जाम और प्रदूषण की दोहरी चुनौती
दिल्ली के सबसे अधिक जहरीली हवा वाले इलाकों में से आनंद विहार एक है। यहां रेलवे स्टेशन व अंतरराज्यीय बस अड्डा के साथ ठीक सामने उत्तर प्रदेश सरकार का बस डिपो भी है। इस पूरे इलाके में भी अधिकांश समय जाम लगा रहता है। दिल्ली में लगभग 300 ऐसे स्थान हैं जहां जाम एक स्थाई समस्या है। इनमें कई स्थान तो वे मेट्रो स्टेशन भी हैं जिन्हें जाम खत्म करने के लिए बनाया गया था, लेकिन इनके आसपास बैट्री रिक्शा व ऑटो रिक्शा आदि के बेतरतीब पार्किंग से आधी सड़क पर इनका कब्जा रहता है। साथ ही अनियमित तरीके से सड़कों पर इनके परिचालन से भी कई मेट्रो स्टेशनों के आसपास की पूरी यातायात व्यवस्था दम तोड़ती नजर आती है। फ्लाई ओवर, अंडर पास, मेट्रो आदि के बावजूद जाम का झाम दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है।
लगता है कि अब प्रशासन को अदालतों की परवाह भी नहीं रह गई है। कोई दो साल पहले राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण यानी एनजीटी ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया था कि राजधानी की सड़कों पर जाम न लगे, यह सुनिश्चित किया जाए। एनजीटी के तत्कालीन अध्यक्ष स्वतंत्र कुमार की पीठ ने दिल्ली यातायात पुलिस को कहा था कि यातायात धीमा होने से हर रोज तीन लाख लीटर ईंधन जाया होता है, जिससे हवा भी प्रदूषित हो रही है। इसमें गौर करने लायक एक तथ्य और भी है कि अपनी जरूरत का करीब दो तिहाई पेट्रोल, डीजल आदि आयात करने वाला देश कितनी रकम इसकी खरीद पर चुकाता है। यदि जाम का समुचित समाधान किया जाए तो इस बड़ी रकम को विदेश जाने से भी निश्चित तौर पर बचाया जा सकता है।
निजी वाहनों को दिया गया बढ़ावा
यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आगामी दशक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सड़कों पर बेवजह घंटों फंसे लोग मानसिक रूप से भी बीमार हो रहे हैं व उसकी परिणति के रूप में आए रोज सड़कों पर ‘रोड रेज’ के तौर पर बहता खून दिखता है।
बीते दो दशकों के दौरान देश में ऑटोमोबाइल उद्योग ने बेहद तरक्की की है और साथ ही बेहतर सड़कों के जाल ने परिवहन को काफी बढ़ावा दिया है। यह किसी विकासशील देश की प्रगति के लिए अनिवार्य भी है कि वहां संचार व परिवहन की पहुंच आम लोगों तक हो। विडंबना है कि हमारे यहां बीते इन्हीं सालों में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था की उपेक्षा हुई व निजी वाहनों को बढ़ावा दिया गया। रही-सही कसर बैंकों के आसान कर्ज ने पूरी कर दी और अब इंसान दो कदम पैदल चलने के बनिस्पत वाहन लेने में संकोच नहीं करता है।
लगभग चार लाख बैट्री रिक्शा
लगता है कि अभी तक सरकार तय नहीं कर पाई है कि वह आम लोगों के लिए सुगम, सहज और सस्ता परिवहन मुहैया करवाना चाहती है या फिर आटोमोबाइल उद्योग को मदद करना चाहती है। चौड़ी और बेहतरीन सड़कों व फ्लाई ओवर का निर्माण तेज व सुगम यातायात के लिए किया जा रहा है या फिर बढ़ते वाहनों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए? हम राजधानी में भीड़ कम करना चाहते हैं या फिर बेहिसाब भीड़ को आने का अवसर दे कर उनसे निबटने की कवायद करना चाहते हैं? एक तरफ चौड़ी सड़कें बन रही हैं तो दूसरी ओर कम गति के वाहन साइकिल और बैट्री रिक्शा किसी के एजेंडा में ही नहीं है। सनद रहे कि राजधानी में कोई चार लाख बैट्री रिक्शे हैं जिन पर हर रोज करीब 40 लाख लोग सफर करते हैं। इसके बावजूद न तो रिक्शे के लाइसेंस को कोई पूछता है और न ही चलाने वाले का कोई लाइसेंस है। कहने को कई सड़कों पर रिक्शों पर पाबंदी है, लेकिन वे बेरोकटोक चलते हैं। लाखों लोगों को ढोने वाले इन रिक्शों का कोई स्टैंड नहीं है। रात में इन पर रोशनी अनिवार्य हो या फिर बाएं-दाएं मुड़ने के कोई निशान या फिर रिक्शा चलाने की कोई शारीरिक स्वस्थता का दायरा, कुछ भी तय नहीं है।
अनियमित यातायात व्यवस्था
सुप्रीम कोर्ट पहले ही कह चुका है लुटियन दिल्ली में कहीं भी वाहनों की सड़क पर पार्किंग गैरकानूनी है, लेकिन सबसे ज्यादा सड़क घेर कर वाहन खड़ा करने का काम कई प्रमुख जगहों पर होता है। जाहिर है कि जो सड़क वाहन चलने को बनाई गई उसके बड़े हिस्से में बाधा होगी तो यातायात प्रभावित होगा ही। दिल्ली में सड़क निर्माण व सार्वजनिक बस स्टॉप की योजनाएं भी गैर नियोजित हंै। फ्लाई ओवर से नीचे उतरते ही बने बस स्टॉप जमकर जाम करते हैं। वहीं कई जगह तो निर्बाध परिवहन के लिए बने फ्लाई ओवर पर ही बसें खड़ी रहती हैं। बगैर पंजीयन के, क्षमता से अधिक सवारी लादे बैट्री रिक्शे गलत दिशा में चलने पर कतई नहीं डरते और इससे वाहनों की गति थमती है। यातायात जाम का बड़ा कारण सड़कों की त्रुटिपूर्ण डिजाइन भी होता है जिसके चलते थोड़ी सी बारिश में जलभराव हो जाता है। बारिश के समय तो यह समस्या आम हो जाती है। पूरे देश में सड़कों पर अवैध और ओवरलोड वाहनों पर तो जैसे अब कोई रोक है ही नहीं। पुराने स्कूटर को तीन पहिये लगा कर बच्चों को स्कूल पुहंचाने से ले कर मालवाहक बना लेने या फिर स्कूटर पर लोहे की बड़ी बॉडी कसवा कर अंधाधुंध माल भरने, तीन सवारी की क्षमता वाले ऑटो में आठ सवारी व जीप में 25 तक सवारी लादने, फिर सड़क पर अंधाधुंध चलने जैसी गैरकानूनी हरकतें स्थानीय पुलिस के लिए ‘सोने की मुरगी’ बन गए हैं। मिलावटी ईंधन, घटिया ऑटो पार्ट्स भी वाहनों से निकले धुएं के जहर का कई गुना कर रहे हैं। वाहन सीएनजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआं जानलेवा होगा।
बीजिंग दिल्ली एनसीआर से बड़ा इलाका है- लगभग 16,800 वर्ग किमी, आबादी भी दो करोड़ के करीब पहुंच गई है। सड़कों पर कोई 47 लाख वाहन सूरज चढ़ते ही आ जाते हैं और कई सड़कों पर दिल्ली-मुंबई की ही तरह ट्रैफिक रेंगता दिखता है, हां जाम नहीं होता। बावजूद इसके हजारों-हजार साइकिल और इलेक्टिक मोपेड वाले सड़कों पर सहजता से चलते हैं। एक तो लेन में चलना वहां की आदत है, दूसरा सड़कों पर या तो कार दिखती हैं या फिर बसें। रेहड़ी, रिक्शा, छोटे मालवाहक कहीं नहीं दिखते हैं, उनके लिए इलाके तय हैं। इतना सबकुछ होते हुए भी किसी रेड लाइट पर यातायात पुलिस वाला नहीं दिखता। ध्यान से देखेंगे तो पता चलेगा कि बेहद कम दूरी पर सीसीटीवी कैमरे लगे हैं और सड़कों पर घूमने के बनिस्पत यातायात कर्मी कहीं बैठ कर देखते रहते हैं। यहां अधिकांश चालक लेन-ड्राईविंग का पालन करते हैं। दिल्ली में कुछ किलोमीटर का बीआरटी कोरीडोर कामयाब नहीं हो पाया। काश बीजिंग गए हमारे नेता वहां की बसों को देख करे आते। बीजिंग में करीब 800 रूटों पर बसें चलती हैं, कुछ बसें तो दो केबिन को जोड़ कर बनाई हुई यानी हमारी लोफ्लोर बस से दोगुनी बड़ी। पुराने बीजिंग में जहां सड़कों को चौड़ा करना संभव नहीं था, वहां भी अनूठे किस्म की व्यवस्था की गई है। इसके लिए कोई अलग से लेन तैयार नहीं की गई हैं। यदि बीआरटी, मेट्रो, मोनो रेल पर इतना धन खर्च करने के बनिस्पत केवल बसों को सही तरीके से चलाने पर विचार किया होता तो हमारे शहर ज्यादा सहजता से चलते दिखते। यदि किसी यातायात विशेषज्ञ ने वहां की बस-व्यवस्था को देख लिया होता तो हम कम खर्चे में बेहतर सार्वजनिक परिवहन दे सकते थे।
संयुक्त अरब अमीरात के छोटे से मुल्क अबुधाबी की आबादी हमारे किसी जिला मुख्यालय जितना ही है। यह भी सही है कि उसका भौगोलिक क्षेत्रफल भी अधिक नहीं है, लेकिन कंप्यूटर के दौर में यदि हम कोई अच्छी योजना को लागू करना चाहें तो आबादी या क्षेत्रफल की बातें बेमानी होती हैं। देश की राजधानी दिल्ली में सार्वजनिक परिवहन कितना सहज-सरल है, इसकी बानगी किसी भी बस स्टैंड पर मिल जाती है। कानून कड़े हैं और उनका क्रियान्वयन बेहद कड़ा है, सो पूरी दुनिया के पर्यटकों व व्यापारियों के आगमन के स्थल अबुधाबी में सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था बेहद सहज, सरल व पारदर्शी है। अबुधाबी में सार्वजनिक परिवहन की दो ही व्यवस्था है, बस या फिर टैक्सी। यहां बस बेहद सस्ती है। दो दिरहम में शहर में कहीं भी जा सकते हैं। यदि अबुधाबी से दुबई जाना हो तो बुर्ज खलीफा तक का टैक्सी का बिल कम से कम 270 दिरहम होगा, जबकि बस महज 25 दिरहम में पहुंचा देगी। अबुधाबी में टैक्सी परिवहन सबसे सरल है। वहां की सड़कों को भी समझना जरूरी है। लोगों के पास बड़ी-बड़ी गाड़ियां हैं जो 100 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार में चलती हैं। रेत होने के बावजूद सड़क पर न तों गंदगी मिलेगी और न ही बेसहारा पशु। जहां से पैदल वालों के लिए सड़क पार करने का रास्ता है वहां बड़े पत्थर होते हैं। खाली सड़क पर भी पैदल निकलने वालों के लिए वाहन रुक जाते हैं। यह कानून तोड़ने पर कड़ा जुर्माना होता है। हालांकि वहां ऐसा महज गलती से ही होता है, जानबूझ कर कोई ऐसा करता नहीं। शहर की टैक्सी व्यवस्था शानदार, सुरक्षित है। यहां ड्राइविंग लाईसेंस पाना तो कठिन है ही, उससे भी जटिल है टैक्सी चलाने का परमिट पाना।
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