दुग्ध उत्पादकों की भी कोई सुध ले
पंकज चतुर्वेदी
पिछले सप्ताह ही अखबारों में छपे आगरा के एक चित्र ने पूरे देष का ध्यान अपनी ओर खींचा था जिसमें दुघर्टना के कारण एक दूधिए की टंकी सड़क पर फैल गई और एक इंसान व कुछ कुत्ते एक साथ सड़क से दूध पी रहे थे। यह किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना महामारी के कारण एक अनिवार्य उपभाक्ता वस्तु दूध के ग्राहकों तक ना पहुंच पाने के चलते पशु पालक संकट में हैं। एक तरफ दूध का उत्पादन का यह श्रेष्ठ समय है तो दूसरी तरफ इसकी मांग इस कदर घट गई है कि डेयरी मालिक दूध को यूं ही सड़क पर फैला रहे हैं। भारत का दुग्ध उत्पादन लगभग 18 करोड़ टन है। हमारे यहां दुनिया का कुल बीस फीसदी दूध होता है। इस दूध का कोई तीस प्रतिशत हिस्सा हर दिन मिठाई, दही आदि में परिवर्तित होता है। कुछ दूध का पाउडर बनता है। सात लाख करोड़ के सालान व्यवसाय वाले दूध पर कोरोना की काली छाया ऐसी पड़ी है कि इससे देश को पौष्टिक आहार, आवारा मवेशियों की समस्या और इस काम में लगे कोई दस करोड़ लोगों के भुखमरी के कगार पर आने का संकट सामने आ गया है।जनवाणी मेरठ |
आंचलिक क्षेत्रों के छोटे दूध उत्पादकों के आपूर्तिकर्ता तक ना पहुंच पाने और उसके उत्पाद जैसे दही, पनीर, छेना, खोआ, घी आदि का उत्पादन पूरी तरह ठप्प होने से प्रभावित होने वालों की संख्या बहुत बड़ी है। देष में कोई 12.53 करोड़ दूध देनो वाले गाय-भैंस हैं और बगैर कमाई के उनका पेट भरना छोटे किसान के लिए बेहद कठिन होता जा रहा है। ढाबे, मिठाई की दुकानें, घी व खोया के कारखाने भी बंद हैं।
उत्तर प्रदेश देश के सबसे ज्यादा किसान और दूध देने वाले पशुओं का पालक राज्य है। फरवरी महीने तक यहां एक नंबर का दूध 40 से 50 रूपए लीटर थ जो आज 15 से 20 रूपए लीटर बड़ी मुश्किल से बिक रहा है। लॉकडाउन और उसी दौरान असमय बरसात के चलते फसल कटाई में देरी हो रही है, सो नया भूसा भी नीहं आ पा रहा है। ऐसे में मवेशियों को भरपेट चारा नहीं मिल रहा। सनद रहे कि उ.प्र. पहले से ही आवारा पशुओं की समस्या से हलकान है। इन हालातों ने इस विपदा को दुगना कर दिया है। पश्चिमी उप्र के छोटे-छोटे गांवों में खोया बनाने की भट्टियां लगी हैं जो कि हर दिन कई हजार लीटर दूध लेती हैं। शामली-बागपत से चार बजे सुबह कई ट्रक-टेंपों चलते थे जिनमें केवल खोये की टोकरयां लदी होती थीं। ऐसे सभी गांवो ंमें इस संमय सन्नाटा और भुखमरी की चहलकदमी हैं।
जन्संदेश लखनऊ |
जब से गरमी का पारा 35 से पार हुआ है मध्यप्रदेश में विदिषा के आसपास दूध को मवेषी ही पी रहे हैं। गांवों में लोग जम कर दूध ही पी कर काम चला रहे है।, लेकिन मवेषी खरीदने के लिए गए कर्ज व अन्य खर्च की पूर्ति के नाम पर किसान की जेब में छदाम नहीं । राजस्थान में दुग्ध उत्पादक सहकारी समितियां बंद होने से जयपुर डेयरी में दूध नहीं पहुंच रहा है। इससे दूध की आपूर्ति गड़बड़ा गई। बाजार में दूध नहीं मिलने से उपभोक्ताओं को भटकना पड़ रहा है। जयपुर डेयरी के दौसा प्लांट में पहले रोजाना सवा लाख लीटर दूध आता था, लेकिन समितियां बंद होने से दूध बंद हो गया। जिन समितियों में बडे़-बड़े मिल्क कूलर लगे हुए हैं उनका 40-45 हजार लीटर ही दूध जयपुर जा रहा है। जिले में 450 दुग्ध उत्पादक सहकारी समितियां हैं। इन समितियों से रोजाना एक लाख 25 हजार लीटर दूध दौसा प्लांट में आता था। दूध नहीं आने से दौसा प्लांट भी बंद हो गया।
hindustan 2-5-20 |
पंजाब में आज कोई तीन लाख लीटर दूध हर दिन निकल रहा है। इसमें से आधा ही घरों तक जाता है। रोजाना बीस करोड़ के घाटे को सह रहे राज्य के डेयरी उद्योग को एक अजब तरीके की सांप्रदायिक समस्या भी झेलीी पड़ रही हैं। गुरदासपुर के आसपास पशु पालक समाज मुस्लिम गुज्जर है। तब्लीगी जमात और कोरोना विस्तार को ले कर जो कच्ची-पक्क्ी खबरें गांव तक पहुंची तो उनके दूध का बहिष्कार शुरू हो गया। गुज्जर बता रहे हैं कि वे जमात को जानते तक नहीं, इसके बाद भी उन्हें अपना दूध नदी में फैंकना पड़ रहा है। इसी तरह हरिद्वार के पास लालढांग के वन गुज्जरों को भी सामाजिक अफवाहों के चलते दूध नदी में बहाना पड़ रहा है।
झारखंड राज्स दुग्ध सहाकरी संघ की मेधा डेयरी के ये आंकड़े राज्य के दुग्ध उत्पादकों के दुर्दिन की तस्वीर प्रस्तुत कर देते हैं। यहां सामान्य दिनों में दूध की खरीदी एक लाख पैंतीस हजार लटर होती है जो आज घट कर 70 से 72 हजार लीटर रहा गई हैं। कभी सवा लाख लीटर प्रति दिन बेचने वाली यह सरकारी डेयरी कोरोना बंदी में 45 हजार लीटर दूध ही बेच पा रही है। इस संस्थान के पास दूध का पाउडर बनाने का संयत्र है नहीं सो इसने खरीदी ही कम कर दी। दुग्ध उत्पादकों की समस्या केवल उत्पाद का ना बिकना ही नहीं है, घर में पलने वले मवेाी के भोजन में इस्तेमाल कुट्टी, चोकर, दाने के दाम लगभग दुगने हो गए। साथ ही षहरों में दुकानें बंद हैं। जिनके पास स्टॉक रखा है वे मनमाने दाम में बेच रहे हैं। बीमार मवेषी का इलाज ना हो पाना, चराई के लिए मवेषी को बाहर ना निकाल पाना जैसी अनंत समस्या दुग्ध उत्पादक को झेलनी पड़ रही हैं।
हालांकि कुछ राज्यों ने डेयरी उद्योग के लिए कई सकारात्मक कद भी उठाए हैं जैसे कर्नाटक सरकार ने बगैर बिेके पूरे दूध को षहरी गरीबों में निषुल्क बांटने के लिए दौ सौ करोड़ की एक योजना लागू की है। महाराश्ट्र में सहकारी समिति को प्रति दिन दस लाख लीटर दूध को पाउडर में बदलने की परियोजना के लिए 180 करोड़ रूपए जारी किए हैं। बिहार में आंगनवाड़ी के जरिए दूध पाउडर बांटा जा रहा है । उत्तराखंड सरकार ने बीस हजार आंगनवाड़ी के जरिए ढाई लाख बच्चों को दिन में दो बार दूध बंटवाने का काम षुरू किया है।
सभी जानते हैं कि बढ़ती गरमी में अधिक समय तक दूध रखना संभव नहीं होता और दूध देने वाले पषु के थन भरने पर उसका दूध निकालन भी जरूरी होता है। भारत जैेस देष में जहां कुपोशित बच्चों की संख्या करोड़ों में है, वहां दूध को फैंका जाना बहुत चिंताजनक है। कोरोना वायरस का विस्तार रोकने का एकमात्र उपाय ‘देष-बंदी’ ही है। ऐसे में सरकार को तो इन दुग्ध उत्पादकों की सुध लेना ही चाहिए। पंचायत तर पर दूध खरीदी, कुपोषित बच्चों व आंगनवाड़ी या मिडडे मील में उसकी मात्रा बढ़ाना एक कारगर उपाय हो सकता है। इसके अलावा ग्रामीण स्तर पर षुद्ध घी बनाना भी फायदेमंद होगा। घी की हर समय मांग रहती है , इसे बनाने के लिए किसी मषीन की जरूरत नहीं होती और घी को लंबे समय तक बगैर प्रषीतक के सुरक्षित भी रखा जा सकता है। इसके दाम भी अच्छे मिलते है।।
देश के बाजारों में बिकने वाले दूध का अधिकांश मिलावटी या विदेशों से आने वाले पाउडर पर निर्भर है, इसका सहकारी समितियों के किसान भुगतान रजिस्टर से शोधपरक अध्य्यन के बाद ही निष्कर्ष निकल सकता है ।
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