My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 28 दिसंबर 2022

Crying Ganga In Kanpur Due to chromium pollution

 कानपुर में कराह रही है गंगा

पंकज चतुर्वेदी





कभी कानपुर के चमडा कारखाने वहां की शान हुआ करते थे , आज यही यहाँ के जीवन के लिए चुनौती बने हुए हैं .. एक तरफ नमामि गंगे के दमकते इश्तेहार है तो सामने रानिया, कानपुर देहात और राखी मंडी, कानपुर नगर आदि में  गंगा में अपशिष्ट के तौर पर मिलने वाले क्रोमियम की दहशत है . वह तो भला हो एन जी टी का जो क्रोमियम कचरे के निबटान के लिए सरकार को कसे हुए हैं.  यह सरकारी अनुमान है कि इन इलाकों में गंगा किनारे सन 1976 से अभी तक कोई 122800 घन मीटर क्रोमियम कचरा एकत्र है . विदित हो क्रोमियम ग्यारह सौ  सेंटीग्रेड तापमान से अधिक पर पिघलने वाली धातु है और इसका इस्तेमाल  चमड़ा, इस्पात, लकड़ी और पेंट के कारखानों  में होता है. यह कचरा पांच  दशक से यहा के जमीन और भू जल को जहरीला बनाता रहा  और सरकारे कभी जुर्माना तो कभी नोटिस दे कर औपचारिकताएं पूरी करती रहीं.  हालात यह हैं कि हिमाचल से पावन हारा के रूप में निकलती गंगा कानपुर आते- आते कराहने लगती है , सरकारी मशीनरी इसमें गंदगी रोकने के संयंत्र लगाने पर खर्चा करते हैं जबकि असल में इसके किनारों पर कम कचरा उपजाने की बात होना चाहिए .



सन 2021 का एक शोध बताता है  कि कानपुर में परमट से आगे गंगाजल अधिक जहरीला है. इसमें न सिर्फ क्रोमियम की मात्रा 200 गुना से अधिक है, बल्कि  पीएच भी काफी ज्यादा है. यह जल सिर्फ मानव शरीर को नहीं बल्कि जानवर और फसलों को भी नुकसान पहुंचा रहा है. यह खुलासा छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के बायोसाइंस एंड बायोटेक्नोलॉजी विभाग ;बीएसबीटी विभाग की ओर से हुई जांच में हुआ है. विभाग के छात्र और शिक्षकों ने नौ घाटों पर जाकर गंगाजल का सैंपल लिया. इनकी जांच कर टीम ने रिपोर्ट तैयार की है जो काफी चौंकाने वाली निकली है. कन्नौज के आगे गंगाजल की स्थिति बहुत अधिक भयावह नहीं है मगर परमट घाट के आगे अचानक प्रदूषण और केमिकल की स्थिति बढ़ती जा रही है.

मार्च 2022  में कानपुर के मंडल आयुक्त द्वारा गठित एक सरकारी समिति ने स्वीकार किया कि परमिया नाले से रोजाना 30 से 40 लाख लीटर, परमट नाले से 20 लाख और रानीघाट नाले से 10 लाख लीटर प्रदूषित कचरा रोजाना सीधे गंगा में जा रहा है. कानपुर में गंगा किनारे कुल 18 नाले हैं. इनमें से 13 नालों को काफी पहले टैप किए जाने का दावा किया गया है. हकीकत यह है कि अक्सर ये नाले ओवरफ्लो होकर गंगा को गंदगी से भर रहे हैं. टैप नालों में एयरफोर्स ड्रेन, परमिया नाला, वाजिदपुर नाला, डबका नाला, बंगाली घाट नाला, बुढ़िया घाट नाला, गुप्तार घाट नाला, सीसामऊ नाला, टेफ्को नाला, परमट ड्रेन, म्योर मिल ड्रेन, पुलिस लाइन ड्रेन और जेल ड्रेन शामिल हैं. बिना टैप किए गए नालों में रानीघाट नाला, गोलाघाट नाला, सत्तीचौरा नाला, मैस्कर और रामेश्वर नाला शामिल हैं.


क्रोमियम की सीमा से अधिक मात्रा जाजमऊ और वाजिदपुर में भयावह हालात  पैदा किये हैं. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक पानी में क्रोमियम की मात्रा 0.05 होनी चाहिए. कन्नौज से लेकर गंगा बैराज तक स्थिति लगभग सामान्य है मगर जाजमऊ और वाजिदपुर में अचानक क्रोमियम की मात्रा खतरनाक होती जा रही है. 85 गांवों के करीब पांच लाख लोगों की जिंदगी में जहर घोल दिया है. किसी परिवार में गोद सूनी  है तो किसी गर्भ से उपजा नवजात मानसिक और शारीरिक रूप से विकलांग है. इसके अतिरिक्त भूजल में क्रोमियम की मौजूदगी ने सैकड़ों लोगों को कैंसर की सौगात बांटी है. क्रोमियम युक्त पानी ने धरती को भी बंजर किया है. इलाके में पैदावार घट गई है और फसल भी पकने से पहले मुरझाने लगती है.



जाजमऊ इलाके के शेखपुर, वाजिदपुर, प्योंदी, जाना, अलौलापुर जैसे तमाम गांव है, जहां ग किसी महिला के गर्भ ठहरने पर ख़ुशी से अधिक तनाव होता है . चूँकि यहाँ टेनरियों ने वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए जलशोधन के बजाय क्रोमियम युक्त पानी को  सीधे गंगा नदी में बहाया है. सख्ती हुई तो अधिकांश टेनरियों ने रिवर्स बोरिंग के जरिए भूजल में प्रदूषित पानी मिलाना शुरू कर दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि गंगा के किनारे तीन.चार किलोमीटर के दायरे में भूजल में क्रोमियम की मात्रा खतरनाक स्तर पर पहुंच गई. एक दर्जन गांवों में सरकार ने भूजल के पेयजल के रूप में रोक भी लगाई है. जल का कोई विकल्प न होने के कारण मजबूरी में ग्रामीण भूजल का इस्तेमाल करते हैं. इसके चलते शिशुओं को विकलांग रूप में पैदा होने की बहुतेरी घटनाएं सामने आई हैं.



उन्नाव जनपद में गंगा कटरी में आबाद कालूखेड़ा, त्रिभुवनखेड़ा, बंदीपुरवा, लखापुरा, जैसे एक दर्जन गांवों में दर्जनों कैंसर रोगी हैं. जब यह पता चला कि केंस्र्ग्रस्त अधिकांश लोग तम्बाखू या  धुम्रपान करते ही नहीं हैं तो तीन साल पहले राज्य सरकार ने अध्ययन कराया. मालूम हुआ कि कैंसर फैलने का असल कारण भूजल में क्रोमियम है. गंगा किनारे आबाद 85 गांवों में भूजल में क्रोमियम की मौजूदगी ने फसलों को भी बर्बाद कर दिया है. ट्यूबवेल से सिंचाई करने पर फसल झुलस जाती है.



गंगा की समस्या केवल जल-मल या रसायन के मिलने से पानी कि गुणवत्ता गिरना मात्र नहीं है – जलवायु परिवर्तन के दौर में अनियमित बरसात और जंगल कटाई व् शहरीकरण के कारण यह बार बार रास्ता बदल रही है  इसके तटों पर कटाव बध्रहा है , इसकी जैविक संपदा समाप्त हो रही है .  आज गंगा को दुनिया की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में छठे स्थान पर रखा गया है .



गंगा के किनारे खेतों को अधिक अन्ना उगाने का चस्का लगा है और इसके लिए जहरीले रसायन को  धरती में झोंका जाता है . अनुमान है  कि नदी तट के करीब हर साल सौ लाख टन उर्वरकों का इस्तेमाल होता है जिसमे से पांच लाख टन बहकर गंगा में मिल जाता है . 1500 टन कीटनाशक भी मिलता है . सैकडों टन रसायन, कारखानों, कपडा मिलों, डिस्टलरियों, चमडा उद्योग, बूचडखाने, अस्पताल और सकडों अन्य फैक्टरियों का निकला उपद्रव्य गंगा में मिलता है . 400 करोड लीटर अशोधित अपद्रव्य, 900 करोड अशोधित गंदा पानी गंगा में मिल जाता है . नगरों और मानवीय क्रियाकलापों से निकली गंदगी नहाने-धोने, पूजा-पूजन सामग्री, मूर्ति विसर्जन और दाह संस्कार से निकला प्रदूषण गंगा में समा जाता है . भारत में गंगा तट पर बसे सैकडों नगरों का 1100 करोड लीटर अपशिष्ट प्रतिदिन गंगा में गिरता है . इसका कितना भाग शोधित होता होगा, प्रमणित जानकारी नहीं है .


गंगा में उद्योगों से 80 प्रतिशत, नगरों से 15 प्रतिशत तथा आबादी, पर्यटन तथा धर्मिक कर्मकांड से 5 प्रतिशत प्रदूषण होता है . आबादी की बाढ के साथ, पर्यटन, नगरीकरण और उद्योगों के विकास ने प्रदूषण के स्तर को आठ गुना बढाया है . ऐसा पिछले चालीस वर्ष में देखा गया ऋषिकेश से गंगा पहाडों से उतरकर मैदानों में आती है, उसी के साथ गंगा में प्रदूषण की शुरूआत हो जाती है . धर्मिक, पर्यटन, पूजा-पाठ, मोक्ष और मुक्ति की धारणा ने गंगा को प्रदूषित करना शुरू किया, हरिद्वार के पहले ही गंगा का पानी निचली गंगा नहर में भेजकर उ०प्र० को सींचता है . नरौरा के परमाणु संयंत्र से गंगा के पानी का उपयोग और रेडियोधर्मिता के खतरे गम्भीर आयाम हैं . प्रदूषण की चरम स्थिति कानपुर में पहुंच जाती है, चमडा शोधन और उससे निकला प्रदूषण सबसे गम्भीर है . उस समूचे क्षेत्र में गंगा के पानी के साथ भूमिगत जल भी गम्भीर रूप से प्रदूषित है .




मंगलवार, 27 दिसंबर 2022

Dying rivers due to silting

 

नदियों को  लीलता गाद

पंकज चतुर्वेदी



इस बार मानसून के बिदा होते ही दक्षिण बिहार की अधिकांश नदियाँ असमय सूखने लगीं . यह सच है कि झारखण्ड से सटे बिहार के इलाकों में इस साल बरसात  कुछ कम हुई लेकिन सदियों से सदा नीरा रहीं नदियों का इस तरह  बेपानी हो जाना साधारण घटना कहा नहीं जा सकता. बांका में चिरुगेरुआ , भागलपुर में खल्खालिया , गया में जमुने और मोरहर  , नालंदा में नोनाई और मोहाने ,पूरी तरह सूख गई, , जबकि सीतामढ़ी की मोराहा हो या कटिहार की कारी कोसी व् दरभंगा में जीवछ, गोपाल गंज के झरही – सभी का जल स्तर  तेजी से घट रहा है . थोडी सी बरसात में उफन जाना और  बरसात थमते ही तलहटी दिखने लगना, गोबर पट्टी कहलाने वाले मैदानी भारत की स्थाई त्रासदी बन गया है. यहां बाढ़ और सुखाड़ एकसाथ डेरा जमाते हैं. बारीकी से देखे तो पायेंगे कि असल में नदियों की जल ग्राहम क्षमता कम हो रही है , बरसात होते ही उफान जाना और फिर सूख जाने का साल कारण तो नदियों में बढ़ रहा मलवा और गाद है

इसी साल 12 जुलाई को सी-गंगा यानी सेंटर फार गंगा रिवर बेसिन मेनेजमेंट एंड स्टडीज ने जल शक्ति मंत्रालय को सौंपी गई रिपोर्ट बताती है कि उप्र, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड की 65 नदियां बढ़ते गाद से हाँफ रही हैं. हालांकि गाद नदियों के प्रवाह का नैसर्गिक उत्पाद है और देश के कई बड़े तीर्थ और प्राचीन शहर इसी गाद पर विकसित हुए है , लेकिन जब नदी के साथ बह कर आई गाद को जब किनारों पर माकूल जगह नहीं मिलती तो वह  जल-धारा  के मार्ग में व्यवधान बन जाता है . गाद नदी के प्रवाह मार्ग में जमती रहती है और इसे नदियों उथली होती है , अकेले उत्तरप्रदेश में ऐसी  36 नदियाँ  हैं जिनकी कोख में इतनी गाद है कि न केवल उनकी गति मंथर हो गिया बल्कि कुछ ने अपना मार्ग बदला और उनका पाट संकरा हो गया, रही बची कसार अंधाधुंध बालू उत्खनन ने पूरी कर दी . इनमें से कई का अस्त्तत्व खतरे में है .

उत्तर प्रदेश के कानपुर से  बिठूर तक , उन्नाव के बक्सर – शुक्लागंज तक  गंगा की धार बारिश के बाद घाटों से दूर हो जाती है. वाराणसी, मिर्जापुर और बलिया में गंगा नदी के बीच  टापू बन जाते हो. बनारस के पक्के घाट अंदर से मिट्टी खिसकने से दरकने लगे हो. गाजीपुर, मिर्जापुर, चंदौली में नदी का  प्रवाह कई छोटी-छोटी धाराओं में विभक्त हो जाता है . प्रयागराज के फाफामऊ, दारागंज, संगम, छतनाग और लीलापुर के पास टापू बनते हो. गढ़ मुक्तेश्वर में तो  गंगा की धारा  बीते 50 साल आठ किमी दूर खिसक गई है. बिजनौर के गंगा बैराज पर गाद की आठ मीटर मोटी परत है. आगरा व मथुरा में यमुना गाद से भर गई है. आजमगढ़ में  घाघरा और तमसा के बीच गाद के कारण कई मीटर ऊँचे टापू बन गए हैं घाघरा, कर्मनाशा, बेसो, मंगई, चंद्रप्रभा, गरई, तमसा, वरुणा और असि नदियां गाद  से बेहाल हैं.

बिहार में तो उथली हो रही नदी में गंगा सहित 29 नदियों का दर्द है .जो नदियाँ तेज भाव से  आरही हैं , उनके साथ आये मलवे से भूमि कटाव भी हो रहा है, कई एक जगह नदी के बीच टापू बन गए हैं . झारखंड के साहिबगंज में गंगा, अपने पारंपरिक घाट से पांच किमी दूर चली गई है.  19वीं सदी में बिहार में (जिसमें आज का झारखण्ड भी है ) 6000 से अधिक नदियां बहती थीं, जो आज सिमट कर  600 रह गई है. बिहार का शोक कहलाने वाली कई नदियाँ जैसे गंडक, कोसी, बागमति, कमला, बलान, आदि नेपाल के उंचाई वाले क्षेत्रों से तेजी से लुढक कर राज्य के समतल पर लपकती हैं और इन सभी नदियों के दोनों किनारों पर बाढ़ से बचने के लिए हज़ारों किलोमीटर के पक्के तटबंध हैं . जाहिर है कि पहाड़ झड़ने से उपजा गाद  किनारे जगह पाता और नदियों की तलहटी में बैठ कर उनकी धीमी मौत की इबादत लिखती हैं. झारखंड के साहिबगंज में फरक्का बराज गंगा में गाद का बड़ा कारक है और इसे नदी प्रवाह कई   ठप्प है. साहिबगंज के रामपुर के पास कोसी का गंगा से मिलन होता है . कोसी वैसे ही अपने साथ ढेर मलवा लाती है और उसके आगे ही फरक्का बराज आ जाता है. तभी यहाँ गंगा गाद से सुस्त हो जाती है. राजमहल पहाड़ी पर धड़üे से चल रहे सैकड़ों खदानें और गंगा किनारे पत्थरों गैरकानूनी भंडारण करने से गाद से उथलेपन की स्थिति उत्पन्न हुई है.

विदित हो सन 2016 में केंद्र सरकार द्वारा गठित चितले कमेटी ने साफ कहा था कि नदी में बढती गाद गाद का एकमात्र निराकरण यही है कि  नदी के पानी को फैलने का पर्याप्त स्थान मिले. गाद को बहने का रास्ता मिलना चाहिए. तटबंध और नदी के बहाव क्षेत्रा में अतिक्रमण न हो और अत्यधिक गाद वाली नदियों के संगम क्षेत्र से नियमित गाद निकालने का काम हो. जाहिर है कि ये सिफारिशे किसी ठंडे बस्ते में बंद हो गई और अब नदियों पर रिवर फ्रंट बनाये जा रहे हैं जो न केवल नदी की चौड़ी को कम अक्र्ते हैं, बल्कि जल विस्तार को सीमेंट कंक्रीट से रोक भी देते हैं . परिणाम सामने है थोड़ी सी बरसात में इस साल गुजरात में जम कर शहर- खेतों में पानी भरा

यह दुर्भाग्य है कि विकास के नाम पर नदियों के कचार को सर्वाधिक हडपा गया . असल में कछार नदी का विस्तार होता , ताकि  अधिकतम भी बरसात हो तो नदी के दोनों किनारों पर पानी विस्तार के साथ अविरल बहता रहे. आमतौर पर कचार में केवल मानसून में जल होता है, बाकी समय वहां की नर्म, नम भूमि पर नदी के साथ बह कर आये लावन, जीवाणु का डेरा होता है . फले  इस जमीन पर मौसमी फसल-सब्जी लगाए जाते थे और शायद तभी ऐसे किसानों को “काछी कहा  गया—कछार का रखवाला. काछी, को फ़र्ज़ था कि वह कछार में जमा गाद को आसपास के किसानों को खेत में डालने के लिए दे , जोकि शानदार खाद हुआ करती थी . भूमि के लालच में कछार और उसकी गाद भी लुप्त हो गए और काछी भी और कछार में  आसरा पाने वाले गाद को मज़बूरी में नदी के उदर में ही डेरा ज़माना पड़ता है

गाद के कारण नदियों पर  खड़े हो रहे संकट से उत्तरांचल भी अछूता नहीं हैं . यहाँ तीन नदियाँ गाद से बेहाल हैं . गंगा को बढ़ती गाद ने बहुत नुकसान पहुंचाया है. हिमालय जैसे युवा व जिंदा पहाड़ से निकलने वाली  गंगा के साथ  गाद आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. लेकिन जिस तरह उत्तराखंड में नदी प्रवाह क्षेत्र में बाँध, पनबिजली परियोजनाएं और सड़कें बनीं, उससे एक तो गाद  की मात्रा बढ़ी, दूसरा उसका प्रवाह-मार्ग भी अवरुद्ध हुआ . गाद के चलते ही इस राज्य के कई सौ झरने और सरिताएं  बंद हो गए  और इनसे कई नदियों का उद्गम ही खतरे में है .

नदी मने गाद आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है और इसका निस्तारण भी उसी स्वाभाविक तरीके से होना चाहिए , वर्ना जिस गाद पर मानव सभ्यता का विकास हुआ, व्ही गाद कहीं मानव  के लिए  अपूर्णीय क्षति का कारण न बन जाए .

गुरुवार, 22 दिसंबर 2022

Why teesta water distribution scheme is not being implemented

 

आखिर क्यों नहीं साकार हो रही  है तीस्ता जल वितरण योजना

पंकज चतुर्वेदी




वैसे तो भारत और बांग्लादेश  की सीमायें  कोई 54 नदियों का जल साझा करती हैं और  इसी साल अक्तूबर में बांग्लादेश की प्रधान मंत्री के भारत आगमन पर कुशियारा नदी से पानी की निकासी पर भारत सरकार और बांग्ला देश के बीच समझोता  भी हुआ है, जिसका लाभ दक्षिणी असम  और बांग्लादेश के सिलहट के किसानो को मिलना है , लेकिन तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे  का मसला हर बार  विमर्श में तो आता है लेकिन उस पर सहमती नहीं बन पाती,  तीस्ता नदी  हमारे लिए केवल जलापूर्ति के लिए ही नहीं ,बल्कि बाढ़ प्रबंधन के लिए भी   महत्वपूर्ण है.  



तीस्ता नदी सिक्किम राज्य के हिमालयी क्षेत्र के पाहुनरी ग्लेशियर से निकलती है। फिर पश्चिम बंगाल में प्रवेश करती है और बाद में बांग्लादेश में रंगपुर से बहती हुई फुलचोरी  में ब्रह्मपुत्र नदी में समाहित हो जाती है। तीस्ता नदी की लम्बाई 413 किलोमीटर है। यह नदी सिक्किम में 150 किलोमीटर , पश्चिम बंगाल के 142 किलोमीटर और फिर बांग्लादेश में 120 किलोमीटर बहती है। तिस्ता नदी का 83 फीसदी हिस्सा भारत में और 17 फीसदी हिस्सा बांग्लादेश में है। सिक्किम और  उत्तरी बंगाल के छः  जिलों के कोई करीब एक करोङ बाशिंदे खेती, सिंचाई और पेय जल के लिए इस पर निर्भर हैं . ठीक यही हाल बांग्लादेश का भी है  चूँकि  1947 बंटवारे के समय नदी का जलग्रहण क्षेत्र भारत के हिस्से में आया था , सो इसके पानी  का वितरण  ब्बीते 75 साल से अनसुलझा है. सन 1972 में पाकिस्तान से अलग हो कर बांग्लादेश के बना और उसी साल दोनों देशों ने साझा नदियों के जल वितरण पर सहमती के लिए संयुक्त जल आयोग का गठन किया . आयोग की पहली रिपोर्ट 1983 में आई , जिसके मुताबिक सन 1983 में भारत और बांग्लादेश के बीच तीस्ता नदी को लेकर एक समझौता हुआ. इसके तहत 39 प्रतिशत जल भारत को और  बांग्लादेश को 36 प्रतिशत जल मिलना तय हुआ .  25 प्रतिशत जल को यूँ ही रहने दिया और बाद में भारत इसका इस्तेमाल करने लगा. इस पर बांग्लादेश को आपत्ति रही लेकिन उसने भी  सन 1998 अपने यहाँ तीस्ता नदी पर एक बांध बना लिया  और भारत से अधिक पानी की मांग करने लगा . ठीक उसी समय भारत ने जलपाईगुड़ी जिले के मालबाजार उपखंड में नीलफामारी में तीस्ता नदी ग़ज़लडोबा बांध बना लिया . इससे तीस्ता नदी का नियंत्रण भारत के हाथ में चला गया। बांध में 54 गेट हैं जो तीस्ता की मुख्य धारा से पानी को विभिन्न क्षेत्रों में मोड़ने के लिए हैं। बांध मुख्य रूप से तीस्ता के पानी को तीस्ता-महानंदा नहर में मोड़ने के लिए बनाया गया था।


सितंबर 2011 में, भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह जब ढाका गए तो तीस्ता जल बंटवारा समझौता होना तय हुआ था . मसौदे के मुताबिक़ अंतरिम समझौते की अवधि 15 वर्ष थी और तीस्ता के 42.5 फीसदी पानी पर भारत का और 37.5 फीसदी पर बांग्लादेश का हक होना था. उस समय पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विरोध किया और  समझोता हो नहीं पाया . फिर 2014 में, प्रधान मंत्री शेख हसीना भारत का दौरे पर आई तो एक बार समझोते की उम्मीद बढ़ी. उस बार  सुश्री शेख हसीना ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात भी की लेकिन ममता बनर्जी  असहमत रहीं . उनका कहना अथा की इस समझोते से उत्तर बंगाल के लोगों का पानी छीन कर बांग्लादेश दिया जा रहा है . सन 2015 में ममता बनर्जी ने प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ढाका  दौरे पर गई , उन्होंने समझोते के प्रति  सकारात्मक बयान भी दिए लेकिन बात फिर कहीं अटक गई . जान लें जब हम इस समय 62 .5 फ़ीसदी पानी का इस्तेमाल आकर ही रहे हैं तो  42.5 पर आना तो घाटे का सौदा ही लगेगा .दौरा किया था. हालाँकि उस समय तीस्ता संधि के बारे में सकारात्मक बयान दिए गए थे, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला.

 विदित हो 5 जनवरी, 2021 को भारत-बांग्लादेश संयुक्त नदी आयोग की तकनीकी समिति की संपन्न बैठक में बहुत सी नदियों के जल वितरण के समझोते के मसौदे को अंतिम रूप दिया गया . त्रिपुरा के सबरूम शहर में पानी के संकट को दूर करने के लिए फेनी नदी से 1.82 क्यूसेक पानी निकालने पर बांग्लादेश ने मानवीय आधार प् सहमती भी दी लेकिन तीस्ता जल के वितरण का मुद्दा अनसुलझा ही रहा .

यह तय है कि तीस्ता भी जलवायु परिवर्तन और ढेर सारे बांधों के कारण संकट में है .ग़ज़लडोबा बांध से पहले जहां तीस्ता बेसिन में 2500 क्यूसेक पानी उपलब्ध था, आज यह बहाव 400 क्यूसेक से भी कम है. 1997 में बांग्लादेश में शुष्क मौसम के दौरान, तीस्ता में पानी का प्रवाह लगभग 6,500 क्यूसेक था, जो 2006 में घटकर 1,348 क्यूसेक हो गया और 2014 में यह केवल 800 क्यूसेक रह गया. नदी में जल कम होने का खामियाजा  डॉन तरफ के किसानों को उठाना पद रहा है . दुर्भाग्य है की यह सदानीरा नदी गर्मी में बिलकुल सूख जाती है और लोग पैदल ही नदी पार करते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि सलीके से वितरण, बाढ़ प्रबंधन  और बेसिन क्षेत्र में कम बरसात के चलते तीस्ता एक मृत नदी में बदल गई है.  अगर ऐसा ही चलता रहा तो न सिर्फ जनजीवन बल्कि जैव विविधता को भी खतरा होगा। तीस्ता जल बंटवारा समझौता अब समय की मांग है। लेकिन तीस्ता जल-साझाकरण समझौते पर भारत की शिथिलता स्थानीय राजनीती के जंजाल में फंसी हुई है .

दोनों पडोसी देशों के बीच समझोता न हो पाने का लाभ चीन उठा रहा है.  पेइचिंग ने बांग्ला देश को 937. 8 मिलियन डॉलर की मदद दे कर तीस्ता मेगा परियोजना शुरू करवा दी है . इसके तहत  एक बड़े जलाशय का निर्माण ,  नदी के गहरीकरण के लिए खुदाई , लभग 173 किलोमीटर पर नदी तटबंध निर्माण की योजना है . इसके पूर्ण होने से  बाढ़ के समय  तीस्ता का जल  तेज प्रवाह से बांग्लादेश की तरफ जाएगा और भंडारण भी होगा, इसका सीधा असर भारत पर पडेगा

तीस्ता नदी में अपार संभावनाएं हैं। यदि तीस्ता जल-साझाकरण समझौते या तीस्ता परियोजना का उचित कार्यान्वयन संभव हो जाता है तो न केवल तीस्ता तट या उत्तर बंगाल के लोग बल्कि पूरे बांग्लादेश को इसका लाभ मिलेगा। उत्तर बंगाल की जनता के सार्वजनिक जीवन में बदलाव आएगा। पूर्वोत्तर राज्यों में बाढ़ नियंत्रण होने से अर्थव्यवस्था समृद्ध होगी.

बुधवार, 21 दिसंबर 2022

It is important to keep the soldiers stress-free.

 

जवानों को तनावमुक्त रखना जरूरी है।

पंकज चतुर्वेदी



पिछले दो साल में बस्तर में नक्सलवाद से जूझ रहे सुरक्षा बलों के बीस से अधिक जवानो द्वारा आत्महत्या कर लेना और अपने ही साथियों पर गोली चलाने की आधा दर्जन घटनाओं पर  भले ही  लापरवाही हो परेतु ऐसा होना  हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर चेतावनी है।  इसी साल 14 नवंबर को कोंडागांव के ध्नोरा थाने के जवान साजेन्द्र ठाकुर ने खुदकुशी कर ली, उससे पहले तीन नवंबर को  नरायणपुर के कहकमेटा में जवान अरूण उईके ने खुद को गोली मार ली। इस साल ही अभी तक ऐसी आठ दुखद घटनाएं हो चुकी हैं। गत एक दशक के दौरान बस्तर में 115 जवान ऐसी घटनाओं में मारे गए। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कोई भी जवान ऐसे कदम बेहद तनाव या असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो कर उठाता है। आखिर वे दवाब में क्यों ना हों ? ना तो उन्हें साफ पानी मिल रहा है और ना ही माकूल स्वास्थ्य सेवाएं।



जान कर दुख होगा कि नक्सली इलाके में सेवा दे रहे जवानों की मलेरिया जैसी बीमारी का आंकड़ा उनके लडते हुए शहीद होने से कहीं ज्यादा होता है। कुछ साल पहले सरकार ने बस्तर जैसे  स्थानों पर बेहद विषम हालात में सेवाएं दे रहे अर्धसैनिकों को तनावमुक्त रखने के लिए म्यूजिक थैरेपी’’ यानि संगीत के इस्तेमाल का प्रयेाग करना शुरू किया था , लेकिन अभी इसका लाभ आम जवान तक पहुंचता नहीं दिख रहा है क्योंकि उनकी ड्यूटी इतनी विषम है कि इस तरह के मनोरंजन के लिए उनके पास एमी निकलता नहीं ।  इन जवानों की ही मेहनत है कि उन्होंने बस्तर में नक्सलवाद की कमर तोड़ दी है।  विडंबना है कि चौबीसों घंटे चौकस रहने के कारण तनावग्रस्त जवान को ना तो न्यूनतम स्वास्थ्य सेवाएं है, ना ही साफ पीने का पानी आर ना ही अपनों से सपर्क के लिए बेहतर संचार प्रणाली।



ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ने एक जांच दल बनाया था जिसकी रिपोर्ट जून -2004 में आई थी। इसमें घटिया सामाजिक परिवेश, प्रमोशन की कम संभावनाएं, अधिक काम, तनावग्रस्त कार्य, पर्यावरणीय बदलाव, वेतन-सुविधाएं , छुट्टी की दिक्कतें जैसे मसलों पर कई सिफारिशें  की गई थीं । इनमें संगठन स्तर पर 37 सिफारिश , निजी स्तर पर आठ और सरकारी स्तर पर तीन सिफारिशें थीं। इनमें छुट्टी देने की नीति में सुधार, जवानों से नियमित वार्तालाप , शिकायत निवारण को मजबूत बनाना, मनोरंजन व खेल के अवसर उपलब्ध करवाने जैसे सुझाव थे। इन पर कागजी अमल भी हुआ, लेकिन जैसे-जैसे देश  में उपद्रव ग्रस्त इलाका बढ़ता जा रहा है , अर्ध सैनिक बलों व फौज के काम का दायरे में विस्तार हो रहा है। ड्यूटी की अधिकता में उस समिति की सिफारिशें जमीनी हकीकत बन नहीं पाई।



यह एक कड़ा सच है कि हर साल दंगा, नक्सलवाद, अलगाववादियों, बाढ़ और ऐसी ही विकट परिस्थितियों  में संघर्ष  करने वाले इस बल के लोग मैदान में लड़ते हुए मरने से कहीं ज्यादा गंभीर बीमारियों से मर जाते हैं। यह बानगी है कि जिन लेागों  पर हम मरने के बाद नारे लुटाने का काम करते हैं, उनकी नौकरी की शर्तें  किस तरह असहनीय, नाकाफी और जोखिमभरी हैं। केंद्रीय गृहमंत्रालय के आंकड़े बताते है कि केंद्रीय बलों में जवानों के आत्महत्याओं के ज्यादा मामले सामने आए है। वर्ष 2015 से 2021 तक 7 वर्षो में पूरे देश मे जवानों की शहादत से ढाई गुना अधिक जवानों ने आत्महत्या की है। इस दौरान जहां सीआरपीएफ, बीएसएफ, सीआईएसएफ,असम राइफल्स, आईटीबीपी और एसएसबी के 821 जवानों ने आत्महत्या की है जबकि इस दौरान देश के विभिन्न भागों में हुई मुठभेड़ों में 323 अर्धसैनिक जवानों ने अपनी शहादत दी है। इन सात वर्षों में सीआरपीएफ के 218 जवान शहीद हुए है। वहीं 292 जवानों ने आत्महत्या की है। यह आंकड़े चिंताजनक हैं। इस समस्या से निपटने के लिए गम्भीर प्रयास किये जाने की जरूरत है ।


अपने ही साथी या अफसर को गोली मार देने के मामले भी आए रोज सामने आ रहे हैं। कुल मिला कर सीआरपीएफ दुश्मन से नहीं खुद से ही जूझ रही है। बस्तर हो या झारखण्ड या कश्मीर या फिर पूर्वोत्तर भारत ; सुदूर बाहर से आए केंद्रीय बलों के जवान ना तो स्थानीय भूगोल से परिचित हैं , ना ही उन्हें स्थानीय बोली-भाषा- संस्कार की जानकारी होती है और ना ही उनका कोई अपना इंटेलिजेंस नेटवर्क बन पाया है। वे तो मूल रूप से स्थानीय पुलिस की सूचना या दिशा निर्देश पर ही काम करते हैं।

दुनिया की सबसे खूबसूरत जगहों में से है बस्तर, हरियाली, झरने, पषु-पक्षी और इंसान भी सभी नैसर्गिक वातावरण में उन्मुक्त । भले ही अखबार की सुर्खिया डराएं कि बस्तर में बारूद की गंध आती है लेकिन हकीकत तो यह है कि किसी भी बाहरी पर्यटक के लिए कभी भी कोई खतरा नहीं है। पूरी रात जगदलपुर से रायपुर तक आने वाली सड़क वाहनों से आबाद रहती है। यहां टकराव है तो बंदूकों का, नक्सलवाद ने यहां गहरी जड़ें जमा ली है। जब स्थानीय पुलिस उनके सामने असहाय दिखी तो केंद्रीय सुरक्षा बलों को यहां झोंक दिया गया।  विडंबना है कि उनके लिए ना तो माकूल भोजन-पानी है और ना ही स्वास्थ्य सेवाएं, ना ही सड़कें और ना ही संचार। हालाँकि बस्तर में गत एक दशक के दौरान स्थानीय युवकों को बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों में भर्ती किया गया , लेकिन यह दुखद है की आत्महत्या करने वालों में ऐसे युवा भी कम नहीं हैं – कारण – वे तो थाने, असलाह और बल के साथ निरापद रहते हैं लेकिन उनके परिवारों पर गाँवों में नक्सलियों की निगाह रहती है, उनके परिवार ढेर सारा सामजिक बहिष्कार झेलते हैं, एक तरफ उन पर स्थानीय होने के कारण अधिक सूचना और ओपरेशन का दवाब होता है तो दूसरी तरफ परिवार की परवाह भी , आदिवासी मस्त मौला होते है और इस तरह का अत्नाव झेलने में उन्हें दिक्कत होती है .

यह किसी से छिपा नहीं है कि स्थानीय पुलिस की फर्जी व शोषण  की कार्यवाहियों के चलते दूरस्थ अंचलों के ग्रामीण खाकी वर्दी पर भरोसा करते नहीं हैं। अधिकांश मामलों में स्थानीय पुलिस की गलत हरकतों का खामियाजा केंद्रीय बलों को झेलना पड़ता है।  बेहद घने जंगलों में लगतार सर्चिग्ंा व पेट्रोलिंग का कार्य बेहद तनावभरा है, यहा दुष्मन अद्ष्य है, हर दूसरे इंसान पर षक होता है, चाहे वह छोटा बच्चा हो या फिर फटेहाल ग्रामीण। पूरी तरह बस अविश्वास , अनजान भय और अंधी गली में मंजिल की तलाश । इस पर भी हाथ बंधे हुए, जिसकी डोर सियासती आकाओं के हाथों मैं। लगातार इस तरह का दवाब कई बार जवानों के लिए जानलेवा हो रहा है।

सड़कें ना होना, महज सुरक्षा के इरादे से ही जवानों को दिक्कत नहीं है, बल्कि इसका असर उनकी निजी जिंदगी पर भी होता है। उनकी पसंद का भेाजन, कपड़े, यहां तक कि पानी भी नहीं मिलता है। बस्तर का भूजल बहुत दूशित है, उसमें लोहे की मात्रा अत्यधिक है और इसी के चलते गरमी षुरू होते ही आम लोगों के साथ-साथ जवान भी उल्टी-दस्त का षिकार होते हैं। यदा-कदा कैंप में टैंकर से पानी सप्लाई होती भी है, लेकिन वह किसी वाटर ट्रीटमेंट प्लांट से षेाधित हो कर नहीं आता है। कहते हैं कि जवान पानी की हर घूट के साथ डायरिया, पीलिया व टाईफाईड के जीवाणू पीता है।बेहद उमस, तेज गरमी यहां के मौसम की विषेश्ता है और इसमें उपजते हैं बड़े वाले मच्छर जोकि हर साल कई जवानों की असामयिक मौत का कारण बनते हैं। हालांकि जवानों को कडा निर्देष है कि वे मच्छरदानी लगा कर सोऐं, लेकिन रात की गरमी और घने जंगलों में चौकसी के चलते यह संभव नहीं हो पाता। यहां तक कि बस्तर का मलेरिया अब पारंपरिक कुनैन से ठीक नहीं होता है। घने जंगलों, प्राकृतिक झरनों और पहाड़ों जैसी नैसर्गिक सुंदरता से भरपूर बस्तर में भी पूरे देष की तरह मौसम बदलते हैं, उनके स्थानीय बोलियों में नाम भी हैं, लेकिन वहां के बाषिंदे इन मौसमों को बीमारियों से चीन्हते हैं। इसके बावजूद केंद्रीय बलों के जवानों के लिए स्वास्थ्य सेवाए बेहद लचर है।। जवान यहां-वहां जा नहीं सकते, जगदलपुर का मेडिकल कालेज बेहद अव्यवस्थित सा है।

मोबाईल नेटवर्क का कमजोर होना भी जवानों के तनाव व मौत का कारण बना हुआ है। सनद रहे कि बस्तर की क्षेत्रफल केरल राज्य से ज्यादा है। यहां बेहद घने जंगल हैं और उसकी तुलना में मोबाईल के टावर बेहद कम हैं। आंचलिक क्षेत्रों में नक्सली टावर टिकने नहीं देते तो कस्बाई इलाकों में बिजली ठीक ना मिलने से टावर कमजोर रहते हैं। बेहद तनाव की जिंदगी जीने वाला जवान कभी चाहे कि अपने घर वालों का हालचाल जान ले तो भी वह बड़े तनाव का मसल होता है। कई बार यह भी देखने में आया कि सिग्नल कमजोर मिलने पर जवान फोन पर बात करने कैंप से कुछ बाहर निकला और नक्सलियों न उनका षिकार कर दिया। कई कैंप में जवान ऊंचे एंटिना पर अपना फोन टांग देते हैं व उसमें लंबे तार के साथ इयर फोनलगा कर बात करने का प्रयास करते हैं। सीआरपीएफ की रपट मे ंयह माना गया है कि लंबे समय तक तनाव, असरुक्षा व एकांत के माहौल ने जवानों में दिल के रोग बढ़ाए हैं। वहीं घर वालों का सुख-दुख ना जान पाने की दर्द भी उनको ंभीतर ही भीतर तोड़ता रहता है। तिस पर वहां मनोरंजन के कोई साधन हैं नहीं और ना ही जवान के पास उसके लिए समय है।

यह भी चिंता का विशय है कि सीआरपीएफ व अन्य सुरक्षा बलों में नौकरी छोड़ने वालों की संख्या में 450 प्रतिषत की बढ़ौतरी हुई है। अफसर स्तर पर बहुत कम लोग हैं। साफ दिख रहा है कि जवानों के काम करने के हालात सुधारे बगैर बस्तर के सामने आने वाली सुरक्षा चुनौतियों से सटीक लहजे में निबटना कठिन होता जा रहा है। अब जवान पहले से ज्यादा पढ़ा-लिखा आ रहा है, वह पहले से ज्यादा संवेदनषील और सूचनाओं से परिपूर्ण है; ऐसे में उसके साथ काम करने में अधिक जगरूकता व सतर्कता की जरूरत है। नियमित अवकाष, अफसर से बेहतर संवाद, सुदूर नियुक्त जवान के परिवार की स्थानीय परेषानियों के निराकरण के लिए स्थानीय प्रषासन की प्राथमिकता व तत्परता, जवानों के मनोरजंन के अवसर, उनके लिए पानी , चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं को पूरा करना आदि ऐसे कदम हैं जो जवानों में अनुषासन व कार्य प्रतिबद्धता, देानो को बनाए रख सकते हैं। यही नहीं, जब तक सीआरपीएफ के जवान को दुष्मन से लड़ते हुए मारे जाने पर सेना की तरह षहीद का दर्जा व सम्मान नहीं मिलता, उनका मनोबल बनाए रखना कठिन होगा। यह कैसी विडंबना है कि पूरा देष अपने जवानेंा को याद करने के लिए उनकी षहादत का इंतजार करता है। महज साफ पानी, मच्छर से निबटने के उपाय, जवानों का नियमित स्वास्थ्य परीक्षण कुछ ऐसे उपाय हैं जो कि सरकार नही ंतो समाज अपने स्तर पर अपने जवानों के लिए मुहैया करवा सकता है ताकि जवान एकाग्र चित्त से देष के दुष्मनों से जूझ सकें ।

 

 

 

 

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

Amrit Talab can make India 'watery'

 

अमृत  तालाब बना सकते हैं भारत को पानीदार
पंकज चतुर्वेदी


भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में भले ही खेती-किसानी का योगदान महज 17 फीसदी हो लेकिन आज भी यह रोजगार मुहैया करवाने का सबसे बड़ा माध्यम है। ग्रामीण भारत की 70 प्रतिशत आबादी का जीवकोपार्जन खेती-किसानी पर निर्भर है।  लेकिन दुखद पहलु यह भी है कि हमारी लगभग 52 फीसदी खेती इंद्र देवता की मेहरबानी पर निर्भर है। महज 48 फीसदी खेतों को ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है और इसमें भी भूजल पर निर्भरता बढ़ने से बिजली, पंप, खाद, कीटनाशक के मद पर खेती की लागत बढ़ती जा रही है। एक तरफ देश की बढ़ती आबादी के लिए अन्न जुटाना हमारे लिए चुनौती है तो दूसरी तरफ लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही खेती-किसानी को हर साल छोड़ने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।  अब यह किसी से छुपा नहीं है कि सिंचाई की बड़ी परियोजनाएं  लागत व निर्माण में लगने वाले समय की तुलना में कम ही कारगर रही हैं। ऐसे में समाज को सरकार ने अपने सबसे सषक्त पारंपरिक जल-निधि तालाब की ओर  आने का आह्वान किया है।  आजादी के 75 साल के अवसर पर देश  के हर जिले में  75 सरोवरों की येजना पर काम हो रहा है।



गत 22 अप्रैल 2022 को  प्रारंभ की गई इस योजना में देश  के प्रत्येक जिले में 75 जलाषय निर्माण का लक्ष्य रखा गया है। 03 दिसंबर 2022 तक देश  में कुल 91226 स्थानें को चयन किया गया, जबकि 52894 स्थानों पर काम भी शुरू  हो गया।  सरकारी आंकड़े कहते हैं कि ऐसे 25659 तालाब बन कर भी तैयार हो गए। इनमें सबसे ज्यादा तालाब उत्तर प्रदेश  में हैं - चिन्हित स्थान 15845, काम शुरू  हुआ 10803 और  8562 तालाब बन कर तैयार भी हो गए। मप्र में 6958 स्थानों का चयन, 5454 पर काम शुरू  और 2227 पर संपन्न हो गया हे। इसके बाद स्थान है राजस्थान का जहां अभी तक 978  सरोवर बन गए हैं जबकि 3329 पर काम चल रहा है। यहां 5176 तालाब का लक्ष्य है। उल्लेखनीय है कि  केंद्र सरकार के विभागीय पोर्टल पर इस कार्य के प्रति दिन की प्रगति की रिपोर्ट डाली जाती है, जो बानगी हे इसकी तेज गति की।

 हालांकि  सच्चाई यह है कि सरोवर तैयार करना अपने आप में एक जटिल प्रक्रिया है और उसके स्थान का चयन हमारा पारंपरिक जल-आगम,  स्थान की मिट्टी के मिजाज, स्थानीय जलवायु आदि के अनुरूप करता था। केंद्र सरकार के निर्देष के जल्द के क्रियान्वयन  के लिए जिला सरकारों ने अभी तक पुराने तालबों को ही चमकाया है। जरा सोचें देश  के कुल 773 जिलों मे यदि येजना सफल हो गई तो लगभग नब्बे हजार ऐसे  तालाब होंगे जिनका आमाप यदि प्रत्येक तालाब औसतन एक हैक्टर और दस फुट गहराई का भी हुआ तो 27 अरब  क्यूबिक लीटर क्षमता  का विषाल भंडार होगा। एक हैक्टर यानी 10 हजार मीटर, दस फुट यानी 3.048 मीटर, हर तालाब की क्षमता 30 हजार वर्ग मीटर । एक हजार लीटर जल यानी एक क्यूबिक मीटर -जाहिर है कि हर तालाब में 30 हजार क्यूबिक मीटर जल होगा और सभी 90 हजार सरोवर सफल हुए तो  हम पानी पर पूरी तरह स्थानीय स्तर पर आत्म निर्भर बन सकते हैं।


उल्लेखनीय है कि हमारे देश में औसतन 1170 मिमी पानी सालाना आसमान से नियामत के रूप में बरसता है।  देश में कोई पांच लाख 87 हजार के आसपास गांव हैं।  यदि औसत से आधा भी पानी बरसे और हर गांव में महज 1.12 हैक्ेयर जमीन पर तालाब बने हों तो  देश की कोई एक अरब 30 करोड़ ़ आबादी के लिए पूरे साल पीने, व अन्य प्रयोग के लिए 3.75 अरब लीटर पानी आसानी से जमा किया जा सकता है। एक हैक्टेयर जमीन पर महज 100मिमी बरसात होने की दशा में 10 लाख लीटर पानी एकत्र किया जा सकता है। देश के अभी भी अधिकांश गांवों-मजरों में पारंपरिक तालाब-जोहड़, बावली, झील जैसी संरचनांए उपलब्ध हैं जरूरत है तो बस उन्हें करीने से सहेजने की और उसमें जमा पानी को गंदगी से बचाने की। ठीक इसी तरह यदि इतने क्षेत्रफल के तालाबों को निर्मित किया जाए तो किसान को अपने स्थानीय स्तर पर ही सिंचाई का पानी भी मिलेगा। चूंक तालाब लबालब होंगे तो जमन की पर्याप्त नमी के कारण सिंचाई-जल कम लगेगा, साथ ही खेती के लिए अनिवार्य प्राकृतिक लवण आदि भी मिलते रहेंगे।


आजादी के बाद सन 1950-51 में लगभग 17 प्रतिशत खेत(कोई 36 लाख हैक्टेयर) तालाबों से सींचे जाते थे। आज के कुल सिंचित क्षेत्र में तालाब से सिंचाई का  रकवा घट कर 17 लाख हैक्टेयर अर्थात महज ढाई फीसदी रह गया है। इनमें से भी दक्षिणी राज्यों ने ही अपनी परंपरा को सहजे कर रखा। हिंदी पट्टी के इलाकों में तालाब या तो मिट्टी से भर कर उस पर निर्माण कर दिया गया या फिर तालाबों को घरेलू गंदे पानी के नाबदान मे बदल दिया गया। यह बानगी है कि किस तरह हमारे किसानों ने सिंचाई की परंपरा से विमुख हो कर अपने व्यय, जमीन की बर्बादी को आमंत्रित किया।

अमृत सरोवर योजना देखने में बहुत लुभावनी है और इसके कार्य के लिए मनरेगा सहित सभी योजनाओं से धन आवंटन की भी सुविधा है लेकिन यदि इसे प्रारंभ  में केवल हर जिले में उपस्थित  तीन हैक्टेयर या उससे बडे़ तालाबों के चिन्हीकरण और उनको पारंपरिक स्वरूप में संवारने तक सीमित रखा जाता तो योजना अधिक  धरातल पर दिखती। असल में हर जिले में जो सैंकड़ो साल पुरानी जल संरचनांए हैं , वे केवल जल ग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण और निस्तार की गंदगी डालने से ही बेजान हुई है। यदि  योजना का अमृत पहले इन पर गिरता तो परिणाम  अलग होते।


जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव अब सभी के सामने है, मौसम की अनिश्तिता और चरम हो जाने की मार सबसे ज्यादा किसान पर है। भूजल के हालात पूरे देश में दिनों-दिन खतरनाक होते जा रहे हैं। उधर बड़े बांधों के असफल प्रयोग  और कुप्र्रभावों के चलते पूरी दुनिया में इनका बहिष्कार हो रहा है। बड़ी सिंचाई परियोजनाएं एक तो बेहद महंगी होती हैं, दूसरा उनके विस्थापन व कई तरह की पर्यावरणीय समस्याएं खड़ी होती हैं। फिर इनके निर्माण की अवधि बहुत होती है। ऐसे में खेती को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए भारतीय समाज को डअपनी जड़ों की ओर लौटना होगा- फिर से खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों पर निर्भरता। यह जमीन की नमी सहेजने सहित कई पर्यावरणीय संरक्षण के लिए तो सकारात्मक है ही, मछली पालन, मखाने, कमल जैसे उत्पादों के उगाने की संभावना के साथ किसान को अतिरिक्त आय का जरिया भी देता है। तालाबा को सहेजने और उससे पानी लेने का व्यय कम है ही। यही नहीं हर दो-तीन साल में तालाबों की सफाई से मिली गाद बेशकीमती खाद के रूप में किसान की लागत घटाने व उत्पादकता बढ़ाने का मुफ्त माध्यम अलग से है।



तालाब केवल इस लिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जल स्त्रोत हैं, तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। सन 1944 में गठित फेमिन इनक्वायरी कमीशनने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे । कमीशन की रिर्पाट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई । आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया । चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना ; देश  के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे । मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा , कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी ; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं । तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे 


यदि देश में खेती-किसानी को बचाना है, अपनी आबादी का पेट भरने के लिए विदेश से अन्न मंगवा कर विदेशी मुद्रा के व्यय  से बचना है, यदि शहर की ओर पलायन रोकना है तो जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर उपलब्ध तालाबों की ओर लौटा जाए। खेतों की सिंचाई के लिए तालाबों के इस्तेमाल को बढ़ाया जाए और तालाबों को सहेजने के लिए सरकारी महकमों के बनिस्पत स्थानीय समाज को ही शामिल किया जाए।

 

 

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...