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शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

Delhi : capital of Air pollution

प्रदूषण की भी राजधानी है यह महानगर  

                                                       पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
हिंदुस्‍तान, 18 जून 2015
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दिल्ली को दुनिया के सबसे दूषित वायु वाले शहर के तौर पर चिन्हित किया है। दिल्ली की हवा में कितना जहर घुल गया है, इसका अंदाजा संगठन के उस बयान से लगाया जा सकता है, जिसमें बताया गया है कि देश की राजधानी में 12 साल से कम उम्र के 15 लाख बच्चे ऐसे हैं, जो खेलने-दौड़ने की उम्र में पैदल चलने पर ही हांफ रहे हैं। कुछ डॉक्टर चेता चुके हैं कि जिंदगी चाहते हैं, तो दिल्ली से दूर चले जाएं। जापान, जर्मनी जैसे कई देशों ने दिल्ली में अपने राजनयिकों की नियुक्ति की अवधि कम रखनी शुरू कर दी है, ताकि यहां का जहर उनकी सांसों में कुछ कम घुले। यह स्पष्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण यहां के वाहन और ट्रैफिक जाम। वाहनों की संख्या यहां हर रोज बढ़ रही है। बाकी कसर इस शहर से हर रोज गुजरने वाले 80 हजार से ज्यादा ट्रक, बस और बड़े वाहन मिलकर पूरी कर देते हैं।

केंद्रीय सड़क शोध संस्थान की एक रपट के मुताबिक, राजधानी के पीरागढ़ी चौक से हर रोज 3,15,554 वाहन गुजरते हैं और यहां जाम में 8,260 किग्रा ईंधन की बर्बादी होती है। पूरी दिल्ली में ऐसे न जाने कितने चौक व बाजार हैं, जहां दिन के ज्यादातर समय सड़कों पर वाहन फंसे रहते हैं। वैसे पूरे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में यही हाल है। दिल्ली की सड़कों पर हर रोज करीब 40,000 लीटर ईंधन महज जाम में बर्बाद होता है। जाहिर है कि यदि दिल्ली की सांस को थमने से बचाना है, तो यहां न केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसके सौ किलोमीटर के दायरे के सभी शहरों-कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंगे, जो दिल्ली शहर के लिए हों। दिल्ली में बढ़ते जहरीले धुएं के लिए आमतौर पर इससे सटे इलाकों के खेत में खड़े ठूंठ को जलाने से उपजे धुएं को दोषी ठहराया जाता है। हालांकि ऐसा साल भर में कुछ ही दिनों के लिए होता है। जबकि इससे कई हजार गुना ज्यादा धुआं राजधानी की सीमा से सटे सैकड़ों ईंट भट्ठों से चौबीसों घंटे उपजता है।

पानी की बेकार बोतलों से लेकर फटे जूते तक को इन भट्ठों में फूंका जाता है। कोयला व लकड़ी महंगे हैं, सो जहरीला धुआं उगलने वाला कबाड़ ही यहां ईंधन बनता है। इमारतों व घरों की मांग बढ़ रही है, तो ईंट भट्ठों की संख्या तो बढ़ेगी ही। लेकिन सबसे ज्यादा समस्या उस समय पैदा होती है, जो दफ्तरों में आने और वहां से जाने का समय है। कार्यालयों के खुलने और बंद होने के समय में बदलाव करके इस समस्या पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है। पर सबसे जरूरी यह है कि दिल्ली में जो कार्यालय जरूरी न हों, या जिनका मंत्रालयों से कोई सीधा ताल्लुक न हो, उन्हें दो सौ किलोमीटर दूर के शहरों में भेज दिया जाए। इससे नए शहरों में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे ही, दिल्ली की तरफ पलायन करने वाले लोगों को भी दूसरे विकल्प मिलेंगे। साथ ही, दिल्ली पर दबाव भी कम होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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