जैसे समाज ज्यादा उन्नत, विकसित और तकनीकी-प्रेमी होता गया, अपनी परंपराओं को बिसरा बैठा। पहले-पहल तो लगा कि पानी पाईप के जरिये घर तक नल से आएगा, खेत में जमीन को छेद कर रोपे गए नलकूप से आएगा, लेकिन जब ये सब  ‘चमत्कारी उपाय’’(?) फीके होते गए तो मजबूरी में पीछे पलट कर देखना पड़ा। शायद समाज इतनी दूर निकल आया था कि अतीत की समृद्ध परंपराओं के पद-चिन्ह भी नहीं मिल रहे थे। तभी तो अब पूरे मुल्क में सारे साल, भले ही बाढ़ वाली बारिश गिर रही हो , पानी के लिए दैया-दैया होती दिखती है। भले ही रोज के अखबार मुल्क में पानी के भीषण संकट की खबरें छापतें हों, लेकिन हकीकत यह है कि भारत जल निकायों के मामले में दुनिया के सबसे धनी देशों में से एक है। तालाब, कुंए, बावडी, कुएं कुएं, नदी, झरने, सरिताएं, नाले...... ना जाने कितने आकार-प्रकार के जल-स्त्रोत यहां हर गांव-कस्बे में पटे पड़े हैं। कभी जिन पारंपरिक जल स्त्रोतों का सरोकार आमजन से हुआ करता था, उन निधियों की कब्र पर अब हमारे भविष्य की इमारतें तैयार की जा रही हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर 5723 ब्लॉकों में से 1820 ब्लॉक में जल स्तर खतरनाक हदें पार कर चुका है। जल संरक्षण न होने और लगातार दोहन के चलते 200 से अधिक ब्लॉक ऐसे भी हैं, जिनके बारे में केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने संबंधित राज्य सरकारों को तत्काल प्रभाव से जल दोहन पर पाबंदी लगाने के सख्त कदम उठाने का सुझाव दिया है. लेकिन देश के कई राज्यों में इस दिशा में कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया जा सका है. उत्तरी राज्यों में हरियाणा के 65 फीसदी और उत्तर प्रदेश के 30 फीसदी ब्लॉकों में भूजल का स्तर चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है. लेकिन वहां की सरकारें आंखें बंद किए हुए हैं. इन राज्यों को जल संसाधन मंत्रालय ने अंधाधुंध दोहन रोकने के उपाय भी सुझाए हैं. इनमें सामुदायिक भूजल प्रबन्धन पर ज्यादा जोर दिया गया है. इसके तहत भूजल के दोहन पर रोक के साथ जल संरक्षण और संचयन के भी प्रावधान किए गए हैं. देश में वैसे जल की कमी नहीं है. हमारे देश में सालाना 4 अरब घन मीटर पानी उपलब्ध है.
जन्संदेश टाईम्स उ प्र 

 इस पानी का बहुत बड.ा भाग समुद्र में बेकार चला जाता है इसलिए बरसात में बाढ. की तो गर्मी में सूखे का संकट पैदा हो जाता है. पानी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जो सरकार लोगों को पानी न मुहैया करा सके, उसे शासन करने का कोई अधिकार नहीं है. अदालत के निर्देश पर एक उच्चस्तरीय समिति खारे पानी को पीने लायक बनाने और बरसाती पानी के प्रबंधन के सस्ते और आसान तरीके ढूंढने के लिए बनाई गई थी. इस समिति की रिपोर्ट पर क्या हुआ कोई नहीं जानता? हां यह बात सभी जानते हैं कि इस हालात का बड़ा करण पारंपरिक जल स्त्रोतों का नष्ट होना है।
मप्र के बुरहानपुर शहर की आबादी तीन लाख के आसपास है। निमाड़ का यह इलाका पानी की कमी के कारण कुख्यात है , लेकिन आज भी शहर में कोई अठारह लाख लीट पानी प्रतिदिन एक ऐसी प्रणाली के माध्यम से वितरित होता है जिसका निर्माण सन 1615 में किया गया था। यह प्रणाली जल संरक्षण और वितरण की दुनिया की अजूबी मिसाल है, जिसे ‘भंडारा’ कहा जाता है। सतपुड़ पहाड़ियों से एक-एक बूंद जल जमा करना और उसे नहरों के माध्यम से लोगों के घ्एरों तक पहुंचाने की यह व्यवस्था मुगल काल में फारसी जल-वैज्ञानिक तबकुतुल अर्ज ने तैयार की थी। समय की मार के चलते दो भंडारे पूरी तरह नष्ट हो गए हैं। यह देश-दुनिया जब से है तब से पानी एक अनिवार्य जरूरत रही है और अल्प वर्शा, मरूस्थल, जैसी विशमताएं प्रकृति में विद्यमान रही हैं- यह तो बीते दो सौ साल में ही हुआ कि लोग भूख या पानी के कारण अपने पुश्तैनी घरों- पिंडों से पलायन कर गए। उसके पहले का समाज तो हर तरह की जल-विपदा का हल रखता था। अभी हमारे देखते-देखते ही घरों के आंगन, गांव के पनघट व कस्बों के सार्वजनिक स्थानों से कुएं गायब हुए हैं।

नेश्नल  दुनिया दिल्ली 
 बावड़ियों को हजम करने का काम भी आजादी के बाद ही हुआ।  हमारा आदि-समाज गर्मी के चार महीनों के लिए पानी जमा करना व उसे किफायत से खर्च करने को अपनी संस्कृति मानता था। वह अपने इलाके के मौसम, जलवायु चक्र, भूगर्भ, धरती-संरचना, पानी की मांग व आपूर्ति का गणित भी जानता थ। उसे पता था कि कब खेत को पानी चाहिए और कितना मवेशी को और कितने में कंठ तर हो जाएगा। वह अपनी गाड़ी को साफ करने के लिए पाईप से पानी बहाने या हजामत के लिए चालीस लीटर पानी बहा देने वाली टोंटी का आदी नहीं था। भले ही आज उसे बीते जमाने की तकनीक कहा जाए, लेकिन आज भी देश के कस्बे-शहर में बनने वाली जन योजनाओं में पानी की खपत व आवक का वह गणित कोई नहीं आंक पाता है जो हमारा पुराना समाज जानता था।
निवान  टाईम्स साहिबाबाद 

राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुई और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालेंड में जोबो तो लेह-लद्दाक में जिंग, महाराश्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल हिमाचल प्रदेश में कुल और और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए और अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बांध बनाने की जुगत अनुतीर्ण होती दिख रही हैं तो फिर उनकी याद आ रही है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिश की बूंदों के मीठे पानी को ‘विरदा’ के प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। सनद रहे कि उस इलाके में बारिश भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाक में सुबह बरफ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है जो षाम को बहता है। वहां के लोग जानते थे कि षाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।
तमिलनाडु में एक जल सरिता या धारा को कई कई तालाबों की श्रंखला में मोड़कर हर बूंद को बड़ी नदी व वहां से समुद्र में बेजा होने से रोकने की अनूठी परंपरा थी। उत्तरी अराकोट व चेंगलपेट जिले में पलार एनीकेट के जरिए इस ‘‘पद्धति तालाब’’ प्रणाली में 317 तालाब जुड़े हैं। रामनाथपुरम में तालाबों की अंतर्श्रखला भी विस्मयकारी है। पानी के कारण पलायन के लिए बदनाम बंुदेलखंड में भी पहाडी के नीचे तालाब, पहाडी पर हरियाली वाला जंगल और एक  तालाब के ‘‘ओने’’(अतिरिक्त जी की निकासी का मुंह) से नाली निकाल कर उसे उसके नीेचे धरातल पर बने दूसरे तालाब से जोड़ने व ऐसे पांच-पांच तालाबों की कतार बनाके की परंपरा 900वीं सदी में चंदेल राजाओं के काल से रही है। वहां तालाबों के आंतरिक जुड़ावों को तोड़ा गया, तालाब के बंधान फोड़े गए, तालाबों पर कालोनी या खेत के लिए कब्जे हुए, पहाड़ी फोड़ी गई, पेड़ उजाड़ दिए गए। इसके कारण जब जल देवता रूठे तो  पहले नल, फिर नलकूप के टोटके किए गए। सभी उपाय जब हताश रहे तो आज फिर तालाबों की याद आ रही है।
यह जान लेना जरूरी है कि धरती पर इंसान का अस्तित्व बनाए रखने के लिए पानी जरूरी है तो पानी को बचाए रखने के लिए बारिश का संरक्षण ही एकमात्र उपाय है।  भारत में हर साल औसतन 37 करोड़ हैक्टर मीटर वर्शा जल प्राप्त होता है, जबकि देश का कुल क्षेत्रफल 32 करोड़ अस्सी लाख हैक्टर मीटर है।  यानि हर वर्गमीटर में एक मीटर से भी मोटी पानी की परत। हमारे यहां पानी की उपलब्धता अमेेरिका से बहुत ज्यादा है,  फिर भी हमारी 33 फीसदी षहरी व 60 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को षुद्ध पेय जल उपलब्ध नहीं है। यदि देश की महज पांच प्रतिशत जमीन पर पांच मीटर औसत गहराई में  बारिश का पानी जमा किया जाए तो पांच सौ लाख हैक्टर पानी की खेती की जा सकती है। इस तरह औसतन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी प्रति व्यक्ति पूरे देश में दिया जा सकता है।  और इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर सदियों से समाज की सेवा करने वाली पारंपरिक जल प्रणालियों को खेाजा जाए, उन्हें सहेजने वाले, संचालित करने वाले समाज को सम्मान दिया जाए और एक बार फिर समाज को ‘‘पानीदार’’ बनाया जाए। यहां ध्यान रखना जरूरी है कि आंचलिक क्षेत्र की पारंपरिक प्रणालियों को आज के इंजीनियर षायद स्वीकार ही नहीं पाएं सो जरूरी है कि इसके लिए समाज को ही आगे किया जाए।
जल संचयन के स्थानीय व छोटे प्रयोगों से जल संरक्षण में स्थानीय लोगों की भूमिका व जागरूकता दोनों बढ़गेी, साथ ही इससे भूजल का रिचार्ज तो होगा ही जो खेत व कारखानों में पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित करेगा।


गुरुवार, 19 अप्रैल 2018

In summer Delhi air is more poisonous

तापमान बढ़ते ही दम घुटेगा दिल्ली का

पंकज चतुर्वेदी
भले ही रास्ते में धुंध के कारण जाम के हालात न हों, भले ही स्मॉग के भय से आम आदमी भयभीत  ना हो, लेकिन जान लें कि जैसे जैसे सूर्य की तपन बढ़ रही है, दिल्ली की सांस अटक रही है। दिल्ली  में प्रदुषण  का स्तर अभी भी उतना ही है जितना कि सर्दियों में धुंध के दौरान हुआ करता था। यही नहीं इस समय की हवा ज्यादा जहरीली व जानलेवा है। देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिशत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी व हवा में उड्ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुंए से 17 फीसदी, पैटकॉक जैसे पेट्रो-इंधन की 16 प्रतिशत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि।

हानिकारक गैसों एवं सूक्ष्म कणों से परेशान दिल्ली वालों के फैंफडों को कुछ महीने हरियाली से उपजे प्रदुषण  भी जूझना पड़ता है। विडंबना है कि परागण से सांस की बीमारी पर चर्चा कम ही होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की ताकत उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ मिल कर करके अधिक जहरीले हो जाते हैं। ये प्रोटीन जैसे ही हमारे खून में मिलते है।, एक तरह की एलर्जी को जन्म देते हैं। एक बात और कि हवा में परागणों के प्रकार और घनत्व  का पता लगाने की कोई तकीनीक बनी नहीं है। वैसे तो परागणों के उपजने का महीना मार्च से मई मध्य तक है लेकिन जैसे ही जून-जुलाई में हवा में नमी का स्तर बढ़ता है। तो पराग और जहरीले हो जाते हैं। हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे एलर्जी पैदा होती है।  यह एलर्जी इंसान को गंभीर सांस की बीमारी की तरफ ले जाती है। चूंकि गर्मी में ओजोन  लेयर और मध्यम आकार के धूल कणों का प्रकोप ज्यादा होता है परागण के शिकार लेागों के फैंफडे  ज्यादा क्षतिग्रस्त होते हैं। तभी ठंड षुरू होते ही दमा के मरीजों का दम फूलने लगता है और कई बार इससे दिल तक असर पड़ जाता है।
यह तो सभी जानते है। कि गरमी के दिनों में हवा एक से डढ़ किलोमीटर ऊपर तक तेज गति से बहती है। इसी लिए मिट्टी के कण और राजस्थान -पाकिस्तान के रास्ते आई रेत लेागों को सांस लेने में बाधक बनती है। मानकों के अनुसार पीएम की मात्रा 100 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर वायू होना चाहिए, लेकिन अभी तो पारा 37 के करीब है और यह खतरनाक पार्टिकल 240 के करीब पहंुच गए हैं। इसका एक बड़ा कारण दिल्ली में विकास के नाम पर हो रहे ताबड़तोड़ व अनियोजित निर्माण कार्य भी हैं, जिनसे असीमित धूल तो उड़ ही रही है , यातायात जाम के दिक्कत भी उपज रही है। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों मं जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा, कैंसर व दिल के रोग।
वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधन परिशद(सीएसआईआर) और केंद्री सड़क अनुसंधन संस्थान द्वारा हाल ही में दिल्ली की सड़कों पर किए गए एक गहन सर्वे से पता चला है कि दिल्ली की सड़कों पर लगातार जाम व वाहनों के रंगने से गाड़िया डेढ़ गुना ज्यादा इंधन पी रही हैं। जाहिर है कि उतना ही अधिक जहरीला धुओं यहां की हवा में षामिल हो रहा है। ठीक ठाक बरसात होने के बावजूद दिल्ली के लोग बारीक कणों से हलकान है तो इसका मूल कारण वे विकास की गतिविधियां हैं जो बगैर अनिवार्य सुरक्षा नियमों के  संचालित हां रही है। इन दिनों राजधानी के परिवेश में इतना जहर घुल रहा है, जितना कि दो साल में कुल मिला कर नहीं होता है। बीते 17 साल में सबसे बुरे हालात है हवा के। आज भी हर घंटे एक दिल्लीवासी वायु प्रदुशण का शिकार हो कर अपनी जान गंवा रहा है। गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है। एक अंतरराश्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। ‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित ताजा शोध के मुताबिक दुनियाभर में 33 लाख लोग हर साल वायु प्रदूषण के शिकार होते हैं ।
यह भी जानना जरूरी है कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआई यानि एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलाकांत दिल्ली में यह आंकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुंएं में बड़ी मात्रा में हाईड्रो कार्बन होते हैं और तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोज इंसान के षरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है । इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण वायु प्रदूषण से हुई मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इस खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है। इस खतरे पर काबू पा लेने से हर साल करीब 10 लाख लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकेंगी । वायू प्रदूशण को और खतरनाक स्तर पर ले जाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। जब पेट्रो पदार्थों को रिफायनरी में षांधित किया जाता है तो सबसे अंतिम उत्पाद होता है - पैटकॉन,। इसके दहन से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। चूंकि इसके दाम डीजल-पेट्रोल या पीएनजी से बहुत कम होते है। सो दिल्ल्ी राजधानी क्षेत्र के अधिकांश बड़े कारखाने अपनी भट्टियों में इसे ही इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है उससे दोगुना पैटॅकान इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं।
यह स्पश्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूशण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्राफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले डीजल पर चलने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। गरमी के मौसम में निर्माण कार्यो। पर धूल नियंत्रण, सड़कों पर जाम लगना रोकने के साथ-साथ पानी का छिड़काव जरूरी है। जबकि परागण से होने वाले नुकसान से बचने का एकमात्र उपाय इसके प्रति जागरूकता व संभावित प्रभावितों को एंटी एलर्जी दवाएं देना ही है।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2018

Privatization of Higher Education: Two decade old conspiracy

उच्च शिक्षा में ‘मनीवाद’ की स्थापना


पंकज चतुर्वेदी
स्तरीय उच्च शिक्षा, रोजगारोन्मुखी महाविद्यालय, स्वायत्त संस्थाएं ; भले ही आज इस दिशा में उठाए जा रहे कदमों से शिक्षा जगत असहज है और उच्च शिक्षा पर केवल धनी लोगों का एकछत्र राज होगा, लेकिन यह जान लें कि इसकी तैयारी कोई एक-दो साल या दो-तीन सरकारों की नहीं बल्कि लगभग दो दशक से ज्यादा से चल रही है।
डब्ल्यूटीओ करार के मुताबिक तो अप्रैल, 2005 से हमारे देश के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों को अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप अपना स्तर बनाना था। सभी विश्वविद्यालयों को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने के लिए कुछ क्यूए यानी क्वालिटी एश्योरेंस का पालन जरूरी है। ऐसे में शिक्षण सुविधाओं, छात्रों के नतीजे और पाठ्यक्रमों में सतत सुधार के आाधार पर शैक्षिक संस्थाओं का स्तर तय होता है। चूंकि भारत डब्ल्यूटीओ की शर्तों से बंधा हुआ है, अतः उच्च शिक्षा के मानदंडों का पालन करना उसकी मजबूरी है।
24 अप्रैल 2000 को देश के दो बड़े उद्योगपतियों कुमार मंगलम बिड़ला और मुकेश अंबानी ने व्यापार और उद्योग पर गठित प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद को एक रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें उच्च शिक्षा को देशी-विदेशी निवेश के लिए खोल कर बाजार बनाने की सिफारिश की गई थी। इस रिपोर्ट का शीर्षक था-‘ए पॉलिसी फ्रेमवर्क फॉर रिफार्म इन एजुकेशन।’ उस रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि सन‍् 2015 में 19 से 24 साल आयु वर्ग के 11 करोड़ आबादी में से महज 20 फीसदी यानी 2.2 करोड़ उच्च शिक्षा के काबिल होंगे। बिड़ला-अंबानी समिति का सुझाव था कि सरकार केवल स्कूल स्तर की शिक्षा की जिम्मेदारी ले और उच्च शिक्षा पूरी तरह निजी हाथों में दे। रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया था कि उच्च शिक्षा लेने वाले अधिकांश लोग पंद्रह से बीस लाख का कर्ज लें। इससे बैंकिंग प्रणाली मजबूत होगी और इस कर्ज के दबाव में नौकरी पाए युवा उद्योगपतियों की शर्तों पर काम करते रहेंगे। विडंबना थी कि उस रिपोर्ट में भारत में गरीबी और प्रति व्यक्ति औसत आय जैसे मसलों को दरकिनार कर शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की बात कही गई थी।
उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सन‍् 2003 में डब्ल्यूटीओ की शर्तों बाबत एक कमेटी का गठन किया था। इसकी किसी को भी खबर नहीं है कि उक्त कमेटी किस नतीजे पर पहुंची, लेकिन इस अवधि में कालेज ही नहीं, यूनिवर्सिटी खोलने के नाम पर शिक्षा जगत के साथ खुलकर खिलवाड़ किया गया। छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में महज सत्रह सौ रुपए की पूंजी के साथ विश्वविद्यालय खोल दिए गए। दो कमरे अपने नहीं हैं और वहां विज्ञान संकाय के साथ डिग्री कालेज चल रहे हैं। यह विडंबना मध्य प्रदेश से बिहार तक कहीं भी देखी जा सकती है। देश के इंजीनियरिंग कालेज बंद हो रहे हैं व तकनीकी निजी संस्थानों में योग्य शिक्षक ही नहीं हैं। बिड़ला-अंबानी कमेटी और उच्च शिक्षा को डब्ल्यूटीओ की शर्तों के अनुरूप बनाने की क्रियान्वयन रिपोर्ट के ही परिणाम हैं कि अब आईआईएम जैसे संस्थानों की फीस कई गुना बढ़ा दी गई है। जेएनयू में हॉस्टल व मैस के खर्चे बढ़ाए जा रहे हैं।
विकसित देशों में बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा को उतना ही महत्व दिया जाता है, जितना कि उच्च शिक्षा को। भारत में स्कूली शिक्षा का तेजी से निजीकरण हुआ। समाज के प्रत्येक वर्ग के बच्चे नामी-गिरामी निजी स्कूलों में दाखिला लेकर गर्व महसूस करते हैं। अब तो सरकारी स्कूल भी ‘हायर एंड फायर’ की तर्ज पर शिक्षकों को रखने लगे हैं। शिक्षा गारंटी योजना, गुरुजी, पेरा टीचर जैसे नामों से स्कूली शिक्षक को पांच सौ या हजार रुपये में रखने पर अब किसी की संवेदनाएं नहीं जाग्रत हो रही हैं। इसके ठीक विपरीत कालेजों के शिक्षकों पर कार्यभार कम है, जवाबदेही न के बराबर है और वेतन व सुविधाएं आसमान छूती हुईं।
कुछ आईआईटी और आईआईएम को छोड़ दिया जाए तो हमारे देश की अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थाओं का पाठ्यक्रम न तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर का है और न ही उसमें समय के साथ संशोधन किए गए हैं। कई विश्वविद्यालयों में एमए अंग्रेजी में वह सब पढ़ाया जा रहा है जो इंग्लैंड में 60 साल पहले पढ़ाया जाना बंद हो चुका है।
उच्च शिक्षा क्षेत्र आज भी सभी राजनैतिक दलों का चारागाह बना हुआ है। ऐसे छात्र नेताओं की संख्या भी हजारों में है जो अपने सियासती रसूख की बदौलत बगैर पढ़ाई किए ही डिग्रियां पा लेते हैं। कई मेडिकल, इंजीनियरिंग व मैनेजमेंट कालेज निजी प्रबंधन में हैं, लेकिन उन्हें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और आल इंडिया काउंसिल फार टेक्निकल एजुकेशन के कायदे-कानूनों के तहत चलना पड़ता है। इन सभी कालेजों का मालिकाना हक बड़े नेताओं के पास है। कुल मिलाकर उच्च शिक्षा के खर्चीले होने के पीछे के सच को जानने के लिए उन कड़ियों को जोड़ना होगा जो कि उच्च शिक्षा में ‘मनीवाद’ की स्थापना करने के लिए गढ़ी जा रही हैं।

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

house should be for residence not for investment

मकान को घर रहने दो, निवेश नहीं 

पंकज चतुर्वेदी

एक तरफ सरकार हर सिर पर छत के संकल्प को पूरा करने में लगी है, वहीं सरकार की ही एक रिपोर्ट कहती है कि इस समय देश के श हरी इलाकों के 12 प्रतिशत मकान खाली पड़े हैं। सन 2001 में यह आंकड़ा 65 लाख था और आज यह बढ़ कर एक करोड़ 11 लाख हो गया है। इनमें गांवों से रोजगार या अन्य कारणों से खाली -वीरान पड़े मकानों की संख्या जुड़ी नहीं है। यह किसी से नहीं छिपा है कि जब से गावंो में खेती लाभ का धंध नहीं रही, तबसे गांवों में केवल मजबूर, बुजुर्ग लोग ही रह रहे है।। किसी भी आंचलिक गांव में जा कर देखें तो पाएंगे कि विभिन्न कारणो ंसे पलायन  के चलते 40 प्रतिशत तक मकान खाली पड़े हैं। लेकिन षहरों में मकान खाली रहने के पीछे कोई मजबूरी नहीं, उससे ज्यादा मुनाफा कमाने की अभिलाषाएं  ज्यादा है।  महाराष्ट्र  में कोई 20 लाख मकान खाली पड़े हैं जिनमें से अकेले मुंबई में चार लाख हैं।  दिल्ली में तीन लाख मकानों में कोई नहीं रहता तो गुड़गांव जिसे प्रापर्टी का हॉट बाजार कहा जाता है- 26 प्रतिशत मकान वीरान हैं। 


 हालांकि मकान आदमी की मूलभूत जरूरत माना जाता है, लेकिन बाजार में आएं तो पाएंगे कि मकान महज व्यापार बना गया है । एक तरफ षहर में हजारों परिवार सिर पर छत के लिए व्याकुल हैं, दूसरी ओर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि महानगर दिल्ली में साढ़े तीन लाख से अधिक मकान खाली पडे हैं । यदि करीबी उपनगरों नोएडा, गुडगांव, गाजियाबाद, फरीदाबाद को भी षामिल कर लिया जाए तो ऐसे मकानों की संख्या छह लाख से अधिक होगी, जिसके मालिक अन्यंत्र बेहतरीन मकान में रहते हैं और यह बंद पड़ा मकान उनके लिए शेयर 
बाजार में निवेश की तरह है । आखिर हो भी क्यों नहीं, बैंकों ने मकान कर्ज के लिए दरवाजे खोल रखे हैं , लोग कर्जा ले कर मकान खरीदते हैं , फिर कुछ महीनों बाद जब मकान के दाम देा गुना होते हैं तो उसे बेच कर नई प्रापर्टी खरीदने को घूमने लगते हैं । तुरत-फुरत आ रहे इस पैसे ने बाजार में दैनिक उपभोग की वस्तुओं के रेट भी बढ़ाए हैं, जिसका खामियाजा भी वे ही भोग रहे हैं, जिनके लिए सिर पर छत एक सपना बन गया है । 

दिल्ली से कोई 20 किलोमीटर दूर स्थित नोएडा एक्सटेंशन अभी तीन साल पहले तक वीरान था । यहां से नोएडा का बाजार आठ किमी व ग्रेटर नोएडा 12 किमी है । आज यहां दो बेड रूम का फ्लेट कम से कम 35 लाख का मिल रहा है । इलाके में कोई 20 हजार फ्लेट बन रहे हैं,। जो बन गए है, वे बिक गए हैं और अधिकांश खाली पड़े है। । ताजा जनगणना के मुताबिक देश में कोई साढ़े पांच लाख लोग बेघर थे, जबकि खाली पड़े मकानों की संख्या एक करोड़ 11 लाख थी । 


आज दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी के अखबारों में कई-कई पन्नों में ऐसे विज्ञापन छप रहे हैं, जो लोगों को कुछ ही साल में पैसे को दुगना-तिगुना करने का भरोसा दे कर पैसा निवेश करने के लिए आमंत्रित करते हैं । यानी मकान रहने के लिए नहीं सुरक्षित निवेश का जरिया बन गया हैं । और इस तरह मकान के जरूरत के बनिस्पत बाजार बनने का सबसे बड़ा खामियाजा समाज का वह तबका उठा रहा है, जिसे मकान की वास्तव में जरूरत है । 

यदि केंद्र सरकार की नौकरी को आम आदमी का आर्थिक स्थिति का आधार माने तो दिल्ली या उसके आसपास के उपनगरों में  आम आदमी का मकान लेना एक सपने के मानिंद है । क्रेद सरकार के समूह ए वर्ग के कर्मचार को मिलने वाले वेतन और व्यय के गणित के बाद उसे बैक् से इतना कर्जा भी नहीं मिलता कि वह दो बेडरूम का फ्लेट खरीद सके। सनद रहे यदि वह अपने दफ्तर से मकान के लिए कर्ज लेना चाहे तो उसे उसके मूल वेतन के पचास गुणे के बराबर पैसा मिल सकता है । अन्य बैंक या वित्तीय संस्थाएं भी उसकी ग्रॉस सैलेरी का सौ गुणा देते हैं । दोनों स्थितियों में उसे मकान के लिए मिलने वाली रकम 30 से 40 लाख होती है । इतनी कीमत में दिल्ली के डीडीए या अन्य करीबी राज्यों के सरकारी निर्माण का एक बेडरूम का फ्लेट भी नहीं मिलेगा । गाजियाबाद के इंदिरापुरम में दो बेडरूम फ्लेट 50 लाख से कम नहीं है । गुडगांव और नोएडा के रेट तो इससे दुगने नहीं है । यदि कोई 20 लाख कर्ज लेता है और उसे दस या पंद्रह साल में चुकाने की योजना बनाता है तो उसे हर महीने न्यूनतम 23 हजार रूपए बतौर ईएमआई चुकाने होंगे । यह आंकड़े गवाह हैं कि इतना पैसे का मकान खरीदना आम आदमी के बस के बाहर है । मकान के कर्ज का दर्द भी अजीब है,  जितना कर्ज लिया जाता है लगभग उससे दुगना ही किश्तों में चुकाना होता है। जाहिर है कि सरकार लेागों को मकान मुहैया करवाने से कहींे ज्यादा बैंव व अन्य वित्तीय संस्थाओं, निर्माण सामग्री के उत्पादकों और बिल्डरांे के हित साधने के लिए ‘हर एक को मकान’ का नारा देती हे। 

इसके बावजूद दिल्ली के द्वारिका, ग्रेटर नोएडा, इंदिरापुरम से ले कर लखनऊ, जयपुर या भोपाल या पटना में आए रोज नए-नए प्रोजेक्ट लांच हो रहे हैं और धड़ल्ले से बिक रहे हैं । सोनीपत और भिवाड़ी तक, आगरा और अजमेर तक भी यह आग फैल चुकी है ।  बस्ती बसने से पहले ही मकान की कीमत दो-तीन गुना बढ़ जाती है।  यह खेल खुले आम हो रहा है और सरकार मुग्ध भाव से आदमी की जरूरत को बाजार बनते देख रही है । 

इन दिनों विकसित हो रही कालोनियां किस तरह पूंजीवादी मानसिकता की शिकार है कि इनमें गरीबों के लिए कोई स्थान नहीं रखे गए हैं । हर नवधनाढ्य को अपने घर का काम करने के लिए नौकर चाहिए, लेकिन इन कालोनियों में उनके रहने की कहीं व्यवस्था नहीं है । इसी तरह बिजली, नल जैसे मरम्मत वाले काम ,दैनिक उपयोग की छोटी दुकानें वहां रहने वालों की आवश्यकता तो हैं , लेकिन उन्हें पास बसाने का ध्यान नियोजक ने कतई नहीं रखा । दिल्ली षहर के बीच से झुग्गियां उजाड़ी जा रही है और उन्हें बवाना, नरेला, बकरवाल जैसे सुदूर ग्रामीण अंचलों में भेजा जा रहा है । सरकार यह भी प्रचार कर रही है कि झुग्गी वालों के लिए जल्दी ही बहुमंजिला फ्लेट बना दिए जाएंगे ।  लेकिन यह तो सोच नहीें  कि उन्हें घर के पास ही रोजगार कहां से मिलेगा । 

एक तरफ मकान आम नौकरीपेशा वर्ग के बूते के बाहर की बात है, वहीं जिन्हें वास्तव में मकान की जरूरत है वे अवैध कालोनियों, संकरे इलाकों में बने बहुमंजिली इमारतों और स्लम बनते गांवों में रह रहे हैं। इसके ठीक सामने वैध कालोनी-अपार्टमेंटस निवेश बन कर खाली पड़े हैं। 

एक तरफ मकान बाजार में महंगाई बढ़ाने का पूंजीवादी खेल बन रहे हैं तो दूसरी ओर सिर पर छत के लिए तड़पते लाखों-लाख लोग हैं । कहीं पर दो-तीन एकड़ कोठियों में पसरे लोकतंत्र के नवाब हैं तो पास में ही कीड़ों की तरह बिलबिलाती झोपड़-झुग्गियों में लाखों लोग । जिस तरह हर पेट की भूख रोटी की होती है, उसी तरह एक स्वस्थ्य- सौम्य समाज के लिए एक स्वच्छ, सुरक्षित आवास आवश्यक है । फिर जब मकान रहने के लिए न हो कर बाजार बनाने के लिए हो ! इससे बेहतर होगा कि मकानों का राश्ट्रीयकरण कर व्यक्ति की हैसियत, जरूरत, कार्य-स्थल से दूरी आदि को मानदंड बना कर उन्हें जरूरतमंदों को वितरित कर दिया जाए । साथ में षर्त हो कि जिस दिन उनकी जरूरत दिल्ली में समाप्त हो जाएगी, वे इसे खाली कर अपने पुश्तैनी बिरवों में लौट जाएंगे । इससे हर जरूरतमंद के सिर पर छत तो होगी ही, काले धन को प्रापर्टी में निवेश करने के रोग से भी मुक्ति मिलेगी। 


पंकज चतुर्वेदी

वसंत कुंज नई दिल्ली-110070

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

Communal riots are against nationalism

दंगे देश को पीछे ढकेलते हैंे 

पंकज चतुर्वेदी 


 जिस व्यापार, धंधे, प्रापर्टी, मानव संसाधन और सबसे बड़ी बात भरोसे का निर्माण करने में इंसान व मुल्क को दशकों लगते हैं, उसे बर्बाद करने में पल भी लगता। महज कोई क्षणिक आक्रोश, विद्वेश या साजिश की आग में समूची मानवता और रिश्ते झुलस जाते हैं और पीछे रह जाती हैं संदेह, बदले और सियासती दांव पेंच की इबारतें। विश्व में न्याय, आपसी प्रेम और समानता के प्रतीक माने जाने वाले भगवान राम के जन्मदिन के अवसर पर पिछले दिनों बिहार और बंगाल में कई जिलों में भयानक दंगे हुए। गुजरात के आणंद व वडोदरा से ले कर राजस्थान के बूंदी व देश के कोई 70 स्थानों पर तनाव हुआ। सभी जगह एक सी कहानी - षोभा यात्रा निकली, किसी ने पत्थर उछाला या किसी दूसरे मजहब के धार्मिक स्थल पर बेअदबी हुई और षुरू हो गया पथराव। अभी यह थमा ही था कि देश जातीय हिंसा की चपेट में आ गया। कुछ ही घंटे में दुकानें, वाहन, बाजार जलाए गए। ऐसा ही दशकों से होता आ रहा है। असल में इससे न तो किसी धर्म को हानि होती है और न ही लाभ लेकिन देश जरूर कई साल पीछे खिसक जाता है। हर बार की तरह इन दंगों का भी अपना अर्थशास्त्र है।

आजादी के बाद सन 1964 में कलकत्त, राऊरकेला और जमशेदपुर में कई दिनों तक खूनखराबा हुआ था, जिसमें 2000 से ज्यादा लोग मारे गए थे। जांच आयोग ने पाया था कि असल में दंगा भड़काने के पीछे षराब के ठेकों पर कब्जा करने वाली लॉबी के निजी टकराव थे। मार्च-1968 में असम के करीम गंज में एक मुसलमान किसान की गाय एक हिंदू के खेत में घुस गई, आपसी झगड़ा इतना विकराल हो गया कि दंगे में 82 लोग मारे गए। अक्तूबर-1977 के बनारस दंगे में 36 जानें गई थीं व इसके पीछे का कारण एंग्लो-बंगाली कालेज के मैदान में जुलाहों द्वारा अपना तागा सुखाने का साधारण सा विवाद था।  मार्च-1978 में संभल के दंगे का कारण पदो स्मगलरों के गुटों का आपसी विवाद पाया गया था।  1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिंख दंगों में तीन हजार से ज्यादा सिखों की जान और अरबों की संपत्ति नश्ट की गई थी। इसके लिए कईं जांच आयोग, कई विशेश दल गठित हुए, यदि कईं की गंभीरता से जांच करें तो यह संगठित अपराध, लूटपाट, राजनीति का घालमेल नजर आता है।
यह भी समझ लेना चाहिए कि दंगों की जड़ धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि आर्थिक-सामाजिक कारण हैं। उड़ीसा की कुल आबादी (2001 जनगणना) 36,804,660 है, इसमें ईसाई महज 897861 हैं, यानी कुल आबादी का ढ़ाई फीसदी भी नहीं। ज़ाहिर है कि ईसाई इतने कम हैं कि उनसे किसी तरह के खतरे का डर हिंदुओं में नहीं होना चाहिए। लेकिन अगस्त-सितंबर-2008 के दौरान उड़ीसा के कंधमाल जिले में केंद्रीय बलों की मौजूदगी के बावजूद ईसाईयों के घरों, पूजा स्थलों, संपत्तियों को आग के हवाले किया जाता रहा। इस हिंसा में कई लोग मारे गए और हमलों से भयाक्रांत ईसाई लोग जंगलों में छिप कर जीवन काटते दिखे। अखबारी बयानबाजी से तो यही मालूम होता है कि ईसाई मिशनियरियों द्वारा जबरन धर्मांतरण से आक्रोशित कतिपय हिंदुवादी संगठन ये हमले कर रहे हैं। हिंदुवादी संगठनों का दावा है कि यह स्थानीय जनता का ईसाईयों के धार्मिक-दुष्प्रचार के विरोध में गुस्सा है। लेकिन हकीकत और कहीं दबी हुई थी-कंधमाल में ‘पाना’ नामक एक दलित जाति का बाहुल्य है। बेहद गरीब, अशिक्षित और शोषित रहे हैं पाना लोग। कुछ दशकों पहले ‘पाना’ लोगों के ईसाईयत को स्वीकार करना शुरू किया तो उनकी शैक्षिक और आर्थिक हालत सुधरने लगी। इसका सीधा असर उन साहूकारों और सामंतों पर पड़ा, जिनकी तिजोरियां ‘पानाओं’ की अशिक्षा व नादानी से भरती थीं।यह घटना गवाह है कि दंगे के निहितार्थ और कहीं होते हैं। सन 2002 के गुजरात दंगों में बहुत सी कहानियां आपसी रंजिश को भुनाने या व्यावसायिक व राजनीतिक  प्रतिद्वंदी को ठिकाने लगाने की साजिशेां की हैं। जरा याद करें 27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस में 50 कार सेवकों (25 महिलाएं व 15 बच्चे) को जिंदा जला देने के बाद गुजरात के 25 में से 16 जिलों के 151 शहर और 993 गांवों में मुसलमानों पर योजनाबद्ध हमले हुए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन दंगों  में कुल 1044 लोग मारे गए, जिनमें 790 मुसलमान और 254 हिंदू थे। यहां व्यापारी वर्ग के डरपोक कहे जाने वाले ‘बोहरों’ के व्यवसाय-दुकानों का निशाना बना कर फूंका गया। मुसलमानों की होटलों, वाहनों को बाकायदा नक्शा बना कर नश्ट किया गया, बाद में पता चला कि असल खुन्नस तो व्यापारिक प्रतिद्वंदिता की थी, जिसे  सांप्रदायिक रंग दे दिया गया। यह बात ब और पुख्ता हो गई जब दंगों के बाद गुजरात के गांवों में मुसलमानेां की दुकानों से सामान ना खरीदन जैसे पर्चें बांटे गए। उत्तर प्रदेश में कई बार दंगों की वजह सरकारी संपत्ति पर कब्जा कर रही है। अभी 2014 में सहारनपुर में सिखों व मुसलमानेां के बीच हुए तनाव का असली कारण सरकारी जमीन पर धार्मिक स्थल के नाम पर कब्जा करने की साजिश के तौर पर सामने आया था।

इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारत में हिंदू और मुसलमान गत् 1200 वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं। डेढ़ सदी से अधिक समय तक तो पूरे देश पर मुगल यानी मुसलमान शासक रहे। इस बात को समझना जरूरी है कि 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों को यह पता चल गया था कि इस मुल्क में हिंदू और मुसलमानों के आपसी ताल्लुक बहुत गहरे हैं और इन दोनों के साथ रहते उनका सत्ता में बना रहना मुश्किल है। एक साजिश के तहत 1857 के विद्रोह के बाद मुसलमानों को सताया गया, अकेले दिल्ली में ही 27 हजार मुसलमानों का कत्लेआम हुआ। अंग्रेज हुक्मरान ने दिखाया कि हिंदू उनके करीब है।। लेकिन जब 1870 के बद हिंदुओं ने विद्रोह के स्वर मुखर किए तो अंग्रेज मुसलमानों को गले लगाने लगे। यही फूट डालो और राज करो की नीति इतिहास लेखन, अफवाह फैलाने में काम आती रही
यह तथ्य भी गौरतलब है कि 1200 साल की सहयात्रा में दंगों का अतीत तो पुराना है नहीं। कहा जाता है कि अहमदाबाद में सन् 1714, 1715, 1716 और 1750 में हिंदू मुसलमानों के बीच झगड़े हुए थे। उसके बाद 1923-26 के बीच कुछ जगहों पर मामूली तनाव हुए । सन् 1931 में कानपुर का दंगा भयानक था, जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी की जान चली गई थी। दंगें क्यों होते हैं? इस विषय पर प्रो. विपिन चंद्रा, असगर अली इंजीनियर से ले कर सरकार द्वारा बैठाए गए 100 से ज्यादा जांच आयोगों की रिपोर्ट तक साक्षी है कि झगड़े ना तो हिंदुत्व के थे ना ही सुन्नत के। कहीं जमीनों पर कब्जे की गाथा है तो कहीं वोट बैंक तो कहीं नाजायज संबंध तो कहीं गैरकानूनी धंधे।
सन् 1931 में कानपुर में हुए दंगों के बाद कांग्रेस ने छह सदस्यों का एक जांच दल गठित किया था। सन् 1933 में जब इस जांच दल की रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी थी तो तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने उस पर पाबंदी लगा दी थी। उस रिपोर्ट में बताया गया था कि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद सदियों से ये दोनों समाज दुर्लभ सांस्कृतिक संयोग प्रस्तुत करते आए हैं। उस रिपोर्ट में दोनों संप्रदायों के बीच तनाव को जड़ से समाप्त करने के उपायों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था -धार्मिक-शैक्षिक, राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक। उस समय तो अंग्रेजी सरकार ने अपनी कुर्सी हिलती देख इस रिपोर्ट पर पाबंदी लगाई थी। आज कतिपय राजनेता अपनी सियासती दांवपेंच को साधने के लिए उस प्रासंगिक रिपोर्ट को भुला चुके हैं। मुंबई दंगों की श्रीकृश्ण आयोग की रपट का जिन्न तो कोई भी सरकार बोतल से बाहर नहीं लाना चाहती।
यह जानना जरूरी है कि वैचारिक या सांप्रदायिक हिंसा केवल भारत की ही समस्या नहीं है, मिश्रित समाज के देशों, विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों का यह चरित्र बन गई है। पूरा दक्षिण एशिया इस त्रासदी का शिकार है। पाकिस्तान में मुहाजिर, शिया-सुन्नी टकराव है तो श्रीलंका में तमिलों के। मालदीव जैसा देश भी हिंसक टकरावों को झेल रहा है। विकास का पहिया जब तेज घूमता है तो अल्पसंख्यक, गरीब इसकी चपेट में सबसे पहले आते हैं, परिणाम स्वरूप वे कुछ आक्रामक हो जाते हैं। ऐसे में संसाधनों पर कब्जा किए बैठे सभ्रांत वर्ग को इन शोषितों के गुस्से का यदा-कदा सामना करना पड़ता है और यही दंगे या टकरावों का गणित है।
मुसलमान ना तो नौकरियों में है ना ही औद्योगिक घरानों में, हां हस्तकला में उनका दबदबा जरूर है। लेकिन विडंबना है कि यह हुनरमंद अधिकांश जगह मजदूर ही हैं। यदि देश में दंगों को देखें तो पाएंगे कि प्रत्येक फसाद मुसलमानों के मुंह का निवाला छीनने वाला रहा है। भागलपुर में बुनकर, भिवंडी में पावरलूम, जबलपुर में बीडी, मुरादाबाद में पीतल, अलीगढ़ में ताले, मेरठ में हथकरघा..., जहां कहीं दंगे हुए मजदूरों के घर जलें, उनमे कुटीर उद्योग चौपट हुए। एस. गोपाल की पुस्तक ‘‘द एनोटोमी ऑफ द कन्फ्रंटेशन’’ में अमिया बागछी का लेखन इस कटु सत्य को उजागर करता है कि सांप्रदायिक दंगे मुसलमानों की एक बड़ी तादाद को उन मामूली धंधों से भी उजाड़ रहे हैं जो उनके जीवनयापन का एकमात्रा सहारा है। (प्रिडेटरी कर्मशलाईजेशन एंड कम्यूनिज्म इन इंडिया)। गुजरात में दंगों के दौरान मुसलमानों की दुकानों को आग लगाना, उनका आर्थिक बहिष्कार आदि गवाह है कि दंगे मुसलमानों की आर्थिक गिरावट का सबसे कारण है। यह जान लें कि उ.प्र. में मुसलमानों के पास सबसे ज्यादा व सबसे उपजाऊ जमीन  और दुधारू मवेशी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही हैं। चार साल पहले हुआ दंगा मुसलमानेां को इस पुश्तैनी धंधे से मरहूम करने की बड़ी साजिश ही था ।
दंगे मानवता के नाम पर कलंक हैं। धर्म, भाषा, मान्यताओं, रंग जैसी विषमताओं के साथ मत-विभाजन होना स्वाभाविक है। लेकिन जब सरकार व पुलिस में बैठा एक वर्ग खुद सांप्रदायिक हो जाता है तो उसकी सीधी मार निरपराध, गरीब और अशिक्षित वर्ग पर पड़ती है। यही हमारे देश में होता है फिर सवाल केवल मुसलमान से ही क्यों पूछा जाता है?
एक बारगी लगता हो कि दंगे महज किसी कौम या फिरके को नुकसान पहुंचाते हैं, असल में इससे नुकसान पूरे देश के विकास, विश्वास और व्यवसाय को होता है। आज जरूरत इस बात की है कि दंगों के असली कारण, साजिश को सामने लाया जाए तथा मैदान में लड़ने वालों की जगह उन लेागों को कानून का कड़ा पाठ पढ़ाया जाए जो घर में बैठ कर अपने निजी स्वार्थ के चलते लोगों को भड़काते हैं व देश के विकास को पटरी से नीचे लुढकाते हैं। दुखद यह भी है कि दंगों के दौरान कोई भी राजनीतिक दल खुल कर षंाति की अपील या प्रयास के साथ सामने नहींे आता है। बाद में प्रशासन या सत्त पर आरोप लगाने वाले तो बहुत सामने आते हैं, लेकिन जब लोगों को संभालने की जरूरत होती है तब सभी दल घरों में दुबक कर खुद को एक संप्रदाय का बना लेते हैं।

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

drought in Bundelkhand is not a water crisis, it is ecological problem

बुंदेलखंड याने जल संकट पलायन और बेबसी!
बुंदेलखंड याने जल संकट, पलायन और बेबसी! असल में यहां सूखा पानी का नहीं है, पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही सूख गया है। इस चक्र में जल संसाधन, जमीन, जंगल, पेड़, जानवर व मवेशी, पहाड़ और वहां के बाशिंदे शामिल हैं
पंकज चतुर्वेदी
बुंदेलखंड याने जल संकट, पलायन और बेबसी! असल में यहां सूखा पानी का नहीं है, पूरा पर्यावरणीय तंत्र ही सूख गया है। इस चक्र में जल संसाधन, जमीन, जंगल, पेड़, जानवर व मवेशी, पहाड़ और वहां के बाशिंदे शामिल हैं। इन सभी पक्षों के क्षरण को थामने के एकीकृत प्रयास के बगैर यहां के हालत सुधरेंगे नहीं, चाहे यहां के सभी नदी-तालाब पानी से लबालब भी हो जाएं। 

टीकमगढ़ जिले के गांवों की 40 फीसदी आबादी महानगरों की ओर रोजगार के लिए पलायन कर चुकी हैं। छतरपुर, दमोह, पन्ना के हालात भी लगभग ऐसे ही हैं। असल में इस इलाके के जीवकोपार्जन का मूल जरिया खेती है और खेती भी बरसात पर निर्भर। बीते दस सालों में यह आठवां साल रहा, जब औसत से बहुत कम बरसात से यहां की धरती रीती रह गई। अनुमान है कि मध्यप्रदेश के हिस्से के बुंदेलखंड में कुछ 30 लाख हैक्टयर जमीन है, जिसमें से 24 लाख हैक्टयर खेती के लायक है। लेकिन इसमें से सिंचाई की सुविधा महज चार लाख हैक्टयर को ही उपलब्ध है। केंद्र सरकार की एक रपट बताती है कि बुंदेलखंड में बरसात का महज 10 फीसदी पानी ही जमा हो पाता है। शेष पानी बड़ी नदियों में बहकर चला जाता है। असल में यहां की पारंपरिक जल-संचय व्यवसाय का दुश्मन यहीं का समाज बना है। 
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बुंदेलखंड के सभी गांव, कस्बे, शहर की बसाहट का एक ही पैटर्न रहा है-चारों ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड, पहाड़ की तलहटी में दर्जनों छोटे-बड़े ताल-तलैयां और उनके किनारों पर बस्ती। पहाड़ के पार घने जंगल व उसके बीच से बहती बरसाती या छोटी नदियां। टीकमगढ़ जैसे जिले में अभी तीन दशक पहले तक हजार से ज्यादा तालाब थे। पक्के घाटों वाले हरियाली से घिरे व विशाल तालाब बुंदेलखड के हर गांव-कस्बे की सांस्कृतिक पहचान हुआ करते थे। ये तालाब भी इस तरह थे कि एक तालाब के पूरा भरने पर उससे निकला पानी अगले तालाब में अपने आप चला जाता था, यानी बारिश की एक-एक बूंद संरक्षित हो जाती थी। चाहे चरखारी को लें या छतरपुर को सौ साल पहले वे वेनिस की तरह तालाबों के बीच बसे दिखते थे। अब उपेक्षा के शिकार शहरी तालाबों को कंक्रीट के जंगल निगल गए। रहे-बचे तालाब शहरों की गंदगी को ढोनेे वाले नाबदान बन गए। 
बुंदेलखंड का कोई गांव-कस्बा ले लें, हर जगह चार दशक पहले की सीमा तय हरने वालें पहाड़ों पर जमकर अतिक्रमण हुआ। छतरपुर में तो पहाड़ों पर दो लाख से ज्यादा आबादी बस गई। पहाड़ उजड़े तो उसकी हरियाली भी गई। और इसके साथ ही पहाड़ पर गिरने वाले पानी की बूंदों को संरक्षित करने का गणित भी गड़बड़ा गया। जो बड़े पहाड़ जंगलों में थे, उनको खनन माफिया चाट गया। आज जहां पहाड़ होना था, वहां गहरी खाईयां हैं। पहाड़ उजड़े तो उसकी तली में सजे तालबों में पानी कहां से अता व उनको रीत रहना ही था। इस तरह गांवों की अर्थ व्यवस्था का आधार कहलाने वाले चंदेलकालीन तालाब सामंती मानसिकता के शिकार हो गए। सनद रहे बुंदेलखंड देश के सर्वाधिक विपन्न इलाकों में से है। यहां ना तो कल-कारखाने हैं और ना ही उद्योग-व्यापार। महज खेती पर यहां का जीवनयापन टिका हुआ है। 
यहां मवेशी ना केवल ग्रामीण अर्थ व्यवस्था का आधार होते हैं, बल्कि उनके खुरों से जमीन का बंजरपन भी समाप्त होता है। सूखे के कारण पत्थर हो गई भूमि पर जब गाय के पग पड़ते हैं तो वह जल सोखने लायक भुरभुरी होती है। विडंबना है कि समूचे बुंदेलखंड में सार्वजनिक गौचर भूमियों पर जम कर कब्जे हुए और आज गौ पालकों के सामने उनका पेट भरने का संकट है, तभी इन दिनों लाखों लाख गायें सड़कों पर आवारा घूम रही हैं। जब तक गौचर, गाय और पशु पालक को संरक्षण नहीं मिलेगा, बुंदेलखंड की तकदीर बदलने से रही। 
कभी बुंदेलखंड के 45 फीसदी हिस्से पर घने जंगल हुआ करते थे। आज यह हरियाली सिमट कर छह प्रतिशत रह गई है। छतरपुर सहित कई जिलों में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ी भी दो सौ किलोमीटर दूर से मंगवानी पड़ रही है। यहां के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों सौर, कौंदर, कौल और गोंड़ो की यह जिम्मेदारी होती थी कि वे जंगल की हरियाली बरकरार रखे। ये आदिवासी वनोपज से जीवीकोपार्जन चलाते थे, सूखे गिरे पेड़ों को ईधन के लिए बेचते थे। लेकिन आजादी के बाद जंगलों के स्वामी आदिवासी वनपुत्रों की हालत बंधुआ मजदूर से बदतर हो गई। ठेकेदारों ने जम के जंगल उजाड़े और सरकारी महकमों ने कागजों पर पेड़ लगाए। बुंदेलखंड में हर पांच साल में दो बार अल्प वर्षा होना कोई आज की विपदा नहीं है। फिर भी जल, जंगल, जमीन पर समाज की साझी भागीदारी के चलते बुंदेलखंडी इस त्रासदी को सदियों से सहजता से झेलते आ रहे थे ।
बुंदेलखंड की असली समस्या अल्प वर्षा नहीं है, वह तो यहां सदियों, पीढ़ियों से होता रहा है। पहले यहां के बाशिंदे कम पानी में जीवन जीना जानते थे। आधुनिकता की अंधी आंधी में पारंपरिक जल-प्रबंधन तंत्र नष्ट हो गए और उनकी जगह सूखा और सरकारी राहत जैसे शब्दों ने ले ली। अब सूखा भले ही जनता पर भारी पड़ता हो, लेकिन राहत का इंतजार सभी को होता है-अफसरों, नेताओं-सभी को। यही विडंबना है कि राजनेता प्रकृति की इस नियति को नजरअंदाज करते हैं कि बुंदेलखंड सदियों से प्रत्येक पांच साल में दो बार सूखे का शिकार होता रहा है और इस क्षेत्र के उद्धार के लिए किसी तदर्थ पैकेज की नहीं बल्कि वहां के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की दरकार है। इलाके में पहाड़ कटने से रोकना, पारंपरिक बिरादरी के पेड़ो वाले जंगलों को सहेजना, पानी की बर्बादी को रोकना, लोगों को पलायन के लिए मजबूर होने से बचाना और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देना; महज ये पांच उपचार बुंदेलखंड की तकदीर बदल सकते हैं।
पलायन, यहां के सामाजिक विग्रह का चरम रूप है। मनरेगा भी यहां कारगर नहीं रहा है। स्थानीय स्तर पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने के साथ-साथ गरीबों का शोषण रोक कर इस पलायन को रोकना बेहद जरूरी है। यह क्षेत्र जल संकट से निबटने के लिए तो स्वयं समर्थ है, जरूरत इस बात की है कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर परियोजनाएं तैयार की जाएं। विशेषकर यहां के पारंपरिक जल स्त्रोतों का भव्य अतीत स्वरूप फिर से लौटाया जाए। यदि पानी को सहेजने व उपभोग की पुश्तैनी प्रणालियों को स्थानीय लोगों की भागीदारी से संचालित किया जाए तो बुंदेलखंड का गला कभी रीता नहीं रहेगा।


यदि बुंदेलखंड के बारे में ईमानदारी से काम करना है तो सबसे पहले यहां के तालाबों, जंगलों और गौचर का संरक्षण, उनसे अतिक्रमण हटाना, तालाब को सरकार के बनिस्बत समाज की संपत्ति घोषित करना सबसे जरूरी है। नारों और वादों से हट कर इसके लिए ग्रामीण स्तर पर तकनीकी समझ वाले लोगों के साथ स्थाई संगठन बनाने होंगे। दूसरा इलाके पहाड़ों को अवैध खनन से बचाना, पहाड़ों से बह कर आने वाले पानी को तालाब तक निर्बाध पहुंचाने के लिए उसके रास्ते में आए अवरोधों, अतिक्रमणों को हटाना जरूरी है। बुंदेलखंड में बेतवा, केन, केल, धसान जैसी गहरी नदियां हैं जो एक तो उथली हो गई हैं, दूसरा उनका पानी सीधे यमुना जैसी नदियों में जा रहा है। इन नदियों पर छोटे-छोटे बांध बांध कर या नदियों को पारंपरिक तालबों से जोड़कर पानी रोका जा सकता है। हां, केन-धसान नदियों को जोड़ने की अरबों रूपए की योजना पर फिर से विचार भी करना होगा, क्योंकि इस जोड़ से बुंदेलखंड घाटे में रहेगा। सबसे बड़ी बात, स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों की निर्भरता बढ़ानी होगी। अब चाहे राज्य अलग बने या नहीं यदि बुंदेलखंड के विकास का मॉडल नए सिरे से नहीं बनाया गया तो ना तो सूरत बदलेगी और ना ही सीरत।
    (लेखक सम्प्रति नेशनल बुक ट्रस्ट के सहायक संपादक)

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