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शनिवार, 16 नवंबर 2019

urban development without dignity

विकास के विस्तारवादी होने से दूषित  हो रहा है पर्यावरण
पंकज चतुर्वेदी


हाल ही में घोषणा  कर दी गई कि दिल्ली की 1797 कालेानियों को अब वैध हो गई। साफ हवा-पानी को तरसती दिल्ली की ये कालोनियां असल में सरकारी जमीन या खेत आदि पर कभी झुग्गी-झोपड़ी के रूप में बसना शुरू  हुई होंगी और अब वहां आलीशान मकान हैं। अभी तक वहां सड़क, पानी, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएं का अकाल था और ना ही मालीकाना हक था । सरकार की इस घोशणा से कोई चालीस लाख लोगों के घरोंदे अब कानूनी हो गए। अब वहां जन प्रतिनिधि अपनी विकास निधि का धन खर्च कर सकेंगे। हालांकि यह भी बात सच है कि इन कालोनियों का अनियोजित विकास इस तरह का है कि वहां आधुनिक सीवर या अन्य सुविधाआंें की व्यवस्था करना मुश्किल होगा। बिजली विभाग की मानें तो इन अनधिकृत कॉलोनियों में 30 लाख के करीब मीटर दिए गए हैं। इतनी बड़ी आबादी के चलते चुनावों में हर राजनीतिक दल इनके पीछे भागता हैं। अब इनकी राजनीतिक स्थिति भी मजबूत हुई है। यही वजह है कि दिल्ली के सभी राजनीतिक दलों में एक झुग्गी झोपड़ी प्रकोष्ठ भी बनाया गया है। यह अवैध कालोनी सजाने वालों को एक उम्म्ीद की किरण है और दिल्ली के बदतर हालात की ओर एक कदम।
भारत के 1947 में बंटवारे के बाद लोग यहां आते गए और घर बसाते चले गए। इसके बाद दूसरे प्रदेशों से लोग आए तो जमीन कब्जे में लेकर घर बनाकर रहने लगे। धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ती चली गई। अधिकारियों का कहना है कि उसी हिसाब से कॉलोनियों को चिह्नित किया जाता रहा। 1993 में पहली बार सर्वे के बाद अनधिकृत कॉलोनियों को चिन्हित किया गया। लोगों को ला कर झाुग्गी बसाना और उस जमीन पर कब्जा कर लेना, उसके मुआवजे या मालिकाना हक पाना, उस जमीन की खरीद-फरोख्त करने के दिल्ली में बाकायदा माफिया गिरोह हैं और उनके ताल्लुक सभी सियासती दलों से हैं।  ना ही नेता और ना ही आम लोग समझ रहे हैं कि इस तरह की अवैध कोलानियां असल में दिल्ली को अरबन स्लम बना रही हैं और इसका खामियाजा यहीं कि बाशिंदों को ही भुगतना पड़ रहा है। एक बात और कि इस बार सन 2015 तक के गैरकानूनी कब्जे को ही कानूनी बनाया गया है यानी आगे भी वोट दोहन का यह खेल चलता रहेगा।

लगभग एक साल हो रहा है - दिल्ली से सटा गाजियाबाद देश के सबसे दूषित नगरों में अव्वल बना है। दिल्ली तो है ही जल-जमीन और वायू के दूशित होने का विश्वव्यापी कुख्यात स्थान। जब दिल्ली में आबादी लबालब हो गई तो महानगरीय विस्तार का पूरा दवाब गाजियाबाद पर पड़ा। चूंिक गाजियाबाद भले ही दिल्ली से सटा हो लेकिन अपने राज्य की राजधानी से दूर है, सो यहां के दमघोटूं प्रदूशण का परवाह किसी को है। नहीं राज्य सरकार के लिए यह महज राजस्व कमाने का अड्डा है। यदि गंभीरता से इस बात का आकलन करें तो स्पष्ट होता है कि जिन शहरों में पलायन व रेाजगार के लिए पलायन कर आने वालों की संख्या बढ़ी व इसके चलते उसका अनियेाजित विकास हुआ, वहां के हवा-पानी में ज्यादा जहर पाया जा रहा है। असल में षहरीकरण के कारण पर्यावरण को हो रहा नुकसान का मूल कारण अनियोजित षहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृति पूरे देश में बढ़ी कि लोगों ने जिला मुख्यालय या कस्बों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया।
महज विस्तार ही तो विकास नहीं
यह दुखद है कि आज विकास का अर्थ विस्तार हो गया है। विस्तार- शहर के आकार का, सड़क का, भवन का आदि-आदि। लेकिन बारिकी से देखें तो यह विस्तार या विकास प्राकृतिक संरचनाओं जैसे कि धरती, नदी या तालाब, पहाड़ और पेड़, जीव-जंतु आदि के नैसर्गिक स्थान को घटा कर किया जाता है। नदी के पाट को घटा कर बने रिवर फ्रंट हों या तालाब को मिट्टी से भर कर बनाई गई कालोनियां, तात्कालिक रूप से तो सुख देती है। लेकिन प्रकृति के विपरीत जाना इंसान के लिए संभव नहीं है और उसके दुश्परिणाम कुछ ही दिनों मे ंसामने आ जाते हैं। पीने के जल का संकट, बरसात में जलभराव, आबादी और यातायात बढ़ने से उपजने वाले प्राण वायु का जहरीला होना आदि।
देश के अधिकांश उभरते षहर अब सड़कों के दोनेां ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। ना तो वहां सार्वजनिक परिवहन है, ना ही सुरक्षा, ना ही बिजली-पानी की न्यूनतम मांग। असल में देश में बढ़े काले धन को जब बैंक या घर मे ंरखना जटिल होने लगा तो जमीन में निवेश के अंधे कुंए का सहरा लिया जाने लगा। इससे खेत की कीमतें बढ़ीं, खेती की लागत भी बढ़ी और किसानी लाभ का काम नहीं रहा गया। पारंपरिक शिल्प और रोजगार की त्यागने वालों का सहारा षहर बने और उससे वहां का अनियोजित व बगैर दूरगामी सोच के विस्तार का आत्मघाती कदम उभरा।

साल दर साल बढता जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और उसके कारण मौसम की अनियमितता,, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल,.. ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील व्यवस्था वाले देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता ‘शहरीकरण’ एक समग्र विशय के तौर लगभग उपेक्षित है। असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का ; सभी के मूल में विकास की वह अवधरणा है जिससे षहररूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता।
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है । सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीनव फलता-फूलता रहा है । बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई । और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर । बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और, उज्जवल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचाैंंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या 302 हो गयी है । जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे । यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है । इसकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर 16 हो गयी है । पांच से 10 लाख आबादी वाले शहर 1971 में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैंकड़ा हो गये हैंं । विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का 8.50 प्रतिशत हिस्सा देश के 26 महानगरों में रह रहा है ।
विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट बताती है कि आने वाले 20-25 सालों में 10 लाख से अधिक आबादी वाले षहरों की संख्या 60 से अधिक हो जाएगी जिनका देश के सकल घरेलू उत्पाद मे ंयोगदान 70 प्रतिशत होगा। एक बात और बेहद चौकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या षहरों में रहने वाले गरीबों के बबराबर ही है । यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है, यानी यह डर गलत नहीं होगा कि कहीं भारत आने वाली सदी में ‘अरबन स्लम’ या षहरी मलिन बस्तियों में तब्दील ना हो जाए।
दुकानों का भारत
पहले कहा जाता था कि भारत गांवों में बसता है और उसकी अर्थ व्यवस्था का आधार खेती-किसानी है, लेकिन मुक्त अर्थ व्यवस्था के दौर में यह ‘‘पहचान’’ बदलती सी लग रही है । लगता है कि सारा देश बाजार बन रहा है और हमारी अर्थ व्यवसथा का आधार खेत से निकल कर दुकानों पर जा रहा है । भारत की एक प्रमुख व्यावसायिक संस्था के फौरी सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में सबसे ज्यादा दुकानें भारत में हैं । जहां अमेरिका जैसे विकसित या सिंगापुर जैसे व्यापारिक देश में प्रति हजार आबादी पर औसत 7 दुकानें हैं , वहीं भारत में यह आंकड़ा 11 है । उपभोक्ताओं की संख्या की तुलना में भारत सबसे अधिक दुकानों वाला देश बन गया है ।
सवाल यह है कि इस आंकड़े को उपलब्धि मान कर खुश हों या अपने देश के पारंपरिक ढ़ांचे के दरकने की चेतावनी मान कर सतर्क हो जाएं । इस निर्णय के लिए जरूरी है कि इसी सर्वे का अगला हिस्सा देखें, जिसमें बताया गया है कि भारत का मात्र दो प्रतिशत बाजार ही नियोजित है, शेष 98 प्रतिशत असंगठित है और  सकी कोई पहचान नहीं है । यूं भी कहा जा सकता है कि बेतरतीब खुल रहे पान के डिब्बों व चाय की गुमटियों ने हमें यह ‘‘गौरव’’ दिलवा दिया है । यदि दुकानदार अन्यथा ना लें तो यह असंगठित बाजार बहुत हद तक कानून सम्मत भी नहीं है । देश की राजधानी दिल्ली में पिछले कुछ सालों से अवैध दुकानों की सीलिंग का मामला गर्म रहा है ।  व्यापारी संगठन लाखों लेागों के बेराजगार होने की दुहाई देते हुए पांच लाख दुकानों के बंद होने की बातें कर रहे थे । सरकारी रूप से पंजीकृत बाजारों में दुकानों का आंकड़ा भी लगभग इतना ही है । यानी एक करोड़ की आबादी में 10 लाख से ज्यादा दुकानें ! खोके, गुमटी, रेहड़ी पर बाजार अलग, जिन्हें अब कानूनी हक मिल गया है  !! कुल मिला कर देखें तो प्रत्येक 10 आदमी पर एक दुकान !! ! इनमें दलालों, सत्ता के मठाघीशों को जोड़ा नहीं गया है, वरना जितने आदमी, उतनी दुकान भी हो सकती हैं ।
बााजार की चमक ही तो है जिसके मोहपाश में बंध कर एक तरफ खुदरा बाजार में बड़े ब्रांड, बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपना दखल बढ़ा रही है तो नई-नई बनती कालेानियों में घर फोड़ कर दुकान बनाने की प्रवृति भी बेंरोकटोक जारी है । अब छोटे कस्बों के बेरोजगार युवकों के शादी -संबंध कुछ हद तक उनके मुख्य सड़क पर स्थित पुश्तैनी मकान पर ही निर्भर हैं । घर के अगले हिस्से में भीतर जाने के लिए एक पतली गली छेाड़ कर दो दुकानें बना ली जाती हैं । एक दुकान में खुद बेरोजगार किसी रेडीमेट गारमेंट, या किराने की दुकान खोल लेता है व दूसरे को किराये पर उठा देता है । फिर यही लोग व्यापारी हित व व्यापारी एकता के नारे लगाते हुए जब-तब सउ़कों पर आ जाते हैं ।
इस तरह आवासीय परिसरों का व्यासायिक हो जाना असल में लोगों के लिए पर्यावास का संकट खड़ा कर रहा है। इसमें सड़कों पर वाहनों की पार्किग व उससे उपजा जाम  लोगों की उमर कम करता है।

बढ़ते षहर उगाते जहर

षहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए, इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। निर्माण कार्य के लिए नदियों के प्रवाह में व्यवधान डाल कर रेत निकाली जाती है तो चूने के पहाड़ खोद कर सीमेंट बनाने की सामग्री। इसके कारण प्रकृति को हो रहे नुकसान की भरपाई संभव ही नहीं है। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्त्रोत, सभी कुछ नश्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है। षहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूशित वायु। षहर को ज्यादा बिजली चाहिए, यानी ज्यादा कोयला जलेगा, ज्यादा परमाणु संयंत्र लगेंगे।
षहर का मतलब है औद्योगिकीकरण और अनियोजित कारखानों की स्थापना का परिणाम है कि हमारी लगभग सभी नदियां अब जहरीली हो चुकी हैं। नदी थी खेती के लिए, मछली के लिए , दैनिक कार्यों के लिए , नाकि उसमें गंदगी बहाने के लिए। गांवों के कस्बे, कस्बों के षहर और षहरों के महानगर में बदलने की होड़, एक ऐसी मृग मरिचिका की लिप्सा में लगी है, जिसकी असलियत  कुछ देर से खुलती है। दूर से जो जगह रोजगार, सफाई, सुरक्षा, बिजली, सड़क के सुख का केंद्र होते हैं, असल में वहां सांस लेना भी गुनाह लगता है।
षहरों की घनी आबादी संक्रामक रोगों के प्रसार का  आसान जरिया होते हैं, यहां दूशित पानी या हवा भीतर ही भीतर इंसान को खाती रहती है और यहां बीमारों की संख्या ज्यादा होती है।  देश के सभी बड़े षहर इन दिनों कूड़े को निबटाने की समस्या से जूझ रहे हैं। कूड़े को एकत्र करना और फिर उसका षमन करना, एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। एक बार फिर षहरीकरण से उपज रहे कचरे की मार पर्यावरण पर ही पड़ रही है।
केवल पर्यावरण प्रदूशण ही नहीं, षहर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूशण की भी ंगंभीर समस्या उपजा रहे हैं। लोग अपनों से मानवीय संवेदनाओं से , अपनी लोक परंपराओं व मान्यताओं से कट रहे हैं। इसकी जगह उनका झुकाव आधुनिक किस्म के बाबा-फकीरों, देवताओं और पंथों में बढ़ रहा है, जो अलग किस्म के अंधविश्वास और रूढ़ियों का कारक है।
तो क्या लोग गांव में ही रहें ? क्या विकास की उम्मीद ना करें ? ऐसे कई सवाल षहरीकरण में अपनी पूंजी को हर दिन कई गुणा होते देखने वाले कर सकते हैं। असल में हमें अपने विकास की अवधारणा को ही बदलना होगा- पक्की सड़क, अंग्रेजी दवाई स्थानीय भाशा को छो़ड़ कर अं्रग्रेजी का प्रयोग, भोजन व कपड़े का पाश्चात्यीकरण असल में विकास नहीं है। यदि कोई चमड़े का काम करने वाला है, वह अपने काम को वैज्ञानिक तरीके से करना सीखता है, आपे श्रम की वास्तविक कीमत वसूलने के प्रति जागरूक होता है, अपने समान सामाजिक अधिकार के प्रति सचेत हो जाता है तो जरूरी नहीें है कि वह गावं में अपने हाथ के काम को छेाड़ कर षहर मे ंचपरासी या दैनिक मजदूर की नौकरी कर संकरी गलियों की गंदी झुगियों में रहे।  इंसान की क्षमता, जरूरत और योग्यता के अनुरूप उसे अपने मूल स्थान पर अपने सामाजिक सरोकारों के साथ जीवचनयापन का  हक मिले, यदि विकास के प्रतिमान ऐसे होंगे तो षहर की ओर लोगों का पलायन रूकेगा। इससे हमारी धरती को कुछ राहत मिलेगी।


गांवो से बढ़ते पलायन के कारण बढ़ते ‘‘अरबन स्लम’’

‘आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी किसको कहा जा सकता है ?’ यदि इस सवाल का जवाब ईमानदारी से खोजा जाए तो वह होगा -कोई पचास करोड़ लोगों का अपने पुश्तैनी घर, गांव, रोजगार से पलायन। और ‘आने वाले दिनों की सबसे भीशण त्रासदी क्या होगी ?’ आर्थिक-सामाजिक ढ़ांचे में बदलाव का अध्ययन करें तो जवाब होगा- पलायन से उपजे षहरों का --अरबन-स्लम’ में बदलना। देश की लगभग एक तिहाई आबादी  31.16 प्रतिशत अब षहरों में रह रही हैं। 2011 की जनगणना के आंकड़े गवाह हैं कि गांव छोड़ कर षहर की ओर जाने वालों की संख्या बढ़ रही है और अब 37 करोड 70 लाख लोग षहरों के बाशिंदे हैं । सन 2001 और 2011 के आंकड़ों की तुलना करें तो पाएंगे कि इस अवधि में षहरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ जबकि गांवंों की आबादी नौ करोड़ पांच लाख ही बढ़ी।
देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में सेवा क्षेत्र का योगदान 60 फीसदी पहंुच गया है जबकि खेती की भूमिका दिनो-दिन घटते हुए 15 प्रतिशत रह गई है। जबकि गांवोे की आबादी अभी भी कोई 68.84 करोड़ है यानी देश की कुल आबादी का दो-तिहाई। यदि आंकड़ों को गौर से देखें तो पाएंगे कि देश की अधिकांश आबादी अभी भी उस क्षेत्र में रह रही है जहां का जीडीपी षहरों की तुलना में छठा हिस्सा भी नहीं है। यही कारण है कि गांवों में जीवन-स्तर में गिरावट,  शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, रोजगार की कमी  है और लोगों बेहतर जीवन की तलाश में षहरों की ओर आ रहे हैं। षहर बनने की त्रासदी की बानगी है सबसे ज्यादा सांसद देने वाला राज्य उत्तर प्रदेश । बीती जनगणना में यहां की कुल आबादी का 80 फीसदी गांवों में रहता था और इस बार यह आंकड़ा 77.7 प्रतिशत हो गया। बढ़ते पलायान के चलते  2011 में राज्य की जनसंख्या की वृद्धि 20.02 रही , इसमें गांवों की बढौतरी 18 प्रतिशत है तो षहरों की 28.8। सनद रहे पूरे देश में षहरों में रहने वाले कुल 7.89 करोड परिवारों में से 1.37 करोड झोपड़-झुग्गी में रहते हैं और देश के 10 सबसे बड़े षहरी स्लमों में मेरठ व आगरा का षुमार है। मेरठ की कुल आबादी का 40 फीसदी स्लम में रहता है, जबकि आगरा की 29.8 फीसदी आबादी झोपड-झुग्गी में रहती है।
राजधानी दिल्ली में जन सुविधाएं, सार्वजनिक परिवहन और सामाजिक ढांचा - सब कुछ बुरी तरह चरमरा गया है। कुल 1483 वर्ग किमी में फैले इस महानगर की आबादी कोई सवा करोड़ से अधिक हो चुकी है। हर रोज तकरीबन पांच हजार नए लोग यहां बसने आ रहे हैं। अब यहां का माहौल और अधिक भीड को झेलने में कतई समर्थ नहीं हैं। ठीक यही हाल देश के अन्य सात महानगरों, विभिन्न प्रदेश की राजधानियों और औद्योगिक वस्तियों का है। इसके विपरीत गांवों में ताले लगे घरों की संख्या में दिनों-दिन इजाफा हो रहा है। देश की अर्थव्यवस्था का कभी मूल आधार कही जाने वाली खेती और पशु-पालन के व्यवसाय पर अब मशीनधारी बाहरी लोगों का कब्जा हो रहा है। उधर रोजगार की तलाश में गए लोगों के रंगीन सपने तो चूर हो चुके हैं, पर उनकी वापसी के रास्ते जैसे बंद हो चुके हैं। गांवों के टूटने और शहरों के बिगडने से भारत के पारंपरिक सामाजिक और आर्थिक संस्कारों का चेहरा विद्रूप हो गया है। परिणामतः भ्रष्टाचार, अनाचार, अव्यवस्थाओं का बोलबाला है।
षहर भी  दिवास्वप्न से ज्यादा नही ंहै, देश के दीगर 9735 षहर भले ही आबादी से लबालब हों, लेकिन उनमें से मात्र 4041 को ही सरकारी दस्तावेज में षहर की मान्यता मिली हे। षेश 3894 षहरों में षहर नियोजन या नगर पालिका तक नहीं है। यहां बस खेतों को उजाड़ कर बेढब अधपक्के मकान खड़े कर दिए गए हैं जहां पानी, सड़क, बिजली आदि गांवों से भी बदतर हे। सरकार कारपोरेट को बीते पांच साल में कोई 21 लाख करोड़ की छूट बांट चुकी है। वहीं हर साल पचास हजार करोड़ कीमत की खाद्य सामग्री हर साल माकूल रखरखाव के अभाव में नश्ट हो जाती है और सरकार को इसकी फिकर तक नहीं होती। बीते साल तो सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका कि यदि गोदामों में रखे अनाज को सहजे नहीं सकते हो तो उसे गरीबों को बांट दो, लेकिन इसके लिए हुक्मरान तैयार नहीं है। विकास और सबसिडी का बड़ा हिस्सा षहरी आबादी के बीच बंटने से विशमता की खाई बड़ी होती जा रही है।




पंकज चतुर्वेदी
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
9891928376, 0120-4241060


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