My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

women fighting with corona


आधी आबादी के जज्बे से मात मिलेगी कोरोना को

पंकज चतुर्वेदी

बस्तर के लाल आतंक से ग्रस्त उन इलाकों में सुरक्षा बल जाने से पहले एक बार सोचते हैं लेकिन बीजापुर, दंतेवाडा के दुर्गम अर्नी में ये अल्प शिक्षित “मितानिनें “  कई कई किलोमीटर पैदल चल कर जाती हैं , नके कंधे पर झोला और हाथ में पेंट ब्रश होता है, ये दीवारों पर स्थानीय गोंडी में कोरोना के खतरे, उससे बचाव के नारे लिखती हैं, फिर घर घर जा कर बुखार देखने जैसा काम कर रही हैं , मितानिन राज्य की ऐसी जमीनी स्वास्थ्य कार्कर्ता हैं जिन्हें वेतन के नाम पर नाममात्र को धन मिलता है वह  भी अनियमित. उन पर आंचलिक क्षेत्रों में जच्चा-बच्चा देखभाल व् जागरूकता की जिम्मेदारी होती है, इन दिनों ये “कोरोना-योद्धा” बनी हुयी हैं, इनके पास कोई स्वास्थ्य-सुरक्षा उपकरण भी नहीं होते .
पूरी दुनिया में एक लाख से अधिक  लोगों को अपना शिकार बना चुके और अभी तक लाइलाज नावेल कोरोना वायरस संक्रमण का अभी तक खोजा गया सबसे माकूल  उपाय सामाजिक दूरी बना, रखना और संदिग्ध मरीज को समाज से दूर रख देना ही है। यह भी जरुरी है कि कोरोना संक्रमण रोकने के कार्य में एक सैनिक की तरह कम क्र रहे लोग भी अपने परिवार या समाज के सम्पर्क में न आयें , देशभर के प्रशासनिक आंकड़े गवाह हैं कि सामजिक दूरी बनाये रखने, सार्वजनिक स्थानों पर बेवजह ना घूमने का सबसे अधिक पालन भारत की आधी आबादी ने ही किया है, जाहिर है कि इसी के चलते संक्रमण से देश की बड़ी जनसंख्या स्वत ही निरापद हो गयी , यह भी कटु सत्य है कि घर के दायरों में बंधे रहने , एक ही दिनचर्या , अपने परिवार को खुश रखने के प्रयासों में महिलाओं को कई बार उकताहट होने लगती है . लेकिन गंभीरता से देखें तो अपने घरों के दायरे में काम आकर रही महिलायें कोरोना संक्रमण के विस्तार को रोकने की सबसे बड़ी सिपाही हैं. वे खुद घर में रहती हैं, वे घर में रह रही परिवारजनों की फरमाइशों को इस तरह पूरा करती हैं कि  वे भी घर से नहीं निकलते .
भारत में कई महिलायें अपने.अपने स्तर पर इस अदृश्य शत्रु से संघर्ष में बेहद जटिल परिस्थितियों को झेल रही हैं . एक तो जिनके पति या बेटे चिकित्सा, स्वच्छता, सुरक्षा जैसी सेवाओं में लगे हैं और अब संक्रमण के खतरे के चलते उनका घर आना संभव नहीं होता, ये महिलायें उनकी अनुपस्थिति में घर का संचालन कर रही हैं . भपल के निशातपुरा थाने की महिला पुलिसकर्मियों ने तो इससे भी आगे एक कदम बाध्य, यह देखा गया कि  ड्यूटी के कारण पुलिसकर्मी घर नहीं जा पाते, और लगातार बाहर का खाना उनके स्वास्थ्य के लिएसंकट बन रहा था , ऐसे में थाने की महिलाकर्मियों ने अपनी ड्यूटी के साथ-साथ कोई सवा सौ लोगों का खाना बनाना भी शुरू कर दिया . उप निरीक्षक उर्मिला यादव आरक्षक दीपमाला, सारिका आदि ने थाना परिसर में ही एक रसोई घर शुरू कर लिया .
उधर आगरा में रेलवे प्रोटेक्शन फ़ोर्स अर्थात आर पी ऍफ़ की महिला सिपाही भी पीछे नहीं हैं , इन दिनों ट्रेन संचालन ना होने के कारण उन पर काम का बोझ कम है तो आगरा कैंट रेलवे स्टेशन पर आरपी,फ की पांच  महिला कांस्टेबल रोजाना सौ से सवा सौ तक मास्क तैयार कर रही हैं। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर  खीरी जिले की पुलिस लाइन में महिला सिपाहियों ने गरीबों की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने का हौसला दिखाया है। महिला सिपाही बन्दूक पकड़ने वाले हाथों से अब सिलाई मशीन की भी कमान संभाले हुए हैं और हर दिन कई सौ मास्क बना कर वितरित कर रही हैं . भरतपुर के डीग उपखण्ड के गांव कोरेर निवासी सुमन देवी ने ठाना है कि वह कोरोना से लोगों को बचाने के लिएखुद अपने हाथों से मास्क बना,गी और उसने मास्क बनाना शुरू कर दिया। सुमन देवी ने पहले अपने गांव में मास्क बनाकर लोगों के बीच बांटना शुरू किया, फिर पड़ोसी गांव में ग्रामीणों को मास्क दि,। इसके साथ ही सुमन देवी लोगों से अपील कर रही हैं कि वे मास्क का प्रयोग करें, खासकर अगर उन्हें बाहर जाना पड़े। सुमन देवी की शादी यूपी के आगरा में हुई थी। शादी के कुछ साल बाद पति ने सुमन को छोड़ दिया। सुमन अपने दो छोटे बच्चों के साथ अपने गांव आ गईं, जहां उन्होंने अपने बच्चों को पालने के लिए खुद गांव में मशीन खरीदकर सिलाई करना शुरू कर दिया। आज सुमन की बेटी और बेटा ग्रेजु,शन कर रहे हैं। लेकिन इस माहमारी में उसने लोगों को बचाने के लिए पहल शुरू की और दिन रात लगकर मास्क बना, और ग्रामीणों को वितरित किये .
बिहार के मुजफ्फरपुर की महिलाओं कोरोना जैसी महामारी से लड़ने में मोबाइल फोन को ही हथियार बना लिया है. यहाँ  दर्जनों ग्रामीण महिलाएं अपने “लो सखी चेन” के माध्यम से हर दिन सैकड़ों परिवारों को इस बीमारी से बचने के लिए जागरूक कर रही हैं. ये महिलाएं, हालांकि कम पढ़ी.लिखी हैं, लेकिन फोन पर यह अच्छे तरीके से बात करती हैं और इस लॉकडाउन के दौरान गांव में बाहर से आने वाले लोगों की जानकारी भी अधिकारियों को उपलब्ध करा रही हैं.
जिले की बोचहां की रहने वाली 35 वर्षीय महिला रोशनी कुमारी अपने पास के ही गांव में रहने वाली एक अन्य महिला को फोनकर समझा रही हैं, ‘’ हेलो, हम बोचहा से रोशनी बोल रही हूं. क्या आप कोरोना के बारे में जानती हैं. आपको घबराने की बजाय थोड़ा ,हतियात बरतने की जरूरत है. सबकुछ ठीक हो जा,गा. आपको गांवों में आने वाले किसी भी बाहरी व्यक्ति के बारे में प्रशासन को सूचित करना होगा.’’
रोशनी ऐसे ही कई जान पहचान वाली महिलाओं को फोनकर कोरोना से बचाव की सलाह दे रही थी, कि वह लोगों से सामाजिक दूरी बना, रखें. इन गांव की महिलाओं ने लोगों को जागरूक करने के लिएश्हलो सखी चेनश् बनाया है. इस चेन के माध्यम से एक दिन में एक महिला 20 से 30 परिवारों का हालचाल पूछ रही हैं. इन महिलाओं ने मैथिली, भोजपुरी, बज्जिका जैसी क्षेत्रीय भाषा में जागरूकता गीत भी बना, हैं. इन गीतों के जरिये भी मोबाइल फोन से लोगों तक अपनी बात पहुंचा रही हैं.
यहाँ यह भी जानना जरुरी है कि समूचे देश के लिए कोरोना से अलग- अलग तरीके से निबटने की योजना, शोध, क्रियान्वयन आदि उच्च स्तर पर भी महिलायें ही मोर्चा संभाले हैं . स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की सचिव प्रीति सूदन, बीमारी के प्रसार को रोकने के लिएनरेंद्र मोदी सरकार की नीतियों को लागू करने के लिए सभी विभागों को संरेखित करने पर काम कर रही हैं. तमिलनाडु की स्वास्थ्य सचिव, बीला राजेश अपने विभाग और ट्विटर के माध्यम से नागरिकों के साथ जुड़ने में सक्रिय रहे हैं. वर्तमान में राज्य में 600 से अधिक सक्रिय मामले हैं, जो कि देश में सबसे ज्यादा हैं. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी पुणे की निदेशक डॉ प्रिया अब्राहम ने घातक कोरोनावायरस को अलग करके एक महत्वपूर्ण चिकित्सा सफलता बनाई है. यह बीमारी को बेहतर ढंग से समझने और उपचार के उपचार को खोजने में मदद करता है. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च - आईसीएमआर की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ निवेदिता गुप्ता देश के लिए उपचार और परीक्षण प्रोटोकॉल तैयार करने में व्यस्त हैं, जबकि जैव प्रौद्योगिकी विभाग की सचिव डॉ रेणु स्वरूप अपना समय एक टीका खोजने की कोशिश में बिता रही हैं. पुणे की एक डायनोस्टिक फर्म में काम करने वाली इस महिला वायरोलॉजिस्ट ने देश की पहली कोविड.19 टेस्ट किट विकसित की है. इनका नाम है मीनल दखावे भोसले . खास बात यह भी है कि मीनल ने जब यह टेस्ट किट विकसित की तब वह गर्भवती भी थीं. अपने बच्चे को जन्म देने के कुछ घंटे पहले तक दिन.रात मेहनत करके उन्होंने देश की पहली मेड इन इंडिया टेस्ट किट विकसित की. माईलैब कंपनी में अनुसंधान और विकास प्रमुख मीनल ने कोरोना वायरस परीक्षण किट केवल छह सप्ताह में विकसित कर दी.
ऐसी बहुत सी कहानी देश भर में हैं लेकिन आप यह ना सोचें कि हम तो घर में बंद हैं, इस समय हम क्या कर सकते हैं ? आप भी बहुत कुछ कर  सकते हैं, कुछ तो ऊपर दिए उदाहरणों को अपनाया जा सकता है या फिर -
1 आप में से बहुत महिलायें अच्छा गाती होंगी, क्या यह सम्ब्भ्व है कि शाम को अपनी छत, बालकनी या ओटले पर दो तीन ,नी घर के लोगों के साथ कुछ देर भजन, गीत हो जाएँ ताकि आपके पास.पडोसी अपने घरों में रह कर ही इसका आनंद उठायें, बहुमंजिला इमारत में तो यह बहुत ही सार्थक प्रयोग होगा. अपने घरों में बंद लोगों के लिएआपके सुर.ताल ठंडी हवा के झोंके जैसा सुकून देंगे .
2 अपने घर के करीबी थानों, अस्पताल आदि में फोन कर पूछ लें कि यदि उन्हें भोजन की जरूरत है तो बनाया जा,, अपने पास.पड़ोस के क्लुछ घरों को इसमें जोड़ें और यदि हर घर दो.दो लोगों के लिएताजा भोजन बनाता है तो आराम से हम दस कोरोना.सेनानियों की सेवा कर पायेंगे .
3 देश के बड़े हिस्से में ;जहां पूरी तरह सीलबंदी नहीं है, सब्जी बहुत सस्ती मिल रही है , आमतौर पर सब्जी बेचने वाले वे लोग आपके गली मुहल्लों में आ रहे हैं जो किसी कारखाने में काम करते हैं या रिक्शा आदि चलते हैं . अपनी सुरक्षा और स्वच्छता का ध्यान रख इन सब्जियों को खरीदा जा सकता है, आलू के चिप्स.पापड़ आदि, मिर्ची को सुखा कर या अचार बना कर, टमाटर की प्यूरी . मैथी को सुखा कर रखने जैसे काम किये जा सकते हैं , यह सब्जी जरुरतमंदों को वितरित भी की जा सकती हैं , इस समय दाल.छोले आदि के बनिस्पत खूब सब्जी खाएं, इससे एक तो ये बेरोजगार हो गए लोगों के पास दो पैसे आयेंगे, फिर किसान को भी अपनी फसल फैंकने की जगह कुछ दाम मिलेगा .
4 घर के आसपास बेजान जानवरों को भी कुछ खिलाएं, उनसे दोस्ती कर लें
यदि ऐसे ही कुछ प्रयोग आप करते हैं तो आप भी “कोरोना-सेनानी’’ के तौर पर देश और मानवता की बड़ी सेवा कर सकती हैं . अपने ऐसे कार्यों को हमें सूचित करना ना भूलें .


शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

Dairy industry in dark due to corona lock down

दुग्ध उत्पादकों की भी कोई सुध ले

पंकज चतुर्वेदी 
पिछले सप्ताह ही अखबारों में छपे आगरा के एक चित्र ने पूरे देष का ध्यान अपनी ओर खींचा था जिसमें दुघर्टना के कारण एक दूधिए की टंकी सड़क पर फैल गई और एक इंसान व कुछ कुत्ते एक साथ सड़क से दूध पी रहे थे। यह किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना महामारी के कारण एक अनिवार्य उपभाक्ता वस्तु दूध के ग्राहकों तक ना पहुंच पाने के चलते पशु  पालक संकट में हैं। एक  तरफ दूध का उत्पादन का यह श्रेष्ठ  समय है तो दूसरी तरफ इसकी मांग इस कदर घट गई है कि डेयरी मालिक दूध को यूं ही सड़क पर फैला रहे हैं। भारत का दुग्ध उत्पादन लगभग 18 करोड़ टन है। हमारे यहां दुनिया का कुल बीस फीसदी दूध होता है। इस दूध का कोई तीस प्रतिशत  हिस्सा हर दिन मिठाई, दही आदि में परिवर्तित होता है। कुछ दूध का पाउडर बनता है। सात लाख करोड़ के सालान व्यवसाय वाले दूध पर कोरोना की काली छाया ऐसी पड़ी है कि इससे देश  को पौष्टिक  आहार, आवारा मवेशियों  की समस्या और इस काम में लगे कोई दस करोड़ लोगों के भुखमरी के कगार पर आने का संकट सामने आ गया है।
जनवाणी मेरठ 

आंचलिक क्षेत्रों के छोटे दूध  उत्पादकों के आपूर्तिकर्ता तक ना पहुंच पाने और उसके उत्पाद जैसे दही, पनीर, छेना, खोआ, घी आदि का उत्पादन पूरी तरह ठप्प होने से प्रभावित होने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। देष में कोई 12.53 करोड़ दूध देनो वाले गाय-भैंस हैं और बगैर कमाई के उनका पेट भरना छोटे किसान के लिए बेहद कठिन होता जा रहा है। ढाबे, मिठाई की दुकानें, घी व खोया के कारखाने भी बंद हैं।
उत्तर प्रदेश  देश  के सबसे ज्यादा किसान और दूध देने वाले पशुओं का  पालक राज्य है। फरवरी महीने तक यहां एक नंबर का दूध 40 से 50 रूपए लीटर थ जो आज 15 से 20 रूपए लीटर बड़ी मुश्किल  से बिक रहा है।  लॉकडाउन और उसी दौरान असमय बरसात के चलते फसल कटाई में देरी हो रही है, सो नया भूसा भी नीहं आ पा रहा है। ऐसे में मवेशियों को भरपेट चारा नहीं मिल रहा। सनद रहे कि उ.प्र. पहले से ही आवारा पशुओं  की समस्या से हलकान है। इन हालातों ने इस विपदा को दुगना कर दिया है। पश्चिमी  उप्र के छोटे-छोटे गांवों में खोया बनाने की भट्टियां लगी हैं जो कि हर दिन कई हजार लीटर दूध लेती हैं। शामली-बागपत से चार बजे सुबह कई ट्रक-टेंपों चलते थे जिनमें केवल खोये की टोकरयां लदी होती थीं।  ऐसे सभी गांवो ंमें इस संमय सन्नाटा और भुखमरी की चहलकदमी हैं।
जन्संदेश लखनऊ 

जब से गरमी का पारा 35 से पार हुआ है मध्यप्रदेश  में विदिषा के आसपास दूध को मवेषी ही पी रहे हैं। गांवों में लोग जम कर दूध ही पी कर काम चला रहे है।, लेकिन मवेषी खरीदने के लिए गए कर्ज व अन्य खर्च की पूर्ति के नाम पर किसान की जेब में छदाम नहीं । राजस्थान में दुग्ध उत्पादक सहकारी समितियां बंद होने से जयपुर डेयरी में दूध नहीं पहुंच रहा है। इससे दूध की आपूर्ति गड़बड़ा गई। बाजार में दूध नहीं मिलने से उपभोक्ताओं को भटकना पड़ रहा है। जयपुर डेयरी के दौसा प्लांट में पहले रोजाना सवा लाख लीटर दूध आता था, लेकिन समितियां बंद होने से दूध बंद हो गया। जिन समितियों में बडे़-बड़े मिल्क कूलर लगे हुए हैं उनका 40-45 हजार लीटर ही दूध जयपुर जा रहा है। जिले में 450 दुग्ध उत्पादक सहकारी समितियां हैं। इन समितियों से रोजाना एक लाख 25 हजार लीटर दूध दौसा प्लांट में आता था। दूध नहीं आने से दौसा प्लांट भी बंद हो गया।
hindustan 2-5-20

पंजाब में आज कोई तीन लाख लीटर दूध हर दिन निकल रहा है। इसमें से आधा ही घरों तक जाता है। रोजाना बीस करोड़ के घाटे को सह रहे राज्य के डेयरी उद्योग को एक अजब तरीके की सांप्रदायिक समस्या भी झेलीी पड़ रही हैं। गुरदासपुर के आसपास पशु  पालक समाज मुस्लिम गुज्जर है। तब्लीगी जमात और कोरोना विस्तार को ले कर जो कच्ची-पक्क्ी खबरें गांव तक पहुंची तो उनके दूध का बहिष्कार शुरू  हो गया। गुज्जर बता रहे हैं कि वे जमात को जानते तक नहीं, इसके बाद भी उन्हें अपना दूध नदी में फैंकना पड़ रहा है। इसी तरह हरिद्वार के पास लालढांग के वन गुज्जरों को भी सामाजिक अफवाहों के चलते दूध नदी में बहाना पड़ रहा है।
झारखंड राज्स दुग्ध सहाकरी संघ की मेधा डेयरी के ये आंकड़े राज्य के दुग्ध उत्पादकों के दुर्दिन की तस्वीर प्रस्तुत कर देते हैं। यहां सामान्य दिनों में दूध की खरीदी एक लाख पैंतीस हजार लटर होती है जो आज घट कर 70 से 72 हजार लीटर रहा गई हैं। कभी सवा लाख लीटर प्रति दिन बेचने वाली यह सरकारी डेयरी कोरोना बंदी में 45 हजार लीटर दूध ही बेच पा रही है।  इस संस्थान के पास दूध का पाउडर बनाने का संयत्र है नहीं सो इसने  खरीदी ही कम कर दी। दुग्ध उत्पादकों की समस्या केवल उत्पाद का ना बिकना ही नहीं है, घर में पलने वले मवेाी के भोजन में इस्तेमाल कुट्टी, चोकर, दाने के दाम लगभग दुगने हो गए। साथ ही षहरों में  दुकानें बंद हैं। जिनके पास स्टॉक रखा है वे मनमाने दाम में बेच रहे हैं। बीमार मवेषी का इलाज ना हो पाना, चराई के लिए मवेषी को बाहर ना निकाल पाना जैसी अनंत समस्या दुग्ध उत्पादक को झेलनी पड़ रही हैं।
हालांकि कुछ राज्यों ने डेयरी उद्योग के लिए कई सकारात्मक कद भी उठाए हैं जैसे कर्नाटक सरकार ने बगैर बिेके पूरे दूध को षहरी  गरीबों में निषुल्क बांटने के लिए दौ सौ करोड़ की एक योजना लागू की है। महाराश्ट्र में सहकारी समिति को प्रति दिन दस लाख लीटर दूध को पाउडर में बदलने की परियोजना के लिए 180 करोड़ रूपए जारी किए हैं।  बिहार में आंगनवाड़ी के जरिए दूध पाउडर बांटा जा रहा है । उत्तराखंड सरकार ने बीस हजार आंगनवाड़ी के जरिए ढाई लाख बच्चों को दिन में दो बार दूध बंटवाने का काम षुरू किया है।

सभी जानते हैं कि बढ़ती गरमी में अधिक समय तक दूध रखना संभव नहीं होता और दूध देने वाले पषु के थन भरने पर उसका दूध निकालन भी जरूरी होता है। भारत जैेस देष में जहां कुपोशित बच्चों की संख्या करोड़ों में है, वहां दूध को फैंका जाना बहुत चिंताजनक है। कोरोना वायरस का विस्तार रोकने का एकमात्र उपाय ‘देष-बंदी’ ही है। ऐसे में सरकार को तो इन दुग्ध उत्पादकों की सुध लेना ही चाहिए। पंचायत तर पर दूध खरीदी, कुपोषित  बच्चों व आंगनवाड़ी या मिडडे मील में उसकी मात्रा बढ़ाना एक कारगर उपाय हो सकता है। इसके अलावा ग्रामीण स्तर पर षुद्ध घी बनाना भी फायदेमंद होगा। घी की हर समय मांग रहती है , इसे बनाने के लिए किसी मषीन की जरूरत नहीं होती और घी को लंबे समय तक बगैर प्रषीतक के सुरक्षित भी रखा जा सकता है। इसके दाम भी अच्छे मिलते है।।



बुधवार, 22 अप्रैल 2020

cash crop crushed due to corona


नगदी फसल की भरमार पर कोरोना की मार 

पंकज चतुर्वेदी

 लॉक डाउन के 3 मई तक बढ़ने से वे किसान लगभग बरबादी की कगार पर आ गए है जिन्होंने अधिक आय की उम्मीद में अपने खेतों में फल-सब्जी-फूल आदि की नगदी फसल लगाई थी। कर्नाटक में इस बार अंगूर की बंपर फसल हुई। अगूर को ना तो ज्यादा दिन बेलों पर रहने दिया जा सकता है और ना ही उसके वेयर हाउस की व्यवस्था है। राष्ट्रव्यापी तालाबंदी  के चलते परिवहन ठप्प है और थो मंडी व स्थानीय बाजार भी। इसके चलते बेंगलुरु ग्रामीण, चिक्काबल्लापुर और कोलार जिलों में 500-600 करोड़ रुपये की अंगूर बर्बाद हो गई। खरीदारों को खोजने में असमर्थ, कई किसानों ने अपनी उपज को गड्ढों में डालना शुरू कर दिया है। पिछले रविवार को चिकबल्लापुर के एक किसान मुनीषमप्पा ने अंगूर के चार ट्रक गांव के तालाब में फैंक दिए। इस फसल का सबसे बड़ा संकट यह है कि यदि सूख कर अंगूर जमीन पर गिर गया तो मिट्टी की उर्वरता षक्ति समाप्त हो जाती है।
कर्नाटक के ही श्रीरंगपट्टना के गंजम गाँव के एक किसान सोमू ने मांड्या में बाज़ार बंद होने से हताष हो कर  हवाला देते हुए दो टन चीकू जानवरों को खिला दिए। राजस्थान में कई जगह खीरे के ट्रैक्टर मवेषियों के सामने डाल दिए गए। इस बार खेतों में नगदी फसल अच्छी हुई तो किसानों की उम्मीदें भी बढ़ीं लेकिन तभी जम कर बरसात हुई और आले पड़े, जिसके चलते फल-सब्जी को भयंकर नुकसानहुआ। मध्यप्रदेष के ंिछंदवाड़ा जिले का संतरों के लिए मषहूर गांव हर्लद में कोई दस टन संतरे आलेा-वृश्टि में जमीन पर गिर कर सड़ गए। रही बची फसल देष-बंदी में सड़ गई। रांची के ओखरगढ़ा की सब्जियां पूरे षहर की षान कहलाती हैं, लेकिन अब गांव से सब्जी निकालना मुष्किल है। खीरा और पत्ता गोभी पांच रूपए किलो में खरीदने वाला नहीं हैं।

जब पालतू मवेषियों को इस उम्मीद में फसल खिला दी कि चलो दूधमिलेगा, तो दूध भी मारा-मारा घूम रहा है। निरामिष भोजन में आई कमी के चलते प्याज-लहसुन की मांग घट गई। तो विदेषी सब्जियां जैसे -‘ ब्रोकली, ब्रुसेल्स, लेट्मस आदि उगाने वालों के हाथ बेबसी है क्योंकि ऐसी सब्जियों को उठाने वाले बड़े रेस्तरां बंद हैं।
इस बार पिछले साल की तुलना में आलू का उत्पादन 3.49 फीसदी बढ़ने का अनुमान था। दिसंबर-19 में कृषि मंत्रालय का आरंभिक अनुमान था कि फसल सीजन 2019-20 में 519.4 लाख टन आलू पैदा होगा, जबकि पिछले साल 2018-19 में 510.9 लाख टन का उत्पादन हुआ था। दुर्भाग्य इस बार जब फसल तैयार हुई तभी मार्च में पानी बरसा और चार-पांच दिनों तक खेत में पानी भरा रहा। इससे एक तो फसल को नुकसान हुआ फिर बंदी के चलते आलू खोदने ाला मजदूर ही नहीं मिल रहा। जिनका माल निकल रहा है तो मंडी तक जाने का रास्ता नहीं मिल रहा। जो मंडी तक जा रहे हैं उन्हें अपनी मेहनत -लागत निकालने लायक दाम नहीं मिल रहा।
पूरे देष की खेती-किसानी अनियोजित ,षोशण की षिकार व किसान विरोधी है। तभी हर साल देष के कई हिस्सों में अफरात फसल को सड़क पर फैंकने और कुछ ही महीनों बाद उसी फसल की त्राहि-त्राहि होने की घटनाएं होती रहती हैं। किसान मेहनत कर सकता है, अच्छी फसल दे सकता है, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को भी उसके परिश्रम के माकूल दाम , अधिक माल के सुरक्षित भंडारण के बारे में सोचना चाहिए। खासकर आपदा के समय तो इस तरह की फसलों के लिए खास इंतजाम होना ही चाहिए। षायद इस छोटी सी जरूरत को मुनाफाखोरों और बिचौलियों के हितों के लिए दरकिनार किया जाता है।  तीन साल पहले सरकार ने अपने बजट में रिटेल में विदेषी निवेष की योजना में  सब्जी-फलों के संरक्षण के लिए ज्यादा जगह बनाने का उल्लेख किया था लेकिन वह अभी तक जमीन पर उतरता दिखा नहीं।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है । यह विडंबना ही है कि देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है । पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया ।
हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक कंे कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मषहूर हरी मिर्चों को सड़क पर लावारिस फैंक कर अपनी हताषा का प्रदर्षन करते हैंे। तीन महीने तक दिन-रात खेत में खटने के बाद लहलहाती फसल को देख कर उपजी खुषी किसान के ओठों पर ज्यादा देर ना रह पाती है। बाजार में मिर्ची की इतनी अधिक आवक होती है कि खरीदार ही नहीं होते। उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है- घर की नई छप्पर, बहन की षादी, माता-पिता की तीर्थ-यात्रा; ना जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर मिर्चियों के साथ फैंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता-- मिर्ची की खेती के लिए बीज,खाद के लिए लिए गए कर्जे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां हजारेंा किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं, दुख की बात यह नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक में ऐसा लगभग हर साल किसी ना किसी फसल के साथ होता है। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी ना निकले।
देष के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताष करती है। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। दिल्ली से सटे पष्चिमी उत्तर प्रदेष के कई जिलों में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े, मवेषियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं। आष्चर्य इस बात का होता है कि जब हताष किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चौपट करता होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा, या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेष, महाराश्ट्र, और उप्र के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनांए हर दूसरे-तीसरे साल होती रहती है। जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तो तब षुगर मिलें या तो गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत नीचा देती हैं, वह भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काट कर खरीदी केंद्र तक ढो कर ले जाना, फिर घूस दे कर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना; किसान को घाटे का सौदा दिखता है। अतः वह खड़ी फसल जला कर अपने अरमानों की दुनिया खुद ही फूंक लेता है। आज उसी गन्ने की कमी के कारण देष में चीनी के दाम आम लोगों के मुंह का स्वाद कड़वा कर रहे हैं।
इस बार तो बैमोसम बरसात और कोरोना के कारण किसान रो रहा है लेकिन हकीकत तो यह है कि कृशि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देष में कृशि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है। सब्जी, फल और दूसरी कैष-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुश्परिणाम दाल, तेल-बीजों(तिलहनों) और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फॅसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे; इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो, साथ ही प्रसंस्करण के कारखाने छोटी-छोटी जगहों पर लगें।  जब  कोरोना क कारण बंदी में किसानों के लिए कुछ सोचा जाए तो गैरपारंपरिक फसलों जैसे- फल, सब्जी, फूल आदि के उगाने वालों पर भी गंभीरता से विचार किया जाए।
पंकज चतुवैदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
9891928376

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

Corona tragedy becomes golden opportunity for Olive ride lye turtle

कोरोना वरदान बन गया कछुओं का

पंकज चतुर्वेदी

हर साल नवंबर-दिसंबर से ले कर अप्रेल-मई तक उड़ीसा के समुद्र तट एक ऐसी घटना के साक्षी होते है, जिसके रहस्य को सुलझाने के लिए दुनियाभर के पर्यावरणविद् और पशु प्रेमी बैचेन हैं । हजारों किलोमीटर की समुद्री यात्रा कर ओलिव रिडले नस्ल के लाखों कछुए यहां अंडे देने आते हैं । इन अंडों से निकले कछुए के बच्चे समुद्री मार्ग से फिर हजारों किलोमीटर दूर जाते हैं । यही नहीं ये शिशु कछुए लगभग 30 साल बाद जब प्रजनन के योग्य होते हैं तो ठीक उसी जगह पर अंडे देने आते हैं, जहां उनका जन्म हुआ था । ये कछुए विश्व की दुर्लभ प्रजाति ओलिव रिडले के हैं ।  अक्तूबर-2018 में तितली चक्रवात तूफान के कारण इन कछुओं के पुश्तैनी  पसंदीदा समुद्र तटों पर कई-कई किलोमीटर तक कचरा बिखर गया था, सो बीते साल इनकी बहुत कम संख्या आ पाई थी। इस बार कोरोनो के प्रकोप के चलते एक तो पर्यटन बंद है, दूसरा मछली पकड़ने वाले ट्राले, जाल व अन्य नावंे चल नहीं रही हैं, सो गरियामाथा, उड़ीसा के संरक्षित समुद्री तट पर हुकीटोला से इकाकूल के बीच हर तरफ कछुए, उनके घरोंदे और अंडे ही दिख रहे हैं। हालांकि हर बार इस पूरे इलाके के 20 किलोमीटर क्षेत्र में मछली पकड़ने पर पूरी तरह पाबंदी होती है , लेकिन उससे आगे समुंद की गहराईयों में ये कछुए अपने गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही मारे जाते हैं।

यह आश्चर्य ही है कि ओलिव रिडले कछुए दक्षिणी अटलंांटिका, प्रषांत और भारतीय महासागरों के  समुद्र तटों से हजारों किलोमीटर की समुद्र यात्रा के दौरान भारत में ही गोवा, तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश के समुद्री तटों से गुजरते हैं , लेकिन अपनी वंश-वृद्धि के लिए वे  अपने घोसलें बनाने के लिए उड़ीसा के समुद्र तटों की रेत को ही चुनते हैं । ये समु्रद में मिलने वाले कछुओं की सबसे छोटे आकार की प्रजाति है जो दो फुट लंबाई और अधिकतम पचास किलो वजन के होते हैं। आई यू सी एन(इंटरनेशनल यूनियन फार कन्जरवेशन आफ नेचर ) ने इस प्रजाति को ‘रेड लिस्ट’ अर्थात दुर्लभ श्रेणी में रखा है। सनद रहे कि दुनियाभर में ओलिव रिडले कछुए के घरोंदे महज छह स्थानों पर ही पाए जाते हैं और इनमें से तीन स्थान भारत के उड़ीसा में हैं । ये कोस्टारिका में दो व मेक्सिको में एक स्थान पर प्रजनन करते हैं । उड़ीसा के केंद्रपाड़ा जिले का गरियामाथा समुद्री तट दुनिया का सबसे बड़ा प्रजनन-आशियाना है । इसके अलावा रूसिक्लया और देवी नदी के समुद्र में मिलनस्थल इन कछुओं के दो अन्य प्रिय स्थल हैं ।

एक मादा ओलिव रिडले की क्षमता एक बार में लगभग डेड़ सौ अंडे देने की होती है । ये कछुए हजारों किलोमीटर की यात्रा के बाद ‘‘चमत्कारी’’ समुद्री तटों  की रेत खोद कर अंडे रखने की जगह बनाते हैं । इस प्रक्रिया को ‘मास नेस्टिंग’ या ‘ अरीबादा’ कहते हैं। ये अंडे 60 दिनों में टूटते हैं व उनसे छोट-छोटे कछुए निकलते हैं । ये नन्हे जानवर रेत पर घिसटते हुए समुद्र में उतर जाते हैं, एक लंबी यात्रा के लिए; इस विश्वास के साथ कि वे वंश-वृद्धि के लिए ठीक इसी स्थान पर आएंगे- 30 साल बाद । लेकिन समाज की लापरवाही इनकी बड़ी संख्या को असामयिक काल के गाल में ढकेल देती हैं ।
इस साल उड़ीसा के तट पर कछुए के घरोंदों की संख्या शायद अभी तक की सबसे बड़ी संख्या है । अनुमान है कि लगभग सात लाख नब्बे हजार घरोंदे बन चुके हैं । एक घरोंदे में औसतन 100 अंडे हैं और यह भी जान  लें कि यहां आने वाले कोई तीस फीसदी कछुए अंडे देते नहीं। फिर भी अनुमान है कि इस बार अंडों की संख्या एक करोड़ के पार है। यह भी आश्चर्य की बात है कि सन 1999 में राज्य में आए सुपर साईक्लोन व सन 2006 के सुनामी के बावजूद कछुओं का ठीक इसी स्थान पर आना अनवरत जारी है । वैसे सन 1996,1997,200 और 2008,2015 और 2018 में बहुत कम कछुए आए थे। ऐसा क्यों हुआ? यह अभी भी रहस्य बना हुआ है। ‘‘आपरेशन कच्छप’’ चला कर इन कछुओं को बचाने के लिए जागरूकता फैलाने वाले संगठन वाईल्डलाईफ सोसायटी आफ उड़ीसा के मुताबिक यहां आने वाले कछुओं में से मात्र 57 प्रतिशत ही घरोंदे बनाते हैं, शेष कछुए वैसे ही पानी में लौट जाते हैं । इस साल गरियामाथा समुद्र तट पर नसी-1 और नसी-2 के साथ साथ बाबुबली द्वीपों की रेत पर कछुए अपने घर बना रहे हैं । बाबुबली इलाके में घरोंदे बनाने की शुरूआत अभी छह साल पहले ही हुई है, लेकिन आज यह कछुओं का सबसे प्रिय स्थल बना गया है । रषिकुल्ला और देवी नदी का तट भी ओलिव कछुओं को अंडे देने के लिए रास आ रहा है। कई ऐसे द्वीप भी हैं जहां पिछले एक दशक में जंगल या इंसान की आवक बढ़ने के बाद कछुओं ने वहां जाना ही छोड़ दिया था, इस बार मादा कछुओं ने वहां का भी रूख किया है।
इन कछुओं का आगमन और अंडे देते देखने के लिए हजरों पर्यटक व वन्य जीव प्रेमी यहां आते रहे हैं। कोरोना के कारण देश -बंदी के चलते समुद्र तट इंसानों की गतिविधियों से पूरी तरह मुक्त है। तभी बीते सात सालों में यह पहली बार कछुए दिन में भी अंडे दे रहे हैं। 21 मार्च 2020 को दिन में दो बजे से सामूहिक अंडे देने की प्िरक्रया जो षुरू हुई तो वह अभी मार्च कें अंतिम सप्ताह तक चलने की संभावना है।  कोई 45 दिन बाद इनसे बच्चे निकलेंगे और फिर ये रेत से घिसटते हुए गहरे पानी में उतर कर अपने घरों की ओर चल देंगें।
अभी तक इन कछुओं को सबसे बड़ा नुकसान मछली पकड़ने वाले ट्रालरों से होता था । वैसे तो ये कछुए समुद्र में गहराई में तैरते हैं, लेकिन चालीस मिनट के बाद इन्हें सांस लेने के लिए समुद्र की सतह पर आना पड़ता है और इसी समय ये मछली पकड़ने वाले ट्रालरों की चपेट में आ जाते थे। कोई दस साल पहले उउ़ीसा हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि  कछुए के आगमन के रास्ते में संचालित होने वाले ट्रालरों में टेड यानी टर्टल एक्सक्लूजन डिवाईस लगाई जाए । उड़ीसा में तो तो इस आदेश का थोड़ा-बहुत पालन हुआ भी, लेकिन राज्य के बाहर इसकी परवाह किसी को नहीं हैं । समुद्र में अवैध रूप से  मछलीमारी कर रहे श्रीलंका, थाईलेड के ट्रालर तो इन कछुओं के सबसे बड़े दुश्मन होते हैं और वे खुलेआम इनका शिकार भी करते हैं । सरकार का आदेश है कि समुद्र तट के 15 किलोमीटर इलाके में कोई ट्रालर मछली नहीं मार सकता, लेकिन इस कानून के क्रियान्वयन का जिम्मा लेने को कोई सरकारी एजंेसी राजी नहीं है । वीरान द्वीपों से स्वाद के लिए अंडे चुराने वालों पर स्वयंसेवी संस्थाएं काफी हद तक नियंत्रण कर चुकी हैं, लेकिन कछुओं के आवागमन के समुद्री मार्ग पर इनके अवैध शिकार को रेाकने की कोई माकूल व्यवस्था नहीं हो पाई है । ‘‘फैंगशुई’’ के बढ़ते प्रचलन ने भी कछुओं की शामत बुला दी है । इसे शुभ मान कर घर में पालने वाले लोगों की मांग बढ़ रही है और इस फिराक में भी इनके बच्चे पकड़े जा रहे हैं ।
फिलहाल तो प्रकृति के लिए यह बड़ा अवसर है कि एक दुर्लभ प्रजाति के जीव को एक  वैश्विक त्रासदी के कारण अपने नैसर्गिक परिवेश  में फलने-फूलने का अवसर मिल रहा है लेकिन यह खतरा भी सामने खड़ा है कि 15 मई के बाद जब इन अंडों से निकले लााखें कछुए समुद्र में उतरेंगे और तक तक विष्व कोरोना के संकट से उबर जाएगीख् तब इनमें से कितनों को बचाया जा सकेगा।
कछुए जल-पारिस्थितिकी के संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं, वैसे भी ओलिव रिडले कछुए प्रकृति की चमत्कारी नियामत हैं । अभी उनका रहस्य अनसुलझा है । मानवीय लापरवाही से यदि इस प्रजाति पर संकट आ गया तो प्रकृति पर किस तरह की विपदा आएगी ? इसका किसी को अंदाजा नहीं है ।

पंकज चतुर्वेदी




शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

Medical staff - Warriors without sword in battle of corona

बगैर शस्त्र  के युद्धरत कोरोना के ये सिपाही

पंकज चतुर्वेदी 
वे बगैर पर्याप्त अस्त्र-शस्त्र के मैदान में डट गए। वे जानते हैं कि उनकी संख्या शत्रु के लिए जरूरी बल की तुलना में बहुत कम है। वे उस अदृश्य षत्रु से केवल अपने भरोसे और निश्ठा के सहारे लड़ रहे हैं।  कोरोना के विरूद्ध संघर्ष  में देश के चिकित्साकर्मी जिस तरह जुटे , यह मिसाल है। देशभर के स्वास्थ्यकर्मी कोविड-19 के खि़लाफ़ चल रही लड़ाई की एक बड़ी कीमत चुका रहे हैं । दुर्भाग्य है कि ना तो उनके पास बचाव के उपकरण थे और ना ही अनुभव और इसी के चलते कोरोना पीड़ितों को ठीक करने में लगे दल के लोग बड़ी संख्या में खुद इस संक्रमण के शिकार हो गए। स्वास्थकर्मियों में सबसे बड़ा संकट उन मैदान में उतरे कार्यकर्ताओं का है जिन्हें अशिक्षित व भ्रमित लोगों के हमले भी झेलने पड़ रहे हैं। गौर करने वाली बात है कि देश पर मंडरा रहे इस स्वास्थ्य-आपातकाल का मुकाबला केवल सरकारी अस्पताल के भरोसे ही हो रहा है।
इंदौर शहर  में दो डॉक्टरों की मौत हो गई। एक आयुर्वेदिक डॉक्टर की बुलंदशहर में भी मौत हुई। हालांकि ये तीनों कहीं भी सीधे तौर पर कोरोना मरीजों की देखभाल में नहीं लगे थे, लेकिन यह भी सच है कि इन्हें रोग के वायरस का संक्रमण अपने निजी क्लीनिक में अन्य रोगों के मरीज देखते समय ही हुआ। कभी इटली के मीलान श हर की तरह कोरोना से संक्रमित हुए और बाद में स्वास्थ्यकर्मियों की मेहनत के कारण प्रसिद्धि पाए भीलवाड़ा में भी कोरोना की शुरुआत  एक निजी डाक्टर  व उनके परिवार के सदस्यों के साथ हुई थी। हालांकि  अब वे पूरी तरह ठीक हैं। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में कोरोना से संक्रमित 85 मरीज़ों में से 40 स्वास्थ्य विभाग के हैं जिनमें दो आईएएस अधिकारी - प्रमुख सचिव स्वास्थ्य, पल्लवी जैन-गोविल, और स्वास्थ्य निगम के एमडी जे. विजय कुमार भी हैं, इनके अलावा विभाग की अतिरिक्त निदेशक डॉ वीना सिन्हा भी संक्रमित हैं. भोपाल संभवतः देश में पहला शहर है जहां कोरोना से लड़ने वाले ही कोरोना के कैरियर बन गये हैं।

देश की राजधानी दिल्ली में राज्य सरकार का बड़ा स्वास्थ्य महकमा अभी तक कोरोना की चपेट में आ चुका है। यहां कोरोना संक्रमित प्रत्येक तीसवां व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ा है। दो मोहल्ला क्लीनिक के डाक्टर के पोजिटिव पाए जाने के बाद इसका प्रसार तेजी से गरीब बस्तियों में हुआ। दिल्ली राज्य कैंसर संस्थान को बंद कर दिया गया । दिल्ली के अलग-अलग अस्पतालों में काम कर रहे 23 स्वास्थ्यकर्मी अभी तक कोरोना के संक्रमण का शिकार हो चुके हैं। इनके संपर्क में आने वाले 200 से ज्यादा स्वास्थ्यकर्मी एहतियात के तौर पर आइसोलेशन में रखे गए हैं। इसमें सबसे बड़ी अड़चन यह है कि बेहतरीन गुणवत्ता वाले सुरक्षा उपकरण उपलब्ध नहीं हैं। दो अप्रैल को दिल्ली में एम्स के एक डॉक्टर कोरोना वायरस के टेस्ट में पॉज़िटिव पाए गए ।इसके बाद यह ख़बर आई कि उनकी नौ महीने की गर्भवती पत्नी भी इस वायरस की चपेट में हैं. उनकी पत्नी एम्स के ही इमर्जेंसी वार्ड में पोस्टेड हैं। इसके लिए एम्स आरडीए ने प्रधानमंत्री से मदद मांगी है। कोरोना की चपेट में आए इन 23 स्वास्थ्यकर्मियों में 11 डॉक्टर, 11 नर्स और पैरामेडिकल स्टाफ के अन्य कर्मचारी हैं। वहीं, दो सफाई कर्मचारी भी शामिल हैं। दिल्ली में दो अस्पतालों में सबसे अधिक स्वास्थ्यकर्मी संक्रमण की चपेट में आए हैं। इनमें दिल्ली राज्य कैंसर संस्थान और महाराजा अग्रसेन अस्पताल हैं। अग्रसेन अस्पताल में एक डॉक्टर और चार दूसरे कर्मचारी कोरोना के शिकार हुए हैं। सफदरजंग में भी दो डॉक्टर और एक डॉक्टर एम्स में भी संक्रमण का शिकार हो गए हैं। सफदरजंग में 21 कर्मचारी आइसोलेशन में हैं, वहीं एम्स में तीन प्रोफेसर समेत 11 लोग आइसोलेशन में हैं। कैंसर इंस्टिट्यूट में जांच के दौरान अभी तक तीन डॉक्टर और 18 नर्स सहित 24 लोग कोरोना वायरस से संक्रमित हो चुके हैं। पॉजिटिव पाए गए लोगों में अस्पताल में भर्ती कैंसर रोगी भी शामिल है।
स्वास्थ्यकर्मी केवल मरीज और वायरस से ही नहीं लड़ रहे, उन्हें अपने परिवार से लगातार दूर रहने का तनाव, समाज में उनके साथ अभद्र व्यवहार का दर्द भी सालता रहता है।  कई जगह स्वास्थ्यकर्मियों से घर खाली करवाने या उन्हें परिवहन ना मिलने पर लंबी दूरी पैदल तय करने और कई जगह पुलिस से पिटाई भी झेलनी पड़ रही है। यहां जानना जरूरी है कि भारत पहले से ही चिकित्सकों की कमी से जूझ रहा है। सरकारी अस्पतालों में एलोपेथी के उपलब्ध डॉक्टरों की संख्या प्रति 10926 व्यक्तियों पर महज एक है। इस तरह अंतरराश्ट्रीय मानक के मुताबिक हमारे यहां कोई पांच लाख डॉक्टरों की कमी है। नर्स व अन्य स्वास्थ्यकर्मी प्रति एक हजार पर मात्र 21 है। स्वास्थ्य विभाग का आंचलिक हिस्सा पूरी तरह अर्धकुशल, बेहद कम मानदेय पर काम करने वाले लोगों के बदौलत हैं। बस्तर के अबुझमाड़ इलाके में सुरक्षाकर्मी भी जाने से पहले सोचते है।। यहां किसी सरकारी मशीनरी का दखल है ही नहीं। ऐसे में महज पंद्रह सौ रूपए वेतन, वह भी अनियमित पाने वाली ‘मितानिनों’ के बदौलत सुदूर अंचलों तक कोरोना जागरूकता अभियान चल रहा है। ये महिलाएं कई-कई किलोमीटर पैदल चलती हैं। गांवों में पहुंच कर दीवारों पर स्थानीय बोली में कोरोना जागरूकता के नारे लिखती हैं, फिर लोगों को एकत्र करन उन्हें इस बीमारी से बचने के लक्षण आदि की जानकारी देती हैं। यहां से एकत्र सूचना को उपर तक पहुंचाना, जचकी जैसे काम भी उन्हें करने होते हैं। इन महिलाओं को सेनेटाईजर  की बात छोड़ दें, ग्लब्स या मास्क जैसी सुविधा भी नहीं मिली है। देशभर में घर-घर सर्वे, बुखार मापने जैसे काम कर रहीं कोई नौ लाख आशा कार्यकर्ताओं के हालात भी मितानिन जैसे ही हैं। इन्हें तो षहरी इलाकों में आए दिन गाली, मारापीटी को भी ढेलना पड़ रहा हैं। कई जगह ये नर्स का भी काम कर रही हैं, लेकिन इन्हें मजबूरी में अपने घर ही जाना पड़ता है, इन्हें दिल्ली-भोपल की तरह होटल में ठहरने या खाने की सुविधा नहीं मिलती।
इस जटिल अवसर पर सफाईकर्मी भी बेहद चुनौती का सामना कर रहे हैं। वे कोरोना संक्रमित लोगों के सीधे संपर्क में आते हैं। वे ऐसे मृत लोगों के पोस्टमार्टम, इनके इलाज में प्रयुक्त गल्ब्स, कपड़ों आदि को नश्ट करने का काम करते हैं। इसके अलावा गली-मुहल्लों को साफ रखनते समय भी उनकी जान खतरा मंडराता रहता है। षायद याद हो कि मार्च-20 के आखिरी सप्ताह में उ.प्र के कोैशंाबी जिले सूबे के फतेहपुर जिला के हथगाम ब्लॉक के आलीमऊ गांव का रहने वाले संदीप वाल्मीकि कौशाम्बी के सिराथू नगर पंचायत में ठेकेदारी में सफाई मजदूर के रूप में काम करते थे। कीटनाशक दवा के घोल का छिड़काव करते समय वह बेहोश हो गए । जब तक अस्पताल ले कर गए उनकी मौत हो गई।
आने वाले दिन हमारे लिए बेहज जटिल हैं क्योंकि अब देश में कोरोना संक्रमण की जाच के काम ने तेजी पकड़ी हैं। संक्रमित व्यक्ति के पोजीटिव मिलने के बाद उसके संपर्क में आए अन्या लोगों को खोजना और उन्हें अस्पताल तक लाना जैसे काम में लगे स्वास्थ्यकर्मी, वाहनों के चालक से ले कर अस्पताल के डॉक्टर तक की सुरक्षा हमारी प्राथमिकता होना चाहिए। सुरक्षित कपड़े, मास्क और ग्लव्स पहनने के बावजूद डॉक्टर, नर्स और अन्य स्वास्थ्यकर्मी बाकी लोगों के मुकाबले संक्रमण के ज्यादा शिकार हो रहे हैं। असल में इन सेवाकर्मियों को बेहतर क्वालिटी में पीपीई सूट,  ग्लब्स और मास्क को त्वरित बदलने की सुविधा, अच्छी गुणवत्ता के सेनीटाईजर की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्वित करना जरूरी है। यही देश के सामाजिक-आथर््िाक भविश्य की दिशा तय करेंर्गे।



शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

Quarantine : terror can be turn in pleasure

एकांतवास का इतना खौफ क्यों ?

पंकज चतुर्वेदी 
जन्संदेश टाईम्स 
दो अप्रैल के सुबह उ.प्र.के शामली के निर्माधाधीन अस्पताल में क्वारेंटाईन या एकांतवास के लिए लाए गए एक युवक ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली। कांधला के करीब एक गावं के इस युवक को सांस लेने में दिक्कत हो रही थी और 31 मार्च को उसे अस्पताल लाया गया था। उसके सैंपल लिए गए थे। जब तक रिपोर्ट आती , उससे पहले ही उसने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली।  अभी तक तो कोरोना का इतना हल्ला भी नहीं था- उन्नीस मार्च की शाम से सिडनी(आस्ट्रेलिया) से लौटे पंजाब सियाना के निवासी 35 वर्षीय तनवीर सिंह को दिल्ली हवाई अड्डे पर सिरदर्द महसूस हुआ और उनके सामने एक तमाशा सा हो गया। एक मिनट में ही उनसे लोग दूर छिटकने लगे व शक से देखने लगे। सफदरजंग अस्पताल में जब उन्हें लाया गया और सैंपल लिए गए, उसके बाद उनको एकांत में रखा गया। चारों तरफ के तनावपूर्ण परिवेश को तनवीर सिंह सहन नहीं कर पाए और अस्पतल के सातवें तल्ले से कूद कर आत्महत्या कर ली। हालांकि अब पता चला कि उसे कोरोना के कोई लक्षण नहीं थे।  गायिका कनिका कपूर का मामला तो सभी जानते ही हैं  जो केवल एकांतवास के डर से अपनी विदेश से आने का अतीत छुपाती रहीं । जब उनका टेस्ट पोजीटिव आया तो सरकारी अस्पताल में वे डाक्टर व स्टाफ से लड़ती रहीं। इंदौर, बिहार के मधुबनी, उ.प्र के कई स्थानों से ऐसी खबरें लगातार आ रही हैं जब पुलिस या प्रशासन बाहर से आए लोगों को एकांतवास के लिए ले जाने को गया तो वहां बड़े स्तर पर हिंसा हुई व सरकारी कर्मचारियों व पुलिस की जान पर बन आई।
जनवाणी 
पूरी दुनिया में लगभग एक लाख लोगों को अपना शिकार बना चुके और अभी तक लाइलाज नावेल कोरोना वायरस संक्रमण का अभी तक खोजा गया बसे माकूल  उपाय सामाजिक दूरी बनाए रखनाा और संदिग्ध मरीज को समाज से दूर रख देना ही है। बीते दो सपह में मीडिया के माध्यम से, देश-बंदी व बेरोजगारी की चोट से लाखों  लोगों के दुर्गम रास्तों पर पलायन से उभरे दर्द से आमो-खास को यह तो जानकारी हो ही गई है कि कोरोना वायरस की चपेट में आने का अर्थ क्या होता है। समाज में मामूली खांसी या बुखार वाला भी कोरोना से संक्रमित हो सकता है और इस बीमारी के लक्ष्ण उभरने या खुद ब खुद ठीक हो जाने में कोई 14 दिन का समय लगता है। यह समय इंसान व उसके परिवार, उसके संपर्क में आए लोगों के जीवन -मरण का प्रश्न होता है। तभी  संभावित मरीज को समाजसे दूर रखना ही सबसे माकूल इलाज माना गया। जिस बीमारी के कारण पूरी दुनिया थम गई हो उसकी भयावहता से बचने के लिए कुछ दिन अलग रहने से समाज एक वर्ग का बचना या लापरवाही करना  व्यापक स्तर पर नुकसानदेह हो सकता है।

समाज के व्यापक जीवन के लिए कुछ दिन अलग रहने को आखिर इतना बड़ा अपराध क्यों मान लिया जा रहा है कि लोग कहीं खुदकुशी कर रहे हैं तो कही उपद्रव।  इसके लिए कुछ अन्य घटनाओं पर गौर करना होगा। दिल्ली के दिलशाद गार्डन में एक परिवार में दो संदिग्ध को लेने एंबुलेस आई तो वहां घंटों ऐसी भीड़ जमा हुई कि किसी आतंकी को पकड़ा गया हो। राजधानी में ही कुछ डाक्टरों व अंतरराश्ट्रीय फ्लाईट के पायलेटों से किराए के मकान खाली करवाने की शिकायतें भी आ रही हैं। कुछ ऐसे लोग जो विदेश से लौटे, उनके दरवाजे पुलिस ने पोस्टर चिपका दिए और कुछ ही देर में सोशल मीडिया पर सारे परिवार के फोटो साझा हो गए कि इन्हें कोरोंना ने अपनी चपेट में ले लिया है। लखनऊ में एक लड़की को खांसी क्या हुई, उसका मकान मालिक उसे बाहर से बंद कर भाग गया। बामुश्किल चार दिन बाद उसे मुक्त करवाया गया। झारखंड में कोरोना के कुप्रचार के कारण एक दुकानदार की हत्या हो गई।
दिल्ली में तब्लीगी जमात  के मरकज से निकाले गए लोग या उनके देशभर में फैले हाने पर उन्हें तलाशने के प्रशासनिक प्रक्रिया को गौर करें तो लगेगा कि जैसे किसी आतंकी की धरपकड़ का अभियान चल रहा हो। रही-बची कसर मीडिया का एक हिस्स दहशत  व गलत तरीके से जानकारियों को  फैला कर पूरी कर रहा है। एक बड़ी अफवाह भी समाज के कम जागरूक लोगों में  घर कर गई है कि जिस मरीज को पुलिस पकड़ कर ले जाती है उसे जहर का इंजेक्शन दे दिया जाता है। इंदौर के टाटपटट्टी बाखल में प्रशासन की टीम पर हुए हमले के पीछे ऐसी ही अफवाह की करतूत है।
आम लोग अपने भले की बात या अपने मित्र या दुश्मन में फर्क क्यों नहीं कर पा हैं, इसके लिए हाल की कुछ  घटनाओं को गंभीरता से गौर करना होगा। एक तो कोरोना संक्रमित या संभाविक व्यक्ति के साथ समाज और प्रशासन का व्यवहार लगभग किसी अपराधी की तरह होता है। ना तो ऐसे लोगों को एकांतवास में भेजने से पहले मनौवैज्ञानिक काउंसलिंग होती है और  ना ही उन्हें आश्वस्त किया जाता है कि जरूरी नहीं कि वे बीमार ही हों। जयपुर, बिहार, दिल्ली लगभग सभी जगह ‘क्वारंटाईन सेटर’ के हालात एक भयावह जेल की तरह हैं। षौचालय गंदे, बीमारों की तरह बिस्तर, खाने-पीने के प्रति लापरवाही और उस पर भी जांच रिपोर्ट के नतीजे का लंबा इंतजार। तिस पर सारे दिन अछूत, उपेक्षित जैसा व्यवहार भी। षामली में जिस भवन में एकासंतवास बनाया गय थ, वह एक अधूरी बिल्डिंग थी और वहां  रखे गए इंसान को एकांत में भयभीत और आशंका से ग्रस्त होना कोई बड़ी बात नहीं।
अपने ही घरों में एकांतवास को रखे गए लोगों के दरवाजों पर चिपकाए गए पोस्टर उन्हें समाज की निगाह में अपराधी बना कर प्रस्तुत कर रहे हैं। उन्हें बेवजह लताड़, उपेक्षा और भय का सामना करना पड़ रहा है। इधर विडंबना है कि हमारा समाज किसी भी तरह संक्रमित व्यक्ति को ना केवल सामाजिक तरीके से दूर कर रहा है, वरन भावनात्मक रूप से इतना दूर कर रहा है कि मरीज में एक अपराधबोध या ग्लानि की प्रवृति विकसित हो रही है। परिणाम सामने हैं कि एक युवा आत्महत्या कर लेता है या किसी आशंका के खौफ से समाज प्रशासन पर हमलावर हो जाता है।
  यदि समाज और प्रशासन चाहे तो इस एकांतवास को थोड़ा मनोरंजक, थोडा  रचनात्मक और बहुत कुछ आनंदपूर्ण  बना सकता है। एक तो जिसमें बीमारी के लक्षण ना हों उन्हें बिस्तर रात में ही दिया जाए। दिन में उनके लिए सीमित परिवेश में खुले में टहलने , पढ़ने, मनोरंजक कार्यक्रम देखने(जहां तक संभव हो टीवी समाचार से दूर रखा जाए), लोकरंग की गतिविधियों, अपनों से नियमित बातचीत, कुछ लिखने- गाने के लिए प्रेरित करने जैसे उपाय किए जाएं। एकांत में भेजने से पहले उन्हें उनकी समझ में आने वालीी भाशा में कुछ वीडियो दिखाए जा सकते हैं या फिर जहां संभव हो मनोवैज्ञानिक से विमर्श करवाया जा सकता है। यदि जरूरी ना हो तो खाकी वर्दी, पुलिस का डंडा, घर पर छापा, हंगामा आदि से बचा जाए और इस कार्य में स्थानीय समाज के लोगों को मध्यस्थ बनाया जाए। जान लें, कोरोना संक्रमण और उसके कुप्रभावों को देश व दुनिया को लंबे समय तक झेलना है। ऐसे में समाज को उसकी इच्छा-शक्ति के साथ ही इससे उबारा जा सकता है।

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

Afraid human and smiling nature

कोरोना: जब इंसान डर रहा है तो प्रकृति मुस्कुरा रही है

पंकज चतुर्वेदी

यमुनोत्री से इलाहबाद तक के अपने सफर में यमुना नदी का प्रवाह दिल्ली में महज दो फीसदी है ,लेकिन यहां का जहर इसके कुल प्रदुषण  का 76 फीसदी  इजाफा करता है। सन 1994 से अभी तक दो हजार करोड़ खर्च कर भी जब नदी के हालता में लेशमात्र बदलाव नहीं आया तो शायद प्रकृति ने ही इसे दुरूस्त करने का जिम्मा ले लिया। एक अदृश्य से जीव के खौफ से राजधानी थमी तो 12वें दिन ही दिल्ली में यमुना करीब 60 प्रतिशत तक साफ हो गई । पल्ला से वजीराबाद बैराज के पहले तक और सिग्नेचर ब्रिज से ओखला बैराज तक तो पानी शीशे जितना साफ हो गया है। वजीराबाद नवगजा पीर के सामने नजफगढ़ और बुराड़ी बाईपास से आ रही गंदे नाले के पानी वाली जगह छोड़ दें तो पल्ला से लेकर ओखला बैराज तक कहीं पानी गंदा नहीं है।
 कोरोना जीवणु के असर को निष्प्रभावी  करने के लिए कल-कारखाने क्या बंद हुए, दो सप्ताह में ही पूरे देश  की नदियां जल-संपन्न हो गईं। हमारी नदियों में पानी की मात्रा पिछले 10 सालों में सबसे अधिक हो गई है। देष-बंदी के बाद दो अप्रैल तक के आंकड़ै बानगी हैं कि गंगा नदी में 15.8 बीसीएम पानी उपलब्ध है, जो कि नदी की कुल क्षमता का 52.6 फीसदी है। पिछले साल इसी समय गंगा नदी में मात्र 8.6 बीसीएम पानी था। इसी तरह से नर्मदा में क्षमता का 46.5 प्रतिषत  अर्थात 10.4बीसीएम पानी उपलब्ध है। पिछले साल इसी समय 31 फीसदी पानी था और 10 साल में यहां औसतन 26.4 प्रतिशत पानी उपलब्ध था। तापी नदी में  पिछले साल इस समय मात्र 16 फीसदी जल था ,लेकिन इस साल 66 प्रतिषत है।  इसी तरह माही, गोदावरी, साबरमति ,कृश्णा , कावेरी हर नदी की सेहत सुधर गई है।

 हर त्रासदी अपने साथ कोई सबक दे कर आती है। इसमें कोई श क नहीं कि कोरोना वायरस से फेली वैश्विक  महामारी पूरी दुनिया के लिए खतरा बनी हुई है। अभी ना तो इसका कोई माकूल इलाज खेाजा जा चुका है और ना ही इस वायरस के मानव शरीर में प्रविष्ट  होने का मूल कारण । इंसान अपने-अपने घरों में बंद है। ‘विकास’ नामक आधुनिक अवधारा और असुरक्षा के नाम पर हथियारों की होड़ नैपथ्य में हैं। कभी युद्ध में अपने विरोधियों का खून बहाने के लिए इस्तेमाल होने वाले हथियारों को बनाने वाले कारखाने इंसान का जीवन बचाने के उपकरण बना रहे हैं।  इंसान बदवहास है और अपने भविष्य  के प्रति चिंतित है। वहीं प्रकृति जोकि अभी तक अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष  कर रही थी, अब लंबी सुकुन की सांस ले रही है। देश के 85 से अधिक शहरों में एयर क्वालिटी इंडेक्स बीते एक हफ्ते से लगातार 100 से नीचे चल रहा है। यानी इन शहरों में हवा अच्छी श्रेणी की है। लॉकडाउन के दौरान प्रदूषण के कारक धूल कण पीएम 2.5 और पीएम 10 की मात्रा में 35 से 40ः गिरावट आई है। कॉर्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन, सल्फर ऑक्साइड व ओजोन के स्तर में भी कमी दर्ज की गई। अहम बात यह है कि प्रदूषण रहित यह स्तर बारिश में भी नहीं रहता है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. डी साहा ने कहा कि 2014 में जब से एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) बनाया जा रहा है, ऐसा पहली बार है जब प्रदूषण न्यूनतम स्तर पर है। सर्दी में ऑड-ईवन लागू करने से दिल्ली की हवा में 2 से 3 प्रतिषत का सुधार आ पाता है। उसकी तुलना में एनसीआर में 15 गुना से अधिक सुधार आ चुका है।

पंजाब के लुधियाना से हिमचाल प्रदेष की हिमच्छादित -उत्तुग पर्वतमाला की दूरी भले ही 200 किलोमीटर से ज्यादा हो, लेकिन आज दमकते नीले आसमान  की छतरी तले इन्हे आराम से देखा जा सकता है। जो प्रवासी पंछी अपने घर जाने को तैयार थे, वे अब कस्बे-गांवों की पोखरों पर कुछ और दिन रूक गए हैं। हिंडन जैसी नदी जहां गत दस सालों में आक्सीजन की मात्रा षून्य थी, अब कुछ मुस्कुरा रही है। जिन नदियों में जल-जीव देखे नहीं जा रहे थे, उनके तटों पर मछली-कछुए खेल रहे हैं। सबसे सुकुन में समुद्र है। अब उसकी छाती को चीर कर पूरे जल-गर्भ को तहस-नहर करने वाले जहाज थमें हुए हैं। अधिक मछलियों के लालच में मषीनी ट्राला चल हीं रहे तो  मछलियों का आकार भी बढ़ रहा है और संख्या भी। जहाजों का तेल न गिरने से अन्य जल-जीवों को सुकुन तो मिल ही रहा है।
25 मार्च को 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा के बाद एकबारगी लगता हो कि देश की अर्थव्यवस्था का पहिया थमा है परंतु बारिकी से देखें तो इससे मानवीय सभ्यता को नई सीख भी मिली है। यातायात के साधन व कारखाने बंद होने से वायू प्रदूशण के कारण हर दिन औसतन 500 मरने वाले हों या इतने ही लोगों की सड़क दुर्घटना में मृत्यु, यह आंकड़ा थम गया हे इसके इलाज में होने वाले हर दिन के करोड़ांे के मेडिकल बिल पर विराम लगा और वाहन ना चलने से विदेश  से कच्चा तेल खरीदने पर व्यय विदेशी मुद्रा के भंडार को भी राहत।
 यह सभी जानते हैं कि बीते दो दशकों में विश्व  की सबसे बड़ी चिंता धरती का बढ़ता तापमान यानी ग्लोबल वार्मिग, जलवायु परिवर्तन है। कार्बन की बढ़ती मात्रा दुनिया में भूख, बाढ़, सूखे जैसी विपदाओं का न्यौता है। धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़ , प्रकाश संश्लेषण  के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानि पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते है। धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़ , प्रकाष संष्लेशण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानि पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते है। आज विष्व में अमेरिका सबसे ज्यादा 5414 मिलियन मीट्रिक टन कार्बन डाय आक्साईड उत्सर्जित करता है जो कि वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है।  उसके बाद कनाड़ा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन हैं । जापान, जर्मनी, द.कोरिया आदि औद्योगिक देषो में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से ज्यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज 2274 मिलियन मीट्रिक या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बन डाय आक्साईड ही उत्सर्जित करता है। अनुमान है कि यह 2030 तक तीन गुणा यानि अधिकतम पांच तक जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देशों  की भौगोलिक सीमाएं देख कर तो हमला करती नहीं हैं। चूंकि भारत नदियों का देश  है,  वह भी अधिकांष ऐसी नदियां जो पहाड़ों पर बरफ पिघलने से बनती हैं, सो हमें हरसंभव प्रयास करने ही चाहिए। प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढने का प्रमुख कारण है बिजली की बढती खपता। सनद रहे हम द्वारा प्रयोग में लाई गई बिजली ज्यादातर जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल जैसी प्राकृतिक चीजों) से बनती है। इंधनों के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है। हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, बिजली के उत्पादन के लिए उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होगा।
फिर धरती पर बढती आबादी और उसके द्वारा पेट भरने के लिए उपभेाग किया गया अन्न भी कार्बन बढौतरी का बड़ा कारण है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य पदार्थ खाते हैं, या फिर हम ऐसे पदार्थ खाते हैं जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर नहीं हुआ हो।
यह तो सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टी.एच. चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपेर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ौतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। लेकिन नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं।
जब पूरी दुनिया में कल-कारखाने, वाहन बंद हो गए तो अचानक ही कार्बन उत्सर्जन की मात्रा 5 फीसदी  घट गया। इसके कारण देश और दुनिया की हवा भी स्वच्छ हो गई है। धरती का शोर और कंपन कम हो । दूसरे विष्वयुद्ध के बाद से पहली बार कार्बन उत्सर्जन का स्तर इतना गिरा है।
भले ही एक लाइलाज बीमारी के कारण प्रकृति का इतना स्वच्छ स्वरूप उभरा हो लेकिन यह मानवीय दखल के कारण तेजी से दूषित हो रही प्रकृति ने चेतावनी दे दी कि उसके साथ ज्यादा खिलवाड़ हुआ तो उसका इलाज भी कायनात को आता है । यह किसी से छुपा नहीं कि दुनिया यायातात प्रबंधन, जाम व् औद्योगिक प्रदुषण, जल की गुणवत्ता आदि दिक्कतों से जूझ रही है और इसके मशीनी निदान पर हर साल अरबों डॉलर खर्च होते हैं । कोरोना ने बता दिया कि वह अरबों डॉलर खर्च मत करो बस हर साल में दो बार एक एक हफ्ते का लॉक डाउन कड़ाई से लागू कर दो , प्रकृति नैसर्गिक बनी रहेगी । इन दिनों अपराध कम हो रहे हैं, सडक दुर्घटना कम हो रही हैं ,दूषित खाना खाने से बीमार होने वालों की संख्या कम हो रही है ------
क्या आफिस का बड़ा काम घर से हो सकता है ? क्या स्कूल में बच्चों का हर रोज जाना जरुरी नहीं ? क्या समाज के बेवजह विचरने की आदत पर नियंत्रण हो सकता है ? ऐसे भी कई सवाल और प्रकृति - शुद्धिकरण के विकल्प ये दिन सुझा रहे हैं। यह सही है कि धरती पर कोई  ज्ञी तूफान ना तो स्थाई होता है और ना अंतिम लेकिन इस बार की त्रासदी ने जता दिया कि धरती की प्राथामिकता हथियार नहीं, वेंटिलेटर हैं, सेना से जरूरी डॉक्टर हैं। आम इंसान को भी घरों में बंद रहने के दौरान समझ आ गया कि हमारे पास जितना है, उतने की जरूरत नहीं, जरूरत है तो मानवीय संबांधों के प्रति संवेदनात्मक होने की।




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फिलीपींस के समुद्र तट इन दिनों गुलाबी रंग की जेली फिष से पटे पड़े हैं। विहंगम नजारा है।  असल में ये तट सामान्य दिनों में पर्यटकों से भरे रहते हैं। ऐसे में समुद्र के जलीय जीव तटों के किनारे अपना डेरा जमा रहे हैं। पालावन तट के पास विशेषज्ञों ने हजारों की संख्या में गुलाबी जेलीफिश को देखा। इन जेलीफिश को सी टोमैटो कहा जाता है। ये जेलीफिश धीरे-धीरे सतह के ऊपर आ रही हैं क्योंकि उन्हें लोगों की गैर मौजूदगी में डर नहीं लग रहा।  वैसे ये जेलीफिष लोगों की भीड़ से घबरा जाती हैं पर्यटकों के तटों पर होने के कारण ये जेलीफिश समुद्र के तल में चली जाती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार कई दिनों से कोई हलचल नहीं होने के कारण ये जेलीफिश सतह पर आ गई
कोरोना वरदान बन गया कछुओं का
पंकज चतुर्वेदी

हर साल नवंबर-दिसंबर से ले कर अप्रेल-मई तक उड़ीसा के समुद्र तट एक ऐसी घटना के साक्षी होते है, जिसके रहस्य को सुलझाने के लिए दुनियाभर के पर्यावरणविद् और पशु प्रेमी बैचेन हैं । हजारों किलोमीटर की समुद्री यात्रा कर ओलिव रिडले नस्ल के लाखों कछुए यहां अंडे देने आते हैं । इन अंडों से निकले कछुए के बच्चे समुद्री मार्ग से फिर हजारों किलोमीटर दूर जाते हैं । यही नहीं ये शिशु कछुए लगभग 30 साल बाद जब प्रजनन के योग्य होते हैं तो ठीक उसी जगह पर अंडे देने आते हैं, जहां उनका जन्म हुआ था । ये कछुए विश्व की दुर्लभ प्रजाति ओलिव रिडले के हैं ।  अक्तूबर-2018 में तितली चक्रवात तूफान के कारण इन कछुओं के पुष्तैनी पसंदीदा समुद्र तटों पर कई-कई किलोमीटर तक कचरा बिखर गया था, सो बीते साल इनकी बहुत कम संख्या आ पाई थी। इस बार कोरोनो के प्रकोप के चलते एक तो पर्यटन बंद है, दूसरा मछली पकड़ने वाले ट्राले, जाल व अन्य नावंे चल नहीं रही हैं, सो गरियामाथा, उड़ीसा के संरक्षित समुद्री तट पर हुकीटोला से इकाकूल के बीच हर तरफ कछुए, उनके घरोंदे और अंडे ही दिख रहे हैं। हालांकि हर बार इस पूरे इलाके के 20 किलोमीटर क्षेत्र में मछली पकड़ने पर पूरी तरह पाबंदी होती है , लेकिन उससे आगे समुंद की गहराईयों में ये कछुए अपने गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही मारे जाते हैं।
यह आश्चर्य ही है कि ओलिव रिडले कछुए दक्षिणी अटलंांटिका, प्रषांत और भारतीय महासागरों के  समुद्र तटों से हजारों किलोमीटर की समुद्र यात्रा के दौरान भारत में ही गोवा, तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश के समुद्री तटों से गुजरते हैं , लेकिन अपनी वंश-वृद्धि के लिए वे  अपने घोसलें बनाने के लिए उड़ीसा के समुद्र तटों की रेत को ही चुनते हैं । ये समु्रद में मिलने वाले कछुओं की सबसे छोटे आकार की प्रजाति है जो दो फुट लंबाई और अधिकतम पचास किलो वजन के होते हैं। आई यू सी एन(इंटरनेषनल यूनियन फार कन्जरवेषन आफ नेचर ) ने इस प्रजाति को ‘रेड लिस्ट’ अर्थात दुर्लभ श्रेणी में रखा है। सनद रहे कि दुनियाभर में ओलिव रिडले कछुए के घरोंदे महज छह स्थानों पर ही पाए जाते हैं और इनमें से तीन स्थान भारत के उड़ीसा में हैं । ये कोस्टारिका में दो व मेक्सिको में एक स्थान पर प्रजनन करते हैं । उड़ीसा के केंद्रपाड़ा जिले का गरियामाथा समुद्री तट दुनिया का सबसे बड़ा प्रजनन-आशियाना है । इसके अलावा रूसिक्लया और देवी नदी के समुद्र में मिलनस्थल इन कछुओं के दो अन्य प्रिय स्थल हैं ।
एक मादा ओलिव रिडले की क्षमता एक बार में लगभग डेड़ सौ अंडे देने की होती है । ये कछुए हजारों किलोमीटर की यात्रा के बाद ‘‘चमत्कारी’’ समुद्री तटों  की रेत खोद कर अंडे रखने की जगह बनाते हैं । इस प्रक्रिया को ‘मास नेस्टिंग’ या ‘ अरीबादा’ कहते हैं। ये अंडे 60 दिनों में टूटते हैं व उनसे छोट-छोटे कछुए निकलते हैं । ये नन्हे जानवर रेत पर घिसटते हुए समुद्र में उतर जाते हैं, एक लंबी यात्रा के लिए; इस विश्वास के साथ कि वे वंश-वृद्धि के लिए ठीक इसी स्थान पर आएंगे- 30 साल बाद । लेकिन समाज की लापरवाही इनकी बड़ी संख्या को असामयिक काल के गाल में ढकेल देती हैं ।
इस साल उड़ीसा के तट पर कछुए के घरोंदों की संख्या शायद अभी तक की सबसे बड़ी संख्या है । अनुमान है कि लगभग सात लाख नब्बे हजार घरोंदे बन चुके हैं । एक घरोंदे में औसतन 100 अंडे हैं और यह भी जान  लें कि यहां आने वाले कोई तीस फीसदी कछुए अंडे देते नहीं। फिर भी अनुमान है कि इस बार अंडों की संख्या एक करोड़ के पार है। यह भी आश्चर्य की बात है कि सन 1999 में राज्य में आए सुपर साईक्लोन व सन 2006 के सुनामी के बावजूद कछुओं का ठीक इसी स्थान पर आना अनवरत जारी है । वैसे सन 1996,1997,200 और 2008,2015 और 2018 में बहुत कम कछुए आए थे। ऐसा क्यों हुआ? यह अभी भी रहस्य बना हुआ है। ‘‘आपरेशन कच्छप’’ चला कर इन कछुओं को बचाने के लिए जागरूकता फैलाने वाले संगठन वाईल्डलाईफ सोसायटी आफ उड़ीसा के मुताबिक यहां आने वाले कछुओं में से मात्र 57 प्रतिशत ही घरोंदे बनाते हैं, शेष कछुए वैसे ही पानी में लौट जाते हैं । इस साल गरियामाथा समुद्र तट पर नसी-1 और नसी-2 के साथ साथ बाबुबली द्वीपों की रेत पर कछुए अपने घर बना रहे हैं । बाबुबली इलाके में घरोंदे बनाने की शुरूआत अभी छह साल पहले ही हुई है, लेकिन आज यह कछुओं का सबसे प्रिय स्थल बना गया है । रषिकुल्ला और देवी नदी का तट भी ओलिव कछुओं को अंडे देने के लिए रास आ रहा है। कई ऐसे द्वीप भी हैं जहां पिछले एक दशक में जंगल या इंसान की आवक बढ़ने के बाद कछुओं ने वहां जाना ही छोड़ दिया था, इस बार मादा कछुओं ने वहां का भी रूख किया है।
इन कछुओं का आगमन और अंडे देते देखने के लिए हजरों पर्यटक व वन्य जीव प्रेमी यहां आते रहे हैं। कोरोना के कारण देष-बंदी के चलते समुद्र तट इंसानों की गतिविधियों से पूरी तरह मुक्त है। तभी बीते सात सालों में यह पहली बार कछुए दिन में भी अंडे दे रहे हैं। 21 मार्च 2020 को दिन में दो बजे से सामूहिक अंडे देने की प्िरक्रया जो षुरू हुई तो वह अभी मार्च कें अंतिम सप्ताह तक चलने की संभावना है।  कोई 45 दिन बाद इनसे बच्चे निकलेंगे और फिर ये रेत से घिसटते हुए गहरे पानी में उतर कर अपने घरों की ओर चल देंगें।
अभी तक इन कछुओं को सबसे बड़ा नुकसान मछली पकड़ने वाले ट्रालरों से होता था । वैसे तो ये कछुए समुद्र में गहराई में तैरते हैं, लेकिन चालीस मिनट के बाद इन्हें सांस लेने के लिए समुद्र की सतह पर आना पड़ता है और इसी समय ये मछली पकड़ने वाले ट्रालरों की चपेट में आ जाते थे। कोई दस साल पहले उउ़ीसा हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि  कछुए के आगमन के रास्ते में संचालित होने वाले ट्रालरों में टेड यानी टर्टल एक्सक्लूजन डिवाईस लगाई जाए । उड़ीसा में तो तो इस आदेश का थोड़ा-बहुत पालन हुआ भी, लेकिन राज्य के बाहर इसकी परवाह किसी को नहीं हैं । समुद्र में अवैध रूप से  मछलीमारी कर रहे श्रीलंका, थाईलेड के ट्रालर तो इन कछुओं के सबसे बड़े दुश्मन होते हैं और वे खुलेआम इनका शिकार भी करते हैं ।
पंकज चतुर्वेदी






मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

children story Belgam Ghoda voice Dr Shbhrta Mishra

बेलगाम घोड़ा
पंकज चतुर्वेदी

अंधेरे, सुनसान कमरे में अचानक ही खलबली सी मच गई....... कबाड़ा होने से दुखी, अपने अंत का इंतजार कर रहे उन धूलभरे डिब्बों में अपने बचपन के दिनों का जेाष जैसे दौड़ गया। कहां तो दिन नहीं कटता था और अब ?...........दिन कम पड़ रहा है। जीवन इतना बदल जाएग ? यह उस दो सौ छियासी ने सोचा भी नहीं था। चार सौ छियासी  की रग-रग में जोष भर गया था। और कई साथी भी थे उनके- सेलरान, सायरेक्स, पेंटियम -एक, दो , तीन--- कुछ सेवफल वाले भी थे।  उफ्फ-- इस हड़बड़ी में तो हम ही भूल गए-- चलो पहले आपको इस कहानी के इन अजूबे नामों से तो मिलवा दें! यह है इस कंपनी के तहखाने में बना बड़ा सा कबाड़ा-घर। जो कुछ काम का नहीं होता, उसे यहीं फैंक दिया जाता है। यहां कुछ सदस्य तो कई सालों से हैं, लगता है कि उनको कंपनी वाले भूल ही गए हैं...... पुराने बड़े से कंप्यूटर.... सबसे बूढ़े दो सौ छियासी , फिर चार सौ छियासी......।
कंपनी का काम बढ़ता गया, जमाने में नई-नई तकनीकें आ गई, सो रफ्तार के लिए आए रोज नई मषीनें आ जातीं। ऐसे में पुराने कंप्यूटरों को इसी अंधेरे गुमनाम कमरे में जमा कर दिया जाता।  फिर कर्मचारी नए चमकते कंप्यूटरों पर काम करने लगते और पुरानों की किसी को परवाह ही नहीं रहती।  दो साल पहले जब एक सेलेरान यहां आया था, तब उसने बताया था कि किसी दिन सभी पुराने कंप्यूटरों को तोड़-फोड़ दिया जाएगा। प्लास्टिक अलग, लोहा अलग, चिप प्लेट अलग की जाएंगी। तभी से जब कभी गोदाम का दरवाजा खुलता, सभी को लगता कि आज षायद मुक्ति मिल जाए, लेकिन कभी कोई नया सदस्य इस बेकार-निकम्मों की जमात में जुड़ जाता तो कभी-कभार किसी मषीन का दिमाग ... नहीं समझे? हां....रैम निकाल कर ले जाता।  फिर नीरसता सी छा जाती।
उस दिन हर बार की तरह दरवाजा खुला, बेचारे कई साल से कुछ बदलाव का इंतजार कर रहे कंप्यूटरों ने पलट कर भी नहीं देखा....निराष हो चुके थे। इस बार कुछ लगभग नए-चमचमाते सेट इस भीड़ में जुड़ गए।  चार सौ छियासी को तो आष्चर्य हो रहा था- ‘‘चलो, हम तो कमजोर थे, काले-सफेद थे... लेकिन यह तो रंगीन है। दमक रहा है ... इन्हें क्यों फैंक दिया गया ?’’
‘‘पता नहीं इंसान कितनी तेजी से नई-नई खोज कर रहा है। लगता है कि कहीं हमारे नए साथियों का जीवन एक महीने से भी कम ना रहा जाए।’’ ऐसा लगा कि नए मेहमान ने चार सौ छियासी के मन की बात को पढ़ लिया। उसने खुद ही अपना परिचय दे दिया, ‘‘ में सीनियर पेंटियम हूं ... पेंटियम- फोर...पंेटियम सीरिज का आखिरी वारिस। जैसे ही ड्यूल कोर ई सीरिज का जमाना आया, मुझे किनारे बैठा दिया।’’
सेलरान षायद कई महीनों बाद बोला होगा, ‘‘जब आपका प्रचलन बढ़ा था तो हमें भी ऐसा ही विस्थापन झेलना पड़ा था।’’
‘‘अब देखो ना वहां जैसे ही पतले पापड़ जैसी स्क्रीन आई, मुझे चलता कर दिया। एक बार में पूरा खाली कर दिया मुझे और अब.....।’’ कुछ ही मिनट पहले आए पेंटियम ने अपने निवास की दुर्गति देख कर दुख प्रकट किया।
षांति छा गई कमरे में  किसी के पास कुछ कहने को कुछ नहीं था। सभी का अपना-अपना समृद्ध इतिहास था, जिसे भुला दिया गया । ना बदन में दौड़ती बिजली, ना ही मधुर संगीत और ना ही माऊस-की बोर्ड का साथ।
पेंटियम के भीतर एक बैटरी अभी भी चल रही थी, जो उसकी घड़ी को संचालित करती थी। वैसे तो उसकी हार्ड डिस्क से सब कुछ निचोड़ कर खाली कर दिया गया था, लेकिन इस मषीन को पूरी तरह समझ पाना उस इंसान के बस की बात भी नहीं है जिसने इसे बनाया है। कहने को तो मषीन को कबाड़ा बना कर फैंक दिया गया था, लेकिन अभी भी उसमें बहुत कुछ चल रहा था। कंप्यूटर के भीतर किसी गुमनाम कोने में बैठा एक घोड़ा  चुपचाप गुमनामी के दिन बिताने को तैयार नहीं था। 
अरे! उसे वैसा घोड़ा मत समझ लेना, जो तांगे में लगता है, षादी में दूल्हा जिस पर बैठता है। हां, ताकत में यह चार पैरों वाले घोड़े से कम नहीं है, लेकिन है बहुत छोटा.... इतना छोटा...... नहीं ... नहीं... आंखें पूरी खोल लो, बिल्लोरी कांच लगा लो.... नहीं दिखेगा। बस उसके करतब ही दिखते हैं। तो यह ‘‘ट्राजन-हॉर्स’’ कुलबुला रहा था। छोटी सी बैटरी से उसने कुछ ताकत जुटाई और आ गया अपने रंग में।
इस घोड़े की खासियत है कि एक बार चल पड़ा तो यह लगातार दुगना-तिगना-चार गुना बढ़ता जाता है। जहां जाएगी वहां इसी का प्रभाव होगा।  ट्राजन-हॉर्स के सक्रिय हेाते ही मषीन भी जागृत हो गई। सबसे पहले संगीत की फाईलें चल पड़ीं। जिस बंद, सीलन भरे कमरे में बरसों से केवल उदासी थी, गानों की मधुर लहरी से झंकृत हो गई।  विचित्र घोड़े की ताकत से अब मषीन पर चित्र भी आने लगे।  अपने अंतिम दिनों का इंतजार कर रहे दूसरे कंप्यूटरों के लिए यह आष्चर्य ही था कि जिस मषीन को ओंधे मुंह पड़ा होना था, वह धमाल पर उतारू है। कुछ पेंटियम एक-दो-तीन इस मषीन के करीब आए और पूछा, ‘‘ तुम अभी भी कैसे इतने तरोतजा हो ?’’
‘‘‘इसमें कौन सी बड़ी बात है ? जरा मुझे छू कर देखो, जरा करीब आओ। अपने नेटवर्क वाले तार को मुझसे सटा दो। फिर देखना।’’ पेंटियम चार इस समय गाना सुनने में मग्न था।
डरते-डरते पुराने पेंटियम-दो ने इस दीवाने से संपर्क कर ही लिया। पलक झपकते ही ‘घोड़ा’’ नई मषीन पर सवार हो गया।
‘‘अरे वाह ! इसमें तो पहले से ही ‘रेड टेप’ है।’’ घोड़े को जैसे बेषुमार हरा चारा मिल गया हो। अब घोडे़े के गले में लाल फीता बंध गया था।  गति पहले से कई गुना तेज हो गई थी। धीरे-धीरे घोड़े का असर उस बेचारे दो सौ छियासी तक पहुंच गया जिसके दिमाग का आकार महज कुछ मेगाबाईट ही था। वह कहां झेल पाता इस बेलगाम घोड़े को।
कई सालों से जिस कंप्यूटर पर धूल अटी हुई थी, वह ‘ट्राजन हॉर्स’ के असर में आ कर पागलों की तरह झनझना गई। उसमें बची-खुची सामग्री पलक झपकते ही पूरी हार्ड-डिस्क पर फैल गई। उसमें अब और क्षमता नहीं थी, लेकिन घोड़े का असर ही ऐसा था कि आंख झपकते ही कई-कई गुणा बढ़ जाता था। अब तो पुरानी मषीन हवा में थी, इधर-उधर टकरा रही थी।  चार सौ छिाासी भी पीछे नहीं थी, उसकी क्षमता कुछ जयादा थी, एसमें दबे-छिपे फोटो ब्लेक एंड वाईट फिल्मों की तरह उभर रहे थे। पेंटियम एक से ले कर चार तक ग्राफीक, संगीत, वीडियों का जलवा था। हंगामें में पूरा गोदाम आई पी एल के  मैच के किसी स्टेडियम की तरह जीवंत लग रहा था।
तभी गोदाम का दरवाजा फिर खुला। कंपनी का कोई कर्मचारी एक लेपटाप कबाड़े में डालने आया था। भीतर से आ रहे हल्ले से वह चौंक गया। एकबारगी तो उसकी चीख ही निकल गई- आखिर यहां यह हो क्या रहा है ? एक सुनसान, बेकार कंप्यूटर के गोदाम में हर एक मॉनीटर कुछ कह रहा था, गुन रहा था-बुन रहा था। कोई उड़ रहा था, कोई दूसरे से जुड़ रहा था।
भरोसा नहीं हो रहा था खुद की आंखों पर। पता नहीं क्या है ? उसने लेपटाप को वैसे ही पटका और चीखते-चिललाते दौड पड़ा- ‘‘ भूत....प्रेत.... बचाओ......’’
इधर वह कर्मचारी सारे दफ्तर को बता रहा था कि उसने क्या देखा। उधर लेपटाप में बैठा नॉर्टन से कंप्यूटरों की यह षैतानी देखी नहीं जा रही थी। ‘‘अच्छा मेरे ना होने का फायदा उठा रहा है यह षैतान घोड़ा।’’ अब बारी थी नॉर्टन के सक्रिय होने की। सबसे पहले उसने विन-32 को पकड़ा फिर उसने ‘लव-बग’ को चबाया। नॉर्टन का असर होते ही रेड टेप का रंग उतर गया।  फिर ट्राजन हॉर्स भी कब्जे में आ गया।
कुछ ही देर में नार्टन का पेट फूल कर गुब्बारे जैसा हो गया था और बाकी के कंप्यूटर ‘‘जैसे थे-जहां थे’’ की हालत में आ गए । उधर कंपनी के कुछ कर्मचारी हिम्मत कर नीचे गोदाम में आए तो वहां सब कुछ पहले जैसा षांत था। सभी ने उस कर्मचारी को नषेड़ी, सनकी और ना जाने क्या-क्या कह दिया। वह बेचारा बार-बार सफाई देता रहा, लेकिन उसकी सुनता कौन।
एक बार फिर कमरा बंद हो गया.... वीरान, अंधेरा, मौन । लेकिन घोड़ा कहां मानने वाला है ? वह इंतजार कर रहा है पांच दिन का। आज से पंाचवे दिन नार्टन की सक्रियता की तारीख खतम हो जाएगी। घोड़ा चुपचाप उसी लेपटाप में बैठा है, जिसके नार्टन ने उसकी लगाम थाम रखी है और अगला हंगामा भी वहीं से होगा।


शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

Corona : social distancing but not emotional distancing

कोरोना वायरस: सामाजिक दूरी तो रखिए, भावनात्मक नहीं

पंकज चतुर्वेदी 
कोरोनो वायरस की वैश्विक त्रासदी के भारत की ओर बढ़ते कदम केे प्रति आम लोगों को जागरूक करने के लिए जब देश के प्रधानमंत्री लोगों से अपील कर रहे थे कि जनता सार्वजनिक स्थानों पर कम से कम भीड़ लगाएं, ठीक उसी समय पूरे देश के हर छोटे-बड़े कस्बे में  महिला-पुरूषों की भीड़ बाजारों को जाम किए हुए थी। बदवहासी और आशंका का ऐसा माहौल था कि लोग आटा-चावल तो ठीक साबुन-शैंपू, डायपर जैसी चीजें अपनी क्षमता के अनुसार अधिक से अधिक खरीद रहे थे।  यह जान लें कि ‘कोरोना वायरस’ के प्रसार में इसी तरह की अविश्वास और हाबड़तोड़ की सबसे बड़ी भूमिका है। निष्ठुर लोग कुछ दिनों के लिए शहर-बाजार बंद होने की आशंका मात्र से अपने घर में सबकुछ रखने और अपने पड़ोसी से ज्यादा जमा कर लेने की प्रवृति ही भवनात्मक शून्यता की झलक देती है।  यह कड़वा सच है कि कोरानो  के चलते चीन के बाद इटली और फिर अरब देशों और अमेरिका तक में जनजीवन ठप्प है। सारी दुनिया का आवागमन बंद है। इस जानलेवा बीमारी का अभी तक कोई सटीक इलाज नहीं मिला है और एकदूसरे से दूरी बनाए रखना सबसे बेहतर उपाय है। लेकिन इसका कतई अर्थ नहीं कि निष्ठुर होने से वायरस के प्रकोप को रोका जा सकता है।
jansandesh times lucknow 

उन्नीस मार्च की शाम से सिडनी(आस्ट्रेलिया) से लौटे पंजाब सियाना के निवासी 35 वर्षीय तनवीर सिंह को दिल्ी हवाई अड्डे पर सिरदर्द महसूस हुआ और उनके सामने एक तमाशा सा हो गया। एक मिनट में ही उनसे लोग दूर छिटकने लगे व शक से देखने लगे। सफदरजंग अस्पताल में जब उन्हें लाया गया और ाून के सैंपल लिए गए, उसके बाद उनको एकांत में रखा गया। चारों तरफ के तनावपूर्ण परिवेश को तनवीर सिंह सहन नहीं कर पाए और अस्पतल के सातवें तल्ले से कूद कर आत्महत्या कर ली। हालांकि अब पता चला कि उसे कोरोना के कोई लक्षण नहीं थे। मुंबई में कोरानेा से मारे गए 64 साल के बुर्जुग के घर के आसपास कतिपय युवा आते हैं और कोरोना की आवा लगा कर चिढ़ाते हैं। गाजियाबाद की एक सोसायटी में दो लाोगों को उनके पड़ोसियों ने बिल्डिंग में घुसने नहीं दिया, वे कहते रहे कि हम हवाई अड्डे पर जांच करवा कर आए हैं लेकिन मामला तनातनी तक चला गया। पुलिस आई व मजबूरी में वे दोनो ििफर से जिला अस्पताल के आईसोलेशन वार्ड में भरती हुए। गायिका  कनिका कपूर ने तो गजब ही कर दिया, वे जानती थी कि बीमार हैं लेकिन केवल इस भय से कि कहीं समाज उन्हें संभावित वायरस संक्रमित मान कर हिकारत की नजर से ना देखे; वे आम लोगों से मिलती जुलती रहीं। नतीजा सामने हैं कि खतरा अब संसद तक पहुंच गया।

janwani meerut 
राजस्थान के झुंझनू में जिस घर के लोगों की संदिग्ध मौत हुई उसके चारों तरफ कफर््यू लगा दिया गया। दिल्ली के दिलशाद गार्डन में एक परिवार में दो संदिग्ध को लेने एंबुलेस आई तो वहां घंटों ऐसी भीड़ जमा हुई कि किसी आतंकी को पकड़ा गया हो।  राजधानी में ही कुछ डाक्टरों व अंतरराश्ट्रीय फ्लाईट के पायलेटों से किराए के मकान खाली करवाने की शिकायतें भी आ रही हैं। कुछ ऐसे लोग जो विदेश  से लौटे, उनके दरवाजे पुलिस ने पोस्टर चिपका दिए और कुछ ही देर में सोश ल मीडिया पर सारे परिवार के फोटो साझा हो गए कि इन्हें कोरोंनाा ने अपनी चपेट में ले लिया है।  लखनउ में एक लड़की को खांसी क्या हुई, उसका मकान मालिक उसे बाहर से बंद कर भाग गया। बामुष्किल चार दिन बाद उसे मुक्त करवाया गया। झारखंड में कोरोना के कुप्रचार के कारण क दुकानदार की हत्या हो गई। उधर देश भर के हर शहर-कस्बे से पुलिस और जनता के बीच मारापीटी, हिंसा की खबरें आ रही हैं।  पिटे हुए लोगों के वीडियो जब सोश ल मीडिया पर  देखे जा रहे है। तो ऐसे  पीड़ित लोगों की कुंठाएं भी जटिल हो रही हैं।  तब्लीगी जमात के मरकज से सारे देश  में गए लोगों को पुलिस अपराधी की तरह तलाश  रही है और लोग भी भयवश  भाग रहे हैं।

मामला केवल अपनी जरूरत की चीजों की कमी का नहीं है, छोटे घरों में केवल घर में बंद लोगों के बीच  धीरे-धीरे मानसिक अवसाद भी षुरू हो रहा है। उत्सवधर्मी समाज लंबे समय तक खुद को एक स्थान पर बांध नही ंसकता।  कई लाख लोग जिन षहरों में काम काज करते हैं, वहां से उपेक्षा, तिरस्कार से इतने आहत हो गए कि अपने मूल स्थानों-बिहार,उ.प्र के लिए पैदल, साईकिल या रिक्षे पर निकल चुके हैं। वे जिस रास्ते से गुजर रहे हैं, उन्हें लताड़, उपेक्षा और भय का सामना करना पड़ रहा है। इधर विडंबना है कि हमारा समाज किसी भी तरह संक्रमित व्यक्ति को ना केवल सामाजिक तरीके से दूर कर रहा है, वरन भावनात्मक रूप से इतना दूर कर रहा है कि मरीज में एक अपराधबोध या ग्लानि की प्रवृति विकसित हो रही है। परिणाम सामने हैं कि एक युवा आत्महत्या कर लेता है या एक गायिका सबकुछ छिपाती है।
इन सभी घटनाओं का उल्लेख केवल यह बताता है कि हम लोग इस लिए तो खुश है कि हमारे घर बीमारी नहीं आई, हम इस बात पर संतोष कर रहे हैं लेकिन यह और नहीं फैले, इसकी जिम्मेदारी निभाने को राजी नहीं। विडंबना है कि जब पूरी दुनिया इतने गंभीर संकट से जूझ रही हो तब कुछ जिम्मेदार और समाज में अपना प्रभाव रखने वाले लोग  गौ मूत्र के पान से कोरोनो का निदान होने के सार्वजनिक आयोजन करते हैं या फिर एक केंद्रीय मंत्री महज धूप में बैठने से कोरोना वायरस के मर जाने की बात करते हैं या फिर एक अन्य केंद्रीय मंत्री कोरोना मुक्ति का कोई श्लोक पाठ कर जनता को आश्वस्त करते हैं कि उन तक यह वायरस पहुंचेगा नहीं। इस समय दुनिया के अन्य पीड़ित अनुभवों से सीख लेना, कड़ाई से वैज्ञानिक नजरिये का पालन करना अनिवार्य है। ऐसे मे जिम्मेदार लोगो की गैरजिम्मेदाराना बातें समाज के व्यापक भले की भावना के विपरीत है। यह हमारे सामने हैं कि हमारे देश में महज आशंका के कारण ही सैनेटाईजर या मास्क की कालाबाजारी और नकली उत्पादन होने लगा। यदि संक्रमण का प्रभाव तीव्र होने की दशा में यदि ‘लॉक डाउन’ की स्थिति एक सप्ताह की ही बन गई तो भोजन, पानी, दवाई जैसी मूलभूत वस्तुओं के लिए आम लोगों में मारामारी होगी। अभी तो देश में संक्रमित लोगों कीं सख्या अभी एक हजार भी नहीं है और दिल्ली के अस्पतालों में अफरातफरी जैसा माहौल है। भले ही आप या अपके परिवेश में इस वायरस का सीधा असर ना हो लेकिन इसकी संभावना या देश मंे कहीं भी प्रसार मंदी, बेराजगारी, गरीबी, जरूरी चीजों की कमी, अफरातफरी जैसी त्रासदियों को लंबे समय के लिए साथ ले कर आएगा। जाहिर है कि ऐसे हालात में हमें भावनात्मक रूप से एकदूसरे के साथ जुड़े रहना होगा। जरूरत इस बात की होगी कि यदि किसी में वायरस के संक्रमण की आशंका हो तो उसके साथ प्रेम का व्यवहार किया जाए और उसे अहसास करवाया जाए कि उनसे भले ही दूर से बात कर रहे हैं लेकिन दिल से करीब हैं।
यह बेहद कड़ी सच्चाई है कि  कोविड-19 का इलाज दुनिया में किसी के पास नहीं हैं। जो लोग ठीक भी हुए हैं वे वायरस के प्रभाव के प्रारंभिक असर में थे। यहां तक कि एचआईवी की दवाएं भी इस वायरस के विरूद्ध प्रभावी नहीं रही हैं। महज एक दूसरे के कम से कम करीब आना ही इसके विस्तार को रोक सकता है। अमेरिका और इटली में भी इसका भयानक रूप पहला मरीज मिलने के 21 से 25 दिन बाद सामने आया था और हम अभी उसी पायदान पर हैं। यह समय एकसाथ खड़े होने का है लेकिन दूरी के साथ। भावनात्मक लगाव इसकी बडी औषधि है क्योंकि एकांत इंसान के तन से ज्यादा मन को तोड़ता और कमजोर करता है। एक तो  कोरोना प्रभावित हो चुके या संभावना के चलते एकांतवास कर रहे लोगों के साथ सतर्कता से व्यवहार करना तो जरूरी है लेकिन आपके व्यवहार में तिरस्कार या असम्मान का भाव नहीं होना चाहिए। यह मरीज की आत्मषक्ति को कमजोर करता है जो किसी भी रोग से लड़ने की सबसे महत्वपूर्ण प्रतिरोधक क्षमता होता है। दूसरा ऐसे लोगोें या पुलिस की प्रताडना के षिकार या केवल संभावना के कारण जांच यया इलाज करवाने गए लोगों की निजता परह मला न करें। ऐसे लोगों से फोन पर नियमित बात करना जरूरी है। उन्हे ं दूर से मुस्कुरा कर हाथ हिलाने भर से वे अपने दर्द को भूल सकते हैं।

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...