My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

गुरुवार, 28 मार्च 2019

How Noon River turn in to noor drain

कोई २० दिन पहले ही उरई गया था . मेरे जिन पारिवारिक के घर गया, उनकी गली तक पहुँचने के लिए संक्रा रास्ता होने के कारण मैंने अपनी कार एक नाले के किनारे खड़ी कर दी . स्थानीय लोगों से पूछा तो उन्होंने कहा यह नूर नाला है . जब थोडा नीचे जा कर देखा तो जमीं के कटाव, प्रवाह और स्वरुप से अंदाजा लग गया कि यह कोई नदी है , बहुत से स्थानीय लोगों से बात की कुछ कुछ जानकारी मिली . फिर जब खोजा तो पता चला कि महज तेन दशक में एक सदा नीरा नून नदी, नूर नाला बन गयी . मैंने अपने घर के पास यमुना और हिंडन को भी ऐसे ही मरते देखा है , शायद आपने भी अपने गोंव -कसबे में यह अनुभव किया हो
आज के हिंदुस्तान के सम्पादकीय पर मेरा यह लेख बहुत दुःख  के साथ, हमारी काहिली के प्रति रोष के साथ है, काश इस लोकसभा चुनाव में आप वोट मांगने वालों से अपने इलाके के नदी-तालाब- जोहड़- कुंए के ख़तम होने का हिसाब मांग सकें 

एक नदी के गंदे नाले में बदल जाने का सफर


इस नदी में नाव चलते, बाढ़ आते और गरमियों में पानी द्वारा छोड़ी जमीन पर खेती करते देखने वाले अभी जवान ही हैं। महज तीन दशक में एक नदी कैसे गुम होकर नाला बन जाती है, इसकी बानगी है बुंदेलखंड के उरई की नून नदी। इस पर स्टाप डैम निर्माण हो या रेत का वैध-अवैध खनन, इसके लिए सरकार और समाज इसे नदी मानता है। सरकारी कागजों में भी इसकी यही हैसियत दर्ज है। लेकिन जैसे ही इसके संरक्षण, प्रदूषण, अस्तित्व पर संकट की बात होती है, तो इसे बरसाती नाली बताने वाले खड़े हो जाते हैं। यदि थोड़ा-सा पुराना रिकॉर्ड देखें, तो नून नदी का सफर 20 किलोमीटर तक का है और यह यमुना की सहायक नदी है। कह सकते हैं कि यमुना को जहर बनाने में जिन सहयोगियों की भूमिका है, उनमें से यह एक है। अकेले जालौन जिले में ही नून नदी कोई 100 ऐसे गांवों के किनारे से गुजरते हुए उनका सहारा हुआ करती थी, जहां का भूजल ‘डार्क जोन’ में गिना जाता है। जमीन की छाती चीरकर पानी निकालो, तो वह बेहद खारा है। ऐसे में, नून नदी ही उनके लिए जीवनदायी हुआ करती थी। 
कभी नून नदी शहर के बीचोबीच से गुजरती थी। इसके किनारे तिलक नगर में मंसिल माता का मंदिर दो हजार साल से अधिक पुराना कहलाता है। अभी तीन दशक पहले तक नून नदी का पानी इस मंदिर के करीब तक हिलौरे मारता था। वहीं बनी ऊंची पहाड़ियों या टेकरी पर कुछ काछियों के घर थे, जो पानी उतरने पर किनारे पर फल-सब्जी लगाते थे। एक तरह से शहर का विभाजन करती थी नदी- पूर्व तरफ पुरानी बस्ती और दूसरी तरफ जिला मुख्यालय बनने से विकसित सरकारी दफ्तर और कॉलोनियां। इस नदी के कारण शहर का भूजल स्तर संरक्षित रहता था। हर आंगन में कुएं थे, जो सदानीरा रहते थे। शाम होते ही शहर में ठंडक हो जाती थी। जिला मुख्यालय के कार्यालय बने, तो शहर का विस्तार होने लगा और न जाने कब नून नदी के किनारों पर कब्जे हो गए। शहरीकरण हुआ, तो जमीन के दाम मिलने लगे और लोगों ने अपने खेत भी बेच दिए। किनारों पर उगे कंक्रीट के जंगल से उपजने वाला घरेलू कचरा भी इसमें समाने लगा। देखते ही देखते यह एक नाला बन गया।
नून नदी का गठन चार प्रमुख बरसाती नालों के मिलन से होता है। ये हैं- मलंगा, राबेर, गोहनी और जांघर। इसके आगे जाल्हूपुर-मदारीपुर मार्ग पर महेबा ब्लॉक के मांगरोल में भी एक बरसाती नाला इसमें मिलता है। उकासा, भदरेकी, सारा, नूरपुर, कोहना, पारा, हथनौरा जैसे कोई सौ गांव इसके तट पर बसे हैं। इसमें गरमी के दिनों में भी चार फुट पानी औसतन रहता है। उरई शहर पहुंचने से पहले ही इसमें कोई छह कारखानों और कई ईंट भट्टों का रासायनिक उत्सर्जन गिरता है। कानपुर-झांसी मार्ग पर उरई शहर से कोई दस किलोमीटर पहले मुख्य सड़क से तीन किलोमीटर भीतर जंगल में रगौली गांव में औद्योगिक कचरे का इससे मिलन शुरू होता है। रही-बची कसर उरई शहर की सारी गंदगी बगैर किसी शोधन के इसमें मिलने से पूरी हो जाती है। कालपी के नजदीक शेखपुरा गुढ़ा में जब इसका मिलन यमुना से होता है, तो यह नदी कचरे और बदबूदार पानी का गाढ़ा रसायन भर होती है।
किसी नदी की मौत का पता उसमें बचे पानी, उसकी गुणवत्ता और तापमान से होता है। एक वैज्ञानिक शोध के अनुसार, इस नदी में इस तरह की काई यानी एल्गी हुआ करती थी, जो सामान्य जल-प्रदूषण का निराकरण खुद ही कर लेती थी। आज इसका तापमान जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में भी 10 डिग्री और गरमी में 35 डिग्री औसतन रहता है। इतने तापमान के चलते इसमें जलीय जीव या वनस्पति का जीवित रहता संभव नहीं है। कहा जाता है कि जिस नदी में मछली-कछुआ या जलीय पौधे नहीं हों, तो उसका जल पशुओं तक के लिए जहर होता है। साफ है कि बेतरतीब आधा दर्जन स्टाप डैम बनाने और हर जगह भारी मशीनें लगाकर इसमें से रेत निकालने के कारण भी इसकी सांस टूटी है। जो नदी कभी ढलते सूरज के साथ शहर को सुनहरी रोशनी से भर देती थी, जिसका पानी आम लोगों की प्यास बुझाता था, वह नदी आज अपना नाम, अस्तित्व खोकर लोगों के लिए एक त्रासदी बन गई है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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बुधवार, 27 मार्च 2019

Traffic Jam producing death


जानलेवा जाम

समस्या के समाधान को बने समग्र नीति



पंकज चतुर्वेदी

पिछले दिनों मेरठ-देहरादून को दिल्ली से जोड़ने वाले हाईवे पर 14 किलोमीटर लंबा जाम लग गया। दिल्ली, मुंबई तो ठीक है लेकिन देश के सभी छह महानगर, सभी प्रदेशों की राजधानियों के साथ-साथ तीन लाख आबादी वाले 600 से ज्यादा शहरों-कस्बों शहरों में भी सड़क के आकार की तुलना में कई गुणा बढ़े वाहनों के दबाव के चलते जाम लगना आम बात है। अभी एक रिपोर्ट बताती है कि लखनऊ में हर दिन औसतन 11 मौतें होती हैं। यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दशक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे। एक अंतर्राष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग ज़हरीली हवा के शिकार होकर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे।
‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित ताजा शोध के मुताबिक दुनियाभर में 33 लाख लोग हर साल वायु प्रदूषण के शिकार होते हैं। यही नहीं, सड़कों में बेवजह घंटों फंसे लोग मानसिक रूप से भी बीमार हो रहे हैं व उसकी परिणति के रूप में आए रोज सड़कों पर ‘रोड रेज’ के तौर पर बहता खून दिखता है। वाहनों की बढ़ती भीड़ के चलते सड़कों पर थमी रफ्तार से लोगों की जेब में होता छेद व विदेशी मुद्रा व्यय कर मंगवाए गए ईंधन का अपव्यय होने से देश का नुकसान है सो अलग। सड़कों पर रास्ता न देने या हार्न बजाने या ऐसी ही गैरजरूरी बातों के लिए आए रोज खून बह रहा है। बीते दो दशकों के दौरान देश में ऑटोमोबाइल उद्योग ने बेहद तरक्की की है और साथ ही बेहतर सड़कों के जाल ने परिवहन को काफी बढ़ावा दिया है। विडंबना है कि हमारे यहां बीते इन्हीं सालों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की उपेक्षा हुई व निजी वाहनों को बढ़ावा दिया गया। रही-सही कसर बैंकों के आसान कर्ज ने पूरी कर दी और अब इंसान दो कदम पैदल चलने के बनिस्बत दुपहिया ईंधन वाहन लेने में संकोच नहीं करता है। असल में सड़कों पर वाहन दौड़ा रहे लोग इस खतरे से अनजान ही हैं कि उनके बढ़ते तनाव या चिकित्सा बिल के पीछे सड़क पर रफ्तार के मजे का उनका शौक भी जिम्मेदार है।

शहर हों या हाइवे,जो मार्ग बनते समय इतना चौड़ा दिखता है, वही दो-तीन सालों में गली बन जाता है। महानगर से लेकर कस्बे तक और सुपर हाइवे से लेकर गांव की पक्की हो गई पगडंडी तक, सड़क पर मकान व दुकान खोलने व वहीं अपने वाहन या घर का जरूरी सामान रखना लोग अपना अधिकार समझते हैं। दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि लुटियन दिल्ली में कहीं भी वाहनों की सड़क पर पार्किंग गैरकानूनी है। जाहिर है कि जो सड़क वाहन चलने को बनाई गई उसके बड़े हिस्से में बाधा होगी तो यातायात प्रभावित होगा ही।
यातायात जाम का बड़ा कारण सड़कों का त्रुटिपूर्ण डिजाइन भी होता है, जिसके चलते थोड़ी-सी बारिश में वहां जलभराव या फिर मोड़ पर अचानक यातायात धीमा होने या फिर आए रोज उस पर गड्ढे बन जाते हैं। पूरे देश में सड़कों पर अवैध और ओवरलोड वाहनों पर तो जैसे अब कोई रोक है ही नहीं। पुराने स्कूटर को तीन पहिये लगाकर बच्चों को स्कूल पहुंचाने से लेकर मालवाहक बना लेने या फिर बामुश्किल एक टन माल ढोने की क्षमता वाले छोटे स्कूटर पर लोहे की बड़ी बॉडी कसवा कर अंधाधुंध माल भरने, तीन सवारी की क्षमता वाले टीएसआर में आठ सवारी व जीप में 25 तक सवारी लादने फिर सड़क पर अंधाधुंध चलने जैसी गैरकानूनी हरकतें कश्मीर से कन्याकुमारी तक स्थानीय पुलिस के लिए ‘सोने की मुर्गी’ बन गए हैं। इसके अलावा मिलावटी ईंधन, घटिया ऑटोपार्ट्स भी वाहनों से निकले धुएं के ज़हर को कई गुना कर रहे हैं। सनद रहे कि वाहन पर क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा ही होगा।
आमतौर पर स्कूलों का समय सुबह है और अब लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है, इसका परिणाम हर छोटे-बड़े श्ाहर में सुबह से सड़कों पर जाम के रूप में दिखता है। ठीक यही हाल दफ्तरों के वक्त में होता है। नए मापदंड वाले वाहन यदि चालीस या उससे अधिक की स्पीड में चलते हैं तो उनसे बेहद कम प्रदूषण होता है। लेिकन यदि ये पहले गियर में रेंगते हैं तो इनसे सॉलिड पार्टिकल, सल्फर डाइआक्साइड व कार्बन मोनोआक्साइड बेहिसाब उत्सर्जित होता है। क्या स्कूलों के खुलने व बंद होने के समय में अंतर या बदलाव कर इस जाम के तनाव से मुक्ति नहीं पाई जा सकती है? कुछ कार्यालयों की बंदी का दिन शनिवार-रविवार की जगह अन्य दिन किया जा सकता है, जिसमें अस्पताल, बिजली, पानी के बिल जमा होने वाले काउंटर आदि हैं। यदि कार्यालयों में साप्ताहिक दो दिन के बंदी के दिन अलग-अलग किए जाएं तो हर दिन कम से कम 30 प्रतिशत कम भीड़ सड़क पर होगी। कुछ कार्यालयों का समय आठ या साढ़े आठ करने व उनके बंद होने का समय भी साढ़े चार या पांच होने से सड़क पर एकसाथ भीड़ होने से रोका जा सकेगा।
बड़े-बड़े शहरों में जो कार्यालय जरूरी न हों, या राजधानियों में, जिनका मंत्रालयों से कोई सीधा ताल्लुक न हो, उन्हें सौ-दो सौ किलोमीटर दूर के शहरों में भेजना भी एक परिणामकारी कदम हो सकता है। इससे नए शहरों में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे व लोगों का दिल्ली की तरफ पलायन भी कम होगा।

शनिवार, 23 मार्च 2019

Global terrorist is meaningless if we are capable to kill them

ग्लोबल टैररिस्ट घोषित करने के बजाए उन्हें मारो 
पंकज चतुर्वेदी


पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मसूद अज़हर को ग्लोबल आतंकी घोषित करने का प्रस्ताव चीन के रोड़े के चलते फिर रद्द हो गया। सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य चीन ने अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के ज़रिए लाए जा रहे प्रस्ताव में अड़ंगा लगा दिया। चीन इस बात पर अड़ा है कि आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद और मसूद अजहर का आपस में कोई लिंक नहीं है। चीन की दलील है कि पहले भी मसूद के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिले। हमारे देश में इसे बड़ा मुददा बना लिया, कुछ लोग चीन के उत्पादों के आर्थिक बहिष्कार करने लिए हुंकारे मारने लगे।  यहां जानना जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र में पहले से ही वैश्विक आतंकी घोषित हाफिज सईद या दाउद इब्राहिम पर हम या दुनिया कोई ऐसा प्रहार कर नहीं पाई है जिससे यह लगे कि संयुक्त राष्ट्र में इस कवायद करने से कुछ हांसिल होता है। जब भारत दिखा चुका है कि वह अतंकियों को मारने के लिए दूसरे देश के भीतर घुस कर बम बरसा सकता है तो संयुक्त राष्ट्रकी पूरी कवायद भी बेमानी है।फ वैसे भी यूएन यानी संयुक्त राष्ट्र एक अप्रांसगिक और गैर व्याहवारिक संस्था बन चुका है। अभी भारत ने बालाकोट में घुस कर बम गिराए तो यूएन ने कौन सा दखल कर लिया ?

एक सशक्त देश और सवा अरब के लोकतंत्र वाले देश को यह जान लेना चाहिए कि यदि मसूद अजहर को  ग्लोबल टेरोरिस्ट घोषित भी कर दिया होता तो उसका कुछ नहीं बिगड़ता , जब तक पाकिस्तान की इच्छाशक्ति उस पर कार्यवाही करने की ना हो।  क्या आपको याद है कि इससे पहले हाफीज सईद , लश्कर ए तैयबा के संस्थापक को 10 दिसम्बर 2008 को ग्लोबल टेरोरिस्ट घोषित किया जा चुका है , उस पर अमेरिका ने दस लाख डोलर का इनाम भी रखा था । 26/11 के बम्बई हमले के तत्काल बाद संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका ने उसे गोल्बल टेररिस्ट घोषित कर दिया था, यदि किसी को ग्लोबल टेररिस्ट घोषित करवा देना कोई कूटनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय सफलता है तो जाहिर है कि उस समय के सरकार इसमें सफल रही थी, जबकि अभी दुनिया में डंका पीटने का दावा करने वाले अपने सबसे बड़े व्यापारी दोस्त चीन से ही हार गए । इससे पहले संयुक्त राष्ट्र में दाउद इब्राहिम कासकर को भी बैóिक आतंकी घोषित किया जा चुका है। यूनए का डॉजियर कहता है कि दाउद के पास रावलपिंडी और कराची से जारी कई पासपोर्ट हैं और वह नूराबाद,कराची के पहाड़ी इलाके में शानदार बंगले में रहता है। विडंबना है कि हम दाउद का एक ताजा फोटो भी नहीं पा सके भले ही वह दुनिया के लिए आतंकी हो।
इसी तरह ग्लोबल आतंकी घोषित किए गए हाफीज सईद को लें , वह पाकिस्तान में सरेआम घूमता है ,वह राजनीतिक दल ‘‘मिल्ली मुस्लिम पार्टी’’ बना कर पाकिस्तान में चुनाव लड़ता है , वह स्कूल, कालेज, मदरसे चलाता है, बड़े-बड़े सियासतदान उससे मिलते हैं, वह जम कर जलसे- सभाएं करता हैं । यह वैश्विक आतंकी पाकिस्तान के उर्दू अखबार डेली दुनिया’ में कश्मीर पर नियमित कॉलम लिखता हैं। पाकिस्तान ने जैश-ए-मोहम्मद को 2002 में गैरकानूनी घोषित किया था। हालांकि वह संगठन अब भी पाकिस्तान में सक्रिय है। अमेरिका ने दिसम्बर 2001 में जैश को एक विदेशी आतंकवादी संगठन घोषित किया था ।’’ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत पाकिस्तान को प्रतिबंधित संगठन और आतंकी ं को पनाह और समर्थन नहीं देने की अपनी जिम्मेदारियां निभानी चाहिए और ऐसे संगठनों में शामिल लोगों और संगठनों के वित्त पोषण स्रोतों, अन्य वित्तीय संपत्तियों और आर्थिक संसाधनों को तुरंत जब्त करना था। हम सभी जानते हैं कि पाकिस्तान ने ऐसा कुछ नहीं किया और यूएन उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाया। यही नहीं इतना होने पर भी भारत ने पाकिस्तान को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा(जो अभी पिछले महीने ही समाप्त हुआ) दिया हुआ था। हम उनसे जम कर तिजारत भी कर रहे हैं।
 मसूद अजहर  को  ग्लोबल आतंकी ना घोषित हो पाने के लिए चीन ही नहीं अपने ही अतीत को कोसने वाले यह भूल जाते हैं कि इंटरपोल ने भले ही हाफिज मोहम्मद सईद के खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस जारी कर रखा हो, मगर पिछले 11 सालों से वह उसे पकड़ नहीं पाया है। अमेरिका ने उस पर एक करोड़ डॉलर का इनाम रखा है, मगर इस एलान के 11 साल बाद भी उसका बाल बांका नहीं हुआ। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय संघ, रूस और ऑस्ट्रेलिया ने उसके संगठन लश्कर-ए-तैयबा को प्रतिबंधित कर रखा है, मगर उसके बारूदी और नापाक कारनामे अब भी जारी हैं।
हाफिज मोहम्मद सईद अकेला नहीं है, जिसे पाकिस्तान ने पनाह दी है और भी आतंकी सरगना हैं। संयुक्त राष्ट्र की आतंकी सूची में पाकिस्तान से 139 नाम हैं। यूएन यह मानता है कि ओसामा बिन लादेन का सबसे करीबी एमन अल जवाहिरी आज भी पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा पर है। जान लें कि जब तक अमेरिका नहीं चाहता तब तक कोई भी आतंकी पाकिस्तान में आराम से रहता-घूमता है। 11 सयाल पहले आतंकी घेाषित हाफिज सईद का इतिहास ज्यादा काला और घिनौना है लेकिन वह पाकिस्तान में मजे से रह रहा है। 
हाफिज सईद 1948 में पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के सरगोधा में पैदा हुआ था. इस लिहाज से उसकी उम्र 69 साल है। तीस साल पहले 1987 में उसने अब्दुल्लाह आजम और जफर इकबाल के साथ मिल कर लश्कर-ए-तैयबा नाम से आतंकी संगठन बनाया था। वह तभी से भारत के खिलाफ साजिश रच रहा है और आतंकी वारदातों को अंजाम दे रहा है और उसे पाकिस्तानी सेना और आईएसआई पूरा समर्थन देते हैं।
मौलाना मसूद अजहर ने साल 2000 में हरकत-उल मुजाहिद्दीन से अलग होकर जैश ए-मोहम्मद बनाया. उसमें हरकत-उल-मुजाहिद्दीन के भी कई आतंकी शामिल हुए थे। इसी जैश ए-मोहम्मद ने भारतीय संसद पर हमला किया था और इसका मास्टर माइंड हाफिज सईद था। इसने 13 दिसंबर 2001 को भारतीय संसद पर हमला कराया था। तब पाकिस्तान ने उसे 21 दिसंबर 2001 को हिरासत में लिया, मगर महज चार माह बाद ही 31 मार्च 2002 को उसे रिहा कर दिया गया। करीब चार साल बाद 2006 में उसने मुंबई ट्रेन में धमाका कराया. पाकिस्तान ने उसे फिर 9 अगस्त 2006 को गिरफ्तार किया, मगर इस बार भी ज्यादा दिन उसे जेल में नहीं रख सका। लाहौर हाइकोर्ट में पाकिस्तानी सरकार उसकी गिरफतारी की ठोस वजह नहीं बता सका और महज 19 दिन बाद 28 अगस्त 2006 को उसे रिहा कर दिया गया। एक बात और लश्कर, हिजबुल, हरकत , ये सभी संगठन यूएन की सूची में आतंकी संगठन हैं लेकिन इनके बैंक खाते, गतिविधियां अलग-अलग नाम से पाकिस्तान में हैं।
हम केवल लफ्फाजी, नारों की दुनिया में जीते हैं , दसों साल से घोषित एक भी वैश्विक आतंकी को तो हम पकड़ नहीं पाए या उसका शिकार नहीं कर पाए , रामदेव जैसे बाबाओं का महंगा सामान बिकवाने के लिए चीन के खिलाफ दुष्प्रचार में पिचकारी पर गुस्सा निकाल रहे हैं, एक बात और चीन का जो माल हमारे देश में आता है, उस पर तो हमारे व्यापारी कि पूंजी लग चुकी, उस पर चीन अपना मुनाफ़ा खा चुका, ऐसे में इस माल के बहिष्कार का अर्थ अपने ही व्यापारी का नुक्सान करना है और यह सब कुछ कथित व्यापारी बाबाओं पर हो रहा है । क्यों न सवाल पूछा जाए कि जो पहले से ग्लोबल टेरोरिस्ट घोषित है उसकी मौत सुनिश्चित करने को क्या किया गया ?
चीन से अब माल आये ही न, इसके लिए सरकार आयात डयूटी  बढ़ाने, डंपिंग टैक्स लगाने और स्थानीय उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए क्या कर रहे हैं ? सरदार पटेल की प्रतिमा हो या देश भर में चल रहे ई रिक्शा(इसकी स्प्प्लाई चीन से एक केन्द्रीय मंत्री की कम्पनी की ही है ) या फिर योग दिवस की चटाईयां--- उन्हें थोक में चीन से मंगवा कर थोक में माल काटते समय देश-प्रेम कहीं गुम जाता है। आम भारतीय बाजिब दाम में पर्व-त्यौहार मना सकें , उस समय स्वदेशी प्रेम का प्रोपेगंडा करने वाले आखिर उस समय क्यों नहीं विरोध करते, सरदार पटेल के प्रतिमा बनने चीन जाती है।

सोमवार, 11 मार्च 2019

Aravai is shield guard against expansion of desert

कैसे रुके रेगिस्तान का विस्तार

अरावली 
पंकज चतुर्वेदी 
27 फरवरी को हरियाणा विधानसभा में जो हुआ वह पर्यावरण के प्रति सरकारों की संवेदनहीनता की बानगी है। बहाना बनाया गया कि महानगरों का विकास करना है, इसलिए करोड़ों वर्ष पुरानी ऐसी संरचना, जो रेगिस्तान के विस्तार को रोकने से लेकर जैवविविधता संरक्षण तक के लिए अनिवार्य है, को कंक्रीट का जंगल रोपने के लिए खुला छोड़ दिया गया। सनद रहे 1900 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने पंजाब लैंड प्रीजर्वेशन एक्ट (पीएलपीए) के जरिए अरावली के बड़े हिस्से में खनन एवं निर्माण जैसी गतिविधियों पर रोक लगा दी थी। 27 फरवरी को इसी एक्ट में हरियाणा विधानसभा ने ऐसा बदलाव किया कि अरावली पर्वतमाला की लगभग 60 हजार एकड़ जमीन शहरीकरण के लिए मुक्त कर दी गई। इसमें 16 हजार 930 एकड़ गुड़गांव और 10 हजार 445 एकड़ जमीन फरीदाबाद में आती है। अरावली की जमीन पर बिल्डरों की शुरू से ही गिद्ध दृष्टि रही है। हालांकि एक मार्च को पंजाब भूमि संरक्षण (हरियाणा संशोधन) अधिनियम, 2019 पर दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए हरियाणा विधान सभा के प्रस्ताव के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी। अभी आठ मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को चेताया है कि अरावली से छेड़छाड़ हुई तो खैर नहीं। 

गुजरात के खेड़ ब्रह्म से शुरू हो कर कोई 692 किमी. तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है, जहां राष्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुरानी मानी जाती है, और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में गिना गया है। असल में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे एक तो मरुभूमि का विस्तार नहीं हुआ और दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही। अरावली पर खनन से रोक का पहला आदेश 7 मई, 1992 को जारी किया गया। फिर 2003 में एमसी मेहता की जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई। कई-कई आदेश आते रहे लेकिन दिल्ली में ही अरावली पहाड़ को उजाड़ कर एक सांस्थानिक क्षेत्र, होटल, रक्षा मंत्रालय की बड़ी आवासीय कॉलोनी बना दी गई। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं। पिछले साल सितम्बर में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया था कि 48 घंटे में अरावली पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। दरअसल, राजस्थान के करीब 19 जिलों से होकर अरावली पर्वतमाला निकलती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदानें हैं, जिनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है, और उसका परिवहन दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर र्रिचड मरफी का सिद्धांत लागू था। इसके मुताबिक सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन को निषिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नये सिरे से व्याख्या की।
 फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है, उसे अरावली माना गया। इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है, जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए। मामला सुप्रीम कोर्ट में है। सुप्रीम कोर्ट फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के तीन डिग्री के सिद्धांत को मानता है, तो प्रदेश के 19 जिलों में खनन को तत्काल प्रभाव से बंद करना पड़ेगा। चिंताजनक तय है कि बीसवीं सदी के अंत में अरावली के 80 प्रतिशत हिस्से पर हरियाली थी, जो आज बामुश्किल सात फीसद रह गई। अरावली की प्राकृतिक संरचना नष्ट होने की ही त्रासदी है कि वहां से गुजरने वाली साहिबी, कृष्णावती, दोहन जैसी नदियां लुप्त हो रही हैं। वाइल्ड लाइफ इंस्टीटय़ूट की एक सव्रें रिपोर्ट बताती है कि जहां 1980 में अरावली क्षेत्र के महज 247 वर्ग किमी. पर आबादी थी, आज यह 638 वर्ग किमी. हो गई है। साथ ही, इसके 47 वर्ग किमी में कारखाने भी हैं। जाहिर है कि भले ही 7 मई,1992 को भारत सरकार और उसके बाद जनहित याचिका पर 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर खनन और इंसानी गतिविधियों पर पांबदी लगाई हो, लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ हुआ नहीं। जान लें कि अरावली का क्षरण नहीं रुका तो देश की राजधानी दिल्ली, देश को अन्न देने वाले राज्य हरियाणा और पंजाब में खेती पर संकट खड़ा हो जाएगा। 

शुक्रवार, 8 मार्च 2019

How noon river become sewer

अपने अस्तित्व को तड़पती नून नदी 
बुन्देलखण्ड का जल संकट और प्यास कुख्यात है लेकिन कई बार लगता है कि इस हालात के लिए यहा का समाज भी कम जिम्मेदार नहीं हैं , यह है उरई शहर के बीच से गुजरने वाली जलनिधि



. अभी तीन दशक पहले तक यह नून नदी थी जो आगे जा कर कालपी के करीब यमुना में मिलती है, अब उरई शहर में यह नूर नाला बन गयी, इसमें सारे शहर का गंदा पानी सीधे डाला जाता हैं , भले ही पानी के लिए त्राहि त्राहि हो लेकिन नदी कि ह्त्या करने पर किसी को कोई डर या संकोच नहीं 
अभी लौटा हूँ वहां से-- जल्द ही विस्तार से लिखूंगा.

रविवार, 3 मार्च 2019

when our 71 war hero come back?


अब तो लौट आएं हमारे लापता फौजी!


                    ... पंकज चतुर्वेदी

भले ही वह इमरान खान की अमन के लिए कदम हो या फिर भारत की सफल कूटनीति, भारत के विंग कमांडर अभिनंदन साठ घंटे में भारत लौटा लिए गए, लेकिन यह गौरतलब है कि यदि पाकिस्तान वास्तव में षाति की पहल कर रहा है या फिर भारत की सारी दुनिया में इतनी पकड़ है कि पाकिस्तान उसके सामने घुटने टेक रहा है, तो क्यों नहीं बीते 48 साल से पाकिस्तान की जेल में तिल-तिल मर रहे हमारे जाबांज सैनिकांे की वापिसी के लिए कोई कदम उठाया गया। कोई साढे तीन साल पहले एक सितंबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीष  आरएस लोढ़ा ने भी उन सैनिकों के मामले को अंतरराश्ट्रीय अदालत में ले जाने के निर्देया दिए थे लेकिन अभी तक उस पर अमल हुआ नहीं।

लगभग हर साल संसद में विदेष मंत्री बयान भी देते हैं कि पाकिस्तानी जेलों में आज भी सन 1971 के 54 युद्धबंदी सैनिक हैं, लेकिन कभी लोकसभा में प्रस्ताव या संकल्प पारित नहीं हुआ कि हमारे जाबांजों की सुरक्षित वापिसी के लिए सरकार कुछ करेगी। देष की नई पीढ़ी को तो षायद यह भी याद नहीं होगा कि 1971 में पाकिस्तान युद्ध में देष का इतिहास व विष्व का भूगोल बदलने वाले कई रणबांकुरे अभी भी पाकिस्तान की जेलों में नारकीय जीवन बिता रहे हैं । उन जवानों के परिवारजन अपने लेागों के जिंदा होने के सबूत देते हैं, लेकिन भारत सरकार महज औपचारिकता निभाने से अधिक कुछ नहीं करती है । इस बीच ऐसे फौजियों की जिंदगी पर बालीवुड में कई फिल्में बन गई हैं और उन्हें दर्षकों ने सराहा भी । लेकिन वे नाम अभी भी गुमनामी के अंधेरे में हैं जिन्हें ना तो षहीद माना जा सकता है और ना ही गुमषुदा ।

उम्मीद के हर कतरे की आस में तिल-दर-तिल घुलते इन जवानों के परिवारजनए अब लिखा-पढ़ी करके थक गए हैं । दिल मानता नहीं हैं कि उनके अपने भारत की रक्षा वेदी पर शहीद हो गए हैं । 1971 के युð के दौरान जिन 54 फौजियों के पाकिस्तानी गुनाहखानों में होने के दावे हमारे देशवासी करते रहे हैं ,उनमें से 40 का पुख्ता विवरण उपलब्ध हैं । इनमें 6-मेजर, 1-कमाडंर, 2-फ्लाईंग आफिसर, 5-कैप्टन, 15-फ्लाईट लेफ्टिनेंट, 1-सेकंड फ्ला.लेफ्टि, 3-स्कावर्डन लीडर, 1-नेवी पालयट कमांडर, 3-लांसनायक, और 3-सिपाही हैं ।
एक लापता फौजी मेजर अशोक कुमार सूरी के पिता डा. आरएलएस सूरी के पास तो कई पक्के प्रमाण हैं, जो उनके बेटे के पाकिस्तानी जेल में होने की कहानी कहते हैं । डा. सूरी को 1974 व 1975 में  उनके बेटे के दो पत्र मिले, जिसमें उसने 20 अन्य भारतीय फौजी अफसरों के साथ, पाकिस्तान जेल में होने की बात लिखी थी । पत्रों का बाकायदा ‘‘हस्तलिपि परीक्षण’’ करवाया गया और यह सिद्ध भी हुआ कि यह लेखनी मेजर सूरी की ही है।1979 में डा. सूरी को किसी अंजान ने फोन करके बताया कि उनके पुत्र को पाकिस्तान में उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेश की किसी भूमिगत जेल में भेज दिया गया है । मेजर सूरी सिर्फ 25 साल की उम्र में ही गुम होने का किस्सा बन गए ।
पाकिस्तान जेल में कई महीनों तक रहने के बाद लौटे एक भारतीय जासूस मोहन लाल भास्कर ने, लापता विंग कमाडंर एचएस गिल को एक पाक जेल में देखने का दावा किया था । लापता फ्लाईट लैफ्टिनेंट वीवी तांबे को पाकिस्तानी फौज द्वारा जिंदा पकड़ने की खबर, ‘संडे पाकिस्तान आब़जर्वर’ के पांच दिसंबर 1971 के अंक में छपी थी । वीर तंाबे का विवाह बेडमिंटन की राष्ट्ीय चेंपियन रहीं दमयंती से हुआ था । शादी के मात्र डेढ़ साल बाद ही लड़ाई छिड़ गई थी । सेकंड लेफ्टिनेंट सुधीर मोहन सब्बरवाल जब लड़ाई के लिए घर से निकले थे, तब मात्र 23 साल उम्र के थे । केप्टर रवीन्द्र कौरा को अदभ्य शौर्य प्रदर्शन के लिए सरकार ने ‘वीर चक्र’ से सम्मानित किया था, लेकिन वे अब किस हाल में और कहां हैं, इसका जवाब देने में सरकार असफल रही है । ।
पाकिस्तान के मरहूम प्रधानमंत्री जुल्फकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के तथ्यों पर छपी एक किताब भारतीय युद्धवीरों के पाक जेल में होने का पुख्ता सबूत मानी जा सकती है । बीबीसी संवाददाता विक्टोरिया शोफील्ड की किताब ‘भुट्टो: ट्रायल एंड एक्सीक्यूशन’ के पेज 59 पर भुट्टो को फांसी पर लटकाने से पहले कोट लखपतराय जेल लाहौर में रखे जाने का जिक्र है । किताब में लिखा है कि भुट्टो को पास की बैरक से हृदयविदारक चीख पुकार सुनने को मिलती थीं । भुट्टो के एक वकील ने पता किया था कि वहां 1971 के भारतीय युद्ध बंदी है । जो लगातार उत्पीड़न के कारण मानसिक  विक्षिप्त हो गए थे ।
कई बार लगता है कि इन युद्धवीरों की वापिसी के मसले को सरकार भूल ही गई हैं । यहां पता चलता है कि युद्ध बाबत संयुक्त राष्ट् संघ के निर्धारित कायदे कानून महज कागजी दस्तावेज हैं । इनका क्रियान्वयन से कोई वास्ता नहीं है । संयुक्त राष्ट् के विएना समझौते में साफ जिक्र है कि युद्ध के पश्चात, रेड़क्रास की देखरेख में तत्काल सैनिक अपने-अपने देश भेज दिए जाएंगे । दोनों देश आपसी सहमति से किसी तीसरे देश को इस निगरानी के लिए नियुक्त कर सकते हैं । इस समझौते में सैनिक बंदियों पर क्रूरता बरतने पर कड़ी पाबंदी है । लेकिन भारत-पाक के मसले में यह कायदा-कानून कहीं दूर-दूर तक नहीं दिखा । 1972 में अतंर्राष्ट्ीय रेडक्रास ने भारतीय युद्ध बंदियों की तीन लिस्ट जारी करने की बात कही थी । लेकिन सिर्फ दो सूची ही जारी की र्गइं । एक गुमशुदा फ्लाईग आफ्सिर सुधीर त्यागी के पिता आरएस त्यागी का दावा है कि उन्हें खबर मिली थी कि तीसरी सूची में उनके बेटे का नाम था । लेकिन वो सूची अचानक नदारत हो गई ।
भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि हमारी फौज के कई जवान पाक जेलों में नारकीय जीवन भोग रहे हैं । उन्हें शारीरिक यातनाएं दी जा रही हैं । करनाल के करीम बख्श और पंजाब के जागीर सिंह का पाक जेलों में लंबी बीमारी व पागलपन के कारण निधन हो गया । 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान द्वारा युद्ध बंदी बनाया गया सिपाही धर्मवीर 1981 में जब वापिस आया तो पता लगा कि यातनाओं के कारण उसका मानसिक संतुलन पूरी तरह बिगड़ गया है । सरकार का दावा है कि कुछ युद्ध बंदी कोट लखपतराय लाहौर, फैसलाबाद, मुलतान, मियांवाली और बहावलपुर जेल में है । पर दावों पर राजनीति के दांव पंेच हावी हैं ।
भारत की सरकार लापता फौजियों के परिवारजनों को सिर्फ आस दिए हैं कि उनके बेटे-भाई जीवित हैं । लेकिन कहां है किस हाल में हैं ? कब व कैसे वापिस आएंगे ? इसकी चिंता ना तो हमारे राजनेताओं को है और ना ही आला फौजी अफसरों को । काश 1971 की लड़ाई जीतने के बाद भारत ने पाकिस्तान के 93,000 बंदियों को रिहा करने से पहले अपने एक-एक आदमी को वापिस लिया होता । पूरे पांच साल तक प्रधानमंत्री रहे पीवी नरसिंहराव भी भूल चुके थे कि उन्होंने जून 90 में बतौर विदेश मंत्री एक वादा किया था कि सरकार अपने बहादुर सैनिक अधिकारियों को वापिस लाने के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं । लेकिन देश के सर्वोच्च पद पर रहने के दौरान अपनी कुर्सी बचाने के लिए हर कीमत चुकाने की व्यस्तता में उन्हें सैनिक परिवारों के आंसूओं की नमी का एहसास तक नहीं हुआ। अपने परिवारजनों को वापिस लाने के लिए प्रतिबद्ध संगठन के लोग सन 2007 में रक्षा मंत्री ए के एंटोनी से मिले थे और उन्हें आष्वासन दिया गया था विषेश कमेटी बना कर लापता फौजियों की तलाष की जाएगी। सरकारे बदल गई लेकिन कोई कमेटी बन नहीं पाई।
काष! देष पर मर मिटने वालों का चैहरा, मीडिया में बिकता होता तो इस मसले पर दिन-रात चिल्ला-चोहट होती रहती।

  पंकज चतुर्वेदी
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traffic jam in Delhi : stress. pollution and health

जाम और प्रदूषण की दोहरी चुनौती


दक्षिणी दिल्ली में रिंग रोड पर व्यस्त समय में वाहनों की गति औसतन पांच से आठ किमी रहती है। कहने को यहां पूरे इलाके में फ्लाई ओवर हैं, कहीं पर कोई लाल बत्ती नहीं हैं, ताकि यातायात निर्बाध रूप से तेजी से पूरी गति में भागता रहे, लेकिन जाम हर दिन बढ़ता ही जा रहा है। यहीं पर एम्स यानी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान समेत सफदरजंग अस्पताल और ट्रॉमा सेंटर जैसे तीन बड़े अस्पताल हैं जहां हर दिन हजारों लोग इलाज के लिए आते हैं। इस पूरे परिवेश में वाहनों के धुएं ने सांस लेने लायक साफ हवा का कतरा भी नहीं छोड़ा है।
दिल्ली के सबसे अधिक जहरीली हवा वाले इलाकों में से आनंद विहार एक है। यहां रेलवे स्टेशन व अंतरराज्यीय बस अड्डा के साथ ठीक सामने उत्तर प्रदेश सरकार का बस डिपो भी है। इस पूरे इलाके में भी अधिकांश समय जाम लगा रहता है। दिल्ली में लगभग 300 ऐसे स्थान हैं जहां जाम एक स्थाई समस्या है। इनमें कई स्थान तो वे मेट्रो स्टेशन भी हैं जिन्हें जाम खत्म करने के लिए बनाया गया था, लेकिन इनके आसपास बैट्री रिक्शा व ऑटो रिक्शा आदि के बेतरतीब पार्किंग से आधी सड़क पर इनका कब्जा रहता है। साथ ही अनियमित तरीके से सड़कों पर इनके परिचालन से भी कई मेट्रो स्टेशनों के आसपास की पूरी यातायात व्यवस्था दम तोड़ती नजर आती है। फ्लाई ओवर, अंडर पास, मेट्रो आदि के बावजूद जाम का झाम दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है।
लगता है कि अब प्रशासन को अदालतों की परवाह भी नहीं रह गई है। कोई दो साल पहले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानी एनजीटी ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया था कि राजधानी की सड़कों पर जाम न लगे, यह सुनिश्चित किया जाए। एनजीटी के तत्कालीन अध्यक्ष स्वतंत्र कुमार की पीठ ने दिल्ली यातायात पुलिस को कहा था कि यातायात धीमा होने से हर रोज तीन लाख लीटर ईंधन जाया होता है, जिससे हवा भी प्रदूषित हो रही है। इसमें गौर करने लायक एक तथ्य और भी है कि अपनी जरूरत का करीब दो तिहाई पेट्रोल, डीजल आदि आयात करने वाला देश कितनी रकम इसकी खरीद पर चुकाता है। यदि जाम का समुचित समाधान किया जाए तो इस बड़ी रकम को विदेश जाने से भी निश्चित तौर पर बचाया जा सकता है।
निजी वाहनों को दिया गया बढ़ावा
यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आगामी दशक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सड़कों पर बेवजह घंटों फंसे लोग मानसिक रूप से भी बीमार हो रहे हैं व उसकी परिणति के रूप में आए रोज सड़कों पर ‘रोड रेज’ के तौर पर बहता खून दिखता है।
बीते दो दशकों के दौरान देश में ऑटोमोबाइल उद्योग ने बेहद तरक्की की है और साथ ही बेहतर सड़कों के जाल ने परिवहन को काफी बढ़ावा दिया है। यह किसी विकासशील देश की प्रगति के लिए अनिवार्य भी है कि वहां संचार व परिवहन की पहुंच आम लोगों तक हो। विडंबना है कि हमारे यहां बीते इन्हीं सालों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की उपेक्षा हुई व निजी वाहनों को बढ़ावा दिया गया। रही-सही कसर बैंकों के आसान कर्ज ने पूरी कर दी और अब इंसान दो कदम पैदल चलने के बनिस्पत वाहन लेने में संकोच नहीं करता है।
लगभग चार लाख बैट्री रिक्शा
लगता है कि अभी तक सरकार तय नहीं कर पाई है कि वह आम लोगों के लिए सुगम, सहज और सस्ता परिवहन मुहैया करवाना चाहती है या फिर आटोमोबाइल उद्योग को मदद करना चाहती है। चौड़ी और बेहतरीन सड़कों व फ्लाई ओवर का निर्माण तेज व सुगम यातायात के लिए किया जा रहा है या फिर बढ़ते वाहनों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए? हम राजधानी में भीड़ कम करना चाहते हैं या फिर बेहिसाब भीड़ को आने का अवसर दे कर उनसे निबटने की कवायद करना चाहते हैं? एक तरफ चौड़ी सड़कें बन रही हैं तो दूसरी ओर कम गति के वाहन साइकिल और बैट्री रिक्शा किसी के एजेंडा में ही नहीं है। सनद रहे कि राजधानी में कोई चार लाख बैट्री रिक्शे हैं जिन पर हर रोज करीब 40 लाख लोग सफर करते हैं। इसके बावजूद न तो रिक्शे के लाइसेंस को कोई पूछता है और न ही चलाने वाले का कोई लाइसेंस है। कहने को कई सड़कों पर रिक्शों पर पाबंदी है, लेकिन वे बेरोकटोक चलते हैं। लाखों लोगों को ढोने वाले इन रिक्शों का कोई स्टैंड नहीं है। रात में इन पर रोशनी अनिवार्य हो या फिर बाएं-दाएं मुड़ने के कोई निशान या फिर रिक्शा चलाने की कोई शारीरिक स्वस्थता का दायरा, कुछ भी तय नहीं है।
अनियमित यातायात व्यवस्था
सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है लुटियन दिल्ली में कहीं भी वाहनों की सड़क पर पार्किंग गैरकानूनी है, लेकिन सबसे ज्यादा सड़क घेर कर वाहन खड़ा करने का काम कई प्रमुख जगहों पर होता है। जाहिर है कि जो सड़क वाहन चलने को बनाई गई उसके बड़े हिस्से में बाधा होगी तो यातायात प्रभावित होगा ही। दिल्ली में सड़क निर्माण व सार्वजनिक बस स्टॉप की योजनाएं भी गैर नियोजित हंै। फ्लाई ओवर से नीचे उतरते ही बने बस स्टॉप जमकर जाम करते हैं। वहीं कई जगह तो निर्बाध परिवहन के लिए बने फ्लाई ओवर पर ही बसें खड़ी रहती हैं। बगैर पंजीयन के, क्षमता से अधिक सवारी लादे बैट्री रिक्शे गलत दिशा में चलने पर कतई नहीं डरते और इससे वाहनों की गति थमती है। यातायात जाम का बड़ा कारण सड़कों की त्रुटिपूर्ण डिजाइन भी होता है जिसके चलते थोड़ी सी बारिश में जलभराव हो जाता है। बारिश के समय तो यह समस्या आम हो जाती है। पूरे देश में सड़कों पर अवैध और ओवरलोड वाहनों पर तो जैसे अब कोई रोक है ही नहीं। पुराने स्कूटर को तीन पहिये लगा कर बच्चों को स्कूल पुहंचाने से ले कर मालवाहक बना लेने या फिर स्कूटर पर लोहे की बड़ी बॉडी कसवा कर अंधाधुंध माल भरने, तीन सवारी की क्षमता वाले ऑटो में आठ सवारी व जीप में 25 तक सवारी लादने, फिर सड़क पर अंधाधुंध चलने जैसी गैरकानूनी हरकतें स्थानीय पुलिस के लिए ‘सोने की मुरगी’ बन गए हैं। मिलावटी ईंधन, घटिया ऑटो पार्ट्स भी वाहनों से निकले धुएं के जहर का कई गुना कर रहे हैं। वाहन सीएनजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा होगा।
बीजिंग से सीखा जा सकता है बहुत कुछ
बीजिंग दिल्ली एनसीआर से बड़ा इलाका है- लगभग 16,800 वर्ग किमी, आबादी भी दो करोड़ के करीब पहुंच गई है। सड़कों पर कोई 47 लाख वाहन सूरज चढ़ते ही आ जाते हैं और कई सड़कों पर दिल्ली-मुंबई की ही तरह ट्रैफिक रेंगता दिखता है, हां जाम नहीं होता। बावजूद इसके हजारों-हजार साइकिल और इलेक्टिक मोपेड वाले सड़कों पर सहजता से चलते हैं। एक तो लेन में चलना वहां की आदत है, दूसरा सड़कों पर या तो कार दिखती हैं या फिर बसें। रेहड़ी, रिक्शा, छोटे मालवाहक कहीं नहीं दिखते हैं, उनके लिए इलाके तय हैं। इतना सबकुछ होते हुए भी किसी रेड लाइट पर यातायात पुलिस वाला नहीं दिखता। ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि बेहद कम दूरी पर सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और सड़कों पर घूमने के बनिस्पत यातायात कर्मी कहीं बैठ कर देखते रहते हैं। यहां अधिकांश चालक लेन-ड्राईविंग का पालन करते हैं। दिल्ली में कुछ किलोमीटर का बीआरटी कोरीडोर कामयाब नहीं हो पाया। काश बीजिंग गए हमारे नेता वहां की बसों को देख करे आते। बीजिंग में करीब 800 रूटों पर बसें चलती हैं, कुछ बसें तो दो केबिन को जोड़ कर बनाई हुई यानी हमारी लोफ्लोर बस से दोगुनी बड़ी। पुराने बीजिंग में जहां सड़कों को चौड़ा करना संभव नहीं था, वहां भी अनूठे किस्म की व्यवस्था की गई है। इसके लिए कोई अलग से लेन तैयार नहीं की गई हैं। यदि बीआरटी, मेट्रो, मोनो रेल पर इतना धन खर्च करने के बनिस्पत केवल बसों को सही तरीके से चलाने पर विचार किया होता तो हमारे शहर ज्यादा सहजता से चलते दिखते। यदि किसी यातायात विशेषज्ञ ने वहां की बस-व्यवस्था को देख लिया होता तो हम कम खर्चे में बेहतर सार्वजनिक परिवहन दे सकते थे।
सार्वजनिक परिवहन में अव्वल है अबुधाबी
संयुक्त अरब अमीरात के छोटे से मुल्क अबुधाबी की आबादी हमारे किसी जिला मुख्यालय जितना ही है। यह भी सही है कि उसका भौगोलिक क्षेत्रफल भी अधिक नहीं है, लेकिन कंप्यूटर के दौर में यदि हम कोई अच्छी योजना को लागू करना चाहें तो आबादी या क्षेत्रफल की बातें बेमानी होती हैं। देश की राजधानी दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन कितना सहज-सरल है, इसकी बानगी किसी भी बस स्टैंड पर मिल जाती है। कानून कड़े हैं और उनका क्रियान्वयन बेहद कड़ा है, सो पूरी दुनिया के पर्यटकों व व्यापारियों के आगमन के स्थल अबुधाबी में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था बेहद सहज, सरल व पारदर्शी है। अबुधाबी में सार्वजनिक परिवहन की दो ही व्यवस्था है, बस या फिर टैक्सी। यहां बस बेहद सस्ती है। दो दिरहम में शहर में कहीं भी जा सकते हैं। यदि अबुधाबी से दुबई जाना हो तो बुर्ज खलीफा तक का टैक्सी का बिल कम से कम 270 दिरहम होगा, जबकि बस महज 25 दिरहम में पहुंचा देगी। अबुधाबी में टैक्सी परिवहन सबसे सरल है। वहां की सड़कों को भी समझना जरूरी है। लोगों के पास बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं जो 100 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार में चलती हैं। रेत होने के बावजूद सड़क पर न तों गंदगी मिलेगी और न ही बेसहारा पशु। जहां से पैदल वालों के लिए सड़क पार करने का रास्ता है वहां बड़े पत्थर होते हैं। खाली सड़क पर भी पैदल निकलने वालों के लिए वाहन रुक जाते हैं। यह कानून तोड़ने पर कड़ा जुर्माना होता है। हालांकि वहां ऐसा महज गलती से ही होता है, जानबूझ कर कोई ऐसा करता नहीं। शहर की टैक्सी व्यवस्था शानदार, सुरक्षित है। यहां ड्राइविंग लाईसेंस पाना तो कठिन है ही, उससे भी जटिल है टैक्सी चलाने का परमिट पाना।

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...