My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

Food crisis caused by organic farming

 

श्रीलंका : जैविक खेती की प्रतिबद्धता से उपजा  खाद्य संकट

पंकज चतुर्वेदी


हमारे पडोसी देश श्रीलंका में खाने-पीने की वस्तुओं का संकट खड़ा हो गया है .हालात इतने  खराब हए कि वहां खाद्य – आपातकाल लगाना पड़ा  और  आलू, चावल जैसी जरुरी चीजों के वितरण का जिम्मा  फौज के हाथों में दे दिया गया . यह सच है कि कोविड के कारण श्रीलंका की आर्थिक सम्रद्धि के मूल कारक पर्यटन को कोविड के कारण तगड़ा नुक्सान हुआ था लेकिन दो करोड़ 13 लाख की आबादी वाले छोटे से देश ने इसी साल अप्रैल में एक क्रांतिकारी कदम उठाया .  श्रीलंकाई सरकार ने देश की पूरी खेती को रासायनिक खाद और कीटनाशक से मुक्त कर  शत प्रतिशत जैविक खेती करना तय किया इस तरह बगैर रसायन के हर दाना उगाने वाला पहला देश बनने की चाहत में श्रीलंका ने कीटनाशकों उर्वरकों और कृषि रसायनों के आयात और उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया. दशकों से रसायन की आदी हो गई जमीन भी इतने त्वरित बदलाव के लिए तैयार नहीं थे फिर कीटनाशक-खाद की अंतर्राष्ट्रीय लॉबी को हुए इतने बड़े नुक्सान पर उन्हें भी कुछ खुराफात तो करना ही था .बहरहाल श्रीलंका के मौजूदा हालात के मद्देनजर साडी दुनिया के कृषि प्रधान देशों के लिए यह चेतावनी भी है और सीख भी कि यदि बदलाव करना है तो तत्काल  एक साथ करना होगा और उसके विपरीत तात्कालिक परिणामों के लिए भी तैयार होना पड़ेगा .

श्रीलंका के सकल घरेलु उत्पाद अर्थात  जीडीपी  में खेती-किसानी की भागीदारी 8.36% है और देश के कुल रोजगार में खेती का हिस्सा 23.73 फीसदी है . इस हरे भरे  देश में  चाय उत्पादन के जरिये बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा आती है , यहा हर साल 278.49 मेट्रिक किलोग्राम चाय पैदा होती है जिसमें कई किस्म दुनिया की सबसे महंगी चाय की हैं . खेती में रसायनों के इस्तेमाल की मार चाय के बागानों के अलावा काली मिर्च जैसे मसलों के बागानों पर भी असर पड़ा है , इस देश में चावल के साथ- साथ ढेर सारी फल सब्जी उगाई जाती है .  श्रीलंका सरकार का सोचना है कि भले ही रसायन वाली खेती में कुछ अधिक फसल आती है लेकिन उसके कारण पर्यावरण क्षरण, जल प्रदूषण हुआ है, और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है , देश जलवायु परिवर्तन  की मार झेल रहा है और देश को बचाने का एकमात्र तरीका है , खाद्ध को रसायन से पूरी तरह मुक्त करना . हालांकि विशेषज्ञों का अनुमान है कि फसलें देश के सामान्य उत्पादन का लगभग आधी रह जाएँगी ।

दूसरी तरफ  चाय उत्पादक भयभीत हैं कि कम फसल होने पर खेती में खर्चा बढेगा . पूरी तरह से जैविक हो जाने पर उनकी फसल का 50 प्रतिशत कम उत्पादन होगा लेकिन उसकी कीमत 50 प्रतिशत ज्यादा मिलने से रही .

श्रीलंका का यह निर्णय पर्यावरण, खाने की चीजों की गुणवत्ता और जमीन की सेहत को ध्यान में रखते है तो बहुत अच्छा लेकिन धरातल की वास्तिवकता यह है कि देश ने अपने किसानों को जैविक खेती के लिए व्यापक प्रशिक्षण तक नहीं दिया, फिर सरकार के पास पर्याप्त मात्रा में जैविक खाद भी उपलब्ध नहीं हैं. एक अनुमान के अनुसार, देश में हर दिन लगभग 3,500 टन नगरपालिका जैविक कचरा उत्पन्न होता है। इससे सालाना आधार पर लगभग 2-3 मिलियन टन कम्पोस्ट का उत्पादन किया जा सकता है। हालांकि, सिर्फ जैविक धान की खेती के लिए 5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से सालाना लगभग 4 मिलियन टन खाद की आवश्यकता होती है। चाय बागानों के लिए जैविक खाद की मांग 30 लाख टन और हो सकती है। जाहिर है कि रासायनिक से जैविक खेती में बदलाव के साथ ही  श्रीलंका को जैविक उर्वरकों और जैव उर्वरकों के बड़े घरेलू उत्पादन की आवश्यकता है। हालांकि वर्तमान  स्थिति बहुत ही दयनीय है।

इस बीच अंतर्राष्ट्रीय  खाद-कीटनाशक लॉबी भी सक्रीय हो गई है और दुनिया को बता रही है कि श्रीलंका जैसा प्रयोग करने पर कितने संकट आयेंगे . हूवर इंस्टीट्यूशन के हेनरी मिलर कहते  हैं कि जैविक कृषि का घातक दोष कम पैदावार है जो इसे पानी और खेत की बर्बादी का कारण बनता है. प्लांट पैथोलॉजिस्ट स्टीवन सैवेज के एक अध्ययन के अनुसार, जैविक खेती की पर्यावरणीय लागत और दुष्प्रभावों का अपना हिस्सा है: " समूचे अमेरिका में जैविक खेती के लिए 109 मिलियन अधिक एकड़ भूमि की खेती की आवश्यकता होगी – जो देश की वर्तमान शहरी भूमि से 1.8 गुना अधिक है। एक बात और कही जा रही है कि जैविक खेती के कारण किसान को साल मने तीन तो क्या दो फसल मिलने में भी मुश्किल होगी क्योंकि इस तरह की फसल समय ले कर पकती है जिससे उपज अंतराल में और वृद्धि हो सकती है. उपज कम होने पर गरीब लोग बढ़ती कीमत की चपेट में आयेंगे . लेकिन यह भी कडवा सच है कि अंधाधुंध रसायन के इस्तेमाल से तैयार फसलों के कारण हर साल कोई पच्चीस लाख लोग सारी दुनिया में केंसर, फेफड़ों के रोग आदि से मारे जाते हैं , अकेले कीटनाशक के इस्तेमाल से आत्महत्या अकरने वालों का आंकडा सालाना  तीन लाख है . इस तरह के उत्पाद के भक्षण से आम लोगों की प्रतिरोध क्षमता कम होने, बीमारी का शिकार होने और असामयिक मौत से ना जाने कितना खर्च आम लोगों पर पड़ता है, साथ ही इससे इंसान के श्रम कार्य दिवस भी प्रभावित होते हैं  .

दूसरे विश्व युद्ध के बाद, बढती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए  सारी दुनिया में 'हरित क्रांति' शुरू की गई थी। 1960 के दशक तक पारंपरिक एशियाई खेती के तरीकों को एक उन्नत, वैज्ञानिक कृषि प्रणाली में बदल दिया गया था। उच्च पैदावार देने वाले हाइब्रिड बीजों को पेश किया गया था, लेकिन वे कृषि रसायनों पर अत्यधिक निर्भर थे, जिसके परिणामस्वरूप लोगों, जानवरों और पर्यावरण के लिए खतरा पैदा हो गया था। यह कैसी विडंबना है कि सारी दुनिया रसायन और कीटनाशक से उगाई फसल के इन्सान के शरीर और समूचे पर्यावरण पर दूरगामी नुक्सान से वाकिफ है लेकिन वैश्विक स्तर  पर महज एक प्रतिशत खेतों में ही सम्पूर्ण जैविक खेती हो रही है . यदि जैविक और पारंपरिक तरीकों का सलीके से संयोजन किया जाए तो  फसल की उत्पादकता को सहजता से बढ़ाया जा सकता है .

श्रीलंका की नई नीति  से भले ही आज खाद्य –आपातकाल जैसे भयावय हालात निर्मित हुए हों लेकिन यह लोगों को जहर मुक्त संतुलित आहार के अधिकार की गारंटी दे रही है। एक स्वस्थ और कुशल नागरिक बनाने के इरादे से, सरकार ने कहा कि उसने कृषि में केवल जैविक उर्वरक का उपयोग करने का निर्णय लिया है।  श्रीलंका में भी भारत की तरह खेती के पारंपरिक ज्ञान का भंडार है, वहां भी वृक्ष – आयुर्वेद की तरह के ग्रन्थ हैं , वहां अपनी बीज हैं और पानी के अच्छे प्राकर्तिक साधन भी , एक बार फिर जड़ों की तरफ लौटना शुरुआत में तो कष्टप्रद है लेकिन यह जलवायु परिवर्तन  से त्रस्त सारी दुनिया के लिए एक अनुकरणीय कदम होगा .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...