संकट नहीं है अल्प वर्षा
जो आशंका इस साल अप्रैल में जताई जा रही थी, उसके विपरीत जून-जुलाई में तो जम कर बरसे बादल। सामान्य बारिश से 14 फीसदी ज्यादा बारिश दर्ज की गई है। यही नहीं देश के खेती प्रधान इलाकों में अधिकांश जगह ताल-तलैया, नदी-नाले क्षमता से ज्यादा भर गए हैं। बहुत से इलाकों में बाढ़ के हालात हैं। अब कहा जा रहा है कि आषाढ़ में जो बरस गया वह ठीक है, सावन-भादों खाली जाएंगे। सवाल उठता है कि क्या अब कम बादल बरसे तो देश के सामने सूखे या पानी के संकट का खतरा खड़ा होगा? यह आम अदमी भी देख सकता है कि जब एक महीने की बारिश में हमारे भंडार पूरे भर कर झलकने लगे तो यदि इससे ज्यादा पानी बरसा तो वह बर्बाद ही होगा। फिर भी वर्षा के दिनों में पानी न बरसे तो लोक व सरकार दोनों ही चिंतित हो जाते हैं। यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि औसत से कम पानी बरसा या बरसेगा तो क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। इस साल भी मौसम विभाग ने चेता दिया है कि बारिश कम हो सकती है। जो किसान अभी ज्यादा और असमय बारिश की मार से उबर नहीं पाया था, उसके लिए एक नई चिंता! उधर अभी बरसात तो अच्छी हुई है, लेकिन दाल, सब्जी, व अन्य उत्पादों के दाम बाजार में आसमानी हो गए। अभी तक उस अनाज को उगाने वालों को आंकड़ों में दिखाए गए करोड़ों-करोड़ के मुआवजे से एक पैसा भी नहीं मिला है। यह कोई सोच ही नहीं रहा है कि क्या कम बिारश से खेती प्रभावित होगी? या पीने के पानी का संकट होगा या फिर अर्थ व्यवस्था में जीडीपी का आंकड़ा गड़बड़ाएगा। केंद्र से लेकर राज्य व जिला से ले कर पंचायत तक इस बात का हिसाब-किताब बनानेे में लग गए हैं कि यदि कम बारिश हुई तो राहत कार्य के लिए कितना व कैसे बजट होगा। असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ कम बारिश भी हो और प्रबंधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है। जरा मौसम महकमे की घोषणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालों-साल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन जैसी चीजों ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी का जुगाड़ न तो बारिश से होता है और न ही नदियों से। भारत की अर्थव्यवस्था का आधार खेती-किसानी है। हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसे, आम-आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। एक बार गाड़ी नीचे उतरी तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक, किसी इलाके की औसत बारिश यदि 19 फीसदी से भी कम हो तो इसे अनावृष्टि कहते हैं। लेकिन जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाए तो इसको सूखे के हालात कहते हैं। एक बात जानना जरूरी है कि खाद्यान्नों के उत्पादन में कमी और देश में खद्यान्न की कमी में भारी अंतर है। यदि देश के पूरे हालात को गंभीरता से देखा जाए तो हमारे बफर स्टाक में आने वाले तीन सालों का अन्न भरा हुआ है। यह बात दीगर है कि लापरवाह भंडारण, भ्रष्टाचार के श्राप से ग्रस्त वितरण और गैर व्यावसायिक प्रबंधन के चलते भले ही खेतों में अनाज पर्याप्त हो, हमारे यहां कुपोषण व भूख से मौत होती ही रहती हैं। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिए इंद्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं। कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है, जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी कमी इंसान के जीवन के रंगों को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढि़यों से बेहद कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियां हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोकरंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं। पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलबा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझना कतई कठिन नहीं है। सूखे के कारण जमीन के कड़े होने, बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। यहां जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है, जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। गुजरात के जूनागढ़, भावनगर, अमेरली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुर खुद ही सीखा। विछियावाड़ा गांव के लोगों मेहनत के साथ 12 रोक बांध बनाए व एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नलकूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्यप्रदेश में झाबुआ व देवास में भी हुए। यदि तलाशने चलें तो कर्नाटक से ले कर असम तक और बिहार से ले कर बस्तर तक ऐसे हजारों हजार सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लोगों ने सूखे को मात दी है। तो ऐसे छोटे प्रयास पूरे देश में करने में कहीं कोई दिक्कत तो होना नहीं चाहिए। कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करनी होगी कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। हमारे यहां गरीब लोगों के लिए मकान से ले कर भोजन तक, बीमा से ले कर रोजगार तक की पर्याप्त योजनाएं हैं, जरा उनके माकूल क्रियान्वयन और पारदर्शिता के लिए समाज के एक फीसदी लोग सक्रिय हो जाएं तो न सूखा दिखेगा, न ही भूख-कुपोषण-पलायन और न ही जरूरत पड़ेगी विशेष राहत पैकेजों की।
= पंकज चतुर्वेदी
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