My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

cash crop crushed due to corona


नगदी फसल की भरमार पर कोरोना की मार 

पंकज चतुर्वेदी

 लॉक डाउन के 3 मई तक बढ़ने से वे किसान लगभग बरबादी की कगार पर आ गए है जिन्होंने अधिक आय की उम्मीद में अपने खेतों में फल-सब्जी-फूल आदि की नगदी फसल लगाई थी। कर्नाटक में इस बार अंगूर की बंपर फसल हुई। अगूर को ना तो ज्यादा दिन बेलों पर रहने दिया जा सकता है और ना ही उसके वेयर हाउस की व्यवस्था है। राष्ट्रव्यापी तालाबंदी  के चलते परिवहन ठप्प है और थो मंडी व स्थानीय बाजार भी। इसके चलते बेंगलुरु ग्रामीण, चिक्काबल्लापुर और कोलार जिलों में 500-600 करोड़ रुपये की अंगूर बर्बाद हो गई। खरीदारों को खोजने में असमर्थ, कई किसानों ने अपनी उपज को गड्ढों में डालना शुरू कर दिया है। पिछले रविवार को चिकबल्लापुर के एक किसान मुनीषमप्पा ने अंगूर के चार ट्रक गांव के तालाब में फैंक दिए। इस फसल का सबसे बड़ा संकट यह है कि यदि सूख कर अंगूर जमीन पर गिर गया तो मिट्टी की उर्वरता षक्ति समाप्त हो जाती है।
कर्नाटक के ही श्रीरंगपट्टना के गंजम गाँव के एक किसान सोमू ने मांड्या में बाज़ार बंद होने से हताष हो कर  हवाला देते हुए दो टन चीकू जानवरों को खिला दिए। राजस्थान में कई जगह खीरे के ट्रैक्टर मवेषियों के सामने डाल दिए गए। इस बार खेतों में नगदी फसल अच्छी हुई तो किसानों की उम्मीदें भी बढ़ीं लेकिन तभी जम कर बरसात हुई और आले पड़े, जिसके चलते फल-सब्जी को भयंकर नुकसानहुआ। मध्यप्रदेष के ंिछंदवाड़ा जिले का संतरों के लिए मषहूर गांव हर्लद में कोई दस टन संतरे आलेा-वृश्टि में जमीन पर गिर कर सड़ गए। रही बची फसल देष-बंदी में सड़ गई। रांची के ओखरगढ़ा की सब्जियां पूरे षहर की षान कहलाती हैं, लेकिन अब गांव से सब्जी निकालना मुष्किल है। खीरा और पत्ता गोभी पांच रूपए किलो में खरीदने वाला नहीं हैं।

जब पालतू मवेषियों को इस उम्मीद में फसल खिला दी कि चलो दूधमिलेगा, तो दूध भी मारा-मारा घूम रहा है। निरामिष भोजन में आई कमी के चलते प्याज-लहसुन की मांग घट गई। तो विदेषी सब्जियां जैसे -‘ ब्रोकली, ब्रुसेल्स, लेट्मस आदि उगाने वालों के हाथ बेबसी है क्योंकि ऐसी सब्जियों को उठाने वाले बड़े रेस्तरां बंद हैं।
इस बार पिछले साल की तुलना में आलू का उत्पादन 3.49 फीसदी बढ़ने का अनुमान था। दिसंबर-19 में कृषि मंत्रालय का आरंभिक अनुमान था कि फसल सीजन 2019-20 में 519.4 लाख टन आलू पैदा होगा, जबकि पिछले साल 2018-19 में 510.9 लाख टन का उत्पादन हुआ था। दुर्भाग्य इस बार जब फसल तैयार हुई तभी मार्च में पानी बरसा और चार-पांच दिनों तक खेत में पानी भरा रहा। इससे एक तो फसल को नुकसान हुआ फिर बंदी के चलते आलू खोदने ाला मजदूर ही नहीं मिल रहा। जिनका माल निकल रहा है तो मंडी तक जाने का रास्ता नहीं मिल रहा। जो मंडी तक जा रहे हैं उन्हें अपनी मेहनत -लागत निकालने लायक दाम नहीं मिल रहा।
पूरे देष की खेती-किसानी अनियोजित ,षोशण की षिकार व किसान विरोधी है। तभी हर साल देष के कई हिस्सों में अफरात फसल को सड़क पर फैंकने और कुछ ही महीनों बाद उसी फसल की त्राहि-त्राहि होने की घटनाएं होती रहती हैं। किसान मेहनत कर सकता है, अच्छी फसल दे सकता है, लेकिन सरकार में बैठे लोगों को भी उसके परिश्रम के माकूल दाम , अधिक माल के सुरक्षित भंडारण के बारे में सोचना चाहिए। खासकर आपदा के समय तो इस तरह की फसलों के लिए खास इंतजाम होना ही चाहिए। षायद इस छोटी सी जरूरत को मुनाफाखोरों और बिचौलियों के हितों के लिए दरकिनार किया जाता है।  तीन साल पहले सरकार ने अपने बजट में रिटेल में विदेषी निवेष की योजना में  सब्जी-फलों के संरक्षण के लिए ज्यादा जगह बनाने का उल्लेख किया था लेकिन वह अभी तक जमीन पर उतरता दिखा नहीं।
भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है । यह विडंबना ही है कि देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है । पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया ।
हर दूसरे-तीसरे साल कर्नाटक कंे कई जिलों के किसान अपने तीखे स्वाद के लिए मषहूर हरी मिर्चों को सड़क पर लावारिस फैंक कर अपनी हताषा का प्रदर्षन करते हैंे। तीन महीने तक दिन-रात खेत में खटने के बाद लहलहाती फसल को देख कर उपजी खुषी किसान के ओठों पर ज्यादा देर ना रह पाती है। बाजार में मिर्ची की इतनी अधिक आवक होती है कि खरीदार ही नहीं होते। उम्मीद से अधिक हुई फसल सुनहरे कल की उम्मीदों पर पानी फेर देती है- घर की नई छप्पर, बहन की षादी, माता-पिता की तीर्थ-यात्रा; ना जाने ऐसे कितने ही सपने वे किसान सड़क पर मिर्चियों के साथ फैंक आते हैं। साथ होती है तो केवल एक चिंता-- मिर्ची की खेती के लिए बीज,खाद के लिए लिए गए कर्जे को कैसे उतारा जाए? सियासतदां हजारेंा किसानों की इस बर्बादी से बेखबर हैं, दुख की बात यह नहीं है कि वे बेखबर हैं, विडंबना यह है कि कर्नाटक में ऐसा लगभग हर साल किसी ना किसी फसल के साथ होता है। सरकारी और निजी कंपनियां सपने दिखा कर ज्यादा फसल देने वाले बीजों को बेचती हैं, जब फसल बेहतरीन होती है तो दाम इतने कम मिलते हैं कि लागत भी ना निकले।
देष के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताष करती है। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। दिल्ली से सटे पष्चिमी उत्तर प्रदेष के कई जिलों में आए साल आलू की टनों फसल बगैर उखाड़े, मवेषियों को चराने की घटनाएं सुनाई देती हैं। आष्चर्य इस बात का होता है कि जब हताष किसान अपने ही हाथों अपनी मेहनत को चौपट करता होता है, ऐसे में गाजियाबाद, नोएडा, या दिल्ली में आलू के दाम पहले की ही तरह तने दिखते हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेष, महाराश्ट्र, और उप्र के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनांए हर दूसरे-तीसरे साल होती रहती है। जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तो तब षुगर मिलें या तो गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत नीचा देती हैं, वह भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काट कर खरीदी केंद्र तक ढो कर ले जाना, फिर घूस दे कर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना; किसान को घाटे का सौदा दिखता है। अतः वह खड़ी फसल जला कर अपने अरमानों की दुनिया खुद ही फूंक लेता है। आज उसी गन्ने की कमी के कारण देष में चीनी के दाम आम लोगों के मुंह का स्वाद कड़वा कर रहे हैं।
इस बार तो बैमोसम बरसात और कोरोना के कारण किसान रो रहा है लेकिन हकीकत तो यह है कि कृशि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देष में कृशि उत्पाद के न्यूनतम मूल्य, उत्पाद खरीदी, बिचौलियों की भूमिका, किसान को भंडारण का हक, फसल-प्रबंधन जैसे मुद्दे, गौण दिखते हैं और यह हमारे लोकतंत्र की आम आदमी के प्रति संवेदनहीनता की प्रमाण है। सब्जी, फल और दूसरी कैष-क्राप को बगैर सोचे-समझे प्रोत्साहित करने के दुश्परिणाम दाल, तेल-बीजों(तिलहनों) और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में संकट की सीमा तक कमी के रूप में सामने आ रहे हैं। आज जरूरत है कि खेतों में कौन सी फॅसल और कितनी उगाई जाए, पैदा फसल का एक-एक कतरा श्रम का सही मूल्यांकन करे; इसकी नीतियां तालुका या जनपद स्तर पर ही बनें। कोल्ड स्टोरेज या वेअर हाउस पर किसान का कब्जा हो, साथ ही प्रसंस्करण के कारखाने छोटी-छोटी जगहों पर लगें।  जब  कोरोना क कारण बंदी में किसानों के लिए कुछ सोचा जाए तो गैरपारंपरिक फसलों जैसे- फल, सब्जी, फूल आदि के उगाने वालों पर भी गंभीरता से विचार किया जाए।
पंकज चतुवैदी
साहिबाबाद, गाजियाबाद
201005
9891928376

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

How will the country's 10 crore population reduce?

                                    कैसे   कम होगी देश की दस करोड आबादी ? पंकज चतुर्वेदी   हालांकि   झारखंड की कोई भी सीमा   बांग्...