My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

क्यों अनदेखा कर रहे हैं पूर्वोत्तर के आतंकवाद को
पंकज चतुर्वेदी

मुल्क में जब कभी आतंकवाद से निबटने का मुद्दा सामने आता है तो क्या आम लोग और क्या नेता और अफसरान भी ; कष्मीर पर आंसू बहाने लगते हैं पाकिस्तान को पटकने के नारे उछालने लगते हैं, लेकिन लंबे समय से यह बात बड़ी साफगोई से नजरअंदाज की जाती रही है कि हमारे ‘‘सेवन सिस्टर्स’’ राज्यों में अलगाववाद, आतंक और देषद्रोही कष्मीर से कहीं ज्यादा है और उससे सटी सीमा के देषों - म्यंामार, भूटान, नेपाल, बांग्लादेष ही नहीं थाईलैंड, जापान तक इन संगठनों के आका बैठ कर अपनी समानांतर हुकुमत चला रहे हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों में मणिपुर, असम, नगालैंड, त्रिपुरा, अरूणाचल प्रदेष और मिजोरम में कोई पच्चीस उग्रवादी संगठन सक्रिय हैं। यहां बीते बारह सालों के दौरान कोई बीस हजार लोग मारे गए जिनमें चालीस फीसदी सुरक्षा बल वाले हैं। जब किसी राज्य में कुछ महीने षांति रहती है तो माना जाता है कि सरकार ने उग्रवादी संगठनों को मनमाने तरीके से उगाही की छूट दे दी है।
असम में उल्फा, एनडीबीएफ, केएलएनएलएफ और यूपीएसडी के लड़ाकों का बोलबाला है। अकेले उल्फा के पास अभी भी 1600 लड़ाके हैं जिनके पास 200 एके राईफलें, 20आरपीजी और 400 दीगर किस्म के असलहा हैं। राजन दायमेरी के नेतृत्व वालेएनडीबीएफ के आतंकवादियों की संख्या 600 है जोकि 50 एके तथा 100 अन्य किस्म की राईफलों से लैसे हैं। नगालैंड में पिछले एक दषक के दौरान अलग देष की मांग के नाम पर डेढ हजार लोग मारे जा चुके हैं। वहां एनएससीएन के दो घटक - आईएम और खपलांग बाकायदा सरकार के साथ युद्ध विराम की घोशणा कर जनता से चैथ वसूलते हैं। इनके आका विदेष में रह कर भारत सरकार के आला नेताओं से संपर्क में रहते हैं और इनके गुर्गों को अत्याधुनिक प्रतिबंधित हथियार ले कर सरेआम घूमने की छूट होती है। यहां तक कि राज्य की सरकार का बनना और गिरना भी इन्हीं उग्रवादियों के हाथों में होता है। यह बात हाल ही में संपन्न विधान सभा चुनावों में सामने आ चुकी है। कांग्रेस बहुत प्रचार कर रही थी थी कि आईएम गुट के साथ जल्दी ही षांति-समझौता हो जाएगा, लेकिन सत्ताधारी नगा नेषनल फ्रंट आईएम गुट को यह विष्वास दिलवाने में सफल रहा कि उनकी सरकार फिर से बनने पर उनके लिए राहत होगी। बांग्लादेष की सीमा से सटे त्रिपुरा में एनएलएफटी और एटीटीएफ नामक दो संगठनों की तूती बोलती है। रंजीत देब वर्मन द्वारा गठित आल त्रिपुरा टाईगर फोर्स के पास 50 एक राईफलें व 200लड़ाके हें तो नयबंसी जमातिया के संगठन नेषनल लिबरेषन फोर्स आफ त्रिपुरा के 150 समर्पित उग्रवादी भी अत्याधुनिक हथियारों से लैस हैं इन दोनों संगठनों के मुख्यालय, ट्रैनिंग कैंप और छिपने के ठिकाने बांग्लादेष में हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन संगठनों को उकसाने व मदद करने का काम हुजी व हरकत उल अंसार जैसे संगठन करते हैं।
छोटे राज्य मणिपुर में स्थानीय प्रषासन पूरी तरह पीएलए, यूएनएलएफ और पीआरईपीएके जैसे संगठनों का गुलाम हैं। यहां सरकारी कर्मचारियों को अपने वेतन का एक हिस्सा आतंकवादियों को देना ही होता है। बाहरी लोगों की यहां खैर नहीं है।  बीते दस सालों के दौरान यहां पांच हजार से ज्यादा लोग अलगाववाद के षिकार हो चुके हैं। इसके अलावा नगा-कुकी तथा कुकी-जोमियो संघर्श में सात सौ से ज्यादा जानें गई हैं । यहां सबसे ज्यादा ताकतवर संगठन यूनाईटेड नेषनलिस्ट लिबरेषन फ्रंट है जिसके पास 1500 लोग हैं। दूसरे सबसे खतरनाक संगठन पीपुल लिबरेषन आर्मी में 400 करीबन लड़के हैं ये सभी संगठन अत्याधुनिक हथियारों व संचार उपकरणों से लैस हैं। मेघालय में एएनयूसी और एचएनएलएल नामक संगठन अलगाववाद के झंडाबरदार हैं वहीं मिजोरम में एनपीसी और बीएनएलएफ राश्ट्र की मुख्य धार से अलग हैं। इसके अलावा असम को आधार बना कर कई गुमनाम संगठन भी अलगाववाद की रट लगाए हैं, इनमें से कई सीधे-सीधे पाकिस्तानी आईएसआई की पैदाईष है। ऐसे कुछ संगठन हैं -
डिमा हालिम डाओगा (डीएचडी), कार्बी लांग्री नेशनल लिबरेशन फ्रंट (केएलएनएलएफ),कार्बी नेशनल वॉलियंटर्स (केएनवी), राभा नेशनल सिक्योरिटी फोर्स (आएनएसएनफ), कोच राजवंशी लिबरेशन आर्गनाइजेशन (केआरएलओ), हमार पीपुल्स कोन्वेशन (एचपीसी-डी), कार्बी पीपुल्स फ्रंट (केपीएफ), तिवा नेशनल रिवोल्यूशनरी फोर्स (टीएनआरएफ), बिरसा कमांडो फोर्स (बीसीएफ), बंगाली टाइगर फोर्स (बीटीएफ), आदिवासी टाइगर फोर्स (एटीएफ), आदिवासी नेशनल लिबरेशन आर्मी ऑफ असम (आनला), गोरखा टाइगर फोर्स (जीटीएफ), बराक वेली यूथ लिबरेशन फ्रंट (बीवीवाइएलएफ), युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ बराक वेली, मुसलिम युनाइटेड लिबरेशन टाइगर्स ऑफ असम (मुल्टा, मुसलिम युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (मुल्फा), मुसलिम सिक्योरिटी काउंसिल ऑफ असम (एमएससीएफ), युनाइटेड लिबरेशन मिलिशिया ऑफ असम (उल्मा), इसलामिक आदि। ये सभी संगठन उत्तर-पूर्व के अन्य राजयों में सक्रिय अवैध संगठनों के नेटवर्क में रहते हैं और जरूरत पड़ने पर हमला, वसूली आदि के लिए एक-दूसरे को हथियार व आदमियों की मदद करते हैं।
आंकडे गवाह हैं कि सन 2009 से 2011 के बीच इन राज्यों में क्रमषः 531,237 और 114 आतंकवादी मारे गए। वहीं सन 2009 में 44 सुरक्षाकर्मी, 2010 में 28 और 2011 में 32 सुरक्षा बल के लोग षहीद हुए। इन सालों में मारे गए आम लोग क्रमषः 264,94 और 70 हैं। यदि इन्ही सालों में कष्मीर के आंकड़े देखें तो 2009 में 71 आम लोग, 2010 में 47 और 2011 में 31 लोग मारे गए। जबकि सुरक्षा बलों की मौत के आंकडे क्रमषः 79,69 और 33 हैं।  साफ जाहिर है कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में बहुत से संगठन सक्रिय हैं और वहां उग्रवाद कष्मीर से कहीं ज्यादा है। इसके बावजूद श्रीनगर में हथगोला फटने की खबर टीवी व अखबारों पर पहली  सचित्र होती है, जबकि उत्तर-पूर्व के भीशण नर संहार बामुष्किल जगह पाते हैं।
अपून चेतिया और परेष बरूआ के मामले में सामने आ चुका है कि इन लोगों ने बैंकाक और ढाका में पांच सितारा होटल स ेले कर जहाज कंपनी तक के व्यापार विधिवत ,खोल रखे हैं। यह तथ्य भारत सरकार की खुफिया एजेंसियों को कई साल पहले पता था कि बांग्लादेष का काक्स बाजार बंदरगाह हथियारों के सौदागरों का प्रमुख अड्डा बना हुआ है और वहां पहुंचने के लिए अंडमान सागर का इस्तेमाल किया जाता है। एक अमेरिकी खुफिया रपट बताती है कि गोल्डन ट्राईंगल से म्यामार के रास्ते हथियारों के बदले नषीली दवाओं के व्यापार पर भारत सरकार ना जाने क्यों कड़ी कार्यवाही करने से बचती है। यह वही जगह है जहां से श्रीलंका में खून खराबे के दिनो में लिट्टे तक हथियारों की खेप पहुंचती थी।
जिस तरह से उत्तर-पूर्वी राजयों के उग्रवादी अत्याधुनिक हथियारों तथा सके लिए जरूरी गोला-बायद से लैस रहते हैं इससे यह तो साफ है कि कोई तो है जो दक्षिण-पूर्व एषिया में अवैध संवेदनषील हथियारों की खपत बनाए रखे हुए है। बंदूक के बल पर लोकतंत्र को गुलाम बनाने वालों को हथियार की सप्लाई म्यांमार, थाईलैंड, भूटान, बांग्लादेष से हो रही है। मणिपुर, जहां सबसे ज्यादा उग्रवाद है, नषे  की लत से बेहाल और उससे उपजे एड्स के लिए देष का सबसे खतरनाक राज्य कहा जाता है। कहना गलत ना होगा कि यहां नारकोटिक्स व्यापर के बदले हथियार की खेप पर कड़ी नजर रखना जरूरी है।
यह दुर्भाग्य है कि दिल्ली में बैठे लोग उत्तर-पूर्वी राज्यों को सतही दूरी ही नहीं, बल्कि दिलों से भी दूर मानते रहे हैं। इस बात की बानगी है पिछले दिनों वहां के तीन राज्यों में संपन्न विधन सभा चुनाव। वहां के चुनाव परिणाम आए तो दिल्ली के किसी भी हिंदी चैनल पर नतजों की खबर गायब थी, कारण- उस दिन आम बजट आ रहा था। यह बात हमारी मानसिकता को उजागर करती है कि हम उन कोई 200 विधान सभा सीटों के मतदाताओं की भावनाओं से अपना तरतम्य ही नहीं स्थापित कर पाए हैं। आज वहां के हालात इस मुकाम पर पहंुच गए है कि अलगाववादी कदमों पर काबू नहीं किया गया तो पृथकतावादियों पर नियंत्रण करना असंभव हो जाएगा।
पंकज चतुर्वेदी  यूजी-1 ए 3/186 राजेन्द्र नगर सेक्टर-2, साहिबाबाद गाजियाबाद 201005 संपर्क - 9891928376, 0120-4241060



,एक जनवरी २०१४ के राज एक्सप्रेस मध्यप्रदेश के सम्पादकीय पेज पर


खतरा बनता खाली दाल का कटोरा
पंकज चतुर्वेदी
इन दिनों आम आदमी के भोजन से दाल नदारत है, कारण है - मांग की तुलना में कम उत्पादन, डालर के मुकाबले रूप, के कमजोर होने से ?घटता आयात और उसके आसमान छूते दाम। वह दिन अब हवा हो गए , हैं जब आम मेहनतकश  लोगों  के लिए प्रेाटीन का मुख्य स्रोत  दालें हुआ करती थीं। देश
यहां जानना जरूरी है कि भारत दुनियाभर में दाल का सबसे बड़ा खपतकर्ता, पैदा करने वाला और आयात करने वाला दे’ा है। दुनिया में दाल के कुल खेतों का 33 प्रति’ात हमारे यहां है जबकि ख्खपत 22 फीसदी है। इसके बावजूद अब वे दिन सपने हो Û, है जब आम-आदमी को ‘‘दाल-रोटी खाओ, प्रभ्ुा के Ûु.ा Ûाओ’’  कह कर कम में ही Ûुजारा करने की सीख दे दी जाती थी । आज दाल अलबत्ता तो बाजार में मांÛ की तुलना में बेहद कम उपलब्ध है, और जो उपलब्ध भी है तो उसकी कीमत चुकाना आम-आदमी के बस के बाहर हो Ûया है । वर्ष 1965-66 में देश का दलहन उत्पादन 99-4 लाख टन था, जो 2006-07 आते-आते 145-2 लाख टन ही पहुंच पाया । सन 2008-09 में मुल्क के 220-9 लाख हैक्टर खेतों में 145-7 लाख टन दाल ही पैदा हो सकी। सनद रहे कि इस अवधि में देश की जनसंख्या में कई-कई Ûु.ाा बढ़ौतरी हुई है, जाहिर है कि आबदी के साथ दाल की मांÛ भी बढ़ी । इसी अवधि के दौरान Ûेंहू की फसल 104 लाख  टन से बढ़ कर 725 लाख टन तथा चावल की पैदावार 305-9 लाख टन से बढ़ कर 901-3 लाख टन हो Ûई । हरित क्रांति के दौर में दालों की उत्पादकता दर, अन्य फसलों की तुलना में बेहद कम रही है ।
दलहन फसलों की बुवाई के रकवे में बढ़ौतरी ना होना भी चिंता की बात है । सन 1965-66 में देश के 227-2 लख हेक्टेयर खेतों पर दाल बोई जाती थी, सन 2005-06 आते-आते यह ?ाट कर 223-1 लाख हेक्टेयर रह Ûया वर्ष 1985-86 में विश्व में दलहन के कुल उत्पादन में भारत का योÛदान 26-01 प्रतिशत था, 1986-87 में यह आंकड़ा 19-97 पर पहुंच Ûया । सन 2000 आते-आते इसमें कुछ बढ़ौतरी हुई और यह 22-64 फीसदी हो Ûया ।  लेकिन ये आंकड़े हकीकत में मांÛ से बहुत दूर रहे । हम Ûत् 25 वर्षो से लÛातार विदेशों(म्यांमार, कनाड़ा, आस्ट्रेलिया और टर्की) से दालें मंÛवा रहे हैं ।  पिछले साल देश के बाजारों में दालों के रेट बहुत बढ़े थे, तब आम आदमी तो चिल्लाया था, लेकिन आलू-प्याज के लि, कोहराम काटने वाले राजनैतिक दल चुप्पी साधे रहे थे । पिछले साल सार्वजनिक {ो= की कंपनी ,म,मटीसी ने नवंबर तक 18,000टन अरहर और मसूर की दाल आयात करने के लि, वैश्विक टेंडर को मंजूरी दी थी । माल आया भी, उधर हमारे खेतों ने भी बेहतरीन फसल उÛली। ,क तरफ आयातीत दाल बाजार मंे थी, सो किसानों को अपनी अपे{िात रेट नहीं मिला ।  ,ेसे में किसान के हाथ फिर निराशा लÛी और अÛली फसल में उसने दालों से ,क बार फिर मंुह मोड़ लिया ।
दाल के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के इरादे से केंद्र सरकार ने सन 2004 में इंटीÛ्रेटेड स्कीम फार आईल सीड, पल्सेज, आईल पाम ,ंड मेज़(आई,सओपीओ,म) नामक योजना शुरू की थी । इसके तहत दाल बोने वाले किसानों को सबसिडी के साथ-साथ कई सुविधा,ं देने की बात कही Ûई थी । वास्तव में यह योजना नारों से ऊपर नहीं आ पाई । इससे पहले चैथीं पंचवर्षीय योजना में ‘‘ इंटेंसिव पल्सेस डिस्ट्रीक्ट प्रोÛ्राम’’ के माध्यम से दालों के उत्पादन को बढ़ावा देने का संकल्प लाल बस्तों से उबर नहीं पाया । सन 1991 में शुरू हुई राष्ट्रीय दलहन विकास परियोजना भी आधे-अधूरे मन से शुरू योजना थी, उसके भी कोई परि.ााम नहीं निकले । जहां सन 1950-51 में हमारे दे’ा में दाल की खपत प्रति व्यक्ति/प्रति दिन 61 Û्राम थी, वह 2009-10 आते-आते 36 Û्राम से भी कम हो Ûई। क
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद(आईसी,आर) की मानें तो हमारे देश में दलहनों के प्रामा.िाक बीजों हर साल  मांÛ 13 लाख कुंटल है, जबकि उपलब्धता महज 6-6 लाख कुंटल । यह तथ्य बानÛी है कि सरकार दाल की पैदावार बढ़ाने के लि, कितनी Ûंभीर है । यह दुख की बात है कि भारत , जिसकी अर्थ-व्यवस्था का आधार कृषि है, वहां दाल जैसी मूलभूत फसलों की कमी को पूरा करने की कोई ठोस कृषि-नीति नहीं है । कमी हो तो बाहर से मंÛवा लो, यह तदर्थवाद देश की परिपक्व कृषि-नीति का परिचायक कतई नहीं है ।
नेशनल सैंपल सर्वे के ,क सर्वे{ा.ा के मुताबिक आम भारतीयों के खाने में दाल की मा=ा में लÛातार हो रही कमी का असर उनके स्वास्थ्य पर दिखने लÛा है । इसके बावजूद दाल की कमी कोई राजनैतिक मुद्दा नहीं बन पा रहा है । शायद सभी सियासती पार्टियों की रूचि देश के स्वास्थ्य से कहीं अधिक दालें बाहर से मंÛवाने में हैं । तभी तो इतने ‘ाोर-’ाराबे के बावजूद दाल के वायदा कारोबार पर रोक नहीं लÛाई जा रही है। इससे भले ही बाजार भाव बढ़े, सटौरियों को बÛैर दाल के ही मुनाफा हो रहा है।





की आबादी बढ़ी, लोÛों की पो”िटक आहार की मांÛ भी बढ़ी, बढ़ा नहीं तो दाल बुवाई का रकवा। परि.ााम सामने हैं- मांÛ की तुलाना में आपूर्ति कम है और बाजार भाव मनमाने हो रहे हैं। भारत में 20 मेट्रीक टन की सालाना जरूरत है, जबकि देश में सन 2012-13 में इसका उत्पादन हुआ महज 18-45 मीट्रिक टन । दाल की कमी होने से इसके दाम भी बढ़ रहे हैं, नजीतन आम आदमी प्रोटीन की जरूरतों की पूर्ति के लि, दीÛर अनाजों पर निर्भर हो रहा है । इस तरह दूसरे अनाजों की भी कमी और दाम में बढ़ौतरी हो रही है । हालात इतने खराब हैं कि Ûत् 22-23 सालों से हम हर साल दालों का आयात तो कर रहे हैं, लेकिन दाल में आत्मनिर्भर बनने के लि, इसका उत्पादन और रकबा बढ़ाने की किसी ठोस योजना नहीं बन पा रही है ।

राष्‍ट्रीय सहारा में छपे लेख 2013















































Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...