जलवायु परिवर्तन से बेपरवाही है शहरों का डूबना
पंकज चतुर्वेदी
दिल्ली में यमुना जब
अपने सौ साल पुराने ठिकाने को तलाशती या गई तो हो-हल्ला मच गया कि बारिश रिकार्ड तोड़ हुई है सो ऐसे हालात
बने । बीते एक दशक के दौरान मुंबई, हैदराबाद, चेन्ने , बैंगलुरु सहित कई राजधानियाँ और
विकास के मानक कहे जाने वाले शहर ऐसे ही डूबते रहे और हर बार यही जुमला दोहराया गया कि कुछ ही
घंटों में बेशुमार बरसात का रिकार्ड टूटा , इस लिए हालात बिगड़े । असलियत तो यह है
कि भारत जलवायु परिवर्तन के खतरे और उसके संभावित खतरे और उससे बचाव के बारे में
गंभीर है ही नहीं ।
बरसात को कोसने और सारे साल प्यासे रहने का रोग अब महानगरों में ही नहीं जिला स्तर के नगरों में भी आम है। चूंकि बरसात के दिन कम हो रहे हैं, साल में बामुश्किल 45 सो बाकी के 325 सुकून से आवागमन की उम्मीद में लोग उसे भूल जाते है।। लेकिन जान लें कि अब हमारा देश भी शहरीकरण की ओर अग्रसर है और बदलते मौसम का मिजाज अब हमारी दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बन चुका है ।
राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, पटना के एक शोध में सामने आया है कि नदियों के किनारे बसे लगभग सभी शहर अब थोड़ी सी बरसात में ही दम तोड़ देते हैं। दिक्क्त अकेले बाढ़ की ही नहीं है, इन शहरों की दुरमट मिट्टी में पानी सोखने की क्षमता अच्छी नहीं होती है। चूंकि शह रो में अब गलियों में भी सीमेंट पोत कर आरसीसी सड़कें बनाने का चलन बढ़ गया है और औसतन बीस फीसदी जगह ही कच्ची बची है, सो पानी सोखने की प्रक्रिया नदी-तट के करीब की जमीन में तेजी से होती है। जाहिर है कि ऐसी बस्तियों की उम्र ज्यादा नहीं है और लगातार कमजोर हो रही जमीन पर खड़े कंक्रीट के जंगल किसी छोटे से भूकंप से भी ढह सकते हैं। याद करें दिल्ली में यमुना किनारे वाली कई कालोनियां के बेसमेंट में अप्रत्याशित पानी आने और ऐसी कुछ इमारतों के गिर जाने की घटनाएं भी हुई हैं। दिल्ली में तो यमुना के कछार पर कब्जे कर कोई 35 लाख आबादी बस गई है । आज बस अड्डे, आइटीओ , ओखला या आइटीओ पर जहां पानी भरा है वे सभी कुछ दशक पहले तक यमुना के लहरों से मुसकुराते थे । तीन साल पहले भारत सरकार के केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय तैयार पहली जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट में साफ बताया दिया गया था कि भारतीय शहरों में पर्यावरण के प्रति लापरवाही से बचा नहीं गया तो वहाँ के हालत नियंत्रण के बाहर होंगे .रिपोर्ट किसी लाल बस्ते में बंधी रही और राजधानी दिल्ली में चेतावनी साकार हो गई । अभी तो बरसात ने यह दिन दिखाए हैं, वह दिन दूर नहीं जब महानगरों में गर्मी का तापमान असहनीय स्तर पर होगा । रिपोर्ट में कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण बरसात का स्वरुप बदल रहा है | इसके चलते बाढ़ और सुखाड दोनों की मार और तगड़ी होगी , साथ ही सतही और भूजल के रिचार्ज का गणित गडबड़ायेगा और यह देश की जल सुरक्षा के लिए खतरा है।
यह दुखद है कि हमारे नीति निर्धाकर अभी भी अनुभवों से सीख नहीं रहे हैं और आंध्रप्रदेश जैसे राज्य की नई बन रही राजधानी अमरावती , कृष्णा नदी के जलग्रहण क्षेत्र में बनाई जा रही है । कहा जा रहा है कि यह पूरी तरह नदी के तट पर बसी होगी लेकिन यह नहीं बताया जा रहा कि इसके लिए नदी के मार्ग को संकरा कर जमीन उगाही जा रही है और उसका अति बरसात में डूबना और यहां तक कि धंसने की पूरी-पूरी संभावना है।
शह रीकरण व वहां बाढ़ की दिक्कतो ंपर विचार करते समय एक वैश्विक त्रासदी को ध्यान में रखना जरूरी है - जलवायु परिवर्तन। इस बात के लिए हमें तैयार रहना होगा कि वातावरण में बढ़ रहे कार्बन और ग्रीन हाउस गैस प्रभावों के कारण ऋतुओं का चक्र गड़बड़ा रहा है और इसकी की दुखद परिणति है - मौसमों का चरम। गरमी में भयंकर गर्मी तो ठंड के दिनों में कभी बेतहाशा जाड़ा तो कभी गरमी का अहसास। बरसात में कभी सुखाड़ तो कभी अचनाक आठ से दस सेमी पानी बरस जाना। संयुक्त राष्ट्र की एक ताजा रिपोर्ट तो ग्लोबल वार्मिग के चलते भारत की चार करोड़ पर खतरा बता रही हे। इसमें कहा गया है कि यदि धरती का तापमान ऐसे ही बढ़ा तो समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा और उसके चलते कई शहरों पर डूब का खतरा होगा। यह खतरा महज समुद्र तटों के शह रों पर ही नहीं होगा , बल्कि उन शहरों को भी डुबा सकता है जो ऐसी नदियों के किनारे हैं जिनका पानी सीधे समुद्र में गिरता है।
जलवायु परिवर्तन के मंडराते खतरों के प्रति सचेत करते हुए इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च इन एग्रोफारेस्ट्री के निदेशक डॉ. कुलूस टोपर ने भी अपनी रिपोर्ट में बताया है कि आने वाले दिन जलवायु परिवर्तन के भीषणतम उदाहरण होंगे जो कृषि उत्पादकता पर चोट, जल दबाव, बाढ़, चक्रवात व सूखे जैसी गंभीर दशाओं को जन्म देंगें। जाहीर है इसका सबसे बाद दुष्परिणाम पलायन होगा और इसका दवाब शहरों पर ही पड़ना है । यदि शहर भी जलवायु परिवर्तन के प्रति गंभीर नहीं हुए तो देश के सामने गंभीर संकट होगा ।
अब यह तय है कि आने वाले दिन शहरों के लिए सहज नहीं है। शहरीकरण से बचा तो जा नहीं सकता , तो फिर किया क्या जाए? आम लोग व सरकार कम से कम कचरा फैलाने पर काम करे। पॉलीथिन पर तो पूरी तरह पाबंदी लगे। शह रों में अधिक से अधिक खाली जगह यानि कच्ची जमीन हो, ढेर सरे पेड़ हों। शह रों में जिन स्थानों पर पानी भरता है, वहां उसे भूमिगत करने के प्रयास हों। तीसरा प्राकृतिक जलाशयों, नदियों को उनके मूल स्वरूप में रखने तथा उसके जलग्रहण क्षेत्र को किसी भी किस्म में निर्माणे मुक्त रखने के प्रयास हों। पेड़ तो वातावरण की गर्मी को नियंत्रित करने और बरसात के पानी को जमीन पर गिर कर मिट्टी काटने से बचाते ही हैं।
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