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शनिवार, 18 अप्रैल 2020

Corona tragedy becomes golden opportunity for Olive ride lye turtle

कोरोना वरदान बन गया कछुओं का

पंकज चतुर्वेदी

हर साल नवंबर-दिसंबर से ले कर अप्रेल-मई तक उड़ीसा के समुद्र तट एक ऐसी घटना के साक्षी होते है, जिसके रहस्य को सुलझाने के लिए दुनियाभर के पर्यावरणविद् और पशु प्रेमी बैचेन हैं । हजारों किलोमीटर की समुद्री यात्रा कर ओलिव रिडले नस्ल के लाखों कछुए यहां अंडे देने आते हैं । इन अंडों से निकले कछुए के बच्चे समुद्री मार्ग से फिर हजारों किलोमीटर दूर जाते हैं । यही नहीं ये शिशु कछुए लगभग 30 साल बाद जब प्रजनन के योग्य होते हैं तो ठीक उसी जगह पर अंडे देने आते हैं, जहां उनका जन्म हुआ था । ये कछुए विश्व की दुर्लभ प्रजाति ओलिव रिडले के हैं ।  अक्तूबर-2018 में तितली चक्रवात तूफान के कारण इन कछुओं के पुश्तैनी  पसंदीदा समुद्र तटों पर कई-कई किलोमीटर तक कचरा बिखर गया था, सो बीते साल इनकी बहुत कम संख्या आ पाई थी। इस बार कोरोनो के प्रकोप के चलते एक तो पर्यटन बंद है, दूसरा मछली पकड़ने वाले ट्राले, जाल व अन्य नावंे चल नहीं रही हैं, सो गरियामाथा, उड़ीसा के संरक्षित समुद्री तट पर हुकीटोला से इकाकूल के बीच हर तरफ कछुए, उनके घरोंदे और अंडे ही दिख रहे हैं। हालांकि हर बार इस पूरे इलाके के 20 किलोमीटर क्षेत्र में मछली पकड़ने पर पूरी तरह पाबंदी होती है , लेकिन उससे आगे समुंद की गहराईयों में ये कछुए अपने गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही मारे जाते हैं।

यह आश्चर्य ही है कि ओलिव रिडले कछुए दक्षिणी अटलंांटिका, प्रषांत और भारतीय महासागरों के  समुद्र तटों से हजारों किलोमीटर की समुद्र यात्रा के दौरान भारत में ही गोवा, तमिलनाडु, केरल, आंध्रप्रदेश के समुद्री तटों से गुजरते हैं , लेकिन अपनी वंश-वृद्धि के लिए वे  अपने घोसलें बनाने के लिए उड़ीसा के समुद्र तटों की रेत को ही चुनते हैं । ये समु्रद में मिलने वाले कछुओं की सबसे छोटे आकार की प्रजाति है जो दो फुट लंबाई और अधिकतम पचास किलो वजन के होते हैं। आई यू सी एन(इंटरनेशनल यूनियन फार कन्जरवेशन आफ नेचर ) ने इस प्रजाति को ‘रेड लिस्ट’ अर्थात दुर्लभ श्रेणी में रखा है। सनद रहे कि दुनियाभर में ओलिव रिडले कछुए के घरोंदे महज छह स्थानों पर ही पाए जाते हैं और इनमें से तीन स्थान भारत के उड़ीसा में हैं । ये कोस्टारिका में दो व मेक्सिको में एक स्थान पर प्रजनन करते हैं । उड़ीसा के केंद्रपाड़ा जिले का गरियामाथा समुद्री तट दुनिया का सबसे बड़ा प्रजनन-आशियाना है । इसके अलावा रूसिक्लया और देवी नदी के समुद्र में मिलनस्थल इन कछुओं के दो अन्य प्रिय स्थल हैं ।

एक मादा ओलिव रिडले की क्षमता एक बार में लगभग डेड़ सौ अंडे देने की होती है । ये कछुए हजारों किलोमीटर की यात्रा के बाद ‘‘चमत्कारी’’ समुद्री तटों  की रेत खोद कर अंडे रखने की जगह बनाते हैं । इस प्रक्रिया को ‘मास नेस्टिंग’ या ‘ अरीबादा’ कहते हैं। ये अंडे 60 दिनों में टूटते हैं व उनसे छोट-छोटे कछुए निकलते हैं । ये नन्हे जानवर रेत पर घिसटते हुए समुद्र में उतर जाते हैं, एक लंबी यात्रा के लिए; इस विश्वास के साथ कि वे वंश-वृद्धि के लिए ठीक इसी स्थान पर आएंगे- 30 साल बाद । लेकिन समाज की लापरवाही इनकी बड़ी संख्या को असामयिक काल के गाल में ढकेल देती हैं ।
इस साल उड़ीसा के तट पर कछुए के घरोंदों की संख्या शायद अभी तक की सबसे बड़ी संख्या है । अनुमान है कि लगभग सात लाख नब्बे हजार घरोंदे बन चुके हैं । एक घरोंदे में औसतन 100 अंडे हैं और यह भी जान  लें कि यहां आने वाले कोई तीस फीसदी कछुए अंडे देते नहीं। फिर भी अनुमान है कि इस बार अंडों की संख्या एक करोड़ के पार है। यह भी आश्चर्य की बात है कि सन 1999 में राज्य में आए सुपर साईक्लोन व सन 2006 के सुनामी के बावजूद कछुओं का ठीक इसी स्थान पर आना अनवरत जारी है । वैसे सन 1996,1997,200 और 2008,2015 और 2018 में बहुत कम कछुए आए थे। ऐसा क्यों हुआ? यह अभी भी रहस्य बना हुआ है। ‘‘आपरेशन कच्छप’’ चला कर इन कछुओं को बचाने के लिए जागरूकता फैलाने वाले संगठन वाईल्डलाईफ सोसायटी आफ उड़ीसा के मुताबिक यहां आने वाले कछुओं में से मात्र 57 प्रतिशत ही घरोंदे बनाते हैं, शेष कछुए वैसे ही पानी में लौट जाते हैं । इस साल गरियामाथा समुद्र तट पर नसी-1 और नसी-2 के साथ साथ बाबुबली द्वीपों की रेत पर कछुए अपने घर बना रहे हैं । बाबुबली इलाके में घरोंदे बनाने की शुरूआत अभी छह साल पहले ही हुई है, लेकिन आज यह कछुओं का सबसे प्रिय स्थल बना गया है । रषिकुल्ला और देवी नदी का तट भी ओलिव कछुओं को अंडे देने के लिए रास आ रहा है। कई ऐसे द्वीप भी हैं जहां पिछले एक दशक में जंगल या इंसान की आवक बढ़ने के बाद कछुओं ने वहां जाना ही छोड़ दिया था, इस बार मादा कछुओं ने वहां का भी रूख किया है।
इन कछुओं का आगमन और अंडे देते देखने के लिए हजरों पर्यटक व वन्य जीव प्रेमी यहां आते रहे हैं। कोरोना के कारण देश -बंदी के चलते समुद्र तट इंसानों की गतिविधियों से पूरी तरह मुक्त है। तभी बीते सात सालों में यह पहली बार कछुए दिन में भी अंडे दे रहे हैं। 21 मार्च 2020 को दिन में दो बजे से सामूहिक अंडे देने की प्िरक्रया जो षुरू हुई तो वह अभी मार्च कें अंतिम सप्ताह तक चलने की संभावना है।  कोई 45 दिन बाद इनसे बच्चे निकलेंगे और फिर ये रेत से घिसटते हुए गहरे पानी में उतर कर अपने घरों की ओर चल देंगें।
अभी तक इन कछुओं को सबसे बड़ा नुकसान मछली पकड़ने वाले ट्रालरों से होता था । वैसे तो ये कछुए समुद्र में गहराई में तैरते हैं, लेकिन चालीस मिनट के बाद इन्हें सांस लेने के लिए समुद्र की सतह पर आना पड़ता है और इसी समय ये मछली पकड़ने वाले ट्रालरों की चपेट में आ जाते थे। कोई दस साल पहले उउ़ीसा हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि  कछुए के आगमन के रास्ते में संचालित होने वाले ट्रालरों में टेड यानी टर्टल एक्सक्लूजन डिवाईस लगाई जाए । उड़ीसा में तो तो इस आदेश का थोड़ा-बहुत पालन हुआ भी, लेकिन राज्य के बाहर इसकी परवाह किसी को नहीं हैं । समुद्र में अवैध रूप से  मछलीमारी कर रहे श्रीलंका, थाईलेड के ट्रालर तो इन कछुओं के सबसे बड़े दुश्मन होते हैं और वे खुलेआम इनका शिकार भी करते हैं । सरकार का आदेश है कि समुद्र तट के 15 किलोमीटर इलाके में कोई ट्रालर मछली नहीं मार सकता, लेकिन इस कानून के क्रियान्वयन का जिम्मा लेने को कोई सरकारी एजंेसी राजी नहीं है । वीरान द्वीपों से स्वाद के लिए अंडे चुराने वालों पर स्वयंसेवी संस्थाएं काफी हद तक नियंत्रण कर चुकी हैं, लेकिन कछुओं के आवागमन के समुद्री मार्ग पर इनके अवैध शिकार को रेाकने की कोई माकूल व्यवस्था नहीं हो पाई है । ‘‘फैंगशुई’’ के बढ़ते प्रचलन ने भी कछुओं की शामत बुला दी है । इसे शुभ मान कर घर में पालने वाले लोगों की मांग बढ़ रही है और इस फिराक में भी इनके बच्चे पकड़े जा रहे हैं ।
फिलहाल तो प्रकृति के लिए यह बड़ा अवसर है कि एक दुर्लभ प्रजाति के जीव को एक  वैश्विक त्रासदी के कारण अपने नैसर्गिक परिवेश  में फलने-फूलने का अवसर मिल रहा है लेकिन यह खतरा भी सामने खड़ा है कि 15 मई के बाद जब इन अंडों से निकले लााखें कछुए समुद्र में उतरेंगे और तक तक विष्व कोरोना के संकट से उबर जाएगीख् तब इनमें से कितनों को बचाया जा सकेगा।
कछुए जल-पारिस्थितिकी के संतुलन में अहम भूमिका निभाते हैं, वैसे भी ओलिव रिडले कछुए प्रकृति की चमत्कारी नियामत हैं । अभी उनका रहस्य अनसुलझा है । मानवीय लापरवाही से यदि इस प्रजाति पर संकट आ गया तो प्रकृति पर किस तरह की विपदा आएगी ? इसका किसी को अंदाजा नहीं है ।

पंकज चतुर्वेदी




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