My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

China's nefarious intentions in Northeast India

 पूर्वोत्तर भारत में चीन के नापाक  इरादे

 

पंकज चतुर्वेदी

भारत के आठ पूर्वोत्त


र राज्यों की नब्बे प्रतिशत सीमा तिब्बत, म्यांमार, भूटान और बांग्लादेश को छूती हैं इस तरह यह बेहद संवेदनशील इलाका है , हालाँकि सन 2014 की तुलना में यहाँ आज आतंकी घटनाओं में अस्सी फीसदी की कमी आई है , नागरिकों की हत्या की घटनाएँ 99 प्रतिशत कम हुईं , साथ ही सुरक्षा बालों की शहादत में भी 75 प्रतिशत की कमी आई है . इसके बावजूद यह बात  चिंतनीय है कि अस्थिर म्यांमार के रास्ते चीन अलगाववादियों को फिर से हवा-पानी दे रहा है , बांग्लादेश के रास्ते  पाकिस्तान तो इधर पहले से ही गड़बड़ियां करता रहा है . अरुणाचल प्रदेश को ले कर चीन समय समय पर घुसपैठ और बयानबाजी करता रहा है  और अब वह इस इलालाके में अस्थिरता के लिए छोटे आतंकी गुटों को शह दे रहा है |

 

 

बीते कुछ सालों में पृथकतावादी संगठनों पर बढे दवाब और उनके साथ हुए समझोतों ने माहौल को शांत बनाया है .23 फरवरी 2021 को  किया गया कार्बी आंगलान  समझोता, 10-8-19 का एन एल ऍफ़ टी त्रिपुरा समझौता  , 27-1-2020 के बोडो समझोते से माहोल बदला है, बीते दो सालों में 3922 आतंकियों ने आत्म समर्पण किया. हालाँकि हमारी सेना ने म्यांमार में घुस कर आतंकियों के अड्डे नष्ट किये लेकिन बीते दो सालों में उग्रवादियों ने भी सेना पर कुछ बड़े हमले किये हैं   लेकिन यह भी सच है कि  म्यांमार में  सैनिक शासन के बाद चीन व म्यांमार सीमा क्षेत्रों में विद्रोही फिर संगठित हो रहे हैं . म्यांमार को यह नागवार गुजरा है कि उसके देश के कोई बीस हज़ार राजनितिक कार्यकर्ता और सेना विरोधी कर्मचारियों को भारत ने एक साल से सुरक्षित पनाह दे रखी है . देश के पूर्वोत्तर में आतंकी हमले बढ़ा रहे हैं।



असम राइफल्स के पूर्व आईजी मेजर जनरल भबानी एस दास के अनुसार कई पूर्वोत्तर के कई अलगाववादी नेता अपना ठिकाना चीन में बनाये हैं, जिनमें  यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (आई), पीपल्स लिबरेशन आर्मी ऑफ मणिपुर और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (के) से टूटे धड़े के विद्रोही शामिल हैं। बीएसएफ के रिटायर्ड एडीजी संजीव कृष्ण सूद के अनुसार बेशक चीन की भूमिका को अनदेखा नहीं कर सकते, लेकिन शांति वार्ता में अनसुलझे मुद्दों की भी वजह से भी नगा समूह भड़के हुए हैं। मॉरीशस के पूर्व एनएसए रहे आईपीएस शांतनु मुखर्जी के अनुसार उल्फा (आई) नेता परेश बरुआ, चीन में अवैध हथियारों की मंडी के रूप में कुख्यात कुन्मिंग राज्य में छिपा है । पहले वह म्यांमार सीमा के निकट चीनी शहर रुइल में छिपा था। कुन्मिंग है।


यह किसी से छुपा नहीं है कि नगा विद्रोह के बाद अलगाववादियों को 70 के दशक में  चीन में ही प्रशिक्षण और हथियार मिलते थे। कई जनजातीय विद्रोही उत्तरी म्यांमार के क्षेत्रों को माओ के मॉडल पर ग्रेटर नागालिम में शामिल करने के लिए हथियार उठाए हुए हैं। घने जंगलों की वजह से भारत और म्यांमार में आना-जाना मुश्किल नहीं है।

याद करना होगा कि सन  1975 में भारत सरकार और नगा नेशनल काउंसिल के बीच शिलॉन्ग समझौते का एसएस खापलांग और थिंगालेंग शिवा जैसे नेताओं ने विरोध किया था, जो तब चाइना रिटर्न गैंगकहलाते थे। 1980 में खापलांग और मुइवा ने मिलकर नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (एनएससीएन) का गठन किया था। आठ साल बाद 1988 में इसाक मुइवा ने चिशी स्वू के साथ एनएससीएन (आई-एम) गुट का गठन किया, जबकि खापलांग ने अपने गुट को एनएससीएन (के) नाम दिया। ये सभी गिरोह अपने परिवार के साथ चीन में आलिशान जिंदगी जी रहे हैं और युवाओं को अलग राज्य का झांसा दे कर म्यांमार में उनकी ट्रेनिंग  करवाते रहते हैं |


चीन मदद के लिए म्यांमार के यूनाइटेड वा स्टेट आर्मी और अराकान आर्मी जैसे सशस्त्र समूहों का सहारा लेता है वैसे ये संगठन बीते साल आतंकवादी संगठन घोषित किये गये हैं । सुरक्षा एजेंसियों की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के सबसे वांछित विद्रोही नेताओं में से कम से कम चार ट्रेनिंग और हथियारों के लिए पिछले साल मध्य अक्तूबर में चीनी शहर कुनमिंग में गए थे। ये भी सूचना है कि भारत-म्यांमार सीमा से सटे क्षेत्र में अलग मातृभूमि के लिए लड़ने वाले तीन जातीय नगा विद्रोहियों ने सेवानिवृत्त व वर्तमान चीनी सैन्य अधिकारियों के साथ-साथ कुछ अन्य बिचौलियों से मुलाकात की थी।



असम में उल्फा, एनडीबीएफ, केएलएनएलएफ और यूपीएसडी के लड़ाकों का बोलबाला है। नगालैंड में पिछले एक दशक  के दौरान अलग देश  की मांग के नाम पर डेढ हजार लोग मारे जा चुके हैं। वहां एनएससीएन के दो घटक - आईएम और खपलांग बाकायदा सरकार के साथ युद्ध विराम की घोषणा  कर जनता से चौथ वसूलते हैं। इनके आका विदेश में रह कर भारत सरकार के आला नेताओं से संपर्क में रहते हैं और इनके गुर्गों को अत्याधुनिक प्रतिबंधित हथियार ले कर सरेआम घूमने की छूट होती है। बांग्लादेश  की सीमा से सटे त्रिपुरा में एनएलएफटी और एटीटीएफ नामक दो संगठनों की तूती बोलती है। इन दोनों संगठनों के मुख्यालय, ट्रैनिंग कैंप और छिपने के ठिकाने बांग्लादेश  में हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन संगठनों को उकसाने व मदद करने का काम हुजी व हरकत उल अंसार जैसे संगठन करते हैं।

छोटे राज्य मणिपुर में स्थानीय प्रशासन बहुत कुछ  पीएलए, यूएनएलएफ और पीआरईपीएके जैसे संगठनों का गुलाम हैं। यहां सरकारी कर्मचारियों को अपने वेतन का एक हिस्सा आतंकवादियों को देना ही होता है। बाहरी लोगों की यहां खैर नहीं है।  केवाईकेएल यानि कांग्लेई यावोल कन्न ललुप संगठन भी राज्य के पहाड़ी इलाकों में सक्रिय है। बीते दस सालों के दौरान यहां पांच हजार से ज्यादा लोग अलगाववाद के शिकार हो चुके हैं। यहां सबसे ज्यादा ताकतवर संगठन यूनाईटेड नेशनलिस्ट लिबरेशन फ्रंट है जिसके पास 1500 लोग हैं। दूसरे सबसे खतरनाक संगठन पीपुल लिबरेशन आर्मी में 400 करीबन लड़के हैं | मेघालय में एएनयूसी और एचएनएलएल नामक संगठन अलगाववाद के झंडाबरदार हैं, वहीं मिजोरम में एनपीसी और बीएनएलएफ राष्ट्र  की मुख्य धारा  से अलग हैं। असम में छोटे-बड़े 36 आतंकवादी संगठनों का अस्तित्व सरकारी रिकार्ड स्वीकार करता है। मणिपुर में 39, मेघालय में पांच, मिजोरम में दो, नगालैंड में तीन, त्रिपुरा में 30 और अरूणाचल प्रदेश  में महज एक अलगवावादी संगठन है। इनमें से अधिकांश को पाकिस्तान से बांग्लादेश  में बने बेस कैंप से खाद-पानी मिलता है, और उसका भार उठाता है चीन |

जिस तरह से उत्तर-पूर्वी राज्यों के उग्रवादी अत्याधुनिक हथियारों तथा उसके लिए जरूरी गोला-बारूद  से लैस रहते हैं इससे यह तो साफ है कि कोई तो है जो दक्षिण-पूर्व एशिया में अवैध संवेदनशील हथियारों की खपत बनाए रखे हुए है। बंदूक के बल पर लोकतंत्र को गुलाम बनाने वालों को हथियार की सप्लाई म्यांमार, थाईलैंड, भूटान, बांग्लादेश से हो रही है। मणिपुर, जहां सबसे ज्यादा उग्रवाद है, नशे  की लत से बेहाल और उससे उपजे एड्स के लिए देश का सबसे खतरनाक राज्य कहा जाता है। कहना गलत ना होगा कि यहां नारकोटिक्स व्यापर के बदले हथियार की खेप पर कड़ी नजर रखना जरूरी है।

 

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

Nambul River needs to be free from polythene garbage

पॉलीथीन कचरे से नाबदान बनी नांबुल नदी

पंकज चतुर्वेदी


एक जुलाई
2022 से पूरे देष में प्लास्टिक के इस्तेमाल  पर पाबंदी के नए आदेष से इंफाल की एक नदी की जान में जान आई है। पिछला लोकसभा चुनाव हो या वर्तमान में  विधान सभा चुनाव, हर बार हर राजनीतिक दल बेशुमार  कचरे के कारण मौत के कगार पर खड़ी एक नदी के संरक्षण का मसला जरूर उठाता है लेकिन जमीन पर कभी कुछ होता दिखा नहीं। मणिपुर की राजधानी इंफाल के ख्वाईरंबंद इलाके का ईमा कैथेल अर्थात  माँ का बाजारदुनिया में अनूठा व्यावसायिक स्थल है जहां केवल महिलाएं ही दुकानें चलाती हैं। सन 1533 में बने इस बाजार में लगभग पांच हजार महिलाओं का व्यवसाय है। बीते दो दषक के दौरान जिस वस्तु ने खरीद-फरोख्त करने वालों को सामान ले जाने के लिए सबसे सहूलियत दी, वही आज इस बाजार और इससे सटी नांबुल नदी के अस्तित्व पर संकट का कारण बन रही है। इस बाजार में आने वाली फल-सब्जी का उत्पादन इस नदी के जल से होता है। नदी के जल की सहज धारा कभी यहां के परिवेश  मुग्ध करती थी। आज ईमा कैथल के करीब से गुजरती नदी में जल के स्थान पर केवल पॉलीथीन, पानी की बोतलें व अन्य प्लास्टिक पैकिंग सामग्री का अंबार दिखता है। जान लें कि यह नदी आगे चल कर विष्व के एक मात्र तैरते नेशनल  पार्क व गांवों के लिए प्रसिद्ध लोकटक झील में मिलती है और जाहिर है कि नदी के जहर का कुप्रभाव लोकटक पर भी पड़ रहा है। गनीमत है कि स्थानीय लोग प्रत्येक उम्मीदवार से नदी को प्रदुषण  मुक्त करने व कचरे के निबटारे के बारे में सवाल कर रहे हैं। खासतौर पर बाजार संचालित करने वाली महिलओं ने इसे अपने अस्तित्व का सवाल मान लिया है।

समुद्र तट से कोई 1830 मीटर ऊंचाई पर स्थित कांगचुप पर्वतमाला से उद्गमित नांबुल नदी इंफाल -पष्चिम, सेनापति और तेमलांग जिलों से होती हुई लोकटक में विसर्जित होती है। इसमें अलग-अलग तीस सरिताएं मिलती हैं जो इस नदी को मणिपुर की जीवनरेखा और सदानीरा बनाए रखती हैं। उल्लेखनीय है कि मणिपुर में 15 बड़ी नदियां हैं जिनका जल-क्षेत्रफल 166.77 वर्गकिलोमीटर है। इसके बावजूद पिछले कुछ सालों में मणिपुर में जल संकट गहराता जा रहा है। गर्मी आने से पहले ही नदियां सूख जाती हैं। इसमें कोई षक नहीं कि नदियों की संघनता वाले प्रदेष में पानी के टोटे का मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन का विस्तार पाता भयावह असर है, लेकिन यह भी तय है कि मानवोचित पर्यावरणीय छेड़छाड़ ने इस संकट को और अधिक असहनीय बना दिया है। 

वर्ष 2019 में नांबुल नदी के कायाकल्प और संरक्षण के शुभारंभ ने नदी के प्रदूषण स्तर को कुछ हद तक कम करने में मदद की है लेकिन आज भी इसका नाम देश  की सबसे दूषित  नदियों में दर्ज है।  विदित हो सीपीसीबी ने पांच अलग-अलग प्राथमिकता के आधार पर भारत की 351 नदियों को अत्यधिक प्रदूषित के रूप में पहचाना था, जिसमें मणिपुर की नौ नदियों को सूचीबद्ध किया गया था, उनमें नांबुल एक है।  दुर्भाग्य है कि अभी इसमें 72 नालों को मिलने तथा शहर  के बीच उड़ने वाली पोलीथीन से मुक्त नहीं किया जा सका है।

अकेले इंफाल शहर  के 27 वार्डों से हर दिन 120 से 130 टन कूड़ा निकलता है और इसके निबटारे की कोई माकूल व्यवस्था है नहीं। या तो इस कूड़े को शहर  के बाहरी पहाड़ी स्थलों में फैंक दिया जाता है या फिर शहर  के बीच से गुजरती नांबुल नदी में इसे डाल दिया जाता है।  लगातार कूड़ा फैकने से जब शहर  में नदी ढंक गई तो स्थानीय प्रशासन  ने सन 2018 में  पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत शहर  में 50 माईक्रॉन से कम मोटाई की पॉलीथीन पर पांबदी लगा दी। इस कानून को तोड़ने पर एक लाख रूपए जुर्माना या पांच साल की सजा या देनो सजा का प्रावधान है। पाबंदी का असर ईमा कैथल पर भी पड़ा। कई दुकानदार पहले इसे स्वीकारने को तैयार नहीं थे, जबकि कई को षिकायत थी कि वे इस नियम को मान कर पॉलीथीन का प्रयोग बंद भी कर दें लेकिन बाहर के लोग मानते नहीं। इस बार कें चुनाव में पॉलीथीन पर सख्ती से पाबंदी, नदी की सफाई और शहर  से निकलने वाले कूड़े के वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण जैसे मसले सबसे आगे हैं। बाजार चलाने वाली महिलाएं इस पर सबसे ज्यादा मुखर हैं और हर राजनीतिक दल इसके निराकरण के वायदे अपने घोषण पत्र में कर रहा है। एक स्थानीय सर्वेक्षण से पता चला है कि इंफाल शहर  में साल दर साल सांस के रेगियों की संख्या बढ़ रही है और इसके मूल में भी प्लास्टिक कचरा ही है। कचरे के निबटान की प्रणाली के अभाव में लोग इस कूड़े को खुले में जला रहे है। और इससे छोटी उम्र में ही बच्चों को सांस की बीमारियां हो रही हैं।

यह बात अभी सभी को खटक रही है कि इंफाल शहर  में पेयजल के मुख्य स्त्रोत नांबुल नदी 10 किलोमीटर के अपने रास्ते में नदी के रूप में दिखना ही बंद हो गई है। ख्वारेमबंड बाजार के हंप पुलिया से कैथमथोय ब्रिज के पूरे हिस्से में नदी महज कूड़ा ढोने का मार्ग मात्र है। जैसे ही यह पानी लोकटक में मिलता है तो उसे भी दूशित कर देता है। मणिपुर की राजधानी इंफाल से 20 किलोमीटर दूर दक्षिण-पष्चिम दिषा में विश्णुपुर जिले में स्थित देष की सबसे विषाल मीठे पानी की झाल अभी कुछ साल पहले तक 223,000 हैक्टर में विस्तारित थी जो सिकुड़ कर 26 हजार हैक्टर पर पहुंच गई है।  आज भी इसकी अधिकतम लंबाई 26 किलोमीटर , चौड़ाई 13 किलोमीटर व गहराई 4.58 मीटर तक है। इसका जल ग्रहण क्षेत्रा 98 हजार हैक्टर और पानी का कुल आयतन 5980.36 लाख घनमीटर है। इस झील में 12 द्वीप है, जिनमें से चार पर आबादी है। इसके दक्षिण में दुनिया का एकमात्र ‘‘तैरता हुआ संरक्षित वन’’-केईबुल लामजाओ नेषनल पार्क’’ भी है।  यहां देषज, दुर्लभ और संकटापन्न संगईहिरणों का डेरा है। जैवविविधता की दृश्टि से इतने संवेदनषील व अनूठे लोकटक के पर्यावरणीय तंत्र के लिए नांबुल अब खतरा बन गई है।

नांबुल के प्रदुषण  से इसके पानी के कारण खेती करने वाले और मछली का काम करने वाले कई सौ लोगों के जीवकोपार्जन पर भी खतरा उत्पन्न हो गया है। मछलियों की कई प्रजातियां जैसे -  नगनक, नगसेप, नगमु-संगुम, नगटोन, खबक, पेंगवा, थराक, नगारा, नगतिन, आदि विलुप्त हो गई है।  ये मछलियां पूर्व में म्यांमार के चिंडविन-इरावदी नदी तंत्रसे पलायन कर मणिपुर घाटी की सरिताओं में प्रजनन किया करती थीं। नदी में प्लास्टिक प्रदुषण  का जाल बिछ जाने के कारण उन मछलियों के  आवागमन का प्राकृतिक रास्ता ही बंद हो गया। यही नहीं इसके चलते नदी किनारे में पैदा होने वाली कई साग-सब्जियों -  हैकाक,थांगजींग, थारो, थांबल, लोकेई, पुलई आदि का उगना रूक गया। खेतों में फूलगोभी व बंद गोभी की फसल भी प्रभावित हुई है।

आज मणिपुर की नदियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं और जागरूक लोग इसे मतदान के दवाब ने बचाने का प्रयास कर देष के सामने सकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

 

 

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

MLA of less than forth electorate

 20 फीसदी का विधायक 

पंकज चतुर्वेदी




ख्ूब विज्ञापन हुए , अपील हुई लेकिन यहां पहले चरण के मतदान में वोट  पड़े मात्र 45.22 प्रतिषत वोट पड़े । दिल्ली से ठीक सटे व उप्र के सबसे बड़े विधानसभा सीट पर ही उसका असर दिखा नहीं। दिल्ली से सटे हुए गाजियाबाद जिले की साहिबाबाद सीट में प्रदेष  के सर्वाधिक मतदाता हैं - 10 लख बीस हजार 386 । यहां के निवासी अधिकांष दिल्ली में नौकरी करते हैं, बहुत से इलाके  ऊंचे बहुमंजिली अपार्टमेट्स वाले हैं। इस सीट पर  चार प्रमुख राजनीतिक दलों - भाजपा, सपा गठबंधन, कांग्रेस व बसपा ने उम्मीदवार खउ़े किए हैं। यदि पिछले तीन चुनावों के आंकड़े देखें तो यहां इन ंदलों को  कम से कम दस फीसदी वोट मिले ही हैं। अंदाजा है कि विजेता को कुल मतदान का अधिकतम तीस फीसदी वोट ही मिले। यदि सभी प्रमुख दलों को वोट बंटा तो यानी साढे चार लाख का भी 40 प्रतिषत, कोई दो लाख वोट। दस लाख से अधिक मतदाता वाली सीट पर महज बीस फीसदी वोट पाने वाला यहां का जन प्रतिनिधि होगा।  यह किस तरह के बहुमत की कल्पना है और क्या बहुसंख्यक आबादी की अपेक्षाओं- आकांक्षाओं को पूरा करने वाला जन प्रतिनिधि होगा? यह हालात तब है जब इस बार नौकरी करने वाले, बुर्जुग व  विकलांग के वोट पोस्टल द्वारा पड़ रहे हैं जोकि हजारों में हैं।  साहिंबाबाद तो बानगी हैं दूसरे व तीसरे चरण के मतदान तक यूपी के कई जिलों में यह हालत देखने को मिल रहे हैं।  कहीं भी औसतन साठ फीसदी से ज्यादा वोट नहीं हैं। 




समझ नही कि यह जनता की निराषा थी,  लापरवाही थी या और कुछ। अभी पिछले साल अप्रैल में उ.प्र में ही पंचायत चुनाव हुए तो उसमें गाजियाबाद जिले में ही कई जगह नब्बे फीसदी तक वोट पड़े। गांव-गांव में दिन-रात प्रचार व चुनाव चर्चा होती रही। वहीं गाजियाबाद में विधायक  जैसे महत्वपूर्ण चुनाव की चर्चा जिला मुख्यालय से 10 किलोमीटर दूर वाली कालोनियां तक में नहीं थी। ठीक यही हालात गाजियाबाद षहर, नोएडा आदि षहरीय इलाकांं में रहे। ना कोई सभा, ना प्रचार, ना पर्चे ना झंडे। स्वतंत्र और निश्पक्ष चुनावों के लिए पिछले कुछ सालों में चुनावी प्रक्रिया में महत्वपूर्ण बदलाव भी हुए, लेकिन सबसे अहम सवाल यथावत खड़ा है कि क्या हमारी सरकार वास्तव में जनता के बहुमत की सरकार होती है ? यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांत पर व्यंग्य ही है कि देष की सरकारें आमतौर पर कुल आबादी के 14-15 फीसदी लोगों के समर्थन की ही होती है । 



यह विचारणीय है कि क्या वोट ना डालने वाले 80 फीसदी से ज्यादा लोगों की निगाह में चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवार या मौजूदा चुनाव व्यवस्था नालायक थी ? जिन परिणामों को राजनैतिक दल जनमत की आवाज कहते रहे हैं, ईमानदारी से आकलन करें तो यह सियासती - सिस्टम के खिलाफ अविष्वास मत था । सुप्रीम कोर्ट के आदेष ‘‘कोई पसंद नहीं’’ पर खुष होने वाले पता नहीं क्यों इतने खुष हैं, हमारे सामने चुनौती लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने की है ना कि उन्हें नकारने की। 

जब कभी मतदान कम होने की बात होती है तो प्रषासन व राजनैतिक दल अधिक गरमी या सर्दी होने, छुट्टी ना होने जैसे कारण गिनाने लगते हैं । 

विडंबना है कि आंकड़ों की बाजीगरी में पारंगत सभी राजननैतिक दल इस साधारण से अंक गणित को ना समझ पाने का बहाना करते हैं ।  लोकतंत्र अर्थात बहुमत की सरकार की हकीकत ये आंकड़े सरेआम उजागर कर देते हैं । लोकतंत्र की मूल आत्मा को बचाने के लिए अधिक से अधिक लोगों को मतदान केंद्र तक पहुचाना जरूरी है । वैसे ईवीएस के इस्तेमालों से वोटों के इस नुकसान की तो कोई संभावना रह नहीं जाती लेकिन नोटा का इस्तेमाल असल में वोट खराब करना ही होता है। 


मूल सवाल यह है कि आखिर इतने सारे लोग वोट क्यों नहीं डालते हैं ? साहिबाबाद या नोएडा में कोषांबी, वसुंधरा, बृजविहार इंदिरापुरम जैसी गगनचुंबी, पढ़े-लिखों की कालोनी में 10 से 12 फीसदी वोट ही गिरे। 

मतदान कम होने का एक कारण देष के बहुत से इलाकों में बड़ी संख्या में महिलाओं का घर से ना निकलना भी है । महिलाओं के लिए निर्वाचन में आरक्षण की मांग कर रहे संगठन महिलाओं का मतदान बढ़ाने के तरीकों पर ना तो बात करते हैं, और ना ही प्रयास । इसके अलावा जेल में बेद विचाराधीन कैदियों और अस्पताल में भर्ती मरीजों व उनकी देखभाल में लगे लोगों ,  किन्हीं कारणो से सफर कर रहे लोग, सुरक्षा कर्मियों व सीमा पर तैनात जवानेां के लिए मतदान की माकूल व्यवस्था नहीं है । हमारे देष की डाक से मतदान की प्रक्रिया इतनी गूढ़ है कि नाम मात्र के लेग ही इसका लाभ उठा पाते हैं । इस तरह लगभग 20 फीसदी मतदाता तो  चाह कर भी मतोत्सव में भागीदारी से वंचित हो जाते हैं । कुछ सालों पहले चुनाव आयोग ने सभी राजनैतिक दलों के साथ एक बैठक में प्रतिपत्र मतदान का प्रस्ताव रखा था । इस प्रक्रिया में मतदाता अपने किसी प्रतिनिधि को मतदान के लिए अधिकृत कर सकता है । इस व्यवस्था के लिए जन प्रतिनिधि अधिनियम 1951 और भारतीय दंड संहिता में संषोधन करना जरूरी है । संसद में बहस का आष्वासन दे कर उक्त अहमं मसले को टाल दिया गया । गुजरात में स्थानीय निकायों के निर्वाचन में अनिवार्य मतदान की कानून लाने का प्रयास किया गया था लेकिन वह सफल नहीं हुआ। यहां जानना जरूरी है कि दुनिया के कई देषों में मतदान अनिवार्य है। आस्ट्रेलिया सहित कोई 19 मुल्कां में वोट ना डालना दंडनीय अपराध है। क्यों नाह मारे यहां भी बगैर कारण के वोट ना डालने वालों के कुछ नागरिक अधिकार सीमित करने या उन्हें कुछ सरकारी सुविधाओं से वंचित रखने के प्रयोग किये जाएं। 


आज चुनाव से बहुत पहले बड़े-बड़े रणनीतिकार  मतदाता सूची का विष्लेशण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यह चुनाव लूटने के हथकंडे इस लिए कारगर हैं, क्योंकि हमारे यहां चाहे एक वोट से जीतो या पांच लाख वोट से , दोनों के ही सदन में अधिकार बराबर होते है। यदि राश्ट्रपति चुनावों की तरह किसी संसदीय क्षेत्र के कुल वोट और उसमें से प्राप्त मतों के आधार पर सांसदों की हैंसियत, सुविधा आदि तय कर दी जाए तो नेता पूरे क्षेत्र के वोट पाने के लिए प्रतिबद्ध होंगे, ना कि केवल गूजर, मुसलमान या ब्राहण वोट के।  केबिनेट मंत्री बनने के लिए या संसद में आवाज उठाने या फिर सुविधाओं को ले कर निर्वाचित प्रतिनिधियों का उनको मिले कुछ वोटो का वर्गीकरण माननीयों को ना केवल संजीदा बनाएगा, वरन उन्हें अधिक से अधिक मतदान भी जुटाने को मजबूर करेगा। 

इस समय देष के कलाकार, लेखक, औद्योगिक घराने, मीडिया, सभी अपने-अपने खेमों में सक्रिय हो कर एक दल-विषेश को सत्ता की कुंजी सौंपने के येन-केन-प्रकारेण उपाय कर रहे हें । ऐसे में बुद्धिजीवियों की एक जमात कां आगे आ कर मतदात- प्रतिषत बढ़ाने के लिए जागरूकता अभियान की बागडोर संभालनी चाहिए । इस कार्य में अखबारों व इलेक्ट्रानिक् मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं । राजनैतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि मतदान अधिक हो, क्योंकि इसमें उनके सीमित वोट-बैंक के अल्पमत होने का खतरा बढ़ जाता है । हमारा संसदीय लोकतंत्र भी एक ऐसे अपेक्षाकृत आदर्ष चुनाव प्रणाली की बाट जोह रहा हैं , जिसमें कम से कम मतदान तो ठीक तरीके  से होना सुनिष्चित हो सके ।


 


बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

refugee problem in north east due to myanmar conflict

 गहरा रहा है पूर्वोत्तर में म्यांमार शरणार्थियों का संकट

पंकज चतुर्वेदी


म्यांमार में सैनिक शासन को एक साल हो गए हैं  और इसके साथ ही वहां से आये  हज़ारो शरणार्थियों को ले कर  दिक्कतें बढती जा रही  हैं. याद करें पिछले साल जब म्यांमार में सेना ने सत्ता पर कब्जा किया था और हज़ारों शरणार्थी देश के पूर्वोत्तर राज्यों, खासकर  मिजोरम उर मणिपुर की तरफ आये थे तब जनता के दवाब में मणिपुर सरकार वह आदेश तीन दिन में ही वापिस लेना पड़ा था जिसके अनुसार पड़ोसी देश म्यांमार से भाग कर आ रहे शरणार्थियों को भोजन एवं आश्रय मुहैया कराने के लिए शिविर न लगाने का आदेश दिया गया था.  पिछले सप्ताह ही मिजोरम सरकार ने फैसला किया है कि शरणार्थियों पहचान पत्र मुहैया करवाएगा . इसके लिए कोई सोलह हज़ार लोगों को चिन्हित किया गया है .


 पड़ोसी देश म्यांमार में उपजे राजनैतिक संकट के चलते हमारे देश में हज़ारो लोग अभी आम लोगों के रहम पर अस्थाई शिविरों में रह रहे हैं , यह तो सभ जानते हैं की राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पास किसी भी विदेशी को "शरणार्थी" का दर्जा देने की कोई शक्ति नहीं है. यही नहीं भारत ने 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं .

हमारे यहाँ शरणार्थी बन कर रह रहे इन लोगों में कई तो वहाँ की पुलिस और अन्य सरकारी सेवाओं के लोग हैं जिन्होंने सैनिक तख्ता पलट का सरेआम विरोध किया था और अब जब म्यांमार की सेना हर विरोधी को गोली मारने पर उतारू है सो उन्हें अपनी जान बचने को सबसे मुफीद जगह भारत ही दिखाई दी. लेकिन यह कड़वा सच है कि पूर्वोत्तर भारत में म्यामार से शरणार्थियों का संकट बढ़ रहा है.  उधर असं में म्यांमार की अवैध सुपारी की तस्करी बढ़ गई है और इलाके में  सक्रीय अलगाववादी समूह म्यांमार के रस्ते चीन से इमदाद पाने में इन  शरणार्थियों की आड़ ले रहे हैं .

भारत के लिए यह विकट  दुविधा की स्थिति है कि उसी म्यांमार से आये रोहंगीया  के खिलाफ देश भर में अभियान और माहौल बनाया जा रहा है लेकिन अब जो शरणार्थी आ रहे हैं वे गैर मुस्लिम ही हैं -- यही नहीं रोहंगियाँ के खिलाफ हिंसक अभियान चलाने वाले बोद्ध संगठन अब म्यांमार फौज के समर्थक बन गए हैं . म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्ध समुदाय को रोहिंग्या के ख़िलाफ नफरत का ज़हर भरने वाला अशीन विराथु अब उस सेना का समर्थन कर रहा है जो निर्वाचित आंग सांग सूकी को गिरफ्तार कर लोकतंत्र को समाप्त कर चुकी है . 

 एक साल बाद भी पूर्वोत्तर भारत से सटे हुए पड़ोसी देश म्यांमार सैनिक शासन के बाद से सैकड़ों बागी पुलिसवाले और दूसरे सुरक्षाकर्मी चोरी-छिपे मिजोरम में आना जारी है . सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग उन लोगों को सुरक्षित निकालने और इस तरफ पानाह देने की काम में लगा है . ये लोग सीमा के घने जंगलों को अपने निजी वाहनों जैसे,कार , मोटरसाइकिल और यहाँ तक कि पैदल चलकर पार कर रहे हैं . भारत में उनके रुकने, भोजन स्वास्थ्य आदि के लिए कई संगठन काम कर रहे हैं .

मिजोरम के चंपई और सियाहा जिलों में इनकी बड़ी संख्या है , सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 83 लोग हेंथिअल में, 55 लॉन्गतालाई में, 15 सेर्चिप में, 14 आइजोल में, तीन सैटुएल में और दो-दो नागरिक कोलासिब और लुंगलेई में रह रहे हैं।

म्यांमार से आ रहे शरणार्थियों का यह जत्था केन्द्र सरकार के लिए दुविधा बना हुआ है . असल में केन्द्र नहीं चाहती कि म्यांमार से कोई भी शरणार्थी यहाँ आ कर बसे क्योंकि रोहंगीय के मामले में केन्द्र का स्पष्ट नज़रिया हैं लेकिन यदि इन नए आगंतुकों का स्वागत किया जाता है तो धार्मिक आधार पर  शरणार्थियों से दुभात करने की आरोप से  दुनिया में भारत की किरकिरी हो सकती हैं . उधर मिजोरम और मणिपुर में बड़े बड़े प्रदर्शन हुए जिनमें शरणार्थियों को सुरक्षित स्थान देनी और पनाह देने का समर्थन किया गया . यहा जानना जरुरी है कि  मिजोरम की कई जनजातियों और सीमाई इलाके के बड़े चिन समुदाय में रोटी-बेटी के ताल्लुकात हैं .

भारत और म्यांमार के बीच कोई 1,643 किलोमीटर की सीमा हैं जिनमें मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड का बड़ा हिस्सा है .  अकेले मिजोरम की सीमा 510 किलोमीटर है .

एक  फरवरी 2021 को म्यांमार की फौज ने 8 नवंबर.2000 को संपन्न हुए चुनावों में सू की की पार्टी की जीत को धोखाधड़ी करार देते हुए तख्ता पलट कर दिया था . वहाँ के चुनाव आयोग ने सेना के आदेश को स्वीकार नहीं किया तो फौज ने वहाँ आपातकाल लगा दिया .हालांकि भारत ने इसे म्यांमार का  अंदरूनी मामला बता कर लगभग चुप्पी साधी हुई है लेकिन भारत इसी बीच कई रोहन्ग्याओं को वापिस म्यांमार भेजनी की कार्यवाही कर रहा है और उस पार के सुरक्षा बलों से जुड़े शरणार्थियों को सौंपने का भी दवाब है , जबकि स्थानीय लोग इसके विरोध में हैं . मिजोरम के मुख्यमंत्री जोर्नाथान्ग्मा इस बारे में एक ख़त लिख कर बता चुके हैं कि -- यह महज म्यांमार का अंदरूनी मामला नहीं रह गया है . यह लगभग पूर्वी पाकिस्तान के बांग्लादेश के रूप में उदय की तरह शरणार्थी समस्या बन चूका  है .

 

 

मिजोरम (Mizoram) में शरण लिए हुए हजारों शरणार्थियों के बीच राज्य सरकार उन्हें पहचान पत्र मुहैया कराने पर विचार कर रही है। ET की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अभी पहचान पत्र जारी करने की प्रक्रिया चल रही है और करीब 16,000 कार्ड मुहैया कराए जाएंगे। ET ने एक अधिकारी के हवाले से कहा कि "यह उन लोगों के लिए एक चुनौतीपूर्ण काम है, जिन्हें सीमाओं के पार और कई जगहों पर अपने रिश्तेदारों के साथ रहना पड़ता है।"

अधिकारी ने आगे कहा कि कई शरणार्थी अस्थायी शिविरों (several refugees) में रह रहे हैं और जैसे ही कोविड​​-19 की स्थिति आसान होगी, शरणार्थियों पर कार्य समूह सीमा से लगे क्षेत्रों का दौरा करेगा। विशेष रूप से, राज्य म्यांमार (Myanmar) के साथ 510 किलोमीटर लंबी बिना बाड़ वाली सीमा साझा करता है।

इससे पहले, केंद्रीय गृह मंत्रालय (Union Home Ministry) ने चार उत्तर पूर्वी राज्यों मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश को एक सलाह भेजकर कहा था कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के पास किसी भी विदेशी को "शरणार्थी" का दर्जा देने की कोई शक्ति नहीं है, और भारत 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल का हस्ताक्षरकर्ता नहीं है।

 

After all, why should there not be talks with Naxalites?

  आखिर क्यों ना हो नक्सलियों से बातचीत ? पंकज चतुर्वेदी गर्मी और चुनाव की तपन शुरू हुई   और   नक्सलियों ने धुंआधार हमले शुरू कर दिए , हा...