दंगे देश को पीछे ढकेलते हैंे
पंकज चतुर्वेदी
जिस व्यापार, धंधे, प्रापर्टी, मानव संसाधन और सबसे बड़ी बात भरोसे का निर्माण करने में इंसान व मुल्क को दशकों लगते हैं, उसे बर्बाद करने में पल भी लगता। महज कोई क्षणिक आक्रोश, विद्वेश या साजिश की आग में समूची मानवता और रिश्ते झुलस जाते हैं और पीछे रह जाती हैं संदेह, बदले और सियासती दांव पेंच की इबारतें। विश्व में न्याय, आपसी प्रेम और समानता के प्रतीक माने जाने वाले भगवान राम के जन्मदिन के अवसर पर पिछले दिनों बिहार और बंगाल में कई जिलों में भयानक दंगे हुए। गुजरात के आणंद व वडोदरा से ले कर राजस्थान के बूंदी व देश के कोई 70 स्थानों पर तनाव हुआ। सभी जगह एक सी कहानी - षोभा यात्रा निकली, किसी ने पत्थर उछाला या किसी दूसरे मजहब के धार्मिक स्थल पर बेअदबी हुई और षुरू हो गया पथराव। अभी यह थमा ही था कि देश जातीय हिंसा की चपेट में आ गया। कुछ ही घंटे में दुकानें, वाहन, बाजार जलाए गए। ऐसा ही दशकों से होता आ रहा है। असल में इससे न तो किसी धर्म को हानि होती है और न ही लाभ लेकिन देश जरूर कई साल पीछे खिसक जाता है। हर बार की तरह इन दंगों का भी अपना अर्थशास्त्र है।
आजादी के बाद सन 1964 में कलकत्त, राऊरकेला और जमशेदपुर में कई दिनों तक खूनखराबा हुआ था, जिसमें 2000 से ज्यादा लोग मारे गए थे। जांच आयोग ने पाया था कि असल में दंगा भड़काने के पीछे षराब के ठेकों पर कब्जा करने वाली लॉबी के निजी टकराव थे। मार्च-1968 में असम के करीम गंज में एक मुसलमान किसान की गाय एक हिंदू के खेत में घुस गई, आपसी झगड़ा इतना विकराल हो गया कि दंगे में 82 लोग मारे गए। अक्तूबर-1977 के बनारस दंगे में 36 जानें गई थीं व इसके पीछे का कारण एंग्लो-बंगाली कालेज के मैदान में जुलाहों द्वारा अपना तागा सुखाने का साधारण सा विवाद था। मार्च-1978 में संभल के दंगे का कारण पदो स्मगलरों के गुटों का आपसी विवाद पाया गया था। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिंख दंगों में तीन हजार से ज्यादा सिखों की जान और अरबों की संपत्ति नश्ट की गई थी। इसके लिए कईं जांच आयोग, कई विशेश दल गठित हुए, यदि कईं की गंभीरता से जांच करें तो यह संगठित अपराध, लूटपाट, राजनीति का घालमेल नजर आता है।
यह भी समझ लेना चाहिए कि दंगों की जड़ धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि आर्थिक-सामाजिक कारण हैं। उड़ीसा की कुल आबादी (2001 जनगणना) 36,804,660 है, इसमें ईसाई महज 897861 हैं, यानी कुल आबादी का ढ़ाई फीसदी भी नहीं। ज़ाहिर है कि ईसाई इतने कम हैं कि उनसे किसी तरह के खतरे का डर हिंदुओं में नहीं होना चाहिए। लेकिन अगस्त-सितंबर-2008 के दौरान उड़ीसा के कंधमाल जिले में केंद्रीय बलों की मौजूदगी के बावजूद ईसाईयों के घरों, पूजा स्थलों, संपत्तियों को आग के हवाले किया जाता रहा। इस हिंसा में कई लोग मारे गए और हमलों से भयाक्रांत ईसाई लोग जंगलों में छिप कर जीवन काटते दिखे। अखबारी बयानबाजी से तो यही मालूम होता है कि ईसाई मिशनियरियों द्वारा जबरन धर्मांतरण से आक्रोशित कतिपय हिंदुवादी संगठन ये हमले कर रहे हैं। हिंदुवादी संगठनों का दावा है कि यह स्थानीय जनता का ईसाईयों के धार्मिक-दुष्प्रचार के विरोध में गुस्सा है। लेकिन हकीकत और कहीं दबी हुई थी-कंधमाल में ‘पाना’ नामक एक दलित जाति का बाहुल्य है। बेहद गरीब, अशिक्षित और शोषित रहे हैं पाना लोग। कुछ दशकों पहले ‘पाना’ लोगों के ईसाईयत को स्वीकार करना शुरू किया तो उनकी शैक्षिक और आर्थिक हालत सुधरने लगी। इसका सीधा असर उन साहूकारों और सामंतों पर पड़ा, जिनकी तिजोरियां ‘पानाओं’ की अशिक्षा व नादानी से भरती थीं।यह घटना गवाह है कि दंगे के निहितार्थ और कहीं होते हैं। सन 2002 के गुजरात दंगों में बहुत सी कहानियां आपसी रंजिश को भुनाने या व्यावसायिक व राजनीतिक प्रतिद्वंदी को ठिकाने लगाने की साजिशेां की हैं। जरा याद करें 27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस में 50 कार सेवकों (25 महिलाएं व 15 बच्चे) को जिंदा जला देने के बाद गुजरात के 25 में से 16 जिलों के 151 शहर और 993 गांवों में मुसलमानों पर योजनाबद्ध हमले हुए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इन दंगों में कुल 1044 लोग मारे गए, जिनमें 790 मुसलमान और 254 हिंदू थे। यहां व्यापारी वर्ग के डरपोक कहे जाने वाले ‘बोहरों’ के व्यवसाय-दुकानों का निशाना बना कर फूंका गया। मुसलमानों की होटलों, वाहनों को बाकायदा नक्शा बना कर नश्ट किया गया, बाद में पता चला कि असल खुन्नस तो व्यापारिक प्रतिद्वंदिता की थी, जिसे सांप्रदायिक रंग दे दिया गया। यह बात ब और पुख्ता हो गई जब दंगों के बाद गुजरात के गांवों में मुसलमानेां की दुकानों से सामान ना खरीदन जैसे पर्चें बांटे गए। उत्तर प्रदेश में कई बार दंगों की वजह सरकारी संपत्ति पर कब्जा कर रही है। अभी 2014 में सहारनपुर में सिखों व मुसलमानेां के बीच हुए तनाव का असली कारण सरकारी जमीन पर धार्मिक स्थल के नाम पर कब्जा करने की साजिश के तौर पर सामने आया था।
इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारत में हिंदू और मुसलमान गत् 1200 वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं। डेढ़ सदी से अधिक समय तक तो पूरे देश पर मुगल यानी मुसलमान शासक रहे। इस बात को समझना जरूरी है कि 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों को यह पता चल गया था कि इस मुल्क में हिंदू और मुसलमानों के आपसी ताल्लुक बहुत गहरे हैं और इन दोनों के साथ रहते उनका सत्ता में बना रहना मुश्किल है। एक साजिश के तहत 1857 के विद्रोह के बाद मुसलमानों को सताया गया, अकेले दिल्ली में ही 27 हजार मुसलमानों का कत्लेआम हुआ। अंग्रेज हुक्मरान ने दिखाया कि हिंदू उनके करीब है।। लेकिन जब 1870 के बद हिंदुओं ने विद्रोह के स्वर मुखर किए तो अंग्रेज मुसलमानों को गले लगाने लगे। यही फूट डालो और राज करो की नीति इतिहास लेखन, अफवाह फैलाने में काम आती रही
यह तथ्य भी गौरतलब है कि 1200 साल की सहयात्रा में दंगों का अतीत तो पुराना है नहीं। कहा जाता है कि अहमदाबाद में सन् 1714, 1715, 1716 और 1750 में हिंदू मुसलमानों के बीच झगड़े हुए थे। उसके बाद 1923-26 के बीच कुछ जगहों पर मामूली तनाव हुए । सन् 1931 में कानपुर का दंगा भयानक था, जिसमें गणेश शंकर विद्यार्थी की जान चली गई थी। दंगें क्यों होते हैं? इस विषय पर प्रो. विपिन चंद्रा, असगर अली इंजीनियर से ले कर सरकार द्वारा बैठाए गए 100 से ज्यादा जांच आयोगों की रिपोर्ट तक साक्षी है कि झगड़े ना तो हिंदुत्व के थे ना ही सुन्नत के। कहीं जमीनों पर कब्जे की गाथा है तो कहीं वोट बैंक तो कहीं नाजायज संबंध तो कहीं गैरकानूनी धंधे।
सन् 1931 में कानपुर में हुए दंगों के बाद कांग्रेस ने छह सदस्यों का एक जांच दल गठित किया था। सन् 1933 में जब इस जांच दल की रिपोर्ट सार्वजनिक की जानी थी तो तत्कालीन ब्रितानी सरकार ने उस पर पाबंदी लगा दी थी। उस रिपोर्ट में बताया गया था कि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद सदियों से ये दोनों समाज दुर्लभ सांस्कृतिक संयोग प्रस्तुत करते आए हैं। उस रिपोर्ट में दोनों संप्रदायों के बीच तनाव को जड़ से समाप्त करने के उपायों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था -धार्मिक-शैक्षिक, राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक। उस समय तो अंग्रेजी सरकार ने अपनी कुर्सी हिलती देख इस रिपोर्ट पर पाबंदी लगाई थी। आज कतिपय राजनेता अपनी सियासती दांवपेंच को साधने के लिए उस प्रासंगिक रिपोर्ट को भुला चुके हैं। मुंबई दंगों की श्रीकृश्ण आयोग की रपट का जिन्न तो कोई भी सरकार बोतल से बाहर नहीं लाना चाहती।
यह जानना जरूरी है कि वैचारिक या सांप्रदायिक हिंसा केवल भारत की ही समस्या नहीं है, मिश्रित समाज के देशों, विशेषकर तीसरी दुनिया के देशों का यह चरित्र बन गई है। पूरा दक्षिण एशिया इस त्रासदी का शिकार है। पाकिस्तान में मुहाजिर, शिया-सुन्नी टकराव है तो श्रीलंका में तमिलों के। मालदीव जैसा देश भी हिंसक टकरावों को झेल रहा है। विकास का पहिया जब तेज घूमता है तो अल्पसंख्यक, गरीब इसकी चपेट में सबसे पहले आते हैं, परिणाम स्वरूप वे कुछ आक्रामक हो जाते हैं। ऐसे में संसाधनों पर कब्जा किए बैठे सभ्रांत वर्ग को इन शोषितों के गुस्से का यदा-कदा सामना करना पड़ता है और यही दंगे या टकरावों का गणित है।
मुसलमान ना तो नौकरियों में है ना ही औद्योगिक घरानों में, हां हस्तकला में उनका दबदबा जरूर है। लेकिन विडंबना है कि यह हुनरमंद अधिकांश जगह मजदूर ही हैं। यदि देश में दंगों को देखें तो पाएंगे कि प्रत्येक फसाद मुसलमानों के मुंह का निवाला छीनने वाला रहा है। भागलपुर में बुनकर, भिवंडी में पावरलूम, जबलपुर में बीडी, मुरादाबाद में पीतल, अलीगढ़ में ताले, मेरठ में हथकरघा..., जहां कहीं दंगे हुए मजदूरों के घर जलें, उनमे कुटीर उद्योग चौपट हुए। एस. गोपाल की पुस्तक ‘‘द एनोटोमी ऑफ द कन्फ्रंटेशन’’ में अमिया बागछी का लेखन इस कटु सत्य को उजागर करता है कि सांप्रदायिक दंगे मुसलमानों की एक बड़ी तादाद को उन मामूली धंधों से भी उजाड़ रहे हैं जो उनके जीवनयापन का एकमात्रा सहारा है। (प्रिडेटरी कर्मशलाईजेशन एंड कम्यूनिज्म इन इंडिया)। गुजरात में दंगों के दौरान मुसलमानों की दुकानों को आग लगाना, उनका आर्थिक बहिष्कार आदि गवाह है कि दंगे मुसलमानों की आर्थिक गिरावट का सबसे कारण है। यह जान लें कि उ.प्र. में मुसलमानों के पास सबसे ज्यादा व सबसे उपजाऊ जमीन और दुधारू मवेशी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही हैं। चार साल पहले हुआ दंगा मुसलमानेां को इस पुश्तैनी धंधे से मरहूम करने की बड़ी साजिश ही था ।
दंगे मानवता के नाम पर कलंक हैं। धर्म, भाषा, मान्यताओं, रंग जैसी विषमताओं के साथ मत-विभाजन होना स्वाभाविक है। लेकिन जब सरकार व पुलिस में बैठा एक वर्ग खुद सांप्रदायिक हो जाता है तो उसकी सीधी मार निरपराध, गरीब और अशिक्षित वर्ग पर पड़ती है। यही हमारे देश में होता है फिर सवाल केवल मुसलमान से ही क्यों पूछा जाता है?
एक बारगी लगता हो कि दंगे महज किसी कौम या फिरके को नुकसान पहुंचाते हैं, असल में इससे नुकसान पूरे देश के विकास, विश्वास और व्यवसाय को होता है। आज जरूरत इस बात की है कि दंगों के असली कारण, साजिश को सामने लाया जाए तथा मैदान में लड़ने वालों की जगह उन लेागों को कानून का कड़ा पाठ पढ़ाया जाए जो घर में बैठ कर अपने निजी स्वार्थ के चलते लोगों को भड़काते हैं व देश के विकास को पटरी से नीचे लुढकाते हैं। दुखद यह भी है कि दंगों के दौरान कोई भी राजनीतिक दल खुल कर षंाति की अपील या प्रयास के साथ सामने नहींे आता है। बाद में प्रशासन या सत्त पर आरोप लगाने वाले तो बहुत सामने आते हैं, लेकिन जब लोगों को संभालने की जरूरत होती है तब सभी दल घरों में दुबक कर खुद को एक संप्रदाय का बना लेते हैं।
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