My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

Destroy of Aravli can cause increase of desert

अरावली के उजड़ने से बढ़ रहा है रेगिस्तान

पंकज चतुर्वेदी 
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानि यूनेप की रपट कहती है कि दुनिया के कोई 100 देशों में उपजाउ या हरियाली वाली जमीन  रेत के ढेर से ढक रही है औा इसका असर एक अरब लेागों पर पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि यह खतरा पहले से रेगिस्तान वाले इलाकों से इतर है। बेहद हौले से और ना तत्काल दिखने वाली गति से विस्तार पा रहे रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक शोध बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकल कर कई राज्यों में जड़ जमा रहा है। इस बात पर बहुत कम लोग ध्यान देतें हैं कि भारत के राजस्थान से सुदूर पाकिस्तान व उससे आगे तक फैले भीशण रेगिस्तजान से हर दिन लाखों टन रेत उड़ती है और यह हरियाली वाले इलाकों तक ना पहुंचे इसकी सुरक्षा का काम अरावली पर्वतमाला सदियों से करती रही है। विडंबना है कि बीते चार दशकों में यहां मानवीय हस्तक्षेप और खनन इतना बढ़ा कि कई स्थानों पर पहाड़ की श्रंखला की जगह गहरी खाई हो गई और एक बड़ा कारण यह भी है कि अब उपजाऊ जमीन पर रेत की परत का विस्तार हो रहा है।
सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख 96 हजार 150 वर्ग किलोमीटर था जो कि आज दो लाख आठ हजार 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है। भारत की कुल 328.73 मिलियन जमीन में से 105.19 मिलियन जमीन पर बंजर ने अपना डेरा जमा लिया है, जबकि 82.18 मिलियन हैक्टर जमीन रेगिसतान में बदल रही है। यह हमारे लिए चिंता की बात है कि देश के एक-चौथाई हिस्से पर आने वाले सौ साल में मरूस्थल बनने का खतरा आसन्न है। हमारे यहां सबसे ज्यादा रेगितान राजस्थान में है, कोई 23 मिलियन हैक्टर। गुजरात, महाराष्ट्र, मप्र, और जम्मू-कश्मीर की 13 मिलियन भूमि पर रेगिस्तान है तो अब उड़ीसा व आंध््राप्रदेश में रेतीली जमीन का विस्तार देखा जा रहा है। अंधाधुंध सिंचाई व जम कर फसल लेने के दुष्परिणाम की बानगी पंजाब है, जहां दो लख हैक्टर जमीन देखते ही देखते बंजर हो गई। बंिटंडा, मानसा, मोगा, फिरोजपुर, मुक्तसर, फरीदकोट आदि में जमीन में रेडियो एक्टिव तत्व की मात्रा सीमा तोड़ चुकी है और यही रेगिस्तान की आमद का संकेत है।
यदि धरती पर जीवन के लिए वृक्ष अनिवार्य है तो वृक्ष के लिए पहाड़ का अस्तित्व बेहद जरूरी है। वृक्ष से पानी, पानी से अन्न तथा अन्न से जीवन मिलता है। ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन की विश्वव्यापी समस्या का जन्म भी जंगल उजाड़ दिए गए पहाड़ों से ही हुआ है। यह विडंबना है कि आम भारतीय के लिए ‘‘पहाड़’’ पर्यटन स्थल है या फिर उसके कस्बे का पहाड़ एक डरावनी सी उपेक्षित संरचना।  विकास के नाम पर पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ाया तो मैछानी क्षेत्रों में गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों, के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए जमीन जुटाने या कंक्रीट उगाहने के लिए पहाड़ को ही निशाना बनाया गया। यही नहीं जिन पहाड़ों पर  इमारती पत्थर या कीमती खनिज थे, उन्हें जम कर उजाड़ा गया और गहरी खाई, खुदाई से उपजी धूल को कोताही से छोड़ दिया गया। राजस्थान इस तरह से पहाड़ों के लापरवाह खनन की बड़ी कीमत चुका रहा है। यहां जमीन बंजर हुई, भूजल के स्त्रोत दूषित हुए व सूख गए, लोगों को बीमारियां लगीं व बारिश होने पर खाईयों में भरे पानी में मवेशी व इंसान डूब कर मरे भी।
गुजरात के खेड ब्रह्म से षुरू हो कर कोई 692 किलोमीटर तक फैली अरावली पर्वतमाला का विसर्जन देश के सबसे ताकतवर स्थान रायसीना हिल्स पर होता है जहां राश्ट्रपति भवन स्थित है। अरावली पर्वतमाला को कोई 65 करोड़ साल पुराना माना जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीन पहाड़ों में एक गिना गया है। ऐसी महत्वपूर्ण प्राकृतिक संरचना का बड़ा हिस्सा बीते चार दशक में पूरी तरह ना केवल नदारद हुआ, बल्कि कई जगह उतूंग शिखर की जगह डेढ सौ फुट गहरी खाई हो गई। असर में अरावली पहाड़ रेगिस्तान से चलने वाली आंधियों को रोकने का काम करते रहे हैं जिससे एक तो मरूभूमि का विस्तार नहीं हुआ दूसरा इसकी हरियाली साफ हवा और बरसात का कारण बनती रही। अरावली पर खनन से रोक का पहला आदेश 07 मई 1992 को जारी किया गया। फिर सन 2003 में एमासी मेहता की जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में आई। कई-कई ओदश आते रहे लेकिन दिल्ली में ही अरावली पहाड़ को उजाड़ कर एक सांस्थानिक क्षेत्र, होटल, रक्षा मंत्रालय की बड़ी आवासीय कोलेनी बना दी गई। अब जब दिल्ली में गरमी के दिनों में पाकिस्तान से आ रही रेत की मार व तपन ने तंग करना षुरू किया तब यहां के सत्ताधारियों को पहाड़ी की चिंता हुई। देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहीम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्श है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराश-हताश से अपनी अंतिम सांस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्श कर रहे हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार को आदेश दिया है कि वह 48 घंटे में अरावली पहाड़ियों के 115.34 हेक्टेयर क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन पर रोक लगाए। दरअसल राजस्थान के 1करीब 19 जिलों में अरावली पर्वतमाला निकलती है। यहां 45 हजार से ज्यादा वैध-अवैध खदाने है। इनमें से लाल बलुआ पत्थर का खनन बड़ी निर्ममता से होता है और उसका परिवहन दिल्ली की निर्माण जरूरतों के लिए अनिवार्य है। अभी तक अरावली को लेकर रिचर्ड मरफी का सिद्धांत लागू था. इसके मुताबिक सौ मीटर से ऊंची पहाड़ी को अरावली हिल माना गया और वहां खनन को निशिद्ध कर दिया गया था, लेकिन इस मामले में विवाद उपजने के बाद फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया ने अरावली की नए सिरे से व्याख्या की. फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, जिस पहाड़ का झुकाव तीन डिग्री तक है उसे अरावली माना गया. इससे ज्यादा झुकाव पर ही खनन की अनुमति है, जबकि राजस्थान सरकार का कहना था कि 29 डिग्री तक झुकाव को ही अरावली माना जाए. अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है और सुप्रीम कोर्ट यदि फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के तीन डिग्री के सिद्धांत को मानता है तो प्रदेश के 19 जिलों में खनन को तत्काल प्रभाव से बंद करना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों जब सरकार से पूछा कि राजस्थान की कुल 128 पहाड़ियों में से 31 को क्या हनुमानजी उठा कर ले गए? तब सभी जागरूक लोग चौंके कि इतनी सारी पांबदी के बाद भी अरावली पर चल रहे अवैध खनन से किस तरह भारत पर खतरा है।
यह बेहद दुखद और चिंताजनक तथ्य है कि बीसवीं सदी के अंत में अरावली के 80 प्रतिशत हिस्से पर हरियाली थी जो आज बामुश्किल सात फीसदी रह गई। जाहिर है कि हरियाली खतम हुई तो वन्य प्राणी, पहाड़ों की सरिताएं और छोटे झरने भी लुप्त हो गए। सनद रहे अरावली  रेगिस्तान की रेत को रोकने के अलावा मिट्टी के क्षरण, भूजल का स्तर बनाए रखने और जमीन की नमी बरकरार रखने वाली कई जोहड़ व नदियों को आसरा देती रही है। अरावली  की प्राकृतिक संरचना नश्ट होने की ही त्रासदी है कि वहां से गुजरने वाली साहिबी, कृश्णावति, दोहन जैसी नदियां अब लुप्त हो रही है। वाईल्ड लाईफ इंस्टीट्यूट की एक सर्वें रिपोर्ट बताती है कि जहां 1980 में अरावली क्षेत्र के महज 247 वर्ग किलोमीटर पर आबादी थी, आज यह 638 वर्ग किलोमीटर हो गई है। साथ ही इसके 47 वर्गकिमी में कारखाने भी हैं। जाहिर है कि भले ही 07 मई 1992 को भारत सरकार ने और उसके बाद एक जनहित याचिका पर 2003 में सुप्रीेम कोर्ट ने अरावली पर खनन और इंसानी गतिविधियों पर पांबदी लगाई हो, लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ हुआ नहीं।
जान लें कि जि तरह सांस लेने को स्वच्छ वायु जरूरी है वैसे ही स्वच्छ सांस के लिए आपके परिवेश में हरे-भरे पहाड़ की मौजूदगी महत्वपूर्ण है। यदि अरावली का क्षरण नहीं रूका तो देश की राजधानी दिल्ली, देश को अन्न देने वाले राज्य हरियाण और पंजाब में खेती पर संकट खड़ा हो जाएगा।



शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

जन जागरूकता से नियंत्रित करें पटाखे

पटाखों पर लगाम लगाने के लिए दीपावली का इंतजार करने से वांछित नतीजे शायद ही हासिल हों

पंकज चतुर्वेदी



दीपावली के करीब 15 दिन पहले सुप्रीम कोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा कि आतिशबाजी आम लोगों के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर डाल रही है और इसीलिए सीमित आवाज एवं कम प्रदूषण वाले पटाखे केवल दो घंटे, रात आठ से दस बजे, ही चलाए जा सकते हैं। यह आदेश आते ही कछ लोगों ने सोशल मीडिया पर नाराजगी जतानी शुरू कर दी और सुप्रीम कोर्ट को हंिदूू धर्म की परंपरा के खिलाफ बताने लगे। सच यह है कि विभिन्न धार्मिक ग्रंथों से यह स्पष्ट हो चुका है कि पटाखे चलाना कभी भी इस धर्म का हिस्सा नहीं रहा है। सनद रहे कि बीते साल दीवाली से पहले दिल्ली ही नहीं देश के एक बड़े हिस्से में ‘स्मॉग’ ने जो हाल किया था उसे याद कर ही सिरहन पैदा हो जाती है। स्मॉग (कोहरे और धुएं के मिश्रण) में जहरीले कण होते हैं जो भारी होने के कारण ऊपर उठ नहीं पाते। जब लोग सांस लेते हैं तो वे फेफड़े में पहुच जाते हैं, जो कैंसर, हृदय रोग और सांस की बीमारी का कारण बनते हैं। पिछले साल भी तीन बच्चों ने संविधान में प्रदत्त जीने के अधिकार का उल्लेख कर आतिशबाजी के कारण सांस लेने में होने वाली दिक्कत को लेकर सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी कि आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी जाए। तब अदालत ने पर्व की जनभावनाओं का खयाल कर पाबंदी से इन्कार कर दिया था, परंतु दिल्ली-एनसीआर की हवा में जहर के हालात देखते हुए इस इलाके में आतिशबाजी की बिक्री पर रोक जरूर लगा दी थी। सब जानते हैं कि देश की सबसे बड़ी अदालत के उस सख्त आदेश का असर बहुत कम हुआ। हालांकि प्रदूषण का स्तर थोड़ा कम तो हुआ था, लेकिन खतरनाक स्तर के दंश से मुक्त नहीं हो पाया था।1यह किसी से छिपा नहीं कि दीपावली की आतिशबाजी दिल्ली सहित देश के करीब 200 शहरों की आबोहवा को जहरीला कर देती है। राजधानी दिल्ली में तो कई सालों से बाकायदा एक सरकारी सलाह जारी की जाती है-यदि जरूरी न हो तो घर से न निकलें। चूंकि हरियाणा-पंजाब में खेत के अवशेष यानी पराली जल ही रही है, साथ ही हर जगह अनियोजित निर्माण, जाम, धूल के कण हवा को दूषित कर रहे हैं ऐसे में बेलगाम आतिशबाजी के कारण हालात बेकाबू हो सकते हैं। 1पटाखे जलाने से निकले धुएं में सल्फर डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, शीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर सांसों के जरिये शरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश में मौजूद पशु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाए तो भयानक वायु प्रदूषण होता है। यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाइकल किया जाए तो भी जहर प्रकृति में समाता है और यदि इसे डंपिंग में यूं ही पड़ा रहने दिया जाए तो इसके विषैले कण जमीन में जज्ब होकर भूजल और जमीन को स्थाई और लाइलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। आतिशबाजी से उपजे शोर के घातक परिणाम तो हर साल बच्चे, बूढ़े और बीमार लोग भुगतते ही हैं। इस पर गौर करें कि रात 10 बजे के बाद वैसे भी पटाखे चलाना अपराध है। कार्रवाई होने पर छह माह की सजा भी हो सकती है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने 2005 में दिया था जो अब कानून की शक्ल ले चुका है, फिर भी दीवाली पर रातभर पटाखे चलते हैं। देखा जाए तो आतिशबाजी को नियंत्रित करने की शुरुआत ही लापरवाही से है। विस्फोटक नियमावली 1983 और विस्फोटक अधिनियम के परिपालन में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिए थे कि 145 डेसीबल से अधिक ध्वनि तीव्रता के पटाखों का निर्माण, उपयोग और विक्रय गैरकानूनी है। प्रत्येक पटाखे पर केमिकल एक्सपायरी और एमआरपी के साथ-साथ उसकी तीव्रता भी अंकित होनी चाहिए, लेकिन बाजार में बिकने वाले पटाखों पर उसकी ध्वनि तीव्रता अंकित नहीं होती। बाजार में 500 डेसीबल की तीव्रता के पटाखे भी उपलब्ध हैं। यही नहीं चीन से आए पटाखों में जहर की मात्र असीम है और इस पर कहीं कोई रोक टोक नहीं है। 1कानून कहता है कि पटाखा छूटने के स्थल से चार मीटर के भीतर 145 डेसीबल से अधिक आवाज नहीं हो। अस्पताल, शैक्षणिक स्थल, न्यायालय परिसर और सक्षम अधिकारी द्वारा घोषित स्थल से 100 मीटर की परिधि में किसी भी तरह का शोर तो कभी नहीं किया जा सकता, लेकिन इस सबकी अनदेखी होती है। परंपरा और धर्म के नाम पर आतिशबाजी चलाने वालों को जानना चाहिए कि प्रदूषण से होने वाली मौतों में भारत शीर्ष पर रहा है। लैंसेट जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2015 में वायु, जल और दूसरी तरह के प्रदूषण की वजह से भारत में 25 लाख लोगों ने जान गंवाई। आतिशबाजी नियंत्रित करने के लिए दीपावली का इंतजार करने से बेहतर होगा कि पूरे साल पटाखों में प्रयुक्त सामग्री और उनकी आवाज पर नियंत्रण की कोशिश हो। इसी तरह प्रचार माध्यमों और पाठ्य पुस्तकों के जरिये आम लोगों को यह बताया जाए कि पटाखों के क्या नुकसान होते हैं। जिन ग्रीन पटाखों की बात हो रही है वही बनने चाहिए।11ी2स्रल्ल2ीAं¬1ंल्ल.ङ्घे

बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

crackers can make permanent cracks in your life

कही ‘सबरीमला’ ना हो जाए आतिशबाजी के आदेश
पंकज चतुर्वेदी
दीपावली के  15 दिन पहले सुप्रीमत कोर्ट ने मान लिया कि आतिशबाजी आम लोगों के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर डाल रही है और इसी लिए सीमित आवाज के पटाखे केवल दो घंटे ही चलाए जा सकते हैं। यह आदेश आते ही देश में कुछ लोग, खासकर सोशल मीडिया पर  बहस चला रहे हैं कि दीपावली पर आतिशबाजी पर पाबंदी हिंदू धर्म पर खतरा है। हालांकि विभिन्न धार्मिक ग्रंथों से यह स्पश्ट हो चुका है कि बारूद के पटाखे चलाना कभी भी इस धर्म  या आस्था की परंपरा का हिस्सा रहा नहीं है। यानी तय है कि आतिशाबाजी के आदेश का ‘सबरीमला’ ही होगा। सनद रहे कि इस साल दीवाली से पहले ही दिल्ली ही नहीं देश के बड़े हिस्से में ‘स्मॉग’ ने जो हाल किया है, उसे याद कर ही सिरहन आ जाती है। स्मॉग यानि फॉग यानि कोहरा और स्मोक यानि धुआं का मिश्रण। इसमें जहरीले कण षामिल होते हैं जो कि भारी होने के कारण उपर उठ नहीं पाते व इंसान की पहुंच वले वायुमंडल में ही रह जाते हैं। जब इंसान सांस लेता है तो ये फैंफड़े में पहुच जाते हैं। किस तरह दमे और सांस की बीमारी के मरीज बेहाल रहे हैं, किस तरह सड़कों पर यातायात प्रभावित हो रहा है , कई हजार लोग ब्लड प्रेशर व हार्ट अटैक की चपेट में आ रहे हैं- इसके किस्से हर कस्बे, षहर में हैं। विदित हो दो साल पहले 28 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह कहते हुए आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबंदी से इंकार कर दिया था कि इसके लिए पहले से ही दिशा-निर्देश उपलब्ध हैं व सरकार को इस पर अमल करना चाहिए।

 तीन मासूम बच्चों ने संविधान में प्रदत्त जीने के अधिकार का उल्लेख कर आतिशबाजी के कारण सांस लेने में होने वाली दिक्कत को ले कर सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई थी कि आतिशबाजी पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी जाए। सरकार ने अदालत को बताया था कि पटाखे ंचलाना, प्रदूशण का अकेला कारण नहीं है। अदालत ने भी पर्व की जन भावनाओं का खयाल कर पाबंदी से इंकार कर दिया था। सन 2017 में  सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली एनसीआर की हवा में जहर के हालात देखते हुए इलाके में आतिशबाजी की बिक्री पर रोक लगाई थी। इसी साल कई राज्य सरकारों ने अपने यहां ज्यादा आवाज के बम-पटाखों पर पांबदी लगाई । इस साल बिक्री से पांबदी तो हटा ली लेकिन क़ी शर्त के साथ।

09 अक्तूबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने 01 नवंबर 2017 तक दिल्ली-एनसीआर और आसपास के इलाकों में पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी थी। कोर्ट ने कहा कि हवा की गुणवत्ता की जांच के लिए यह कदम उठाया गया है। सनद रहे इस साल दिवाली 19 अक्टूबर को थी। जस्टिस ए के सीकरी की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा, ‘हमें एक दिवाली पटाखा मुक्त देखनी चाहिए और जानना चाहिए कि इसका असर क्या होता है।’ हालांकि पिछले साल भी देश की सबसे बड़ी अदालत के सख्त आदेश का असर बहुत कम हुआ और प्रदूशण का स्तर थोड़ा कम तो हुआ लेकिन खतरनाक स्तर के दंश से मुक्त नहीं हुआ। हालांकि परंपरा और धर्म के नाम पर आतिशबाजी चलाने वाले जानते थे कि साल 2015 में प्रदूषण से होने वाली मौतों में भारत सबसे षीर्श पर रहा है। ‘लैंसेट जर्नल’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2015 में वायु, जल और दूसरे तरफ के प्रदूषणों की वजह से भारत में 25 लाख लोगों ने जान गंवाई। दिल्ली प्रदूशण नियंत्रण बोर्ड ने पाबंदी वाली रात के बाद आंकड़े जारी कर बताया कि सुबह 6 बजे अलग-अलग जगहों पर प्रदूषण का स्तर अपने सामान्य स्तर से कहीं ज््यादा ऊपर था। यहां तक कई जगहों पर यह 24 गुना से भी ज्यादा रिकॉर्ड किया गया है. सुबह 6 बजे के आंकड़ों की बात करें तो पीएम 2.5 का स्तर पीएम 10 से कहीं ज्यादा बढ़ा हुआ है. पीएम 2.5 वह महीन कण हैं जो हमारे फेफड़े के आखिरी सिरे तक पहुंच जाते हैं और कैंसर की वजह भी बन सकते हैं. चिंता की बात यह है कि पीएम 2.5 का स्तर इंडिया गेट जैसे इलाकों में जहां हर रोज सुबह कई लोग आते हैं वहां 15 गुने से भी ज्यादा ऊपर आया है।

पिछले साल यह साफ हो चुका था कि आतिशबाजी चलाने वालों को कानून व सुप्रीम कोर्ट की परवाह नहीं है । पूरे देश में हवा इतनी जहर हो गई कि 68 करोड़ लेागों की जिंदगी तीन साल कम हो गई। अकेले दिल्ली में 300 से ज्यादा जगह आग लगी व पूरे देश में आतिशबाजी के कारण लगी आग की घटनाओं की संख्या हजारों में हैं। इसका आंकड़ा रखने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि कितने लेाग आतिशबाजी के धुंए से हुई घुटन के कारण अस्पताल गए। दीपावली की रात प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी व देश के लिए अनिवार्य ‘‘स्वच्छता अभियान’’ की दुर्गति देशभर की सड़कों पर देखी गई। हालांकि इस बीच एक उम्मीद की किरण दिल्ली में सिख समाज की ओर से आई है। आगामी श्री गुरूनानक देव के प्रकाशोत्सव पर होने वाले आयोजन व जुलूस में किसी भी प्रकार की आतिशबाजी ना चलाने का संकल्प दिल्ली सिख गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटी ने लिया  है।

यह किसी से छुपा नहीं है कि दीपावली की आतिशबाजी राजधानी दिल्ली सहित देश के 200 से अधिक महानगरों व षहरों की आवोहवा को जहरीला कर देती है । राजधानी दिल्ली में तो कई सालों से बाकायदा एक सरकारी सलाह जारी की जाती है -  यदि जरूरी ना हो तो घर से ना निकलें। फैंफडों को जहर से भर कर अस्थमा व कैंसर जैसी बीमारी देने वाले पीएम यानि पार्टिक्यूलर मैटर अर्थात हवा में मौजूद छोटे कणों की निर्धारित सीमा 60 से 100 माईक्रो ग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है, जबकि दीपावली से पहले ही यह सीमा 900 के पार तक हो गई है। ठीक यही हाल ना केवल देश के अन्य महानगरों के बल्कि प्रदेशेां की राजधानी व मंझोले षहरों के भी हैं । चूंिक हरियाणा-पंजाब में खेत के अवशेश यानि पराली जल ही रही है, साथ ही हर जगह विकास के नाम पर हो रहे अनियोजित निर्माण जाम, धूल के कारण हवा को दूशित कर रहे हैं, तिस पर मौसम का मिजाज। यदि ऐसे में आतिशबाजी चलती है तो हालात बेकाबू हो सकते हैं। सनद रहे कि पटाखें जलाने से निकले धुंए में सल्फर डाय आक्साईड, नाईट्रोजन डाय आक्साईड, कार्बन मोनो आक्साईड, षीशा, आर्सेनिक, बेंजीन, अमोनिया जैसे कई जहर सांसों के जरिये षरीर में घुलते हैं। इनका कुप्रभाव परिवेश में मैाजूद पशु-पक्षियों पर भी होता है। यही नहीं इससे उपजा करोड़ों टन कचरे का निबटान भी बड़ी समस्या है। यदि इसे जलाया जाए तो भयानक वायु प्रदूशण होता है। यदि इसके कागज वाले हिस्से को रिसाईकल किया जाए तो भी जहर घर, प्रकृति में आता है। और यदि इसे डंपिंग में यूं ही पड़ा रहने दिया जाए तो इसके विशैले  कण जमीन में जज्ब हो कर भूजल व जमीन को स्थाई व लाईलाज स्तर पर जहरीला कर देते हैं। आतिशबाजी से उपजे षोर के घातक परिणाम तो हर साल बच्चे, बूढ़े व बीमार लोग भुगतते ही हैं। दिल्ली के दिलशाद गार्डन में मानसिक रोगों को बड़ा चिकित्सालय है। यहां अधिसूचित किया गया है कि दिन में 50 व रात में 40 डेसीबल से ज्यादा का षोर ना हो। लेकिन यह आंकड़ा सरकारी मॉनिटरिंग एजेंसी का है कि दीपावली के पहले से यहां षोर का स्तर 83 से 105 डेसीबल के बीच है। दिल्ली के अन्य इलाकों में यह 175 तक पार गया है।
हालांकि यह सरकार व समाज देानेां को भलीभांति जानकारी थी  कि रात 10 बजे के बाद पटाखे चलाना अपराध है। कार्रवाई होने पर छह माह की सजा भी हो सकती है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2005 में दिया था जो अब अब कानून की शक्ल ले चुका है। 1998 में दायर की गई एक जनहित याचिका और 2005 में लगाई गई सिविल अपील का फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए थे। 18 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति आरसी लाहोटी और न्यायमूर्ति अशोक शर्मा ने बढ़ते शोर की रोकथाम के लिए कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने अधिकारों की आड़ में दूसरों को तकलीफ पहुंचाने, पर्यावरण को नुकसान करने की अनुमति नहीं देते हुए पुराने नियमों को और अधिक स्पष्ट किया, ताकि कानूनी कार्रवाई में कोई भ्रम न हो। अगर कोई ध्वनि प्रदूषण या सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्देशों का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ भादंवि की धारा 268, 290, 291 के तहत कार्रवाई होगी। इसमें छह माह का कारावास और जुर्माने का प्रावधान है। पुलिस विभाग में हेड कांस्टेबल से लेकर वरिष्ठतम अधिकारी को ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर कार्रवाई का अधिकार है। इसके साथ ही प्रशासन के मजिस्ट्रियल अधिकारी भी कार्रवाई कर सकते हैं। विडंबना है कि इस बार  रात एक बजे तक जम कर पटाखें बजे, ध्वनि के डेसीमल को नापने की तो किसी को परवाह थी ही नहीं, इसकी भी चिंता नहीं थी कि ये धमाके व धुआं अस्पताल, रिहाईशी इलााकों या अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में बेरोकटोक किए जाते रहे ।
असल में आतिशबाजी को नियंत्रित करने की षुरूआत ही लापरवाही से है। विस्फोटक नियमावली 1983 और विस्फोटक अधिनियम के परिपालन में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिए थे कि 145 डेसीबल से अधिक ध्वनि तीव्रता के पटाखों का निर्माण, उपयोग और विक्रय गैरकानूनी है। प्रत्येक पटाखे पर केमिकल एक्सपायरी और एमआरपी के साथ-साथ उसकी तीव्रता भी अंकित होना चाहिए, लेकिन बाजार में बिकने वाले एक भी पटाखे पर उसकी ध्वनि तीव्रता अंकित नहीं है। सूत्रों के मुताबिक बाजार में 500 डेसीबल की तीव्रता के पटाखे भी उपलब्ध हैं। यही नहीं चीन से आए पटाखों में जहर की मात्रा असीम है व इस पर कहीं कोई रोक टोक नहीं है। कानून कहता है कि पटाखा छूटने के स्थल से चार मीटर के भीतर 145 डेसीबल से अधिक आवाज नहीं हो। शांति क्षेत्र जैसे अस्पताल, शैक्षणिक स्थल, न्यायालय परिसर व सक्षम अधिकारी द्वारा घोषित स्थल से 100 मीटर की परिधि में किसी भी तरह का शोर 24 घंटे में कभी नहीं किया जा सकता।
पिछले साल अदालत ने तो सरकार को समझाईश दे दी थी कि केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारें पटाखों के दुष्प्रभावों के बारे में प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में व्यापक प्रचार करें और जनता को इस बारे में सलाह दे। लेकिन छट पूजा के अवसर पर दिल्ली में मुख्यमंत्री की मौजूदगी में लेाग आतिशबाजी चलाते रहे व उन्होंने एक अच्छे नागरिक की तरह लोगों को ऐसा करने से रोका नहीं। इस साल तो सरकार ने विज्ञापन भी जारी नहीं किए, देशभर के स्कूलों में बच्चों को आतिशबाजी ना चलाने की षपथ, रैली जैसे प्रयोग भी बहुत कम हुए। टीवी व अन्य प्रचार माध्यमों ने भी इस पर कोई अभियान चलाया नही ंथा,,
यह जान लें कि दीपावली पर परंपराओं के नाम पर कुछ घंटे जलाई गई बारूद कई-कई साल तक आपकी ही जेब में छेद करेगी, जिसमें दवाईयों व डाक्टर पर होने वाला व्यय प्रमुख है। हालांकि इस बात के कोई प्रमाण नहीं है कि आतिशबाजी चलाना सनातन धर्म की किसी परंपरा का हिस्सा है, यह तो कुछ दशक पहले विस्तारित हुई सामाजिक त्रासदी है। आतिशबाजी पर नियंत्रित करने के लिए दीपावली का इंतजार करने से बेहतर होगा कि पूरे साल आतिशबाजियों में प्रयुक्त सामग्री व आवाज पर नियंत्रण, दीपावली के दौरान हुए अग्निकांड, बीमार लोग , बेहाल जानवरों की सच्ची कहानियां सतत प्रचार माध्यमों व पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से आम लेागों तक पहुंचाने का कार्य षुरू किया जाए।

बुधवार, 17 अक्तूबर 2018

Capital Delhi turns in gas chamber

जानलेवा साबित होता वायु प्रदूषण

हवा में पीएम ज्यादा होने का अर्थ है-आंखों में जलन, फेफड़े खराब होना, अस्थमा, कैंसर और दिल के रोग

पंकज चतुर्वेदी



देश की राजधानी दिल्ली और आसपास के लोग अभी भले ही स्मॉग के भय से भयभीत न हों, लेकिन जैसे-जैसे आसपास के राज्यों में पराली जलाने में तेजी आ रही है, दिल्लीवासियों की सांसें अटक रही हैं। यहां प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ चुका है। देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिशत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी और हवा में उड़ते मध्यम आकार के धूल कणों की ही है। यहां की हवा को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुएं की 17 फीसद और पैटकॉन जैसे पेट्रो-ईंधन की 16 प्रतिशत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं जैसे कूड़ा जलाना। दिल्ली सरकार आबोहवा को लेकर कितनी चिंतित है, इसकी बानगी है एनजीटी का वह हालिया आदेश जिसमें बढ़ते प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए नाकाम रहने पर दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड पर जुर्माना लगाया गया है। एक अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब-हरियाणा के खेतों में कुल तीन करोड़ 50 लाख टन पराली जलाई जाती है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डाईऑक्साइड, तीन किलो ठोस कण, 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साइड, 1460 किलो कार्बन डाईऑक्साइड और करीब 200 किलो राख निकलती हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन फसल अवशेष जलते हैं तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। हानिकारक गैसों एवं सूक्ष्म कणों से परेशान दिल्ली वालों के फेफड़ों को कुछ महीने हरियाली से उपजे प्रदूषण से भी जूझना पड़ता है। विडंबना है कि परागण से सांस की बीमारी पर चर्चा कम ही होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की ताकत उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ मिलकर अधिक जहरीले हो जाते हैं। ये प्रोटीन जैसे ही हमारे खून में मिलते हैं, एक तरह की एलर्जी को जन्म देते हैं। यह एलर्जी इंसान को गंभीर सांस की बीमारी की तरफ ले जाती है। चूंकि गर्मी में ओजोन परत और मध्यम आकार के धूल कणों का प्रकोप ज्यादा होता है इसलिए पराग कणों के शिकार लोगों के फेफड़े क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। लिहाजा ठंड शुरू होते ही दमा के मरीजों का दम फूलने लगता है।1यह तो सभी जानते हैं कि मिट्टी के कण लोगों को सांस लेने में बाधक बनते हैं। मानकों के अनुसार हवा में पार्टीकुलेट मैटर यानी पीएम की मात्र 100 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर होनी चाहिए, लेकिन अभी ये खतरनाक पार्टिकल 240 के करीब पहुंच गए हैं। इसका एक बड़ा कारण विकास के नाम पर हो रहे वे अनियोजित निर्माण कार्य हैं, जिनसे असीमित धूल उड़ रही है। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों में जलन, फेफड़े खराब होना, अस्थमा, कैंसर और दिल के रोग।1वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद यानी सीएसआइआर और केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान द्वारा हाल में दिल्ली की सड़कों पर किए गए एक सर्वे से पता चला है कि सड़कों पर लगातार जाम लगे होने और इस कारण बड़ी संख्या में वाहनों के रेंगते रहने से गाड़ियां डेढ़ गुना ज्यादा ईंधन पी रही हैं। जाहिर है उतना ही अधिक जहरीला धुआं यहां की हवा में शामिल हो रहा है। 1बीते मानसून के दौरान ठीकठाक बरसात होने के बावजूद दिल्ली के लोग बारीक कणों से हलकान हैं तो इसका मूल कारण विकास की वे तमाम गतिविधियां हैं जो बगैर अनिवार्य सुरक्षा नियमों के संचालित हो रही हैं। इन दिनों राजधानी के परिवेश में इतना जहर घुल रहा है जितना दो साल में कुल मिलाकर नहीं होता। बीते 17 सालों में दिल्ली में हवा के सबसे बुरे हालात हैं। आज भी हर घंटे एक दिल्लीवासी वायु प्रदूषण का शिकार हो कर अपनी जान गंवा रहा है। गत पांच वर्षो के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है। एक अंतरराष्ट्रीय शोध रिपोर्ट में यह आशंका जताई गई है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार होकर असामयिक मौत के मुंह में समा जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक व्यक्ति की मौत होती है। यह भी जानना जरूरी है कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआइ यानी एयर क्वॉलिटी इंडेक्स होना चाहिए, लेकिन जाम से हलकान दिल्ली में यह आंकड़ा 190 ही रहता है। देश के अन्य शहरों में भी यह सामान्य स्तर से अधिक रहता है।1वाहनों के धुएं में बड़ी मात्र में हाइड्रोकार्बन होते हैं और तापमान 40 डिग्री सेल्सियस के पार होते ही यह हवा में मिलकर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोन इंसान के शरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है। इस खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसद फेफड़े के कैंसर की वजह है। इस खतरे पर काबू पा लेने से हर साल करीब 10 लाख लोगों की जिंदगियां बचाई जा सकेंगी। दिल्ली और देश के दूसरे शहरों में वायु प्रदूषण को और खतरनाक स्तर पर ले जाने वाले पैटकॉन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम न उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। जब पेट्रो पदार्थो को रिफाइनरी में परिशोधित किया जाता है तो सबसे अंतिम उत्पाद होता है-पैटकॉन। इसके दहन से कार्बन का सबसे ज्यादा उत्सर्जन होता है। चूंकि इसके दाम डीजल-पेट्रोल या पीएनजी से बहुत कम होते हैं लिहाजा अधिकांश बड़े कारखाने अपनी भट्ठियों में इसे ही इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि जितना जहर लाखों वाहनों से हवा में मिलता है उससे दोगुना पैटकॉन इस्तेमाल करने वाले कारखाने उगल देते हैं। यह स्पष्ट हो चुका है कि बड़े शहरों में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण बढ़ रहे वाहन और ट्रैफिक जाम है। दिल्ली जैसे शहरों में वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए निर्माण स्थलों पर धूल नियंत्रण, सड़कों पर जाम लगने से रोकने के साथ-साथ पानी का छिड़काव भी जरूरी है। इसके अलावा ज्यादा से ज्यादा सार्वजनिक वाहनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इसके लिए सबसे जरूरी पहलू है सार्वजनिक परिवहन ढांचे को दुरुस्त बनाना ताकि लोगों को अधिकतम सहूलियत मिल सके और वे स्वयं इसे अपनाने पर जोर दें। इस पर भी विचार किया जाना समय की मांग है कि सार्वजनिक स्थानों पर किस तरह के पेड़ लगाए जाएं?1(लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार 

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2018

agriculture waste can change fate of farmers


                                          पराली : बदल सकती है खेत की किस्मत



इन दिनों दिल्ली और आसपास के दो सौ किलोमीटर में फैली आबादी के लिए सांस लेना दूभर हो गया है। यही हाल सीमापार पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में भी है। ‘‘नासा’ द्वारा खींचे गए सैटेलाईट चित्र से स्पष्ट हो गया है कि इंसान के लिए जानलेवा बन रहे इस धुएं का बड़ा हिस्सा खेतों में पराली जलाने से उपज रहा है। सभी जानते हैं कि हरियाणा और पंजाब में ज्यादातर किसान पिछली फसल काटने के बाद खेतों के अवशेषों को उखाड़ने के बजाए खेत में ही जला देते हैं, या फिर ऐसे बर्बाद होने देते हैं। यह न केवल जमीन की उर्वरा शक्ति को प्रभावित करता है, बल्कि थोड़ी समझदारी दिखाई जाए तो किसान फसल अवशेषों से खाद बनाकर अपने खेत की उर्वरता बढ़ा सकते हैं।
एक अनुमान है कि हर साल अकेले पंजाब और हरियाणा के खेतों में तीन करोड़ 50 लाख टन पराली या अवशेष जलाया जाता है। एक टन पराली जलाने पर दो किलो सल्फर डायऑक्साईड, तीन किलो ठोस कण, 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साईड, 1460 किलो कार्बन डायऑक्साईड और 199 किलो राख निकलती है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब कई करोड़ टन अवशेष जलते हैं, तो वायुमंडल की कितनी दुर्गति होती होगी। इन दिनों सीमांत व बड़े किसान मजदूरों की उपलब्धता की चिक-चिक से बचने के लिए खरीफ फसल खास तौर पर धान काटने के लिए हार्वेस्टर जैसी मशीनों का सहारा लेते हैं। इस तरह की कटाई से फसल के तने का अधिकांश हिस्सा खेत में ही रह जाता है। खेत की जैव विविधता का संरक्षण जरूरी है, खास तौर पर जब पूरी खेती ऐसे रसायनों द्वारा हो रही है, जो कृषि-मित्र सूक्ष्म जीवाणुओं को ही चट कर जाते हैं। फसल से बचे अंश का इस्तेमाल मिट्टी में जीवांश पदार्थ की मात्रा बढ़ाने के लिए नहीं किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। जहां गेहूं, गन्ने की हरी पत्तियां, आलू, मूली, की पत्तियां पशुओं के चारे के रूप में उपयोग की जाती हैं, तो कपास, सनई, अरहर आदि के तने गन्ने की सूखी पत्तियां, धान का पुआल आदि जला दिया जाता है। हालांकि सरकार ने पराली जलाने को आपराधिक कृत्य घोषित कर दिया है, और किसानों को इसके लिए प्रोत्साहन राशि आदि भी दे रही है, लेकिन परंपरा से बंधे किसान इससे मुक्त नहीं हो पा रहे। वे चाहें तो गन्ने की पत्तियों, गेहूं के डंठलों जैसे अवशेषों से कंपोस्ट तैयार कर अपनी खाद के खर्च व दुष्प्रभाव से बच सकते हैं। इसी तरह जहां मवेशियों के लिए चारे की कमी नहीं है, वहां धान की पुआल को खेत में ढेर बनाकर खुला छोड़ने के बजाय गड्ढ़ों में कंपोस्ट बनाकर उपयोग कर सकते हैं। आलू और मूंगफली जैसी फसलों को खुदाई कर बचे अवशेषों को भूमि में जोत कर मिला देना चाहिए। मूंग व उड़द की फसल में फलियां तोड़कर खेत में मिला देना चाहिए। इसी तरह केले की फसल के बचे अवशेषों से कंपोस्ट तैयार कर ली जाए तो उससे 1.87 प्रतिशत नाइट्रोजन 3.43 फीसदी फास्फोरस व 0.45 फीसद पोटाश मिलता है। फसल अवशेष जलाने से खेत की छह इंच परत, जिसमें विभिन्न प्रकार के लाभदायक सूक्ष्म जीव राइजोबियम, एजेक्टोबैक्टर, नील हरित काई, मित्र कीट के अंडे आदि आग में भस्म हो जाते हैं। साथ ही, भूमि की उर्वरा शक्ति भी जर्जर हो जाती है।फसल अवशेषों का उचित प्रबंधन जैसे फसल कटाई के बाद अवशेषों को एकत्रित कर कंपोस्ट गड्ढे या वर्मी कंपोस्ट टांके में डालकर कंपोस्ट बनाया जा सकता है। खेत में ही पड़े रहने देने के बाद जीरो सीड कर फर्टिलाइजर ड्रिल से बोनी कर अवशेष को सड़ने हेतु छोड़ा जा सकता है। इस प्रकार खेत में नमी संरक्षण होता है, जिससे खरपतवार नियंतण्रएवं बीज के सही अंकुरण होता है। किसान अनजाने में अवशेष जला कर सांस लेने से जुड़ी गंभीर तकलीफों और कैंसर तक का वाहक बन गया है। इससे उनका अपना परिवार भी चपेट में आ सकता है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने खेतों में फसलों के कटने के बाद बचे अवशेषों को जलाने पर पाबंदी लगाई है। दंड का भी प्रावधान किया गया है। अवशेष जलाने वाले 2 एकड़ रकबा वाले किसान से 2 हजार 500 रुपये, 2 से 5 एकड़ वाले से 5 हजार और 5 एकड़ से अधिक रकबा वाले किसानों से 15 हजार रुपये दंड वसूलने का प्रावधान किया गया है। हालांकि पंजाब में किसानों का एक बड़ा वर्ग मानने के लिए तैयार नहीं है कि दिल्ली जैसे शहरों में वायू प्रदूषण का कारण पराली जलाना है। वह सरकार की सब्सिडी योजना से नाखुश है। उसका कहना है कि पराली को नष्ट करने की जो मशीन बाजार में 75 हजार से एक लाख रुपये में उपलब्ध है, सरकार की सब्सिडी से डेढ़ से दो लाख रुपये में पड़ती है। जाहिर है कि सब्सिडी उनके लिए बेमानी है।
     

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

why school drop out rate is increasing

बच्चों को अपना स्कूल क्यों पसंद नहीं आता

पंकज चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार

कारण कई गिनाए जा सकते हैं, लेकिन सच यही है कि बड़ी संख्या में किशोर स्कूल से विमुख हो रहे हैं। हमने शिक्षा को जागरूकता के माध्यम के मुकाबले रोजगार के यंत्र के रूप में अधिक प्रचारित किया है। नतीजे सामने हैं कि कक्षा में पाई सीख को व्यावहारिक जीवन में उतारने या शिक्षा को जीवन-मूल्य में सही तरीके से उतारने की दिशा में हम असफल रहे हैं। कई बार तो स्कूल की पढ़ाई पूरा कर लेने तक बच्चे को समझ में ही नहीं आता कि वह अभी 12-14 साल करता क्या रहा? उसका आकलन तो साल में एक बार कागज के एक टुकड़े पर कुछ अंक या ग्रेड के तौर पर होता है और वह अपनी पहचान, काबिलियत उस अंक सूची के बाहर तलाशने को छटपटाता रहता है। 
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में लक्ष्य रखा गया था कि भारत में आठवीं कक्षा तक जाते-जाते स्कूल छोड़ देने वाले बच्चों के 50 प्रतिशत के आंकड़े को 20 प्रतिशत तक नीचे लाना है, लेकिन यह संभव नहीं हुआ। आज भी कोई 40 प्रतिशत बच्चे कक्षा आठ से आगे स्कूल नहीं देख पाते हैं। सरकारी दस्तावेज कहते हैं कि स्कूल की पढ़ाई बीच में छोड़ने वालों में अधिकांश गरीब, उपेक्षित जाति व समाज के होते हैं, इसके अलावा बड़ी संख्या में बच्चियां होती हैं। ऐसे आंकड़ों में कारण अक्सर हम सामाजिक समीकरण में खोजते हैं, उन स्कूलों में नहीं, जिन्हें बच्चे छोड़कर चले जाते हैं। वहां पढ़ाई जा रही पुस्तकों में कुछ ऐसा नहीं होता, जो उनके मौजूदा जीवन में काम आए। जिन घरों की पहली पीढ़ी स्कूल की तरफ जाती है, वह पहले तो सोचती है कि कुछ पढ़ गए, तो उससे रोजगार मिलेगा, लेकिन कक्षा के हालात, परीक्षा में उत्तीर्ण होने की प्रणाली और असमानता उन्हें समझा देती है कि स्कूल का अर्थ मिड-डे मील, वरदी और किताब का वजीफा और एक बंधन से ज्यादा कुछ नहीं। 
जब बच्चा चाहता है कि वह गाय को करीब से जाकर देखे, तब स्कूल में वह खिड़की बंद कर दी जाती है, जिससे बाहर झांककर वह गाय को साक्षात देखता है। उसे गाय काले बोर्ड पर सफेद लकीरों व शब्दों में पढ़ाई जाती है। जो रामायण  की कहानी बच्चे को कई साल में समझ नहीं आती, वह उसे एक रावण दहन के कार्यक्रम में शामिल होने या रामलीला देखने पर रट जाती है। ठेठ गांव के बच्चों को पढ़ाया जाता है कि ‘अ’ ‘अनार’ का। न तो उनके इलाके में अनार होता है और न ही उन्होंने उसे देखा होता है, और न ही उनके परिवार की हैसियत अनार खरीदने की होती है। सारा गांव, जिसे गन्ना कहता है, उसे ईख के तौर पर पढ़ाया जाता है। यह स्कूल में घुसते ही बच्चे को दिए जाने वाले अव्यावहारिक ज्ञान की बानगी है। असल में रंग-आकृति- अंक-शब्द की दुनिया में बच्चे का प्रवेश ही बेहद नीरस और अनमना सा होता है। स्कूल, शिक्षक और कक्षा उसके लिए यातना घर की तरह होते हैं। परिवार में भी उसे डराया जाता है कि बदमाशी मत करो, वरना स्कूल भेज देंगे। बात मान लो, वरना टीचर से कह देंगे। 
सब जगह यही हो रहा है, लेकिन दिक्कत यही है कि बदलाव के लिए कुछ नहीं किया जा रहा। यह विचार पुराना है कि मध्यमवर्गीय परिवारों की प्री नर्सरी हों या गांव के सरकारी स्कूल, पांच साल की आयु तक बच्चे को हर तरह की पुस्तक, होमवर्क, परीक्षा से मुक्त रखा जाए, मगर यथार्थ में इसे कभी नहीं अपनाया जाता। हालांकि परीक्षा में उत्तीर्ण करने की अनिवार्यता ने शिक्षा के स्तर को लेकर सवाल खड़े कर दिए हैं। परीक्षा हो या न हो, लेकिन वहां जो होता है, उससे बच्चा स्कूल में कुछ अपना सा महसूस नहीं करता, वह उबासियां लेता है और समझ नहीं पाता कि उसे यहां भेजा क्यों गया है? वह बस्ता, किताब, कक्षा से दूर भाग जाता है। बच्चा कुछ करना चाहता है, खुद अपने परिवेश से रूबरू होना चाहता है, लेकिन हम उसे पाठ्य-पुस्तक, प्रवचन और भविष्य के सुनहरे सपनों में अटका देते हैं, जबकि उसका शरीर कमरे में और मन कहीं बाहर उड़ता रहता है। ऐसे में, बच्चों का स्कूल छोड़ देना भले ही शिक्षा शास्त्रियों को परेशान करता हो, लेकिन स्कूल छोड़ने वाले बच्चों के लिए यह अक्सर राहत का सबब बनता है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

beware of malaria ! going out of control

धरती के गरम होने व निष्प्रभावी  दवाओं से फैल रहा है मलेरिया

पंकज चतुर्वेदी
संयुक्त राश्ट्र ने तीन साल पहले ही हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका को मलेरिया से मुक्त घोषित  कर दिया। दूसरी तरफ बरसात विदा होंते ही राजधानी दिल्ली में मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया का हमला हो गया है। इसमें कोई षक नहीं कि श्रीलंका की आबादी और क्षेत्रफल भारत से बहुत कम है, लेकिन यह भी मानना होगा कि हमारे पास संसाधन, मानव श्रम, शिक्षा, चिकित्सा  की मूलभूत सुविधांए श्रीलंका से कहीं ज्यादा हैं। दोनो देशेां की मौसमी और भौगोलिक परिस्थितयों में काफी समानता है, लेकिन पिछले अनुभव बानगी हैं कि हमारे देश में योजनाएं तो बहुत बनती हैं लेकिन उनके क्रियान्वयन स्तर पर लालफीताशाही के चलते अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। मलेरिया डेंगू , जापानी बुखार और चिकनगुनिया जैसे नए-नए संहारक शस्त्रों से लैसे हो कर जनता पर टूट रहा है और सरकारी महकमे अपने पुराने नुस्खों को अपना कर उनके असफल होने का रोना रोते रहते हैं । यही नहीं हाथी पांव यानी फाईलेरिया के मरीजों की संख्या भी बढ़ रही है । यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि हमारे यहां मलेरिया निवारण के लिए इस्तेमाल हो रही दवांए असल में मच्छरों को ही ताकतवर बना रही हैं। विशेषरूप से राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों(जहां हाल के वर्षों में अप्रत्याशित रूप से घनघोर पानी बरसा है), बिहार के सदानीरा बाढ़ग्रस्त जिलों मध्यप्रदेश ,पूर्वोंत्तर राज्यें व नगरीय-स्लम में बदल रहे दिल्ली कोलकाता जैसे महानगरों में जिस तरह मलेरिया का आतंक बढ़ा है, वह आधुनिक चिकित्या विज्ञान के लिए चुनौती है । सरकारी तंत्र पश्चिमी-प्रायांजित एड्स की काली छाया के पीछे भाग रहा है, जबकि मच्छरों की मार से फैले रोग को डाक्टर लाइलाज मानने लगे हैं । उनका कहना है कि आज के मचछर मलेरिया की प्रचलित दवाओं को आसानी से हजम कर जाते हैं । दूसरी ओर घर-घर में इस्तेमाल हो रही मच्छर -मार दवाओं के बढ़ते प्रभाव के कारण मच्छर अब और जहरीला हो गया है । देश के पहाड़ी इलाकों में अभी कुछ साल पहले तक मच्छर देखने को नहीं मिलता था, अब वहां रात में खुले में सोने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है । बहरहाल यूएन ने दक्षिण-पूर्व एशिया के जिन 35 देशो में सन 2030 तक मलेरिया से पूरी तरह मुक्ति का लक्ष्य रखा है, उसमें भारत भी है। श्रीलंका के अलावा मालदीव भी मलेरिया-मुक्त हो चुका है।

हाल ही में हुए एक वैज्ञानिक अध्ययन से पता चला है कि डेंगू का संक्रमण रोकने में हमारी दवाएं निश्प्रभावी हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ बंगाल, दार्जीलिंग ने बंगाल के मलेरिया ग्रस्त इलाकों में इससें निबटने के लिए इस्तेमाल हो रही दवाओं -डीडीटी, मैलाथिओन परमेथ्रिन और प्रोपोक्सर को ले कर प्रयाग किए और पाया कि मच्छरों में प्रतिरोध पैदा करने वाली जैव-रासायनिक प्रक्रिया के तहत मच्छरों में मौजूद एंजाइम काबरेक्सीलेस्टेरेसेस, ग्लूटाथिओन एस-ट्रांसफेरेसेस और साइटोक्रोम पी450 या संयुक्त रूप से काम करने वाले ऑक्सीडेसेस के माध्यम से उत्पन्न डिटॉक्सीफिकेशन द्वारा प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न हुई है। इस अध्ययन से जुड़े वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. धीरज साहा ने बताया, ‘कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग के कारण मच्छरों ने अपने शरीर में कीटनाशकों के नियोजित कार्यों का प्रतिरोध करने के लिए रणनीतियों का विकास कर किया है। इसी प्रक्रिया को कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोधी क्षमता के विकास रूप में जाना जाता है।’गौरतलब है कि एडीस एजिप्टि और एडीस अल्बोपिक्टस डेंगू के रोगवाहक मच्छरों की प्रजातियां हैं, जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैली हैं।

शुरूआती दिनों में शहरों को मलेरिया के मामले में निरापद माना जाता था और तभी शहरों में मलेरिया उन्मूलन पर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया । 90 के दशक में भारत में औद्योगिकीकरण के विकास के साथ नए कारखाने लगाने के लिए ऐसे इलाकों के जंगल काटे गए, जिन्हें मलेरिया-प्रभावित वन कहा जाता था । ऐसे जंगलों पर बसे शहरों में मच्छरों को बना-बनाया घर मिल गया । जर्जर जल निकास व्यवस्था, बारिश के पानी के जमा होने के आधिक्य और कम क्षेत्रफल में अधिक जनसंख्या के कारण नगरों में मलेरिया के जीवाणु तेजी से फल-फूल रहे हैं । भारत में मलेरिया से बचाव के लिए सन् 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया था । गांव-गांव में डी.डी.टी. का छिड़काव और क्लोरोक्वीन की गोलियां बांटने के ढर्रे में सरकारी महकमे भूल गए कि समय के साथ कार्यक्रम में भी बदलाव जरूरी है । धीरे-धीरे इन दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता मच्छरों में आ गई । तभी यह छोटा सा जीव अब ताकतवर हो कर निरंकुश बन गया है । पिछले कुछ सालों से देश में कोहराम मचाने वाला मलेरिया सबटर्मियम या पर्निसियम मलेरिया कहलाता है । इसमें तेज बुखार के साथ-साथ लकवा, या बेहोशी छा जाती है । हैजानुमा दस्त, पैचिस की तरह शौच में खून आने लगता है । रक्त-प्रवाह रुक जाने से शरीर ठंडा पड़ जाता है । गांवों में फैले नीम-हकीम ही नहीं , बड़े-बड़े डिगरी से लैसे डाक्टर भी भ्रमित हो जाते हैं कि दवा किस मर्ज की दी जाए।  डाक्टर लेबोरेट्री- जांच व दवाएं बदलने में तल्लीन रहते हैं और मरीज की तड़प-तड़प कर मौत हो जाती है ।
हालांकि ब्रिटिश गवर्नमेंट पब्लिक हेल्थ लेबोरेट्री सर्विस(पीएचएलसी) की एक अप्रकाशित रिपोर्ट में बीस साल पहले ही चेता दिया गया था कि दुनिया के गर्म होने के कारण मलेरिया प्रचंड रूप ले सकता है । गर्मी और उमस में हो रहा इजाफा खतरनाक बीमारियों को फैलाने वाले कीटाण्ुाओं व विषाणुओं के लिए संवाहक के माकूल हालात बना रहा है । रिपोर्ट में कहा गया था कि एशिया में तापमान की अधिकता और ठहरे हुए पानी के कारण मलेरिया के परजीवियों को फलने-फूलने का अनुकूल अवसर मिल रहा है । कहा तो यह भी जाता है कि घरों के भीतर अंधाधुंध शौचालयों के निर्माण व शैाचालयों के लिए घर के नीचे ही टेंक खोदने के कारण मच्छरों की आबादी उन इलाकों में भी ताबड़तोड़ हो गई है, जहां अभी एक दशक पहले तक मच्छर होते ही नहीं थे । सनद रहे कि हमारे यहां स्वच्छता अभियान के नाम पर गांवों में जम कर षौचालय बनाए जा रहे हैं, जिनमें ना तो पानी है, ना ही वहां से निकलने वाले गंदे पानी की निकासी की मुकम्मल व्यवस्था।
हरित क्रांति के लिए सिंचाई के साधन बढ़ाने और फसल को कीटों से निरापद रखने के लिए कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल ने भी मलेरिया को पाला-पोसा है । बड़ी संख्या में बने बांध और नहरों के करीब विकसित हुए दलदलों ने मच्छरों की संख्या बढ़ाई है । रही बची कसर फसलों में डीडीटी ऐसे ही कीटनाशकों के बेतहाशा दुरूपयोग ने पूरी कर दी । खाने के पदार्थों में डीडीटी का मात्रा जहर के स्तर तक बढ़ने लगी, वहीं दूसरी ओर मच्छर ने डीडीटी को डकार लेने की क्षमता विकसित कर ली । बढ़ती आबादी के लिए मकान, खेत और कारखाने मुहैया करवाने के नाम पर गत् पांच दशकों के दौरान देश के जंगलों की निर्ममता से कटाई की जाती रही है । कहीं अयस्कों की खुदाई तो जलावन या फर्नीचर के लिए भी पेड़ों को साफ किया गया ।  जहां 1950 में 40.48 मिलीयन हेक्टर में हरियाली का राज था, आज यह सिमट कर 22 मिलीयन के आसपास रह गया है । हालांकि घने जंगल मच्छर व मलेरिया के माकूल आवास होते हैं और जंगलों में रहने वचाले आदिवासी मलेरिया के बड़े शिकार होते रहे हैं । लेकिन यह भी तथ्य है कि वनवासियों में मलेरिया के कीटाणुओं से लड़ने की आंतरिक क्षमता विकसित हो चुकी थी । जंगलों के कटने से इंसान के पर्यावास में आए बदलाव और मच्छरों के बदलते ठिकाने ने शहरी क्षेत्रों में मलेरिया को आक्रामक बना दिया ।
विडंबना है कि हमारे देश में मलेरिया से निबटने की नीति ही गलत है - पहले मरीज बनो, फिर इलाज होगा । जबकि होना यह चाहिए कि मलेरिया फैल ना सके, इसकी कोशिश हों । मलेरिया प्रभावित राज्यों में पेयजल या सिंचाई की योजनाएं बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि ठहरा हुआ पानी कहीं ‘‘ मच्छर-प्रजनन केंद्र’’ तो नहीं बन रहा है । धरती का गरम होता मिजाज जहां मलेंरिया के माकूल है, पहीं एंटीबायोटिक दवाओं के मनमाने इस्तेमाल से लोगों की रोग-प्रतिरोधक क्षमता घट रही है । नीम व ऐसी ही वनोषधियों से मलेरिया व मच्छर उन्मूलन की दवाओं को तैयार करना हमारी प्राथमिकता होना चाहिए ।



बुधवार, 10 अक्तूबर 2018

The drought is again knocking India's door

फिर सूखे की ओर बढ़ता देश 

देश के 229 जिलों में इस वर्ष औसत से कम बारिश हुई है। इससे सूखे का भयावह संकट खड़ा पैदा होने की आशंका बलवती हो गई है। मानसून सीजन में बादलों के कम बरसने का सीधा असर खेती-किसानी के अलावा पेयजल, पशुपालन सहित कई क्षेत्रों पर होता है। जब सूखे की जानकारी अभी से हमारे पास है तो सरकार व समाज दोनों को कम पानी में काम चलाने, ऐसी ही फसल उगाने, मवेशियों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करने आदि पर काम करना शुरू करना चाहिए। 



मौसम विभाग के ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि इस साल मानसून ने देश का 21.38 फीसद भूभाग को थोड़े सूखे से बहुत ज्यादा सूखे के बीच छोड़ दिया है। सूखे को मापने का इंडेक्स बताता है कि इस साल मानसून में सूखे की स्थिति साल 2016 और 2017 से भी खराब रही है। इस साल करीब 134 जिलों में थोड़ा सूखे से बहुत ज्यादा सूखे वाले हालात रहे हैं। यह इंडेक्स सूखे के लिए नकारात्मक और नमी वाली स्थितियों के लिए पॉजिटिव होता है। इसके मुताबिक करीब 229 जिलों में हल्की सूखी स्थिति रही जो कि इस मानसून का 43.51 फीसद है। पिछले साल देश का करीब 17.78 प्रतिशत क्षेत्र थोड़े सूखे से बहुत सूखे के बीच रहा था जबकि 2016 में यह 12.28 प्रतिशत था। अरुणाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, झारखंड, बिहार, राजस्थान और कर्नाटक में गंभीर सूखे की स्थिति देखी जा सकती है। मराठवाड़ा और विदर्भ के भी कुछ जिलों में सूखा रहा। 

एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक देश के लगभग सभी हिस्सों में बड़े जलाशयों में पिछले साल की तुलना में कम पानी है। यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम’ पानी बरसा या बरसेगा तो क्या होगा? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की करीब दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्रहि-त्रहि करती है। हकीकत जानने के लिए देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 प्रतिशत है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4,000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1,869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1,122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी वाले सोयाबीन व अन्य नकदी फसलों की वृद्धि हुई है। इस कारण बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है। अब गंगा-यमुना के दोआब के पश्चिमी उत्तर प्रदेश को ही लें, न तो यहां के लेागों का भोजन धान था और न ही यहां की फसल। लेकिन ज्यादा पैसा कमाने के लिए सबने धान बो कर जमीन बर्बाद की और आदत बिगड़ी सो अलग। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का 80 फीसद जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत का है। बरसात गई और नदियों का पानी भी गुम हो जाता है। कहीं अंधाधुंध रेत खनन तो कहीं विकास के नाम पर नदी के रास्ते में पक्के निर्माण तो कहीं नदियों का पानी सलीके से न सहेजने के तरीकों के कारण कीमती जल का नालियों के जरिये समुद्र में बह जाना। असल में हमने पानी को ले कर अपनी आदतें खराब कीं। जब कुएं से रस्सी डाल कर पानी खींचना होता था या चापाकल चला कर पानी भरना होता था तो जितनी जरूरत होती थी, उतना ही जल निकाला जाता था। घर में नल लगने और उसके बाद बिजली या डीजल पंप से चलने वाले ट्यूब वेल लगने के बाद तो एक गिलास पानी के लिए बटन दबाते ही दो बाल्टी पानी बर्बाद करने में हमारी आत्मा नहीं कांपती है। हमारी परंपरा पानी की हर बूंद को स्थानीय स्तर पर सहेजने, नदियों के प्राकृतिक मार्ग में बांध, रेत निकालने, मलबा डालने, कूड़ा मिलाने जैसी गतिविधियों से बच कर, पारंपरिक जल स्त्रोतों- तालाब, कुएं, बावड़ी आदि के हालात सुधार कर, एक महीने की बारिश के साथ सालभर के पानी की कमी से जूझने की रही है। कस्बाई लोग बीस रुपये में एक लीटर पानी खरीद कर पीने में संकोच नहीं करते हैं तो समाज का बड़ा वर्ग पानी के अभाव में कई बार शौच व स्नान से भी वंचित रह जाता है। 

सूखे के कारण जमीन के बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभर रहे हैं। भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में बह जाता है। गुजरात के जूनागढ़, भावनगर, अमेरली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुर खुद ही सीखा। विछियावाडा गांव के लोगों ने डेढ़ लाख रुपये व कुछ दिनों की मेहनत से 12 बांध बनाए व एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नलकूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्य प्रदेश में झाबुआ व देवास में भी हुए। यदि तलाशने चलें तो कर्नाटक से ले कर असम तक और बिहार से ले कर बस्तर तक ऐसे हजारों सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लेागों ने सूखे को मात दी है। 

कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक इस बात के लिए तैयारी करनी होगी कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जीवित करना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास हैं जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

देश के करीब एक-तिहाई जिलों में इस वर्ष औसत से कम बारिश हळ्ई है जिससे सूखे की आशंका बढ़ गई है। संभावित समस्या से निपटने के लिए अभी से तैयारी शळ्रू कर देनी चाहिए

पंकज चतुर्वेदी1पर्यावरण मामलों के जानकार 

रविवार, 7 अक्तूबर 2018

weekly market have an important social role in

बड़़ी सामाजिक भूमिका निभाते छोटे-छोटे हाट बाजार



दिल्ली से सटे गाजियाबाद शहर का नवयुग मार्केट वहां के कनॉट प्लेस की तरह है। जहां बड़े-बड़े शोरूम, छोटी दुकानें तो हैं ही, दफ्तर भी हैं। यहां हर रविवार को एक साप्ताहिक बाजार भी लगता है, जिसमें कोई पांच हजार रेहड़ी-पटरी वाले आते हैं। इस बाजार में 90 प्रतिशत विक्रेता देवबंद, सहारनपुर, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, हापुड़, दिल्ली के सीलमपुर आदि क्षेत्रों से आते हैं, जिनकी किसी प्रकार की कोई पहचान नहीं है। पिछले कुछ महीनों से साप्ताहिक बाजार के मसले पर स्थानीय व्यापारियों और पटरी दुकानदारों में खींचतान चल रही है। स्थानीय व्यापारियों का कहना है कि सप्ताह में एक दिन पटरी पर लगने वाला बाजार उनकी दुकानदारी चौपट कर देता है। उसकी वजह से सड़कों पर जो जाम लगता है, वह अलग परेशानी पैदा करता है। 
वैसे यह मामला सिर्फ गाजियाबाद का ही नहीं है, देश के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर ऐसे हाट-बाजारों को बंद करने की मांग उठती रहती है। इसके पीछे गिनाए जाने वाले कारण लगभग एक से होते हैं- बाजार के कारण यातायात ठप हो जाता है, इलाके के निवासी अपने घर में बंधक बन जाते हैं, इनकी भीड़ में गिरहकटी होती है, अपराधी आते हैं या फिर ये काफी गंदगी फैलाते हैं। हालांकि यह भी माना जाता है कि ऐसे बाजारों को बंद कराने के पीछे स्थानीय व्यापारियों के कारण दीगर होते हैं, यहां मिलने वाला सस्ता सामान बड़ी दुकानों की दुकानदारी कम करता है। 
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की लगभग हर कॉलोनी में ऐसे साप्ताहिक बाजार आज भी लोगों की जीवन-रेखा हैं। यहां बेचने और खरीदने वाले की मनोदशा, आर्थिक और सामाजिक स्थिति तकरीबन वही होती है, जो देश के दूरदराज के गांवों में लगने वाले हाट-बाजारों में होती है। दिल्ली में कालकाजी के साप्ताहिक बाजार हों या फिर वसंत विहार जैसे महंगे इलाके का बुध बाजार या फिर सुदूर भोपाल या बीकानेर या सहरसा के साप्ताहिक हाट, जरा गंभीरता से देखें, तो इनके बहुत से सामाजिक समीकरण एक ही होते हैं। हर तरह का सामान बेचते हुए, मगर पूरी तरह से सुविधाहीन। दैनिक मजदूरी करने वाला हो या अफसर की बीवी या फिर खुद दुकानदार, सभी आपको यहां मिल जाएंगे। 
ये बाजार रोजगार की तलाश में अपने घर-गांव से पलायन करके आए निम्न आयवर्ग के लोगों की जीवन-रेखा होते हैं। आम बाजार से सस्ते सामान, चर्चित ब्रांड से मिलते-जुलते सामान, छोटे व कम दाम के पैकेट, घर के पास और मेहनत-मजदूरी करने के बाद देर रात तक मिलने वाला सजा बाजार। ये हाट-बाजार सिर्फ उन्हीं  परिवारों के पेट नहीं भरते, जो वहां फुटपाथ पर अपना सामान बेचते हैं, और भी बहुत से लोगों की रोजी-रोटी इनसे चलती है। बाजार के लिए लकड़ी के फट्टे या टेबल, ऊपर तिरपाल और बैटरी से चलने वाली एलईडी लाइट की सप्लाई करने वालों का बड़ा वर्ग इन हाट-बाजारों पर ही निर्भर होता है। कई लोग ऐसे बाजारों के सामान लादने वगैरह का काम भी करते हैं। फिर वे लोग भी हैं, जो स्थानीय निकायों से ऐसे बाजार चलाने का ठेका लेते हैं और उसके लिए दुकानों से पैठ वसूलते हैं।
ऐसे हाट-बाजारों का अभी तक आधिकारिक सर्वेक्षण तो हुआ नहीं, मगर अनुमान है कि दिल्ली शहर, गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद, गुड़गांव में लगने वाले कोई 300 से अधिक बाजारों में 35,000 से 40,000 दुकानदार हैं। पूरे देश में यह संख्या लाखों में होगी। इसके बावजूद न तो इनको कोई स्वास्थ्य सुविधा मिली है और न ही बैंक से कर्ज या ऐसी कोई बीमा की सुविधा। यह पूरा काम बेहद जोखिम का है, क्योंकि बरसात हो गई, तो बाजार नहीं लगेगा, कभी-कभी त्योहारों के पहले जब पुलिस के पास कोई संवेदनशील सूचना होती है, तब भी बाजार नहीं लगते। कभी कोई जाम में फंस गया और समय पर बाजार नहीं पहुंच पाया, तो कभी सप्लाई चैन में गड़बड़ हो गई। बावजूद इसके मॉल और ई-कॉमर्स के इस युग में ये बाजार न सिर्फ बरकरार हैं, बल्कि एक महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक भूमिका भी निभा रहे हैं। वह भी तब, जब इन्हें सरकारों की तरफ से कोई वैधता नहीं बख्शी गई है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

ऐसे कैसे होगी भंगी-मुक्ति

पंकज चतुर्वेदी
एक तरफ अंतरिक्ष को अपने कदमों से नापने के बुलंद हौसलें हैं, तो दूसरी तरफ  दूसरों का मल सिर पर ढोते नरक कुंड की सफाई करती मानव जाति। संवेदनहीन मानसिकता और नृशंस अत्याचार की यह मौन मिसाल सरकारी कागजों में दंडनीय अपराध है। यह बात दीगर है कि सरकार के ही महकमे इस घृणित कृत्य को बाकायदा जायज रूप देते हैं। नृशंसता यहां से भी कही आगे तक है, समाज के सर्वाधिक उपेक्षित व कमजोर तबके के उत्थान के लिए बनाए गए महकमे खुद ही सरकारी उपेक्षा से आहत रहे हैं। हाल ही में केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा देश के18 राज्यों में किए गए सर्वे से पता चला है कि अभी भी हमारे देश में 20 हजार से अधिक लोग सिर पर मैला ढाने का कार्य करते हैं। सनद रहे सुप्रीम कोर्ट से ले कर सरकार तक इसे मानवता के नाम पर कलंक निरूपित कर चुकी है।
शुष्क शौचालयों की सफाई या सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को सरकार संज्ञेय अपराध घोषित कर चुकी है। इस व्यवस्था को जड़ से खत्म करने के लिए केंद्र व विभिन्न राज्य सरकारें कई वित्तपोषित योजनाऐं चलाती रही हैं। लेकिन यह सामाजिक नासूर यथावत है। इसके निदान हेतु अब तक कई अरब रूपये खर्च हो चुके हैं। इसमें वह धन शामिल नहीं है, जो इन योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए पले ‘‘सफेद हाथियों’’ के मासिक वेतन व सुख-सुविधाओं पर खर्च होता रहा है। लेकिन हाथ में झाडू-पंजा व सिर पर टोकरी बरकरार है। देश की आजादी के साठ से अधिक वसंत बीत चुके हैं। लेकिन जिन लोगों का मल ढोया जा रहा है उनकी संवेदनशून्यता अभी भी परतंत्र है। उनमें न तो इस कुकर्म का अपराध बोध है, और न ही ग्लानि। मैला ढ़ोने वालों की आर्थिक या सामाजिक हैसियत में भी कहीं कोई बदलाव नहीं आया । सरकारी नौकरी में आरक्षण की तपन महज उन अनुसूचित जातियों तक ही पहुंची है, जिनके पुश्तैनी धंधों में नोटों की बौछार देख कर अगड़ी जातियों ने उन पर कब्जे किए। भंगी महंगा हुआ नहीं, इस धंधे में किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को मुनाफा लगा नहीं, सो इसका औजार भी नहीं बदला।
देश का सबसे अधिक सांसद और सर्वाधिक प्रधानमंत्री देने वाले प्रदेश उत्तरप्रदेश में पैंतालिस लाख रिहाईशी मकान हैं । इनमें से एक तिहाई में या तो शौचालय है ही नहीं या फिर सीवर व्यवस्था नहीं है । तभी यहां 6123 लोग मैला ढ़ोने  के अमानवीय कृत्य में लगे हैं । इनमें से अधिकांश राजधानी लखनऊ या शाहजहांपुर में हैं। वह भी तब जबकि केंद्र सरकार इस मद में राज्य सरकार को 175 करोड़ रुपए दे चुकी है । महाराष्ट्र में 5296 और कर्नाटक में 1744 लोग सिर पर मैलाढ़ोने का कार्य करते पाए गए। सबसे दुखद पहलु यह है कि सरकार के ही पिछले सर्वे में ऐसे लोगों की संख्या 13,770 थी जो अब बढ़ कर 20,500 हो गई।
घरेलू शौचालयों को फ्लश लैट्रिनों में बदलने के लिए 1981 से कुछ कोशिशें हुई, पर युनाईटेड नेशनल डेवलपमेंट प्रोग्राम के सहयोग से। अगर संयुक्त राष्ट्र से आर्थिक सहायता नहीं मिलती तो भारत सरकार के लिए मुहिम चलाना संभव नहीं था। तथाकथित सभ्य समाज को तो सिर पर मैला ढ़ोने वालों को देखना भी गवारा नहीं है, तभी यह मार्मिक स्थिति उनकी चेतना को झकझोर नहीं पाती है। सिर पर गंदगी लादने या शुष्क शौचालयों को दंडनीय अपराध बनाने में ‘‘हरिजन प्रेमी’’ सरकारों को पूरे 45 साल लगे। तब से सरकार सामान्य स्वच्छ प्रसाधन योजना के तहत 50 फीसदी कर्जा देती है। बकाया 50 फीसदी राज्य सरकार बतौर अनुदान देती हैं। स्वच्छकार विमुक्ति योजना में भी ऐसे ही वित्तीय प्रावधान है। लेकिन अनुदान और कर्जे, अफसर व बिचौलिए खा जाते हैं।
सरकार ने सफाई कर्मचारियों के लिए एक आयोग बनाया। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसे अन्य सांविधिक आयोगों के कार्यकाल की तो कोई सीमा निर्धारित की नहीं गई, लेकिन सफाई कर्मचारी आयोग को अपना काम समेटने के लिए महज ढ़ाई साल की अवधि तय कर दी गई थी। इस प्रकार मांगीलाल आर्य की अध्यक्षता वाला पहला आयोग 31 मार्च, 1997 को रोते-झींकते खत्म हो गया । तब से लगातार सरकार बदलने के साथ आयोग में बदलाव होते रहे हैं, लेकिन नहीं बदली तो सफाईकर्मियों की तकदीर और अयोग के काम करने का तरीका। सफाई कर्मचारी आयोग के प्रति सरकारी भेदभाव महज समय-सीमा निर्धारण तक ही नहीं है, बल्कि अधिकार, सुविधाओं व संसाधन के मामले में भी इसे दोयम दर्जा दिया गया। समाज कल्याण मंत्रालय के प्रशासनिक नियंत्रण में गठित अन्य तीनों आयोगों को अपने काम-काज के लिए सिविल कोर्ट के अधिकार दिए गए हैं जबकि सफाई कर्मी आयोग के पास सामान्य प्रशासनिक अधिकार भी नहीं है। इसके सदस्य राज्य सरकारों से सूचनाएं प्राप्त करने का अनुरोध मात्र कर सकते हैं। तभी राज्य सरकारों सफाई कर्मचारी आयोग के पत्रों का जबाव तक नहीं देती।
वैसे इस आयोग के गठन का मुख्य उद्देश्य ऐसे प्रशिक्षण आयोजित करना था, ताकि गंदगी के संपर्क में आए बगैर सफाई काम को अंजाम दिया जा सके। सिर पर मैला ढ़ोने से छुटकारा दिलवाना, सफाई कर्मचारियों को अन्य रोजगार मुहैया कराना भी इसका मकसद था। आयोग जब शुरू हुआ तो एक अरब 11 करोड़ की बहुआयामी योजनाएं बनाई गई थीं। इसमें 300 करोड़ पुर्नवास और 125 करोड़ कल्याण कार्यक्रमों पर खर्च करने का प्रावधान था। पर नतीजा वही ‘‘ढाक के तीन पात’’ रहा। दीगर महकमों की तरह घपले, घूसखोरी और घोटालों से यह ‘‘अछूतों’’ का विभाग भी अछूता नहीं रहा। कुछ साल पहले आयोग के उत्तर प्रदेश कार्यालय में दो अरब की गड़बड़ का खुलासा हुआ था।
आयोग व समितियों के जरिए भंगी मुक्ति के सरकारी स्वांग आजादी के बाद से जारी रहे हैं। संयुक्त प्रांत (वर्तमान उ.प्र.) ने भंगी मुक्ति बाबत एक समिति का गठन किया था। आजादी के चार दिन बाद 19 अगस्त 1947 को सरकार ने इस समिति की सिफारिशों पर अमल के निर्देश दिए थे। पर वह एक रद्दी का टुकड़ा ही साबित हुआ।  1963 में मलकानी समिति ने निष्कर्ष दिया था कि जो सफाई कामगार अन्य कोई रोजगार अपनाना चाहें, उन्हें लंबरदार, चौकीदार, चपरासी जैसे पदों पर नियुक्त दिया जाए। परंतु आज भी सफाई कर्मचारी के ग्रेजुएट बच्चों को सबसे पहले ‘‘झाडू-पंजे’’ की नौकरी के लिए ही बुलाया जाता है। नगर पालिका हो या फौज, सफाई कर्मचारियों के पद भंगियों के लिए ही आरक्षित हैं।
सन 1964 और 1967 में भी दो राष्ट्रीय आयोग गठित हुए थे। उनकी सिफारिशों या क्रियाकलाप की फाईलें तक उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि उन दोनों आयोगों की सोच दिल्ली से बाहर विस्तार नहीं पा सकी थीं। 1968  में बीएस बंटी की अध्यक्षता में गठित न्यूनतम मजदूरी समिति की सिफारिशें 21 वीं सदी के मुहाने पर पहुंचते हुए भी लागू नहीं हो पाई हैं। पता नहीं किस तरह के विकास और सुदृढ़ता का दावा हमारे देश के कर्णधार करते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि हरियाणा के 40.3 फीसदी ग्रामीण परिवारों के पास टेलीविजन हैं, पर शौचालय महज आठ फीसदी हैं। करीबी समृद्ध राज्य पंजाब में टीवी 38.6 प्रतिशत लोगों के पास है परंतु शौचालय मात्र 19.8 की पहुंच में हैं। 1990 में बिहार की आबादी 1.11 करोड़ थी। उनमें से सिर्फ 30 लाख लोग ही किसी न किसी प्रकार के शौचालय की सेवा पाते हैं। यह आंकड़े इंगित करते हैं कि सफाई या उस कार्य से जुड़े लोग सरकार की नजर में निहायत उपेक्षित हैं।
आजाद भारत में सफाई कर्मचारियों के लिए गठित आयोग, समितियों, इस सबके थोथे प्रचार व तथाकथित क्रियान्वयन में लगे अमले के वेतन, कल्याण योजनाओं के नाम पर खर्च व्यय का यदि जोड़ करें तो यह राशि अरबों-खरबों में होगी। काश, इस धन को सीधे ही सफाई कर्मचारियों में बांट दिया जाता तो हर एक परिवार  करोड़पति होता। यदि आधी सदी के अनुभवों को सीख माने तो यह तय है कि जब तक भंगी महंगा नहीं होगा, उसकी मुक्ति संभव नहीं है।
यदि सरकार या सामाजिक संस्थाएं वास्तव में सफाई कर्मचारियों को अपमान, लाचारी और गुलामी से उपजी कुंठा से मुक्ति दिलवाना चाहते हैं तो आई आई टी सरीखे तकनीकी शोध संस्थानों में ‘‘सार्वजनिक सफाई’’ जैसे विषयों को अनिवार्य करना होगा। जिस रफ्तार से शहरों का विस्तार हो रहा है, उसके मद्देनजर आने वाले दशक में स्वच्छता एक गंभीर समस्या होगी।

पंकज चतुर्वेदी




why police feels helpless against criminal s

क्यों नहीं रहा पुलिस का डर


                                                                                                                                             पंकज चतुर्वेदी


लखनउ में एक निजी कंपनी के अधिकारी को आधी रात में दो पुलिस वालों द्वारा बेवजह गोली मार देने की नृशंस घटना के तथ्य जैसे-जैसे सामने आ रहे हैं, पता चल रहा है कि एक सिपाही यदि अपनी पर आ जाए तो क्या कर सकता है। चूंकि यह मामला बड़े राज्य की राजधानी का था, एक मध्य वर्ग का था सो इतना हल्ला, सहायता, जांच भी हो गई। वरना उसके ही कुछ दिनों पहले अलीगढ़ पुलिस ने बाकायदा पत्रकारों को न्यौता भेजा कि चलो मुठभेड़ में बदमाश मारते हैं और दो लेागों को ठोक दिया। मारे गए लोगों के सफेद-काले रिकार्ड बनाए गए, लेकिन जिस तरह सारा गांव बता रहा है कि कथित मुठभेड के तीन दिन पहले ही पुलिस उन दोनों को घर से उठा कर ले गई थीं, मामला संदिग्ध ही प्रतीत होता है। एक तरफ पुलिस का रिकार्ड उन्हें बाहुबली, अपराध होने से पहले ही पहुंचने वाला और जनता का सेवक बताता है तो दूसारी तरफ आम लेाग अपराधियों के भय और पुलिस के प्रति अविश्वसनीयता के देाहरे चक्र में पिसते दिखते हैं।

 पिछले कुछ सालों से दिल्ली और करीबी एनसीआर के जिलों- गाजियाबाद, नोएडा, गुडगावं व फरीदाबाद में सरेआम अपराधों की जैसे झड़ी ही लग गई है। भीड़भरे बाजार में जिस तरह से हथियारबंद अपराधी दिनदहाड़े लूटमार करते हैं , महिलाओं की जंजीर व मोबाईल फोन झटक लेते हैं, बैंक में लूट तो ठीक ही है, अब तो एटीएम मषीन उखाड़ कर ले जाते हैं; इससे साफ है कि अपराधी पुलिस से दो कदम आगे हैं और उन्हें कानून या खाकी वर्दी की कतई परवाह नहीं है। पुलिस को मिलने वाला वेतन और कानून व्यवस्था को चलाने के संसाधन जुटाने पर उसी जनता का पैसा खर्च हो रहा है जिसके जानोमाल की रक्षा का जिम्मा उन पर है। दिल्ली और एनसीआर बेहद संवेदनषील इलाका है और यहां की पुलिस से सतर्कता और अपराध नियंत्रण के लिए अतिरिक्त चौकस रहने की उम्मीद की जाती है। विडंबना है कि एनसीआर की पुलिस में कर्मठता और व्यावसायिकता की बेहद कमी है। उनकी रात की गश्त लगभग बंद है और डायल 100 की गाड़िया, हाईवे पर नाके लगा कर वाहनों से वसूली को ही अपना मूल कार्य मानती हैं। 

वैसे यहां पुलिस की दुर्गति का मूल कारण सरकार की पुलिस संबंधी नीतियों का पुराना व अप्रासंगिक होना है। ऐसा नहीं है कि पुलिस खाली हाथ हैं, आए रोज कथित बाईकर्स गेंग पकड़े जाते हैं, बड़े-बड़े दावे भी होते हैं लेकिन अगले दिन ही उससे भी गंभीर अपराध सुनाई दे जाते हैं। लगता है कि दिल्ली व पड़ोसी इलाकों में दर्जनों बाईकर्स-गैंग काम कर रहे हैं और उन्हें पुलिस का कोई खौफ नहीं हैं। अकेले गाजियाबाद जिले की हिंडन पार की कालोनियों में हर रोज झपटमारी की दर्जनों घटनाएं हो रही हैं और अब पुलिस ने मामले दर्ज करना ही बंद कर दिया है। जिस गति से आबादी बढ़ी उसकी तुलना में पुलिस बल बेहद कम है। मौजूद बल का लगभग 40 प्रतिषत  नेताओं व अन्य महत्वपूर्ण लोगों की सुरक्षा में व्यस्त है। खाकी को सफेद वर्दी पहना कर उन्हीं पर यातायात व्यवस्था का भी भार है। अदालत की पेषियां, अपराधों की तफ्तीष, आए रोज हो रहे दंगे, प्रदर्षनों को झेलना। कई बार तो पुलिस की बेबसी पर दया आने लगती है। हर महीने में तीन से चार बार तो मुख्यमंत्री गाजियाबाद में हिंडन हवाई अडडडे पर आते हैं और उनके लिए सुरक्षा, रास्ते बंद करने व सफाई करवाने मं ही सारा फोर्स लगा रहता है। 
मौजूदा पुलिस व्यवस्था वही है जिसे अंग्रेजों ने 1857 जैसी बगावत की पुनरावृत्ति रोकने के लिए तैयार किया था।  अंग्रेजों को बगैर तार्किक क्षमता वाले आततायियों की जरूरत थी ,इसलिए उन्होंने इसे ऐसे रूप में विकसित किया कि पुलिस का नाम ही लोगों में भय का संचार करने को पर्याप्त हो। आजादी के बाद लोकतांत्रिक सरकारों ने पुलिस को कानून के मातहत जन-हितैषी संगठन बनाने की बातें तो कीं लेकिन इसमें संकल्पबद्धता कम और दिखावा ज्यादा रहा। वास्तव में राजनीतिक दलों को यह समझते देर नहीं लगी कि पुलिस उनके निजी हितों के पोषण में कारगर सहायक हो सकती है और उन्होंने सत्तासीन पार्टी के लिए इसका भरपूर दुरुपयोग किया। परिणामतः आम जनता व पुलिस में अविश्वास की खाई बढ़ती चली गयी और समाज में असुरक्षा और अराजकता का माहौल बन गया। शुरू-शुरू में राजनैतिक हस्तक्षेप का प्रतिरोध भी हुआ। थाना प्रभारियों ने विधायकों व मंत्रियों से सीधे भिड़ने का साहस दिखाया पर जब ऊपर के लोगों ने स्वार्थवश हथियार डाल दिये तब उन्होंने भी दो कदम आगे जाकर राजनेताओं को ही अपना असली आका बना लिया। अन्ततः इसकी परिणति पुलिस-नेता-अपराधी गठजोड़ में हुई जिससे आज पूरा समाज इतना त्रस्त है कि सर्वोच्च न्यायालय तक ने पुलिस में कुछ ढांचागत सुधार तत्काल करने की सिफारिषें कर दीं। लेकिन लोकषाही का षायद यह दुर्भाग्य ही है कि अधिकांष राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के इस आदेष को नजरअंदाज कर रही हैं। परिणति सामने है- पुलिस अपराध रोकने में असफल है।
कानून व्यवस्था या वे कार्य जिनका सीधा सरोकार आम जन से होता है, उनमें थाना स्तर की ही मुख्य भूमिका होती है। लेकिन अब हमारे थाने बेहद कमजोर हो गए हैं। वहां बैठे पुलिसकर्मी आमतौर पर अन्य किसी सरकारी दफ्तर की तरह क्लर्क का ही काम करते हैं। थाने आमतौर पर षरीफ लोगों को भयभीत और अपराधियों को निरंकुष बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज जरूरत है कि थाने संचार और परिवहन व अन्य अत्याधुनिक तकनीकों से लैस हांे। बदलती परिस्थितियों के अनुसार थानों के सशक्तीकरण महति है। आज अपराधी थानें में घुस कर हत्या तक करने में नहीं डरते। कभी थाने उच्चाधिकारियों और शासन की प्रतिष्ठा की रक्षा के सीमावर्ती किलों की भांति हुआ करते थे। जब ये किले कमजोर हो गये तो अराजक तत्वों का दुस्साहस इतना बढ़ गया कि वे जिला पुलिस अधीक्षक से मारपीट और पुलिस महानिदेशक की गाड़ी तक को रोकने से नहीं डरते हैं।
रही बची कसर जगह-जगह अस्वीकृत चौकियों, पुलिस सहायता बूथों, पिकेटों आदि की स्थापना ने पूरी कर दी है। इससे पुलिस-शक्ति के भारी बिखराव ने भी थानों को कमजोर किया है। थानों में ”स्ट्राइकिंग फोर्स“ नाममात्र की बचती है। इससे किसी समस्या के उत्पन्न होने पर वे त्वरित प्रभावी कार्यवाही नहीं कर पाते हैं । तभी पुलिस थानों के करीब अपराध करने में अब अपराधी कतई नहीं घबराते हैं। 
पुलिस सुधारों में अपराध नियंत्रण, घटित अपराधों की विवेचना और दर्ज मुकदमें को अदालत तक ले जाने के लिए अलग-अलग  विभाग घटित करने की भी बात है।  सनद रहे अभी ये तीनों काम  एक ही पुलिस बल के पास है, तभी आज थाने का एक चौथाई स्टाफ हर रोज अदालत के चक्कर लगाता रहता है। नियमित पेट्रोलिंग लगभग ना के बराबर है। यह भी एक दुखद हकीकत है कि पुलिस को गष्त के लिए पेट्रोल बहुत कम या नहीं मिलता है। पुलिसकर्मी अपने स्तर पर इंधन जुटाते हैं, जाहिर है कि इसके लिए गैरकानूनी तरीकों का सहारा लेना ही पड़ता ।
सुप्रीम कोर्ट भी इस बारे में निर्देश दे चुका हैं, लेकिन देश का नेता पुलिस का उपनिवेशिक चेहरे को बदलने में अपना नुकसान महसूस करता है । तभी विवेचना और कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए अलग-अलग एजेंसियों की व्यवस्था पर सरकार सहमत नहीं हो पा रही है ।  वे नहीं चाहते हैं कि थाना प्रभारी जैसे पदों पर बहाली व तबादलों को समयबद्ध किया जाए।  इसी का परिणाम है कि दिल्ली एनसीआर में अपराधी पुलिस की कमजोरियों का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। ़
पुलिस की मौजूदा व्यवस्था इन कारकों के प्रति कतई संवेदनषील नहीं है। वह तो डंडे और अपराध हो जाने के बाद अपराधी को पकड़ कर जेल भेजने की सदियों पुरानी नीति पर ही चल रही है। आज जिस तरह समाज बदल रहा है, उसमें संवेदना और आर्थिक सरोकार प्रधान होते जा रहे हैं, ऐसे में सुरक्षा एजेंसियों की जिम्मेदारी, कार्य प्रणाली व चेहरा सभी कुछ बदलना जरूरी है ।  आज जरूरत डंडे का दवाब बढ़ाने की नहीं है, सुरक्षा एजेंसियों को समय के साथ आधुनिक बनाने की है ।


पंकज चतुर्वेदी
संपर्क- 9891928376





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गुरुवार, 4 अक्तूबर 2018

बर्फ के मरू को नहीं चाहिए पक्के मकान

पंकज चतुर्वेदी
वहां के लोग प्रकृति के संग जीने के आदी हैं, उनका धर्म व दर्शन भी उन्हें नैसर्गिकता के करीब जीवनयापन करने की सीख देता है, ना जरूरत से ज्यादा संचय और ना ही बेवजह षब्दों का इस्तेमाल। कायनात की खूबसूरत देन सदियों तक अक्षुण्ण रही,बाहरी प्रभावों से क्योंकि किसी आम आदमी के लिए वहां तक पहुंचना और फिर उस परिवेश में जीना दूभर होता था, हांे सते -सन्यासी पहुंचते थे, वहीं वहां बसते थे क्योंकि वे ना तो सावन हरे ना वैशाख सूखे। फिर पर्यटन व्यवसाय बन गया, देवों के निवास स्थान तक आरोहण के लिए हवाई जहाज जाने लगे, पांच-पांच दर्रे पार कर मनाली से सड़क निकाल दी गई जिस पर बसें चल सकें। ईंधन चालित वाहनों ने धरती के इस अनछुए हिस्से पर अपने पहियों के निशान बना दिए। आधुनिकता आई, लेकिन आज वही आधुनिकता उनकी त्रासदी बन रही है, सिर मुंडाए, गहरे लाल रंग के कपड़े पहने लामा, संत कह रहे हैं हमें नहीं चाहिए पक्के-कंक्रीट के मकान लेकिन बड़ा दवाब है सीमेंट, लोहा बेचने वाली कंपनियों का। हालांकि स्थानीय लोगों का दो दशक में ही कंक्रीट से मोह भ्ंाग हो रहा है, कई आधुनधक आर्किटेक की मिसालें मिटाई जा रही हंे और लौट रहे हें स्थानीय मिट्टी व रेत से बने पारंपरिक मकान। यह हालात हैं जलवायु परिवर्तन, जल-मल की आधुनिक सुविधाओं की भयंकर त्रासदी झेल रहे लेह-लद्दाक की कहानी।
अभी कुछ दशक पहले तक लेह-लद्दाक के दूर-दूर बसे बड़े से घरों के छोटे-छोटे गांवों में करेंसी का महत्व गौण था। अपना दूध-मक्खन, अपनी भेड़ के ऊन के कपड़े, अपनी नदियों का पानी और अपनी फसल , ना चाय में चीनी की जरूरत थी और ना ही मकान में फ्लश की। फिर आए पर्यटक, उनके लिए कुछ होटल बने, सरकार ने बढ़ावा दिया तो उनके देखा-देखी कई लेागों ने अपने पुश्तैनी मकान अपने ही हाथों से तबाह कर सीमेंट, ईंटें दूर देश से मंगवा कर आधुनिक डिजाईन के सुदर मकान खड़े कर लिए, ताकि बाहरी लोग उनके मेहमान बन कर रहें, उनसे कमाई हो। स्थानीय प्रशासन ने भी घर-घर नल पुहंचा दिए। पहले जिसे जितनी जरूरत होती थी, नदी के पास जाता था और पानी का इस्तेमाल कर लेता था, अब जो घर में टोंटी लगी तो एक गिलास के लिए एक बाल्टी फैलाने का लोभ लग गया। जाहिर है कि बेकार गए पानपी को बहने के लिए रासता भी चाहिए। अब पहाड़ों की ढलानों पर बसे मकानों के नीचे नालियों की जगह जमीन काट कर पानी तेजी से चीने आने लगा, इससे ना केवल आधुनिक कंक्रीट वाले, बल्कि पारंपरिक मकान भी ढहने लगे। यही नहीं ज्यादा पेसा बनाने के लोभ ने जमीनों पर कब्जे, दरिया के किनारे पर्यटकों के लिए अवास का लालच भी बढ़ाया। असल में लेह7लद्छाक में सैंकड़ों ऐसी धाराएं है जहां सालों पानी नहीं आता, लेकिन जब ऊपर ज्यादा बरफ पिघलती है तो वहां अचानक तेज जल-बहाव होता है। याद करें छह अगस्त 2010 को जब बादल फटने के बाद विनाशकारी बाढ़ आई थी और पक्के कंक्रीट के मकानों के कारण सबसे ज्यादा तबाही हुई थी। असल में ऐसे अधिकांश मकान ऐसी ही सूखी जल धाराओं के रास्ते में रोप दिए गए थे। पानी को जब अपने पुश्तैनी रास्ते में ऐसे व्यवधान दिखे तो उसने उन मकानों को नेस्तनाबूद कर दिया।
जान लें कि लेह-लद्दाख हिमालय की छाया में बसे हैं और यहां बरसात कम ही होती थी, लेकिन जलवाुय परिवर्तन का असर यहां भी दिख रहा है व अब गर्मियों में कई-कई बार बरसात होती है। अंधाधुंध पर्यटन के कारण उनके साथ आया प्लास्टिक व अन्य पैकेजिंग का कचरा यहां के भूगोल को प्रभावित कर रहा है ।
इस अंचल के ऊपरी इलाकों में प्शुपालक व निचले हिस्से में कृशक समाज रहता हे। इनके पारंपरिक घर स्थानीय मिट्टी में रेत मिला कर धूप में पकाई गई र्इ्रंटों से बनते हैं। इन घरों की बाहरी दीवारों को स्थानीय ‘पुतनी मिट्टी’ व उसमें वनस्पतियों के अवशेश को मिला कर ऐसा कवच बनाया जाता है जो षून्य से नीचे तापनाम में भी उसमें रहने वालों को उश्मा देता है। यहां तेज सूरज चमकता है और तापमान षून्य तीस डिगरी से नीचे जाता है। भूकंप -संवेदनशील  इलाका तो है ही। ऐसे में पारंपरिक आवास सुरक्षित माने जाते रहे हैं। सनद रहे कंक्रीट  गरमी में और तपती व जाउ़े में अधिक ठंडा करती है।  सीमेंट की वैज्ञानिक आयु 50 साल है जबकि इस इलाके में पारंपरिक तरीके से बने कई मकान, मंदिर, मठ हजार साल से ऐसे ही षान से खड़े हैं।  यहां के पारंपरिक मकान तीन मंजिला होते हैं। -सबसे नीचे मवेशी, उसके उपर परिवार और सबसे उपर पूजा घर। इसके सामाजिक व वैज्ञानिक कारण भी हैं।
यह दुखद है कि बाहरी दुनिया के हजारों लेाग यहां प्रकृति की सुंदरता निहारने आ रहे हैं लेकिन वे अपने पीछे इतनी गंदगी, आधुनिकता की गर्द छोड़कर जा रहे हैं कि  यहां के स्थानीय समाज का अस्तित्व खतरे में हैं। उदाहरण के लिए बाहरी दखल के चलते यहां अब चीनी यानि षक्कर का इस्तेमाल होने लगा और इसी का कुप्रभाव है कि स्थानीय समाज में अब डायबीटिज जैसे रेाग घर कर रहे हैं। असल में भोजन हर समय स्थानीय देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप ही विकसित होता था। उसी तरह आवास भी। आज कई लोग यहां अपनी गलतियों को सुधार रहे हैं व सीमेंट के मकान खुद ही नश्ट करवा रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि निर्माण व आर्किटेक के आध्ुानिक षोधकर्ता स्थानीय सामग्री से ही ऐसे मकान बनाने में स्थानीय समाज को मदद करंे जो कि बाथरूम, फ्लश जैसी आधुनिक सुविधाओं के अनुरूप हो तथा कम व्यय में तुलनात्मक रूप से आकर्शक भी हो। साथ ही बाहरी कचरे को रोकने के कठोर कदम उठाए जाएं ताकि कायनात की इस सुंदर संरचना को सुरक्षित रखा जा सके।


Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...