बड़़ी सामाजिक भूमिका निभाते छोटे-छोटे हाट बाजार
दिल्ली से सटे गाजियाबाद शहर का नवयुग मार्केट वहां के कनॉट प्लेस की तरह है। जहां बड़े-बड़े शोरूम, छोटी दुकानें तो हैं ही, दफ्तर भी हैं। यहां हर रविवार को एक साप्ताहिक बाजार भी लगता है, जिसमें कोई पांच हजार रेहड़ी-पटरी वाले आते हैं। इस बाजार में 90 प्रतिशत विक्रेता देवबंद, सहारनपुर, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, हापुड़, दिल्ली के सीलमपुर आदि क्षेत्रों से आते हैं, जिनकी किसी प्रकार की कोई पहचान नहीं है। पिछले कुछ महीनों से साप्ताहिक बाजार के मसले पर स्थानीय व्यापारियों और पटरी दुकानदारों में खींचतान चल रही है। स्थानीय व्यापारियों का कहना है कि सप्ताह में एक दिन पटरी पर लगने वाला बाजार उनकी दुकानदारी चौपट कर देता है। उसकी वजह से सड़कों पर जो जाम लगता है, वह अलग परेशानी पैदा करता है।
वैसे यह मामला सिर्फ गाजियाबाद का ही नहीं है, देश के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर ऐसे हाट-बाजारों को बंद करने की मांग उठती रहती है। इसके पीछे गिनाए जाने वाले कारण लगभग एक से होते हैं- बाजार के कारण यातायात ठप हो जाता है, इलाके के निवासी अपने घर में बंधक बन जाते हैं, इनकी भीड़ में गिरहकटी होती है, अपराधी आते हैं या फिर ये काफी गंदगी फैलाते हैं। हालांकि यह भी माना जाता है कि ऐसे बाजारों को बंद कराने के पीछे स्थानीय व्यापारियों के कारण दीगर होते हैं, यहां मिलने वाला सस्ता सामान बड़ी दुकानों की दुकानदारी कम करता है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की लगभग हर कॉलोनी में ऐसे साप्ताहिक बाजार आज भी लोगों की जीवन-रेखा हैं। यहां बेचने और खरीदने वाले की मनोदशा, आर्थिक और सामाजिक स्थिति तकरीबन वही होती है, जो देश के दूरदराज के गांवों में लगने वाले हाट-बाजारों में होती है। दिल्ली में कालकाजी के साप्ताहिक बाजार हों या फिर वसंत विहार जैसे महंगे इलाके का बुध बाजार या फिर सुदूर भोपाल या बीकानेर या सहरसा के साप्ताहिक हाट, जरा गंभीरता से देखें, तो इनके बहुत से सामाजिक समीकरण एक ही होते हैं। हर तरह का सामान बेचते हुए, मगर पूरी तरह से सुविधाहीन। दैनिक मजदूरी करने वाला हो या अफसर की बीवी या फिर खुद दुकानदार, सभी आपको यहां मिल जाएंगे।
ये बाजार रोजगार की तलाश में अपने घर-गांव से पलायन करके आए निम्न आयवर्ग के लोगों की जीवन-रेखा होते हैं। आम बाजार से सस्ते सामान, चर्चित ब्रांड से मिलते-जुलते सामान, छोटे व कम दाम के पैकेट, घर के पास और मेहनत-मजदूरी करने के बाद देर रात तक मिलने वाला सजा बाजार। ये हाट-बाजार सिर्फ उन्हीं परिवारों के पेट नहीं भरते, जो वहां फुटपाथ पर अपना सामान बेचते हैं, और भी बहुत से लोगों की रोजी-रोटी इनसे चलती है। बाजार के लिए लकड़ी के फट्टे या टेबल, ऊपर तिरपाल और बैटरी से चलने वाली एलईडी लाइट की सप्लाई करने वालों का बड़ा वर्ग इन हाट-बाजारों पर ही निर्भर होता है। कई लोग ऐसे बाजारों के सामान लादने वगैरह का काम भी करते हैं। फिर वे लोग भी हैं, जो स्थानीय निकायों से ऐसे बाजार चलाने का ठेका लेते हैं और उसके लिए दुकानों से पैठ वसूलते हैं।
ऐसे हाट-बाजारों का अभी तक आधिकारिक सर्वेक्षण तो हुआ नहीं, मगर अनुमान है कि दिल्ली शहर, गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद, गुड़गांव में लगने वाले कोई 300 से अधिक बाजारों में 35,000 से 40,000 दुकानदार हैं। पूरे देश में यह संख्या लाखों में होगी। इसके बावजूद न तो इनको कोई स्वास्थ्य सुविधा मिली है और न ही बैंक से कर्ज या ऐसी कोई बीमा की सुविधा। यह पूरा काम बेहद जोखिम का है, क्योंकि बरसात हो गई, तो बाजार नहीं लगेगा, कभी-कभी त्योहारों के पहले जब पुलिस के पास कोई संवेदनशील सूचना होती है, तब भी बाजार नहीं लगते। कभी कोई जाम में फंस गया और समय पर बाजार नहीं पहुंच पाया, तो कभी सप्लाई चैन में गड़बड़ हो गई। बावजूद इसके मॉल और ई-कॉमर्स के इस युग में ये बाजार न सिर्फ बरकरार हैं, बल्कि एक महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक भूमिका भी निभा रहे हैं। वह भी तब, जब इन्हें सरकारों की तरफ से कोई वैधता नहीं बख्शी गई है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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