My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 28 फ़रवरी 2024

late snow fall impact on country

 

“चिल्ला बच्चा” में “चिल्ला कलाँ” के क्या मायने  हैं ?



पंकज चतुर्वेदी

इस साल का जनवरी महीना कश्मीर के लिए अभी तक का सबसे गरम रहा। वहीं फरवरी जाते-जाते इस राज्य को बर्फ की घनी चादर में लपेट चुकी है । मौसम विभाग के माने तो  फरवरी के आखिरी दिनों में फिर से जम कर बर्फबारी होगी ।  23 फरवरी की रात गुलमार्ग में शून्य से 10.4 और पहलगांम  में 8.6 डिग्री नीचे तापमान वाली रही। धरती के स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर में क्या देर से हुई बर्फबारी महज एक असामान्य घटना है या फिर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का संकेत ? यह बात गौर करने की है कि बीते कुछ सालों में कश्मीर  लगातार असामान्य और चरम मौसम की चपेट में है। अभी 21 फरवरी को गुलमार्ग में बर्फीले तूफान का आना भी चौंकाने वाला है ।  जान लें  देर से हुई बर्फबारी से राहत तो है लेकिन इससे उपजे खतरे भी हैं ।


कश्मीर घाटी को सुंदर , हरा भरा , जलनिधियों से परिपूर्ण और वहाँ के वाशिंदों के लिए जीवकोपार्जन का मूल आधार है – जाड़े का मौसम । यहाँ जाड़े के कुल  70 दिन गिने जाते हैं । 21 दिसंबर से 31 जनवरी तक “ चिल्ला – ए –कलाँ “ यानि शून्य से कई डिग्री नीचे वाली ठंड । इस बार यह  45 दिनों का  समय बिल्कुल शून्य बर्फबारी का रहा । उसके बाद बीस दिन का “चिल्ला-ए – खुर्द” अर्थात छोटा जाड़ा  , यह होता है -31 जनवरी से 20 फरवरी। इस दौर में बर्फ शुरू हुई लेकिन उतनी नहीं जीतने अपेक्षित है । और उसके बाद 20 फरवरी से 02 मार्च  तक बच्चा जाड़ा  यानि “चिल्ला ए बच्चा “।  इस बार बर्फबारी इस समय में हो रही है ।



सत्तर दिन की बर्फबारी 15 दिन में सिमटने से दिसंबर और जनवरी में हुई लगभग 80-90 प्रतिशत कम बर्फबारी  की भरपाई तो हो नहीं सकती । उसके बाद गर्मी शुरू हो जाने से साफ जाहिर है कि जो थोड़ी सी बर्फ पहाड़ों पर आई है , वह जल्दी ही पिघल जाएगी । अर्थात आने वाले दिनों में एक तो ग्लेशियर पर निर्भर नदियों में अचानक बाढ़ या आसक्ति है और फिर अप्रेल में गर्मी आते-आते वहाँ पानी का अकाल हो सकता है ।

भारत में हिमालयी क्षेत्र का फैलाव 13 राज्यों व  केंद्र शासित प्रदेशों (अर्थात् जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल) में है, जो लगभग 2500 किलोमीटर। भारत के मुकुट कहे जाने वाले हिमाच्छादित पर्वतमाला की गोदी में कोई पाँच करोड़ लोग  सदियों से रह रहे हैं । चूंकि यह क्षेत्र अधिकांश भारत के लिए पानी उपलब्ध करवाने वाली नदियों का उद्गम है , साथ ही यहाँ के ग्लेशियर  धरती के गरम होने को नियंत्रित करते हैं, सो  जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से यह सबसे अधिक संवेदनशील है ।

जलवायु परिवर्तन की मार से सर्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के पहाड़ जैसे अब अपना संयम खो रहे हैं -देश को सदानीरा गंगा-यमुना जैसे नदिया देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने की कगार पर हैं। इस सर्दी में हिमालय, हिंदू कुश और काराकोरम में बर्फबारी की असामान्य अनुपस्थिति के चलते गर्म तापमान रहा  है। चरम ला नीना-अल नीनो स्थितियों और पश्चिमी विक्षोभ मौसम इस तरह असामान्य रहा । जलवायु संकट के प्रतीक ये बदलाव पर्वतीय समुदायों और हिंदूकुश-हिमालयी क्षेत्र में जल सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा करते हैं। यह समझना होगा कि सर्दियों में कम बर्फबारी का कारण  अल नीनो नहीं है। अल- नीनो के कारण केवल गर्मियों और मानसून की बारिश प्रभावित होती  है।  महज एक या दो साल बर्फ रहित सर्दी का जिम्मेदार   'जलवायु परिवर्तन' को ठहरना भी जल्दबाजी होगा। यह अभी वैज्ञानिक कसौटी पर सिद्ध होना बाकी है ।   विदि त हो कि पहाड़ों पर रहने वाले लोग आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं । वे अपना निर्वाह खेती और पशुधन पालन से करते हैं । उनके खेत छोटे होते हैं। लगभग बर्फ रहित या देर से सर्दी का प्रभाव उन  लोगों के लिए विनाशकारी हो सकता है। 

 ऊंचे पहाड़ों पर खेतों में बर्फ का आवरण आमतौर पर एक इन्सुलेशन कंबल के रूप में कार्य करता है। बर्फ की परत से उनके फसलों की रक्षा होती है, कांड-मूल जैसे उत्पादों की वृद्धि होती है, पाले का प्रकोप नहीं हो पाता । साथ ही बर्फ से मिट्टी का  कटाव भी रुकता है। पूरे हिमालय क्षेत्र में कम बर्फबारी और अनियमित बारिश से क्षेत्र में पानी और कृषि वानिकी सहित प्रतिकूल पारिस्थितिक प्रभाव पड़ने की संभावना है।

अगर तापमान जल्दी ही बढ़ जाता है तो तो देर से होने वाली बर्फबारी और भी अधिक त्रासदी दायक होगी । इससे जीएलओएफ (हिमनद झील के फटने से होने वाली बाढ़) अचानक बाढ़ आएगी और घरों, बागानों  और मवेशियों को बहा ले जाएगी।  गर्मी से यदि ग्लेशियर अधिक पिघले तो आने वाले दिनों में पहाड़ी राज्यों में स्थापित सैंकड़ों मेगा वाट की जल विद्धुत परियोजनाओं पर भी संकट या सकता है । लंबे समय तक सूखे के कारण झेलम और अन्य नदियों का जल स्तर अभी से नकारात्मक सीमा में है ।

कश्मीर में जल शक्ति विभाग के मुख्य अभियंता संजीव मल्होत्रा नस्वीकार करते हैं कि  समय पर बर्फबारी और बारिश की कमी के कारण सतही जल स्रोतों के जल स्तर में उल्लेखनीय कमी आई है। इससे आने वाले हफ्तों में

प्रसिद्ध भूवैज्ञानिक और इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी कश्मीर के कुलपति, शकील अहमद रोमशू का कम और बेमौसम बर्फ को लेकर अलग ही आकलन है । उनका कहना है इससे कश्मीर घाटी में प्रदूषण  स्तर बढ़ेगा और स्वास्थ्य जोखिम भी  पैदा होंगे ।

उत्तराखंड में मसूरी से ऊपर बर्फबारी और बारिश न होने से मौसम खुश्क बना हुआ था , बारिश की कमी और पाले की मार से किसानों की फसलें दम तोड़ गई । जिसके चलते पहाड़ी क्षेत्र चकराता में जहां किसान कैश क्रॉप कहीं जाने वाली फसल अदरक, टमाटर, लहसन, मटर पर ही अपनी आजीविका के लिए निर्भर रहता है, ये सभी फसलें इन दिनों बदहाली के दौर से गुजर रही हैं। वहीं पहाड़ी क्षेत्र में समय से बर्फ ना गिरने की वजह से सेब,आडू और खुमानी की पैदावार कमजोर हो गई ।

हमारे देश के सम्पन्न अर्थ व्यवस्था का आधार खेती है और  खेती बगैर सिंचाई के हो नहीं सकती । सिंचाई के लिए अनिवार्य है कि नदियों में जल-धारा अविरल रहे लेकिन नदियों में जल लाने की जिम्मेदारी तो उन बर्फ के  पहाड़ों की है जो गर्मी होने पर धीरे धीरे पिघल कर देश को पानीदार बनाते हैं । साफ है कि आने वाले दिनों में न केवल कश्मीर या हिमाचल, बल्कि सारे देश में जल संकट खड़ा होगा ही । जल संकट अपने साथ

सवाल यह उठता है कि इस अनियमित मौसम से कैसे बचा जाए ? ग्लोबल वार्मिंग या अल –नीनो को दोष देने से पहले हमें स्थानीय ऐसे कारकों पर विचार करना होगा जिससे प्रकृति कूपित है। जून 2022 में गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान (जीबीएनआईएचई) द्वारा जारी रिपोर्ट 'एनवायर्नमेंटल एस्सेसमेन्ट ऑफ टूरिज्म इन द इंडियन हिमालयन रीजन' में कड़े शब्दों मे कहा गया था कि हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते पर्यटन के चलते हिल स्टेशनों पर दबाव बढ़ रहा है। इसके साथ ही पर्यटन के लिए जिस तरह से इस क्षेत्र में भूमि उपयोग में बदलाव आ रहा है वो अपने आप में एक बड़ी समस्या है। जंगलों का बढ़ता विनाश भी इस क्षेत्र के इकोसिस्टम पर व्यापक असर डाल रहा है। यह रिपोर्ट नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ और सीसी) को भेजी गई थी । इस रिपोर्ट में हिमाचल प्रदेश में पर्यटकों के वाहनों और इसके लिए बन रही सड़कों के कारण वन्यजीवों के  आवास नष्ट होने और जैवविविधता पर विपरीत असर की बात भी कही गई थी।

 

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

Solar energy can prevent food from becoming poisonous

 

खाने को जहरीला होने  से रोक सकती है  सौर ऊर्जा

पंकज चतुर्वेदी



मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में धान की पैदावार काफी अच्छी होती है। यहाँ का किसन धान मने लगने वाले कीड़ों से परेशान था। यदि कीटनाशक दलों तो खुद कि तबीयत खराब होती और उत्पाद की लागत बढ़ती सो अलग । जिले के ग्राम कटंगझरी के किसान वीरेन्द्र धान्द्रे एवं अन्य किसान किसानों ने कृषि विभाग से मिले सौर ऊर्जा आधारित सोलर लाइट ट्रैप को लगाया और अब बगैर  किसी रसायन के उनकी फसल निरापद है । घटती जोत और बढ़ती आबादी ने किसान पर दवाब बढ़ दिया ही कि अधिक फसल पैदा हो । किसी भी खेत में कीट -पतंगे एक नैसर्गिक उपस्थति होते हैं और इनमें से से कई एक खेती और धरती के लिए अनिवार्य भी है । फसल को हानिकारक कीत से बचाने के लिए छिड़की जा रही रासायनिक दवाएं न केवल फसल की पोशतिक्त की दुश्मन है, बल्कि प्रकृति-  मित्र  कीट – पतंगों को भी नष्ट कर देते हैं । अब खेतों में सूरज के चमक से चलने वाले प्रकाश-उत्पादक बल्ब  बगैर किसी नुकसान और मामूली व्यय में हानिकारक कीटों का नाश कर देते हैं ।

तेजी से हो रहे मौसम बदलाव और बढ़ते तापमान ने हर फसल चक्र के दौरान फसलों पर अलग–अलग कीटों के प्रकोप में भी बढ़ोतरी कर दी है ।  किसान के पास अभी तक एक ही उपाय रहा है, जितना कीट बढ़े, उतना कीटनाशक छिड़क दो । हर साल सैंकड़ों किसान इस  बेतहाशा  जहरीली दवाओं के इस्तेमाल के चलते  मौत या दमे-कैंसर जैसी बीमारियों के शिकार होते हैं । हमारे देश में हर साल कोई दस हजार करोड़ रूपए के कृषि-उत्पाद खेत या भंडार-गृहों में कीट-कीड़ों के कारण नष्ट हो जाते हैं । इस बर्बादी से बचने के लिए कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ा हैं । जहां सन 1950 में इसकी खपत 2000 टन थी, आज कोई 90 हजार टन जहरीली दवाएं देश के पर्यावरण में घुल-मिल रही हैं । इसका कोई एक तिहाई हिस्सा विभिन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अंतर्गन छिड़का जा रहा हैं ।  सन 1960-61 में केवल 6.4 लाख हेक्टर खेत में कीटनाशकों का छिड़काव होता था। 1988-89 में यह रकबा बढ़ कर 80 लाख हो गया और आज इसके कोई डेढ़ करोड़ हेक्टर होने की संभावना है। ये कीटनाशक जाने-अनजाने में पानी, मिट्टी, हवा, जन-स्वास्थ्य और जैव विविधता को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं। इपले अंधाधुंध इस्तेमाल से पारिस्थितक संतुलन बिगड़ रहा है, सो अनेक कीट व्याधियां फिर से सिर उठा रही हैं। कई कीटनाशियों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ गई है और वे दवाओं को हजम कर रहे हैं। इसका असर खाद्य श्रंखला पर पड़ रहा है और उनमें दवाओं व रसायनों की मात्रा खतरनाक स्तर पर आ गई है। एक बात और, इस्तेमाल की जा रही दवाईयों का महज 10 से 15 फीसदी ही असरकारक होता है, बकाया जहर मिट्टी, भूगर्भ जल, नदी-नालों का हिस्सा बन जाता है।

·         कीट नियंत्रण के लिए सोलर लाइट ट्रैप तकनीक का इस्तेमाल चमत्कारिक है, कम लागत का है और इसके कोई नुकसान भी नहीं हैं । यह बेहद साधारण सी तकनीक है।  सोलर लाइट ट्रैप खेत में एक स्थान पर रखा जाता है। सौर ऊर्जा संचालित कीट जाल पूरी तरह से स्वचालित, किफायती और पर्यावरण-अनुकूल उपकरण है। इस यंत्र में अल्ट्रावायलेट लाइट लगी है। दिन में सूर्य के प्रकाश में सोलर पैनल द्वारा ऊर्जा एकत्रित होती है और अंधेरा होने पर सेंसर के कारण यंत्र में लाइट चालू हो जाती है, जो कीटों को अपनी ओर आकर्षित करता है। ट्रैप में कीटों के आने के बाद कीट नीचे लगी जाली में फँस जाते हैं। इस प्रकार खेत में किसानों को तना छेदक तितली और अन्य कीटों से फसलों को बचाने में मदद मिलती है। यह अत्याधुनिक उपकरण कीट और कीड़ों के पैटर्न की पहचान करता है और उसके अनुसार कीट प्रबंधन और नियंत्रण योजना विकसित करता है।इसकी पकड़ में सभी उड़ने वाले निम्फ और वयस्क कीड़ों जैसे पत्ती फ़ोल्डर, तना छेदक कीट, फल छेदक कीट, हॉपर, फल घुन और बीटल आदि अधिक आते हैं ।  पकड़ने में मदद करता है, जिससे खेतों में वयस्क आबादी और बाद की संतानों को कम किया जाता है।

इसकी  तकनीक बेहद सामान्य सी है जिसका कोई खास रखरखाव भी नहीं होता। इसमें स्वचालित सौर लाइट ट्रैप में 10 वाट की सोलर लाइट पैनल है जो उसके अंदर बैटरी को चार्ज करता है और रात के लिए बैकअप बनाता । इसकी खासियत है कि यह मशीन केवल शत्रु कीटों को निशाना बनाती है।ऐसे कीट शाम 6 बजे से रात 10 बजे के बीच अधिक सक्रिय होती हैं। सौर ऊर्जा स संचालित इसकी लाइट अंधेरा होते ही खुद ब खुद शुरू हो जाती है और सुबह उजेला हुआ कि बंद ।  एक बात और खेत में हर एक पौधे की लंबाई अलग-अलग होती है, जैसे लता वाले पौधे फैलते हैं, जबकि फलदार पौधे लंबे होते हैं। इस मामले में, इस उपकरण को इस तरह ऊंचाई पर लगाया जाता है कि औसत ऊंचाई पर बैठे कीट इसकी तरफ आकर्षित हो जाएँ। सबसे बड़ी बात इस उपकरण की कीमत बहुत काम है । यह 2500 से शुरू हो कर दस हजार  तक के हैं और सालों चलते हैं । मारे हुए कीटों को जमीन में दबा कर खाद भी तैयारी की जा सकती है । रात में खेतों में सांप जैसे सरीसृप या चूहों से बचाने में भी यह उपकरण काम का है ।

इस साधारण सी तकनीक का गाँव तक पहुंचने के रास्ते में बस एक ही व्यवधान है – ताकतवर अंतर्राष्ट्रीय  कीटनाशक लाबी,   जिसका अरबों का उत्पाद यह बगैर खर्च का उपकरण एक झटके में बिकने से रोक सकता है । एकीकृत  कीट प्रबंधन और पर्यावरण  मित्र इस पहल को ब्लॉक या ज़िले के कृषि विभागकार्यालय या कृषि विज्ञान केंद्र से पाया जा सकता है और इस पर सरकार कुछ  मदद भी करती है , लेकिन अभी इनका व्यापक स्तर पर प्रचार बहुत कम है ।

 

 

 

 

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024

After all, who doesn't want to link rivers and ponds?

 

                आखिर कौन नही चाहता है नदी-तालाब जोड़



पंकज चतुर्वेदी



प्यास-पलायन-पानी के कारण कुख्यात  बुंदेलखंड में हजार साल पहले बने चन्देलकालीन  तालाबों को छोटी सदा नीर नदियों से जोड़ कर मामूली खर्च में कलंक मिटाने की योजना  आखिर हताश हो कर ठप्प हो गई । ध्यान दें  बीते ढाई दशकों से यहाँ केन और बेतवा नदियों को जोड़ कर इलाके को पानीदार बनाने के सपने बेचे जा रहे हैं। हालांकि पर्यावरण के जानकर बताते रहे हैं कि इन नदियों के जोड़ से बुंदेलखंड तो घाटे में रहेगा लेकिन कभी चार हजार करोड़ की बनी योजना अब 44 हजार 650 करोड़ की हो गई और इसे बड़ी सफलता के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है । सन  2010 में पहली बार जामनी नदी को महज सत्तर करोड़ के खर्च से टीकमगढ़ जिले के पुश्तैनी  विशाल तालाबों तक पहुँचाने  और इससे 1980 हैक्टेयर खेतों की सिंचाई की योजना तैयार की गई । इस योजना में न तो कोई विस्थापन होना था और न ही कोई पेड़ काटना था । सन  2012 में काम भी शुरू हुआ लेकिन आज करोड़ों खर्च के बाद न नहर है न ही सिंचाई । आम ग्रामीण भी जनता है कि  बहुत से लोग चाहते हैं कि इस तरह के छोटे बजट की योजना चर्चा में आयें क्यों कि फिर केन- बेतवा जैसे पहाड़ –बजट कि योजनाओं पर सवाल उठने लगेंगे ।



यह किसी से छिपा नहीं हैं कि देश की सभी बड़ी परियोजनाएं कभी भी समय पर पूरी होती नहीं हैं, उनकी लागत बढती जाती है और जब तक वे पूरी होती है, उनका लाभ, व्यय की तुलना में गौण हो जाता है। यह भी तथ्य है कि तालाबों को बचाना, उनको पुनर्जीवित करना अब अनिवार्य हो गया है और यह कार्य बेहद कम लागत का है और इसके लाभ अफरात हैं। । केन-बेतवा नदी को जोड़ने की परियोजना को फौरी तौर पर देखें तो स्पष्ट  हो जाता है कि इसकी लागत, समय और नुकसान की तुलना में इसके फायदे नगण्य ही हैं ।



केन और बेतवा दोनों का ही उदगम स्थल मध्यप्रदेश है । दोनो नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुई उत्तर प्रदेश  में जा कर यमुना में मिल जाती हैं । जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प-वर्षा  या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी । वैसे भी केन का इलाका पानी के भयंकर संकट से जूझ रहा है । सरकारी दस्तावजे दावा करते हैं कि केन में पानी का अफरात है । जबकि हकीकत इससे बेहद परे है ।

सन 1990 में केंद्र की एनडीए सरकार ने नदियों के जोड़ के लिए एक अध्ययन षुरू करवाया था और इसके लिए केन बेतवा को चुना गया था। सन 2007 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस परियोजना में पन्ना नेशनल पार्क के हिस्से को शामिल करने पर आपत्ति जताई। हालांकि इसमें कई और पर्यावरणीय संकट हैं लेकिन सन 2010 जाते-जाते सरकार में बैठे लोगों ने प्यासे बुंदेलखंड को एक चुनौतीपूर्ण प्रयोग के लिए चुन ही लिया। केन-बेतवा के जोड़ की येाजना को सिद्धांतया मंजूर होनें में ही 24 साल लग गए। उल्लेखनीय है कि राजघाट परियोजना का काम जापान सरकार से प्राप्त कर्जे से अभी भी चल रहा है,  इसके बांध की लागत 330 करेाड से अधिक तथा बिजली घर की लागत लगभग 140 करोड़ है  । राजघाट  से इस समय 953 लाख यूनिट बिजली भी मिल रही है । यह बात भारत सरकार स्वीकार कर रही है कि नदियों के जोड़ने पर यह पांच सौ करोड बेकार हो जाएगा ।

टीकमगढ़ जिले में अभी चार दशक पहले तक हजार तालाब हुआ करते थे। यहां का कोई गांव ऐसा नहीं था जहां कम से कम एक बड़ा सा सरोवर नहीं था, जो वहां की प्यास, सिंचाई सभी जरूरतें पूरी करता था। आधुनिकता की आंधी में एक चौथाई तालाब चौरस हो गए और जो बचे तो वे रखरखाव के अभाव में बेकार हो गए।

जामनी नदी बेतवा की सहयक नदी है और यह सागर जिले से निकल कर कोई 201 किलोमीटर का सफर तय कर टीकमगढ जिले में ओरछा में बेतवा से मिलती हे। आमतौर पर इसमें सालभर पानी रहता है, लेकिन बारिश  में यह ज्यादा उफनती है। योजना तो यह थी कि यदि बम्होरी बराना के चंदेलकालीन तालाब को नदी के हरपुरा बांध के पास से एक नहर द्वारा जोड़ने से तालाब में सालभर लबालब पानी रहे। इससे 18 गावों के 1800  हैक्टर खेत सींचे जाएंगें। यही नहीं नहर के किनारे कोई 100 कुंए बनाने की भी बात थी  जिससे इलाके का भूगर्भ स्तर बना रहता । अब इस येाजना पर व्यय है महज कुछ करोड़ , इससे जंगल, जमीन को नुकसान कुछ नहीं है, विस्थापन एक व्यक्ति का भी नहीं है। इसको पूरा करने में समय कम लगता । इसके विपरीत नदी जोड़ने में हजारों लोगों का विस्थापन, घने जंगलों व सिंचित खेतों का व्यापक नुकसान, साथ ही कम से कम से 10 साल का काल लग रहा है।

समूचे बंुदेलखंड में पारंपरिक तालाबों का जाल हैं। आमतौर पर ये तालाब एकदूसरे से जुड़े हुए भी थे, यानी एक के भरने पर उससे निकले पानी से दूसरा भरेगा, फिर तीसरा। इस तरह बारिष की हर बूंद सहेजी जाती थी। बुंदेलखंड में जामनी की ही तरह केल, जमडार, पहुज, षहजाद, टौंस, गरारा, बघैन,पाईसुमी,धसान, बघैन जैसी आधा सैंकडा नदियां है जो बारिश में तो उफनती है, लेकिन फिर यमुना, बेतवा आदि में मिल कर गुम हो जाती है। यदि छोटी-छोटी नहरों से इन तालाबों को जोड़ा जाए तो तालाब आबाद हो जाएगे। इससे पानी के अलावा मछली, सिंघाड़ा कमल गट्टा मिलेगा। इसकी गाद से बेहतरीन खाद मिलेगी। केन-बेतवा जोड़ का दस फीसदी यानी एक हजार करोड़ ही ऐसी योजनाओं पर ईमानदारी से खर्च हो जाए तो 20 हजार हैक्टर खेत की सिंचाई व भूजल का स्तर बनाए रखना बहुत ही सरल होगा।

हुआ यूं कि इस योजना की शुरुआत 2012 में हुई और बीते दस सालों में कम से कम दस बार हरपुर नहर ही टूटती रही। पिछले साल अगस्त में अचानक तेज बरसात आई तो 41 करोड़ 33 लाख लागत की हरपुरा नहर पूरी ही बह गई । पहली बार जब नहर में नदी से पानी छोड़ा गया तो सिर्फ चार तालाबों - टीलादांत, मोहनगढ़ फीडर, मोहनगढ़ तालाब एवं बाबाखेरा तालाब में ही पानी पहुंचा था, जबकि पहुंचना था  18 में । नहर बनाने में तकनीकि बिंदुओं को सिरे से नजरअंदाज किया गया था। इसे कई जगह लेवल के विपरीत ऊंची-नीची कर दिया गया था। शुरुआत में ही नहर का ढाल महज सात मीटर रखा गया, जबकि कई तालाब इससे ऊंचाई पर हैं, जाहीर है वहाँ पानी पहुँचने से रहा । लगभग 48 किलोमीटर की नहर में से 23 किलोमीटर पक्की सीसी नहर का निर्माण करना था। जिन स्थानों पर पक्की नहर की गई है, उनमें से कई स्थानों पर यह उखड़ चुकी है। पूरी नहर में एक भी स्थान ऐसा नही दिखाई देता है, जहां पर लगभग एक किलोमीटर के क्षेत्र में नहर कहीं उखड़ी न हो या उसमें दरार न आई हो। बौरी, चरपुरा, मिनौराफार्म, सुनवाहा, पहाड़ी खुर्द सहित अनेक स्थानों पर नहर उखड़ चुकी है। तेज बरसात में यदि नहर में अधिक पानी हो तो वह कहाँ से निकलेगा, नहर के रास्ते में पूल या रिपटा , नहर के किनारे मवेशी के पानी पीने का इंतजाम आदि तो हुआ नहीं । फिर धीरे धीर एक शानदार योजना कोताही का कब्रगाह बन गई ।  बताना जरूरी है कि इस नहर का निर्माण भी मप्र के धार जिले में दो साल पहले बह गए कारम बांध बनाने और और की परियोजनाओं के कारण काली सूची में डाली गई फर्म सारथी कंस्ट्रक्शन ने किया था।

यह समझना अहोगा कि देश में जल संकट का निदान स्थानीय और लघु योजनाओं से ही संभव है । ऐसी योजनाएं जिसे स्थानीय समाज का जुड़ाव हो  और यदि जामनी नदी से तालाबों को जोड़ने का काम सफल हो जाता तो सारे देश में एक बड़ी परियोजना से आधे खर्च में नदियों से तालाबों को जोड़ कर खूब पानी उगाया जाता । शायद तालाबों पर कब्जा करने वाले, बड़ी योजनाओं में ठेके और अधिग्रहण से मुआवजा पाने वालों को यह रास नहीं आया।

 

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

why road jam become practice for agitations

 

ना अदालत की परवाह है ना जनता की चिंता

पंकज चतुर्वेदी



 

20 फरवरी को पंजाब –हरियाणा हाई कोर्ट ने  धरण-प्रदर्शन को  नागरिक का अधिकार तो कहा लेकिन ट्रेक्टर ले कर हाई वे पर आने को अवैध बाते । इसके बावजूद 21 फरवरी को हरियाणा-पंजाब की सीमाओं पर कई जगह किसानों के मोर्चे हजारों तर्कटर के साथ लगे थे। हालांकि किसानों का  धरना  दिल्ली से कोई 247 किलोमीटर दूर हरियाणा-पंजाब की सीमा पर है लेकिन पिछले कडवे अनुभवों से सीख ले कर सरकार ने दिल्ली की जो किलेबंदी की है, उससे आम लोग बहुत परेशान हैं। हर दिन दफ्तर जाने वाले हों या रेल-हवाई जहाज से यात्रा करने वाले या बोर्ड के इम्तहान के लिए जा रहे बच्चे या अस्पताल जा रहे बीमार-तीमारदार , ऐहतीयतन उठाए गए कदमों से सड़कों पर लग रहे जाम ने आवागमन का समय और परेशानी दोनों बढ़ा दी है । हालांकि भारत के कानून में दर्ज की ऐसे प्रावधान हैं जिनके अंतर्गत सड़क या रेल को रोकना दंडनीय अपराध है लेकिन भीड़ को किसी कानून की परवाह होती ही कहाँ है ? हाल ही में देशभर की सड़कों, राज्यों के राजमार्ग को लंबे समय तक धरना प्रदर्शन या किसी अन्य तरीकों से बाधित किए जाने की घटना से निपटने के लिए विधि आयोग ने केंद्र सरकार के समुचित कानून बनाने की सिफारिश की है। समझना होगा कि परिवहन और संचार में किसी भी तरह का व्यवधान देश की विकास- गति में अवरोध होता है ।



आयोग ने केंद्र सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सड़कों को बाधित करने वालों  से निपटने के लिए समुचित कानून या फिर भारतीय दंड विधान या हाल ही में बनाए गए भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) में संशोधन करके प्रावधान करने की जरूरत है। विधि आयेग के अध्यक्ष जस्टिस ऋतु राज अवस्थी की अगुवाई वाली समिति ने अपनी 284वीं रिपोर्ट में सरकार से कहा है कि राष्ट्रीय राजमार्गों को बाधित किया जाता है तो इससे निपटने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम 1956 है और रेलवे लाइनों को बाधित करने पर रेलवे अधिनियम 1989 है और इसमें दंडात्मक प्रावधान पहले से है लेकिन समय की मांग है कि ऐसे कानून और कड़ेर बनाए जाएँ ।


हमारा देश  भी अजब-गजब है ,कहीं विवाह समारोह के नाम पर सड़कें जाम हैं तो कोई धार्मिक या सियासती रैली-जलसे निकाल रहा है तो कोई नमाज-पूजा-आरती, तो कोई धरना-प्रदर्शन । सनद रहे तीन  साल पहले सुप्रीम कोर्ट के दो माननीय न्यायाधीशों  की पीठ ने केंद्र सरकार को तीन हफ्ते का समय देते हुए आए रोज रास्ते रोकने वालों के खिलाफ ठोस कार्यवाही सुनिश्चित  करने के लिए कहा था। अदालत ने यह भी कहा था कि रेल-रास्ता रोकने की अपील करने वालों के खिलाफ अनिवार्य अभियोजन हो और तीन महीने के भीतर ऐस प्रकरणों का निबटारा भी हो। शायद ही किसी सरकार ने इन निर्देशों को माना और किसान संगठनों ने 15 फरवरी को ही कुछ घंटे पंजाब में रेलें रोक दीं । विडंबना है कि ऐसे कृत्य करने वालों को ना तो नैतिकता की चिंता है और ना ही वैधानिकता की । कथित आंदोलनकारियों को भड़का कर यह अनैतिक काम करने के लिए उकसाने वाले लोग विधानसभा व अन्य  सदनों  के सदस्य हैं और उन्हें मालूम है कि इस तरह से आम लोगों को परेशान करने के अलावा अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा। हो सकता है कि उनकी मांग जायज भी हो, लेकिन अपनी मांग के समर्थन में उठाए गए कदम ना तो आम आदमी को जायज लग रहे हैं, और ना ही यह किसी देश के लोकतांत्रिक ढ़ांचे के लिए स्वस्थ परंपरा है।



लोकतंत्र में निर्णय जनता के हाथों होता है, इसका यह मतलब कतई नहीं है कि लोकतंत्र जनता के हाथों में खेलता है। चुनाव वह समय होता है जब जनता अपनी अपेक्षाओं पर खरा ना उतरने वालों को कुर्सी से नीचे उतार फैंकती है। लेकिन आज हालात तो अराजकता की ओर इशारा कर रहे हैं, अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए सड़क पर आ जाओ, जाम कर दो, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाओ, प्रशासन तंत्र को बंधक बनाओ। लगभग अपहरणकर्ताओं की तर्ज पर अपनी मांगें मनवाने के लिए दूसरों की असुविधा, कानून की सीमा या फिर विधि की प्रक्रिया को नजरअंदाज किया जाए।

सन 1997 में ही केरल हाईकोर्ट एक मामले में आदेश  दे चुकी थी कि इस तरह के बंद- हुड़दंग अवैध होते हैं। बंबई हाईकोर्ट ने  सन 2004 में भाजपा-शि वसेना द्वारा आयोजित बंद के मामले में सख्त आदेश  दिए थे  कि धरना-प्रदर्षन के दौरान यदि अधिकारी अदालत द्वारा निर्धारित आदेश का पालन करवाने में असफल रहते हैं तो उन्हें भी अदालत की अवमानना का दोषी  करार दिया जा सकता है। न्यायमूर्ति बिलाल नाजकी और वीके ताहिलरमानी की बैंच ने कड़ी शब्दों में कहा था कि किसी भी बंद –धरने की अपील  करने वाले नेता पर ही उसकी पूरी जिम्मेदारी होगी। नेता को जनता के जीवन और संपत्ति की क्षति के लिए मुआवजा देना होगा। कोर्ट ने सड़क पर आम लोगों की आवाजाही निरापद रखने के भी निर्देश  दिए थे । इससे पहले कोलकता, मद्रास और दिल्ली की अदालतें भी समय-समय पर ऐसे आदेश  देती रही है। लेकिन नेता हैं कि मानते ही नहीं है और कई बार पुलिस और प्रशासन भी हालात बिगड़ने का इंतजार करता रहता है।



सरकारी आंकड़े गवाह हैं कि हमारे देश में हर साल सड़केां पर हंगामें की 56 हजार छोटी-बड़ी घटनाएं होती हैं। इनकी चपेट में आ कर कोई पचास हजार वाहन बर्बाद हो जाते हैं, जिनमें 10 हजार बस या ट्रक होते हैं। अकेले दिल्ली में सालभर में 100 से अधिक तोड़-फोड़, उधम की घटनाएं दर्ज की जाती हैं। इस प्रकार के रोज-रोज के बंद , धरने, प्रदर्शन, जाम से आम आदमी आजिज आ चुका है। इन अराजकताओं के कारण समय पर इलाज ना मिल पाने के कारण मौत होने, परीक्षा छूट जाने, नौकरी का इंटरव्यू ना दे पाने जैसे किस्से अब आम हो चुके हैं और सरकार इतने गंभीर विषय पर संवेदनहीन बनी हुई है।

पुलिस का काम कानून-व्यवस्था बनाए रखना है,पुलिस का काम सुचारू यातायात बनाए रखना है , इसके लिए वह वेतन लेती है, जनता की गाढ़ी कमाई से निकले टैक्सों से यह वेतन दिया जाता है। लेकिन जब पच्चीस-पचास लोग नारे लगाते हुए चौराहों पर लेट जाते है। तो पुलिस मूक दर्शक बनी रहती है, इंतजार करती है, लंबे ट्राफिक जाम का या फिर स्थिति बिगड़ने का और उसके बाद अपनी चरम-कार्यवाही यानी बल प्रयोग पर उतारू हो जाती है। साफ दिखता है कि पुलिस का प्रशिक्षण ऐसे हालातों से निबटने के नाम पर शून्य है, वह अभी भी अंग्रेजों की नीति-‘‘ पहले हालात बिगड़ने दो और फिर उसे संभालने का श्रम करो’’ पर चल रही है। भीड़ के जमा होने से रोकना, आम लोगों के जनजीवन केा नुकसान पहुचाने वाले लोगों पर कड़ी कार्यवाही करना, गुप्तचर सूचनाओं के आधार पर उपद्रवियों के इरादे भांपना और उसके अनुसार ‘प्रिवेंटिव’ कार्यवाही करना जैसे पुलिस भूल ही चुकी है।

अब समय आ गया है कि विधि आयोग की सिफारिशों के अनुरूप  नई बन रही भारतीय  न्याय संहिता में देश के विकास में व्यवधान बनी ऐसी हरकतों को सख्ती से रोकने के लिए प्रावधान किये जाएँ और इसमें संबंधित अधिकारियों को अधिक जिम्मेदार बनाया जाए । इस तरह की हरकतों में शामिल राजनेताओं पर भी कुछ पाबंदियाँ  हों।

बिजली, पानी या पुलिस या हर तरह की दिक्कत का हल सडक रोककर तलशने वालों को चुनाव लड़ने से रोकने जैसे पाबंदी लगाना समय की मांग है। ऐसे मामलों में वीडियो रिकार्डिंग को पर्याप्त सबूत मान कर मामले का संज्ञान लेना होगा। इसी तरह शादी या पारिवारिक या धार्मिक आयोजनों के नाम पर सड़क के परिवहन को बाधित करने पर समाज और सरकार दोनों को ही गंभीरता से कदम उठाने होंगे। इससे पर्यावरण को नुकसान है, ईंधन खपत से लोगों की जेब ढीली होती है- दिक्कतें होती हैं सो अलग।

 

पंकज चतुर्वेदी

साहिबाबाद, गाजियाबाद 201005

 

 

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...