My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

Polluted Sambhal lake cause death of thousnads migrant birds

 साम्भर जील में प्रदूषण के कारण मरे हज़ारो प्रवासी पंछी 


वे हजारो किलोमीटर दूर से जीवन की उम्मीद के साथ यहां आए थे, क्योंकि उनकी पिछली कई पुश्तें, सदियों इस मौसम में यहां आती थीं। इस बार वे सात संमंदर तो पार कर गए लेकिन जैसे ही इस खारे पानी की झील पर बसे, उनके पैर, पंख सभी ने काम करना बंद कर दिया और देखते ही देखते हजारों की संख्या में उनकी लाशंे बिछने लगीं। जब भारत की जनता दीपावली के माध्यम से अपने घर में सुख-समृद्धि की कामना का पर्व मना रही थी , लगभग उसी समय दूर देश से आए इन मेहमानों के दुर्दिन षुरू हो गए थे। एक अनुमान है कि देश की सबसे बड़ी खारे पानी की झील कहे जाने वाली राजस्थान की सांभर झील में अभी तक 25 हजार से ज्यादा प्रवासी पंछी मारे जा चुके हैं। षुरूआत में तो पक्षियों की मौत पर ध्यान ही नहीं गया, लेकिन जब हजारों लााशें दिखीं,  दूर-दूर से पक्षी विशेशज्ञ आने ले तो पता चला कि दूर देश से आए इन मेहमानों की जान का दुश्मन उनके प्राकृतिक पर्यावास में लगातार हो रही छेड़छाड़ व बहुत कुछ जलवायूु परिवर्तन का असर भी है।

 क्यों आते हैं ये मेहमान पंक्षी
यह सभी जानते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र और उत्तरी ध्रुव में जब तापमान षून्य से चालीस डिगरी तक नीचे जाने लगता है तो वहां के पक्षी भारत की ओर आ जाते हैं ऐसा हजारों साल से हो रहा है, ये पक्षी किस तरह रास्ता  पहचानते हैं, किस तरह हजारों किलोमीटर उड़ कर आते हैं, किस तरह ठीक उसी जगह आते हैं, जहां उनके दादा-परदादा आते थे, विज्ञान के लिए भी अनसुलझी पहेली की तरह है। इन पक्षियों के यहां आने का मुख्य उद्देश्य भोजन की तलाश, तथा गर्मी और सर्दी से बचना होता है।
 हर साल भारत आने वाले पक्षियों में साइबेरिया से पिनटेल डक, शोवलर, डक, कॉमनटील, डेल चिक, मेलर्ड, पेचर्ड, गारगेनी टेल तो उत्तर-पूर्व और मध्य एशिया से पोचर्ड, ह्विस्लिंग डक, कॉमन सैंड पाइपर के साथ-साथ फ्लेमिंगो जैसे कई पक्षी आते हैं। भारतीय पक्षियों में शिकरा, हरियल कबूतर, दर्जिन चिड़िया, पिट्टा, स्टॉप बिल डक आदि प्रमुख हैं। अपनी यात्रा के दौरान हर तरह के पंक्षी अपने हिसाब से उड़ते हैं और उनकी ऊँचाई भी वे अपने हिसाब से निर्धारित कर लेते हैं। हंस जैसे पक्षी करीब 80 किलोमीटर प्रति घण्टे के हिसाब से भी उड़ान भरते हैं, तो जो पंछी बिना रुके यात्रा करते हैं, उनकी गति मुश्किल से 10 से 20 किलोमीटर प्रति घण्टे तक होती है। वे भले ही मंद गति से उड़ते हों, लेकिन अपने ठिकाने पर पहुँचकर ही दम लेते हैं। उदाहरण के लिये ईस्टर्न गोल्डन प्लॉवर लगातार उड़कर अपने निवास स्थान से भारत तक की 3200 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी बिना रुके पूरी करता है। इस दौरान वह समुद्र भी पार करता है। पहाड़ी इलाकों में पंछी कई बार एवरेस्ट से भी ज्यादा ऊँचाई पर उड़ते हैं, वहीं समुद्री इलाके में वे बेहद नीची उड़ान भरते हैं।

सांभर झील
कभी वहां समुद्र था, धरती में हुए लगातार परिवर्तनों से रेगिस्तान विकसित हुए और इसी क्रम में भारत की सबसे विशाल खारे पानी की झील ‘सांभर’ अस्तित्व में आई।  इसका विस्तार 190 किलोमीटर,लंबाई 22.5 किलोमीटर है।  इसकी अधिकतम गहराई तीन मीटर तक है।  अरावली पर्वतमाला की आड़ में स्थित यह झील राजस्थान के तीन जिलांे- जयपुर,अजमेर और नागौर तक विस्तारित है।  सन 1990 ें इसे ‘रामसर झील’ घोषित किया गया। भले ही इस अतंरराष्ट्रीय महत्व हो लेकिन समय की मार इस झील पर भी पड़ी। सन 1996 में 5,707.62 वर्ग किलामीटर जल ग्रहण क्षेत्र वाली यह झील सन 2014 में 4700 वर्गकिमी में सिमट गई। चूंकि भारत में नमक के कुल उत्पादन का लगभग नौ फीसदी- 196000 टन नमक यहां से निकाला जाता है अतः नमक-माफिया भी यहां की जमीन पर कब्जा करता रहता है। इस विशाल झील के पपानी में खारेपन का संतुलन बना रहे, इसके लिए इसमें मैया, रूपनगढ़, खारी, खंडेला जैसी छोटी नदियों से मीठा पानी लगातार मिलता रहता है तो उत्तर में कांतली, पूर्व में बांदी, दक्षिण में मासी और पश्चिम में नूणी नदी में इससे बाहर निकला पानी जाता रहा है।
राजशाही के दिनों में जयपुर और जोधपुर की सरकारें यहां से निकले नमक की तिजारत करती थीं। आजादी के बाद सांभर साल्ट लिमिटेड को नमक निकालने का जिम्मा दिया गया। सर्दी शुरू होते ही दूर देश के 83 से ज्यादा प्रजाति के पंक्षियों का यहां डेरा हो जाता है। कभी इसे फ्लेमिंगो की पसंदीदा प्रजनन स्थली भी माना जाता था।

पक्षियों की मौत
दीपावली बीती ही थी कि हर साल की तरह सांभर झील में विदेशी मेहमानों के झुंड आने शुरू हो गए। वे नए परिवेश में खुद को व्यवस्थित कर पाते, उससे पहले ही उनकी गर्दन लटकने लगी, उनके पंख बेदम हो गए, वे न तो चल पा रहे थे और न ही उड़ पा रहे थे। लकवा जैसी बीमारी से ग्रस्त पक्षी तेजी से मरने लगे। जब प्रशासन चेतता दस हजार से अधिक पक्षी मारे जा चुके थे। राजस्थान पशु चिििकत्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, बीकानेर(राजुवास) की टीम सबसे पहले पहुंची। फिर एनआईएचएसडी, भोपाल का दल आया व उसने सुनिश्चित कर दिया कि यह मौत बर्ड फ्लू के कारण नहीं हैं। भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आईवीआरआई) बरेली के एक बड़े दल ने मृत पक्षी के साथ-साथ वहां के पानी व मिट्टी के नमूने लिए और गहन जांच कर बताया कि  मौत का कारण ‘‘एवियन बॉटुलिज़्म ’’ नामक बीमारी है। यह बीमारी क्लोस्ट्रिडियम बॉट्यूलिज्म नाम के बैक्टीरिया की वजह से फैलती है। एवियन बॉटुलिज़्म को 1900 के दशक के बाद से जंगली पक्षियों में मृत्यु दर का एक प्रमुख कारण माना गया है। यह बीमारी आमतौर पर मांसाहारी पक्षियों को ही होती है। इसके वैक्टेरिया से ग्रस्त मछली खाने या इस बीमारी का शिकार हो कर मारे गए पक्षियों का मांस खाने से इसका विस्तार होता है।  सांभर झील में भी यही पाया गया कि मारे गए सभी पक्षी मांसाहारी प्रजाति के थे।
और भी कई कारण हैं पक्षियों के मरने के
हालांकि अधिकांश पक्षी वैज्ञानिकों की राय में इतनी बड़ी संख्या में पक्षियों के मरने का कारण एवियन बॉटुलिज़्म ही है, लेकिन बहुत से वैज्ञानिक  इसके पीछे ‘हाईपर न्यूट्रिनिया’ को भी मानते हैं।  नमक में सोडियम की मात्रा ज्यादा होने पर,  पक्ष्यिों के तंत्रिका तत्र पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। वे खानापीना छोड़ देतें हैं व उनके पंख और पैर में लकवा हो जाता है। कमजांेरी के चलते उनके प्राण निकल जाते हैं। माना जा रहा है कि पक्षियों की प्रारंभिक मौत  आईपर न्यूट्रिनिया से ही हुई। बाद में उनमें एवियन बॉटुलिज़्म के जीवाणु विकसित हुए और ऐसे मरे पक्षियों को जब अन्य पंछियो ने भक्षण किया तो बड़ी संख्या मंे उनकी मौत हुई।
वैसे खारे पानी में प्रदूषण बढ़ने से ‘माइक्रोसिस्टिल शैवाल’ के विशैले हाने से भी पक्षियों को लकवा हाने के संभावना रहती है। सनद रहे एवियन बॉटुलिज़्म का कोई वैक्सीन या इलाज नहीं है। इससे बचाव ही एकमात्र रास्ता है।
 सांभर झील के पर्यावरण से छेड़छाड़
सांभर झील लंबे समय से लापरवाही का शिकार रही है। एक तो सांभर साल्ट लिमिटेड ने नमक निकालने के ठेके कई कंपनियों को दे दिए। ये मानकों की परवाह किए बगैर गहरे कुंए और झील के किनारे दूर तक नमकीन पानी एकत्र करने की खाई बना रहे हैं। फिर परिशोधन के बाद गंदगी को इसी में डाल दिया जाता है। विशाल झील को छूने वाले किसी भी नगर कस्बे में घरों से निकलने वाले गंदे पानी को परिशेाधित करने की व्यवस्था नहीं है औरह जारों लीटर गंदा-रासायनिक पानी हर दिन इस झील में मिल रहा है।
इस साल औसत से काई 46 फीसदी ज्यादा पानी बरसा। इससे झील के जल ग्रहण क्षेत्र का विस्तार हो गया।  चूंंिक इस झील में नदियों से मीठा पानी  की आवक और अतिरिक्त खारे पानी को नदियों में मिलने वाले मार्गों पर भयंकर अतिक्रमण हो गए हैं, सो पानी में क्षारीयता का स्तर नैसर्गिक नहीं रह पाया। भारी बरसात के बाद यहां तापमान फिर से 27 डिगरी के पार चला गया। इससे पानी को क्षेत्र सिंकुड़ा व उसमें नमक की मात्रा बढ़ गई इसका असर झील के जलचरों पर भी पड़ा। हो सकता है कि इसके कारण मरी मछलियों को दूर देश से थके-भूखे आए पक्षियों ने खा लिया हो व उससे एवियन बॉटुलिज़्म के बीज पड़ गए हों। यह सभी जनते हैं कि एवियन बॉटुलिज़्म का प्रकोप तभी होता है जब विभिन्न प्रकार के पारिस्थितिक कारक समवर्ती रूप से होते हैं। इसमें आम तौर पर गर्म पानी के तापमान, एनोक्सिक (ऑक्सीजन से वंचित) की स्थिति और पौधों, शैवाल या अन्य जलचरों के प्रतिकूल परिस्थिति का निर्माण आदि प्रमुख हैं।  यह सर्वविदित है कि धरती का तापमान बढ़ना और जलवायु चक्र में बदलाव वैश्विक समस्या है। राजस्थान जैसे ‘‘चरम ठंउ व गरमी’ वाले इलाकों में अचानक भारी बरसात ऐस हालात बना सकते हैं।
वैसे बरेली के आईवीआरआई की जांच में अच्छी बरसात के चलते सांभर के पानी में नमक घटने व उससे जल की पीएच कीमत में बदलाव तथा उससे पानी में आक्सीजन की मात्रा महज चार मिलीग्राम प्रति लीटर लीटर से भी कम रह जाने के चलते यह त्रासदी उपजने की बात कही गई है।
यह भी जानना जरूरी है कि सांभर साल्ट लिमिटेड ने इस झील के एक हिस्से को एक रिसार्ट को दे दिया है। यहां का सारा गंदा पानी इसी झील में मिलाया जाता है। इसके अलावा कुछ सौर उर्जा परियेाजनाएं भी हैं। फिर तालाब की मछली का ठेका दिया हुआ है। ये विदेशी पक्षी मछली ना खा लें, इके लिए चौकीदार लगाए गए हैं। जब पंक्षी को ताजा मछली नहीं मिलती तो वह झील में तैर रही गंदगी, मांसाहारी भेाजन के अपशिष्ठ या कूड़ा खाने लगता है। यह बातें भी  पक्षियों के इम्यून सिसटम के कमजोर होने वा उनके सहजता से विषाणु के शिकार हो जाने का कारक हैं। वैसे भी सांभर झील में मरे पक्ष्यिों को बेहद लपरवाही से वहीं आसपास गाड़ दिया गया है। बिल्ली, कुत्ते व अन्य जानवरों के लिए उन्हें खोद कर ले जाना सरल है। यदि इन मरे पक्षियो में पड़ गए मीगेट्स(सफेद इल्ली जैसे कीड़े जो आमतौर पर जानवरों में घाव सड़ने पर होते हैं) किसी स्वास्थय पक्षी ने खा लिया तो एवियन बॉटुलिज़्म एक महामारी के रूप में दूर-दूर तक फैल जाएगा।
पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील पक्षी उनके प्राकृतिक पर्यावास में अत्यधिक मानव दखल, प्रदूषण, भोजन के अभाव से भी परेशान है। सनद रहे हमारे यहां साल-दर-साल प्रवासी पक्षियों  की संख्या घटती जा रही है। प्रकृति संतुलन और जीवन-चक्र में प्रवासी पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इनका इस तरह से मारा जाना असल में अनिष्टकारी है।



बुधवार, 25 दिसंबर 2019

Solar eclipse ; time for research , not fear

भय नहीं ज्ञान काल है ग्रहण


आज का सूर्य ग्रहण कई मायनों में महत्वपूर्ण है। एक तो यह वलयाकार ग्रहण है, अर्थात इसमें चंद्रमा सूर्य को इस तरह ढंक लेगा कि सूर्य एक अंगूठी की तरह दिखेगा। दूसरा इस ग्रहण की अवधि बहुत है, भारत में लगभग दो घंटा चालीस मिनट, लेकिन कुल अवधि साढ़े तीन घंटे से ज्यादा। एक अजीब विडंबना है कि ब्रह्मांड की अलौकिक घटना को भारत में ही नहीं, दुनिया के अनेक हिस्सों में अनिष्टकारी घटना के रूप में जाना जाता है। आज जब मानव चांद पर झंडे गाड़ चुका है, ग्रह-नक्षत्रों की हकीकत सामने आ चुकी है, ऐसे में पूर्ण सूर्यग्रहण की घटना प्रकृति के अनछुए रहस्यों के खुलासे का सटीक मौका है।
पृथ्वी और चंद्रमा दोनों अलग-अलग कक्षाओं में अपनी धुरी के चारों ओर घूमते हुए सूर्य के चक्कर लगा रहे हैं। सूर्य स्थिर है। पृथ्वी और चंद्रमा के भ्रमण की गति अलग-अलग है। सूर्य का आकार चंद्रमा से 400 गुणा बड़ा है। लेकिन पृथ्वी से सूर्य की दूरी, चंद्रमा की तुलना में बहुत अधिक है। इस निरंतर परिक्रमाओं के दौर में जब सूरज और धरती के बीच चंद्रमा आ जाता है तो धरती से ऐसा दिखता है, जैसे सूर्य का एक भाग ढंक गया हो। होता यह है कि पृथ्वी पर चंद्रमा की छाया पड़ती है। इस छाया में खड़े होकर सूर्य को देखने पर ‘पूर्ण ग्रहण’ सरीखे दृश्य दिखते हैं। परछाई वाला क्षेत्र सूर्य की रोशनी से वंचित रह जाता है, सो वहां दिन में भी अंधेरा हो जाता है।
सूर्य प्रकाश का एक विशाल स्त्रोत है, अत: जब चंद्रमा इसके रास्ते में आता है तो इसकी दो छाया निर्मित होती है। पहली छाया को ‘अंब्रा’ या ‘प्रछाया’ कहते हैं। दूसरी छाया ‘पिनेंब्रा’ या ‘प्रतिछाया’ कहलाती है। इन छायाओं का स्वरूप कोन की तरह यानी शंकु के आकार का होता है। अंब्रा के कोन की नोक पृथ्वी की ओर तथा पिनेंब्रा की नोक चंद्रमा की ओर होती है। जब हम अंब्रा के क्षेत्र में खड़े होकर सूर्य की ओर देखते हैं तो वह पूरी तरह ढंका दिखता है। यही स्थिति पूर्ण सूर्य ग्रहण होती है। वहीं यदि हम पिनेंब्रा के इलाके में खड़े होकर सूर्य को देखते हैं तो हमें सूर्य का कुछ हिस्सा ढंका हुआ दिखेगा। यह स्थिति ‘आंशिक सूर्य ग्रहण’ कहलाती है।
सूर्य ग्रहण का एक प्रकार और है, जो सबसे अधिक रोमांचकारी होता है- इसमें सूर्य एक अंगूठी की तरह दिखता है। जब चंद्रमा और पृथ्वी के बीच की दूरी इतनी कम हो जाए कि पृथ्वी तक पिनेंब्रा की छाया तो पहुंचे, लेकिन एंब्रा की नहीं। तब धरती पर पिनेंब्रा वाले इलाके के लोगों को ऐसा लगेगा कि काले चंद्रमा के चारों ओर सूर्य किरणों निकल रही है। इस प्रकार का सूर्य ग्रहण ‘एनुलर’ या वलयाकार कहलाता है।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि ग्रहण के समय सूर्य देवता राहू का ग्रास कतई नहीं बनते हैं। जैसे-जैसे चंद्रमा सूर्य को ढंकता है, वैसे-वैसे पृथ्वी पर पहुंचने वाली सूर्य-प्रकाश की किरणों कम होती जाती हैं। पूर्ण सूर्य ग्रहण होने पर सूर्य की वास्तविक रोशनी का पांच लाख गुणा कम प्रकाश धरती तक पहुंच पाता है। एक भ्रम की स्थिति बनने लगती है कि कहीं शाम तो नहीं हो गई। तापमान भी कम हो जाता है। पशु-पक्षियों के पास कोई घड़ी तो होती नहीं है, सो अचानक सूरज डूबता देख उनमें बेचैनी होने लगती है।
पृथ्वी, चंद्रमा और सूर्य के एक सीध में आने और हटने पर चार बिंदु दृष्टिगोचर होते हैं। इन्हें ‘संपर्क बिंदु’ कहा जाता है। जब सूर्य खग्रास की स्थिति में पहुंचने वाला होता है, तब कुछ लहरदार पट्टियां दिखती हैं। यदि जमीन पर एक सफेद कागज बिछा कर देखा जाए तो इन पट्टियों को देखा जा सकता है। जब चंद्रमा, सूरज को पूरी तरह ढंक लेता है तब सूर्य के चारों ओर हलकी वलयाकार धागेनुमा संरचनाएं दिखाई देती है। चंद्रमा के धरातल पर गहरी घाटियां हैं। इन घाटियों के ऊंचाई वाले हिस्से, सूरज की रोशनी को रोकते हैं, ऐसे में इसकी छाया कणिकाओं के रूप में दिखती है। यह स्थिति खग्रास के शुरू व समाप्त होते समय देखी जा सकती है।
पूर्ण सूर्य ग्रहण को यदि दूरबीन से देखा जाए तो चंद्रमा के चारों ओर लाल-नारंगी लपटें दिखेंगी। इन्हें ‘सौर ज्वाला’ कहते हैं। अभी तक उपलब्ध जानकारी के अनुसार 18 अगस्त 1868 और 22 जनवरी 1898 को भारत में पूर्ण सूर्य ग्रहण देखा गया था। फिर 16 फरवरी 1980 और 24 अक्टूबर 1995 और 11 अगस्त 1999 को सौर मंडल का यह अद्भुत नजारा देखा गया था।
वैसे तो कई टीवी चैनल पूर्ण सूर्य ग्रहण का सीधा प्रसारण करेंगे, पर अपने छत से इसे निहारना जीवन की अविस्मरणीय स्मृति होगा। यह सही है कि नंगी आखों से ग्रहण देखने पर सूर्य की तीव्र किरणों आंखों को बुरी तरह नुकसान पहुंचा सकती है। इसके लिए ‘मायलर-फिल्म’ से बने चश्मे सुरक्षित माने गए हैं। पूरी तरह एक्सपोज की गई ब्लैक एंड व्हाइट कैमरा रील या आफसेट प्रिंटिंग में प्रयुक्त फिल्म का इस्तेमाल किया जा सकता है। इन फिल्मों को दुहरा-तिहरा करें। इससे 40 वॉट के बल्ब को पांच फीट की दूरी से देखें, यदि बल्ब का फिलामेंट दिखने लगे तो समझ लें कि फिल्म की मोटाई को अभी और बढ़ाना होगा। वेल्डिंग में इस्तेमाल 14 नंबर का ग्लास या सोलर फिल्टर फिल्म भी सुरक्षित तरीके हैं। और हां, सूर्य ग्रहण को अधिक देर तक लगातार कतई ना देखें, और कुछ सेकेंड के बाद आंख झपकाते रहें। सूर्य ग्रहण के दौरान घर से बाहर निकलने में कोई खतरा नहीं है। यह पूर्ण सूर्य ग्रहण तो हमारे वैज्ञनिक ज्ञान के भंडार के कई अनुत्तरित सवालों को खोजने में मददगार होगा।


आज प्रात: काल ही सूर्य ग्रहण है। इस प्राकृतिक घटना को लेकर पूर्व काल से ही बहुत मिथक फैला है लोगों के बीच जिसकी वास्तविकता को समझने की जरूरत है

गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

NRC. CAA and hidden agenda


नागरिकता पंजी, नागरिकता संशोधन और छुपा अजेंडा
पंकज चतुर्वेदी
     
जाने माने गायक अदनान सामी अपने व्यावसायिक कार्य से 1999 में भारत आये और हर बार 5 साल के वीजा के साथ आते रहे। परवेज मुशर्रफ उनके पारिवारिक मित्र थे। उनके जरिये उनकी वहां सियासत में मजबूत पकड़ भी थी। सामी के वालिद पाकिस्तान एयर फोर्स में थे और सन 65 71 में उन्होंने भारत पर बम बरसाए थे। अदनान सामी वर्क परमिट पर भारत आते रहे। यूपीए उन्होंने दो बार भारत की नागरिकता के लिए अर्जी दी लेकिन यू पी ए सरकार ने उसे रिजेक्ट कर दिया। पहली अर्ज़ी ख़ारिज होने के बाद मार्च 2015 में अदनान ने दोबारा भारतीय नागरिकता के लिए अपील दायर की थी. अगस्त 2015 में उनके वर्क वीज़ा के ख़त्म होने के बाद भी भारत ने उन्हें अनिश्चितकाल तक के लिए यहां रहने की इजाज़त दे दी थी। और उसके बाद अक्टूबर 2015 केंद्र सरकार ने उनकी बीबी और बेटी को भारतीय नागरिकता दे दी गयी . पाकिस्तान में जिसकी पुश्तें हैं, जो भारत के दुश्मन मुशर्रफ का करीबी है, जिसे किसी तरह की प्रताड़ना नहीं थी----और हां, मुसलमान भी है, को चटपट नागरिकता दे दी। जाहिर है कि भारत में पहले से ही विदेश से आये लोगों को नागरिकता देने का कानूनी प्रावधान पहले से था , ऐसे में पुराने कानून में संशोधन कर केवल मुसलमानों को बाहर रखने से आम लोगों के मन में शक तो उठता ही ही है , यही नहीं यदि इसे राष्ट्रीय नागरिकता पंजी अर्थात एन आर सी  के साथ  मिला लें और असम में संपन्न एनआरसी  के नतीजों के साठ रख कर देखें तो शको- शुबह की गुन्जायिश भी बढ़ जाती है . 
      यह कानून कहता कुछ है, इसको लाने के इरादे कुछ और हैं और इसके परिणाम और कुछ होंगे। गौरतलब है कि सन २०१९  से दिसंबर २०१९ तक कूल ४३१ अफगान और २३०७ पाकिस्तानी शरणार्थियों को भारत  की नागरिकता दी गयी . बीते पांच सालों में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश के  ५६० मुसलमानों को भारत का बाशिंदा बना लिया गया, लेकिन इनमें वह तस्लीमा नसरीन नहीं है  जो असल में  सांप्रदायिक नफरत के कारण बंगलादेश से निर्वासित हैं . इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान के आंचलिक क्षेत्रों में हिंदुओं की हालत ख़राब है और कुछ हज़ार वहां से प्रताड़ित हो कर आये और उन्हें भारत की नागरिकता देना चाहिए। इसके लिए हमारे पास पहले से कानून थे। बीते साढ़े पांच साल में सरकार ने ऐसी हज़ारों अर्जियों पर विचार क्यों नहीं किया? यह अब किसी से छुपा नहीं हैं कि साढ़े छ सौ करोड खर्च के साठ कई साल , हज़ारों कर्मचारियों की मेहनत के बाद असम में तैयार एन आर सी में महज साढ़े उन्नीस लाख लोग ही संदिग्ध विदेशी पाए गए, उन्हें भी अभी प्राधिकरण में अपील का अवसर है , चूँकि उन साढ़े उन्नीस लाख में से कोई  ग्यारह लाख गैर मुस्लिम है ,सो ऐसे लोगों को भारत में शामिल करने के लिए नागरिकता संशोधन बील लाया गया, चूँकि असम में सन १९७९  से १९८४ तक के छात्र आंदोलन का मूल प्रयेक घुसपैठिये को बाहर करना था अतः वहाँ के लोग सांप्रदायिक आधार पर अवैध प्रवासियों को भारत का नागरिक बनाए के समर्थन में नहीं हैं .
      एन आर सी के असम के अनुभव सामने हैं जहां अपनी नागरिकता साबित करने के लिए 1971 से पहले के ये काग़ज़ात बतौर  सबूत जमा करने थे। ये सबूत थे: 1. 1971 की मतदाता सूची में खुद का या माँ-बाप के नाम या 2. 1951 में, यानि बँटवारे के बाद बने एन आर सी में माँ-बाप/ दादा दादी आदि का  जारी किया कोड नम्बर. साथ ही, नीचे दिए गए दस्तावेज़ों में से 1971 से पहले का एक या अधिक सबूत:1. नागरिकता सर्टिफिकेट 2. ज़मीन का रिकॉर्ड 3. किराये पर दी प्रापर्टी का रिकार्ड 4. रिफ्यूजी सर्टिफिकेट 5. तब का पासपोर्ट 6. तब का बैंक डाक्यूमेंट 7. तब की LIC पॉलिसी 8. उस वक्त का स्कूल सर्टिफिकेट 9. विवाहित महिलाओं के लिए सर्किल ऑफिसर या ग्राम पंचायत सचिव का सर्टिफिकेट. असम में जो ये दस्तावेज पेश नहीं कर पाए उनकी नागरिकता संदिग्ध हो गयी . सारे देश में यदि ऐसीही पणजी बनी तो कल्पना कर लें  एक सौ तीस करोड लोग कैसे, कहाँ से दस्तावेज जमा कर्नेगे- खासकर कम पढ़े लिखे या गरीब लोग . यही नहीं इतने दस्तावेज तैयार करने, उनको जांचने, उनका रिकार्ड बनने में असम से बीस गुना व्यय होगा अर्था साढ़े छः सौ करोड का बीस गुना हम सभी जानते है कि देश कि बड़ी आबादी तक आधार पंजीकरण भी अभी आधा-अधूरा है जबकि इसे अब कोई बारह साल होने को आ गए .

नागरिकता खोने  का अर्थ होता है बैंक सुविधा, जमीन जायदाद के अधिकार, सरकारी नौकरी, सरकारी योजनाओं का लाभ , मतदान का हक आदि से मुक्ति .  सरकारी आंकड़े बानगी हैं कि  गत छह सालों में सरकार 4000 विदेशी घुसपैठियों को भी देश से निकाल नहीं पाई। वहीं कई हज़ार करोड़ खर्च कर डिटेंशन सेंटर बनाये जा रहे है। वहां ऐसे लोगों को रखा जाएगा जिनका कोई देश नहीं होगा। अभी भी हज़ार लोग ऐसे सेंटर में नारकीय जीवन जी रहे हैं। एनआरसी में स्थान न पाए लाखों लोगों को ऐसे डिटेंशन सेंटर में रखने का खर्चा , उसकी सुरक्षा और प्रबंधन का भारी भरकम भार भी हम ही उठाएंगे। बंग्लादेश पहले ही कह चुका है कि उनके कोई अवैध रहवासी हैं ही नहीं और यदि है तो हम उसे तत्काल ले लेंगे .
जब नागरिकता रजिस्टर और संशोधन बिल  को साथ देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि यह साम्प्रदयिक मसला नहीं है, बल्कि यह हमारे संविधान की मूल आत्मा के विपरीत भेदभाव का मसला है . इसके विरोध का यह कतई मतलब नहीं कि  यह विरोध पाकिस्तान या बांग्लादेश से आये किसी भी हिन्दू, सिख को नागरिकता देने का है। ऐसे उत्पीड़ित लोगों को नागरिकता का प्रावधान पहले से भी था .
 धर्म के नाम पर बने राज्य में नफरत और विभाजन का सिलसिला जाती, भाषा, और कई रूपों में होता है , आज का दिन उन बिहारियों को भी याद रखना होगा जो "अपने इस्लामिक मुल्क" की आस में सन 1947 में उस तरफ चले गए थे. टीम तरफ से नदियों से घिरे ढाका शहर के सडक मार्ग के सभी पुल तोड़ डाले गये थे और भारतीय सेना के लड़ाकू जहाज ही ढाका की निगेहबानी कर रहे थे . जैसे ही खबर फैली कि पाकिस्तानी सेना आत्म समर्पण कर रही है , बंगला मुक्ति वाहिनी के सशस्त्र लोग सड़कों पर आ गए . ढाका के कमला पुर, शाहजहांपुर, पुराना पलटन, मौलवी बाज़ार. नवाब बाड़ी जैसे इलाकों में गैर बांग्ला भाषी कोई तीन लाख लोग रहते थे- जिन्हें बिहारी कहा जाता था, ये सभी विभाजन पर उस तरफ गए थे-- उन पर सबसे बड़ा हमला हुआ , कई हज़ार मार दिए गए- जहाज़ से पर्चे गिराए जा रहे थे कि आम लोग रेसकोर्स मैदान में एकत्र हों-- वहीँ पाकिस्तानी सेना का समर्पण हुआ - लेकिन उसके बाद जब तक भारतीय फौज बस्तियों में जाती , बहुत से बिहारी मार दिए गए-- लूट लिए गए ---- नए बंगलादेश के गठन की वेला में मुसलमान बिहारी फिर से भारत की और खुद को बचाने को भाग रहे थे. उससे पहले पाकिस्तानी फौज के अत्याचार से त्रस्त हिन्दू शरणार्थी आ रहे थे . शायद आप जानते हों कि हिन्दू शरणार्थियों को देश के आंतरिक हिस्सों में बाकायदा बसाया गया -- छत्तीसगढ़ के बस्तर में ऐसे बंगालियों की घनी बस्तियां आज भी हैं . भारत में बंगलादेश से आने वाले मुसलमान भी उतने ही पीड़ित थे जितने हिन्दू और मुसलमान तो भारत से ही बीस साल पहले भाग कर गए थे . इसका यह भी मतलब नहीं कि भारत में अवैध घुसपैठिये नहीं हैं , उनकी पहचान कर बाहर खदेडना ही चाहिए .


शनिवार, 14 दिसंबर 2019

Total system needs to overhaul to face rape cases

यौन अपराध के निराकरण में सभी को बदलना होगा।

पंकज चतुर्वेदी


एक तरफ देश की अदालतों में मुकदमों के अंबार के आंकड़े, दूसरी तरफ निर्भया जैसे चर्चित मामले में निर्धारित न्यायिक प्रक्रिया में अटकी अपराधियों की फांसी की सजा और तीसरे तफ हैदराबाद में एक पशु चिकित्सक महिला के साथ दरिंदगी के आरोपियों के कथित पुलिस एनकाउंटर पर फूल बरसाता देश। इन सभी के बीच खड़े नारी की अस्मिता की अगिन परीक्षा के सवाल।  जब उन चार मुल्जिमों को पुलिस द्वारा मारे जाने की जय-जयकार हो रही थी, तभी अगले आठ घंटों में दिल्ली से ले कर तमिलनाडु तक छोटी बच्चियों के बलात्कार की कई घटनाएं सामने आ रही थीं। यह जान लें कि आम भारतीय भावना-प्रधान है और वह क्षणिक खुशी और दुख दोनों को अभिव्यक्त करने में दिमाग नहीं दिल पर भरोसा करता है। हैदराबाद वाले प्रकरण को ही लें, मारे गए चारों को क्या बलात्कार या जला कर मारने की सजा मिल गई? असल में उन्हें तो पुलिस अथिरक्षा से भागने व पुलिस के हथियार छीनने के अपराध में मारा गया। फिर न्याय होता कहां दिखा ? इस मामले में देश में बड़े वर्ग द्वारा ख्ुाशी का इजहार करने से यह तो जाहिर है कि अब समय आ गया है कि यौन अपराधों के मामले में समाज अपना नजरिया, पुलिस अपनी जांच प्रक्रिया और अदालत अपनी सुनवाई की गति में बदलाव लाएं, वरना आम लोगों में ‘‘भीड़ के न्याय’’ की भावना प्रबल हो सकती है।

 यौन षोशण के अधिकांश मामलो में पुलिस की लचर जांच या रिपोट में ही लापरवाही होती है। हैदराबाद वाले मामले में मृतका के परिवार ने जब पुलिस से संपर्क किया तो ‘यह मेरे इलाके का मामला नहीं है’, तुम्हारी लड़की किसी दोस्त के साथ चली गई होगी’ जैसी बातें कही गई । रात साढे ग्यारह बजे तक वह लड़की जीवित थी, लेकिन तब तक अर्थात सूचना देने के चार घंटे बाद तक पुलिस थाने से ही नहीं निकली। दिनांक 7 दिसंबर 19 को उन्नाव में जला कर मार दी गई लड़की के मसले में भी मृतका द्वारा बीते साल मार्च में दर्ज बलात्कार की रिपोर्ट के अधिकांश नामजद गिरफ्तार ही नहीं हुए। फिर मुख्य आरोपी को अभी 03 दिसंबर को ही जमानत भी मिल गई लेकिन पुलिस ने उस पर कोई निगाह रखने की सोची भी नहीं। बाहर आने के तीन दिन बाद ही आरोपियों ने उस पर पेट्रोल डाल कर आग लगा दी। इससे पहले उन्नाव में ही एक नाबालिग से बालात्कार व उसके पिता की हत्या वाले मामलेे में पुलिस ने एक महीना तो मामला ही दर्ज नहीं किया। फिर गिरफ्तारी भी बड़े दवाब के बाद हुई वही मामला बनगी है कि पुलिस ने 11 जून 2017 को आरेाप पत्र दाखिल कर दिया, लेकिन अभी तक गवाही तक भी मामाला नहीं पहुचा। यह फरियादा पक्ष को अदालतों में चक्कर लगवा कर थका कर हताश कर देने की वह साजिश है जो देश के हर अदालत में रसूखदार लोग पुलिस, सरकारी वकील, अदालती कर्मचारियों के साथ मिल कर खेलते हैं।

यह सभी स्वीकार करेंगे कि हमारी अदालतों में लदे मुकदमों की तुलना में न्यायिक मूलभूत सुविधांए बेहद कम है। फिर हमारी प्रक्रिया भी बेहद मंथर गति की है। हाल ही में कई एक ऐसे मामले सामने आए जब जिला अदालतों ने पचास दिन से कम में यौन षोशण के मुकदमों में सजा सुना दी। इससे जाहिर है कि न्यायिक अधिकारी यदि चाहे तो ऐसे संवेदनशील मामलों में त्वरित न्याय हो सकता है।
हाल ही में माननीय राश्ट्रपति जी ने बलात्कार के मामलों में न्यायिक सुधार पर एक सुझाव तो दे ही दिया। नाबालिग बच्चों के साथ यौन षोशण के पास्को एक्ट-2012 के तहत दर्ज मुकदमों में अपील को समाप्त किया जाए। बलात्कार के बाद हत्या के मामलों में सत्र न्यायालय से मौत की सजा होने के बाद केवल उच्च न्यायालय से ही उसकी सहमति लेने का संशोध्न भी आना चाहिए। अभी जिला अदालत की सजा के बाद उच्च न्यायालय, फिर उच्चतम न्यायालय और उसके बाद राश्ट्रपति से दया याचिका का प्रावधान है। इस तरह हमारे सामने है कि दिल्ली के निर्भया कांड में भले ही  सत्र न्यायालय का फैसल त्वरित आ गया, लेकिन उसके बाद चांस साल से सजा का क्रियान्वयन नहीं हो पाया।  भारतीय दंड संहिता में यह बदलाव भी करना कोई कठिन नहीं है जिसमें बलात्कार जैसे अपराधों की जांच 15 दिन में, आरोप पत्र 21 दिन में और लगातार तीन या उससे अधिक घंटे सुनवाई कर 30 दिन में फैसले का प्रावधान हो। इसके लिए रिटायर्ड जिला-सत्र न्यायाधीशों की विश्ेाश अदालत नियमित अदालत के बाद अर्थात षाम को पांच बजे से भी लगाई जा सकती हैं। ऐसे में एक तो न्याय में देर नहीं होगी, दूसरा मुल्जिम के जमानत मांगने और बाहर निकल कर तथ्यों से छोड़छाड़ की संभावना भी समाप्त हो जाएगी।

इस तरह के मामलों में पुलिस की जांच में कड़ाई भी अनिवार्य है। एक तो सूचना मिलने पर देर से कार्यवाही करने, रिपोर्ट न लिखने, महिला फरियादा से अभद्र व्यवहार करने , तथ्यों से छेड़छाड़ करने, गवाही ठीक से न दर्ज करने के आरेप झेल रहे पुलिस वालों को सस्पेंड करने के बनिस्पत उसी मामले में सहअभियुक्त, धारा 120 बी के तहत बनाना चहिए। क्यों कि किसी भी प्रकरण की जांच को प्रभावित करना कानूनी भाशा में अभियाुक्त का अपराध करने में साथ देना ही होता है। इसी तरह फरियादी या मुल्जिम की मेडिकल जांच, उसकी रिपेार्ट को ठीक से संरक्षित या पेश ना करने को भी अपराध का ही हिस्सा माना जाए। हैदराबाद वाले मामलें में लड़की की मौत का कोई जिम्मेदार है तो वह पुलिस है जिसने सूचना मिलते ही तत्काल कार्यवाही नहीं की।
ऐसा नहीं कि यौन आचरण के अराजक होने के निशेध में महज पुलिस या अदालतंे ही खुद को बदलें, बदलना तो समाज को सबसे पहले पड़ेगा। यादकरें निर्भया कांड के बाद गठित जेसी वर्मा आयोग की रिपेार्ट में सुझाव था कि बलात्कार जैसे मामलों में आरोपी विधायक/सांसद को मुकदमा निबटने तक खुद ब खुद इस्तीफा दे देना चाहिए, लेकिन ऐसा हुआ नही। हर हाथ में स्मार्ट फोन, सस्ता डेटा व वीडियो बनाने की तकनीक ने दूरस्थ गांवां तक सामूहिक बलात्कार व यौन षोशण को बढ़ावा दिया है। सोशल मीडिया पर आए रोज ऐसे सैंकड़ेा वीडियो लोड होते हैं जिसमें किसी अंजान आंचलिक गांव में अपने प्रेमी के साथ मिल गई लड़की के साथ लंपट लउ़कांे द्वारा जबरिया कुकर्म करने या ऐसे वीडियों दिखा कर बदनाम करने की धमकी दे कर अपनने ठिकाने पर बुलाने या उससे पैसा वसूलने के दृश्य होते हैं। अधिकांश वीडियो में कम उम्र, निम्न आय वर्ग और अल्प शिक्षित युवक दिखते हैं। इस तरह के दृश्य रिकार्ड करने, उन्हें प्रेशित या साझा करने, ऐसे मामलों में पुलिस को स्वयं कार्यवाही करने व इसे गंभीर अपराध मानने पर एक कड़े कानून की भी जरूरत है।
इस मामले में सरकारी योजनाओं की अनदेखी किस तरह होती है इसके लिए सन 2012 में स्थापित निर्भया फंड के आंकड़े गौर करें। महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा के अलावा दमन और दीव सरकारों ने केंद्र द्वारा दिए निर्भया फंड से एक भी पैसा खर्च नहीं किया, वहीं उत्तर प्रदेश ने 119 करोड़ रुपये में से केवल सत करोड़ रुपये खर्च किए. तेलंगाना ने 103 करोड़ रुपये में से केवल चार करोड़ खर्च किए. आंध्र प्रदेश ने 21 करोड़ में 12 करोड़ बचाए तो बिहार ने 22 करोड़ में से 16 करोड़ बचा लिए। दिल्ली सरकार जो इस कांड के बल में सत्ता में आई, उनको दिए गए पचास लाख में से एक भी छदाम व्यय नहीं हुआ। यह जानकारी अभी 29 नवंबर 19 को संसद में दी गई है।

मंगलवार, 10 दिसंबर 2019

Sambhar lake turns in mass grave of migrant birds

प्रवासी पक्षियों के लिए काल बनती सांभर


वे हजारों किमी दूर से जीवन की उम्मीद के साथ यहां आए थे, क्योंकि उनकी पिछली कई पुश्तें सदियों से इस मौसम में यहां आती थीं। इस बार वे जैसे ही इस खारे पानी की झील पर बसे, उनके पैरों और पंखों ने काम करना बंद कर दिया और देखते ही देखते हजारों की संख्या में उनकी लाशें बिछने लगीं। देश की सबसे बड़ी खारे पानी की झील कहे जाने वाली राजस्थान की सांभर झील में पिछले डेढ़ माह में 25 हजार से ज्यादा प्रवासी पक्षी मारे जा चुके हैं। शुरू में तो पक्षियों की मौत पर ध्यान ही नहीं गया, लेकिन जब हजारों लाशें दिखीं, और दूर-दूर से पक्षी विशेषज्ञ आने लगे तब यह पता चला कि उनके प्राकृतिक पर्यावास में लगातार हो रही छेड़छाड़ व बहुत कुछ जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसा हुआ है।
हर वर्ष भारत आने वाले पक्षियों में साइबेरिया से पिनटेल डक, शोवलर, डक, कॉमनटील, डेल चिक, मेलर्ड, पेचर्ड, गारगेनी टेल तो उत्तर-पूर्व और मध्य एशिया से पोचर्ड, कॉमन सैंड पाइपर के साथ-साथ फ्लेमिंगो जैसे कई पक्षी आते हैं। भारतीय पक्षियों में शिकरा, हरियल कबूतर, दर्जिन चिड़िया आदि प्रमुख हैं। यात्र के दौरान पक्षी अपने हिसाब से उड़ते हैं और उनकी ऊंचाई भी अपने हिसाब से निर्धारित करते हैं।
सांभर झील कभी समुद्र का हिस्सा था। धरती में हुए लगातार परिवर्तनों से रेगिस्तान विकसित हुए और इसी क्रम में भारत की सबसे विशाल खारे पानी की झील ‘सांभर’ अस्तित्व में आई। यह झील करीब 230 वर्ग किलोमीटर के दायरे में विस्तृत है, जबकि इसका जलग्रहण क्षेत्र इससे कई गुना अधिक है। अरावली पर्वतमाला की आड़ में स्थित यह झील राजस्थान के तीन जिलांे- जयपुर, अजमेर और नागौर तक विस्तारित है। भले ही इस झील का अतंरराष्ट्रीय महत्व हो, लेकिन समय की मार इस झील पर भी पड़ी। वर्ष 1996 में 5,700 वर्ग किमी जलग्रहण क्षेत्र वाली यह झील 2014 में 4,700 वर्ग किमी में सिमट गई। चूंकि यहां पर बड़ी मात्र में नमक उत्पादन किया जाता है, लिहाजा नमक माफिया भी यहां की जमीन पर कब्जा करता रहता है। इस विशाल झील के पानी में खारेपन का संतुलन बना रहे, इसके लिए इसमें मैया, रूपनगढ़, खारी, खंडेला जैसी छोटी नदियों से मीठा पानी लगातार मिलता रहता है तो उत्तर में कांतली, पूर्व में बांदी, दक्षिण में मासी और पश्चिम में लूनी नदी में इससे बाहर निकला पानी जाता रहा है।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी नवंबर के शुरू में सांभर झील में विदेशी पक्षियों के झुंड आने शुरू हो गए। वे नए परिवेश में खुद को व्यवस्थित कर पाते, उससे पहले ही उनकी गर्दन लटकने लगी। वे ना तो चल पा रहे थे और ना उड़ पा रहे थे। लकवा जैसी बीमारी से ग्रस्त पक्षी तेजी से मरने लगे। जब तक प्रशासन चेतता दस हजार से अधिक पक्षी मारे जा चुके थे। राजस्थान पशु चिकित्सा और पशु विज्ञान विश्वविद्यालय, बीकानेर की टीम सबसे पहले पहुंची। फिर एनआइएचएसएडी यानी नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ हाइ सिक्योरिटी नेशनल डिजीज भोपाल का दल आया व उसने सुनिश्चित किया कि ये मौतें बर्ड फ्लू के कारण नहीं हैं।
भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आइवीआरआइ) बरेली के दल ने जांच कर बताया कि मौत का कारण ‘एवियन बॉट्यूलिज्म’ नामक बीमारी है। यह बीमारी क्लोस्टिडियम बॉट्यूलिज्म नामक बैक्टीरिया की वजह से फैलती है। यह बीमारी आमतौर पर मांसाहारी पक्षियों को होती है। इसके बैक्टीरिया से ग्रस्त मछली खाने या इस बीमारी का शिकार हो कर मारे गए पक्षियों का मांस खाने से इसका विस्तार होता है। मारे गए सभी पक्षी मांसाहारी प्रजाति के थे।
हालांकि अधिकांश पक्षी वैज्ञानिकों की राय में पक्षियों के मरने का कारण एवियन बॉट्यूलिज्म ही है, लेकिन बहुत से वैज्ञानिक इसके पीछे ‘हाईपर न्यूटिनिया’ को भी मानते हैं। नमक में सोडियम की मात्र ज्यादा होने पर पक्षियों के तंत्रिका तंत्र पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। वे खानापीना छोड़ देते हैं व उनके पंख और पैर में लकवा हो जाता है। कमजोरी के चलते उनके प्राण निकल जाते हैं।
सांभर झील लंबे समय से लापरवाही का शिकार रही है। यहां नमक निकालने के ठेके कई कंपनियों को दिए गए हैं। ये मानकों की परवाह किए बगैर गहरे कुएं और झील के किनारे दूर तक नमकीन पानी एकत्र करने की खाई बना रहे हैं। फिर परिशोधन के बाद गंदगी को इसी में डाल दिया जाता है। विशाल झील को छूने वाले किसी भी नगर-कस्बे में घरों से निकलने वाले गंदे पानी को परिशेधित करने की व्यवस्था नहीं है और हजारों लीटर गंदा-रासायनिक पानी हर दिन इस झील में मिल रहा है। इस साल औसत से करीब 46 फीसद ज्यादा पानी बरसा। इससे झील के जल ग्रहण क्षेत्र का विस्तार हो गया। झील में नदियों से मीठे पानी की आवक और अतिरिक्त खारे पानी को नदियों में मिलने वाले मार्गो पर अतिक्रमण हो गए हैं, सो पानी में क्षारीयता का स्तर नैसर्गिक नहीं रह पाया। भारी बरसात के बाद यहां तापमान फिर से 27 डिग्री के पार चला गया। इससे पानी का क्षेत्र सिकुड़ गया व उसमें नमक की मात्र बढ़ गई जिसका असर झील के जलचरों पर पड़ा। हो सकता है कि इस कारण मरी मछलियों को पक्षियों ने खा लिया हो व उससे उन्हें एवियन बॉट्यूलिज्म हो गया हो। वैसे आइवीआरआइ की जांच में अच्छी बरसात के चलते पानी में नमक घटने व पानी में ऑक्सीजन की मात्र महज चार मिलीग्राम प्रति लीटर से भी कम रह जाने के चलते यह त्रसदी उपजने की बात कही गई है।
पर्यावरण के प्रति संवेदनशील पक्षी अपने पर्यावास में अत्यधिक मानव दखल, प्रदूषण, भोजन के अभाव से भी परेशान है। लिहाजा प्रवासी पक्षियों की घटती संख्या हमारे लिए भी चिंता का विषय है।
राजस्थान के तीन जिलों में विस्तृत सांभर झील में 25 हजार से अधिक पक्षियों की मौत चिंता का विषय है। प्राकृतिक संतुलन और जीवन-चक्र में प्रवासी पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इनका इस तरह से मारा जाना अनिष्टकारी है

रविवार, 8 दिसंबर 2019

law has to change for sexual assaults on women

मोमबत्ती की ऊश्मा वहां तक क्यों नहीं पहुंचती ?
पंकज चतुर्वेदी

वह बीमार जानवरों का इलाज करती थी, उसे पता ही नहीं था कि कायनातका सबसे खूंखार जानवर इंसान है, जो अकेले जिस्म ही नहीं भरोसे की भी हत्या कर देता है,वह भी बेवजह । हैदराबाद में डा. प्रियंका के स्कूटर को पंचर करना, फिर उसकी मदद के नाम पर उसे एकांत में ले जा कर कुकृत्य करना, उसकी चीखना निकले इसके लिए मुंह दबा देना और उसी दौरान जलब उसके प्राण निकल गए तो उसे एक ट्रक में लाद कर ले जाना , फिर उसे जला देना। इसी के समानांतर डा प्रियंका द्वारा अपनी बहन को फोन कर एकांत में स्कूटर खराब होने व उसकी मदद करने की सूचना देना, उसके तत्काल बाद उसका फोन बंद आने पर पुलिस को सूचति करना, पुलिस द्वारा थाना क्षेत्र ना होने या फिर ‘‘किसी के साथ भाग गई होगी’’ जैसे बयना देना --जा लें ये दोनों ही एक ही स्तर के अपराध है।। लेकिन उन चार को तो जेल भेज दिया गया, लेकिन पुलिस वालों को महज सस्पेंड किया गया।  जबकि हकीकत तो यह है कि ऐसा करने वाले पुलिस वालों पर 120 बी अर्थात अपराध की येजना में षामिल होने का मुकदमा चला था। बहरहाल डा. प्रियकां की घटना के बाद  वही सबकुछ हो रहा है जो सत साल पहले दिल्ली में निर्भया कांड के बाद हुआ था - कुछ लोग गीत-कविता लिख रहे हैं, कुछ मोमबत्तियां खरीद रहे हैं। कुछ चिंतित पालक छोटा चाकू, आलपित ,काली मिर्च का स्प्रे या ऐसी ही कुछ चीजे  अपनी बच्चियों को खरीद कर दे रहे हैं।  वहीं पुरानी मांग- फांसी दो,  हमारे हवाले कर दो, कोई वकील उनका मुकदमा नहीं लड़ेगा आदि-आदि।
जब डा प्रियंका का वाक्या प्रेस में सुर्खियों में था तो उसी समय संभल में एक सोलह साल की बच्ची के साथ दुश्कर्म व उसे जिंदा जला देने, दिल्ली में चार साल की बच्ची के साथ या सारे देष के कई राजयों से ऐसे ही कुकर्मों की खबरों की बाढ़ आ गई। हकीकत तो यह है कि ऐसी घटनांए हर रोज होती हैं, लेकिन जब कोई प्रकरण ज्यादा सुर्खियों  में रहता हैतो मीडिया भी ऐसी खबरें तलाष-तलाष कर छापता है। इन्ही घटनाओं के बीच दो खबरें उ.्रप से आई जहां कानपुर और बागपत में बलात्कारियों के खिलाफ मुकदमों कोे बहुत ही कम दिनों में सुनवाई कर सजा भी सुना दी गई। ठीक उससे पहले सत साल पुराने निर्भया कांड के आरोपियों को फांसी न हो पाने को ले कर अदालती अड़ंगों की भी खबरें भी दप्ती रहीं।
डा. प्रियंका या संभल की बच्ची या अन्य ऐसे ही मामलों में हर बार की तरह अफसरान, नेता ढांढस बंधा रहे हैं कि आपको न्याय मिलेगा। असल में मुजरिमों को सजा ए मौत या ताजिंदगी जेल की सजा, अदालत या कानून की नजरों में तो न्याय होता है लेकिन पीड़ित परिवार के लिए वह कुछ भी नहीं होता-- एक प्रतिषोंध के अलावा। किसी घरमें जो जगह खाली होती है, वह किसी दीगर की मौत से तो भरने से रही।
दिल्ली के चर्चित निर्भया कांड से उपजे जनाक्रोष को कुछ लेाग भले ही सत्ता की सीढ़ी में बदलने मे ंसफल रहे हों, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ना तो औरतों के प्रति समाज का नजरिया बदला है और ना ही कानून की धार ।
हालांकि निभर््ाया वाले कांड में न्याय तो हो चुका है, अपराधियों को फंासी पर चढाने की विधिसम्मत प्रक्रिया यानि अपील आदि भी चल रही है। कथित नाबालिक आरोपी कानून के मुताबिक सजा काट कर कहीं गुमनामी में है। सन 2012 यानि जिस साल निर्भया कांड हुआ , उसके बाद देष में महिलाओं के प्रति षारीरिक अत्याचर के मामले बढ़ै ही हैं, और ऐसे मामलों में सजा के आंकड़े पहले की ही तरह बामुष्किल 28 फीसदी से कम रहे हैं। भले ही कानून बदला, खूब बहस हुई परंतु अभी भी समाज के जिम्म्ेदार हिस्से का ‘‘माईंड सेट’’ ।
कोई सत साल पहले दिल्ली व देष के कई हिस्सों में उस अनाम अंजान ‘‘दामिनी’ के लिए खड़ा हुआ आंदोलन, आक्रोष, नफरत सभी कुछ विस्मृत हो चुका है। अभी दिल्ली के ईद-गिर्द एक महीने में ही जो कुछ हो गया, उस पर महज कुछ सियासी तीरबाजी या स्थानीय गरीब लोगों द्वारा गुस्से का इजहार कहीं ना कहीं इस बात पर तो सवाल खड़े करता ही है कि कहीं विरोध एक नियोजित एकांकी होता है जिसके मंचन के पात्र, संावद, मीडिया आदि सभी कुछ कहीं बुनी जाती है और उसके निर्देषक महज सत्ता तक पुहंचने के लिए बच्चियों के साथ वहषियाना व्यवहार को मौके की तरह इस्तेमाल करते हैं। या फिर जंतर मंतर पर प्रज्जवलित होने वाली मोमबत्तिया केवल उन्ही लोेगों का झकझोर पा रही हैं जो पहले से काफी कुछ संवदेनषील है- समाज का वह वर्ग जिसे इस समस्या को समझना चाहिए -अपने पुराने रंग में ही है - इसमें आम लोग हैं, पुलिस भी है और समूचा तंत्र भी।
दिल्ली में दामिनी की घटना के बाद हुए देषभर के धरना-प्रदर्षनों में षाद करोड़ो मोमबत्तिया जल कर धुंआ हो गई हों, संसद ने नाबालिक बच्चियों के साथ छेडछाड़ पर कड़ा कानून भी पास कर दिया हो, निर्भया के नाम पर योजनाएं भी हैं लेकिन समाज के बड़े वर्ग पर दिलो-दिमाग पर औरत के साथ हुए दुर्व्यवहार को ले कर जमी भ्रांतियों की कालिख दूर नहीं हो पा रही हे। ग्रामीण समाज में आज भी औरत पर काबू रखना, उसे अपने इषारे पर नचाना, बदला लेने - अपना आतंक बरकरार रखने के तरीके आदि में औरत के षरीर को रोंदना एक अपराध नहीं बल्कि मर्दानगी से जोड़ कर ही देखा जाता हे। केवल कंुठा दूर करने या दिमागी परेषानियों से ग्रस्त पुरूश का औरत के षरीर पर बलात हमला महज महिला की अस्मत या इज्जत से जोड़ कर देखा जाता हे। यह भाव अभी भी हम लोगों में पैदा नहीं कर पा रहे हैं कि बलात्कार करने वाला मर्द भी
फांसी की मांग, नपुंसक बनाने का षोर, सरकार को झुकाने का जोर ; सबकुछ अपने अपने जगह लाजिमी हैं लेकिन जब तक बलातकार को केवल औरतों की समस्या समझ कर उसपर विचार किया जाएगा, जब तक औरत को समाज की समूची ईकाई ना मान कर उसके विमर्ष पर नीतियां बनाई जाएंगी; परिणा अधूरे ही रहें्रे। आज भी हमारे देष में किसी को प्रताडित करने या किसी के प्रति अपना गुससा जताने का सबसे भदेस, लोकप्रिय, सर्वव्यापी , सहज, बेरोकटोक, बगैर किसी कानूनी अड़चन वाला तरीका है - विरोधी की मां और बहने के साथ अपने षारीरिक संबंध स्थापित करने वाली गाली देना। अब तो यह युवाओं का तकियाकलाम सा बनता जा रहा है। आज भी टीवी पर खबरिया चैनलों से ले कर सास-बहू वाले सीरियलों वाले चैनल तक ऐसे विज्ञापन चल रहे हैं जिसमें औरत के गुदाज षरीर को जितनी गहराई तक देखा जा सके, दिखा कर माल बेचा जा रहा है। आज भी देष में हर रोज करोड़ों चुटकुले, एमएएस क्लीप और वीडियों फुटेज बेचे, खरीदे, षेयर किए जा रहे हैं, जो औरत के षरीर को मसलने, मजा लेने के लिए उत्तेजित करते हैं। अकेले फेस बुक पर ही ‘‘भाभी’’ और ‘‘आंटी’’ जैसे पवित्र रिष्ते के नाम पर कोई एक दर्जन पेज हैं जो केवल नंगापन और अष्लीलता परोस रहे हैं। अखबारों के क्लासीफाईड मसाज, एस्कार्ट के विज्ञापनों से भरे पड़े हैंजिनके बारे में सभी को पता है  कि वे क्या हैं। मामला दिल्ली का हो या फिर बस्तर का, सभी जगह पुलिस का रवैया वैसा ही है मामले को दबाने, हल्का करने, कुछ छिपाने का प्रयास करने का। हर हाथ में मोबाईल व सस्ते डेटा ने तो गांव-कस्बे तक किसी प्रेमी-प्रेमिका को पकड़ कर उनका वीडिया बनाने और उसकी आड़ में ब्लेकमेल कर लड़कियों को यौन षोशण करने की वारदातों में भयंकर इजाफा कर दिया है।
जब तक सार्वजनिक रूप से मां-बहन की गाली बकना , धूम्रपान की ही तरह प्रतिबंधित करने जैसे आघारभूत कदम नहीं उठाए जाते  , अपने अहमं की तुश्टि के लिए औरत के षरीर का विमर्ष सहज मानने की मानवीय वृत्ति पर अंकुष नहीं लगाया जा सकेगा। भले ही जस्टिस वर्मा कमेटी सुझाव दे दे, महिला हेल्प लाईन षुरू हो जाए- एक तरफ से कानून और दूसरी ओर से समाज के नजरिये में बदलाव की कोषिष एकसाथ किए बगैर असामनता, कुंठा, असंतुश्टि वाले समाज से ‘‘पाषा, केषावलु, नवीन-षिवा या ‘‘राम सिंह-मुकेष’’ की पैदाईष को रोका नहीं जा सकेगा।
निर्भया फंड: हमारी कोताही की बानगी
देश में जहां महिलाओं के साथ गैंगरेप के बाद हत्या के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे. ऐसे में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने संसद में ऐसा जवाब दिया है, जिसे सुनकर हर कोई हैरान रह जाए. मंत्रालय ने संसद को बताया कि रेप पीड़िताओं के लिए बनाया गया निर्भया फंड का ज्यादातर हिस्सा इस्तेमाल ही नहीं हुआ. यह जवाब मंत्रालय की ओर से 29 नवंबर को दिया गया।
बता दें कि 2011 में दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप की घटना के बाद केंद्र सरकार ने महिला सुरक्षा को लेकर निर्भया फंड बनाया था. लोकसभा में शुक्रवार को महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने निर्भया फंड के खर्च का ब्योरा देते हुए बताया कि महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा के अलावा दमन और दीव सरकारों ने केंद्र द्वारा दिए निर्भया फंड से एक भी पैसा खर्च नहीं किया, वहीं उत्तर प्रदेश ने 119 करोड़ रुपये में से केवल सत करोड़ रुपये खर्च किए. तेलंगाना ने 103 करोड़ रुपये में से केवल चार करोड़ खर्च किए. आंध्र प्रदेश ने 21 करोड़ में 12 करोड़ बचाए तो बिहार ने 22 करोड़ में से 16 करोड़ बचा लिए।
देशभर के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 20 ने ही महिला हेल्पलाइन बनाने में पैसे खर्च किए हैं. हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और गोवा जैसे राज्यों को महिला हेल्पलाइन के लिए दिए पैसे जस के तस पड़े हैं.
दिल्ली सरकार ने भी इस मद में मिले 50 लाख रुपये में से एक भी पैसा खर्च नहीं किया जबकि निर्भया मामले को लेकर आठ साल पहले सबसे बड़ा आंदोलन अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने किया था और वही उनकी सत्ता की सीढ़ी बना था।

केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से विभिन्न योजनाओं के तहत आंध्र प्रदेश को दिए 58.64 करोड़ रुपयों में से एक भी पैसा खर्च नहीं किया गया. जबकि केंद्रीय कानून मंत्रालय द्वारा 11 राज्यों को दिए फंड में से किसी भी राज्य ने एक पैसा खर्च नहीं किया. इसी तरह केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्रालय ने जिन 12 राज्यों को फंड दिए उनमें से 8 राज्यों ने उस पैसे का कोई इस्तेमाल नहीं किया. केवल आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और हरियाणा ने ही फंड का कुछ इस्तेमाल किया है.

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

Pesticide reaching to your food from farm

खाने में पहुंचता खेतों का जहर
पंकज चतुर्वेदी


इसी साल सितंबर महीने में महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में कीटनाशक की चपेट में आकर 21 किसानों और खेत में काम कर रहे मजदूरों की मौत हो गई । कोई 800 किसान व खेत श्रमिक अस्पताल में भर्ती हुए ं। असल में इस इलाके में कपास की खेती होती है। जैसे ही कपास में गुलाबी कीड़े (पिंक बोलवर्म) दिखे, किसानों ने कीटनाशक छिड़कना शुरू कर दिया। चूंकि बीटी कॉटन वाले बीज में जरूरत से ज्यादा कीटनाषक लगता है, हालांकि कंपनी का दावा तो रहता है कि इसमें कीड़ा लगता ही नहीं। मजबूरन किसानों ने प्रोफेनोफॉस जैसे जहरीले कीटनाशक का छिड़काव किया। छिड़काव के लिए उन्होंने चीन में बने ऐसे पंप का इस्तेमाल किया जिसकी कीमत कम थी और गति ज्यादा। किसान नंगे बदन खेत में काम करते रहे, ना दस्ताने, ना ही नाक-मुंह ढंकने की व्यवस्था। तिस पर तेज गति से छिडकाव वाला चीन निर्मित पंप। दवा का जहर किसानों के शरीर  में गहरे तक समा गया। कई की आंखें खराब हुई तो कई को त्वचारोग हो गए।

हमारे देश में हर साल कोई दस हजार करोड़ रूपए के कृषि-उत्पाद खेत या भंडार-गृहों में कीट-कीड़ों के कारण नष्ट हो जाते हैं । इस बर्बादी से बचने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा हैं । जहां सन 1950 में इसकी खपत 2000 टन थी, आज कोई 90 हजार टन जहरीली दवाएं देश के पर्यावरण में घुल-मिल रही हैं । इसका कोई एक तिहाई हिस्सा विभिन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अंतर्गन छिड़का जा रहा हैं ।  सन 1960-61 में केवल 6.4 लाख हेक्टर खेत में कीटनाशकों का छिड़काव होता था। 1988-89 में यह रकबा बढ़ कर 80 लाख हो गया और आज इसके कोई डेढ़ करोड़ हेक्टर होने की संभावना है। ये कीटनाशक जाने-अनजाने में पानी, मिट्टी, हवा, जन-स्वास्थ्य और जैव विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। इनके अंधाधुंध इस्तेमाल से पारिस्थितक संतुलन बिगड़ रहा है, सो अनेक कीट व्याधियां फिर से सिर उठा रही हैं। कई कीटनाशियों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ गई है और वे दवाओं को हजम कर रहे हैं। इसका असर खाद्य श्रंखला पर पड़ रहा है और उनमें दवाओं व रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर पर आ गई है। एक बात और, इस्तेमाल की जा रही दवाईयों का महज 10 से 15 फीसदी ही असरकारक होता है, बकाया जहर मिट्टी, भूगर्भ जल, नदी-नालों का हिस्सा बन जाता है।


दिल्ली, मथुरा, आगरा जैसे शहरों में पेयजल सप्लाई का मुख्य स्त्रोत यमुना नदी के पानी में डीडीटी और बीएसजी की मात्रा जानलेवर स्तर पर पहुंच गई है। यहां उपलब्ध शाकाहारी और मांसाहारी दोनों किस्म की खाद्य सामग्री में इन कीटनााशकों की खासी मात्रा पाई गई है। औसत भारतीय के दैनिक भोजन में  लगभग 0.27 मिग्रा डीडीटी पाई जाती है। दिल्ली के नागरिकों के शरीर में यह मात्रा सबसे अधिक है। यहां उपलब्ध गेंहू में 1.6 से 17.4 भाग प्रति दस लाख, चावल में 0.8 से 16.4 भाग प्रति 10 लाख, मूंगफली में 3 से 19.1 भाग प्रति दस लाख मात्रा डीडीटी मौजूद हे।  महाराष्ट्र में बोतलबंद दूध के 70 नमूनों में डीडीटी और एल्ड्रिन की मात्रा 4.8 से 6.3 भाग प्रति दस लाख पाई गई है, जबकि  मान्य मात्रा महज 0.66 है। मुंबई में टंकी वाले दूध में तो एल्ड्रिन का हिस्सा 96 तक था।

पंजाब में कपास की फसल पर सफेद मक्खियों के लाइलाज हमले का मुख्य कारण रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाना पाया गया है। अब टमाटर को ही लें। इन दिनों अच्छी प्रजाति के ‘रूपाली’ और ‘रश्मि’ किस्म के टमाटरों का सर्वाधिक प्रचलन है। इन प्रजातियों को सर्वाधिक नुकसान हेल्योशिस आर्मिजरा नामक कीड़े से होता है। टमाटर में सुराख करने वाले इस कीड़े के कारण आधी फसल बेकार हो जाती है। इन कीडों का मारने के लिए बाजार में रोगर हाल्ट, सुपर किलर, रेपलीन और चैलेंजर नामक दवाएं मिलती हैं।  इन दवाओं पर दर्ज है कि इनका इस्तेमाल एक फसल पर चार-पांच बार से अधिक ना किया जाए। लेकिन यह वैज्ञानिक चेतावनी बहुत महीन अक्षरों में व अंग्रेजी में दर्ज होती है, जिसे पढ़ना व समझना किसान के बस से बाहर की बात है। लिहाजा लालच में आ कर किसान इस दवा की छिड़काव 25 से 30 बार कर देता है। शायद टमाटर पर कीड़े तो नहीं लगते हैं, लेकिन उसको खाने वाले इंसान का कई गंभीर बीमारियों की चपेट में आ जाता है।इन दवाओं से उपचारित लाल-लाल सुंदर टमाटरों को खाने से मस्तिष्क, पाचन अंगों, किडनी, छाती और स्नायु तंत्रों पर बुरा असर पड़ता है। इससे कैंसर होने की संभावना भी होती है।
कीटनाशकों पर छपी सूचनाओं का पालन ना होने की समस्या अकेले टमाटर की नहीं, बल्कि बेहद व्यापक है। इन दिनों बाजार में मिल रही चमचमाती भिंडी और बैंगन देखने में तो बेहद आकर्षक है, लेकिन खाने में उतनी ही कातिल! बैंगन को चमकदार बनाने के लिए उसे फोलिडज नामक रसायन में डुबोया जाता है। बैंगन में घोल को चूसने की अधिक क्षमता होती है,जिससे फोलिडज की बड़ी मात्रा बैंगन जज्ब कर लेते हैं। इसी प्रकार भिंडी को छेद करने वाले कीड़ों से बचाने के लिए एक जहरीली दवा का छिड़काव किया जाता हे। ऐसे कीटनाशकों से युक्त सबिज्यों का लगातार सेवन करने से सांस की नली बंद होने की प्रबल संभावना हाती है। इसी तरह गेंहू को कीड़ों से बचाने के लिए मेलाथियान पाउडर को मिलाया जाता है। इस पाउडर के जहर को गेंहू को धो कर भी दूर नहीं किया जा सकता है। यह रसायन मानव शरीर के लिए जहर की तरह है।
कीटनाशकों के कारण जैव विविधता को होने वाले नुकसान की भरपाई तो किसी भी तरह संभव नहीं हैं। गौरतलब है कि सभी कीट, कीड़े या कीटाणू नुकसानदायक नहीं होते हैं। लेकिन बगैर सोचे-समझे प्रयोग की जा रही दवाओं के कारण ‘पर्यावरण मित्र’ कीट-कीड़ों की कई प्रजातियां जड़मूल से नष्ट हो गई हैं । सनद रहे कि विदेशी पारिस्थितिकी के अनुकूल दवाईयों को भारत के खेतों के परिवेश के अनुरूप जांच का कोई प्रावधान नहीं है। विषैले और जनजीवन के लिए खतरा बने हजारेंा कीटनाशकों पर विकसित देशों ने अपने यहां तो पाबंदी लगा दी है, लेकिन अपने व्यावसायिक हित साधने के लिए इन्हें भारत में उड़ेलना जारी रखा है।


Why was the elephant not a companion?

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