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गुरुवार, 27 जुलाई 2023

Manipur ; Inhumanity with women and concerns of education

 

मणिपुर ; महिलाओं के साथ अमानवीयता और शिक्षा के सरोकार

...पंकज चतुर्वेदी



 

शायद ही कोई समझदार व्यक्ति वह वीडियो पूरा देख सके .  वह केवल दो महिलायें ही नहीं थी जिनके साथ भीड़ पाशविकता कर रही थी, असल में वह शैतानी हमारे संविधान, समाज, शिक्षा और संस्कार के साथ थी . एक ऐसा राज्य है जहां महिलाओं को समाज में प्रधानता मिलती है . दुनिया में मिसाल दी जाती है मणिपुर की राजधानी इंफाल के ख्वाईरंबंद इलाके के  ईमा कैथेल अर्थात  माँ का बाजार’  की . यहाँ केवल महिलाएं ही दुकानें चलाती हैं। सन 1533 में बने इस बाजार में लगभग पांच हजार महिलाओं का व्यवसाय है। ऐसे राज्य में औरतों के साथ हुए दुर्व्यवहार पर प्रतिक्रिया में दो महीने से अधिक का समय लगा, वह भी तब लोग सामने आये जब वह दुर्भाग्यपूर्ण वीडयो सार्वजानिक हो गया .


बात केवल इत्न्ही ही नहीं है , दो महिएँ से अधिक समय से लोग एक दुसरे के घर जला रहे हैं , 170 से अधिक हत्या हो गई , लोग अभी भी सरेआम हथियार के कर घूम रहे हैं.  पुलिस और सरकारी कर्मचारी  भी  इस नफ़रत के दरिया में डूबते- तैरते सहभागी है .  ये सभी कुछ यह सोचने पर मजबूर कर रहे हैं हमारी शिक्षा में ऐसा क्या है जो  शुरुआत से ही  हिंसा , घृणा, भावनाओं पर नियन्त्रण ना होना और महिलाओं के साथ पाशविकता जैसे मसलों पर व्यहवारिक ज्ञान या नैतिकता का पाठ पढ़ाने में असफल रहा है . जान लें मणिपुर की आबादी महज 36. 49 लाख है , देश की कई महानगरों और जिलों से भी बहुत कम . यहाँ औसत साक्षरता दर 76.94 है जिसमें पुरुष साक्षरता दर 83.58  फ़ीसदी है . यहाँ किशोर में साक्षरता की दर 89.51 है . 93.73 प्रतिशतं लोग अपने मकानों में रहते है क्योंकि यहाँ की 70 .79  फीसदी आबादी ग्रामीण इलाके की रहवासी है . यह आंकड़े इस लिए गौर करने के है कि जिस राज्य का साक्षरता प्रतिशत इतना अच्छा हो, खासकर किशोर और युवाओं में – वहां के युवा यदि बंदूकें ले कर खुद ही मसले को निबटाने या अपने विद्वेष में स्त्री-देह को औजार बनाने के लिए आतुर हैं  तो ज़ाहिर है कि वे अभी तक स्कूल –कालेज में जो पढ़ते रहे , उसका उनके व्यहवारिक जीवन में कोई महत्व या मायने है ही नहीं . यदि सीखना एक सामजिक प्रक्रिया है तो हमारी वर्तमान विद्यालय प्रणाली इसमें शून्य है . यह कडवा सच है कि पाठ्यक्रम और उसकी सीख महज विद्यालय के परिसर के एकालाप और परीक्षा में उत्तीर्ण होने का माध्य है . इसमें समाज  या बच्चे के पालक की कोई भागीदारी नहीं है . किसी असहमति को , विग्रह को किस तरह संयम के साथ साहचर्य से सुलझाया जाए ,  ऐसी कोई सीख  विद्यालय समाज  तक दे नहीं पाया . मणिपुर में फर्राटेदार अंग्रेजी बोल रहे लड़के हाथों में अस्लाहा लिए महज किसी जाती या समाज को  जड़ से समाप्त कर देने के लिए आतुर दिखे. उनके अनुसार विवाद का हल दूसरे समुदाय को जड़ से मिटा देने के अलावा कुछ नहीं . लगा किताबों के पहाड़, डिग्रियों के बंडल  और दुनिया की समझ एक कारतूस के सामने बौने ही हैं .   


 

यह शक  के दायरे में है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व  देश की शिक्षा का असली मर्म समझ पा रहा है। महंगाई की मार के बीच उच्च शिक्षा  प्राप्त युवाओं का रोजगार, घाटे का सौदा होती खेती और विकास के नाम पर हस्तांतरित होते खेत, पेट भरने व सुविधाओं के लिए शहरों की ओर पलायन, प्राक्रतिक संसाधनों पर आश्रित समाज को उनके पुश्तैनी घर-गाँव से निष्काषित करना। दूरस्थ  राज्यों के शिक्षित ग्रामीण युवाओं की ये दिक्कतें क्या हमारे नीति निर्धारकों की समझ में है? क्या भारत के युवा को केवल रोजगार चाहिए ? उसके सपने का भारत कैसा है ? वह सरकार और समाज में कैसी भागीदारी चाहता है? ऐसे ही कई सवाल तरूणाई के ईर्दगिर्द टहल रहे हैं, लगभग अनुत्तरित से। तीन दशक पहले तक कालेज  सियासत के ट्रेनिंग सेंटर होते थे, फिर छात्र राजनीति में बाहरी दखल इतना बढा कि एक औसत परिवार के युवा के लिए छात्र संघ का चुनाव लड़ना असंभव ही हो गया। युवा मन की वैचारिक प्रतिबद्धता जाति,धर्म, क्षेत्र जैसे खांचों में बंट गई है और इसका असर देश की राजनीति पर भी दिख रहा है।


मणिपुर ही नहीं  पूर्वोत्तर से ले कर आदिवासी बाहुल्य सभी राज्यों व जिलों में तंगी, सुविधाहीनता व तमाम उपेक्षाओं की गिरफ्त में फंसी एक पूरी कुंठित पीढ़ी  है । गांव की माटी से उदासीन और शहर की चकाचौंध छू लेने की ललक साधे युवा शक्ति । वस्तुतया कुशल जन-बल के निर्माण के लिए ग्रामीण किशोर  वास्तव में ‘कच्चे माल’ की तरह है , जिसका मूल्यांकन कभी ठीक से किया ही नहीं जाता और लाजिमी है कि उनके विद्रोह को कोई सा भी रंग दे दिया जाता है।

आज जरूरत है कि स्कूल स्तर पर  पाठ्यक्रम और शिक्षाशास्त्र इस तरह हों ताकि मौलिक कर्तव्यों और संवैधानिक मूल्यों के प्रति सम्मान की गहरी भावना, अपने देश के साथ अटूट संबंध, और एक बदलती दुनिया में अपनी  भूमिकाओं और जिम्मेदारियों के बारे में जागरूकता विकसित की जा सके । न केवल विचार में, बल्कि आत्मा, बुद्धि और कर्मों में, बल्कि भारतीय होने में एक गहन-गर्वित गर्व पैदा करने के लिए, साथ ही साथ ज्ञान, कौशल, मूल्यों और प्रस्तावों को विकसित करने के लिए, जो मानव अधिकारों के लिए जिम्मेदार प्रतिबद्धता का समर्थन करते हैं, सतत विकास और जीवन ,और वैश्विक कल्याण, जिससे वास्तव में एक वैश्विक नागरिक प्रतिबिंबित हो । हम अपने मसले भावनाओं में बह कर गलत तरीके से नहीं, बल्कि सामंजस्य के साथ साथ बैठ कर , बगैर किसी बाहरी दखल के सुलझा सकें इसके लिए अनिवार्य है कि स्कूल  से ही बच्चों को सम्दयिकता और सामूहिक निर्णय लेने की लोकतन्त्रात्मक प्रणाली के लिए मानसिक रूप से दक्ष किया जाए . इसके लिए स्कूली स्तर पर शारीरिक शिक्षा, फिटनेस, स्वास्थ्य और खेल; विज्ञान मंडलियाँ, गणितँ, संगीत और नृत्यँ, शतरंज ,कविता , भाषा, नाटक , वाद-विवाद मंडलियां ,इको-क्लब, स्वास्थ्य और कल्याण क्लब , योग क्लब आदि की गतिविधियाँ , प्राथमिक स्तर पर बगैर बस्ते के अधिक दिनों तक आयोजित करना होगा ।

मणिपुर जैसे छोटे से और पर्याप्त साक्षर राज्य ने जता दिया कि हमारी शिक्षा  में कुछ बात तो ऐसी है कि वह ऐसे युवाओं, सरकारी कर्मचारियों , खासकर पुलिस को-  देश , राष्ट्रवाद, महिलाओं के लिए सम्मान और अहिंसा जैसी भावनाओं से परिपूर्ण नहीं कर पाई । यह हमारी पाठ्य पुस्तकों  और उससे उपज रही शिक्षा  का खोखला दर्शन  नहीं तो और क्या है ?

 

सोमवार, 17 जुलाई 2023

Urban flood- negligence toward impact of climate change

 

जलवायु परिवर्तन से बेपरवाही है शहरों का डूबना

पंकज चतुर्वेदी



दिल्ली में यमुना जब अपने सौ साल पुराने ठिकाने को तलाशती या गई तो हो-हल्ला मच  गया कि बारिश रिकार्ड तोड़ हुई है सो ऐसे हालात बने । बीते एक दशक के दौरान मुंबई, हैदराबाद, चेन्ने , बैंगलुरु सहित कई  राजधानियाँ और  विकास के मानक कहे जाने वाले शहर ऐसे ही डूबते रहे  और हर बार यही जुमला दोहराया गया कि कुछ ही घंटों में बेशुमार बरसात का रिकार्ड टूटा , इस लिए हालात बिगड़े । असलियत तो यह है कि भारत जलवायु परिवर्तन के खतरे और उसके संभावित खतरे और उससे बचाव के बारे में गंभीर है ही नहीं ।



बरसात को कोसने और सारे साल प्यासे रहने का रोग अब महानगरों में ही नहीं जिला स्तर के नगरों में भी आम है। चूंकि बरसात के दिन कम हो रहे हैं, साल में बामुश्किल 45 सो बाकी के 325 सुकून से आवागमन की उम्मीद में लोग उसे भूल जाते है।। लेकिन जान लें कि अब हमारा देश भी हरीकरण की ओर अग्रसर है और बदलते मौसम का मिजाज अब हमारी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है ।


राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना के एक शोध में सामने आया है कि नदियों के किनारे बसे लगभग सभी हर अब थोड़ी सी बरसात में ही दम तोड़ देते हैं। दिक्क्त अकेले बाढ़ की ही नहीं है, इन हरों की दुरमट मिट्टी में पानी सोखने की क्षमता अच्छी नहीं होती है। चूंकि शह रो में अब गलियों में भी सीमेंट पोत कर आरसीसी सड़कें बनाने का चलन बढ़ गया है और औसतन बीस फीसदी जगह ही कच्ची बची है, सो पानी सोखने की प्रक्रिया नदी-तट के करीब की जमीन में तेजी से होती है। जाहिर है कि ऐसी बस्तियों की उम्र ज्यादा नहीं है और लगातार कमजोर हो रही जमीन पर खड़े कंक्रीट के जंगल  किसी छोटे से भूकंप से भी ढह सकते हैं। याद करें दिल्ली में यमुना किनारे वाली कई कालोनियां के बेसमेंट में अप्रत्याशित पानी आने और ऐसी  कुछ इमारतों के गिर जाने की घटनाएं भी हुई हैं। दिल्ली में तो यमुना के कछार पर कब्जे कर कोई 35 लाख आबादी बस गई है । आज बस अड्डे, आइटीओ , ओखला या आइटीओ पर जहां पानी भरा है वे सभी कुछ दशक पहले तक यमुना के लहरों से मुसकुराते थे । तीन साल पहले भारत सरकार के केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय तैयार पहली जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट में साफ बताया दिया गया था कि भारतीय शहरों में पर्यावरण के प्रति लापरवाही से बचा नहीं गया तो वहाँ के हालत नियंत्रण  के बाहर होंगे .रिपोर्ट किसी लाल बस्ते में बंधी रही और राजधानी दिल्ली में चेतावनी साकार हो गई । अभी तो बरसात ने यह दिन दिखाए हैं, वह दिन दूर नहीं जब महानगरों में गर्मी का तापमान असहनीय स्तर पर होगा । रिपोर्ट में कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण बरसात का स्वरुप बदल रहा है | इसके चलते बाढ़ और सुखाड दोनों की मार और तगड़ी होगी , साथ ही सतही और भूजल के रिचार्ज का गणित गडबड़ायेगा और यह देश की जल सुरक्षा के लिए खतरा है। 

यह दुखद है कि हमारे नीति निर्धाकर अभी भी अनुभवों से सीख नहीं रहे हैं और आंध्रप्रदेश जैसे राज्य की नई बन रही राजधानी अमरावती , कृष्णा  नदी के जलग्रहण क्षेत्र में बनाई जा रही है । कहा जा रहा है कि यह पूरी तरह नदी के तट पर बसी होगी लेकिन यह नहीं बताया जा  रहा कि इसके लिए नदी के मार्ग को संकरा कर जमीन उगाही जा रही है और उसका अति बरसात में डूबना और यहां तक कि धंसने की पूरी-पूरी संभावना है।


शह रीकरण व वहां बाढ़ की दिक्कतो ंपर विचार करते समय एक वैश्विक त्रासदी को ध्यान में रखना जरूरी है - जलवायु परिवर्तन। इस बात के लिए हमें तैयार रहना होगा कि वातावरण में बढ़ रहे कार्बन और ग्रीन हाउस गैस प्रभावों के कारण ऋतुओं का चक्र गड़बड़ा रहा है और इसकी की दुखद परिणति है - मौसमों का चरम।  गरमी में भयंकर गर्मी तो ठंड के दिनों में कभी बेतहाशा जाड़ा तो कभी गरमी का अहसास। बरसात में कभी सुखाड़  तो कभी अचनाक आठ से दस सेमी पानी बरस जाना। संयुक्त राष्ट्र  की एक ताजा रिपोर्ट तो ग्लोबल वार्मिग के चलते भारत की चार करोड़ पर खतरा बता रही हे। इसमें कहा गया है कि यदि धरती का तापमान ऐसे ही बढ़ा तो समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा और उसके चलते कई शहरों पर डूब का खतरा होगा। यह खतरा महज समुद्र तटों के शह रों पर ही नहीं होगा , बल्कि उन शहरों को भी डुबा सकता है जो ऐसी नदियों के किनारे हैं जिनका पानी सीधे समुद्र में गिरता है।


जलवायु परिवर्तन के मंडराते खतरों के प्रति सचेत करते हुए इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च इन एग्रोफारेस्ट्री के निदेशक डॉ. कुलूस टोपर ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि आने वाले दिन जलवायु परिवर्तन के भीषणतम उदाहरण होंगे जो कृषि उत्पादकता पर चोट, जल दबाव, बाढ़, चक्रवात व सूखे जैसी गंभीर दशाओं को जन्म देंगें। जाहीर है इसका सबसे बाद दुष्परिणाम पलायन होगा और इसका दवाब शहरों पर ही पड़ना है । यदि शहर भी जलवायु परिवर्तन के प्रति गंभीर नहीं हुए तो देश के सामने गंभीर संकट होगा ।

अब यह तय है कि आने वाले दिन शहरों के लिए सहज नहीं है। शहरीकरण से बचा तो जा नहीं सकता , तो फिर किया क्या जाए? आम लोग व सरकार कम से कम कचरा फैलाने पर काम करे। पॉलीथिन पर तो पूरी तरह पाबंदी लगे। शह रों में अधिक से अधिक खाली जगह यानि कच्ची जमीन हो, ढेर सरे पेड़ हों। शह रों में जिन स्थानों पर पानी भरता है, वहां उसे भूमिगत करने के प्रयास हों। तीसरा प्राकृतिक जलाशयों, नदियों  को उनके मूल स्वरूप में रखने तथा उसके जलग्रहण क्षेत्र को किसी भी किस्म में निर्माणे मुक्त रखने के प्रयास हों। पेड़ तो वातावरण की गर्मी को नियंत्रित करने और बरसात के पानी को जमीन पर गिर कर मिट्टी काटने से बचाते ही हैं।

 

मंगलवार, 11 जुलाई 2023

Let Panjim be "Ponzi" not smart

                 पंजिम को स्मार्ट नहीं “पोंजी” ही  रहने दें

पंकज चतुर्वेदी




यदि गोवा सरकार की वेब साइट  पर भरोसा करें  तो इस इलाके की जमीन ऐसी थी कि पानी को सोख लेती थी – पौंजी , इसी कारण इसका नाम पणजी हो गया .  इस बार पहली बरसात में ही पंजिम दरिया बन गया . जहां  सर्वाधिक गगनचुम्बी इमारते हैं , जस बाज़ार से सट कर नदी बहती है, जहां से कुछ दूरी पर समुद्र है – वे सभी कई-कई फूट पानी में डूब गए. बहाने वही पुराने – बरसात अधिक हो गई , नालों की क्षमता कम थी . असल में यह एक “वैश्विक_राज्य” कहलाने वाले गोवा के लिए चेतावनी है . जलवायु परिवर्तन की मार सबसे अधिक  तटीय नगरों पर पड़ना है और आने वाले दिन में और भीषण होना है, ऐसे में विचार करना होगा  कि क्या जिस स्मार्ट  सिटी परियोजना से  इस पुराने शहर का चेहरा चमकाने की कोशिश है , वह बनी किस्म की चुनोतियों से जूझ पायेगा या नहीं .

गोवा छोटा सा राज्य है , लेकिन वहां निवास करने वालों और आने वाले पर्यटकों  के वैविध्य ने इसे “ग्लोबल विलेज” बना दिया है . प्राकृतिक संसाधनों की भरमार है , सो व्यापार के भी अवसर है लेकिन यहाँ बरसात लम्बे समय तक डेरा डाले  रहती है और इस तरह का जलभराव यहाँ के नैसर्गिक सौन्दर्य और ऐतिहासिक विरासत के साथ-साथ पर्यटन और व्यापार के लिए भी नकारात्मक है . विदित हो 14  अक्तूबर -15 को यहाँ स्मार्ट सिटी परियोजना शुरू हुई . इसका बजट कोई 11 सौ करोड़ है और  इसकी आधी राशी खर्च हो चुकी है. यह परियोजना  अपने निर्धारित  समय सीमा से  बहुत पीछे है और बरसात ने बता दिया कि कार्य की या तो गुणवत्ता दोयम है या फिर यह भविष्योन्मुखी नहीं है .

पाट्टो  पंजिम का सबसे उभरता और महंगा  व्यावसायिक केंद्र है . यहा कई बड़े बड़े दफ्तर हैं, बेंक के मुख्यालय, होटल और मॉल हैं . यहीं राज्य की सबसे बड़ी लायब्रेरी गोवा स्टेट सेंट्रल लाइब्रेरी (जिसे अब कृष्णदास शर्मा  लाइब्रेरी भी कहा जाता है) और संस्कृति  केंद्र भी है, जिसके ठीक पीछे भारत का दूसरा मैंग्रोव बोर्डवॉक है (पहला अंडमान द्वीप समूह में है)।  यह पहला वॉकवे आगंतुकों के लिए क्षेत्र के वनस्पतियों और जीवों के बारे में अधिक जानने, खोजने और जानने के लिए है। ओरेम क्रीक के ऊपर स्थित, यह 1,100 वर्ग मीटर में फैला हुआ है और सभी के लिए नि:शुल्क है। कुछ समय पहले जनता के लिए खोला गया था, कोई भी दिन में कभी भी यहां घूमने के लिए जा सकता है, इन मैंग्रोव में रहने वाले मेंढकों, केकड़ों, पक्षियों और अन्य जीवों को देख सकता है। वहाँ 14 विभिन्न प्रकार के मैंग्रोव हैं।

इस इलाके का नाम पाट्टो  इस लिए पड़ा क्योंकि यह मंडोवी नदी और अरब सागर के बीच बनी एक पतली सी नहर, जिसे कोरम क्रीक कहते है, के पाट अर्थात कचार का मैदान था . इस नमकीन पानी की धरा में आगे नमक बनाने की खदान भी है. स्थानीय लोग इसे “लवण” कहते हैं अर्थात नमकीन धरती .  गोवा के मिजाज में बरसात  है, यहाँ जून से ले कर अक्तूबर तक लगभग छः महीने पानी गिरता है . शहर के बीच से गुजरने वाला यह क्रीक , उसके किनारे का पाट और लवणीय भूमि कभी यहाँ बरसात की हर बूँद को अपने में जज्ब कर लेती थी. शायद तभी यह पोंजी कहलाई . कभी ये मेंग्रोव पंजिम के लिए शुध्ध हवा हेतु फेंफडे जैसे थे और जल संरक्ष्ण के असीम भण्डार .

स्मार्ट सिटी के लिए सबसे पाट्टो  की जमीन पर कंक्रीट रोपी गई , फिर क्रीक के जलधारा को सिंकोड़ कर उस पर नए निर्माण के तयारी शुरू की गई . इस बात का ध्यान रखा नहीं गया कि तटीय पारिस्थितिकी तंत्र को भारी बाढ़ और क्षति से बचाने में मैंग्रोव का बहुत अधिक महत्व है .

कोंकणी में मैंग्रोव को मार्वल कहते हैं। अर्थात मर्यादा वेल। यह जहां तक है वहीं तक खारे पानी की मर्यादा आगम की। शहर को दमकाने की फ़िराक में इस मर्यादा को जो लांघा गया तो जल ने अपना प्रतिरोध दर्ज कर दिया .

शहर में पानी भरने का एक और कारण हैं यहाँ बहने वाली मांडोवी और जुआरी नदियों का प्रदुषण,दोनों नदियों को उद्गम से पहले जोड़ने वाली कमबरजुआ नहर की क्षमता कम होना, दोनों नदियों का उथला होना और डौना पाउलो में उनके अरब सागर में मिलन स्थल का आमुख सिकुड़ जाना . मांडोवी जिसे महादायी भी कहा जाता है, कर्नाटक पठार के पश्चिमी किनारे पर स्थित कर्नाटक राज्य के बेलगाम जिले के डेगाओ गांव में केलिल घाट के ऊपर मुख्य सह्याद्रि में 600 मीटर की ऊंचाई से उदगमित होती है। कर्नाटक में  उत्तर कन्नड़ जिले से 29 किमी तक बहती हुई यह नदी उत्तरी गोवा जिले के सत्तारी तालुका से होते हुए गोवा राज्य में प्रवेश करती है। गोवा राज्य के भीतर 52 किमी की लंबाई में बहती हुई अरब सागर में गिरती है। दुर्भाग्य है कि इस नदी के दोनों किनारों पर जम कर खनन हो रहा है और इसके अवशेष नदी में गिर कर उसकी गहरे को कम करा रहे हैं और इसे दलदली बना रहे हैं . यह कीचड आगे चल कर समुद्र के रास्ते में भी एकत्र हो रहा है और तभी शहर में जल का अधिक्य जब इन नदियों के माध्यम से समुद्र तक जाता है तो वहां से उसे उलटा धक्का सहना अप्द्ता हर  इससे पानी नालियों के जरिये पलट कर सड़कों पर आ जाता है .

पणजी को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए सबसे पहले जरुरी है कि यहाँ कि नदी, मेंग्रोव, उसके किनारे की जमीन,  बरसाती नालों के नदियों में जुड़ने और नदियों के समुद्र में जुड़ने के स्था, क्रीक आदि को उनके सौ साल पूरण स्वरुप में लाया जाए . ताकि बरसात के जल को  जल निधियों के तट पर फैलने और खेलने का अवसर मिले . यदि नदियों के समुद्र में मिल्न स्थल पर मेंग्रोव नष्ट नहीं होंगे , वहा कचरा जमा नहीं होगा, नदियों से आये मलवे की नियमित सफाई होगी तो  पंजिम फिर से “पोंजी “ शहर बन सकता है .

 

सोमवार, 10 जुलाई 2023

Cities drown by usurping small rivers

 छोटी नदियों को हडपने से डूबते हैं शहर



पहली बारिश में ही गुरुग्राम  दरिया बन गया, बीते पन्द्रह दिनों में विकास और सम्रद्धि के प्रतिमान दिल्ली- जयपुर हाई वे पर दो बार जलभराव के कारण जाम लग चुके हैं. ऐसे बीत पांच सालों से हर साल हो रहा है . नाली बनती है , फ्लाई ओवर बनते है लेकिन बरसात होते ही जल वहीं आ जाता है . यह सभी जानते हैं कि असल में जहां पानी भरता है, वह  अरावली से चल कर नजफगढ़ में मिलने वाली साहबी नदी का हजारों साल पुराना मार्ग है, नदी सुखा आकर सडक बनाई लेकिन नदी भी इन्सान की तरह होती है, उसकी याददाश्त होती है, वह अपना रास्ता 200 साल नहीं भूलती . अब समाज कहता है कि उसके घर-मोहल्ले में  जल भर गया, जबकि नदी कहती है कि मेरे घर में इन्सान बलात कब्जा किये हुए हैं . देश के छोटे-बड़े  शहर- कस्बों में कंक्रीट के जंगल बोने के बाद  जल भराव एक स्थाई समस्या है और  इसका मूल कारण है कि वहां बहने वाली कोई छोटी सी नदी, बरसाती नाले और जोहड़ों  को समाज ने अस्तित्वहीन समझ  कर मिटा दिया


 यह तो अब समझ आ रहा है कि समाज, देश और धरती के लिए नदियाँ और बरसाती नाले  बहुत जरुरी है , लेकिन अभी यह समझ में आना शेष है कि छोटी  नदियों और बरसाती नालों  पर ध्यान देना अधिक  जरुरी है . गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है , पर ये नदियाँ बड़ी इसी लिए  बनती है  क्योंकि इनमें बहुत सी छोटी नदियाँ आ कर मिलती हैं, यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी , यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी को प्रभावित करेगा . बरसाती नाले अचानक आई बारिश की असीम जल निधि को अपने में समेत कर समाज को डूबने से बचाते हैं .

छोटी नदियां  और नाले अक्सर गाँव, कस्बों में बहुत कम दूरी में बहती हैं.  कई बार एक ही नदी के अलग अलग गाँव में अलग-अलग नाम होते हैं – कभी वह नाला कहलाती है कभी नदी . ऐसी कई जल निधियों का तो रिकार्ड भी नहीं है . हमारे लोक समाज  और प्राचीन मान्यता नदियों   और जल को ले कर बहुत अलग थी , बड़ी नदियों से दूर घर-बस्ती हो . बड़ी नदी को अविरल बहने दिया जाए . कोई बड़ा पर्व या त्यौहार हो तो बड़ी नदी के किनारे एकत्र हों, स्नान करें और पूजा करें . छोटी नदी , या तालाब या झील के आसपास बस्ती . यह जल संरचना दैनिक कार्य के लिए जैसे स्नान, कपडे धोने, मवेशी आदि के लिए . पीने की पानी के लिए घर- आँगन, मोहल्ले में कुआँ , जितना जल चाहिए, श्रम  करिए , उतना ही रस्सी से खींच  कर निकालिए . अब यदि बड़ी नदी बहती रहेगी तो छोटी नदी या तालाब में जल बना रहेगा , यदि तालाब और छोटी नदी में  पर्याप्त जल है तो घर के कुएं में कभी जल की कमी नहीं होगी .

एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हज़ार छोटी ऐसी नदियाँ हैं , जो उपेक्षित है , उनके अस्तित्व पर खतरा है . उन्नीसवीं सदी तक बिहार(आज के झारखंड को मिला कर ) कोई छः हज़ार  नदियाँ हिमालय से उतर कर आती थी, आज  इनमें से महज 400  से 600 का ही अस्तित्व बचा है . मधुबनी, सुपौल  में बहने वाली  तिलयुगा नदी कभी  कौसी से भी विशाल हुआ करती  थी, आज उसकी जल धरा सिमट कर  कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है . सीतामढ़ी की लखनदेई  नदी को तो सरकारी इमारतें ही चाट गई. नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड के दर्द साथ –साथ चलने की कहानी  देश के हर जिले और कसबे की है . लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है , उन्हें यह समझने में दिक्कत हो रही हैं कि धरती की कोख में जल भण्डार  तभी लबा-लब रहता है, जब पास बहने वाली नदिया हंसती खेलती हो .

अंधाधुंध रेत खनन , जमीन  पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थाई निर्माण , ही  छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं – दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं हैं, उनको  शातिर तरीके से  नाला बता दिया जाता है , जिस साहबी  नदी पर  शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है, उसका बहुत सा रिकार्ड ही नहीं हैं , झारखण्ड- बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हज़ार से ज्यादा छोटी नदी गुम हो गई , हम यमुना में पैसा लगाते हैं लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन, काली को और गंदा करते हैं – कुल  मिला कर यह  नल खुला छोड़ कर पोंछा लगाने का श्रम करना जैसा है .

छोटी नदी केवल पानी के आवागमन का साधन नहीं होती . उसके चारो  तरफ समाज भी होता है और पर्यावरण भी . नदी किनारे  किसान भी है और कुम्हार भी, मछुआरा भी और  धीमर भी – नदी की सेहत बिगड़ी तो तालाब से ले कर कुएं तक में जल का संकट हुआ – सो परोक्ष और अपरोक्ष समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं है  जो  इससे प्रभावित नहीं हुआ हो . नदी- तालाब से जुड़ कर पेट पालने वालों का जब जल-निधियों से आसरा ख़त्म हुआ तो  मजबूरन उन्हें पलायन करना पड़ा. इससे एक तरफ  जल निधियां दूषित हुईं तो  दूसरी तरफ बेलगाम शहरीकरण के चलते महा नगर अरबन स्लम में बदल रहे हैं . स्वास्थ्य , परिवहन और शिक्षा के संसाधन महानगरों में केन्द्रित होने के कारण ग्रामीण सामाजिक- आर्थिक संतुलन भी इससे गड़बड़ा  रहा है . जाहिर है कि नदी- जीवी लोगों की निराशा ने समूचे समाज को समस्याओं की नई सौगात दी है .

सबसे पहले छोटी नदियों और बरसाती नालों का एक सर्वे और उसके जल तन्त्र  का दस्तावेजीकरण हो , फिर छोटी नदियों कि अविरलता सुनिश्चित हो, फिर उससे रेत उत्खनन और  अतिक्रमण को मानव- द्रोह अर्थात हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए .  नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें . नदी में पानी रहेगा तो  तालाब, जोहड़सम्रद्ध रहेंगे  और इससे कुएं या भू जल . स्थानीय इस्तेमाल के लिए वर्षा जल को पारम्परिक तरीके जीला कर एक एक बूँद एकत्र किया जाए , नदी के किनारे  कीटनाशक के इस्तेमाल, साबुन  और शौच से परहेज के लिए जन जागरूकता और वैकल्पिक  तंत्र विकसित हो . सबसे बड़ी बात नदी को सहेजने का जिम्मा  स्थानीय समाज, खासकर उससे सीधे जुड़े लोगों को दिया जाए , जैसे कि  मद्रास से पुदुचेरी तक ऐरी के रखरखाव के जल- पंचायत हैं .

जरा बारीकी से देखें जो छोटी नदियाँ बरसात में हर बूँद को खुद में समेत लेती थी, दो महीने उनका विस्तार होता था , फिर वे धीरी धीर स्थानीय उपयोग और माध्यम नदियों को अपनी जल निधि साझा करती थी, सो कभी बाढ़ आती नहीं थी .  अब ऐसी  छोटी नदियों मुख्य धारा के मार्ग में अतिक्रमण होता जा रहा है । नदी के कछार ही नहीं प्रवाह मार्ग में ही लोगों ने मकान बना लेते हैं । कई जगह धारा को तोड़ दिया जाता है । साल के अधिकांश महीनों में छोटी नदियाँ पगडंडी और ऊबड़–खाबड़ मैदान के रूप में तब्दील होकर रह गई है ।

जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं . ऐसे में  छोटी नदियाँ बाढ़ से बचाव के साथ साथ धरती  के तापमान को नियंत्रित रखने , मिटटी की नमी बनाए रखने और हरियाली के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं . नदी तट  से अतिक्रमण हटाने, उसमें से  बालू-रेत उत्खनन को  नियंत्रित करने , नदी की गहराई के लिए उसकी समय समय पर सफाई से इन नदियों को बचाया जा सकता है , सबसे बड़ी बात समाज यदि इन नदियों को अपना मान कर सहेजने लगे तो इससे  समाज का ही भविष्य उज्जवल होगा .

 

 

मंगलवार, 4 जुलाई 2023

Understanding Monsoon in the context of climate change

 

मानसून को जलवायु परिवर्तन के परिपेक्ष्य में समझना होगा

पंकज चतुर्वेदी



इस बार केरल में मानसून एक हफ्ते देर से आया , मध्य भारत आते-आते देर हुई लेकिन एक हफ्ते में ही काई राज्यों में इतना पानी बरस गया कि वह औसत बारिश से कई गुना अधिक था . हरियाणा में  जून के आखिरी हफ्ते में पूरे सप्ताह प्रदेश में 49.1 एमएम वर्षा रिकार्ड की गई, जो औसत वर्षा स्तर 17.5 एमएम से लगभग 180 प्रतिशत अधिक है। दिल्ली में जून के 30 में से 17 दिन बरसात हुई है। 2011 के बाद अभी तक पहली बार इतने दिन बादल बरसे हैं। इसी तरह इस बार जून में बरसात भी सामान्य से 37 प्रतिशत ज्यादा हुई है। माह की औसत वर्षा है 74.1 मिमी जबकि हुई है 101.7 मिमी। इसी तरह पालम में 118 प्रतिशत, लोधी रोड पर 60 प्रतिशत, रिज क्षेत्र में 36 प्रतिशत और आयानगर में 207 प्रतिशत वर्षा हुई है। कोल्कता में 29 जून को आठ घंटे से अधिक समय तक - 40 मिमी बारिश हुई, जो 24 घंटे के चक्र के भीतर महीने की सामान्य बारिश के 15% से अधिक  है। गौर करें अभी भारतीय केलेंडर के अनुसार यह हाल आषाढ़ महीने का है और आगे सावन-भादों बचा है . वैसे हमारे मौसम वैज्ञानिक पहले ही चेता चुके थे कि इस बार अल-नीनो असर से बरसात अनियमित होगी




भारत सरकार के केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा दो साल पहले तैयार पहली जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट में स्पष्ट चेताया गया था कि तापमान में वृद्धि का असर भारत के मानसून पर भी कहर ढा रहा है| रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के ऊपर ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (जून से सितंबर) में 1951 से 2015 तक लगभग छह प्रतिशत की गिरावट आई है, जो भारत-गंगा के मैदानों और पश्चिमी घाटों पर चिंताजनक हालात तक  घट रही है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि गर्मियों में मानसून के मौसम के दौरान सन 1951-1980 की अवधि की तुलना में वर्ष 1981–2011 के दौरान 27 प्रतिशत अधिक दिन सूखे दर्ज किये गए | इसमें चेताया गया है कि  बीते छः दशक के दौरान बढती गर्मी और मानसून में कम बरसात के चलते देश में सुखा-ग्रस्त इलाकों में इजाफा हो रहा है | खासकर मध्य भारत, दक्षिण-पश्चिमी तट, दक्षिणी प्रायद्वीप और उत्तर-पूर्वी भारत के क्षेत्रों में औसतन प्रति दशक दो से अधिक अल्प वर्षा और सूखे दर्ज किये  गए | यह चिंताजनक है कि  सूखे से प्रभावित क्षेत्र में प्रति दशक 1.3 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है ।



पर्याप्त आंकड़े , आकलन और चेतावनी के बावजूद  अभी तक हमारा देश मानसून को बदलते मौसम के अनुरूप ढाल नहीं पाया है . न हम उस तरह के जल संरक्ष्ण उपाय आकर पाए , न सड़क-पूल- नहर- के निर्माण कर पाए . सबसे अधिक जागरूकता की जरूरत खेती के क्षेत्र में है और वहां अभी भी किसान उसी पारम्परिक केलेंडर के अनुसार बुवाई कर रहा है  .

असल में पानी को ले कर हमारी सोच प्रारंभ से ही त्रुटिपूर्ण है- हमें पढ़ा दिया गया कि नदी, नहर, तालाब झील आदि पानी के स्त्रोत हैं, हकीकत में हमारे देश में पानी का स्त्रोत केवल मानूसन ही हैं, नदी-दरिया आदि तो उसको सहेजने का स्थान मात्र हैं।  यह धरती ही  पानी के कारण जीवों से आबाद है और पानी के आगम मानसून को हम कदर नहीं करते और उसकी नियामत को सहेजने के स्थान हमने खुद उजाड़ दिए।  गंगा-यमुना के उद्गम स्थल से छोटी नदियों के गांव-कस्बे तक बस यही हल्ला है कि बरसात ने खेत-गांव सबकुछ उजाड़ दिया। यह भी  समझना होगा कि मानसून अकेले बरसात नहीं हैं – यह मिटटी की नमी, घने जंगलों के लिए अनिवार्य, तापमान नियंत्रण का अकेला उपाय सहित धरती के हजारों- लाखों जीव- जंतुओं के प्रजनन-भोजन- विस्थापन और निबंधन का भी काल है . ये सभी जीव धरती के अस्तित्व के महत्वपूर्ण घटक है, इन्सान अपने लोभ में प्रकृति को जो नुकसान पहुंचाता है . उसे दुरुस्त करने का काम मानसून और उससे उपजा जीव-जगत करता है .


सभी जानते हैं कि मानसून विदा होते ही उन सभी इलाकों में पानी की एक-एक बूंद के लिए मारा-मारी होगी और लोग पीने के एक गिलास पानी में आधा भर कर जल-संरक्षण के प्रवचन देते और जल जीवन का आधार जैसे नारे दीवारों पर पोतते दिखेंगे। और फिर बारिकी से देखना होगा कि मानसून में जल का विस्तार हमारी जमीन पर हुआ है या वास्तव में हमने ही जल विस्तार के नैसर्गिक परिघि पर अपना कब्जा जमा लिया है।

मानसून शब्द असल में अरबी शब्द ‘मौसिम’ से आया है, जिसका अर्थ होता है मौसम। अरब सागर में बहने वाली मौसमी हवाओं के लिए अरबी मल्लाह इस षब्द का इस्तेमाल करते थे। हकीकत तो यह है कि भारत में केवल तीन ही किस्म की जलवायु है - मानसून, मानून-पूर्व और मानसून-पश्चात। तभी भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा जाता है । जान लें मानसून का पता सबसे पहले पहली सदी ईस्वी में हिप्पोलस ने लगाया था और तभी से इसके मिजाज को भांपने की वैज्ञानिक व लोक प्रयास जारी हैं।


भारत के लोक-जीवन, अर्थ व्यवस्था, पर्व -त्योहार का मूल आधार बरसात या मानसून का मिजाज ही है। कमजोर मानसून पूरे देश को सूना कर देता है। कहना अतिशियोक्ति नहीं होगा कि मानसून भारत के अस्तित्व की धुरी है। खेती-हरियाली और साल भर के जल की जुगाड़ इसी बरसात पर निर्भर है। इसके बावजूद जब प्रकृति अपना आशीष इन बूंदों के रूप में देती है तो समाज व सरकार इसे बड़े खलनायक के रूप में पेश करने लगते हैं। इसका असल कारण यह है कि हमारे देश में मानसून को सम्मान करने की परंपरा समाप्त होती जा रही है - कारण भी है , तेजी से हो रहा शहरों की ओर पलायन व गांवों का शहरीकरण।


विडंबना यह है कि हम अपनी जरूरतों के कुछ लीटर पानी को घटाने को तो राजी हैं लेकिन मानसून से मिले जल को संरक्षित करने के मार्ग में खुद ही रोड़ अटकाते हैं। नदियों का अतिरिक्त पानी सहेजने वाले तालाब-बावली-कुएं नदारद हैं।  फिर पानी सहेजने व उसके बहुउद्देशीय इस्तेमाल के लिए बनाए गए बांध, अरबों की लागत ,  दशकों के समय, विस्थापन  के बाद भी थोडी सी बरसात को समेट नहीं पा रहे हैं। पहाड़, पेड, और धतरी को सांमजस्य के साथ  खुला छोड़ा जाए तो इंसान के लिए जरूरी सालभ्र का पानी को भूमि अपने गर्भ में ही सहेज ले।

असल में हम अपने मानसून के मिजाज, बदलते मौसम में बदलती बरसात, बरसात के जल को सहेज कर रखने के प्राकृतिक खजानों की रक्षा के प्रति ना तो गंभीर हैं और ना ही कुछ नया सीखना चाहते हैं।  पूरा जल तंत्र महज भूजल पर टिका है जबकि यह सर्वविविदत तथ्य है कि भूजल पेयजल का सुरक्षित साधन नहीं है।  हर घर तक नल से जल पहुंचाने की योजना का सफल क्रियान्वयन केवल मानूसन को सम्मान देने से ही संभव होगा।


मानसून अब केवल भूगोल या मौसम विज्ञान नहीं हैं- इससे इंजीनियरिंग, ड्रैनेज ,सेनिटेशन, कृषि , सहित बहुत कुछ जुड़ा है। बदलते हुए मौसम के तेवर के मद्देनज़र मानसून-प्रबंधन का गहन अध्ययन हमारे समाज और स्कूलों से ले कर  इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में हो , जिसके तहत केवल मानसून से पानी ही नहीं, उससे जुड़ी फसलों, सड़कों, शहरों में बरसाती पानी के निकासी के माकूल प्रबंधों व संरक्षण जैसे अध्याय हों। खासकर अचानक चरम बरसात के कारण  उपजे संकटों के प्रबंधन पर .

 

 

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...