My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 24 नवंबर 2019

control on paddy crop which cause pollution

पराली की समस्या को नहीं उसके कारण को देखें

हर साल अक्तूबर-नवंबर में दिल्ली और उसके आसपास जैसे ही घना स्मॉग छाता है, इसका सारा दोष पंजाब-हरियाणा के किसानों के पराली जलाने पर डाल दिया जाता है। कई किसानों पर जुर्माना ठोका जाता है, कई किसान जेल जाते हैं, खूब चर्चा होती है। इसके आगे कुछ नहीं होता। जब समस्या खड़ी होती है, तो कुछ ऐसी मशीनों के सुझाव आते हैं, जिनसे पराली को नष्ट किया जाए। कई उससे ईंधन बनाने और उर्वरा शक्ति बढ़ाने के सपने बेचते हैं। कुछ लोग सरकार से सब्सिडी देने के जुमले उछालते हैं। लेकिन इससे जुडे़ कुछ दूसरे मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता।
मान लिया कि इस मौसम में स्वच्छ हवा का खलनायक पराली ही है। अब सरकार पराली को खेत में ही जज्ब करने के उपकरण बेच रही है, इसके लिए सब्सिडी दे रही है, लेकिन किसान के पास अगली फसल की बुवाई के लिए समय कम होता है, सो वे पराली को जलाने में अपना भला देखते हैं। हरियाणा-पंजाब सदियों से कृषि प्रधान प्रदेश रहे हैं, फिर पराली का समस्या अभी ही क्यों उभरी? इस पूरे इलाके का सच यही है कि यहां पारंपरिक रूप से धान की फसल होती ही नहीं थी। पंजाब और हरियाणा में छोले-राजमा-गेहूं, तो राजस्थान में मोटा अनाज और अच्छी बरसात वाले पश्चिम बंगाल या दक्षिणी राज्यों में चावल की पैदावार का चलन था। प्रकृति ने तो खेती को स्थानीय समाज का पेट भरने के लिए अन्न दिया, मगर इसे लाभ का धंधा बनाने की फिराक में रेगिस्तान से सटे पंजाब-हरियाणा में धान की खेती होने लगी। एक तो भाखड़ा नांगल बांध ने खूब पानी दिया, फिर उपज अच्छी हुई, तो किसानों ने भूगर्भ का जल जमकर उलीचा। तिस पर सरकार ने किसान की बिजली मुफ्त कर दी, जमीन से पानी निकालने पर कोई रोक नहीं लगाई। फिर जितना धान उगाओ, उसकी सरकारी खरीद।
पंजाब में जहां पारंपरिक भोजन चावल नहीं है, वर्ष 1980-81 में 11.78 लाख हेक्टेयर में धान बोई जाती थी, वर्ष 2014-15 में इसका रकबा 28.94 लाख हेक्टेयर हो गया। वर्ष 2018 में राज्य में 31 लाख 50 हजार हेक्टेयर में धान की खेती हुई। हालांकि इस बार दावा है कि धान 30 लाख हेक्टेयर से ज्यादा में नहीं लगाई जाएगी। हरियाणा और पंजाब में एक किलो धान पैदा करने में 5,389 लीटर पानी की खपत होती है। वहीं पश्चिम बंगाल में एक किलो धान उगाने के लिए केवल 2,713 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। जिन इलाकों में पारंपरिक रूप से जल प्रचुर मात्रा में है और जहां का पारंपरिक भोजन चावल है, जैसे- दक्षिणी राज्य, धान का कटोरा कहलाने वाला छत्तीसगढ़, ओडिशा का कुछ हिस्सा, पश्चिम बंगाल आदि में धान की खेती पुश्तों या कई सदियों से होती चली आ रही है।
साल 2014-15 में भारत ने करीब 37 लाख टन बासमती चावल का निर्यात किया। इतना बासमती चावल उगाने के लिए 10 खरब लीटर पानी खर्च हुआ। कहा जा सकता है कि भारत ने 37 लाख टन बासमती ही नहीं, उसके साथ लगभग 10 खरब लीटर पानी भी दूसरे देशों को भेज दिया, जबकि पैसे सिर्फ चावल के मिले। यही चावल केवल पानी ही नहीं, वायु प्रदूषण का भी कारण बनता दिख रहा है।
क्या ऐसे हालात में धान की खेती को हतोत्साहित करने की जरूरत नहीं है? जो धान जमीन का पानी पी गया, जिस धान की खेती में इस्तेमाल रसायन से सारी जमीन, फसल, जल-स्रोत जहरीले हो गए, इतने जहरीले कि गांव के गांव कैंसर के शिकार हैं, उसकी जगह फल-सब्जी या अन्य ऐसी फसल, जिसकी तात्कालिक मांग दिल्ली-एनसीआर या विदेशों में भी है, लगाने के लिए किसानों को क्यों नहीं तैयार किया जा रहा? हालांकि इस साल हरियाणा सरकार ने पानी बचाने के इरादे से धान की जगह मक्के की खेती करने वालों को नि:शुल्क बीज व पांच हजार रुपये के अनुदान की घोषणा की है, वह प्रकृति को बचाने का बहुत बड़ा कदम है। धान की खेती को हतोत्साहित करने के लिए भूजल नियंत्रण, धन की जगह दीगर नगदी फसल की बुवाई को प्रेरित करने, धान के खेतों को बिजली के बिल में छूट घटाने जैसे सख्त कदम उठाना जरूरी है। वरना हम आने वाली हर सर्दी में पराली के प्रदूषण और पूरे साल पानी की कमी के लिए ऐसे ही विलाप करते रहेंगे।

शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

Not only Delhi. Most part of country needs clean water to drink


दिल्ली ही नहीं देश को चाहिए स्वच्छ जल



पंकज चतुर्वेदी

ब्यूरो आफ इंडियन स्टेंडर्ड ने एक आकलन क्या जारी किया कि संसद से सड़क तक बस दिल्ली  के दूषित पेयजल पर हंगामा हो रहा है। हकीकत तो यह है कि ये आंकड़े महज बड़े  शहरों के जारी किए गए हैं जहां आम लोग ऐसे खतरों से डर की वाटर प्यूरीफायर खरीद सकते हैं। यदि सरकारी रिपोर्ट पर जाएं तो देश की अधिकांश आबादी को  पीने के लिए साफ पानी मिल ही नहीं रहा है। और इसका मूल कारण यह है कि गौरतलब है कि ग्रामीण् भारत की 85 फीसदी आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है।  एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है , दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है जो यदि दूशित हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। दिल्ली में भी पानी की गुणवत्ता माकूल ना होने का कारण भूजल की बगैर शोधन के सप्लाई ही है। वास्तव में भूजल पीने के लिए है ही नहीं और पीने के लायक पानी की मुख्य स्त्रोत नदियां जल की जगह बालू के लिए इस्तेमाल हो रही हैं। नदियों को गंदे पानी का नाबदान बना दिया गया और महज लक्ष्य पाने की फिराक में  धरती का सीना खोद कर उलेछे गए बेतहाशा पानी ने पर्यावरण संतुलन तो बिगाड़ा ही , पीने वालों का पेट भी।

अगस्त, 2018 में सरकार की ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकारी योजनाएं प्रति दिन प्रति व्यक्ति सुरक्षित पेयजल की दो बाल्टी प्रदान करने में विफल रही हैं जोकि निर्धारित लक्ष्य का आधा था। रिपोर्ट में कहा गया कि खराब निष्पादन और घटिया प्रबंधन के चलते सारी योजनएं अपने लक्ष्य से दूर होती गईं । कारण वितरित करने में विफल रही। भारत सरकार ने प्रत्येक ग्रामीण व्यक्ति को पीने, खाना पकाने और अन्य बुनियादी घरेलू जरूरतों के लिए स्थायी आधार पर गुणवत्ता मानक के साथ पानी की न्यूनतम मात्रा उपलब्ध करवाने के इरादे से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम सन 2009 में शुरू किया था। इसमें हर घर को परिषोधित जल घर पर ही या सार्वजनिक स्थानों पर नल द्वारा मुहैया करवाने की योजना थी। इसमें सन 2022 तक देष में षत प्रतिषत षुद्ध पेयजल आपूर्ति का संकल्प था।

सभी को सुरक्षित पानी ना मिल पाने, देश की जल-क्षमता और नदियों के आंकड़ों को एकसाथ रखें तो समझ आ जाएगा कि कमी पानी की नहीं, प्रबंधन की है। यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देष का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 32.7 लाख वर्गमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1913.6 अरब घनमीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिषत है।  आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिष के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं। बढ़ती गरमी, घटती बरसात और जल संसाधनों की नैसर्गिकता से लगातार छेड़छाड़ का ही परिणाम है कि बिहार की 90 प्रतिषत नदियों में पानी नहीं बचा। गत तीन दषक के दौरान राज्य की 250 नदियों के लुप्त हो जाने की बात सरकारी महकमे स्वीकार करते हैं। झारखंड के हालात कुछ अलग नहीं हैं, यहां भी 141 नदियों के गुम हो जाने की बात फाईलों में तो दर्ज हैं लेकिन  उनकी चिंता किसी को नहीं । राज्य की राजधानी  रांची में करमा नदी देखते ही देखते अक्रिमण के घेर में मर गई। हरमू और जुमार नदियों को नाला तो बना ही दिया है। नदियां के बहते पानी की जगह जब भूजल की सप्लाई बढ़ी तो उसके साथ ही वाटर प्यूरीफायर या बोतलबंद पानी का ध्ंाधा बए़ गया। आरओ तकनीक पर आधारित वाटर प्यूरीफायर जहां  पानी की बर्बादी व जल के कई अनिवार्य लवणों की हत्या कर देते हैं वहीं बोतलबंद पानी  कई हजार करोड़ के व्यवसाय के साथ-साथ प्लास्टिक बोतलों के रूप में गहन कचरा-संकट पैदा करता है।
दिल्ली में घर पर नलों से आने वाले एक हजार लीटर पानी के दाम बामुश्किल चार रूपए होता है। जो पानी बोतल में पैक कर बेचा जाता है वह कम से कम पंद्रह रूपए लीटर होता है यानि सरकारी सप्लाई के पानी से शायद चार हजार गुणा ज्यादा। इसबे बावजूद स्वच्छ, नियमित पानी की मांग करने के बनिस्पत दाम कम या मुफ्त करने के लिए हल्ला-गुल्ला करने वाले असल में बोतल बंद पानी की उस विपणन व्यवस्था के सहयात्री हैं जो जल जैसे प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी, परिवेश में प्लास्टिक घेालने जैसे अपराध और जल के नाम पर जहर बांटने का काम धड़ल्ले से वैध तरीके से कर रहे हैं। क्या कभी सोचा है कि जिस बोतलबंद पानी का हम इस्तेमाल कर रहे हैं उसका एक लीटर तैयार करने के लिए कम से कम चार लीटर पानी बर्बाद किया जाता है। 
कहने को पानी कायनात की सबसे निर्मल देन है और इसके संपर्क में आ कर सबकुछ पवित्र हो जाता है। विडंबना है कि आधुनिक विकास की कीमत चुका रहे नैसर्गिक परिवेश में पानी पर सबसे ज्यादा विपरीत असर पड़ा है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज पानी को निर्मल रखने के प्रयासों की जगह बाजार के फेर में फंस कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। इस समय देश में बोतलबंद पानी का व्यापार करने वाली करीब 200 कम्पनियां और 1200 बॉटलिंग प्लांट वैध हैं । इस आंकड़े में पानी का पाउच बेचने वाली और दूसरी छोटी कम्पनियां शामिल नहीं है। इस समय भारत में बोतलबंद पानी का कुल व्यापार 14 अरब 85 करोड़ रुपये का है।
आज दिल्ली ही नहीं पूरे देश को साफ-निरापद पेय जल की जरूरत है। इस पर सियासत या अपने व्यापारिक हित साधने से पहले जान लें कि भारत की परंपरा तो प्याऊ, कुएं, बावड़ी और तालाब खुदवाने की रही है। हम पानी को स्त्रोत से शुद्ध करने के उपाय करने की जगह उससे कई लाख गुणा महंगा बोतलबंद पानी को बढ़ावा दे रहे है।ं पानी के व्यापार को एक सामाजिक समस्या और अधार्मिक कृत्य के तौर पर उठाना जरूरी है वरना हालात हमारे संविधान में निहित मूल भावना के विरीत बनते जा रहे हैं जिसमें प्रत्येक को स्वस्थ्य तरीके से रहने का अधिकार है । ज्यादा पुरानी बात नहीं है अभी तीन साल पहले ही कोई 87 लाख आबादी वाले अमेरिका के सेनफ्रांसिस्को नगर में सरकार व नागरिकों ने मिलकर तय किया कि अब उनके यहां किसी भी किस्म का बोतलबंद पानी  नहीं बिकेगा। संदिग्ध गुणवत्ता, कचरे के अंबार और खर्च के संकट के परिपेक्ष्य में शहर में कई महीनों सार्वजनिक बहस चलीं। इसके बाद निर्णय लिया गया कि शहर में कोई भी बोतलबंद पानी नहीं बिकेगा। प्रशासन ही थोड़ी-थेाड़ी दूरी पर स्वच्छ  परिशोधित  पानी के नलके लगवाएगा तथा हर जरूरतमंद वहां से पानी भर सकता है। लोगों का विचार था कि जो जल प्रकृति ने उन्हें दिया है उस पर मुनाफाखोरी नहीं होना चाहिए।

बुधवार, 20 नवंबर 2019

Only technology can not change breath of delhi

महज तकनीक से संभव नहीं समाधान


बीते पांच वर्षो से हर बार अक्टूबर-नवंबर माह में जब दिल्ली में सांस लेना दूभर हो जाता है, तो कोई ना कोई अदालत सरकार को डांटती-डपटती है, अस्पतालों में मरीज बढ़ते हैं, फिर कुछ दिनों में कोई नया मुद्दा आते ही सबकुछ भुला दिया जाता है। इस बार अदालत ने जापान की हाइड्रोजन आधारित तकनीक, चीन की राजधानी पेइचिंग की जहरीली हवा खींचने वाले टावर के निर्माण और एयर प्योरिफायर जैसी तकनीकों के इस्तेमाल के सुझाव दिए हैं। वास्तविकता यह है कि राजधानी के हालात इतने खराब हैं कि यहां निवारण तकनीक से कहीं ज्यादा ‘प्रिवेंटिव मैनेजमेंट’ की जरूरत है। जैसे कि देश में कचरे के निबटारे के तरीकों को तलाशने से ज्यादा जरूरत कचरा कम करने के तरीकों को दैनिक जीवन में अपनाने की है, ठीक वैसे ही राजधानी दिल्ली में जहरीली हवा को साफ करने के संयंत्र लगाने से ज्यादा जरूरी है कि हवा को प्रदूषित करने वाले कारकों पर ही पूर्ण नियंत्रण हो।
आखिर है क्या दिल्ली का दर्द : देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में सबसे बड़ी जिम्मेदारी धूल-मिट्टी और हवा में उड़ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से 17 फीसद और पैटकॉक जैसे पेट्रो-ईंधन की 16 प्रतिशत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई अन्य कारण हैं, जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि। वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआइआर) और केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान द्वारा हाल ही में दिल्ली की सड़कों पर किए गए एक गहन सर्वेक्षण से यह पता चला है कि दिल्ली की सड़कों पर लगातार जाम लगे रहने और वाहनों के रेंगने से गाड़ियां डेढ़ गुना ज्यादा ईंधन पी रही हैं। जाहिर है कि उतना ही अधिक जहरीला धुआं यहां की हवा में शामिल हो रहा है।
यह भी जानना जरूरी है कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआइ यानी एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलकान दिल्ली में यह आंकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुएं में बड़ी मात्र में हाइड्रोकार्बन होते हैं और तापमान 40 डिग्री के पार होते ही ये हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोन इंसान के शरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है। इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड होते हैं जिनके कारण वायु प्रदूषण से मौत का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। इस खतरे का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण 25 फीसद फेफड़े के कैंसर की वजह है। इस पर काबू पा लेने से हर वर्ष करीब 10 लाख लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकेंगी।
वायु प्रदूषण को और खतरनाक स्तर पर ले जाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। जब पेट्रो पदार्थो को रिफाइनरी में शोधित किया जाता है तो सबसे अंतिम उत्पाद होता है पैटकॉन। इसके दहन से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। चूंकि इसके दाम डीजल-पेट्रोल या पीएनजी से बहुत कम होते हैं, लिहाजा दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के अधिकांश बड़े कारखाने अपनी भट्टियों में इसे ही इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है उससे दोगुना पैटकॉन इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं।
यह स्पष्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्रैफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले डीजल पर चलने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें दिल्ली एनसीआर के हालात को और गंभीर बना रहे हैं। दिल्ली में अपने वाहनों की कमी है नहीं। यदि वास्तव में दिल्ली को जाम से मुक्ति की कल्पना करना है तो इसकी कार्य योजना का आधार सार्वजनिक वाहन बढ़ाना या सड़क की चौड़ाई तक सीमित नहीं रखना होगा, बल्कि महानगर की आबादी को नियंत्रित करने पर भी ध्यान देना होगा। दिल्ली में नए वाहनों की बिक्री रोकने की बात तो दूर अभी तक सरकार मेट्रो में भीड़ नियंत्रण, मेट्रो स्टेशन से लोगों के घरों तक सुरक्षित परिवहन की व्यवस्था तक नहीं कर पाई है। मेट्रो भले ही वायु प्रदूषण को रोके, लेकिन वहां तक पहुंचने का सिस्टम यातायात में व्यवधान पैदा कर हिसाब बराबर कर देता है।
इसके उपाय के तौर पर सरकारी कार्यालयों के समय और बंद होने के दिन अलग-अलग किए जा सकते हैं। स्कूली बच्चों को अपने घर के तीन किलोमीटर के दायरे में ही प्रवेश देने, एक ही कोलोनी में विद्यालय खुलने-बंद होने के समय अलग-अलग कर सड़क पर यातायात प्रबंधन किया जा सकता है।
पेइचिंग से क्या सीखा जाए : बीते सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने जैसे ही कहा कि चीन की तरह विशाल एयर प्योरिफायर लगाए जाएं, सरकारी तंत्र तत्काल सहमत होते हुए सक्रिय हो गया। सनद रहे यही वह तंत्र है जो दो वर्ष पहले अदालत के उस आदेश को मानने को राजी नहीं हुआ था कि सम-विषम योजना में दोपहिया वाहनों को भी शामिल किया जाए। यह वही सरकार है जो एनजीटी के आदेश के बावजूद चार साल में कचरा प्रबंधन और जाम को रोकने पर कोई कदम नहीं उठा सकी। तभी संदेह होता है कि सरकारें लोगों की जान की कीमत पर केवल तिजारत कर रही हैं।
जापान की हाइड्रोजन तकनीक : सुप्रीम कोर्ट में सरकार की तरफ से पैरवी कर रहे महाधिवक्ता तुषार मेहता ने अदालत को जापान की हाइड्रोजन ईंधन आधारित तकनीक की जानकारी दी और अदालत ने भी तीन दिसंबर तक इसका मसौदा पेश करने को कह दिया। हालांकि जापान सरकार अपने एक विश्वविद्यालय के माध्यम से दिल्ली एनसीआर में एक शोध व सर्वे कार्य करवा चुकी है जिसमें आने वाले एक दशक में सार्वजनिक परिवहन व निजी वाहनों में हाइड्रोजन व फ्यूल सेल आधारित तकनीक के इस्तेमाल से कितना व्यापार मिलेगा, उसका आकलन हो चुका है।
सनद रहे कि हाइड्रोजन को ईंधन के रूप में प्रयोग में लाने पर बीते पांच वर्षो में कई सफल प्रयोग हुए हैं। इसमें उत्सर्जन के रूप में शून्य कार्बन होता है और केवल पानी निकलता है। कार बनाने वाली एक कंपनी ने इस पर आधारित कारों का उत्पादन भी शुरू कर दिया है। लेकिन यह तकनीक बेहद महंगी है।
राजधानी दिल्ली समेत आसपास के इलाकों में दिवाली के बाद वायु प्रदूषण का स्तर बेहद भयावह हो जाता है। हालांकि इससे बचाव या इसके समाधान के लिए सरकार अपने स्तर पर प्रयास करती हुई प्रतीत होती है, लेकिन समस्या की भयावहता के सामने वे प्रयास नगण्य या फिर अव्यावहारिक ही मालूम पड़ते हैं। ऐसे में हाल में सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह के उपकरणों से प्रदूषण को कम करने का सुझाव दिया है, उसकी व्यावहारिकता को भी समझना होगा

शनिवार, 16 नवंबर 2019

urban development without dignity

विकास के विस्तारवादी होने से दूषित  हो रहा है पर्यावरण
पंकज चतुर्वेदी


हाल ही में घोषणा  कर दी गई कि दिल्ली की 1797 कालेानियों को अब वैध हो गई। साफ हवा-पानी को तरसती दिल्ली की ये कालोनियां असल में सरकारी जमीन या खेत आदि पर कभी झुग्गी-झोपड़ी के रूप में बसना शुरू  हुई होंगी और अब वहां आलीशान मकान हैं। अभी तक वहां सड़क, पानी, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं का अकाल था और ना ही मालीकाना हक था । सरकार की इस घोशणा से कोई चालीस लाख लोगों के घरोंदे अब कानूनी हो गए। अब वहां जन प्रतिनिधि अपनी विकास निधि का धन खर्च कर सकेंगे। हालांकि यह भी बात सच है कि इन कालोनियों का अनियोजित विकास इस तरह का है कि वहां आधुनिक सीवर या अन्य सुविधाआंें की व्यवस्था करना मुश्किल होगा। बिजली विभाग की मानें तो इन अनधिकृत कॉलोनियों में 30 लाख के करीब मीटर दिए गए हैं। इतनी बड़ी आबादी के चलते चुनावों में हर राजनीतिक दल इनके पीछे भागता हैं। अब इनकी राजनीतिक स्थिति भी मजबूत हुई है। यही वजह है कि दिल्ली के सभी राजनीतिक दलों में एक झुग्गी झोपड़ी प्रकोष्ठ भी बनाया गया है। यह अवैध कालोनी सजाने वालों को एक उम्म्ीद की किरण है और दिल्ली के बदतर हालात की ओर एक कदम।
भारत के 1947 में बंटवारे के बाद लोग यहां आते गए और घर बसाते चले गए। इसके बाद दूसरे प्रदेशों से लोग आए तो जमीन कब्जे में लेकर घर बनाकर रहने लगे। धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ती चली गई। अधिकारियों का कहना है कि उसी हिसाब से कॉलोनियों को चिह्नित किया जाता रहा। 1993 में पहली बार सर्वे के बाद अनधिकृत कॉलोनियों को चिन्हित किया गया। लोगों को ला कर झाुग्गी बसाना और उस जमीन पर कब्जा कर लेना, उसके मुआवजे या मालिकाना हक पाना, उस जमीन की खरीद-फरोख्त करने के दिल्ली में बाकायदा माफिया गिरोह हैं और उनके ताल्लुक सभी सियासती दलों से हैं।  ना ही नेता और ना ही आम लोग समझ रहे हैं कि इस तरह की अवैध कोलानियां असल में दिल्ली को अरबन स्लम बना रही हैं और इसका खामियाजा यहीं कि बाशिंदों को ही भुगतना पड़ रहा है। एक बात और कि इस बार सन 2015 तक के गैरकानूनी कब्जे को ही कानूनी बनाया गया है यानी आगे भी वोट दोहन का यह खेल चलता रहेगा।

लगभग एक साल हो रहा है - दिल्ली से सटा गाजियाबाद देश के सबसे दूषित नगरों में अव्वल बना है। दिल्ली तो है ही जल-जमीन और वायू के दूशित होने का विश्वव्यापी कुख्यात स्थान। जब दिल्ली में आबादी लबालब हो गई तो महानगरीय विस्तार का पूरा दवाब गाजियाबाद पर पड़ा। चूंिक गाजियाबाद भले ही दिल्ली से सटा हो लेकिन अपने राज्य की राजधानी से दूर है, सो यहां के दमघोटूं प्रदूशण का परवाह किसी को है। नहीं राज्य सरकार के लिए यह महज राजस्व कमाने का अड्डा है। यदि गंभीरता से इस बात का आकलन करें तो स्पष्ट होता है कि जिन शहरों में पलायन व रेाजगार के लिए पलायन कर आने वालों की संख्या बढ़ी व इसके चलते उसका अनियेाजित विकास हुआ, वहां के हवा-पानी में ज्यादा जहर पाया जा रहा है। असल में षहरीकरण के कारण पर्यावरण को हो रहा नुकसान का मूल कारण अनियोजित षहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृति पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया।
महज विस्तार ही तो विकास नहीं
यह दुखद है कि आज विकास का अर्थ विस्तार हो गया है। विस्तार- शहर के आकार का, सड़क का, भवन का आदि-आदि। लेकिन बारिकी से देखें तो यह विस्तार या विकास प्राकृतिक संरचनाओं जैसे कि धरती, नदी या तालाब, पहाड़ और पेड़, जीव-जंतु आदि के नैसर्गिक स्थान को घटा कर किया जाता है। नदी के पाट को घटा कर बने रिवर फ्रंट हों या तालाब को मिट्टी से भर कर बनाई गई कालोनियां, तात्कालिक रूप से तो सुख देती है। लेकिन प्रकृति के विपरीत जाना इंसान के लिए संभव नहीं है और उसके दुश्परिणाम कुछ ही दिनों मे ंसामने आ जाते हैं। पीने के जल का संकट, बरसात में जलभराव, आबादी और यातायात बढ़ने से उपजने वाले प्राण वायु का जहरीला होना आदि।
देश के अधिकांश उभरते षहर अब सड़कों के दोनेां ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। ना तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, ना ही सुरक्षा, ना ही बिजली-पानी की न्यूनतम मांग। असल में देश में बढ़े काले धन को जब बैंक या घर मे ंरखना जटिल होने लगा तो जमीन में निवेश के अंधे कुंए का सहरा लिया जाने लगा। इससे खेत की कीमतें बढ़ीं, खेती की लागत भी बढ़ी और किसानी लाभ का काम नहीं रहा गया। पारंपरिक शिल्प और रोजगार की त्यागने वालों का सहारा षहर बने और उससे वहां का अनियोजित व बगैर दूरगामी सोच के विस्तार का आत्मघाती कदम उभरा।

साल दर साल बढता जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और उसके कारण मौसम की अनियमितता,, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल,.. ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील व्यवस्था वाले देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता ‘शहरीकरण’ एक समग्र विशय के तौर लगभग उपेक्षित है। असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का ; सभी के मूल में विकास की वह अवधरणा है जिससे षहररूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता।
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है । सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीनव फलता-फूलता रहा है । बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई । और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर । बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और, उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचाैंंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गयी है । जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे । यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है । इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गयी है । पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैंकड़ा हो गये हैंं । विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है ।
विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले षहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद मे ंयोगदान 70 प्रतिशत होगा। एक बात और बेहद चौकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या षहरों में रहने वाले गरीबों के बबराबर ही है । यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में ‘अरबन स्लम’ या षहरी मलिन बस्तियों में तब्दील ना हो जाए।
दुकानों का भारत
पहले कहा जाता था कि भारत गांवों में बसता है और उसकी अर्थ व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है, लेकिन मुक्त अर्थ व्यवस्था के दौर में यह ‘‘पहचान’’ बदलती सी लग रही है । लगता है कि सारा देश बाजार बन रहा है और हमारी अर्थ व्यवसथा का आधार खेत से निकल कर दुकानों पर जा रहा है । भारत की एक प्रमुख व्यावसायिक संस्था के फौरी सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा दुकानें भारत में हैं । जहां अमेरिका जैसे विकसित या सिंगापुर जैसे व्यापारिक देश में प्रति हजार आबादी पर औसत 7 दुकानें हैं , वहीं भारत में यह आंकड़ा 11 है । उपभोक्ताओं की संख्या की तुलना में भारत सबसे अधिक दुकानों वाला देश बन गया है ।
सवाल यह है कि इस आंकड़े को उपलब्धि मान कर खुश हों या अपने देश के पारंपरिक ढ़ांचे के दरकने की चेतावनी मान कर सतर्क हो जाएं । इस निर्णय के लिए जरूरी है कि इसी सर्वे का अगला हिस्सा देखें, जिसमें बताया गया है कि भारत का मात्र दो प्रतिशत बाजार ही नियोजित है, शेष 98 प्रतिशत असंगठित है और  सकी कोई पहचान नहीं है । यूं भी कहा जा सकता है कि बेतरतीब खुल रहे पान के डिब्बों व चाय की गुमटियों ने हमें यह ‘‘गौरव’’ दिलवा दिया है । यदि दुकानदार अन्यथा ना लें तो यह असंगठित बाजार बहुत हद तक कानून सम्मत भी नहीं है । देश की राजधानी दिल्ली में पिछले कुछ सालों से अवैध दुकानों की सीलिंग का मामला गर्म रहा है ।  व्यापारी संगठन लाखों लेागों के बेराजगार होने की दुहाई देते हुए पांच लाख दुकानों के बंद होने की बातें कर रहे थे । सरकारी रूप से पंजीकृत बाजारों में दुकानों का आंकड़ा भी लगभग इतना ही है । यानी एक करोड़ की आबादी में 10 लाख से ज्यादा दुकानें ! खोके, गुमटी, रेहड़ी पर बाजार अलग, जिन्हें अब कानूनी हक मिल गया है  !! कुल मिला कर देखें तो प्रत्येक 10 आदमी पर एक दुकान !! ! इनमें दलालों, सत्ता के मठाघीशों को जोड़ा नहीं गया है, वरना जितने आदमी, उतनी दुकान भी हो सकती हैं ।
बााजार की चमक ही तो है जिसके मोहपाश में बंध कर एक तरफ खुदरा बाजार में बड़े ब्रांड, बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना दखल बढ़ा रही है तो नई-नई बनती कालेानियों में घर फोड़ कर दुकान बनाने की प्रवृति भी बेंरोकटोक जारी है । अब छोटे कस्बों के बेरोजगार युवकों के शादी -संबंध कुछ हद तक उनके मुख्य सड़क पर स्थित पुश्तैनी मकान पर ही निर्भर हैं । घर के अगले हिस्से में भीतर जाने के लिए एक पतली गली छेाड़ कर दो दुकानें बना ली जाती हैं । एक दुकान में खुद बेरोजगार किसी रेडीमेट गारमेंट, या किराने की दुकान खोल लेता है व दूसरे को किराये पर उठा देता है । फिर यही लोग व्यापारी हित व व्यापारी एकता के नारे लगाते हुए जब-तब सउ़कों पर आ जाते हैं ।
इस तरह आवासीय परिसरों का व्यासायिक हो जाना असल में लोगों के लिए पर्यावास का संकट खड़ा कर रहा है। इसमें सड़कों पर वाहनों की पार्किग व उससे उपजा जाम  लोगों की उमर कम करता है।

बढ़ते षहर उगाते जहर

षहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए, इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। निर्माण कार्य के लिए नदियों के प्रवाह में व्यवधान डाल कर रेत निकाली जाती है तो चूने के पहाड़ खोद कर सीमेंट बनाने की सामग्री। इसके कारण प्रकृति को हो रहे नुकसान की भरपाई संभव ही नहीं है। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्त्रोत, सभी कुछ नश्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है। षहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूशित वायु। षहर को ज्यादा बिजली चाहिए, यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे।
षहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना का परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए , दैनिक कार्यों के लिए , नाकि उसमें गंदगी बहाने के लिए। गांवों के कस्बे, कस्बों के षहर और षहरों के महानगर में बदलने की होड़, एक ऐसी मृग मरिचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत  कुछ देर से खुलती है। दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख का केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है।
षहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का  आसान जरिया होते हैं, यहां दूशित पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है।  देश के सभी बड़े षहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका षमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। एक बार फिर षहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है।
केवल पर्यावरण प्रदूशण ही नहीं, षहर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूशण की भी ंगंभीर समस्या उपजा रहे हैं। लोग अपनों से मानवीय संवेदनाओं से , अपनी लोक परंपराओं व मान्यताओं से कट रहे हैं। इसकी जगह उनका झुकाव आधुनिक किस्म के बाबा-फकीरों, देवताओं और पंथों में बढ़ रहा है, जो अलग किस्म के अंधविश्वास और रूढ़ियों का कारक है।
तो क्या लोग गांव में ही रहें ? क्या विकास की उम्मीद ना करें ? ऐसे कई सवाल षहरीकरण में अपनी पूंजी को हर दिन कई गुणा होते देखने वाले कर सकते हैं। असल में हमें अपने विकास की अवधारणा को ही बदलना होगा- पक्की सड़क, अंग्रेजी दवाई स्थानीय भाशा को छो़ड़ कर अं्रग्रेजी का प्रयोग, भोजन व कपड़े का पाश्चात्यीकरण असल में विकास नहीं है। यदि कोई चमड़े का काम करने वाला है, वह अपने काम को वैज्ञानिक तरीके से करना सीखता है, आपे श्रम की वास्तविक कीमत वसूलने के प्रति जागरूक होता है, अपने समान सामाजिक अधिकार के प्रति सचेत हो जाता है तो जरूरी नहीें है कि वह गावं में अपने हाथ के काम को छेाड़ कर षहर मे ंचपरासी या दैनिक मजदूर की नौकरी कर संकरी गलियों की गंदी झुगियों में रहे।  इंसान की क्षमता, जरूरत और योग्यता के अनुरूप उसे अपने मूल स्थान पर अपने सामाजिक सरोकारों के साथ जीवचनयापन का  हक मिले, यदि विकास के प्रतिमान ऐसे होंगे तो षहर की ओर लोगों का पलायन रूकेगा। इससे हमारी धरती को कुछ राहत मिलेगी।


गांवो से बढ़ते पलायन के कारण बढ़ते ‘‘अरबन स्लम’’

‘आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी किसको कहा जा सकता है ?’ यदि इस सवाल का जवाब ईमानदारी से खोजा जाए तो वह होगा -कोई पचास करोड़ लोगों का अपने पुश्तैनी घर, गांव, रोजगार से पलायन। और ‘आने वाले दिनों की सबसे भीशण त्रासदी क्या होगी ?’ आर्थिक-सामाजिक ढ़ांचे में बदलाव का अध्ययन करें तो जवाब होगा- पलायन से उपजे षहरों का --अरबन-स्लम’ में बदलना। देश की लगभग एक तिहाई आबादी  31.16 प्रतिशत अब षहरों में रह रही हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़े गवाह हैं कि गांव छोड़ कर षहर की ओर जाने वालों की संख्या बढ़ रही है और अब 37 करोड 70 लाख लोग षहरों के बाशिंदे हैं । सन 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना करें तो पाएंगे कि इस अवधि में षहरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ जबकि गांवंों की आबादी नौ करोड़ पांच लाख ही बढ़ी।
देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 60 फीसदी पहंुच गया है जबकि खेती की भूमिका दिनो-दिन घटते हुए 15 प्रतिशत रह गई है। जबकि गांवोे की आबादी अभी भी कोई 68.84 करोड़ है यानी देश की कुल आबादी का दो-तिहाई। यदि आंकड़ों को गौर से देखें तो पाएंगे कि देश की अधिकांश आबादी अभी भी उस क्षेत्र में रह रही है जहां का जीडीपी षहरों की तुलना में छठा हिस्सा भी नहीं है। यही कारण है कि गांवों में जीवन-स्तर में गिरावट,  शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, रोजगार की कमी  है और लोगों बेहतर जीवन की तलाश में षहरों की ओर आ रहे हैं। षहर बनने की त्रासदी की बानगी है सबसे ज्यादा सांसद देने वाला राज्य उत्तर प्रदेश । बीती जनगणना में यहां की कुल आबादी का 80 फीसदी गांवों में रहता था और इस बार यह आंकड़ा 77.7 प्रतिशत हो गया। बढ़ते पलायान के चलते  2011 में राज्य की जनसंख्या की वृद्धि 20.02 रही , इसमें गांवों की बढौतरी 18 प्रतिशत है तो षहरों की 28.8। सनद रहे पूरे देश में षहरों में रहने वाले कुल 7.89 करोड परिवारों में से 1.37 करोड झोपड़-झुग्गी में रहते हैं और देश के 10 सबसे बड़े षहरी स्लमों में मेरठ व आगरा का षुमार है। मेरठ की कुल आबादी का 40 फीसदी स्लम में रहता है, जबकि आगरा की 29.8 फीसदी आबादी झोपड-झुग्गी में रहती है।
राजधानी दिल्ली में जन सुविधाएं, सार्वजनिक परिवहन और सामाजिक ढांचा - सब कुछ बुरी तरह चरमरा गया है। कुल 1483 वर्ग किमी में फैले इस महानगर की आबादी कोई सवा करोड़ से अधिक हो चुकी है। हर रोज तकरीबन पांच हजार नए लोग यहां बसने आ रहे हैं। अब यहां का माहौल और अधिक भीड को झेलने में कतई समर्थ नहीं हैं। ठीक यही हाल देश के अन्य सात महानगरों, विभिन्न प्रदेश की राजधानियों और औद्योगिक वस्तियों का है। इसके विपरीत गांवों में ताले लगे घरों की संख्या में दिनों-दिन इजाफा हो रहा है। देश की अर्थव्यवस्था का कभी मूल आधार कही जाने वाली खेती और पशु-पालन के व्यवसाय पर अब मशीनधारी बाहरी लोगों का कब्जा हो रहा है। उधर रोजगार की तलाश में गए लोगों के रंगीन सपने तो चूर हो चुके हैं, पर उनकी वापसी के रास्ते जैसे बंद हो चुके हैं। गांवों के टूटने और शहरों के बिगडने से भारत के पारंपरिक सामाजिक और आर्थिक संस्कारों का चेहरा विद्रूप हो गया है। परिणामतः भ्रष्टाचार, अनाचार, अव्यवस्थाओं का बोलबाला है।
षहर भी  दिवास्वप्न से ज्यादा नही ंहै, देश के दीगर 9735 षहर भले ही आबादी से लबालब हों, लेकिन उनमें से मात्र 4041 को ही सरकारी दस्तावेज में षहर की मान्यता मिली हे। षेश 3894 षहरों में षहर नियोजन या नगर पालिका तक नहीं है। यहां बस खेतों को उजाड़ कर बेढब अधपक्के मकान खड़े कर दिए गए हैं जहां पानी, सड़क, बिजली आदि गांवों से भी बदतर हे। सरकार कारपोरेट को बीते पांच साल में कोई 21 लाख करोड़ की छूट बांट चुकी है। वहीं हर साल पचास हजार करोड़ कीमत की खाद्य सामग्री हर साल माकूल रखरखाव के अभाव में नश्ट हो जाती है और सरकार को इसकी फिकर तक नहीं होती। बीते साल तो सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका कि यदि गोदामों में रखे अनाज को सहजे नहीं सकते हो तो उसे गरीबों को बांट दो, लेकिन इसके लिए हुक्मरान तैयार नहीं है। विकास और सबसिडी का बड़ा हिस्सा षहरी आबादी के बीच बंटने से विशमता की खाई बड़ी होती जा रही है।




पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376, 0120-4241060


शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

memories of Guru Nanak In baghddad

बगदाद में गुम गई बाबा नानक की निषानियां
पंकज चतुर्वेदी 

पुराने बगदाद के वीरान व कबाड़ा ट्रेनों का जखीरा बने बगदाद-समारा रेल लाईन रेलवे स्टेशन  के करीब एक बड़े से शेख  मारूफ कब्रिस्तान में एक गुमनाम टूटा-फूटा सा कमरा कभी सिख धर्म के संस्थापक बाबा नानक देव की यादों का बड़ा खजाना हुआ करता था। लगातार युद्ध, तबाही, निरंकुशता के चलते  कभी पुरातन सभ्यता की निशानियों  के लिए मशहूर  इराक अब अपनी धरोहरों को लुटवा कर ठगा सा महसूस कर रहा है। सन 2003 में इराक में अमेरिकी फौजों के घुसने और सद्दाम हुसैन की सल्तनत के पतन के बाद देश  में जिन बेशकीमती एतिहासिक धरोहरों की लूट हुई उसमें बाबा नानक से जुड़ी वे निशानियां भी थीं जो अकेले सिख संगत की आस्था ही नहीं बल्कि विश्व  के धार्मिक- दार्षनिक इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ी थी। इस स्थान पर सन 1974 में भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गंाधी के साथ सद्दाम हुसैन (तब उपराष्ट्रपति ) दर्शन  करने जाने के भी प्रमाण हैं।

यह सभी जानते है। कि बाबा नानक विश्व  की ऐसी विलक्ष्ण हस्ती थे, जिन्होंने दुनिया के धर्मों, निरंकार ईश्वर  खोज, जाति-पाति व अंध विश्वास  के अंत के इरादे से 24 साल तक दो उपमहाद्वीपों के 60 से अधिक श हरों की लगभग 28 हजार किलोमीटर पैदल यात्रा की। उनकी इन यात्राओं को उदासियां कहा जाता है और उनकी ये उदासियां चार हिस्सों में(कुछ सिख विद्वान पांच उदासी भी कहते हैं) विभक्त हैं। उनकी चौथी उदासी मुल्तान, सिंध से मक्का-मदीना, फिर इराक-ईरान होते हुए अफगानिस्तान के रास्ते आज के करतारपुर साहिब तक रही। इसी यात्रा में उनका अभिन्न साथी व रबाब से कई रागों की रचना करने वाले भाई मरदाना भी उनसे सदा के लिए जुदा हो गए थे। सनद रहे भाई मरदाना कोई बीस साल बाबा के साथ परछाई की तरह रहे और उनकी तीन वाणियां भी श्री गुरूग्रथ साहेब में संकलित हैं।
मक्का-मदीना की यात्रा के बाद श्री गुरूनानक देव भाई मरदाना के साथ इराक में हजरत अली की दरगाह ‘मशहर शरीफ’ के दर्षन करने के बाद बगदाद पहंुचे। यहा उन्होंने शहर के बाहर दजला या तिगरित नदी के पश्चिम  घाट पर एक कब्रिस्तान में अपना डेरा जमाया। गुरु नानक ने बगदाद (इराक) के भ्रमण में गौसेआजम शेख अब्दुल कादिर जीलानी (1077-1166 ई.) की दरगाह पर हाजिरी दी। ऐसा कहा जाता है कि यहां उनकी मुलाकात सूफी पीर बहलोल दाना से हुई। उनके बीच भारतीय दर्शन  व एकेश्वर पर विमर्ष हुआ। उसके बाद पीर दाना ने उन्हें विलक्षण व्यक्ति बताया। बगदाद में ही शेखे तरीकत शेख मआरुफ कररवी यानी बहलोल दाना की मजार पर चिल्ला अर्थात चालीस दिन साधना की।  इस स्थान पर तब पीर के मुरीदों ने एक पत्थर लगाया था जोकि अरबी और तुर्की  भाषा  में मिला-जुला था। इस पर लिखा था -
गुरू मुराद अल्दी हजरत रब-उल- माजिद, बाबा नानक फकीरूल टेक इमारते जरीद, यरीद इमदाद इद!वथ गुल्दी के तीरीखेने, यपदि नवाव अजरा यारा अबि मुरीद सईद, 917 हिजरी। यहां पर बाबा का जपजी साहब की गुटका, कुछ कपड़े व कई निशा नियां थीं। दुर्भाग्य है कि इतनी पवित्र और एतिहासिक महत्व की वस्तुएं सन 2003 में कतिपय लोग लूट कर ले गए।
हालांकि  इस स्थान पर कभी कोई बड़ी इमारत नहीं रही। बामुष्किल 650 वर्ग फुट का एक कमरा पहले विष्व युद्ध के दौरान इराक गई भारत की सिख रेजीमेंट के कुछ सिपाहियों ने बनाया था।  तब इराक की यात्रा करने वाले फाज् की चिकित्सा सेवा के कैप्टन  कृपाल सिंह द्वारा 15 अक्तूबर 1918 को लिखे गए एक खत में इस स्थान का उल्लेख है।  उन्होंने लिखा था कि बेहद षांत व गुमनाम इस स्थान के बारे में कुछ सिखों के अलावा और कोई नहीं जानता।  रिकार्ड गवाह है कि सन 1930 में भी सिख रेजीमेंट ने यहां का रखरखाव किया था।
‘बाबा नानक नबी अल ंिहंद’ के नाम से इराक में मषहूर इस स्थान पर सद्दाम हुसैन के समय गुरूद्वारा भी बनाया गया और गुजी के पारंपरिक कमरे को यथावत रखा गया। वहां सिख धर्म का ध्वज, लंगर आदि होते थे। इसके लिए सद्दम हुसैन ने ना केवल अनुमति दी थी, बल्कि सरकारी सहयोग भी किया था। युद्ध ने इराक के लोगों को और विष्व इतिहास को बहुत नुकसान पहुंचाया। सन 2008 में भी भारत सरकार ने बगदाद के गुरूद्वारे के लिए बातचीत की थी। लेकिन उसके बाद आईएसआईएस का आतंक षुरू हुआ। सन 2014 में आईएस ने मौसूल षहर पर कब्जा किया और उस लड़ाई में चले गोला बारूद ने यहां के गुरूद्वारे को लगभग नश्ट कर दिया। यह सुखद है कि आज भी बाबा का मूल कमरा बरकरार है। पहले यहां खाड़ी देषोंमें रहने वाले सिख परिवार आया करते थे, लंगर भी होते थे लेकिन आईएस के आगमन के बाद अय यहां कोई नहीं आता। इस स्मारक व गुरूद्वारे की देखभाल सदियों से मुस्लिम परिवार ही करता रहा है। ये परिवार गुरूमुखी पढ़ लेते हैं और श्री गुरूग्रंथ साहेब का पाठ भी करते हैं। ये नानक और बहलोल को अपना पीर मानते हैं।
गुरू नानक देव के प्रकाषोत्सव के 550वें साल में यह केवल सिख कौम के लिए नहीं सारी दुनिया में षंाति, एकता की चाहत रखने वालों के लिए जरूरी है कि गुरू नानक देव की यादों से जुड़ी हर इमारत, हर स्थान, हर वस्तु को सहेजें ताकि आने वाली पीढ़ी को सप्रमाण बताया जा सके कि एक इंसान ऐसा भी हुआ था, जो भाशा-धर्म- देष की विविधताओं को परे रख केवल अपनी वाणी और संगीत से दुनियाभर में घूमा और मानवता का संदेष दिया, जिनके आदर्षों पर स्थापित सिख धर्म को दुनियाभर के कोई ढाई करोड़ लोगों ने अपनाया । बाबा नानक की बगदाद की यात्रा इस बात का भी प्रमाण है कि उस काल का समाज धार्मिक मामलों में कट्टर ना हो कर विमर्ष पर भरोसा करता था तभी बाबा नानक द्वारा सुबह-सुबह सुमधुर संगीत के साथ बगदाद के लोगों को जगाने के बाद कुछ लोगों द्वारा संगीत  पर धार्मिक पाबंदी के आधार पर गुस्सा करने व बाबा नानक द्वारा इस पर स्पश्टीकरण के बाद उनका सम्मान करने की घटना हुई। बगदाद में महज गुरूद्वारे की जरूरत नहीं है, नानक देव की जो स्मृतियां लूट ली गईं उन्हें वापिस लाना ज्यादा जरूरी है।


मंगलवार, 12 नवंबर 2019

E waste A big threat to ecology

ई-कचरे के तमाम खतरों से बेपरवाह क्यों हैं हम


जब जहरीले धुएं ने दिल्ली और उसके आस-पास लोगों की सांसों में सिहरन पैदा करना शुरू किया, तो प्रशासन भी जागा और राजधानी से सटे लोनी के सेवाग्राम में पुलिस ने 30 जगह छापा मारकर 100 क्विंटल से ज्यादा ई-कचरा जब्त किया। असल में इन सभी कारखानों में ई-कचरे को सरेआम जलाकर अपने काम की धातुएं निकालने का अवैध कारोबार होता था। इसके धुएं से पूरा इलाका परेशान था। प्रशासन हैरान था कि इतना सारा ई-कचरा आखिर यहां आया कैसे? अब पुलिस के पास ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां इस कचरे को सहेजकर रखा जा सके। डर है कि घूम-फिरकर आज नहीं, तो कल वहीं पहुंच जाएगा, जहां से आया है। यह ऐसा कूड़ा है, जिसके लिए जगह बनाने या रिसाइकिल करने की व्यवस्था हमने अभी तक की ही नहीं है। ॉ

एक अनुमान है कि इस साल के अंत तक कोई 33 लाख मीट्रिक टन ई-कचरा जमा हो जाएगा। यदि इसके सुरक्षित निपटारे के लिए अभी से काम नहीं किया गया, तो धरती, हवा और पानी में घुलने वाला इसका जहर जीना मुश्किल कर सकता है। कहते हैं न कि हर सुविधा या विकास की माकूल कीमत चुकानी होती है, लेकिन इस बात का पता नहीं था कि इतनी बड़ी कीमत चुकानी होगी। देश की कारोबारी राजधानी मुंबई से हर साल 1.20 लाख टन कचरा निकलता है, देश की राजनीतिक राजधानी भी बहुत पीछे नहीं है, यहां सालाना 98 हजार मीट्रिक टन ई-कचरा जमा हो जाता है और इसके बाद 92 हजार मीट्रिक टन ई-कचरे के साथ बेंगलुरु तीसरे नंबर पर है। दुर्भाग्य है कि इसमें से महज ढाई फीसदी कचरे का ही सही तरीके से निपटारा हो रहा है। बाकी कचरा इससे जुड़े अवैध कारोबार को आमंत्रित करता रहता है।

गैर-सरकारी संगठन ‘टॉक्सिक लिंक’ की ताजा रिपोर्ट पर भरोसा करें, तो दिल्ली में सीलमपुर, शास्त्री पार्क, तुर्कमान गेट, लोनी, सीमापुरी सहित कुल 15 ऐसे स्थान हैं, जहां पूरे देश का ई-कचरा पहुंचता है और वहां इसका गैर-वैज्ञानिक व अवैध तरीके से निस्तारण होता है। इसके लिए बड़े स्तर पर तेजाब का इस्तेमाल होता है, जो वायु प्रदूषण के साथ ही धरती को बंजर करता है और यमुना को जहरीला बनाता है।

पुराने टीवी और कंप्यूटर मॉनिटर की पिक्चर ट्यूब रिसाइकिल नहीं हो सकती। इसमें लेड, मरक्युरी, कैडमियम जैसे घातक पदार्थ होते हैं। इसके साथ ही हम अगर बैटरियों व मोबाइल फोन के कचरे को भी जोड़ लें, तो निकिल, कैडमियम और कोबाल्ट जैसे तत्व भी इस कचरे में अपनी भूमिका निभाने आ जाते हैं।
कैडमियम से फेफड़े प्रभावित होते हैं, जबकि कैडमियम के धुएं व धूल के कारण फेफड़े व किडनी, दोनों को गंभीर नुकसान पहुंचता है। एक कंप्यूटर का वजन लगभग 3.15 किलो ग्राम होता है। इसमें 1.90 किग्रा सीसा और 0.693 ग्राम पारा और 0.04936 ग्राम आर्सेनिक होता है। ये सारे पदार्थ जलाए जाने पर सीधे वातावरण में घुलते हैं। इनका अवशेष पर्यावरण के विनाश का कारण बनता है। इसमें से अधिकांश सामग्री गलती-सड़ती नहीं है और जमीन में जज्ब होकर मिट्टी की गुणवत्ता को प्रभावित करने के अलावा भूजल को जहरीला बनाने का काम करती है। इन रसायनों का एक अदृश्य भयानक सच यह है कि इसकी वजह से पूरी खाद्य शृंखला बिगड़ रही है। 

वैसे तो केंद्र सरकार ने 2012 में ई-कचरा (प्रबंधन और संचालन) कानून लागू किया है, लेकिन इसमें दिए गए दिशा-निर्देश का पालन होता कहीं दिखता नहीं है। मई 2015 में ही संसदीय समिति ने देश में ई-कचरे के चिंताजनक रफ्तार से बढ़ने की समस्या को देखते हुए इस पर लगाम लगाने के लिए विधायी तंत्र स्थापित करने की सिफारिश की थी, पर इस दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं दिख रही। 

ऐसा नहीं कि ई-कचरा महज आफत है। झारखंड के जमशेदपुर स्थित राष्ट्रीय धातुकर्म प्रयोगशाला के धातु निष्कर्षण विभाग ने ई-कचरे में छिपे सोने को निकालने की सस्ती तकनीक खोजी है। इसके माध्यम से एक टन ई-कचरे से 350 ग्राम सोना निकाला जा सकता है। समाचार यह भी है कि अगले ओलंपिक में विजेता खिलाड़ियों को मिलने वाले मेडल भी ई-कचरे से बनाए जा रहे हैं। जरूरत यह है कि कूडे़ को गंभीरता से लिया जाए, उसके निस्तारण की गंभीरता को समझा जाए।
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बुधवार, 6 नवंबर 2019

polluted ghazibad is enhancing pollution in Delhi

जहरीले गाजियाबाद के निदान के बगैर दिल्ली नहीं होगी निरापद
पंकज चतुर्वेदी

राजधानी दिल्ली में बढ़ती मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग की आबादी को आसरा देने के चक्कर में गाजियाबाद का विस्तार देष के सबसे तेजी से विस्तार पाने वाले महानगरों में हो गया। प्रति किलोमीटर 3954 व्यक्ति की घनी आबादी वाले महानगर की दिल्ली से सटी सीमाएं बहुमंजिला या एक से एक सटी झुग्गियों से पटी हैं। जान कर आष्चर्य होगा कि बीते 365  दिनों में महज पांच दिन इस षहर की आवोहवा सांस लेने लायक रही। अभी दिल्ली में वायु प्रदूशण बढ़ने और स्मॉग के कारण धुंध दिख रही है सो लोगों को याद आ रही है कि गाजियाबाद की 28 लाख से ज्यादा आबादी हर दिन इतनी ही जहरीली हवा को अपने फैंफडों में  सोख रही है। यह सच है कि दिल्ली की सीमा के करीब होने के कारण कुछ दषक पहले इसका विकास औद्योगिक षहर के रूप में किया गया था। फिर बिजली, सड़क अपराध जैसी मूलभूत दिक्कतों के चलते यहां के उद्योग भी सिकुड़ते गए। दिल्ली में सीलिंग के बाद कुछ कल कारखाने यहां आए भी लेकिन कुछ ही दिनों में थक हार गए। इसके बावजूद सारे जिले के छोटे-बड़े कस्बे  जिंस की ंरगाई, ईंट भट्टा, प्लास्टिक के सामान जैसी सैंकड़ों छोटी -छोटी इकाईयों से आच्छादित हैं जिनसे निकलने वाले प्रदूशण को कुछ पण से नजरअंदाज किया जाता रहा है।

दिल्ली का आनंद विहार राजधानी का सबसे दूशित इलाका कई सालों से है। कारण भी यही है कि यह उप्र के कोषाम्बी से षून्य किलोमीटर पर सटा है और सड़के के दूसरी तरफ डीजल बसों, बेपरवाह स्थानीय परिवहन वाहनों के अलावा भूशण स्टील,  सहित कई बड़े कारखाने हैं। भले ही दिल्ली में भारी वाहनों के आवागमन का समय तय हो लेकिन कोषाम्बी की तरफ चौबीसों घंटे ट्रक चल सकते हैं। फिलहाल कोई ऐसी तकनीकी आई नहीं है कि जो वायू प्रदूशण को भौगोलिक सीमा में बांध सके तभी दिल्ली में भले ही सम-विशम हो या धूल पर पानी छिड.का जाए, कोषम्बी से उठा धुओं दिल्ली की सांस अवरूद्ध करेगा ही।
केंद्रीय प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़े गवाह हैं कि दीपावली के बाद गाजियाबाद का वायु गुणवत्ता सूचकांक 396 से 482 के बीच रहा है। पीएम- 2.5 औसत मानकों से आठ गुणा ज्यादा 498 और पीएम-10 चार गुणा अधिक 465 के आसपास ही रहा है।  30 अक्तूबर के बाद को नाईट्रोजन डाय आक्साईड की हवा में मात्रा 174 को पार गई जिससे लोगों को आंखेां में जलन होने लगी।  कहने को प्रषासन ने हालात बेकाबू होते देख भूरेलाल कमेटी की सिफारिष के अनुरूप ग्रेडेड रेस्पांस एक्षन प्लान अर्थात ग्रेप लागू करने की घोशणा भी कर दी लेकिन यहां दीपावली और उसके अगले दो दिनो तक देर रात तक जम कर आतिषबाजी चली लेकिन कहीं पुलिस या प्रषासन दखल देता नहीं दिखा। गाजियाबाद नगर निगम खुद एलीवेटेड रोड़ के नीचे हिंडन नदी के किनारे प्लास्टिक व अन्य कूड़ा डंप करता है। 28 अक्तूबर को ही इस कूड़े में आग लग गई व षहर का बड़ा हिस्सा इस जहरीले धुएं के गिरफ्त में आ गया। कोई आठ घंटे तक फायर ब्रिगेड  पानी छिड़कती रही जब बात नहीं बनी तो जलते कूड़े को जेसीबी से हिंडन में डाल दिया गया।  जान लें कि षहर से निकलने वाले 40 फीसदी कूड़े के सही तरीके से निस्तारण की व्यवस्था उपलब्ध नहीं है और यहां कूड़ा जलाना बेहद सामान्य बात है।

इस बात से प्रषासन व समाज पूरी तरह बेपरवाह है कि बढते वायु प्रदूशण के कारण गाजियाबाद के सरकारी अस्पताल में दीवाली के बाद सांस व अन्य बीमारियों के मरीजोें की संख्या तीस फीसदी बढ़ गई है। निजी अस्पतालों में जानेवालों को कोई रिकार्ड उपलब्ध ही नहीं है। गाजियाबाद की हवा को जानलेवा बनाने वाले मुख्य तत्व हैं - बड़े स्तर पर निर्माण कार्य व उसकी सामग्री का खुले में पड़ा होना,सड़कों की धूल, लापरवाह वाहन और यातायात जाम, कूड़े को जलाना, कारखानों का उत्सर्जन और ईंट भट्टा जैसी गतिविधियां। इस समय कुछ स्थानों पर पराली जलाने की भी घटनाएं होती हैं। जिस मेरठ एक्सप्रेस वे को तीन साल पहले 45 मिनिट में दिल्ली से मेरठ पहुंचने के मार्ग के नाम से उदघाटित किया गया था, वह रास्ता दिल्ली की सीमा समाप्त होते ही दम तोड़ देता है। गाजीपुर  निकलते ही खोड़ा मकनपुर-इंदिरापुरम- क्रॉसिंग रिपब्लिक और उससे आगे तक सड़क निर्माण बगैर वैकल्पिक मार्ग बनाए चल रहा है और इसमें आठ से दस किलोमीटर का जाम तो हर दिन लगता ही है। कच्ची सड़की धूल पूरे आसमान को बदरंग कर देती है। हालांकि सरकार ने एनएचआई पर नब्बे लाख का जुर्माना भी किया है लेकिन एक तरफ 16 लेन की सड़क का काम जल्द पूरा करने का दवाब है तो दूसरी तरफ नेषनल हाईवे -9 का भारी यातायात। यहां उपज रहे ध्ूाल और धुएं ने बीते तीन साल से आसपास कई किलोमीटर तक रहने वालों का जीना दूभर कर दिया है। फिर नए बहुमंजिला इमारतों के कई सौ प्रोजक्ट भी यहां हैं।  भले ही फिलहाल वहां काम रूक गया हो लेकिन भवन के भीतर पत्थर काटने, टाईल्स लगाने की मषीने , लकड़ी का काम आदि चल ही रहा हैं और इसका बुरादा तो हवा में ही घुलता है। यही नहीं इन भवनों के लिए लाई गई रेत-बालू खुल में ही है और थोड़ी भी हवा चलने पर इसके कण इंसान की सांस में घुलते हैं ।

गाजियाबाद में दिल्ली से आने के जितने भी रास्ते हैं- नंदनगरी -भोपुरा, लोनी, महराजपुर गेट, षालीमार गार्डन व कई अन्य-- हर जगह दिल्ली के कानूनों से मुक्त होने की निरंकुषता समने दिखती है। तीन सवारी वाले टीएसआर में आठ सवारी, ट्रक-बसों की मनमाना गति, सड़क-बाजार में बेतरतीब पार्किग और उसके साथ ही टूटी सड़कें व महीनों से धूल ना झाड़ी गई अच्छी सड़कें भी, सड़क के दोनो तरफ धूल-मिट्टी का अंबार ऐसे ही कई काक पूरे जिले के हर इलाके में है। जिनसे जाम लगता है, धूल उड़ती है और उसके प्रति बेपरवही भी रहती है।  अपनी दुकानों से निकले कूड़े को माचिस दिखाना हो या कारखानों के अपषिश्ट को ठिकाने लगाना या फिर मेडिकल कचरे का निबटान और सूखे गिरे पत्तों की सफाई, इस षहर में इन सभी का सुलभ हल इनमें आग लगाना है। दीवाली से पहले जिला प्रषासन ने एक कंट्रोल रूम नंबर जारी कर कूड़े आदि में आग लगाने की षिकायत की अपील की लेकिन जों नंबर जारी किया गया था वह काम ही नहीं करता था, महीनों से भुगतान ना होने के कारण डिस्कनेक्ट था। यह बानगी है कि जिला प्रषासन प्रदूशण के प्रति कितना संजीदा है।  गाजियाबाद और उससे सटे बागपत में ऐसे दर्जनों ईंट भट्टे हैं जो किसी भी पांबदी से बेपरवाह सालभर चलते हैं। चूंिक अब मणिपुर की जयंतिया पहाड़ियों के ‘‘रेट होल’’ से कोयला निकालना मुष्किल हो रहा है, साथ ही झारख्ंाड का कोयला महंगा पड़ता है सो ये भट्टे दिल्ली एनसीआर के कूड़े से निकले पानी की बोतलों, चप्पल-जूते व ऐसे ही तेज ज्वनषील पदार्थाें को खरीदते हैं और भट्टे में झोंक देते हैं। इस तरह भले ही उन्हें कम दाम पर ज्यादा उश्मा मिलती हो लेकिन इसे निकला धुआं लेागों में तपेदिक तक कर रहा है। इस तरह के कूड़े का पिरवहन और जलाने की सारी हरकतें बगैर प्रषासन की जानकारी के संभव नहीं होती लेकिन अभी गाजियाबाद का भले ही दम घुट रहा हो लेकिन अपने निजी फायदे के आगे पर्यावरण की सुरक्षा का मसला गौण ही माना जाता है।
दिल्ली में सभी किस्म के ‘‘भारत भाग्य विधाताओं का षासन है, वहां के लोगों को साफ हवा-पानी मिलना बेहज जरूरी है, लेकिन यह भी जान लें कि अपने पड़ोसी षहरों के परिवेष को षुद्ध रखे बगैर दिल्ली का दम घुटने से बचना संभव नहीं है।  अब दिल्ली के स्कूल जहरीली हवा के कारण 4 नवंबर से षुरू वाहनों के सम-विशय संचालन से गाजियाबाद बेअसर है। एक बात और गाजियाबाद दिल्ली से करीब है सो उसके जहर होने पर कुछ चर्चा भी है तय है कि आपके कस्बे-षहर के हालात भी इससे बेहतर नहीं होंगे। कारण भी वही होंगे और हालात भी।

सोमवार, 4 नवंबर 2019

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चंद दिनों की सम-विषम योजना से क्या फर्क पडे़गा जब दिल्ली में पूरे साल वायु प्रदूषण का प्रकोप रहता है


इस बार दीपावली के पहले दिल्ली और उसके आसपास घना स्मॉग छाते ही पंजाब और हरियाणा की सरकारों को कठघरे में खड़ा कर दिया गया कि वे पराली जलाने पर रोक नहीं लगा सकीं, लेकिन हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि दिल्ली-एनसीआर में बारिश के चंद दिनों को छोड़कर पूरे साल वायु प्रदूषण का प्रकोप रहता है। गर्मी में फेफड़ों में जहर भरने का दोष राजस्थान-पाकिस्तान से आने वाली धूल भरी हवाओं को दे दिया जाता है तो ठंड में पराली जलाने को। बीते एक दशक से हर साल सर्दियों के मौसम में दिल्ली और उत्तर भारत के अन्य शहरों के वायु प्रदूषण की चर्चा होती है। जब यह चर्चा जोर पकड़ती है तो कभी सड़कों पर पानी छिड़क दिया जाता है तो कभी सम-विषम योजना को अमल में ले आया जाता है। इसके अलावा कंस्ट्रक्शन यानी निर्माण कार्य रुकवाने जैसे काम भी किए जाते हैैं।
दिल्ली की हवा खराब करने में सबसे बड़ा योगदान धूल और मिट्टी है
दिल्ली में हवा के साथ जहरीले कण घुलने में सबसे बड़ा योगदान (23 फीसदी) धूल और मिट्टी के कणों का है। 17 प्रतिशत हिस्सा वाहनों के उत्सर्जन का है। जनरेटर जैसे उपकरणों का उत्सर्जन 16 प्रतिशत है। इसके अलावा औद्योगिक उत्सर्जन सात प्रतिशत और पराली या अन्य जैव पदार्थों को जलाने से निकले धुएं का हिस्सा करीब 12 प्रतिशत होता है।
पंजाब-हरियाणा में धान की बेहिसाब खेती होने से पराली भी अधिक जलती है
इस मौसम में स्वच्छ वायु की खलनायक पराली है, लेकिन केवल वही नहीं। यह अच्छा है कि अब सरकार पराली को खेत में ही जज्ब करने के उपकरण बेच रही है और उसके लिए सब्सिडी भी दे रही है, लेकिन किसान के पास अगली फसल की बोआई के लिए समय कम होता है सो वे पराली जलाने में अपना भला देखते हैं। हरियाणा-पंजाब सदियों से कृषि प्रधान प्रदेश रहे हैं फिर पराली की समस्या हाल के समय में ही क्यों उभरी है? इस सवाल का जवाब उस प्रवृत्ति में छिपा है जिसके तहत रेगिस्तान से सटे पंजाब-हरियाणा में धान की बेहिसाब खेती होने लगी। एक तो भाखड़ा नंगल बांध ने खूब पानी दिया, फिर उपज अच्छी हुई तो किसान ने भूगर्भ का जल जमकर उलीचा। फिर सरकार ने किसानों को बिजली मुफ्त कर दी और जमीन से पानी निकालने पर कोई रोक नहीं रही। इसके अलावा जितना भी धान उगाओ, उसकी सरकारी खरीद की गारंटी।
किसानों को धान की जगह फल-सब्जी उगाने को तैयार करें
इस समय देश में चावल का 110.28 लाख मीट्रिक टन और धान का 237.28 लाख मीट्रिक टन सुरक्षित स्टॉक रखा हुआ है, जबकि हमारे यहां चावल की सालाना मांग इससे एक चौथाई भी नहीं है। क्या ऐसे हालात में धान की खेती को हतोत्साहित करने की जरूरत नहीं है? जो धान जमीन का पानी पी जाता है, जिस धान की खेती में लगाए गए रसायन से जमीन और जल स्रोत जहरीले होते हैैं उस धान की जगह किसानों को फल-सब्जी उगाने को क्यों नहीं तैयार किया जाता?
हरियाणा ने दिया धान की जगह मक्के की खेती करने वालों को निशुल्क बीज 
इस साल हरियाणा सरकार ने पानी बचाने के इरादे से धान की जगह मक्के की खेती करने वालों को निशुल्क बीज और पांच हजार रुपया अनुदान की जो घोषणा की वह सराहनीय है, लेकिन बात तब बनेगी जब पंजाब सरकार भी ऐसी कोई योजना लाएगी। इसका कोई मतलब नहीं कि हरियाणा और पंजाब के किसान पानी की ज्यादा खपत वाली धान की खेती करें।
हरियाणा और पंजाब में एक किलो धान पैदा करने में 5389 लीटर पानी की खपत होती है
हरियाणा और पंजाब में एक किलो धान पैदा करने में 5389 लीटर पानी की खपत होती है। वहीं बंगाल में एक किलो धान उगाने के लिए केवल 2713 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है। साल 2014-15 में भारत ने करीब 37 लाख टन बासमती चावल का निर्यात किया। 37 लाख टन बासमती चावल उगाने के लिए 10 खरब लीटर पानी खर्च हुआ। इसे आप ऐसे भी बोल सकते हैं कि भारत ने 37 लाख टन बासमती चावल के साथ 10 खरब लीटर पानी भी दूसरे देश को भेज दिया जबकि पैसे केवल चावल के मिले। यही चावल वायु प्रदूषण का भी कारण बना है।
प्रदूषण का मर्ज दूर करने के लिए वाहनों की संख्या कम करना, आबादी को नियंत्रित करना जरूरी है
भले ही दिल्ली में वातावरण के जहरीले होने पर इमरजेंसी घोषित कर दी गई हो और पंजाब-हरियाणा में पराली जलाने वाले किसानों पर कार्रवाई की गई हो, लेकिन हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि दिल्ली में जगह-जगह पर लगने वाले जाम को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाए गए। जब तक दिल्ली में वाहनों की संख्या कम करने और यहां की आबादी को नियंत्रित करने के कड़े कदम नहीं उठाए जाएंगे तब तक प्रदूषण का मर्ज दूर नहीं होने वाला। दिल्ली में वाहनों की सम-विषम योजना भले ही तात्कालिक कुछ राहत दे दे, लेकिन इसका कोई दूरगामी असर नहीं होने वाला।
सरकार दिल्ली में घुटते दम पर चिंतित तो है, लेकिन गंभीरता नहीं है
दो साल पहले जब एनजीटी ने कड़ाई से यानी-बगैर दोपहिया या महिलाओं को छूट दिए सम-विषम लागू करने का निर्देश दिया था तो दिल्ली सरकार ने ही अपने कदम खींच लिए थे। एनजीटी के तत्कालीन अध्यक्ष स्वतंत्र कुमार की पीठ ने दिल्ली यातायात पुलिस से कहा था कि यातायात धीमा होने या फिर लाल बत्ती पर वाहनों के अटकने से हर रोज तीन लाख लीटर ईंधन जाया होता है, जिससे दिल्ली की हवा दूषित होती है। समाज और सरकार दिल्ली में घुटते दम पर चिंता तो जाहिर कर रही, लेकिन एनजीटी के उक्त निष्कर्ष पर गंभीरता नहीं दिखा रही है।
सड़कों पर न सिर्फ वाहन कम करने होंगे, बल्कि जाम की समस्या से भी पार पाना होगा
यदि दिल्ली और साथ ही उत्तर भारत के एक बड़े इलाके को रहने लायक बनाना है तो न केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, बल्कि जाम की समस्या से भी पार पाना होगा। सनद रहे कि वाहन सीएनजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा ही होगा। यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा।
वायु प्रदूषण तो साल भर रहता है, कुछ दिन की सम-विषम योजना से क्या फर्क पडे़गा?
जब वायु प्रदूषण की त्रासदी साल के करीब 340 दिनों की है तो फिर पांच-दस दिन की सम-विषम योजना से क्या फर्क पडे़गा? राजधानी क्षेत्र में साठ फीसद वाहन दोपहिया हैं, लेकिन वे सम-विषम योजना से बाहर हैैं। आल इंडिया परमिट वाले और ओला-उबर जैसी कंपनियों के डीजल वाहन भी इस पाबंदी में चलते ही हैं। जाहिर है कि महज 25 फीसदी लोग ही इसके तहत सड़कों पर अपनी कार लेकर नहीं आ पाएंगे। नए मापदंड वाले वाहन यदि पहले गियर में रेंगते हैं तो उनसे सल्फर डाई आक्साईड और कार्बन मोनो आक्साईड की बेहिसाब मात्रा उत्सर्जित होती है। साफ है कि हरियाणा और पंजाब में पराली जलना रुकना ही चाहिए, लेकिन इसी के साथ दिल्ली वालों को खुद द्वारा उत्सर्जित प्रदूषण पर लगाम लगानी होगी।

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