My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 31 अक्तूबर 2021

Ban on packed water in Sikkim

 सिक्किम  बंद होगा  प्लास्टिक बोतल वाला पानी


पंकज चतुर्वेदी



सन 2016 से राज्य के पर्यावरण को निरापद बनाने के लिए कड़े कदम उठाने वाला सिक्किम आगामी 01 जनवरी 2022 से प्लास्टिक  बोतल में बंद पानी से पूर तरह मुक्त हा जाएगा। याद करें इससे पहले सन 2016 से राज्य के प्रमुख पर्यटन गांव लाचेन में यह प्रयोग सफल हो चुका है। सिक्क्मि ऐसा राज्य है जहां थर्मोकोल के डिस्पोजबल बर्तन और सरकारी समारोह में छोटी पानी की बोतलों पर पूरी तरह पाबंदी सफल रही है। लासेन गांव तो दुनिया में मिसाल बना था।  सिक्किम सरकार ने  राज्य की विभिन्न दुकानों पर रखें बोतलों के स्टॉक को 31 दिसंबर तक समाप्त करने के आदेश  दिए है। यही नहीं राज्य ने राज्य के हर एक निवासी और प्रत्येक पर्यटक को शुद्ध  पेयजल उपलब्ध करवाने का भी वायदा किया है।


सिक्किम  की इस घोषणा   के पीछे लासेन गांव में सफल प्रयोग का उत्साह है। एक छोटा सा गांव, जिसकी पूरी आजीविका, समृद्धि और अर्थ व्यवस्था, पर्यटन के जरिये चलती हो, वहां के लेागों ने जब महसूस किया कि यदि प्रकृति है तो उनका जीवन है और उसके लिए जरूरी है कि वैश्विक  रूप से हो रहे मौसमी बदलाव के अनुसार अपनी जीवन शैली  में सुधार लाया जाए और फिर ना तो कोई सरकारी आदेश  और ना ही सजा का डर, सन 2012 में एकसाथ पूरा गांव खड़ा हो गया था कि उनके यहां ना तो बोतलबंद पानी की बोतल आएगी और ना ही डिस्पाजेबल थर्माकोल या प्लास्टिक के बर्तन। पूरा गांव कचरे को छांटने व निबटाने में एकजुट रहता है। तिब्बत (चीन) से लगते उत्तरी सिक्किम जिले में समुद्र  तल से 6600 फुट की ऊंचाई पर लाचेन व लाचुंग नदियों के संगम पर स्थित इस कस्बे का प्राकृतिक सौंदर्य किसी कल्पना की तरह अप्रतीम है।


राज्य सरकार ने इसे ‘‘हेरीटेज विलेज’’ घोषित  किया व कुछ घरों में ठहराने की येाजना  के बाद यहां 30 होटल खुल गए ।पैसे की गरमी के बीच लोगों को पता ही नहीं चला कि कब उनके बीच गरमी एक मौसम के रूप में आ कर बैठ गई। पूरे साल भयंकर मच्छर होने लगे। बरसात में पानी नहीं बरसता और बैमौसम ऐसी बारिश  होती कि खेत- घर उजड़ जाते। पिछले साल तो वहां जंगल में आग लगने के बाद बढ़े तपमान से लेागों का जीना मुहाल हो गया। यह गांव ग्लेशियर  के करीब बनी झील शाको-चो से निकलने वाली कई सरिताओं का रास्ता रहा है। डीजल वाहनों के अंधाधुंध आगमन से उपजे भयंकर  धुएं से सरिताओं पर असर होने लगा है। यहां के कई परिवार आर्गेनिक खेती करते हैं और बढ़ते प्लास्टिक व अन्य कचरे से उनकी फसल पर विपरीत असर पड़ रहा था, कीट का असर, अन्न कम होना जैसी दिक्कतों ने खेती को घेर लिया।


जब हालात असहनीय हो गए तो समाज को ही अपनी गलतियां याद आईं। उन्होनंे महसूस किया कि यह वैष्विक जलवायु परिवर्तन का स्थानीय असर है और जिसके चलते उनके गांव व समाज पर अस्तित्व का संकट कभी भी खड़ा हो सकता हे। सन 2012 में सबसे पहले गांव में प्लास्टिक की पानी की बोतलों पर पाबंदी लगाई गई। समाज ने जिम्मा लिया कि लोगों को साफ पेय जल वे उपलब्ध कराएंगे। उसके बाद खाने की चीजें डिस्पोजेबल पर परोसने पर पाबंदी हुई। यह सब कुछ हुआ यहां के मूल निवासियों की पारंपरिक निर्वाचित पंचायत ‘जूमसा’ के नेतृत्व में ।  जूमसा यहां का अपना प्रषासनिक तंत्र है जिसके मुखिया को ‘पिपॉन’ कहते हैं और उसका निर्णय सभी को मानना ही होता है। गांव के प्रत्येक होटल व दुकानों को स्वच्छ आरओ वाला पानी उपलब्ध करवाया जा रहा है और पैक्ड पानी बेचने को अपराध घोशित किया गया हे। गांव में आने से पूर्व पर्यटकों को बैरियर पर ही इस बाबत सूचना के पर्चे दिए जाते हैं व उनके वाहनों पर स्टीकर लगा कर इस पाबंदी को मानने का अनुरोध होता हे। स्थानीय समाज पुलिस प्रत्येक वाहन की तलाषी लेती है,ताकि कोई प्लास्टिक बोतल यहां घुस न  आए।


सिक्क्मि सरकार को अपने जल संसाधनों पर पूरा भरोसा है कि वह पूरे राज्य को लासेन बना लेगे। राज्य में 449 ग्लेषियर है जिनमें  जेयो चू का क्षेत्रफल 80 वर्गकिलोमीटर , गोमा चू का 82.72 वकिमी, रंगयोग चू का 71.15 और लांचुग का 49.15 वर्गकिमी है। ऊंचाई पर स्थित 534 वेट लैंड हैं। तीस्ता जैसी विषाल नदी के अलावा अन्य 104 नदियां हैं। आज भी गंगटोक शहर की पूरी जलापूर्ति रोत चू नदी के बदौलत है।  यह 3800 मीटर ऊंचे टमजे ग्लेशियर  निकलती है।  तीसता  छोम्बो चू नाम से खंगचुग चो नामक ग्लेशियर  से निकलती हैं, इसकी कई सहायक नदियां हैं और यह आगे सिलिगुड़ी में मैदान पर बहने लगती है।  इसका सिक्किम की सीमा में जल ग्रहण क्षेत्र  805 वर्गकिमी है। राज्य में नौ गरम पानी के सोते भी हैं। समाज के साथ-साथ राज्य सरकार का प्रयास रहा है कि ग्लेषियर से निकल रही जल धाराओं मे प्रदूशण ना हो। जाहिर है कि इस तरह का स्प्रींग वाटर किसी भी पैक्ड बोतल वाले पानी की तुलना में अधिक षुद्ध और लाभकारी होगा। वैसे लोसन के उदाहरण को केरल के कई पर्याटन स्थलों पर अपनाया गया है। जब  कोई पौने नौ लाख आबादी वाले सेनफ्रांस्सिको षहर  को  प्लास्टिक बोतल बंद पानी से मुकत्किया जा सकता हैतो भारत में कई अन्य श हर व छोटे राज्य क्यों इस दिशा  में कदम नहीं उठा रहे द्य इससे राज्य में प्लास्टिक का कचरे से निबटान का संकट कम तो होगा ही, आम लोगों में प्रकृति के प्रति अनुराग भी बढेगा।

बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

Worsening weather patterns are a warning to India

 मौसम का बिगडता मिजाज चेतावनी है भारत को 

पंकज चतुर्वेदी

 


 मध्यभारत में महिलाओं के लोकप्रिय पर्व करवा चौथ पर दशकों बाद शायद ऐसा  हुआ कि दिल्ली के करीबी इलाकों में भयंकर बरसात थी और चंद्रमा निकला नहीं।  समझ लें भारत के लोक पर्व, आस्था , खेती-अर्थ तंत्र सभी कुछ बरसात या मानसून पर केंद्रित है और जिस तरह मानसून परंपरा से भटक रहा है ं, वह हमारे पूरे तंत्र के लिए खतरे की घंटी है। इस बार भारत में सर्वाधिक दिनों तक मानसून भले ही सक्रिय रहा हो , लेकिन सभी जगह बरसात अनियमितत हुई व निर्धारित  कैलेंडर से हट कर हुई। भारत की समुद्री सीमा तय करने वाले केरल में बीते दिनों आया भयंकर जलप्लावन का ज्वार भले ही धीरे-धीरे छंट रहा हो लेकिन उसके बाद वहां जो कुछ हो रहा है, वह पूरे देश के लिए चेतावनी है। देश के सिरमौर उत्तराखंड के कुमायूं अंचल में तो बादल कहर बन कर बरसे हैं , बरसात का गत 126 साल का रिकार्ड टूट गया , 

अभी तक कोई पचास लोग मारे जा चुके हैं,  मकानों व् अन्य संपादा के नुक्सान का आकलन  हो ही नहीं पाया हैं , यह कुदरत के ही मार है की नैनीताल के माल रोड पर जल भराव हो गया और सभी झीलें उफान गईं यह गंभीर चेतावनी है कि जिस पहाड़ के पत्थर और पानी हम अपने मन से उजाड़ रहे हैं , वे जलवायु परिवर्तन की वैश्विक मार के चलते तेजी से प्रतिकार कर रहे हैं यह किसी से छुपा नहीं हैं कि उत्तरांचल  पर्यावरण के मामले में जितना वैविध्यपूर्ण है, उतना ही संवेदनशील हैं मौसम

 चक्र का अनियिमित होना, अचानक चरम मौसम की मार, तटीय इलाकों में अधिक और भयानक चक्रवातों का आना, बिजली गिरने की घटनाओं में इजाफा- यह बानगी है कि धरती के तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी और उसके गर्भ से उपजे जलवायु परिवर्तन का भीषण खतरा अब दुनिया के साथ-साथ भारत के सिर पर सवार हो गया है। 

इस बार की बरसात ने भारत को बता दिया है कि चरम मौसम की मार पूरे देश के सामाजिक-आर्थिक और भौगोलिक ताने-बाने को तहस-नहस करने को उतारू है। अकेले अक्तूबर के पहले 21 दिनों में उत्तराखंड में औसत से 546 फीसदी अधिक बरसात हुई तो दिल्ली में 339 प्रतिशत। बिहार में 234, हरियाणा में 139 और राजस्थान में औसत से 108 फीसदी अधिक बरसात होना खेती के लिए तबाही साबित हुआ है। इससे पहले जून-जुलाई ,जो मानसून के लिहाज से महत्वपूर्ण महीना माना जाता है, आषाढ़  को ठीक बरसा लेकिन अगले  ही पक्ष में देश में औसत बारिश से 92 फीसदी कम पानी गिरा। सावन अर्थात अगस्त में स्थिति और खराब हुई और 1901  के बाद छठी बार इस साल अगस्त में सूखा महीना गया। इस महीने में 24 फीसदी कम बारिश दर्ज की गई। इस अवधि में जब शेष  भारत में सूखे का खतरा मंडरा रहा था तो तो हिमालय का क्षेत्र जलमग्न हो उठा। बारिश इस कदर हुई कि उत्तराखंड और हिमाचल में गांव के गांव बह गए और करोड़ों का नुकसान हो गया।  उधर देश में कम बरसे पानी की की भरपाई सितंबर में होना लगभग नामूमकिन था लेकिन दक्षिण-पश्चिमी मानसून जाते-जाते तबाही मचा गया। जाहिर है कि अब बरसात का चक्र बदल रहा है और जलवायु परिवर्तन के छोटे-छोटे कारको ंपर आम लोगों को संवेदनशील बनाना जरूरी है।


दुर्भाग्य है कि सरकारी सिस्टम ने इस पर कागजी घोड़े खूब दौड़ाए लेकिन जमीनी हकीकत के लिए दिल्ली से सटे नोएडा-गाजियाबाद को लें जहां एक महीने से कूड़ा निस्तारण का काम रुका हुआ है, कूड़े को हिंडन नदी में डंप करने से लेकर चोरा-छिपे जलाने तक का काम जोरों पर है और यही ऐसे कारक हैं जो जलवायु परिवर्तन की मार को धार दे रहे हैं। यह केवल असामयिक मौसम बदलाव या ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं रहने वाला, यह इंसान के भोजन, जलाशयों में पानी की शुद्धता, खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता, प्रजनन क्षमता से लेकर जीवन के उन सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है जिसके चलते प्रकृति का अस्तित्व और मानव का जीवन सांसत में है।


यह तो सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपोर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ोतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। लेकिन नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार, कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे। दरअसल, 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौह तत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौधों से होती है। 1.4 अरब लोग लौह तत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है। दृ


शोध में पाया गया कि जहां अधिक कार्बन डाईऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में तीन तत्वों जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में प्रयोग के जरिए इस बात की पुष्टि भी की है। .रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाई आक्साइड पौंधों को बढ़ने में तो मदद करता है। लेकिन पौंधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देता है।.यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहा पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है। 



भारत के संदर्भ में यह तो स्पष्ट है कि हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचाई की दोषपूर्ण परियोजनाएं हैं। एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी  वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी हैं। सिंचाई के लिए भी छोटी, स्थानीय तालाब , कुओं पर आधारित रहने की अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। यह स्पष्ट है कि बड़े बांध जितने महंगे व अधिक समय में बनते हैं, उनसे उतना पानी तो मिलता नहीं है, वे नई-नई दिक्कतों को उपजाते हैं, सो छोटे तटबंध, कम लंबाई की नहरों के साथ-साथ रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिसतान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है। 


जलवायु परिवर्तन की मार भारत में जल की उपलब्धता पर भी पड़ रही है। देश में बीते 40 सालों के दौरान बरसात के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि इसमें निरंतर गिरावट आ रही है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में औसत वर्षा 141 सेंटीमीटर थी जो नब्बे के दशक में कम होकर 119 सेंटीमीटर रह गई है। उत्तरी भारत में पेयजल का संकट साल-दर-साल भयावह रूप लेता जा रहा है। तीन साल में एक बार अल्प वर्षा यहां की नियति बन गया है। तिस पर देश की सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियों के उदगम ग्लैशियर बढ़ते तापमान से बैचेन हैं। 

विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि यदि तापमान में 2 डिग्री सेटीग्रेड के लगभग वृद्धि होती है तो गेहूँ की उत्पादकता में कमी आयेगी। अनुमान है कि तापमान के 1 डिग्री सेटीग्रेड बढ़ने पर गेहूँ के उत्पादन में 4-5 करोड़ टन की कमी होगी। इसके अतिरिक्त वर्षा आधारित फसलां को अधिक नुकसान होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्रा कम होगी जिसके कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पायेगा।



 


बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

Food crisis caused by organic farming

 

श्रीलंका : जैविक खेती की प्रतिबद्धता से उपजा  खाद्य संकट

पंकज चतुर्वेदी


हमारे पडोसी देश श्रीलंका में खाने-पीने की वस्तुओं का संकट खड़ा हो गया है .हालात इतने  खराब हए कि वहां खाद्य – आपातकाल लगाना पड़ा  और  आलू, चावल जैसी जरुरी चीजों के वितरण का जिम्मा  फौज के हाथों में दे दिया गया . यह सच है कि कोविड के कारण श्रीलंका की आर्थिक सम्रद्धि के मूल कारक पर्यटन को कोविड के कारण तगड़ा नुक्सान हुआ था लेकिन दो करोड़ 13 लाख की आबादी वाले छोटे से देश ने इसी साल अप्रैल में एक क्रांतिकारी कदम उठाया .  श्रीलंकाई सरकार ने देश की पूरी खेती को रासायनिक खाद और कीटनाशक से मुक्त कर  शत प्रतिशत जैविक खेती करना तय किया इस तरह बगैर रसायन के हर दाना उगाने वाला पहला देश बनने की चाहत में श्रीलंका ने कीटनाशकों उर्वरकों और कृषि रसायनों के आयात और उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया. दशकों से रसायन की आदी हो गई जमीन भी इतने त्वरित बदलाव के लिए तैयार नहीं थे फिर कीटनाशक-खाद की अंतर्राष्ट्रीय लॉबी को हुए इतने बड़े नुक्सान पर उन्हें भी कुछ खुराफात तो करना ही था .बहरहाल श्रीलंका के मौजूदा हालात के मद्देनजर साडी दुनिया के कृषि प्रधान देशों के लिए यह चेतावनी भी है और सीख भी कि यदि बदलाव करना है तो तत्काल  एक साथ करना होगा और उसके विपरीत तात्कालिक परिणामों के लिए भी तैयार होना पड़ेगा .

श्रीलंका के सकल घरेलु उत्पाद अर्थात  जीडीपी  में खेती-किसानी की भागीदारी 8.36% है और देश के कुल रोजगार में खेती का हिस्सा 23.73 फीसदी है . इस हरे भरे  देश में  चाय उत्पादन के जरिये बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा आती है , यहा हर साल 278.49 मेट्रिक किलोग्राम चाय पैदा होती है जिसमें कई किस्म दुनिया की सबसे महंगी चाय की हैं . खेती में रसायनों के इस्तेमाल की मार चाय के बागानों के अलावा काली मिर्च जैसे मसलों के बागानों पर भी असर पड़ा है , इस देश में चावल के साथ- साथ ढेर सारी फल सब्जी उगाई जाती है .  श्रीलंका सरकार का सोचना है कि भले ही रसायन वाली खेती में कुछ अधिक फसल आती है लेकिन उसके कारण पर्यावरण क्षरण, जल प्रदूषण हुआ है, और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है , देश जलवायु परिवर्तन  की मार झेल रहा है और देश को बचाने का एकमात्र तरीका है , खाद्ध को रसायन से पूरी तरह मुक्त करना . हालांकि विशेषज्ञों का अनुमान है कि फसलें देश के सामान्य उत्पादन का लगभग आधी रह जाएँगी ।

दूसरी तरफ  चाय उत्पादक भयभीत हैं कि कम फसल होने पर खेती में खर्चा बढेगा . पूरी तरह से जैविक हो जाने पर उनकी फसल का 50 प्रतिशत कम उत्पादन होगा लेकिन उसकी कीमत 50 प्रतिशत ज्यादा मिलने से रही .

श्रीलंका का यह निर्णय पर्यावरण, खाने की चीजों की गुणवत्ता और जमीन की सेहत को ध्यान में रखते है तो बहुत अच्छा लेकिन धरातल की वास्तिवकता यह है कि देश ने अपने किसानों को जैविक खेती के लिए व्यापक प्रशिक्षण तक नहीं दिया, फिर सरकार के पास पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद भी उपलब्ध नहीं हैं. एक अनुमान के अनुसार, देश में हर दिन लगभग 3,500 टन नगरपालिका जैविक कचरा उत्पन्न होता है। इससे सालाना आधार पर लगभग 2-3 मिलियन टन कम्पोस्ट का उत्पादन किया जा सकता है। हालांकि, सिर्फ जैविक धान की खेती के लिए 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से सालाना लगभग 4 मिलियन टन खाद की आवश्यकता होती है। चाय बागानों के लिए जैविक खाद की मांग 30 लाख टन और हो सकती है। जाहिर है कि रासायनिक से जैविक खेती में बदलाव के साथ ही  श्रीलंका को जैविक उर्वरकों और जैव उर्वरकों के बड़े घरेलू उत्पादन की आवश्यकता है। हालांकि वर्तमान  स्थिति बहुत ही दयनीय है।

इस बीच अंतर्राष्ट्रीय  खाद-कीटनाशक लॉबी भी सक्रीय हो गई है और दुनिया को बता रही है कि श्रीलंका जैसा प्रयोग करने पर कितने संकट आयेंगे . हूवर इंस्टीट्यूशन के हेनरी मिलर कहते  हैं कि जैविक कृषि का घातक दोष कम पैदावार है जो इसे पानी और खेत की बर्बादी का कारण बनता है. प्लांट पैथोलॉजिस्ट स्टीवन सैवेज के एक अध्ययन के अनुसार, जैविक खेती की पर्यावरणीय लागत और दुष्प्रभावों का अपना हिस्सा है: " समूचे अमेरिका में जैविक खेती के लिए 109 मिलियन अधिक एकड़ भूमि की खेती की आवश्यकता होगी – जो देश की वर्तमान शहरी भूमि से 1.8 गुना अधिक है। एक बात और कही जा रही है कि जैविक खेती के कारण किसान को साल मने तीन तो क्या दो फसल मिलने में भी मुश्किल होगी क्योंकि इस तरह की फसल समय ले कर पकती है जिससे उपज अंतराल में और वृद्धि हो सकती है. उपज कम होने पर गरीब लोग बढ़ती कीमत की चपेट में आयेंगे . लेकिन यह भी कडवा सच है कि अंधाधुंध रसायन के इस्तेमाल से तैयार फसलों के कारण हर साल कोई पच्चीस लाख लोग सारी दुनिया में केंसर, फेफड़ों के रोग आदि से मारे जाते हैं , अकेले कीटनाशक के इस्तेमाल से आत्महत्या अकरने वालों का आंकडा सालाना  तीन लाख है . इस तरह के उत्पाद के भक्षण से आम लोगों की प्रतिरोध क्षमता कम होने, बीमारी का शिकार होने और असामयिक मौत से ना जाने कितना खर्च आम लोगों पर पड़ता है, साथ ही इससे इंसान के श्रम कार्य दिवस भी प्रभावित होते हैं  .

दूसरे विश्व युद्ध के बाद, बढती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए  सारी दुनिया में 'हरित क्रांति' शुरू की गई थी। 1960 के दशक तक पारंपरिक एशियाई खेती के तरीकों को एक उन्नत, वैज्ञानिक कृषि प्रणाली में बदल दिया गया था। उच्च पैदावार देने वाले हाइब्रिड बीजों को पेश किया गया था, लेकिन वे कृषि रसायनों पर अत्यधिक निर्भर थे, जिसके परिणामस्वरूप लोगों, जानवरों और पर्यावरण के लिए खतरा पैदा हो गया था। यह कैसी विडंबना है कि सारी दुनिया रसायन और कीटनाशक से उगाई फसल के इन्सान के शरीर और समूचे पर्यावरण पर दूरगामी नुक्सान से वाकिफ है लेकिन वैश्विक स्तर  पर महज एक प्रतिशत खेतों में ही सम्पूर्ण जैविक खेती हो रही है . यदि जैविक और पारंपरिक तरीकों का सलीके से संयोजन किया जाए तो  फसल की उत्पादकता को सहजता से बढ़ाया जा सकता है .

श्रीलंका की नई नीति  से भले ही आज खाद्य –आपातकाल जैसे भयावय हालात निर्मित हुए हों लेकिन यह लोगों को जहर मुक्त संतुलित आहार के अधिकार की गारंटी दे रही है। एक स्वस्थ और कुशल नागरिक बनाने के इरादे से, सरकार ने कहा कि उसने कृषि में केवल जैविक उर्वरक का उपयोग करने का निर्णय लिया है।  श्रीलंका में भी भारत की तरह खेती के पारंपरिक ज्ञान का भंडार है, वहां भी वृक्ष – आयुर्वेद की तरह के ग्रन्थ हैं , वहां अपनी बीज हैं और पानी के अच्छे प्राकर्तिक साधन भी , एक बार फिर जड़ों की तरफ लौटना शुरुआत में तो कष्टप्रद है लेकिन यह जलवायु परिवर्तन  से त्रस्त सारी दुनिया के लिए एक अनुकरणीय कदम होगा .

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

Did Savarkar have any role in Independence or Partition?

 आजादी, विभाजन और सावरकर 

पंकज चतुर्वेदी 

यदि सवाल किया जाए कि क्या देश की आजादी के लिए उसका विभाजन अनिवार्य था? क्या सावरकर का कोई ऐसा दखल आजदाी की लड़ाई में था कि विभाजन रूक जाता ? यदि उस काल की परिस्थितियों, जिन्ना-सावरकर के सांप्रदायिक कार्ड और ब्रितानी सरकार की फूट डालो वाली नीति को एकसाथ रखें तो स्पष्ट  हो जाता है कि भारत की जनता लंबे संघर्ष  के परिणाम ना निकलने से हताश हो रही थी और यदि तब आजादी को विभाजन की शर्त पर नहीं स्वीकारा जाता तो देश भयंकर सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ जाता और उसके बाद आजादी की लड़ाई कुंद हो जाती।  अभी तक कोई दस्तोवज, घटना या साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसमें जेल से लौटने के बाद स्वतंत्रता प्राप्ति तक कोई 27 साल के दौरान सावरकर द्वारा ब्रितानी हुकुमत के विरूद्ध कोई भाषण , आंदोलन, लेख, आदि उपलब्ध नहीं है। जहां नेहरु -गांधी- आजाद- सुभाष -पटेल की कांग्रेस  आजादी के बीज आम लोगों में बो कर उन्हें उसके लिए  प्रेरित कर रही थी, सावरकर की हिंदू महासभा का एक भी आयोजन या आंदोलन  ब्रितानी हुकुमत के खिलाफ नहीं रहा है। सो साफ है कि वह आजादी  की बातचीत में कोई पक्ष थे ही नहीं।  


सन 1935 में अंग्रेज सरकार ने एक एक्ट के जरिये भारत में प्रांतीय असेंबलियों में निर्वाचन के जरिये सरकार को स्वीकार किया। सन 1937 में चुनाव हुए। जान लें इसी 1937 से 1942 तक  सावरकर हिंदू महासभा के अध्यक्ष थे और चुनाव परिणाम में देश की जनता ने उन्हें हिंदुओं की आवाज मानने से इंकार कर दिया था। इसमें कुल तीन करोड़ 60 लाख मतदाता थे, कुल वयस्क आबादी का 30 फीसदी जिन्हें विधानमंडलों के 1585 प्रतिनिधि चुनने थे। इस चुनाव में मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित की गई थीें। कांग्रेस ने सामान्य सीटों में कुल 1161 पर चुनाव लड़ा और 716 पर जीत हांसिल की। मुस्लिम बाहुल्य 482 सीटों में से 56 पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा व 28 पर जीत हांसिल की। 11 में से छह प्रांतों में उसे स्पश्ट बहुमत मिला। ऐसा नहीं कि मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग को सफलता मिली हो, उसकी हालत बहुत खराब रही व कई स्थानीय छोटे दल कांग्रेस व लीग से कहीं ज्यादा सफल रहे। ठीक यही हालात सावरकर के हिंदू सांप्रदायिक दल के थे।  पंजाब में मुस्लिम सीट 84 थीें और उसे महज सात सीट पर उम्मीदवार मिल पाए व जीते दो। सिंध की 33 मुस्लिम सीटों में से तीन और बंगाल की 117 मुस्लिम सीटों में से 38 सीट ही लीग को मिलीं। यह स्पश्ट करती है कि मुस्लिम लीग को मुसलमान भी गंभीरता से नहीं लेते थे। 


हालांकि इस चुनाव में मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ उत्तर प्रदेश चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन नेहरू ने साफ मना कर दिया। यही नहीं 1938 में नेहरू ने कांग्रेस के सदस्यों की लीग या हिंदू महा सभा देानेां की सदस्यता या उनकी गतिविधियों में षामिल होने पर रेाक लगा दी।  1937 के चुनाव में आरक्षित सीटों पर लीग महज 109 सीट ही जीत पाई। लेकिन सन 1946 के चुनाव के आंकड़ें देखे तो पाएंगे कि बीते नौ सालों में मुस्लिम लीग का सांप्रदायिक एजेंडा खासा फल-फूल गया था।  केंद्रीय विधान सभा में मुसलमानों के लिए आरक्षित सभी 60 सीटों पर लग जीत गई।  राश्ट्रवादी मुसलमान महज 16 सीट जीत पाए जबकि हिंदू महासभा को केवल दो सीट मिलीं। जाहिर है कि हिंदुओं का बड़ा तबका कांग्रेस को अपना दल मान रहा था, जबकि लीग ने मुसलमानों में पहले से बेहतर स्थिति कर ली थी।  यदि 1946 के राज्य के आंकड़े देखें तो मुस्लिम आरक्षित सीटों में असम में 1937 में महज 10 सीठ जीतने वाली लीग 31 पर बंगाल में 40 से 113पंजाब में एक सीट से 73 उत्तर ्रपदेश में 26 से 54 पर लग पहिुंच गई थी। हालांकि इस चुनाव में कां्रगेस को 1937 की तुलना में ज्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन लीग ने अपने अलग राज्य के दावे को इस चुनाव परिणाम से पुख्ता कर दिया था। 



वे लोग जो कहते हैं कि यदि नेहरू जिद नहीं करते व जिन्ना को प्रधानमंत्री मान लेते तो देश का विभाजन टल सकता था, वे सन 1929 के जिन्ना- नेहरू समझौते की षर्तो के उस प्रस्ताव को गौर करें,(क्या देश का विभाजन अनिवार्य ही था, सर्व सेवा संघ पृ. 145) जिसमें जिन्न  नौ षर्ते थीें जिनमें  मुसलमानेां को गाय के वध की स्वतंत्रता, वंदेमातरम गीत ना गाने की छूट और तिरंगे झंडे में लीग के झंडे को भी षामिल करने की बात थी और उसे नेहरू ने बगैर किसी तर्क के  अस्वीकार कर दिया था। यदि हंिदू माहासभा की आजादी की षर्तो पर गार किया जाए तो वे भी लगभग ऐसी ही थीे। 

सन 1937 के चुनाव में अपने ही लोगों के बीच हार से बौखला कर जिन्ना ने  कांग्रेस मंत्रीमंडलों के विरूद्ध जांच दल भेजने, आरोप लगाने, आंदोलन करने आदि षुरू कर दिए थे। उस दौर में कांग्रेस की नीतियां भी राज्यों में अलग-अलग थी । जैसे कि संयुक्त प्रांत में कांग्रेस भूमि सुधार के बड़े बदलाव की समर्थक थी लेकिन पंजाब में वह इस मसले पर तटस्थ थी। मामला केवल जमीन का नहीं था, यह बड़े मुस्लिम जमींदारों के हितों का था। सन 1944 से 1947 तक भारत के वायसराय रहे फील्ड मार्शल ए पी बेवेल के पास आजादी और स्वतंत्रता को अंतिम रूप देने का जिम्मा था और वह मुस्लिम लीग से नफरत करता था। उसके पीछे भी कारण था- असल में जब भी वह लीग से पाकिस्तान के रूप में राश्ट्र का नक्शा चाहता, वे  सत्ता का संतुलन या मनोवैज्ञानिक प्रभाव जैसे भावनात्मक मुद्दे पर तकरीर करने लगते, ना उनके पास कोई भौगोलिक नक्शा था ना ही उसकी ठोस नीति।  ऐसे में अंग्रेज संयुक्त भारत को आजादी दे कर यहां अपनी विशाल सेना का अड्डा बरकरार रख  दुनिया में अपनी धाक की आकांक्षा रखते थे। वे लीग और कांग्रेस के मतभेदों का बेजा फायदा उठा कर ऐसा तंत्र चाहते थे जिसमें सेना के अलावा पूरा षासन दोनों दलों के हाथो में हो । 

नौ अप्रेल 1946 को पाकिस्तान के गठन का अंतिम प्रस्ताव पास हुआ था। उसके बाद 16 मई 1946 के प्रस्ताव में हिंदू, मुस्लिम और राजे रजवाडों की संयुक्त संसद का प्रस्ताव अंग्रेजों का था।  19 और 29 जुलाई 1946 को नेहरू ने संविधान संप्रभुता पर जोर देते हुए सैनिक  भी अपने देश को होने पर बल दिया। फिर 16 अगस्त  का वह जालिम दिन आया जब जिन्ना ने सीधी कार्यवाही के नाम पर खून खराबे का ख्ेाल खेल दिया।  हिंसा गहरी हो  गई और बेवेल की योजना असफल रही।  हिंसा अक्तूबर तक चलती रही और देश में व्यापक टकराव के हालात बनने लगे। आम लोग अधीर थे, वे रोज-रोज के प्रदर्शन, धरनों, आजादी की संकल्पना और सपनों के करीब आ कर छिटकने से हताश थे और इसी के बीच विभाजन को अनमने मन से स्वीकार करने और हर हाल में ब्रितानी हुकुमत को भगा देने पर मन मसोस कर सहमति बनी। हालांकि केवल कांग्रेसी ही नहीं, बहुत से लीगी भी यह मानते थे कि एक बार अंग्रेज चलें जाएं फिर दोनो देश  एक बार फिर साथ हो जाएंगे।  

आजादी की घोशणा के बाद बड़ी संख्या में धार्मिक पलायन और घिनौनी हिंसा, प्रतिहिंसा, लूट, महिलओं के साथ पाशविक व्यवहार, ना भूल पाने वाली नफरत में बदल गया। खोया देानेा तरफ के लोगों ने। लेकिन उस समय के हालात को गौर करें तो कोई एक फैसला लेना ही था और आजादी की लड़ाई चार दशकों से  लड़ रहे लोगों को अपने अनुभवों में जो बेहतर लगा, उन्होंने ले लिया। कौन गारंटी देता है कि आजादी के लिए कुछ और दशक रूकने या ब्रितानी सेना को बनाए रखने के फैसले इससे भी भयावह होते।  कुल मिला कर आजादी-विभाजन आदि में सावरकर की कोई भूमिका थी तो बस यह कि वे भी  धर्म के आधार पर देश के विभाजन के पक्षधर थे और हर कदम पर ब्रितानी हुकुमत के साथ थे। हालांकि वे खुद को हिंदुओं का नेता भी स्थापित नहीं कर पाए थे। 

#Sawarkar # Hindu mahsabha  # Independence 



सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

renewal energy can be solution of coal base electric crisis

 

वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत में है दम

मुद्दा

पंकज चतुर्वेदी 


दिनों देश में कोयले की कमी के चलते दमकती रोशनी और सतत विकास पर अंधियारा दिख रहा है। भारत की अर्थव्यवस्था में आए जबरदस्त उछाल ने ऊर्जा की खपत में तेजी से बढÃोतरी की है और यही कारण है कि देश गंभीर ऊर्जा संकट के मुहाने पर खडÃा है। आर्थिक विकास के लिए सहज और भरोसेमंद ऊर्जा की आपूर्ति अत्यावश्यक होती है‚ जबकि नई आपूर्ति का खर्च तो बेहद डांवाडोल है। ॥ भारत में यूं तो दुनिया में कोयले का चौथा सबसे बडÃा भंडार है‚ लेकिन खÃपत की वजह से भारत कोयला आयात करने में दुनिया में दूसरे नंबर पर है। हमारे कुल बिजली उत्पादन– ३‚८६८८८ मेगावाट में थर्मल पावर सेंटर की भागीदारी ६०.९ फीसद है। इसमें भी कोयला आधारित ५२.६ फीसद‚ लिग्नाइट‚ गैस व तेल पर आधारित बिजली घरों की क्षमता क्रमशः १.७‚ ६.५ और ०.१ प्रतिशत है। हम आज भी हाईड्रो अर्थात पानी पर आधारित परियोजना से महज १२.१ प्रतिशत‚ परमाणु से १.८ और अक्षय ऊर्जा स्रोत से २५.२ प्रतिशत बिजली प्राप्त कर रहे हैं। इस साल सितम्बर २०२१ तक‚ देश के कोयला आधारित बिजली उत्पादन में लगभग २४ प्रतिशत की बढÃोतरी हुई है। ॥ बिजली संयंत्रों में कोयले की दैनिक औसत आवश्यकता लगभग १८.५ लाख टन है‚ जबकि हर दिन महज १७.५ लाख टन कोयला ही वहां पहुंचा। यह किसी से छुपा नहीं है कि कोयले से बिजली पैदा करने का कार्य हम अनंत काल तक कर नहीं सकते क्योंकि प्रकृति की गोद में इसका भंडार सीमित है। वैसे भी दुनिया पर मंडरा रहे जलवायु परिवर्तन के खतरे में भारत के सामने चुनौती है कि किस तरह काबन उत्सर्जन कम किया जाए‚ जबकि कोयले के दहन से बिजली बनाने की प्रक्रिया में बेशुमार कार्बन निकलता है। कोयले से संचालित बिजलीघरों से स्थानीय स्तर पर वायु प्रदूषण की समस्या खडÃी हो रही है विशेष रूप से नाइट्रोजन ऑक्साइड और सल्फर ऑक्साइड के कारण। इन बिजलीघरों से उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसों से उपजा प्रदूषण ‘ग्रीन हाउस गैसों' का दुश्मन है और धरती के गरम होने और मौसम में अप्रत्याशित बदलाव का कारक है। परमाणु बिजली घरों के कारण पर्यावरणीय संकट अलग तरह का है। एक तो इस पर कई अंतरराट्रीय पाबंदिया हैं और फिर चेरनोबेल और फुकुशिमा के बाद स्पट हो गया है कि परमाणु विखंडन से बिजली बनाना किसी भी समय एटम बम के विस्फोट जैसे कुप्रभावों को न्योता है। आण्विक पदार्थों की देखभाल और रेडियोएक्टिव कचरे का निबटारा बेहद संवेदनशील और खतरनाक काम है। हवा सर्वसुलभ और खतराहीन उर्जा स्रोत है। आयरलैंड में पवन ऊर्जा से प्राप्त बिजली उनकी जरूरतों का १०० गुणा है। भारत में पवन ऊर्जा की अपार संभावनाएं हैं; इसके बावजूद हमारे यहां बिजली के कुल उत्पादन का महज १.६ फीसद ही पवन ऊर्जा से उत्पादित होता है। हमारी पवन ऊर्जा की क्षमता ३०० गीगावाट प्रतिवर्ष है। पवन ऊर्जा देश के ऊर्जा क्षेत्र की तकदीर बदलने में सक्षम है। देश में इस समय लगभग ३९ गीगावाट पवन–बिजली उत्पादन के संयत्र स्थापित हैं और हम दुनिया मेें चौथे स्थान पर हैं। यदि गंभीरता से प्रयास किया जाए तो अपनी जरूरत के ४० प्रतिशत बिजली को पवन ऊर्जा के माध्यम से पाना बेहद सरल उपाय है। ॥ सूरज से बिजली पाना भारत के लिए बहुत सहज है। देश में साल में आठ से दस महीने धूप रहती है और चार महीने तीखी धूप रहती है। वैसे भी जहां अमेरिका व ब्रिटेन में प्रति मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन पर खर्चा क्रमशः २३८ और २५१ डॉलर है वहीं भारत में यह महज ६६ डॉलर प्रति घंटा है‚ यहां तक कि चीन में भी यह व्यय भारत से दो डॉलर अधिक है। कम लागत के कारण घरों और वाणिज्यिक एवं औद्योगिक भवनों में इस्तेमाल किए जाने वाले छत पर लगे सौर पैनल जैसी रूफटॉप सोलर फोटोवोल्टिक (आरटीएसपीवी) तकनीक‚ वर्तमान में सबसे तेजी से लगाई जाने वाली ऊर्जा उत्पादन तकनीक है। अनुमान है कि आरटीएसपीवी से २०५० तक वैश्विक बिजली की मांग का ४९ प्रतिशत तक पूरा होगा। पानी से बिजली बनाने में पर्वतीय राज्यों के झरनों पर यदि ज्यादा निर्माण से बच कर छोटे टरबाइन लगाए जाएं और उनका वितरण भी स्थानीय स्तर पर योजनाबद्ध किया जाए तो दूरस्था पहाडÃी इलाकों में बिजली की पूर्ति की जा सकती है। बिजली के बगैर प्रगति की कल्पना नहीं की जा सकती। यदि ऊर्जा का किफायती इस्तेमाल सुनिश्चित किए बगैर ऊर्जा के उत्पादन की मात्रा बढÃाई जाती रही तो इस कार्य में खर्च किया जा रहा पैसा व्यर्थ जाने की संभावना है और इसका विषम प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पडÃेगा। ॥

बुधवार, 6 अक्तूबर 2021

Animals too have right to live on this Earth

 जीव-जंतुओं के जीने का अधिकार

कायनात ने एक शानदार सह-अस्तित्व और संतुलन का चक्र बनाया. हमारे पूर्वज यूं ही सांप या बैल या सिंह या मयूर की पूजा नहीं करते थे. छोटे-छोटे अदृश्य कीट भी उतने ही अनिवार्य हैं, जितने कि इंसान.


01 -07 अक्तूबर वन्य प्राणी सप्ताह 

धरती के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है जानवरों की मौजूदगी
पंकज चतुर्वेदी


जुलाई-2018 में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने एक आदेश में कहा था कि जानवरों को भी इंसान की ही तरह जीने का हक है। वे भी सुरक्षा, स्वास्थ्य और क्रूरता के विरूद्ध इंसान जैसे ही अधिकार रखते वैसे तो हर राज्य ने अलग-अलग जानवरों को राजकीय पषु या पक्षी घोषित  किया है लेकिन असल में ऐसे आदेशों  से जानवर बचते नहीं है। जब तक समाज के सभी वर्गों तक यह संदेश  नहीं जाता कि प्रकृति ने धरती पर इंसान , वनस्पति और जीव जंतुओं को जीने का समान अधिकार दिया, तब तक उनके संरक्षण को इंसान अपना कर्तव्य नहीं मानेगा। यह सही है कि जीव-जंतु या वनस्पति अपने साथ हुए अन्याय का ना तो प्रतिरोध कर सकते हैं और ना ही अपना दर्द कह पाते है। परंतु इस भेदभाव का बदला खुद प्रकृति ने लेना शुरू कर दिया। आज पर्यावरण संकट का जो चरम रूप सामने दिख रहा है, उसका मूल कारण इंसान द्वारा नैसर्गिकता में उपजाया गया, असमान संतुलन ही है। परिणाम सामने है कि अब धरती पर अस्तित्व का संकट है। समझना जरूरी है कि जिस दिन खाद्य श्रंखला टूट जाएगी धरती से जीवन की डोर भी टूट जाएगी। 

प्रकृति में हर एक जीव-जंतु का एक चक्र है। जैसे कि जंगल में यदि हिरण जरूरी है तो शेर भी। यह सच है कि शेर का भोजन हिरण ही है लेकिन प्राकृतिक संतुलन का यही चक्र है। यदि किसी जंगल में हिरण की संख्या बढ़ जाए तो वहां अंधाधुंध चराई से हरियाली को ंसकट खड़ा हो जाएगा, इसी लिए इस संतुलन को बनाए रखने के लिए शेर भी जरूरी है। वहीं ऊंचे पेड़ की नियमित कटाई-छंटाई के लिए हाथी जैसा ऊंचा प्राणी भी और षेर-तेंदुए द्वारा छोड़े गए षिकर के अवषेश को सड़ने से पहले भक्षण करने के लिए लोमड़ी-भेडिया भी। इसी तरह हर जानवर, कीट, पक्षी धरती पर इंसान के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है। 
अब गिद्ध को ही लें, भले ही इसकी शक्ल सूरत अच्छी ना हो , लेकिन हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए एक अनिवार्य पक्षी। 90 के दशक के शुरुआत में भारतीय उपमहाद्वीप में करोड़ों की संख्या में गिद्ध थे लेकिन अब उनमें से कुछ लाख ही बचे हैं । विशेषज्ञ बताते हैं कि उनकी संख्या हर साल आधी के दर से कम होती जा रही है।इसकी संख्या घटने लगी तो सरकार भी सतर्क हो गई- चंडीगढ़ के पास पिंजौर, बुंदेलखंड में ओरछा सहित देश के दर्जनों स्थानों पर अब गिद्ध संरक्षण की बड़ी-बड़ी परियोजनाएं चल रही है।ं जान लें कि मरे पशु को खा कर अपने परिवेश को स्वच्छ करने के कार्य में गिद्ध का कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है। हुआ यूं कि इंसान ने अपने लालच के चलते पालतु मवेशियों को देध के लिए रासायनिक इंजेक्शन देना शुरू कर दिए। वहीं मवेशी के भोजन में खेती में इस्तेमाल कीटनाशकों व रासायनिक दवाओं का प्रभाव बढ़ गया। अब गिद्ध अपने स्वभाव के अनुसर जब ऐसे मरे हुए जानवरों को खाने आया तो वह खुद ही असामयिक काल के गाल में समा गया। 


आधुनिकता ने अकेले गिद्ध को ही नहीं, घर में मिलने वाली गौरेया से ले कर  बाज, कठफोड़वा व कई अन्य पंक्षियों के असतित्व पर संकट खड़ा कर दिया है। वास्तव में ये पक्षी जमन पर मिलने वाले ऐसे कीड़ों व कीटों को अपना भोजन बनाते हैं जो खेती के लिए नुकसानदेह होते हैं। कौवा, मोर, टटहिरी, उकाब व बगुला सहित कई पक्षी जहां पर्यावरण को शुद्ध रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। वहीं मानव जीवन के उपयोग में भी इनकी अहम भूमिका है। 
जमीन की मिट्टी को उपजाऊ बनाने व सड़े-गले पत्ते खा कर शानदार मिट्टी उगलने वाले कैंचुए की संख्या धरती के अस्तित्व के लिए संकट है। प्रकृति के बिगड़ते संतुलन के पीछे अधिकतर लोग अंधाधुंध कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग मान रहे है। कीड़े-मकौड़े व मक्खियों की बढ़ रही आबादी के चलते इन मांसाहारी पक्षियों की मानव जीवन में बहुत कमी खल रही है। यदि इसी प्रकार पक्षियों की संख्या घटती गई तो आने वाले समय में मनुष्य को भारी परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। 
मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। यह सांप सहित कई जनघातक कीट-पतंगों की संख्या को नियंत्रित करने में प्रकृति का अनिवार्य तत्व है। ये खेतों में बोए गए बीजों को खाते हैं। चूंकि बीजों को रासायनिक दवाओं में भिगोया जा रहा है, सो इनकी मृत्यू हो जाती हे। यही नहीं दानेदार फसलों को सूंडी से बचाने के लिए किसान उस पर कीटनाशक छिड़कता है और जैसे ही मोर या अन्य पखी ने उसे चुगा, वह मारा जाता है। 

सांप को किसान का मित्र कहा जाता है। सांप संकेतक प्रजाति हैं, इसका मतलब यह है कि आबोहवा बदलने पर सबसे पहले वही प्रभावित होते हैं। इस लिहाज से उनकी मौजूदगी हमारी मौजूदगी को सुनिश्चित करती है। हम सांपों के महत्व को कम महसूस करते हैं और उसे डरावना प्राणी मानते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि उनके बगैर हम कीटों और चूहों से परेशान हो जाएंगे। यह भी जान लें कि ‘सांप तभी आक्रामक होते हैं, जब उनके साथ छेड़छाड़ किया जाए या हमला किया जाए। वे हमेशा आक्रमण करने की जगह भागने की कोशिश करते हैं।’
मेंढकों का इतनी तेजी से सफाया करने के बहुत भयंकर परिणाम सामने आए हैं। इसकी खुराक हैं वे कीड़े-मकोड़े, मच्छर तथा पतंगे, जो हमारी फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं। अब हुआ यह कि मेंढकों की संख्या बेहद घट जाने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया। पहले मेंढक बहुत से कीड़ों को खा जाया करते थे, किंतु अब कीट-पतंगों की संख्या बढ़ गई और वे फसलों को भारी नुकसान पहुँचाने लगे। 
दूसरी ओर साँपों के लिए भी कठिनाई उत्पन्न हो गई। साँपों का मुख्य भोजन हैं मेंढक और चूहे। मेंढक समाप्त होने से साँपों का भोजन कम हो गया तो साँप भी कम हो गए। साँप कम होने का परिणाम यह निकला कि चूहों की संख्या में वृद्धि हो गई। वे चूहे अनाज की फसलों को चट करने लगे। इस तरह मेंढकों को मारने से फसलों को कीड़ों और चूहों से पहुँचने वाली हानि बहुत बढ़ गई। मेंढक कम होने पर वे मक्खी-मच्छर भी बढ़ गए, जो पानी वाली जगहों में पैदा होते हैं और मनुष्यों को काटते हैं या बीमारियाँ 
कौआ भारतीय लोक परंपरा में यूं ही आदरणीय नहीं बन गया। हमारे पूर्वज जानते थे कि इंसान की बस्ती में कौए का रहना स्वास्थ्य व अन्य कारणो ंसे कितना महत्वपूण है। कौए अगर विलुप्त हो जाते हैं तो इंसान की जिंदगी पर इसका बुरा असर पड़ेगा। क्योंकि कौए इंसान को अनेक बीमारी एवं प्रदूषण से बचाता है। टीवी से ग्रस्त रोगी के खखार में टीवी के जीवाणु होते हैं, जो रोगी द्वारा बाहर फेंकते ही कौए उसे तुरंत खा जाते है, जिससे जीवाणु को फैलने से बचाता है। ठीक इसी तरह किसी मवेशी के मरने पर उसकी लाश  से उत्पन्न कीड़े-मकोड़े को सफाचट कर जाता है। आम लोगों द्वारा शौचालय खुले मैदान में कर दिए जाने पर वह वहां भी पहुंच उसे साफ करता है।  शहरी भोजन में रासायनिक हर  तथा पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण कौए भी समाज से विमुख होते जा रहे हैं। इंसानी जिंदगी में कौओं के महत्व को हमारे पुरखों ने बहुत पहले ही समझ लिया था। यही वजह थी कि आम आदमी की जिंदगी में तमाम किस्से कौओं से जोड़कर देखे जाते रहे। लेकिन अब इनकी कम होती संख्या चिंता का सबब बन रही है। जानकार कहते हैं कि इसके जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम खुद ही हैं जो पर्यावरण को प्रदूषित करके कौओं को नुकसान पहुंचा रहे हैं। 
भारत में संसार का केवल 2.4 प्रतिशत भू−भाग है जिसके 7 से 8 प्रतिशत भू−भाग पर भिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं। प्रजातियों की संवृधि के मामले में भारत स्तनधारियों में 7वें, पक्षियों में 9वें और सरीसृप में 5वें स्थान पर है। कितना सधा हुआ खेल है प्रकृति का ! मानव जीवन के लिए जल जरूरी है तो जल को संरक्षित करने के लिए नदी तालाब । नदी-तालाब में जल को स्वच्छ रखने के लिए मछली, कछुए और मेंढक अनिवार्य हैं। मछली  उदर पूर्ति के लिए तो मेंढक ज्यादा उत्पात न करें इसके लिए सांप अनिवार्य है और सांप जब संकट बने तो उनके लिए मोर या नेवला । कायनात ने एक शानदार सहअस्तित्व और संतुलन का चक्र बनाया । तभी हमारे पूर्वज यूँ ही सांप या बैल या सिंह या मयूर की पूजा नहीं करते थे, जंगल के विकास के लिए छोटे छोटे अदृश्य कीट भी उतने ही अनिवार्य हैं जितने इंसान , विडम्बना है की अधिक फसल के लालच में हम केंचुए और कई अन्य कृषि मित्र कीट को मार  रहे हैं ।


शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

we were never nonviolent

 02 अक्तूबर गांधी की यौमे पैदाईश पर 

हम कभी अहिंसक थे ही नहीं 

पंकज चतुर्वेदी 


जैसा कि हर 02 अक्तुबर को होता है, बहुत सारे लेख अखबारों में छपते हैं, - गांधी के सपने, उनको पूरा करने  की योजनाएं, नारे, गोष्ठी , पुरस्कार, राजघाट पर पुश्पांजलि। इस तरह रस्म अदायगी होती है और याद किया जाता है कि आज उस इंसान का जन्म दिन है जिसकी पहचान सारी दुनिया में अहिंसा के लिए है , जिसके बारे में कहा जाता है कि उनकी अहिंसा की नीति के बल पर देश को आजादी मिली और वह खुद हिंसा का शिकार हो कर गोलोकवासी हो गया था। भारत की आजादी की लड़ाई या समाज के बारे में देश-दुनिया की कोई भी किताब या नीति पढं़े ंतो पाएंगे कि हमारा मुल्क अहिंसा के सिद्धांत चलता है। एक वर्ग जो अपने पर ‘‘पिलपिले लोकतंत्र’ का आरोप लगवा कर गर्व महसूस करता है, खुद को गांधीवादी बताता है तो दूसरा वर्ग जो गांधी को देश के लिए अप्रासंगिक और बेकार मानता है वह भी ‘देश की गांधीवादी’(?) नीतियों को आतंकवाद जैसी कई समस्याओं का कारक मानता है। असल में इस मुगालते का कभी आकलन किया ही नहीं गया कि क्या हम गांधीवादी या अहिंसक हैं? आज तो यह बहस भी जम कर उछाली जा रही है कि असल में देश को अजादी गांधी या उनकी अहिंसा के कारण नहीं मिली, उसका असल श्रैय तो नेताजी की आजाद हिंद फौज या भगत सिंह की फंासी को जाता है।  जाहिर है कि खुला बाजार बनी दुनिया और हथियारों के बल पर अपनी अर्थ नीति को विकसित की श्रेणी में रखने वाले देश  हमारी अहिंसा ना तो मानेंगे और ना ही मानने देंगें।

आए रोज की छोटी-बड़ी घटनाएं गवाह हैं कि हम भी उतने ही हिंसक और अशांति प्रिय हैं जिसके लिए हम पाकिस्तान या अफगानिस्तान या अमेरिका को कोसते हैं। भरोसा ना हो तो अभी कुछ साल पहले ही अफजल गुरू या कसाब की फंासी के बाद आए बयान, जुलूस, मिठाई बांटने, बदला पूरा होने, कलेजे में ठंडक पहुंचने की अनगिनत घटनाओं को याद करें। सनद रहे अदालतों ने उन आतंकवादियों को फंासी की सजा सुना कर न्यायिक कर्तव्य की पूर्ति की थी- अदालतें बदला नहीं लेतीं। अपनी मांगों के लिए हुल्लड़ कर लोगांे  को सताने या सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करने, मामूली बात पर हत्या कर देने, पड़ोसी देश के एक के बदले 10 सिर लाने के बयान, एक के बदले 100 का धर्म परिवर्तन करवाने, सुरेन्द्र कोली को फंासी पर चढाने को बेताब दिखने वाले  जल्लाद के बयान जैसी घटनाएं आए रोज सुर्खियों में आती हैं और आम इंसान का मूल स्वभाव इसे उभरता है। गांधीे सपनों को सार्थ करने की बात करने वाले लोग जब सत्त में हैं तो दिल्ली  के ही बड़े हिस्से में 15 दिन से सफाई कर्मचारियों की हड़ताल और सउ़कों पर कूउ़ै के अंबार को गांधीवादी विरोध बताने का हास्यास्पद कृत्य करने वाले कम नहीं है। गांधी तो कहते थे कि हड़ताल में किसी अन्य को परेशानी ना हो। जाहिर है कि बदला पूरा होने की बात करना हमारे मूल हिंसक स्वभाव का ही प्रतीक है। 

आखिर यह सवाल उठ ही क्यो ंरहा है ? इंसानियत या इंसान को कटघरे में खड़ा करने के लिए नहीं , बल्कि इस लिए कि यदि एक बार हम मान लेगंे कि हमारे साथ कोई समस्या है तो उसके निदान की अनिवार्यता या विकल्प पर भी विचार करेंगे। हम ‘‘मुंह में गांधी और बगल में छुरी’ के अपने दोहरे चरित्र से उबरने का प्रयास करेंगे। जब सिद्धांततः मानते हैं कि हम तो अहिंसक या शांतिप्रिय समाज हैं तो  यह स्वीकार नहीं कर रहे होते हैं कि हमारे समाज के सामने कोई गूढ समस्या है जिसका निदान महति है।  मैनन, अफजल गुरू या कसाब की फंासी पर आतिशबाजी चलाना, या मिठाई बांटना उतना ही निंदनीय है जितना उनको मुकर्रर अदालती सजा के अमल का विरोध । जब समाज का कोई वर्ग अपराधी की फंासी पर खुशी मनाता है तो एकबारगी लगता है कि वह उन निर्दोश लोगों की मौत और उनके पीछे छूट गए परिवार के स्थाई दर्द की अनदेखी कर रहा है। ऐसा इसी लिए होता है क्योंकि समाज का एक वर्ग मूलरूप से हिंसा-प्रिय है। देश में आए रोज ऐसे प्रदर्शन, धरने, षादी-ब्याह, धार्मिक जुलूस देखे जा सकते हैं जो उन आत्ममुग्ध लोगों के षक्ति प्रदर्शन का माध्यम होते हैं और उनके सार्वजनिक स्थान पर बलात अतिक्रमण के कारण हजारों बीमार, मजबूर, किसी काम के लिए समय के के साथ दौड़ रहे लोगों के लिए षारीरिक-मानसिक पीड़ादायी होते हैं। ऐसे नेता, संत, मौलवी बेपरवाह होते हैं उन हजारों लेागों की परेशानियों के प्रति। असल में हमारा समाज अपने अन्य लोगों के प्रति संवेदनशील ही नहीं है क्योंकि मूलरूप से हिंसक-कीड़ा हमारे भीतर कुलबुलाता है। ऐसी ही हिंसा, असंवेदनशीलताऔर दूसरों के प्रति बेपरवाही के भाव का विस्तार पुलिस, प्रशासन और अन्य सरकारी एजेंसियो मंे होता है। हमारे सुरक्षा बल केवल डंडे  - हथियार की ताकत दिखा कर ही किसी समस्या का हल तलाशते हैं। 

हकीकत तो यह है कि गांधीजी शुरूआत से ही जानते थे कि हिंसा व बदला इंसान का मूल स्वभाव है व वह उसे बदला नहीं जा सकता। सन 1909 में ही , जब गांधीजी महात्मा गांधी नहीं बने थे, एक वकील ही थे, इंग्लैंड से अफ्रीका के अपनी समुद्री यात्रा के दौरान एक काल्पनिक पाठक से बातचीत में माध्यम से ‘हिंद स्वराज’’ में लिखते हैं (द कलेक्टेड वर्कस आफ गांधी, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, खंड 10 पेज 27, 28 और 32) - ‘‘ मैंने कभी नही कहा कि हिंदू और मुसलमान लड़ेंगे ही नही। साथ-साथ रहने वाले दो भाईयों के बीच अक्सर लड़ाई हो जाती है। कभी-कभी हम अपने सिर भी तुड़वाएंगे ही। ऐसा जरूर होना नहीं चाहिए, लेकिन सभी लेाग निश्पक्ष नहीं होते .....।.’’ देश के ‘अहिंसा-आयकान’ गांधीजी अपने अंतिम दिनों के पहले ही यह जान गए थे कि उनके द्वारा दिया गया अहिंसा का पाठ महज एक कमजोर की मजबूरी था। तभी जैसे ही आजादी और बंटवारे की बात हुई समग्र भारत में दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा कत्लेआम हो गया। जून-जुलाई 1947 में गांधीजी ने अपने दैनिक भाशण में कह दिया था -‘‘ परंतु अब 32 वर्श बाद मेरी आंख खुली है। मैं देखता हूं कि अब तक जो चलती थी वह अहिंसा नहीं है, बल्कि मंद-विरोध था। मंद विरोध वह करता है जिसके हाथ में हथियार नहीं होता। हम लाचारी से अहिंसक बने हुए थे, मगर हमारे दिलों में तो हिंसा भरी हुई थी। अब जब अंग्रेज यहां से हट रहे हैं तो हम उस हिंसा को आपस में लड़ कर खर्च कर रहे हैं।’’ गांधीजी अपने आखिरी दिनों इस बात से बेहद व्यथित, हताश भी थे कि वे जिस अहिंसा के बल पर अंग्रेजों को देश से निकालने का दावा करते रहे थे , वह उसे आम लोगों में स्थापित करने में असफल रहे थे। कैसी विडंबना है कि जिस हिंसा को ले कर गांधी दुखी थे, उसी ने उनकी जान भी ली।  जिस अहिंसा के बल पर वे स्वराज पाने का दावा कर रहे थे, जब स्वराज आया तो दुनिया के सबसे बड़े नरसंहार, विस्थापन , भुखमरी व लाखों लाशों को साथ लेकर आया। 

शायद हमें उसी दिन समझ लेना था कि भारत का समाज मूल रूप से हिंसक है, हमारे त्योहर-पर्व में हम तलवारें चला कर , हथियार प्रदर्शित कर खुश होते हैं। हमारे नेता सम्मान में मिली तलवारें लहरा कर गर्व महसूस करते हैं। हर रोज बाघा बॉर्डर पर आक्रामक तेवर दिखाकर लोगों में नफरत की आड़ में उत्साह भरना सरकार की नीति है। आम लोग भी कार में खरोंच, गली पर कचरे या एकतरफा प्यार में किसी की हत्या रकने में संकोच नहीं करता है। अपनी मांगों को समर्थन में हमारे धरने-प्रदर्शन दूसरों के लिए आफत बन कर आते हैं,लेकिन हम इसे लोकतंत्र का हिस्सा जता कर दूसरों की पीड़ा में अपना दवाब  होने का दावा करते हैं।

हम आजादी के बाद 74 सालों में छह बड़े युद्ध लड़ चुके हैं जिनमें हमारे कई हजार सैनिक मारे जा चुके हैं। हमारे मुल्क का एक तिहाई हिस्सा  सशस्त्र अलगाववादी आंदोलनों की चपेट में हैं जहां सालाना तीस हजार लोग मारे जाते हैं, जिनमें सुरक्षा बल भी षामिल हैं। देश में हर साल पैंतीस से चालीस हजार लोग आपसी दुश्मनियों में मर जाते हैं जो दुनिया के किसी देश में हत्या की सबसे बड़ी संख्या होती है। हमारा फौज व आंतरिक सुरक्षा का बजट स्वास्थ्य या शिक्षा के बजट से बहुत ज्यादा होता है। 

सवाल फिर खड़ा होता है कि आखिर हम यह क्यों मान लें कि हम हिंसक समाज हैं ? हमें स्वीकार करना होगा कि असहिश्णुता बढ़ती जा रही है। यह सवाल आलेख के पहले हिस्से में भी था। यदि हम यह मान लेते हैं तो हम अपनी शिक्षा, संस्कार, व्यवस्था, कानून में इस तरह की तब्दीली करने पर विचार कर सकते है जो हमारे विशाल मानव संसाधन के सकारात्मक इस्तेमाल में सहायक होगी। हम गर्व से कह सकेंगे कि जिस गांधी के जिस अहिंसा के सिद्धांत को नेल्सन मंडेला से ले कर जो बाइडन तक सलाम करते रहे हैं; हिंदुस्तान की जनता उस पर अमल करना चाहती है।  हमारी शिक्षा, नीतियों, महकमों में गांधी एक तस्वीर से आगे बढ़कर क्रियान्वयन स्तर पर उभरे, इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी हिंसक प्रवृति को अप रोग मानें। वैसे भी गांधी के नशा की तिजारत ना करने, अनाज व कपास पर सट्टा ना लगाने जैसी नीतियों पर सरकार की नीतियां बिल्कुल विपरीत हैं तो फिर आज अहिंसा की बात करना एक नारे से ज्यादा तो हैं नहीं । तभी देख लें गांधी जयंती पर गांधी आश्रम वीरान हैं और कनाट प्लेस पर उनके नाम पर चलने वाला षोरूम खचा-खच भरा है। 


Why was the elephant not a companion?

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