My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 28 जुलाई 2015

Beware of Burning Punjab

सावधान पंजाब सुलग रहा हैा 


पीपुल्‍स समाचार 28 जुलाई 15
पूरे 11 घंटे चली मुठभेड़, पुलिस ने अपनी ‘‘सफलता ’’ का दावा भी कर दिया, लेकिन ऐसी सफलता मिलने में शायद बहुत देर हुई, एक पुलिस अधीक्षक सहित चार जवान और आठ नागरिक मारे जा चुके थे।  आपरेशन समाप्त करते ही घोषणा भी कर दी गई कि मारे गए लोग लश्‍कर के आतंकवादी थे, हालांकि ना तो वे इस तरह का कोई पहचान पत्र लिए थे औक्र ना ही उनकी इस तरह की कोई विशिष्‍ठ पहचान होती है। राज्य के मुख्यमंत्री ने अपना पल्ला झाड़ लिया कि आतंकवाद केंद्र का विशय है, इसका राज्य से कोई लेना-देना नहीं हैं और सरकार ने भी उन आषंकाओं पर विराम लगा दिया कि इस सनसनीखेज वारदात में पंजाब के खालिस्तान समर्थकों की कोई भूमिका है। हो सकता है कि यह अवधारणा सही भी हो, लेकिन सोशल मीडिया पर इस हमले को खालिस्तान समर्थक अपने शौर्य के तौर पर ही पेश कर रहे हैं। ऐसी आशंका निराधार भी नहीं है, आखिर पंजाब में बीते कुछ सालों से जो कुछ चल रहा है, वह इषारा तो यही कर रहा है कि वहां राख के नीचे कहीं ना कहीं उष्‍मा बरकरार है व पाकिस्तान की शैतान एजेंसी आईएसआई उसमें फूंक मारने से बाज नहीं आ रही है।
Ptrabhat , Meerut, 2-8-15

बीच में रावी नदी है। इस तरफ है गुरदासपुर का गुरूद्वारा डेरा बाबा नानक और नदी के दूसरे तट पर है पाकिस्तान के नारोवाल जिले का गुरूद्वारा करतारपुर। यहां बाबा नानक के अंतिम सांस ली थी। भले ही ये दो अलग मुल्क दिखते हैं, लेकिन रावी पार कर इधर से उधर जाना कोई कठिन नहीं है। देानों देष के सिख सुबह-सुबह अपने गुरूद्वारे से दूसरे को सीस नवांते हैं। यहीं सक्रिय है चार संगठन - खलिस्तान जिंदाबाद फोर्स (रणजीत ंिसह), खलिस्तान टाईगर फोर्स(जगतार सिंह तारा), बब्बर खालसा इंटरनेशनल(वधवा सिंह) और खालिस्तान लिबरेशन फोर्स(हरमिंदर सिंह मिंटू)। कहने की जरूरत नहीं है कि भारत द्वारा वांछित सूची के कई आतंकवादी यदि उस पार सुकून की जिंदगी बिता रहे हैं तो यह उस सरकार की रजामंदी के बगैर हो नहीं सकता।  बीते एक दशक के दौरान पंजाब में युवाओं का खेती से मोह भंग हुआ, कनाड़ा व दीगर देशों में जाने का लालच बढ़ा और अचानक ही सीमापार से अफीम व अन्य मादक पदार्थों की आवक बढ़ी। अफगानिस्तान हो या पूर्वी अफ्रीका या फिर पंजाब, हर जगह आतंकवाद हर समय नशाखोरी पर सवार हो कर ही आया है। पंजाब में नशे की तिजारत को ले कर खूब सियासत भी हुई, कई बड़े-बड़े नामों तक इसकी आंच भी गई। गौर करें किसन 1993 में पंजाब से लगी पाकिस्तान की 466 किलोमीटर की सीमा पर कंटीली बाढ़बंदी व फ्लड लाईटें लगाने का काम पूरा हो गया था, और उसके बाद वहां कीाी भी घुसपैठ की कोई शिकायत आई नहीं। बेअंत सिंह की हत्या के बाद राज्य में यही बड़ी आतंकवादी घटना हुई है, वह भी लगभग 20 साल बाद।
हम यह मान लेते हैं कि गुरदासपुर की घटना का पंजाब में आतंकवाद से कोई ताल्लुक नहीं है, लेकिन मन यह कैसे मान लेगा कि आपरेशन ब्लू स्टार की 31 बरसी के मौके पर अभी दो महीने पहले ही स्वर्णमंदिर में जम कर खालिस्तान के पक्ष में नारे लगे थे और ऐसे 22 युवाओं को केंद्रीय खुफिया एजेंसी ने चिन्हा भी है। ये सभी युवा बेकार थे व शान की जिंदगी जी रहे हैं। इनके खातों में कनाड़ा व कुछ अन्य देशों से पैसा आता है। ‘‘खालिस्तान. नेट’’ और ‘सर्च सिखिस्म.काॅम’’ जैसे दर्जनभर वेबसाईट, फॅेसबुक पर ऐसे आाधा सैंकडा पेज खुलेआम चुगली करते हैं कि पंजाब में सबकुछ इतना भी सामान्य नहीं है। अब गुरूदासपुर की घटना को ही लें, सुरक्षा बलों ने तीन को मार कर ‘‘जयकारा’’ लगा दिया, लेकिन एक सामान्य बुद्धि इंसान भी भांप जाएगा कि इस पूरी साजिश में कहीं ज्यादा लोग थे।
यदि ये तीन गुरदासपुर के रषश्ट्रीय राजमार्ग पर दो घंटे कोहराम मचा कर थाने में घुस गए थे तो रेल की पटरियों पर बाकायदा बिजली के तारों के साथ डिटोनेटर बांधने का काम कब व किसने किया था। यह भूल जाएं कि आतंकवाद का कोई धर्म होता है, लेकिन यह कटु सत्य है कि आतंकवादी धर्म की घुट्टी पीकर ही  अराजक व पिषाच बन जाते हैं।  ए वरिश्ठ खुफिया अधिकारी की तात्कालिक टिप्पणी है कि पूरी योजना में सीमा पार करवाने से ले कर जीपीआरएस सिस्टम मुहैया करवाने, रैकी करने आदि में कम से कम 15 लोग का काम है यह और इसमें से कई स्थानीय ही हैं। षायद पाठक भूले नहीं होंगे कि ब्लू स्टार की बरसी के ठीक पहले जम्मू में उस अवसर पर जलसे की तैयारी कई दिनों पहले से की गई। पंजाब में कुछ सालों से किस तरह सरहद पार बैठे लोग खलिस्तान को कब्र से निकाल कर जिलाना चाहते हैं, यह भी दबा-छुपा नहीं है, इसके बावजूद कहीं ना कहीं कुछ चूक तो हो ही गई कि सीमावर्ती जम्मू के रानीगंज व नवांषहर में पांच दिन तक हिंसा चलती रही। एक युवक मारा गया, एक सुरक्षा अधिकारी की एके-47 राईफल छीन ली गई। कष्मीर में अलग राज्य की मांग करने वाले वाले पंजाब में अलग खालिस्तान की मांग व षहीदी समागम के नाम पर भिंडरावाले , षुबेग सिंह सहित कई आतंकवादियों का महिमामंडन करने में हमारी सरकारों का भेदभाव कहीं हालात को और ना बिगाड़ दे।
जरा कुछ महीनों पीछे ही जाएं, सितंबर- 2014 में बब्बर खालसा का सन 2013 तक अध्यक्ष रहा व बीते कई दषकों से पाकिस्तान में अपना घर बनाएं रतनदीप सिंह की गिरफ्तारी पंजाब पुलिस ने की। उसके बाद  जनवंबर- 14 में ही दिल्ली हवाई अड्डे से खलिस्तान लिबरेषन फोर्स के प्रमुख हरमिंदर सिंह उर्फ मिंटू को एक साथी के साथ गिरफ्तार किया गया। ये लेाग थाईलैंड से आ रहे थे। पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामले में सजायाफ्ता व  सन 2004 में अतिसुरक्षित कहे जाने वाली चंडीगढ की बुढैल जेल से सुरंग बना कर फरार हुए जगतार सिंह तारा को जनवरी-2015 में थाईलैंड से पकड़ा गया। एक साथ विदेषों में रह कर खालिस्तानी आंदोलन को जिंदा रखने वाले षीर्श आतंकवादियों के भारत आने व गिरफ्तार होने पर भले ही सुरक्षा एजेंसिंयां अपनी पीठ ठोक रही हों, हकीकत तो यह है कि यह उन लोगों का भारत में आ कर अपने नेटवर्क विस्तार देने की येाजना का अंग था। भारत में जेल अपराधियों के लिए सुरक्षित अरामगाह व साजिषों के लिए निरापद स्थल रही है। रही बची कसर जनवरी-15 में ही राज्य के मुख्यमंत्री प्रकाष सिंह बादल ने 13 कुख्यात सजा पाए आतंकवादियों को समय से पहले रिहा करने की मांग कर दी थी जिसमें जगतार सिंह तारा भी एक था। कुल मिला कर देखे तो जहां एक तरफ राज्य सरकार पंथक एजेंडे की ओर लौटती दिख रही है तो इलाके में मादक पदार्थों की तस्करी की जड़ तक जाने के प्रयास नहीं हो रहे हैं।
अभी तीन दिन पहले ही पटियाला विष्वविद्यालय में मुख्यमंत्री श्री बादल की मौजूदगी में ुकछ लोगों ने अलग खालिस्तान के पक्ष में जम कर नारेबाजी की थी। दीनानगर को अपनी कार्यवाही के लिए चुनने का कारण महज यह नहीं है कि यह सीमा के करीब है। असल में यह कस्बा कभी महाराज रणजीत सिंह की राजधानी रहा है। इसके आसपास गुरू नानकदेव व अन्य सिख गुरूओं से जुड़ी कई यादें हैं व सीमा से सटे पाकिसतान के गांवों में खासी सिख आबादी भी है। यह भी संभव है कि इस घटना में खालिस्तानियों का हाथ ना हो लेकिन इसने उनके लिए उत्प्रेरक का काम तो किया ही है। पंजाब में सत्ताधारी दल  जिस तरह से भुल्लर की आवभगत कर रहा है, राज्य से चार सांसद लोने वाले आम आदमी पार्टी के कुछ नेता सरेआम खालिस्तान के पक्ष में नारेबाजी करते रहे हैं, इससे साफा जाहिर है कि राज्य में कुछ अपराधियों, कुछ विघ्नसंतोशियों व कुछ देषद्रोहियों को एकजुट कर जहर घाोलना कतई कठिन नहीं है। अभी समय है और साधन भी वरना पंजाब जैसे तरक्कीपसंद, जीवट वाले राज्य को फिर से आतंकवादियों का अड्डा बनने से रोका जाना आसान भी है और जरूरी भी।


शुक्रवार, 24 जुलाई 2015

flood due to interuption in river ecology

निरंतर छेड़छाड़ से बिफर रही हैं नदियां

                                                      पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार 
hindustan 25-7-15
अभी तो आषाढ़ ही चल रहा है, वह भी तब, जब मौसम विभाग कुछ कम बारिश का पूर्वानुमान व्यक्त कर चुका था; देश का बड़ा हिस्सा पानी से लबालब है। उज्जैन में जिस शिप्रा में पाइप के जरिये नर्मदा का पानी लाया जा रहा था, वह नदी  शहर की गलियों में घुस गई। असम, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश तो हर साल बारिश में हलकान रहते हैं, लेकिन इस बार तो राजस्थान के शेखावटी के रेतीले इलाके भी जलमग्न हैं।

पिछले कुछ वर्षों के आंकड़े को देखें, तो पाएंगे कि बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाके के दायरे में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफन रही हैं और मौसम बीतते ही उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। यह छोटी नदियों के लुप्त होने, बड़ी नदियों पर बांध बनाने और मध्यम श्रेणी की नदियों के उथले होने का दुष्परिणाम है।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1951 में बाढ़ग्रस्त भूमि का दायरा एक करोड़ हेक्टेयर था। 1960 में यह बढ़कर ढाई करोड़ हेक्टेयर हो गया। 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन की माप 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी और 1980 में यह आंकड़ा चार करोड़ पर पहुंच गया। अभी इस तबाही के कोई सात करोड़ हेक्टेयर में होने की आशंका है। अब तो सूखे व मरुस्थल के लिए कुख्यात राजस्थान भी नदियों के गुस्से से अछूता नहीं रह पाता है।

Raj express 1-8-15
देश में बाढ़ की पहली दस्तक असम में होती है। असम की जीवन-रेखा कही जाने वाली ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां मई-जून के मध्य में ही विनाश फैलाने लगती हैं। हर साल लाखों बाढ़ पीडि़त शरणार्थी इधर-उधर भागते हैं। बाढ़ से उजड़े लोगों को पुनर्वास के नाम पर एक बार फिर वहीं बसा दिया जाता है, जहां छह महीने बाद जल प्लावन होना तय होता है। यहां के पहाड़ों की बेतरतीब खुदाई, अनियोजित शहरीकरण और सड़कों के निर्माण भी इस राज्य में बाढ़ से बढ़ती तबाही के लिए काफी हद तक दोषी हैं। सनद रहे वृक्षहीन धरती पर बारिश का पानी सीधा गिरता है और भूमि पर मिट्टी की ऊपरी परत, गहराई तक छेदता है। यह मिट्टी बहकर नदी-नालों को उथला बना देती है, और थोड़ी ही बारिश में ये उफन जाते हैं। लेकिन नदियों के उथला होने का कारण सिर्फ यह मिट्टी नहीं है। हाल ही में दिल्ली में एनजीटी ने मेट्रो कॉरपोरेशन को आगाह किया है कि वह यमुना के किनारे जमा किए गए हजारों ट्रक मलबे को हटवाए।

यह पूरे देश में हो रहा है कि विकास कार्यों के दौरान निकली मिट्टी और मलबे को स्थानीय नदी-नालों में चुपके से डाल दिया जा रहा है। इसीलिए बाद में थोड़ी-सी अधिक बारिश होने पर भी इन जल निधियों का प्रवाह कम हो जाता है और उनका पानी बस्ती, खेत, जगलों में घुसने लगता है। बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं है, बल्कि इसी तरह के मानव जन्य हस्तक्षेप की त्रासदी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Kawadiya : terror on the road

आस्था पर भारी पड़ती अराजकता

                                                               पंकज चतुर्वेदी
देहरादून से ले कर दिल्ली और फरीदाबाद से करनाल तक और राजस्थान तक के पांच राज्यों के कोई 70 जिले आगामी एक अगस्त से 12 अगस्त तक कांवड़ यात्रा को ले कर भयभीत और आशंकित हैं। याद करें पिछले साल अकेले गाजियाबाद जिले में कांवडि़यों द्वारा रास्ता बंद करने, मारापीटी करने, वाहनों को तोड़ने की पचास से ज्यादा घटनाएं हुई थीं। हरिद्वार में तो कुछ विदेषी महिलाओं ने बाकायदा पुलिस में रपट की थी कि कांवडि़यों ने उनसे छेड़छाड़ की है। बीते एक दशक के दौरान देखा गया है कि कांवड़ यात्रा के दस दिनों में दिल्ली से ले कर हरियाणा-राजस्थान व उधर हरिद्वार को जाने वाली सड़कों पर अराजक बेसबाल, व अन्य शस्त्रधारी युवकों का अराजक कब्जा हो जाता है। इस बार मामला बेहद संवेदनशील है- कांवड़ यात्रा के प्रमुख मार्गों में पड़ने वाला पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश, फरीदाबाद के आसपास के इलाके व राजस्थान के कुछ कस्बे बीते सालों में भयावह दंगों के दर्द से संवेदनशील हो गए है।
Prabhat 26-7-15
जैसा कि बीते पांच सालों से घोशणा की जाती है, इस बार भी डाक कांवड पर पाबंदी, डीजे बजाने पर रोक जैसे जुमले उछाले जा रहे हैं, लेकिन यह तय है कि इनका पालन होना मुष्किल ही होता है और यही अराजकता आम लोगों के लिए संकट के दस दिन बन कर आती है। बडे -बड़े वाहनों पर पूरी सड़क घेर कर, उद॰ंडों की तरह डंडा-लाठी-बेसबाल लहराते हुए, श्रद्धा से ज्यादा आतंक पैदा कर रहे कांवडि़ए सड़कों पर आ जाते हैं ।
याद करें पिछले साल का श्रावण का महीना और दिल्ली से हरिद्वार जाने वाला राजमार्ग - एक हत्या, डेढ़ सौ दुकानों में आगजनी व तोड़फोड़, कई बसों को नुकसान, सैंकडों लोगों की पिटाई, स्कूल-दफ्तर बंद, लाखेंा बच्चों की पढ़ाई का नुकसान, जनजीवन अस्त व्यस्त । वह भी तब जब दस हजार पुलिस वालों की दिन-रात ड्यूटी लगी हुई थी । यह कहानी किसी दंगे - फसाद की नहीं बल्कि ऐसी श्रद्धा की है जो कि  अराजकता का रूप लेती जा रही है । पिछले साल और इससे भी कई पिछले सालों के दौरान श्रावण की शिवरात्रि से पहलेे लगातार दस दिनों तक देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास 200 किलोमीटर के दायरे में इस तरह का आतंक धर्म के कंधों पर सवार हो कर निर्बाध चलता है। इसमें कितना धर्म या श्रद्धा थी , इसका आकलन कोई नहीं कर पाया।
साल-दर-साल बढ़ रहे जुनून से स्पश्ट है कि आने वाले सालों में केसरिया कपड़े पहन कर सड़कों पर आतंक फैलाने वालों की बढ़ती संख्या समाज के लिए चिंता का विशय है। दिल्ली से हरिद्वार के व्यस्ततम राश्ट्रीय राजमार्ग को आगामी पांच अगस्त तक बंद किया जा रहा है । दिल्ली में यूपी बार्डर से ले कर आईएसबीटी और वहां से रोहतक व गुड़गांव और वहां से जयपुर  की ओर जाने वाले राष्‍ट्रीय राजमार्ग को जगह-जगह निर्ममता से खोद कर बड़े-बड़े पंडाल लगाए जा रहे हैं । राजधानी में भले ही बिजली की कमी हो, लेकिन बिजली को चुरा कर सडकों को कई-कई किलोमीटर तक जगमगाने की तैयारियां अपने अंतिम दौर में है । हरिद्वार से ले कर दिल्ली तक के करोड़ों लोगों की जान सांसत में है कि इस बार ये क्या गुल खिलाएंगे । इस बार भी ये शिव भक्त 10 दिनों तक लाखों बच्चों की पढ़ाई और कई षहरों के जनजीवन को अस्त व्यस्त रखने की अपनी परंपरा को दोहराएंगे। अनुमान है कि इस बार कांवड़ यात्रा पहले से अधिक भव्य होी, इसके कुछ राजनीतिक कारण भी हैं।
अपने मन की मुराद पूरी होने या देष-समाज की सुख-समृद्धि की मनोकामना के लिए श्रावण के महीने में हरिद्वार, देवघर(झारंखंड), काषी जैसे प्रसिद्ध षिवालयों से पैदल कांवड़ में जल ले कर अपने गांवों को शिवालयों तक आने की परंपरा सैंकड़ों साल पुरानी है । अभी कुछ साल पहले तक ये सात्विक कांवडिये अनुशासन व श्रद्धा में इस तरह डूबे रहते थे कि राह चलते लोग स्वयं ही उनको रास्ते दे दिया करते थे । बावरी मस्जिद विध्वंस के बाद देष में धर्म की राजनीति व हिंदु धर्म के तालीबानीकरण का जो दौर शुरू हुआ, उसका असर कांवड़ यात्रा पर साल-दर-साल दिखने लगा ।  पहले संख्या में बढ़ौतरी हुई, फिर उनकी सेवा के नाम पर लगने वाले टेंटों-शिविरों की संख्या बढ़ी । गौरतलब है कि इस तरह के शिविर व कांवड़ ले कर आ रहे ‘‘भोलों’’ की ‘‘सेवा’’ के सर्वाधिक शिविर दिल्ली में लगते हैं , जबकि कांवडि़यों में दिल्ली वालों की संख्या बामुष्किल 10 फीसदी होती है ।
अब कांवडियों का आतंक है । किसी का जल छलक गया, किसी को सड़क के बीच में चलने के दौरान माूमली टक्कर लग गई , तो खैर नहीं है । हाकी, बेसबाल के बल्ले, भाले, त्रिषूल और ऐसे ही हथियारों से लैस ये ‘भोले’ तत्काल ‘‘भाले’’ बन जाते हैं और कानून-व्यवस्था, मानवता और आस्था सभी को छेद देते हैं ।
इन कांवडियों के कारण राश्ट्रीय राजमार्ग पर एक सप्ताह तक पूरी तरह चक्का जाम रहना देश के लिए अरबों रुपए का नुकसान करता है । इस रास्ते में पड़ने वाले 74 कस्बों, शहरों का जनजीवन भी थम जाता है । बच्चों के स्कूलों की छुट्टी करनी पड़ती है और सरकारी दफ्तरों में काम-काज लगभग ना के बराबर होता है । गाजियाबाद महानगर में तो लोगों का घर से निकलना दुष्वार हो जाता है । षहर में फल, सब्जी, दूध की आपूर्ति  बुरी तरह प्रभावित होती है ।
दिल्ली की एक तिहाई आबादी यमुना-पार रहती है । राजधानी की विभिन्न संस्थाओं में काम करने वाले कोई सात लाख लोग जी.टी.रोड के दोनो तरफ बसी गाजियाबाद जिले की विभिन्न कालोनियों में रहते हैं । इन सभी लोगों के लिए कांवडियों के दिनों में कार्यालय जाना त्रासदी से कम नहीं होता । इस बार दिल्ली एनसीआर में कावंड़ यात्रा के दौरान जबरदस्त अराजकता होगी, क्योंकि गाजियाबाद में नये बस अड्डे से दिलषाद गार्डन तक मेट्रो के काम के चलते जीटी रोड बेहद संकरी व गहरे गढडों वाली हो गई है।। जाहिर है कि इस पर कांवड़ वालों का ही रोज होगा व इसके दोनेा तरफ बसी कालोनियों के लाखों लेाग ‘‘हाउस अरेस्ट’ होंगे। गाजियाबाद-दिल्ली सीमा पर अप्सरा बार्डर पूरी तरह कांवडियों की मनमानी की गिरफ्त में रहता है, जबकि इस रास्ते से गुरूतेग बहादुर अस्पताल जाने वाले गंभीर रोगियों की संख्या प्रति दिन हजारों में होती है । ये लोग सड़क पर तड़पते हुए देखे जाते हैंे । चूंकि मामला धर्म से जुडा होता है, सो कोई विरोध की सोच भी नहीं सकता । फिर कांवड़ सेवा केंद्रों की देखरेख में लगे स्वंयसेवकों के हाथों में चमकते त्रिषूल, हाकियां, बेसबाल के बल्ले व लाठियां किसी की भी जुबान खुलने ही नहीं देती है ।
धर्म, आस्था, पर्व, संकल्प, व्रत, ये सभी भारतीय संस्कृति व लोकजीवन के अभिन्न अंग हैं, लेकिन जब यह लोकजीवन के लिए ही अहितकर और धर्म के लिए अरुचिकर हो जाए तो इसकी प्रक्रिया पर विचार करना , इसकी मूल मंषा को अक्षुण्ण रखने के लिए अत्यावष्यक है । धर्म दूसरों के प्रति संवेदनषील हो, धर्म का पालन करने वाला स्वयं को तकलीफ दे कर जन कल्याण की सोचे; यह हिंदु धर्म की मूल भावना है । कांवडि़यों की यात्रा में यह सभी तत्व नदारद हैं ।
फिल्मी पेरोडियों की धुन पर नाचना, जगह-जगह रास्ता जाम करना, आम जन जीवन को अस्त-व्यस्त कर देना, सड़कों पर हंगामा करना और जबरिया वसूले गए चंदों से चल रहे षिविरों में आहार लेना; किसी भी तरह धार्मिक नहीं कहा जा सकता है । जिस तरह कांवडियों की संख्या बढ़ रही है, उसको देखते हुए सरकार व समाज दोनों को ही इस पावन पर्व को दूशित होने से बचाने की जिम्मेदारी है । कांवडियों का पंजीयन, उनके मार्ग पर पैदल चलने लायक पतली पगडंडी बनाना, महानगरों में कार्यालय व स्कूल के समय में कांवडियों के आवागमन पर रोक, कांवड लाने की मूल धार्मिक प्रक्रिया का प्रचार-प्रसार, सड़क घेर कर षिविर लगाने पर पाबंदी जैसे कदम लागू करने के लिए अभी से कार्यवाही प्रारंभ करना जरूरी है । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस धार्मिक अनुश्ठान में सांप्रदायिक संगठनों की घुसपैठ को रोका नहीं गया तो देष को जो नुकसान होगा, उससे बड़ा नुकसान हिंदु धर्म को ही होगा ।
आस्था के नाम पर अराजकता पर अंकुष आखिर कौन लगाएगा ? स्वयं समाज या सरकार ? कावंडियों के नाम पर दुकानदारी कर रहे लोग क्या कभी सड़क, सफाई, षिक्षा, भ्रश्टाचार जैसे मूलभूत मसलों पर अपने घर- गांव छोड़ कर डंडे ले कर सड़क पर आने की हिम्मत करते हैं ? कभी नहीं । जाहिर है कि इस भगवा बटालियन को तैयार करने में कतिपय लोगों के व्यावसायिक हित हैं तो कुछ के राजनैतिक । जरूरत इस बात की है कि धर्म के नाम पर लेागों को भ्रमित करने के इन कुत्सित प्रयासों का खुल कर विरोध हो और चैहरे बेनकाब किए जाएं । यह जानने का प्रयास कतई नहीं होता है कि इन कावंडियों के कारण कितने लेाग अस्पताल नहीं पहुंच पा रहे हैं और कितनों के नौकरी के इंटरव्यू छूट गए । कितनों को मजबूरी में महंगी सब्जी व दूध खरीदना पड़ रहा है और कितनी कालोनियां इनकी बिजली चोरी के कारण अंधेरे में हैं ।  आज जब कांवड मार्ग पर सांप्रदायिक तनाव और आतंकवाद दोनो का खतरा है, ऐसे में यह कानून-व्यवस्था से कहीं ज्यादा सामाजिक जिम्मेदारी है कि धर्म के नाम पर ऐसी अराजकताओं से परहेज किया जाए।
पंकज चतुर्वेदी
यू जी -1 ए 3/186, राजेन्द्र नगर सेक्टर-2 साहिबाबाद, गाजियाबाद 201005



गुरुवार, 23 जुलाई 2015

Book review why trees are necessary


पुस्तक विमर्श : हर एक पेड़ जरूरी होता है

 
                                                                                                                       पंकज चतुर्वेदी


‘‘यह वनस्थली खड़ी है 
विविध पुष्पचिन्हों से सज्ज्ति
 हरित साड़ी पहनकर
 अपने कोमल शरीर पर, अकारण अंकुरित पुलक से सिहरी
 पक्षियों के कलरव में 
बारम्बार कहलास करती हुई’’ 
(मलयालम के महान कवि जी.शंकर कुरूप के काव्य संग्रह ‘औटक्कुशल’ (बाँसुरी) की एक रचना)

.महात्मा गाँधी हों या फिर महात्मा बुद्ध, दोनों ने ही अपने आहार को पेड़ों से मिलने वाले उत्पादों या फलों तक सीमित किया था। इन दोनों महान आत्माओं वन-उत्पाद को अपना आहार बनाने का उद्देश्य महज अपनी उदरपूर्ति या स्वास्थ्य नहीं आँका था। वे अपने अनुयायियों को संदेश देना चाहते थे कि अधिक से अधिक पेड़ लगाए जाएँ। पेड़ पहाड़ पर भी लग सकता है और पथरीली जमीन पर भी। वह जहाँ भी अपनी जड़े फैलाएगा, समृद्धि, शांति व सुख लेकर आता है। मानव विकास की कहानी के साथ स्थापत्य के प्रतिमान स्थापित होते रहे, कई मंदिर, महल बने, किले, भवन बने और मानव निर्मित ये संरचनाएँ काल के गाल में समाती रहीं। लेकिन प्रकृति द्वारा निर्मित ‘इमारत’ यानि पेड़ अक्षुण्ण रहे, अकाल में भी, प्राकृतिक आपदाओं में भी और युग के नष्ट होने में भी। आज भारत में कई स्थानों पर सैंकड़ों साल पुराने वृक्ष देखे जा सकते हैं। ये पेड़, अनगिनत पशु-पक्षी, जीव-जन्तु के आवास और भोजन का माध्यम होते हैं। ‘वृक्ष खेती’ शीर्षक की पुस्तक अपील करती है कि पहले से खड़े बड़े-छोटे पेड़ों को उनकी पूरी उम्र तक जीने का अवसर दें। इनके पत्ते, फूल-फल, टहनी, रंग-रूप पीढ़ियों तक प्राकृतिक शोभा बढ़ाते है। यह पुस्तक भूख, जलवायु परिवर्तन और ऐसी ही अन्य भूमंडलीय समस्याओं का समाधान वृक्षों से खोजने की मागदर्शिका है।

पुस्तक का पहला अध्याय है - ‘वृक्षों से आहार’। इसमें बताया गया है कि दुनिया के सूखे या बारानी इलाके, जहाँ मौत नाचती है, वहाँ भी पेड़ किस तरह लोगों की भूख मिटाते हैं। फिर वर्षा वन का पानी से घिरा इलाका हो या फिर गर्म देश की नम भूमियाँ, ऊँचे पहाड़ हों या फफूंदी के जंगल, सुमद्र या अन्य कोई इलाका, हर जगह पर्यावास, सहजीवन और जीव-जीवन का आधार पेड़ ही होते हैं। पेड़ अकेले इंसान या जीव-जीवन की उदर-पूर्ति का ही माध्यम नहीं हैं- गर्माती धरती का बढ़ता पारा रोकने में भी उनकी अहम भूमिका है। कार्बन डायआक्साईड, मीथेन और अन्य ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा सीमा से ज्यादा बढ़ने के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है। ताप के साथ ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं व उसके कारण समुद्रों का जल स्तर भी बढ़ रहा है। यदि पानी का स्तर ऐसे ही बढ़ता रहा तो आने वाले 500 सालों में समुद्र का जल स्तर 13 मीटर बढ़ सकता है और इसके चलते 100 लाख वर्ग किलोमीटर ऐसी धरती खारे समुद्र में बह जाएगी, जहाँ आज खेत हैं। अब पूरी पृथ्वी पर जो संकट मंडरा रहा है, तो इसका निदान भी मात्र अधिक से अधिक पेड़ लगाना ही है जो कार्बन डायआक्साईड को सोखने की क्षमता रखते हैं। पुस्तक के दूसरे अध्याय में पेड़ की इसी महिमा के साथ कृषि वानिकी से ग्रामीण जीविका में बढ़ोत्तरी, पेड़ों से इमारती व जलावन पर भी विमर्श करता है।

पुस्तक के तीसरे अध्याय में बताया गया है कि किस तरह बड़े पेड़ों का आधिक्य खेतों में फसल उत्पाद को बढ़ाता है। इस अध्याय में खेती और वृक्ष प्रजनन के इतिहास, फलदार पेड़ों की पारम्परिक और आधुनिक बागवानी पर भी प्रकाश डाला गया है। सबसे बड़ी बात की हर शब्द बेहद सहज व सरल शब्दों में है और पाठक को उसे समझने व क्रियान्वयन में कोई दिक्कत नहीं होगी।

पुस्तक के आखिरी अध्याय में पचास से अधिक प्रजाति के वृक्षों, उनके गुणों, उनको उगाने के तरीकों, उनसे प्रकृति व जीव-जगत को लाभ पर प्रकाश डाला गया है। इसमें ताड़, नारियल, इमली, अंजीर, कटहल, बरगद, चिनार, टीक, केला रतालू, पपीता, नागफनी जैसे ऐसे पेड़ों की चर्चा है जिनका बाकायदा जंगल सजाया जा सकता है। इन पेड़ों का इतिहास, विकास यात्रा, परम्पराओं में महत्त्व, इन्हें उगाने के सलीके व तरीके आदि को भी इसमें समझाया गया है। इसमें कई कहानियाँ भी दी गई हैं। अंत में तीन कविताएँ और सन्दर्भ सूची भी बेहद महत्त्वपूर्ण है।

इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक की लेखिका भारत सरकार में मन्त्री व पर्यावरण प्रेमी श्रीमती मेनका गाँधी और फिनलैंड की अग्रणी पर्यावरण कार्यकर्ता, चिंतक व लेखक रिस्तो इसोमाकी हैं। श्री रिस्तो मानते हैं कि धरती और मनुष्य सहित तमाम सभ्यताएँ अहिंसा पर आधारित व मुक्त विचारों से ओत-प्रोत होना चाहिए। इसका हिन्दी रुपांतरण डॉ. रमेशचंद्र शर्मा ने किया है। पुस्तक अमूल्य है और शायद इसीलिए इसकी कोई कीमत नहीं रखी गई है। पुस्तक में उल्लेख है कि इस पुस्तक की सामग्री का कोई भी कहीं भी इस्तेमाल कर सकता है।

वृक्ष खेती, रिस्तो इसोमाकी, मेनका गाँधी, हिन्दी अनुवाद - डॉ. रमेश चंद्र शर्मा, पृ. 268, कीमत - अमूल्य, वसुधैव कुटुम्बकम, क्षरा लोकायत, 13 अलीपुर रोड, दिल्ली-110054

Higher education should be of International level

कौन  नहीं चाहता है उच्च  शिक्षा  का उन्न्यन

                                                                                                                   पंकज चतुर्वेदी

RAJ EXPRESS 24-7-15
भारत के उच्च शिक्षा  जगत को अभी उस खतरे की परवाह नहीं है, जोकि उस पर मंडरा रहा हैै । डब्लूटीओ करार के मुताबिक अप्रेल -2005 से हमारे देश  के महाविद्यालयों और विश्वविधालयों  को  अंतरराश्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप अपना स्तर बनाना था । भारत के सभी विष्वविद्यालयों को अंतरराश्ट्रीय मान्यता प्राप्त करने के लिए कुछ क्यूए यानि क्वालिटी एष्योरेंस का पालन जरूरी है। ऐेसे में षिक्षण सुविधाओं, छात्रों के नतीजे और पाठ्यक्रमों में सतत सुधार के आाधार पर षैक्षिक संस्थाओं का स्तर तय होता है। चूंकि भारत डब्लूटीओ की षर्तों से बंधा हुआ है, अतः उच्च षिक्षा के मानदंडों का पालन करना उसकी मजबूरी है। इससे बेखबर हमारे राजनेता निजी स्वार्थों के चलते पाठ्यक्रम और संस्थानों को स्तरीय बनाने में अडंग्े डाल रहे हैं, उस पर तुरर्रा है कि यह सब पढ़ाई को महंगा होने से रोकने के लिए है। लेकिन यदि हमारी पढ़ाई की बाजार में कीमत ही नहीं है तो फिर डिगरीधारियों की फौज खड़ी करने का क्या फायदा है ?
वैसे तो विष्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सन 2003 में  इस बाबत एक कमेटी का गठन किया था । इसकी किसी को भी खबर नहीं है कि उक्त कमेटी किस नतीजे पर पहुंची, लेकिन इस अवधि में कालेज ही नहीं यूनिवर्सिटी खोलने के नाम पर षिक्षा जगत के साथ खुल कर खिलवाड़ किया गया । छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में महज सत्रह सौ रूपए की पूंजी के साथ विष्वविद्यालय खोल दिए गए । दो कमरे अपने नहीं हैं और वहां विज्ञान संकाय के साथ डिगरी कलेज चल रहे हैं, यह विडंबना मध्यप्रदेष से बिहार तक कहीं भी देखी जा सकती है । एक तरफ तो सरकार उच्च षिक्षा के निजीकरण के मसले पर षिक्षा षुल्क बढ़ने का भय दिखाती है ,दूसरी तरफ महज कागजी डिगरी बांटने वाले झोलाछाप षैक्षिक संस्थानों को सियासती लोग ही चला रहे हैं । बहरहाल उच्च षिक्षा को डब्लूटीअेा की षर्तों के अनुरूप बनाने की क्रियान्वयन रिपोर्ट सियासती खींचतान में फंस गई है, लेकिन आंख बंद करने से खतरा तो टलने से रहा । फायदे में चल रहे सार्वजनिक उपक्रमाों को निजी हाथों में सौंपने और अंतरराश्ट्रीय मानदंड वाले वाले संस्थान आईआईएम में फीस कम या ज्यादा करने की आड़ मे घुसपैठ करने को आमदा सरकार उच्च षिक्षाा के मामले में ना जाने क्यों आंखें फेर रही है ।
विकसित देषों में बच्चों की प्रारंभिक षिक्षा को उतना ही महत्व दिया जाता है जितना कि उच्च षिक्षाा को । भारत में स्कूली षिक्षा का तेजी से निजीकरण हुआ । सुदूर गांवों तक भी सरकारी स्कूल के बनिस्पत निजी स्कूलों के षैक्षिक स्तर को बेहतर माना जा रहा है । चाहे राजनेता हों या फिर षिक्षा के नीति निर्धारक, समाज के प्रत्येक वर्ग के बच्चे नामी-गिरामी निजी स्कूलों में दाखिला ले कर गर्व महसूस करते हैं । अब तो सरकारी स्कूल भी ‘हायर एंड फायर’ की तर्ज पर ष्यिाक्षकों को रखने लगे हैं । षिक्षा गारंटी योजना, गुरूजी, पेरा टीचर जैसे नामों से स्कूली षिक्षक को पांच सौ या हजार रूप्ए में रखने पर अब किसी की संवेदनाएं नहीं जाग्रत हो रही हैं । इसके ठीक विपरित कालेजों के षिक्षकों पर कार्यभार कम है, जवाबदेही ना के बराबर है और वेतन व सुविधाएं आसमान छूती हुईं । हकीकत तो यह है कि इस तरह मौज काट रही एक लाबी उच्च षिक्षा के निजीकरण की भ्रामक तस्वीर पेष कर उसका विरोध कर रही है ।
हमारे देष में सरकारी नौकरियों की उपलब्धता घटती जा रही है । ‘पैसा’, ‘पहचान’ और ‘आरक्षण’ ; इन तीन मानदंडों पर सरकारी नौकरियां बंट रही हैं । महत्वाकांक्षी षिक्षित युवा आज निजी क्षेत्र में नौकरियों को प्राथमिकता दे रहा है, जाहां जवाबदेही के साथ-साथ पैसा भी है । उच्च षिक्षा को सरकारी तंत्र से मुक्त करने पर पाठ्यक्रम में सुधार, षिक्षण प्रक्रिया में नवाचार और बेहतर परिणामों की संभावनाएं अधिक होंगी ।
कुछ आईआईटी और आईआईएम को छोड़ दिया जाए हमारे देष के अधिकांष उच्च षिक्षा संस्थाओं का पाठ्यक्रम ना तो अंतरराश्ट्रीय स्तर का है और ना ही उसमें समय के साथ संषोधन किए गए हैं । कई विष्व विद्यालयों में एमए अंग्रेजी में वह सब पढ़ाया जा रहा है जो कि इंग्लैंड में 60 साल पहले पढ़ाया जाना बंद हो चुका है । गौर करना जरूरी है कि समसामयिक अंग्रेजी साहित्य में भारत का महत्वपूर्ण योगदान है।  इंजीनियरिंग व पोलिटेकनक कालेजों में सिविल कंस्ट्रक्षन की वे विधियां पढ़ाई जा रही हैं , जोकि अब कहीं इस्तेमाल में ही नहीं हैं । चिकित्सा, वास्तु, कानून के चैहरे बिलकुल बदल चुके हैं, लेकिन बदला नहीं है तो हमारा पाठ्यक्रम । षायद तभी युवा वर्ग जो कुछ पढ़ रहा है, उसका अपने व्यावहारिक जीवन में कही उपयेाग नहीं कर पाने की खीज से ग्रस्त है ।
हमारी उच्च् षिक्षा के स्तर का ही दोश है कि पांच साल तक बीटेक की पढ़ाई, कई लाख खर्च करने वाले युवा इंजीनियर को बीस हजार की नौकरी नहीं मिल रही है। उप्र जैसे राज्यों में तो इंजीनियरिंग कालेज बंद हो रहे है, क्योंकि वहां छात्र नहीं  आ रहे है।। ठीक यही हालात अब एमबीए के हैं, आईआईएम या कुछ संस्थानों को छोड़ दिया जाए तो कुकुतमुत्तों की तरह छितरे हजारों एमबीए संस्थानों से निकले बच्चों की हालत सामान्य स्नातक से भी बदतर है। बीएड पढ़ाई के हालात इतने बदतर हैं कि वहां से निकले षिक्षक कई बार पूरी वर्णमाला नहीं लिख पाते हैं। कुछ ऐसे ही हालात दांत की डाक्टरी के होते जा रहे हैं । दूसरी तरफ एमबीबीएस के लिए मची मारामारी की बानगी मध्यप्रदेष का व्यापम कांड है।
उच्च षिक्षा क्षेत्र आज भी सभी राजनैतिक दलों का चारागाह बना हुआ है । कहा तो जाता है कि निजीकरण  के बाद उच्च षिक्षा महंगी हो जाएगी, लेकिन स्कूली षिक्षा के बारे में यह क्यों नहीं सोचा गया ? सनद रहे कि स्कूली षिक्षा के छात्रों की संख्या, उच्च षिक्षा से तीन गुणा से भी अधिक होती है । उच्च षिक्षा की गुणवत्ता के बनिस्पत कालेजों को अपनी पार्टियों के लिए कार्यकर्ता तैयार करने का कारखाना समझने वाले नेता मौजूदा षिक्षा से भविश्य को जोड़ने की बात करने पर बगलें झांकते मिलते हैं । वास्तव में इन राजनैतिक दलांे को ना तो युवा षक्ति के सकारात्मक इस्तेमाल से सरोकार है और ना ही उनके भविश्य से । मंडल विरोधी आंदोलन में उभरे युवा नेता राजीव गोस्वामी का उदाहरण सामने है, उसके भुने हुए षरीर पर राजनीति करने में कोई दल पीछे नहीं था । उसके बाद बीमार राजीव को जीवकोपार्जन के लिए गोली-बिस्कुट की दुकान तक खोलनी पड़ी । उसके नाम से एकत्र किए गए चंदे से कई नेताओं ने ऐष किए और वह दवाई के लिए तरसता रहा । उच्च षिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तनों को भी दिवंगत राजीव गोस्वामी के परिपेक्ष्य में देखा जा सकता है । तात्कालिक उत्तेजना, त्वरित प्रतिक्रियाओं व क्षणिक फायदों से देष के भविश्य यानि युवा पीढ़ी को संवारा नहीं जा सकता है । छात्र संघ के चुनाव हों या षिक्षक संघ के ,सभी राजनैतिक दल इसमें परोक्ष रूप से जुड़े होते हैं । ऐसे कालेजी षिक्षकों की संख्या सैंकड़ों में है , जो कि महज नेतागिरी करने के ऐवज में मोटा वेतन वसूलते हैं, उनका क्लास रूम से कोई वास्ता नहीं है । ऐसे छात्र नेताओं की संख्या भी हजारों में है, जो कि अपने सियासती रसूख के बदौलत बगैर पढ़ाई किए ही डिगरियां पा लेते हैं । यदि ये लोग षिक्षा के निजीकरण के सच्चे विरोधी हैं तो अपने बच्चों को मोटी फीस दे कर भी पब्लिक स्कूल में भर्ती करवाने के लिए व्याकुल क्यों रहते हैं ? यही नहीं सरकारी काालेजों में प्रवेष के लिए सरकारी स्कूल से आए बच्चों को प्राथमिकता देने के प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में दबाने वाले क्या यही लोग नहीं हैं ?
देष में कई मेडिकल, इंजीनियरिंग व मेनेजमेंट कालेज निजी प्रबंधन में हैं, लेकिन उन्हें विष्वविद्यालय अनुदान आयोग और आल इंडिया काउंसिल फार टेक्निकल एजुकेषन के कायदे-कानूनों के तहत चलना पड़ता है । इन सभी कालेजों का मालिकाना हक बड़े नेताओं के पास है । यदि विदेषी विष्वविद्यालयों से संबद्ध पाठ्यक्रमों को धीरे-धीरे हमारे यहां मान्यता देना षुरू कर दिया जाए तो हमारे संस्थान डब्लूटीओ के स्तर के स्वतः ही होने लगेंगे । अभी इस पर विचार करने का ठीक समय है, वरना अचानक ही कई संस्थाओं को बंद करने या आानन-फानन में पाठ्यक्रम में बदलाव करने पर अफरा-तफरी मचेगी ।
पंकज चतुर्वेदी

Book Review HAMARA PARYAWARAN

हमारे पर्यावरण का भविष्यवक्ता

                                                        पंकज चतुर्वेदी
. ‘‘यदि हमारे गाँव ऐसे स्थान पर हैं जहाँ पर्यावरण व इंसान एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं तो शहर ऐसा स्थान है, जहाँ इंसान एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। शहर के साझा स्थानों को इस्तेमाल तो सभी करना चाहते हैं, उस पर अपना अधिक से अधिक अधिकार का दावा भी सभी करते हैं, लेकिन उस स्थान के रख-रखाव की ज़िम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं होता।’’ यह बात आज की नहीं है, सन 1988 की है, जब वैश्विकरण का हल्ला नहीं था, शहरों की रफ्तार इतनी बेकाबू नहीं थी, लेकिन लेखिका लाईक फतेहअली ने शायद भविष्य को भाँप लिया था। ‘हमारा पर्यावरण’ पुस्तक आज से 28 साल पहले मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई थी और बाद में प्रख्यात पत्रकार अमन नम्र ने इसका हिन्दी में अनुवाद किया था। इस पुस्तक को आज भी पढ़ना इस बात की बागी है कि प्रकृति को प्रेम करने वाले कितने चुपचाप आने वाले पर्यावरणीय खतरों को महसूस कर रहे थे, समाज को चेता भी रहे थे, लेकिन हमने हालात बेकाबू होने तक अपनी कुम्भकरणीय नींद नहीं खोली।

पुस्तक बगैर किसी लाग लपेट, औपचारिकता या भूमिका के शुरू हो जाती है और इसमें पर्यावरण को भारत के परिवेश में आँका जाता है। पर्वत, जंगल, नदियाँ, समुद्र, गाँव और शहर के अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक में प्रत्येक विषय पर दो भाग हैं। एक में समस्या का उल्लेख है तो दूसरे में समझाईश दी गई हैं। पर्वत वाले अध्याय में पहले तो भारत की पर्वत सम्पदा को विस्तार से बताया गया है, फिर दूसरे अध्याय में पहाड़ों के सामने खड़ी पहाड़ सी चुनौतियों व उसके दुष्परिणामों का उल्लेख है। बताया गया है कि एक स्वस्थ और अस्वस्थ पर्वत किसे कहते हैं। पहाड़ों पर पेड़ों की बेरहम कटाई के चलते किस तरह से नुकसान हो रहे हैं। कहा गया है कि ‘‘जिस तरह से बीमार इंसान कई बार थोड़े वक्त के लिए अपनी बीमारी को छिपा लेता है व स्वस्थ दिखता है, ठीक उसी तरह पर्वत भी कई बार सामने से भरे-पूरे दिखते हैं लेकिन असल में वे बीमार होते हैं।” यह अध्याय दो साल पहले की उत्तरांचल त्रासदी की चेतावनी इतने पहले देता दिखता है।

पुस्तक का दूसरा विषय ‘जंगल’ हैं। इसमें महज हरियाली या पेड़ का ही विमर्श नहीं है। यह बताता है कि जंगल का अर्थ है वैविध्यपूर्ण जन्तु जगत और जब तक जंगल में जीव-जन्तु रहते हैं, वहाँ हरियाली, नमी, वनोपज सभी कुछ उपलब्ध रहता है। जंगल के सिकुड़ने के कारण आदिवासियों के शहरी बनने के दबाव पर भी इसमें विस्तार से चर्चा की गई है। लेखिका कहती हैं कि हर जंगल एक स्वतन्त्र दुनिया होता है और प्रत्येक बाहरी दखल उसकी नैसर्गिकता पर हमला होता है। हर जंगल एक जैविक भंडार गृह होता है। जिस आबादी के पड़ोस में नदी होती है, वह वास्तव में सौभाग्यशाली होता है। यह महज संयोग नहीं है कि दुनिया के सबसे पुराने व सफल शहर नदी के तट पर ही हैं - लंदन, पेरिस, कायरो, दिल्ली, रोम..... और भी कई। नदी वाले अध्याय में नदी को केवल एक जल-निधि नहीं माना गया है, इसमें नदी की जरूरत व उसकी पवित्रता की अनिवार्यता को भी उकेरा गया है। नदियों को दूषित करने के नुकसान, बाँध, नहर, नदी जल का रख-रखाव आदि पर इसमें बेहद गैरतकीनीकी व संप्रेषणीय भाषा में चर्चा की गई है। धरती की रक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले तालाबों की चर्चा नदी वाले अध्याय में ही लगभग तीन पृष्ठों में की गई है।

अगले अध्याय ‘समुद्र’ में चेताया गया है कि ये महज खारे या बेकार पानी का जमावड़ा नहीं है जिसके किनारे पर्यटक जाकर खुश होते हैं या दुनिया की खोज करने वाले पानी जहाज़ों के परिवहन मार्ग हैं। समुद्र धरती के तापमान को सन्तुलित रखने, बारिश के बादलों को सक्रिय करने, पेट्रोलियम जैसे प्राकृतिक संसाधनों के भंडार और मछलियों व अन्य जल-जीवों की विशाल संख्या के शरण स्थली भी हैं। समुद्र में सतत बढ़ रहा प्रदूषण असल में धरती की सेहत के साथ गम्भीर छेड़-छाड़ है। गाँव और शहरों पर कुल चार अध्याय, बताते हैं कि पर्यावास किस तरह प्रकृति प्रेमी व दुश्मन हो सकता है। इन अध्यायों में मानवीय स्वभाव, लालच, गलत आदतों के कारण उपज रही ऐसी समस्याओं का उल्लेख किया गया है जिसका आखिरकार शिकार वही इंसान होता है जो उनके प्रति कोताही बरतता गाँव के अस्तित्व को बनाए रखना, गाँव को आत्मनिर्भर, शुद्ध और समर्थ बनाने के कई उपाय इसमें बताए गए हैं। पुस्तक साक्षी है कि बढ़ता शहरीकरण और घटते गाँव किस तरह मानव सभ्यता के लिए नुकसानदेह हैं। शहरों में सभी को साफ पानी, मल-जल निकासी जैसे विषयों को भी इसमें समेटा गया है। इस अध्याय में कूड़े को फेंकने, स्वच्छता को कड़े कानून के जरिये लागू करवाने की वकालत भी की गई है।

लेखिका लाईक फतेहअली सन 1956 से 1976 तक ‘क्वेस्ट’ पत्रिका की सम्पादक रही हैं और सलीम अली के साथ पक्षियों पर पुस्तकें लिखी हैं। अनुवादक अमन नम्र ‘पानी घणों अनमोल’ और ‘पानीदार समाज’ जैसी पुस्तकों के लेखक हैं और उनके अनुवाद को पढ़कर महसूस नहीं होता है कि अनूदित सामग्री पढ़ी जा रही है।

हमारा पर्यावरण, लाईक फतेहअली, अनुवाद: अमन नम्र, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, वसंत कुँज, पृ. 134, रू. 70.00, नई दिल्ली-110070

सोमवार, 20 जुलाई 2015

Need of High power authority to save traditional water lakes


तालाबों को बचाने सशक्त निकाय की जरूरत

Peoples samachar MP 21-7-15
इस बार बारिश बहुत कम होने की चेतावनी से देश के अधिकांश शहरी इलाकों के लोगों की चिंता की लकीरें इसलिए भी गहरी हैं कि यहां रहने वाली सोलह करोड़ से ज्यादा आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा पानी के लिए भूजल पर निर्भर है। बारिश हुई नहीं, रिचार्ज हुआ नहीं, अब सारा साल कैसे कटेगा... तभी कुछ जागरूक लोगों ने पूरे देश के तालाबों को संरक्षित करने की एक मुहिम शुरू की है। विडंबना यह है कि तालाब को सरकारी भाषा में जल संसाधन माना नहीं जाता है और तालाब अलग-अलग महकमों में बंटे हुए हैं। तालाब न केवल सीधे पानी का जरिया हैं, बल्कि भूजल रिचार्ज, धरती के गरम होने पर शीतलीकरण तथा पर्यावरण जगत के एकीकृत संरक्षण स्थल भी हैं। इसके बावजूद पारंपरिक तालाबों को सहेजने की कोई साझी योजना नहीं है। असलियत तो यह है कि अब तो देश के 32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गर्मी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है- बारहों महीने, तीसों दिन यहां जेठ ही रहता है।
सरकार संसद में बता चुकी है कि देश की 11 फीसदी आबादी पीने के साफ पानी से महरूम है, वहीं जिन इलाकों की जनता जुलाई-अगस्त में अतिवृष्टि के लिए हाय-हाय करती दिखती है, सितंबर आते-आते उनके नल सूख जाते हैं। बारिश से सड़क व नदियां उफनती हैं और पानी देखते ही देखते गायब हो जाता है। इस पानी को सहेजने के लिए पारंपरिक स्रोत ताल-तलैया को तो सड़क, बाजार, कॉलोनी के कांक्रीट जंगल खा गए, दूसरी तरफ यदि कुछ दशक पहले पलटकर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते तब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जलस्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है- तालाब, कुए, बावड़ी, लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है। पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। यही नहीं, सरकार का भी कोई एक महकमा मुकम्मल नहीं है, जो सिमटते तालाबों के दर्द का इलाज कर सके। तालाब कहीं कब्जे से तो कहीं गंदगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव से सूख रहे हैं। कहीं तालाबों को जानबूझकर गैर जरूरी मानकर समेटा जा रहा है तो कहीं उसके संसाधनों पर किसी एक ताकतवर का कब्जा है। ऐसे कई मसले हैं, जो अलग-अलग विभागों, मंत्रालयों, मदों में बंटकर उलझे हुए हैं। देश के इतने बड़े प्राकृतिक संसाधन, जिसकी कीमत खरबों रुपए है, के संरक्षण के लिए एक स्वतंत्र, ताकतवर प्राधिकरण जरूरी है। तालाब केवल इसलिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जलस्रोत हैं... तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। सन् 1944 में गठित फेमिन इनक्वायरी कमीशन ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। कमीशन की रिपोर्ट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई। आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दी गई। चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना ... देश के जलसंकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। मछली, कमल गट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी... यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जलस्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है। वैसे तो मुल्क के हर गांव, कस्बे, क्षेत्र के तालाब अपने समृद्ध अतीत और आधुनिकता की आंधी में बर्बादी की एक जैसी कहानी कहते हैं। जब पूरा देश पानी के लिए त्राहित्राहि करता है, सरकारी आंकड़ों के शेर दहाड़ते हैं तब उजाड़ पड़े तालाब एक उम्मीद की किरण की तरह होते हैं। इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टिट्यूट फॉर द सेडिएरीडट्रापिक्स के विशेषज्ञ बोन एप्पन और श्री सुब्बाराव का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होता है। उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए भारतीय तालाब प्राधिकरण का गठन किया जाना चाहिए। पूर्व कृषि आयुक्त बीआर भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिमी है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है । एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार तालाब और मैसूर राज्य में 39 हजार होने की बात अंग्रेजों का रेवेन्यू रिकॉर्ड दर्शाता है। दु:खद है कि अब हमारी तालाब-संपदा अस्सी हजार पर सिमट गई है। उत्तरप्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे, उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है। राष्टÑीय राजधानी दिल्ली में अंग्रेजों के जमाने में लगभग 500 तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्त ही कर दिया। देशभर में फैले तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा है। इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं, यानी आजादी के बाद के 53 सालों में हमारा समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज बीस लाख करोड़ से कम नहीं होगा। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों की मरम्मत, नवीकरण और जीर्णोद्धार के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया। योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमलीजामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक स्तर पर बुनियादी ढांचे का विकास करना था। गांव, ब्लॉक, जिला व राज्य स्तर पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर तकनीकी सलाहकार समिति का गठन किया जाना था। सेंट्रल वाटर कमीशन और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने का जिम्मा दिया गया, जबकि निरीक्षण का काम जल संसाधन मंत्रालय कर रहा है। बस खटका वही है कि तालाब का काम करने वाले दीगर महकमे तालाब तो तैयार कर रहे हैं, लेकिन तालाब को तालाब के लिए नहीं... मछली वाले को मछली चाहिए तो सिंचाई वाले को खेत तक पानी, जबकि तालाब पर्यावरण, जल, मिट्टी, जीवकोपार्जन की एक एकीकृत व्यवस्था है और इसे अलग-अलग आंकना ही बड़ी भूल है। एक प्राधिकरण ही इस काम को सही तरीके से संभाल सकता है। असल में तालाबों पर कब्जा करना इसलिए सरल है कि पूरे देश के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं - राजस्व विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछलीपालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटन और शायद और भी बहुत कुछ हों... कहने की जरूरत नहीं है कि तालाबों को हड़पने की प्रक्रिया में स्थानीय असरदार लोगों और सरकारी कर्मचारी की भूमिका होती ही है। अभी तालाबों के कुछ मामले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के पास हैं और चूंकि तालाबों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उसी विभाग के पास होता है, जिसकी मिलीभगत से उसकी दुर्गति होती है... सो हर जगह लीपापोती होती रहती है। आज जिस तरह जलसंकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की अरबों रुपए वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं, तालाबों का सही इस्तेमाल कम लागत में बड़े परिणाम दे सकता है। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र में एक सशक्त तालाब प्राधिकरण गठित हो, जो सबसे पहले देशभर की जलनिधियों का सर्वे करवाकर उसका मालिकाना हक राज्य के माध्यम से अपने पास रखे, यानी तालाबों का राष्ट्रीयकरण हो, फिर तालाबों के संरक्षण, मरम्मत की व्यापक योजना बनाई जाए।
                                                                                                                                                                     (आलेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं) 
                                                                                                                                                                                          पंकज चतुर्वेदी
                                                                                                                                                                                                लेखक

शनिवार, 18 जुलाई 2015

Need of legal literacy to weeker section of society PP

Prabhat, Meerut 19-7-15
उपेक्षित ही क्यों होते हैं जेल में ?
पंकज चतुर्वेदी
हाल ही में भारतीय जेलों से छूटकर 88 मछुआरे पाकिस्तान पहुंचे। इनमें से अधिकांष तीन साल या उससे अधिक से भारतीय जेलों में बंद थे। इनमें से लगभग सभी की षिकायत जेल में अत्याचार, मारापीटी, पैसे छुड़ा लेने की रही है। एक बंदी ने  मीडिया को बताया कि उसने अपनी जेल अवधि के दौरान मेहनत कर जो पैसा कमाया था, वह जामनगर जेल के अफसरों ने यह कह कर छुडा लिया कि भारत की करेंसी का वहां क्या करेगा। अपर्याप्त खाना, गुंडागिर्दी तो हर दूसरे कैदी के आंसू ला रही थी। असल में उन लोगों के साथ ऐसा इस लिए हो रहा था कि उनकी तरफ से पैरवी करने वाला कोई नहीं था या उनके पास अपनी रिहाई के प्रयासों के लिए पैसा नहीं था। हालांकि समुद्र के असीम जल-भंडार में दो मुल्कों की सीमा तलाषना लगभग मुष्किल है और इसी के फेर में वे एक ऐसा अपराध कर बैठे थे जो वे कभी करना नहीं चाहते थे। ऐसा नहीं कि यह हालात केवल पाकिस्तानी बंदियों के साथ हैं, भारतीय जेलों में आधे से अधिक वे ही लोग घुट रहे हैं जो कि सामाजिक, आर्थिक और षैक्षिक तौर पर दबे-कुचले हैं। कई एक तो अपनी सजा पूरी होने या जामानत मंजूर हो जाने के बाद भी जेल में है। क्योंकि या तो उन्हें औपचारिकतओं की जानकारी नहीं है या फिर इसके लिए उनके पास पैसा व समझ नहीं है।
NBS Times 24-7-15

भारत की जेलों में बंद कैदियों के बारे में  सरकार के रिकार्ड में दर्ज आंकड़े बेहद चैंकाने वाले हैं।  अनुमान है कि इस समय कोई चार लाख से ज्यादा लोग देषभर की जेलों में निरूद्ध हैं जिनमें से लगभग एक लाख तीस हजार सजायाफ्ता और कोई दो लाख 80 हजार विचाराधीन बंदी हैं। देष में दलित, आदिवासी व मुसलमानों की कुल आबादी 40 फीसदी के आसपास है, वहीं जेल में उनकी संख्या आधे से अधिक यानि 67 प्रतिषत है। इस तरह के बंदियों की संख्या तमिलनाडु और गुजरात में सबसे ज्यादा है। हमारी दलित आबादी 17 प्रतिषत है जबकि जेल में बंद  लेागों का 22 फीसदी दलितों का है। आदिवासी लगातार सिमटते जा रहे हैं व ताजा जनगणना उनकी जनभागीदारी नौ प्रतिषत बताती है, लेकिन जेल में नारकीय जीवन जी रहे लोगों का 11 फीसदी वनपुत्रों का है। मुस्लिम आबादी तो 14 प्रतिषत है लेकिन जेल में उनकी मौजूदगी 20 प्रतिषत से ज्यादा है। एक और चैंकाने वाला आंकड़ा है कि पूरे देष में प्रतिबंधात्मक कार्यवाहियों जैसे- धारा 107,116,151 या अन्य कानूनों के तहत बंदी बनाए गए लेागें में से आधे मुसलमान होते है। गौरतलब है कि इस तरह के मामले दर्ज करने के लिए पुलिस को वाह वाही मिलती है कि उसने अपराध होने से पहले ही कार्यवाही कर दी। आंचलिक क्षेत्रों में ऐसे मामले न्यायालय नहीं जाते हैं, इनकी सुनवाई कार्यपालन दंडाधिकारी यानि नायब तहसीलदार से ले कर एसडीएम तक करता है और उनकी जमानत पूरी तरह सुनवाई कर रहे अफसरों की निजी इच्छा पर निर्भर होती है।
पिछले साल बस्तर अंचल की चार जेलों में निरूद्ध बंदियों के बारे में ‘सूचना के अधिकार’ के तरह मांगी गई जानकारी पर जरा नजर डालें - दंतेवाड़ा जेल की क्षमता 150 बंदियों की है और यहां माओवादी आतंकी होने के आरोपों के साथ 377 बंदी है जो सभी आदिवासी हैं। कुल 629 क्षमता की जगदलपुर जेल में नक्सली होने के आरोप में 546 लोग बंद हैं , इनमें से 512 आदिवासी हैं। इनमें महिलाएं 53 हैं, नौ लोग पांच साल से ज्यादा से बंदी हैं और आठ लोगों को बीते एक साल में कोई भी अदालत में पेषी नहीं हुई। कांकेर में 144 लोग आतंकवादी होने के आरोप में विचाराधीन बंदी हैं इनमें से 134 आदिवासी व छह औरते हैं इसकी कुल बंदी क्षमता 85 है। दुर्ग जेल में 396 बंदी रखे जा सकते हैं और यहां चार औरतों सहित 57 ‘‘नक्सली’’ बंदी हैं, इनमें से 51 आदिवासी हैं। सामने है कि केवल चार जेलों में हजार से ज्यादा आदिवासियों को बंद किया गया है। यदि पूरे राज्य में यह गणना करें तो पांच हजार से पार पहुंचेगी। नारायणपुर के एक वकील बताते हैं कि कई बार तो आदिवासियों को सालों पता नहीं होता कि उनके घर के मर्द कहां गायब हो गए है।। बस्तर के आदिवासियों के पास नगदी होता नहीं है। वे पैरवी करने वाले वकील को गाय या वनोपज देते हैं।  कई मामले तो ऐसे है कि घर वालों ने जिसे मरा मान लिया, वह बगैर आरोप के कई सालों से जेल में था। ठीक यही हाल झारखंड के भी हैं।
अपराध व जेल के आंकड़ों के विष्लेशण के मायने यह कतई नहीं है कि अपराध या अपराधियों को जाति या समाज में बांटा जाए, लेकिन यह तो विचारणीय है कि हमारी न्याय व्यवस्था व जेल उन लोगों के लिए ही अनुदार क्यों हैं जो कि ऐसे वर्ग से आते हैं जिनका षोशण या उत्पीड़न सरल होता है। ऐसे लेाग जो आर्थिक, सामाजिक, षैक्षिक तौर पर पिछड़े हैं, कानून के षिकंजे में ज्यादा फंसते हैं । जिन लोगों को निरूद्ध करना आसान होता है, जिनकी आरे से कोई पैरवी करने वाला नहीं होता, या जिस समाज में अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत नहीं होती, वे कानून के सरल-षिकार होते हैं । यह आए रोज सुनने को आता है कि अमुक व्यक्ति आतंकवाद के आरोप में 10 या उससे अधिक साल जेल में रहा और उसे अदालत ने ‘‘बाइज्ज्त‘‘ बरी कर दिया। इन फैसलों पर इस दिषा से कोई विचार करने वाला नहीं होता कि बीते 10 सालों में उस बंदी ने जो बदनामी, तंगहाली, मुफलिसी व षोशण सह लिया है, उसकी भरपाई किसी अदालत के  फैसलों से नहीं हो सकती। जेल से निकलने वाले को समाज भी उपेक्षित नजर से देख्खता है और ऐसे लेाग आमतौर पर ना चाहते हुए भी उन लोगों की तरफ चले जाते हैं जो आदतन अपराधी होते है।। यानि जेल सुधार का नहीं नए अपराधी गढ़ने का कारखाना बन जाते हैं।
इस बीच जब लक्षमण पुर बाथे या हाषिमपुरा में सामूहिक हत्याकांड के लिा तीन दषक तक न्याय की उम्मीद लगाए लोगों को खबर आती है कि अदालत में पता ही नहीं चला कि उनके लेागों को मारा किसने था, दोशियों को अदालतें  बरी कर देती है,ं तो भले ही उनसे सियासती हित साधने वालों को कुछ फायदा मिले, लेकिन समाज में इसका संदेष विपरीत ही जाता है। मुसलमानों के लिए तो कई धार्मिक, राजनीतिक व सामाजिक संगठन यदाकदा आवाज उठाते भी हैं, लेकिन आदिवासियों या दलितों के  लिए संगठित प्रयास नहीं होते हैं । विषेशतौर पर आदिवासियों के मामले में अब एक नया ट्रैंड चल गया है कि उनके हित में बात करना यानि नक्सलवाद को बढ़ावा देना। सनद रहे कि सुप्रीम कोर्ट भी कह चुकी है कि नक्सलवादी विचारधारा को मानना गैरकानूनी नहीं है, हां, उसकी हिंसा में लिप्त होना जरूर अपराध है। विडंबना है कि यदि आदिवासियों के साथ अन्याय पर विमर्ष करें तो तत्काल अपराधी बना कर जेल में डाल दिया जाता है।
दलितों में भी राजनीतिक तौर पर सषक्त कुछ जातियों को छोड़ दिया जाए तो उनके आपसी झगड़ों या कई बार बेगुनाहों को भी किसी गंभीर मामले में जेल में डाल देना आम बात है। मामला गंभीर है क्योंकि ऐसी कार्यवाहियां लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभ ‘‘न्यायपालिका’’ के प्रति आम लोगों में अविष्वास की भावना भरती हैं। हालांकि इसका निदान पहले षिक्षा या जागरूकता और उसके बाद आर्थिक स्वावलंबता ही है और जरूरी है कि इसके लिए कुछ प्रयास सरकार के स्तर पर व अधिक प्रयास समाज के स्तर पर हों। यह भी जरूरी है कि आम लोगों को पूलिस का कार्य प्रणाली, अदालतों की प्रक्रिया, वकील के अधिकार, मुफ्त कानूनी सहायता जैेस विशयों की जानकारी दी जाए।

शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

Delhi : capital of Air pollution

प्रदूषण की भी राजधानी है यह महानगर  

                                                       पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
हिंदुस्‍तान, 18 जून 2015
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिल्ली को दुनिया के सबसे दूषित वायु वाले शहर के तौर पर चिन्हित किया है। दिल्ली की हवा में कितना जहर घुल गया है, इसका अंदाजा संगठन के उस बयान से लगाया जा सकता है, जिसमें बताया गया है कि देश की राजधानी में 12 साल से कम उम्र के 15 लाख बच्चे ऐसे हैं, जो खेलने-दौड़ने की उम्र में पैदल चलने पर ही हांफ रहे हैं। कुछ डॉक्टर चेता चुके हैं कि जिंदगी चाहते हैं, तो दिल्ली से दूर चले जाएं। जापान, जर्मनी जैसे कई देशों ने दिल्ली में अपने राजनयिकों की नियुक्ति की अवधि कम रखनी शुरू कर दी है, ताकि यहां का जहर उनकी सांसों में कुछ कम घुले। यह स्पष्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण यहां के वाहन और ट्रैफिक जाम। वाहनों की संख्या यहां हर रोज बढ़ रही है। बाकी कसर इस शहर से हर रोज गुजरने वाले 80 हजार से ज्यादा ट्रक, बस और बड़े वाहन मिलकर पूरी कर देते हैं।

केंद्रीय सड़क शोध संस्थान की एक रपट के मुताबिक, राजधानी के पीरागढ़ी चौक से हर रोज 3,15,554 वाहन गुजरते हैं और यहां जाम में 8,260 किग्रा ईंधन की बर्बादी होती है। पूरी दिल्ली में ऐसे न जाने कितने चौक व बाजार हैं, जहां दिन के ज्यादातर समय सड़कों पर वाहन फंसे रहते हैं। वैसे पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में यही हाल है। दिल्ली की सड़कों पर हर रोज करीब 40,000 लीटर ईंधन महज जाम में बर्बाद होता है। जाहिर है कि यदि दिल्ली की सांस को थमने से बचाना है, तो यहां न केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसके सौ किलोमीटर के दायरे के सभी शहरों-कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंगे, जो दिल्ली शहर के लिए हों। दिल्ली में बढ़ते जहरीले धुएं के लिए आमतौर पर इससे सटे इलाकों के खेत में खड़े ठूंठ को जलाने से उपजे धुएं को दोषी ठहराया जाता है। हालांकि ऐसा साल भर में कुछ ही दिनों के लिए होता है। जबकि इससे कई हजार गुना ज्यादा धुआं राजधानी की सीमा से सटे सैकड़ों ईंट भट्ठों से चौबीसों घंटे उपजता है।

पानी की बेकार बोतलों से लेकर फटे जूते तक को इन भट्ठों में फूंका जाता है। कोयला व लकड़ी महंगे हैं, सो जहरीला धुआं उगलने वाला कबाड़ ही यहां ईंधन बनता है। इमारतों व घरों की मांग बढ़ रही है, तो ईंट भट्ठों की संख्या तो बढ़ेगी ही। लेकिन सबसे ज्यादा समस्या उस समय पैदा होती है, जो दफ्तरों में आने और वहां से जाने का समय है। कार्यालयों के खुलने और बंद होने के समय में बदलाव करके इस समस्या पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है। पर सबसे जरूरी यह है कि दिल्ली में जो कार्यालय जरूरी न हों, या जिनका मंत्रालयों से कोई सीधा ताल्लुक न हो, उन्हें दो सौ किलोमीटर दूर के शहरों में भेज दिया जाए। इससे नए शहरों में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे ही, दिल्ली की तरफ पलायन करने वाले लोगों को भी दूसरे विकल्प मिलेंगे। साथ ही, दिल्ली पर दबाव भी कम होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

learn to live with lesser rain

संकट नहीं है अल्प वर्षा

 

 जो आशंका इस साल अप्रैल में जताई जा रही थी, उसके विपरीत जून-जुलाई में तो जम कर बरसे बादल। सामान्य बारिश से 14 फीसदी ज्यादा बारिश दर्ज की गई है। यही नहीं देश के खेती प्रधान इलाकों में अधिकांश जगह ताल-तलैया, नदी-नाले क्षमता से ज्यादा भर गए हैं। बहुत से इलाकों में बाढ़ के हालात हैं। अब कहा जा रहा है कि आषाढ़ में जो बरस गया वह ठीक है, सावन-भादों खाली जाएंगे। सवाल उठता है कि क्या अब कम बादल बरसे तो देश के सामने सूखे या पानी के संकट का खतरा खड़ा होगा? यह आम अदमी भी देख सकता है कि जब एक महीने की बारिश में हमारे भंडार पूरे भर कर झलकने लगे तो यदि इससे ज्यादा पानी बरसा तो वह बर्बाद ही होगा। फिर भी वर्षा के दिनों में पानी न बरसे तो लोक व सरकार दोनों ही चिंतित हो जाते हैं। यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि औसत से कम पानी बरसा या बरसेगा तो क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। इस साल भी मौसम विभाग ने चेता दिया है कि बारिश कम हो सकती है। जो किसान अभी ज्यादा और असमय बारिश की मार से उबर नहीं पाया था, उसके लिए एक नई चिंता! उधर अभी बरसात तो अच्छी हुई है, लेकिन दाल, सब्जी, व अन्य उत्पादों के दाम बाजार में आसमानी हो गए। अभी तक उस अनाज को उगाने वालों को आंकड़ों में दिखाए गए करोड़ों-करोड़ के मुआवजे से एक पैसा भी नहीं मिला है। यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बिारश से खेती प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थ व्यवस्था में जीडीपी का आंकड़ा गड़बड़ाएगा। केंद्र से लेकर राज्य व जिला से ले कर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनानेे में लग गए हैं कि यदि कम बारिश हुई तो राहत कार्य के लिए कितना व कैसे बजट होगा। असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है। जरा मौसम महकमे की घोषणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन जैसी चीजों ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी का जुगाड़ न तो बारिश से होता है और न ही नदियों से। भारत की अर्थव्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक, किसी इलाके की औसत बारिश यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे अनावृष्टि कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाए तो इसको सूखे के हालात कहते हैं। एक बात जानना जरूरी है कि खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी और देश में खद्यान्न की कमी में भारी अंतर है। यदि देश के पूरे हालात को गंभीरता से देखा जाए तो हमारे बफर स्टाक में आने वाले तीन सालों का अन्न भरा हुआ है। यह बात दीगर है कि लापरवाह भंडारण, भ्रष्टाचार के श्राप से ग्रस्त वितरण और गैर व्यावसायिक प्रबंधन के चलते भले ही खेतों में अनाज पर्याप्त हो, हमारे यहां कुपोषण व भूख से मौत होती ही रहती हैं। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिए इंद्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं। कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है, जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी कमी इंसान के जीवन के रंगों को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढि़यों से बेहद कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियां हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोकरंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं। पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलबा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझना कतई कठिन नहीं है। सूखे के कारण जमीन के कड़े होने, बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। यहां जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है, जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। गुजरात के जूनागढ़, भावनगर, अमेरली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुर खुद ही सीखा। विछियावाड़ा गांव के लोगों मेहनत के साथ 12 रोक बांध बनाए व एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नलकूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्यप्रदेश में झाबुआ व देवास में भी हुए। यदि तलाशने चलें तो कर्नाटक से ले कर असम तक और बिहार से ले कर बस्तर तक ऐसे हजारों हजार सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लोगों ने सूखे को मात दी है। तो ऐसे छोटे प्रयास पूरे देश में करने में कहीं कोई दिक्कत तो होना नहीं चाहिए। कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करनी होगी कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। हमारे यहां गरीब लोगों के लिए मकान से ले कर भोजन तक, बीमा से ले कर रोजगार तक की पर्याप्त योजनाएं हैं, जरा उनके माकूल क्रियान्वयन और पारदर्शिता के लिए समाज के एक फीसदी लोग सक्रिय हो जाएं तो न सूखा दिखेगा, न ही भूख-कुपोषण-पलायन और न ही जरूरत पड़ेगी विशेष राहत पैकेजों की।
= पंकज चतुर्वेदी


सोमवार, 13 जुलाई 2015

Bottel packed water : hazard for ecology


Shukrwaar 16-30 july 15


NBS, Gurgaon, 13-7-15
मसला था घर में नलों में आने वाले पानी की कीमतें बढ़ाने के फैसले के विरोध का, बड़े-बड़े नेता एकत्र हुए थे व उनका कहना था कि स्थानीय निकाय का यह कदम गरीब की कमर तोड़ देगा। उन सभी नेताओं के सामने प्लास्टिक की बोतलों में पानी रखा हुआ था, जिसके एक लीटर की कीमत होती है, कम-से-कम पन्द्रह रुपए।

वहीं दिल्ली में घर पर नलों से आने वाले एक हजार लीटर पानी के दाम बामुश्किल चार रुपए होता है, जो पानी नेताजी पी रहे थे उसके दाम सरकारी सप्लाई के पानी से शायद चार हजार गुणा ज्यादा है, लेकिन स्वच्छ, नियमित पानी की माँग करने के बनिस्पत दाम करने के लिये हल्ला-गुल्ला करने वाले असल में बोतलबन्द पानी की उस विपणन व्यवस्था के सहयात्री हैं जो जल जैसे प्राकृतिक संसाधन की बर्बादी, परिवेश में प्लास्टिक घेालने जैसे अपराध और जल के नाम पर जहर बाँटने का काम धड़ल्ले से वैध तरीके से कर रहे हैं।

Lokmat Samachar 20-8-15
क्या कभी सोचा है कि जिस बोतलबन्द पानी का हम इस्तेमाल कर रहे हैं उसका एक लीटर तैयार करने के लिये कम-से-कम चार लीटर पानी बर्बाद किया जाता है। प्लास्टिक बोतलों का जो अम्बार जमा हो रहा है उसका महज बीस फीसदी ही पुनर्चक्रित होता है, कीमतें तो ज्यादा हैं ही; इसके बावजूद जो जल परोसा जा रहा है, वह उतना सुरक्षित नहीं है, जिसकी अपेक्षा उपभोक्ता करता है।

कहने को पानी कायनात की सबसे निर्मल देन है और इसके सम्पर्क में आकर सब कुछ पवित्र हो जाता है। विडम्बना है कि आधुनिक विकास की कीमत चुका रहे नैसर्गिक परिवेश में पानी पर सबसे ज्यादा विपरीत असर पड़ा है। जलजनित बीमारियों से भयभीत समाज पानी को निर्मल रखने के प्रयासों की जगह बाजार के फेर में फँस कर खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है।

देश की राजधानी दिल्ली से बिल्कुल सटा हुआ इलाका है शालीमार गार्डन, यह गाज़ियाबाद जिले में आता है, बीते एक दशक के दौरान यहाँ जमकर बहुमंजिला मकान बने, देखते-ही-देखते आबादी दो लाख के करीब पहुँच गई। यहाँ नगर निगम के पानी की सप्लाई लगभग ना के बराबर है। हर अपार्टमेंट के अपने नलकूप हैं और पूरे इलाके का पानी बेहद खारा है। यदि पानी को कुछ घंटे बाल्टी में छोड़ दें तो उसके ऊपर सफेद परत और तली पर काला-लाल पदार्थ जम जाएगा।

Jagran 30-7-15
यह पूरी आबादी पीने के पानी के लिये या तो अपने घरों में आरओ का इस्तेमाल करती है या फिर बीस लीटर की केन की सप्लाई लेती है। यह हाल महज शालीमार गार्डन के ही नहीं हैं, वसुन्धरा, वैशाली, इन्दिरापुरम, राजेन्द्र नगर तक की दस लाख से अधिक आबादी के यही हाल है। फिर नोएडा, गुड़गाँव व अन्य एनसीआर के शहरों की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। यह भी ना भूलें कि दिल्ली की एक चौथाई आबादी पीने के पानी के लिये पूरी तरह बोतलबन्द कैन पर निर्भर है।

यह बात सरकारी रिकार्ड का हिस्सा है कि राष्ट्रीय राजधानी और उससे सटे शहरों में 10 हजार से अधिक बोतलबन्द पानी की इकाइयाँ सक्रिय हैं और इनमें से अधिकांश 64 लाइसेंसयुक्त निर्माताओं के नाम का अवैध उपयोग कर रही हैं। यह चिन्ता की बात है कि सक्रिय इकाइयाँ ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड (बीआईएस) की अनुमति के बगैर यह काम कर रही हैं। इस तरह की अवैध इकाइयाँ झुग्गियों और दिल्ली, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के शहरों की तंग गलियों से चलाई जा रही हैं।

वहाँ पानी की गुणवत्ता के मानकों का पालन शायद ही होता है। यही नहीं पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने वाले सरकारी अधिकारी भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाते हैं। कुछ दिनों पहले ईस्ट दिल्ली म्यूनिसिपल कारपोरेशन के दफ्तर में जो बोतलबन्द पानी सप्लाई किया जाता है, उसमें से एक बोतल में काक्रोच मिले थे। जाँच के बाद पता चला कि पानी की सप्लाई करने वाला अवैध धन्धा कर रहा हैै। उस इकाई का तो पता भी नहीं चल सका क्योंकि किसी के पास उसका कोई रिकार्ड ही नहीं है।

औद्योगिकीकरण के साथ ही 19वीं सदी में अमेरिका और यूरोप बोतलबन्द पानी का बाजार पैदा हो गया था। बोतलबन्द पानी की पहली कम्पनी पोलैंड स्प्रिंग बॉटल्ड वाटर’ 1945 में पोलैंड के मैनी शहर में लगी। भारत में बोतलबन्द पानी की शुरुआत 1965 में इटलीवासी सिग्नोर फेलिस की कम्पनी ‘बिसलरी’ ने मुम्बई महानगर से की थी। शुरुआत में सिग्नल वाटर की बोतल शीशे की बनी होती थी।

इस समय भारत में इस कम्पनी के आठ प्लांट और 11 फ्रेंचाइजी कम्पनियाँ है। भारत के कुल बोतलबन्द पानी के व्यापार के 60 प्रतिशत पर बिसलरी का कब्जा है। इस समय देश में बोतलबन्द पानी का व्यापार करने वाली करीब 200 कम्पनियाँ और 1200 बॉटलिंग प्लांट वैध हैं। इस आँकड़े में पानी का पाउच बेचने वाली और दूसरी छोटी कम्पनियाँ शामिल नहीं है।

इस समय भारत में बोतलबन्द पानी का कुल व्यापार 14 अरब 85 करोड़ रुपए का है। यह देश में बिकने वाले कुल बोतलबन्द पेय का 15 प्रतिशत है। बोतलबन्द पानी का इस्तेमाल करने वाले देशों की सूची में भारत 10वें स्थान पर है। भारत में 1999 में बोतलबन्द पानी की खपत एक अरब 50 करोड़ लीटर थी, 2004 में यह आँकड़ा 500 करोड़ लीटर का पहुँच गया। आज यह दो अरब लीटर के पार है।

औद्योगिकीकरण के साथ ही 19वीं सदी में अमेरिका और यूरोप बोतलबन्द पानी का बाजार पैदा हो गया था। बोतलबन्द पानी की पहली कम्पनी पोलैंड स्प्रिंग बॉटल्ड वाटर’ 1945 में पोलैंड के मैनी शहर में लगी। भारत में बोतलबन्द पानी की शुरुआत 1965 में इटलीवासी सिग्नोर फेलिस की कम्पनी ‘बिसलरी’ ने मुम्बई महानगर से की थी। शुरुआत में सिग्नल वाटर की बोतल शीशे की बनी होती थी। इस समय भारत में इस कम्पनी के आठ प्लांट और 11 फ्रेंचाइजी कम्पनियाँ है। भारत के कुल बोतलबन्द पानी के व्यापार के 60 प्रतिशत पर बिसलरी का कब्जा है।
पर्यावरण को नुकसान कर, अपनी जेब में बड़ा सा छेद कर हम जो पानी खरीद कर पीते हैं, यदि उसे पूरी तरह निरापद माना जाए तो यह गलतफहमी होगी। कुछ महीनों पहले भाभा एटामिक रिसर्च सेंटर के एनवायरनमेंटल मानिटरिंग एंड एसेसमेंट अनुभाग की ओर से किए गए शोध में बोतलबन्द पानी में नुकसानदेह मिले थे। हैरानी की बात यह है कि यह केमिकल्स कम्पनियों के लीनिंग प्रोसेस के दौरान पानी में पहुँचे हैं।

यह बात सही है कि बोतलबन्द पानी में बीमारियाँ फैलाने वाला पैथोजेनस नामक बैक्टीरिया नहीं होता है, लेकिन पानी से अशुद्धियाँ निकालने की प्रक्रिया के दौरान पानी में ब्रोमेट क्लोराइट और क्लोरेट नामक रसायन खुद-ब-खुद मिल जाते हैं। ये रसायन प्रकृतिक पानी में होते ही नहीं हैं। भारत में ऐसा कोई नियमक नहीं है जो बोतलबन्द पानी में ऐसे केमिकल्स की अधिकतम सीमा को तय करे। उल्लेखनीय है कि वैज्ञाानिकों ने 18 अलग-अलग ब्रांड के बोतलबन्द पानी की जाँच की थी।

एक नए अध्ययन में कहा गया कि पानी भले ही बहुत ही स्वच्छ हो लेकिन उसकी बोतल के प्रदूषित होने की सम्भावनाएँ बहुत ज्यादा होती है और इस कारण उसमें रखा पानी भी प्रदूषित हो सकता है। बोतलबन्द पानी की कीमत भी सादे पानी की तुलना में अधिक होती है, इसके बावजूद इसके संक्रमण का एक स्रोत बनने का खतरा बरकरार रहता है।

बोतलबन्द पानी की जाँच बहुत चलताऊ तरीके से होती है। महीने में महज एक बार इसके स्रोत का निरीक्षण किया जाता है, रोज नहीं होता है। एक बार पानी बोतल में जाने और सील होने के बाद यह बिकने से पहले महीनों स्टोर रूम में पड़ा रह सकता है। फिर जिस प्लास्टिक की बोतल में पानी है, वह धूप व गर्मी के दौरान कई जहरीले पदार्थ उगलती है और जाहिर है कि उसका असर पानी पर ही होता है।

घर में बोतलबन्द पानी पीने वाले एक चौथाई मानते हैं कि वे बोतलबन्द पानी इसलिये पीते हैं क्योंकि यह सादे पानी से ज्यादा अच्छा होता है लेकिन वे इस बात को स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि नगर निगम द्वारा सप्लाई पानी को भी कठोर निरीक्षण प्रणाली के तहत रोज ही चेक किया जाता है। सादे पानी में क्लोरीन की मात्रा भी होती है जो बैक्टीरिया के खतरे से बचाव में कारगर है।जबकि पेक्ड बोतल में क्लोरीन की तरह कोई पदार्थ होता नहीं है। उल्टे रिवर ऑस्मोसिस के दौरान प्राकृतिक जल के कई महत्त्वपूर्ण लवण व तत्व नष्ट हो जाते हैं।

बोतलबन्द पानी से उपजे संकट में सबसे बड़ा तो प्लास्टिक का योगदान है। हर दिन छोटी पैकिंग की करोड़ों बोतलें कूड़े में आ रही हैं और यह सर्वविदित है कि प्लास्टिक नष्ट नहीं होती है व उससे ज़मीन, पानी, हवा सब कुछ बुरी तरह प्रभावित होते हैं। ऐसे ही संकट को अमेरिका के सेनफ्रांसिस्को शहर ने समझा। वहाँ कई महीनों सार्वजनिक बहस चलीं। इसके बाद निर्णय लिया गया कि शहर में कोई भी बोतलबन्द पानी नहीं बिकेगा।

प्रशासन ही थोड़ी-थेाड़ी दूरी पर स्वच्छ परिशोधित पानी के नल के लगवाएगा तथा हर जरूरतमन्द वहाँ से पानी भर सकता है। लोगों का विचार था कि जो जल प्रकृति ने उन्हें दिया है उस पर मुनाफाखोरी नहीं होना चाहिए। भारत की परम्परा तो प्याऊ, कुएँ, बावड़ी और तालाब खुदवाने की रही है। हम पानी को स्रोत से शुद्ध करने के उपाय करने की जगह उससे कई लाख गुणा महंगा बोतलबन्द पानी को बढ़ावा दे रहे है।

पानी की तिजारत करने वालों की आँख का पानी मर गया है तो प्यासे लोगों से पानी की दूरी बढ़ती जा रही है। पानी के व्यापार को एक सामाजिक समस्या और अधार्मिक कृत्य के तौर पर उठाना जरूरी है वरना हालात हमारे संविधान में निहित मूल भावना के विपरीत बनते जा रहे हैं जिसमें प्रत्येक को स्वस्थ तरीके से रहने का अधिकार है व पानी के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।

रविवार, 12 जुलाई 2015

census with cast data :reverse gear on developmental pace

जाति, जनगणना, खाप और संविधान

                                                                                                                         पंकज चतुर्वेदी
JANSANDESH TIMES 13-7-15
यह अजब का अंतर्विरोध है- एक तरफ तो विज्ञान, तकनीकी, व्यापार और दीगर क्षेत्रों में दुनिया के षीर्श की ओर लपकने को लालयित होता देष है तो दूसरी ओर अभी भी मध्ययुगीन बर्बरताओं को सियासती मेकअप करने वोल राजनेता ; कहीं भी पर विशम आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद आईएएस, आईआईटी व अन्य खुली प्रतिस्पद्धाओं में आगे आ रहे विपन्न वर्ग के लोगों का तांता है तो साथ में खाते-पीते लोगों द्वारा खुद को असहाय बता कर आरक्षण की वैषाखी की मांग करना। एक तरफ संविधान की मूल भावना में निहित समतामूलक समाज की स्थापना के प्रति प्रतिबद्धता दुहराना तो दूसरी तरफ धार्मिक आधार पर आरक्षण या कुछ लोगों की मांग पर देष को जाति के आधार पर बांटने की सियासत खेलना।
मथुरा के चतुर्वेदी समम्मनित-कर्मकांडी ब्राहण कहलाते हैं और उनमें बदले में षादियो की परंपरा है- यानी इस घर की लड़की और उस घर के लड़के की बदले में षादी। चतुर्वेदियों में जीजा की बहन से मामा की षादी कोई गलत नहीं है, यानी जो लड़की की ननद है, वह मामी भी है। मेरी मामी, मेरी पत्नी की सगी बुआ भी हो सकती है। कुछ ही दूर बुंदेलखंड में जाएं तो ऐसे रिष्ते को सामाजिक मान्यता नहीं है।। मालवा में चाची की बहन चाची, मामी की बहन मामी और फूफा का भाई भी उसी रिष्ते का हकदार होता है। ब्रज के चतुर्वेदियों में ऐसा नहीं होता। उनके यहां चाची या मामी के भाई-बहन से सीधे रिष्ते हो जाते हैं। ये वही चतुर्वेदी हैं जो हिंदुओं की सभी जातियों में चरण धो कर पूजे जाते हैं। दक्षिण में तो मामा की बेटी से षादी को ही प्राथमिकता दी जाती है। जबकि बुंदेलखंड में भांजी के पैर उलटे मामा छूते हैं। खाप पंचायतों को कानूनी जामा पहनाने की मांग करने वाले जाटों के यहां अपनी जमीन पर हक सीमित रखने के लिए एक ही महिला से दो भाईयों षादी हो जाना या फिर जानसार बाबर में एक महिला के कई पति होना किसी से दबा-छिपा नहीं है। कुछ दिनों पहले दिल्ली हाई कोर्ट में एक अर्जी की सुनवाई करते हुए जब न्यायाधीष ने याचिकाकर्ता से पूछ लिया कि किस ग्रंथ में सगोत्रीय विवाह को निशेध कहा है तो याचिकाकर्ता बगलें झांकता दिखा।
आखिर इतनी सदियों से  यह समाज चल रहा है। स्थानीय देष-काल परिस्थितियों के अनुसार हर समाज, कुनबे और समूह ने अपने सामाजिक दायरे बना लिए थे। यही नहीं समय में बदलाव के साथ ये कानून बनते-बिगड़ते रहे। इसी समाज ने सती और बाल विवाह को मिटाया। इसी समाज ने बारात में पंजाबियों की तरह बैंड बजाने या वणिकों की तरह दहेज लेने-देने को अपना लिया। अभी कुछ साल पहले तक सातों जातों में पांच दिन की षादियां होती थीं, जो अब एक रात की हो गई।ं यही बदलाव इस समाज को जीवंत बनाए है। कुंभ या सिंहस्थ मे ंलाखों लोगों का पहुंचना, पर्व-त्योहारों को अपने तरीके से मनाने और आस्था को अपने सलीके से व्यक्त करने के लिए इस समाज को किसी ‘‘विष्व स्तर की परिशद’’ या रथयात्री की अपील-आव्हान की जरूरत नहीं होती है; भले ही वे भ्रम पाले रहते हों कि धर्म उनके जोर से चल रहा है और उनके नारों से बचा हुआ है।
पता नहीं कि यह अनायास हो गया कि किसी योजना के तहत हुआ- जहां एक तरफ कुछ लोग खाप पंचायतों के नाम पर मध्यकालीन बर्बरता को कानूनी जामा पहनाने की मांग कर रहे थे तो ठीक उसी समय कुछ लोग व दल जनगणना को जाति के आधार पर खुलासा करने के लिए जोर डाल रहे हैं तो साथ में कुछ नेता संप्रदाय के आधार पर मुसलमानों को आरक्षण देने की चिंगारी भड़काने में लगे हैं। यह बात अब किसी से छुपी नहीं हैं कि मंडल कमीषन की सियासत के गंभीर परिणाम इस मुल्क ने भोगे हैं, जिसमें सबसे बड़ा कलंक मंडल की  आग को थामने के लिए निकाला गया राम मंदिर का कमंडल था। अयोध्या का विवादास्पद ढंाचा गिराया जाना देष के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर सबसे बड़ा कलंक था। एक लंबा दौर चला अस्थिर और अल्पमत सरकारों का, जिनके पास विकास का कोई?एजेंडा ही नहीं था। हालांकि ऐसा एजेंडा आज भी नहीं है- अभी तो केवल गरीब को और गरीब तथा अमीर की तिजोरी को और समृद्ध करने की नीतियां ही विकास के नाम पर परोसी जा रही हैं। फिर भी षिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मसले मंदिर-मस्जिद पर भारी पड़ तो रहे ही हैं। देष में साक्षरता का आंकड़ा बढ़ रहा है और उसके साथ ही जागरूकता भी मीडिया के कंधों पर सवार हो कर उभर रही हैं।
 कोई कहता है कि जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी जिम्म्ेदारी, कोई कह रहा है कि हमरी पुष्तैनी रोजगार खेती-किसानी खतम हो रही है, सो हमारे पास नौकरी के अलावा कोई चारा नहीं है। एक तरफ से आवाज  आ रही है कि सुप्रीम कोर्ट की गाईड लाईन- आरक्षण 50 फीसदी से अधिक ना हो , को मिटाने के लिए जाति आधारित जनगणना जरूरी है।  असली मसला वहीं खड़ा बिसुर रहा है कि क्या किसी भी तबके की तरक्की के लिए क्या आरक्षण एकमात्र रास्ता है ? यह तथ्य बड़ी चालाकी से छुपाया जा रहा है कि देष में रोजगार के कुल अवसरों में से महज 3 फीसदी ही सरकारी नौकरियां हैं। षेश 97 प्रतिषत बाजार का खुला हिस्सा है, जहां अधिकांष में काबिलियत और कुव्वत से ही जगह मिलती है। फिर इस महज तीन फीसदी के लिए क्यों कुहराम काटा जा रहा है? हाल के आंकड़ै बताते हैं कि 50 फीसदी से अधिक लोग तो दिहीड़ी मजदूरी से जीवन काट रहे हैं जहां ना तो कोई जात-बिरादरी है, ना ही आरक्षण।
यह सभी समाज षास्त्री स्वीकार करते हैं कि जातियों का निर्माण कर्म से हुआ। भंगी जैसी जातियां तो अभी दो सौ साल पुरानी भी नहीं है।। समय-चक्र घूम रहा हैं और चमड़े का इंजीनयिर बनने या फिर चप्पल के षोरूम खोलने में ब्राहण-बनियों को कोई संकोच नहीं हो रहा हैं। एयरपोर्ट व अन्य जगहों पर सफाई कर्मचारी के रूप में उंची जाति के लोग बड़ी संख्या में आ रहे है। वहीं गांवों से तेली, लुहार,बढ़ई, ढीमर, कलार जैसी जातियों के पारंपरिक काम हाथ से छूट गए हैं और उन पर पैसे वालों की मषीनों का कब्जा हो गया हैं। समाज और बदल रहा है, अब दर्जी, मोची जैसे लोगों के पास काम कम आ रहा है - कारण अब जमाना खराब चीजों की मरम्मत करवाने का नहीं उन्हें कबाड़े में फैंकने का हैं। कबाड़ी का धंधा सभी जाति के लोग कर रहे है। कागज बनाने वाले, भड़भूंजे जैसी जातियां तो अब विलुप्त ही हो गई हैं।
असल में जब आम आदमी को सुरक्षा की जरूरत थी, जब लोगों को किसी संस्कार में बांधने की जरूरत महसूस हो रही थी, तब कबीले, समाज या समूह बने। आज सुरक्षा, कानून के लिए सरकार है तो फिर उन पारंपरिक संस्थाओं की जरूरत ही खतम हो जाती है। कुछ लोग सत्ता को अपनी ताकत का  जरिया मानते हैं, ना कि जनसेवा का ; ऐसे ही लोग पुरातनपंथी कुरीतियों की दुहाई दे कर खाप पंचायतों या फिर जातिगत गणना का सहारा लेने की फिराक में रहते हैं। कभी सोचा है कि यदि जाति के आधार पर जनगणना होगी तो आगे चल कर जाति के आधार पर आरक्षण की बात भी होगी। यानी तय है कि यदि किसीसमाज या जाति के लोग कम संख्या में होंगे तो काबिलियत के आधार पर उनका आगे बढ़ना मुष्किल होगा। विडंबना है कि हमारी संसद हर दस साल में एक औपचारिकता निभा कर आरक्षण को दस साल के लिए आगे बढ़ा देती है। कभी कोई यह नहीं सोचता कि 60 साल में आरक्षण नीति के परिणाम क्या रहे ?इसका लाभ वास्तविक जरूरतमंदों को मितले, इस पर नीति बनाने के मसले पर सभी मौन हैं।
याद करें कि अंग्रेज हिंदुस्तान को मुल्क मानते ही नहीं थे, वे तो कहते थे कि भारत विभिन्न जातियों और समुदायों का समूह मात्र है। संविधान सभा जानती थी कि जातियां समाज को खंडित करती हैं और खंडित समाज कमजोर होता है। संविधान सभा यह भी जानती थी कि अंग्रेज सरकार की धर्म-आधारित निर्वाचन नीति के कारण ही अलगाववादी सक्रिय हुए और उसी की दुखद परिणति देष का विभाजन हुआ। आज देष को जातियों के आधार पर गिनने की जिद ठाने नेताओं के मंसूबे भी जातिगत आधार पर निर्वाचन में आरक्षण ही है। कहने की जरूरत नहीं है कि उनका यह छिछोरा स्वार्थ देष को किस ओर ले जाएगा।
संविधान की प्रस्तावना में संुदर तरीके से लिखा है कि भारत का संविधान देष के हर नागरिक को प्रतिश्ठा और अवसर की समानता प्रदान करता है। खाप को जायज और जाितगत आधार पर समाज को बंटवारे के लिए उकसाने वाले असल में संविधान में निहित भावना को ही रौंद रहे हैं। क्या आप भी उनका साथ देंगे?
पंकज चतुर्वेदी
नई दिल्ली-110070
 संपर्क- 9891928376


Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...