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बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

Worsening weather patterns are a warning to India

 मौसम का बिगडता मिजाज चेतावनी है भारत को 

पंकज चतुर्वेदी

 


 मध्यभारत में महिलाओं के लोकप्रिय पर्व करवा चौथ पर दशकों बाद शायद ऐसा  हुआ कि दिल्ली के करीबी इलाकों में भयंकर बरसात थी और चंद्रमा निकला नहीं।  समझ लें भारत के लोक पर्व, आस्था , खेती-अर्थ तंत्र सभी कुछ बरसात या मानसून पर केंद्रित है और जिस तरह मानसून परंपरा से भटक रहा है ं, वह हमारे पूरे तंत्र के लिए खतरे की घंटी है। इस बार भारत में सर्वाधिक दिनों तक मानसून भले ही सक्रिय रहा हो , लेकिन सभी जगह बरसात अनियमितत हुई व निर्धारित  कैलेंडर से हट कर हुई। भारत की समुद्री सीमा तय करने वाले केरल में बीते दिनों आया भयंकर जलप्लावन का ज्वार भले ही धीरे-धीरे छंट रहा हो लेकिन उसके बाद वहां जो कुछ हो रहा है, वह पूरे देश के लिए चेतावनी है। देश के सिरमौर उत्तराखंड के कुमायूं अंचल में तो बादल कहर बन कर बरसे हैं , बरसात का गत 126 साल का रिकार्ड टूट गया , 

अभी तक कोई पचास लोग मारे जा चुके हैं,  मकानों व् अन्य संपादा के नुक्सान का आकलन  हो ही नहीं पाया हैं , यह कुदरत के ही मार है की नैनीताल के माल रोड पर जल भराव हो गया और सभी झीलें उफान गईं यह गंभीर चेतावनी है कि जिस पहाड़ के पत्थर और पानी हम अपने मन से उजाड़ रहे हैं , वे जलवायु परिवर्तन की वैश्विक मार के चलते तेजी से प्रतिकार कर रहे हैं यह किसी से छुपा नहीं हैं कि उत्तरांचल  पर्यावरण के मामले में जितना वैविध्यपूर्ण है, उतना ही संवेदनशील हैं मौसम

 चक्र का अनियिमित होना, अचानक चरम मौसम की मार, तटीय इलाकों में अधिक और भयानक चक्रवातों का आना, बिजली गिरने की घटनाओं में इजाफा- यह बानगी है कि धरती के तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी और उसके गर्भ से उपजे जलवायु परिवर्तन का भीषण खतरा अब दुनिया के साथ-साथ भारत के सिर पर सवार हो गया है। 

इस बार की बरसात ने भारत को बता दिया है कि चरम मौसम की मार पूरे देश के सामाजिक-आर्थिक और भौगोलिक ताने-बाने को तहस-नहस करने को उतारू है। अकेले अक्तूबर के पहले 21 दिनों में उत्तराखंड में औसत से 546 फीसदी अधिक बरसात हुई तो दिल्ली में 339 प्रतिशत। बिहार में 234, हरियाणा में 139 और राजस्थान में औसत से 108 फीसदी अधिक बरसात होना खेती के लिए तबाही साबित हुआ है। इससे पहले जून-जुलाई ,जो मानसून के लिहाज से महत्वपूर्ण महीना माना जाता है, आषाढ़  को ठीक बरसा लेकिन अगले  ही पक्ष में देश में औसत बारिश से 92 फीसदी कम पानी गिरा। सावन अर्थात अगस्त में स्थिति और खराब हुई और 1901  के बाद छठी बार इस साल अगस्त में सूखा महीना गया। इस महीने में 24 फीसदी कम बारिश दर्ज की गई। इस अवधि में जब शेष  भारत में सूखे का खतरा मंडरा रहा था तो तो हिमालय का क्षेत्र जलमग्न हो उठा। बारिश इस कदर हुई कि उत्तराखंड और हिमाचल में गांव के गांव बह गए और करोड़ों का नुकसान हो गया।  उधर देश में कम बरसे पानी की की भरपाई सितंबर में होना लगभग नामूमकिन था लेकिन दक्षिण-पश्चिमी मानसून जाते-जाते तबाही मचा गया। जाहिर है कि अब बरसात का चक्र बदल रहा है और जलवायु परिवर्तन के छोटे-छोटे कारको ंपर आम लोगों को संवेदनशील बनाना जरूरी है।


दुर्भाग्य है कि सरकारी सिस्टम ने इस पर कागजी घोड़े खूब दौड़ाए लेकिन जमीनी हकीकत के लिए दिल्ली से सटे नोएडा-गाजियाबाद को लें जहां एक महीने से कूड़ा निस्तारण का काम रुका हुआ है, कूड़े को हिंडन नदी में डंप करने से लेकर चोरा-छिपे जलाने तक का काम जोरों पर है और यही ऐसे कारक हैं जो जलवायु परिवर्तन की मार को धार दे रहे हैं। यह केवल असामयिक मौसम बदलाव या ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं रहने वाला, यह इंसान के भोजन, जलाशयों में पानी की शुद्धता, खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता, प्रजनन क्षमता से लेकर जीवन के उन सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है जिसके चलते प्रकृति का अस्तित्व और मानव का जीवन सांसत में है।


यह तो सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टीएच चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपोर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ोतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। लेकिन नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार, कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे। दरअसल, 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौह तत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौधों से होती है। 1.4 अरब लोग लौह तत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है। दृ


शोध में पाया गया कि जहां अधिक कार्बन डाईऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में तीन तत्वों जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में प्रयोग के जरिए इस बात की पुष्टि भी की है। .रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाई आक्साइड पौंधों को बढ़ने में तो मदद करता है। लेकिन पौंधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देता है।.यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहा पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है। 



भारत के संदर्भ में यह तो स्पष्ट है कि हम वैश्विक प्रदूषण व जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की बेतहाशा जुताई, मवेशियों द्वारा हरियाली की अति चराई, जंगलों का विनाश और सिंचाई की दोषपूर्ण परियोजनाएं हैं। एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी  वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास किया जाना जरूरी हैं। सिंचाई के लिए भी छोटी, स्थानीय तालाब , कुओं पर आधारित रहने की अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। यह स्पष्ट है कि बड़े बांध जितने महंगे व अधिक समय में बनते हैं, उनसे उतना पानी तो मिलता नहीं है, वे नई-नई दिक्कतों को उपजाते हैं, सो छोटे तटबंध, कम लंबाई की नहरों के साथ-साथ रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिसतान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है। 


जलवायु परिवर्तन की मार भारत में जल की उपलब्धता पर भी पड़ रही है। देश में बीते 40 सालों के दौरान बरसात के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि इसमें निरंतर गिरावट आ रही है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में औसत वर्षा 141 सेंटीमीटर थी जो नब्बे के दशक में कम होकर 119 सेंटीमीटर रह गई है। उत्तरी भारत में पेयजल का संकट साल-दर-साल भयावह रूप लेता जा रहा है। तीन साल में एक बार अल्प वर्षा यहां की नियति बन गया है। तिस पर देश की सदानीरा गंगा-यमुना जैसी नदियों के उदगम ग्लैशियर बढ़ते तापमान से बैचेन हैं। 

विभिन्न अध्ययनों के आधार पर यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि यदि तापमान में 2 डिग्री सेटीग्रेड के लगभग वृद्धि होती है तो गेहूँ की उत्पादकता में कमी आयेगी। अनुमान है कि तापमान के 1 डिग्री सेटीग्रेड बढ़ने पर गेहूँ के उत्पादन में 4-5 करोड़ टन की कमी होगी। इसके अतिरिक्त वर्षा आधारित फसलां को अधिक नुकसान होगा क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण वर्षा की मात्रा कम होगी जिसके कारण किसानों को सिंचाई हेतु जल उपलब्ध नहीं हो पायेगा।



 


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