My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 14 दिसंबर 2019

Total system needs to overhaul to face rape cases

यौन अपराध के निराकरण में सभी को बदलना होगा।

पंकज चतुर्वेदी


एक तरफ देश की अदालतों में मुकदमों के अंबार के आंकड़े, दूसरी तरफ निर्भया जैसे चर्चित मामले में निर्धारित न्यायिक प्रक्रिया में अटकी अपराधियों की फांसी की सजा और तीसरे तफ हैदराबाद में एक पशु चिकित्सक महिला के साथ दरिंदगी के आरोपियों के कथित पुलिस एनकाउंटर पर फूल बरसाता देश। इन सभी के बीच खड़े नारी की अस्मिता की अगिन परीक्षा के सवाल।  जब उन चार मुल्जिमों को पुलिस द्वारा मारे जाने की जय-जयकार हो रही थी, तभी अगले आठ घंटों में दिल्ली से ले कर तमिलनाडु तक छोटी बच्चियों के बलात्कार की कई घटनाएं सामने आ रही थीं। यह जान लें कि आम भारतीय भावना-प्रधान है और वह क्षणिक खुशी और दुख दोनों को अभिव्यक्त करने में दिमाग नहीं दिल पर भरोसा करता है। हैदराबाद वाले प्रकरण को ही लें, मारे गए चारों को क्या बलात्कार या जला कर मारने की सजा मिल गई? असल में उन्हें तो पुलिस अथिरक्षा से भागने व पुलिस के हथियार छीनने के अपराध में मारा गया। फिर न्याय होता कहां दिखा ? इस मामले में देश में बड़े वर्ग द्वारा ख्ुाशी का इजहार करने से यह तो जाहिर है कि अब समय आ गया है कि यौन अपराधों के मामले में समाज अपना नजरिया, पुलिस अपनी जांच प्रक्रिया और अदालत अपनी सुनवाई की गति में बदलाव लाएं, वरना आम लोगों में ‘‘भीड़ के न्याय’’ की भावना प्रबल हो सकती है।

 यौन षोशण के अधिकांश मामलो में पुलिस की लचर जांच या रिपोट में ही लापरवाही होती है। हैदराबाद वाले मामले में मृतका के परिवार ने जब पुलिस से संपर्क किया तो ‘यह मेरे इलाके का मामला नहीं है’, तुम्हारी लड़की किसी दोस्त के साथ चली गई होगी’ जैसी बातें कही गई । रात साढे ग्यारह बजे तक वह लड़की जीवित थी, लेकिन तब तक अर्थात सूचना देने के चार घंटे बाद तक पुलिस थाने से ही नहीं निकली। दिनांक 7 दिसंबर 19 को उन्नाव में जला कर मार दी गई लड़की के मसले में भी मृतका द्वारा बीते साल मार्च में दर्ज बलात्कार की रिपोर्ट के अधिकांश नामजद गिरफ्तार ही नहीं हुए। फिर मुख्य आरोपी को अभी 03 दिसंबर को ही जमानत भी मिल गई लेकिन पुलिस ने उस पर कोई निगाह रखने की सोची भी नहीं। बाहर आने के तीन दिन बाद ही आरोपियों ने उस पर पेट्रोल डाल कर आग लगा दी। इससे पहले उन्नाव में ही एक नाबालिग से बालात्कार व उसके पिता की हत्या वाले मामलेे में पुलिस ने एक महीना तो मामला ही दर्ज नहीं किया। फिर गिरफ्तारी भी बड़े दवाब के बाद हुई वही मामला बनगी है कि पुलिस ने 11 जून 2017 को आरेाप पत्र दाखिल कर दिया, लेकिन अभी तक गवाही तक भी मामाला नहीं पहुचा। यह फरियादा पक्ष को अदालतों में चक्कर लगवा कर थका कर हताश कर देने की वह साजिश है जो देश के हर अदालत में रसूखदार लोग पुलिस, सरकारी वकील, अदालती कर्मचारियों के साथ मिल कर खेलते हैं।

यह सभी स्वीकार करेंगे कि हमारी अदालतों में लदे मुकदमों की तुलना में न्यायिक मूलभूत सुविधांए बेहद कम है। फिर हमारी प्रक्रिया भी बेहद मंथर गति की है। हाल ही में कई एक ऐसे मामले सामने आए जब जिला अदालतों ने पचास दिन से कम में यौन षोशण के मुकदमों में सजा सुना दी। इससे जाहिर है कि न्यायिक अधिकारी यदि चाहे तो ऐसे संवेदनशील मामलों में त्वरित न्याय हो सकता है।
हाल ही में माननीय राश्ट्रपति जी ने बलात्कार के मामलों में न्यायिक सुधार पर एक सुझाव तो दे ही दिया। नाबालिग बच्चों के साथ यौन षोशण के पास्को एक्ट-2012 के तहत दर्ज मुकदमों में अपील को समाप्त किया जाए। बलात्कार के बाद हत्या के मामलों में सत्र न्यायालय से मौत की सजा होने के बाद केवल उच्च न्यायालय से ही उसकी सहमति लेने का संशोध्न भी आना चाहिए। अभी जिला अदालत की सजा के बाद उच्च न्यायालय, फिर उच्चतम न्यायालय और उसके बाद राश्ट्रपति से दया याचिका का प्रावधान है। इस तरह हमारे सामने है कि दिल्ली के निर्भया कांड में भले ही  सत्र न्यायालय का फैसल त्वरित आ गया, लेकिन उसके बाद चांस साल से सजा का क्रियान्वयन नहीं हो पाया।  भारतीय दंड संहिता में यह बदलाव भी करना कोई कठिन नहीं है जिसमें बलात्कार जैसे अपराधों की जांच 15 दिन में, आरोप पत्र 21 दिन में और लगातार तीन या उससे अधिक घंटे सुनवाई कर 30 दिन में फैसले का प्रावधान हो। इसके लिए रिटायर्ड जिला-सत्र न्यायाधीशों की विश्ेाश अदालत नियमित अदालत के बाद अर्थात षाम को पांच बजे से भी लगाई जा सकती हैं। ऐसे में एक तो न्याय में देर नहीं होगी, दूसरा मुल्जिम के जमानत मांगने और बाहर निकल कर तथ्यों से छोड़छाड़ की संभावना भी समाप्त हो जाएगी।

इस तरह के मामलों में पुलिस की जांच में कड़ाई भी अनिवार्य है। एक तो सूचना मिलने पर देर से कार्यवाही करने, रिपोर्ट न लिखने, महिला फरियादा से अभद्र व्यवहार करने , तथ्यों से छेड़छाड़ करने, गवाही ठीक से न दर्ज करने के आरेप झेल रहे पुलिस वालों को सस्पेंड करने के बनिस्पत उसी मामले में सहअभियुक्त, धारा 120 बी के तहत बनाना चहिए। क्यों कि किसी भी प्रकरण की जांच को प्रभावित करना कानूनी भाशा में अभियाुक्त का अपराध करने में साथ देना ही होता है। इसी तरह फरियादी या मुल्जिम की मेडिकल जांच, उसकी रिपेार्ट को ठीक से संरक्षित या पेश ना करने को भी अपराध का ही हिस्सा माना जाए। हैदराबाद वाले मामलें में लड़की की मौत का कोई जिम्मेदार है तो वह पुलिस है जिसने सूचना मिलते ही तत्काल कार्यवाही नहीं की।
ऐसा नहीं कि यौन आचरण के अराजक होने के निशेध में महज पुलिस या अदालतंे ही खुद को बदलें, बदलना तो समाज को सबसे पहले पड़ेगा। यादकरें निर्भया कांड के बाद गठित जेसी वर्मा आयोग की रिपेार्ट में सुझाव था कि बलात्कार जैसे मामलों में आरोपी विधायक/सांसद को मुकदमा निबटने तक खुद ब खुद इस्तीफा दे देना चाहिए, लेकिन ऐसा हुआ नही। हर हाथ में स्मार्ट फोन, सस्ता डेटा व वीडियो बनाने की तकनीक ने दूरस्थ गांवां तक सामूहिक बलात्कार व यौन षोशण को बढ़ावा दिया है। सोशल मीडिया पर आए रोज ऐसे सैंकड़ेा वीडियो लोड होते हैं जिसमें किसी अंजान आंचलिक गांव में अपने प्रेमी के साथ मिल गई लड़की के साथ लंपट लउ़कांे द्वारा जबरिया कुकर्म करने या ऐसे वीडियों दिखा कर बदनाम करने की धमकी दे कर अपनने ठिकाने पर बुलाने या उससे पैसा वसूलने के दृश्य होते हैं। अधिकांश वीडियो में कम उम्र, निम्न आय वर्ग और अल्प शिक्षित युवक दिखते हैं। इस तरह के दृश्य रिकार्ड करने, उन्हें प्रेशित या साझा करने, ऐसे मामलों में पुलिस को स्वयं कार्यवाही करने व इसे गंभीर अपराध मानने पर एक कड़े कानून की भी जरूरत है।
इस मामले में सरकारी योजनाओं की अनदेखी किस तरह होती है इसके लिए सन 2012 में स्थापित निर्भया फंड के आंकड़े गौर करें। महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा के अलावा दमन और दीव सरकारों ने केंद्र द्वारा दिए निर्भया फंड से एक भी पैसा खर्च नहीं किया, वहीं उत्तर प्रदेश ने 119 करोड़ रुपये में से केवल सत करोड़ रुपये खर्च किए. तेलंगाना ने 103 करोड़ रुपये में से केवल चार करोड़ खर्च किए. आंध्र प्रदेश ने 21 करोड़ में 12 करोड़ बचाए तो बिहार ने 22 करोड़ में से 16 करोड़ बचा लिए। दिल्ली सरकार जो इस कांड के बल में सत्ता में आई, उनको दिए गए पचास लाख में से एक भी छदाम व्यय नहीं हुआ। यह जानकारी अभी 29 नवंबर 19 को संसद में दी गई है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How National Book Trust Become Narendra Book Trust

  नेशनल बुक ट्रस्ट , नेहरू और नफरत पंकज चतुर्वेदी नवजीवन 23 मार्च  देश की आजादी को दस साल ही हुए थे और उस समय देश के नीति निर्माताओं को ...