My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

Need To Tackle At The Intellectual Level India China Indian Army Economic Condition Prt

 

बौद्धिक स्तर पर निबटने की जरूरत

दिल्ली पुलिस ने एक ऐसे स्वतंत्र पत्रकार को गिरफ्तार किया है, जो चीन सरकार के आधिकारिक अखबार 'ग्लोबल टाइम्स' के लिए लेखन करते थे, भारत में सरकार से अधिमान्यता प्राप्त थे, लंबे समय तक विवेकानंद फाउंडेशन से भी जुड़े रहे. पुलिस की मानें तो, देश की सुरक्षा और सेना से जुड़ी जानकारी साझा करने के लिए एक चीनी महिला की फर्जी कंपनी के माध्यम से उन्हें लाखों रुपये मिल रहे थे.



भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर महीनों से चल रहे विवाद का हमारी सेना ने अपने शौर्य और साहस से मुंहतोड़ जवाब दिया है, लेकिन चीन के साथ समस्या केवल सामरिक, व्यापारिक या डिजिटल नहीं है. चीन दुनियाभर में बौद्धिक स्तर पर ऐसा जाल फैला चुका है, जो कई स्तर पर उसकी सहायता करते है़ं

दरअसल, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ही पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को नियंत्रित करती है. वहां कम्युनिस्ट पार्टी केवल हथियार या तकनीक से सेना को मजबूती नहीं देती, बल्कि कई मोर्चों पर निवेश और नियोजन भी करती है, जिससे उनकी सेना को कई जगह बिना लड़े ही जीत मिल जाती है. इसके लिए उसने सूचना तंत्र तैयार करने, जानकारी एकत्र करने और सहूलियत के हिसाब से उसे दुनिया में प्रचारित करने का काम भी किया है. दूसरे शब्दों में, तो यह धारणाओं की लड़ाई का प्रबंधन है.

नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी, गुओयानहुआ के एक चीनी प्रोफेसर ने साइकोलॉजिकल वारफेयर नॉलेज नामक अपनी पुस्तक में लिखा है, 'जब कोई दुश्मन को हराता है, तो यह महज दुश्मन को मारना या जमीन के एक टुकड़े को जीतना नहीं होता है, बल्कि मुख्य रूप से दुश्मन के दिल में हार का भाव स्थापित करना होता है़' युद्ध के मैदान के बाहर प्रतिद्वंद्वी के मनोबल को कम करना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना युद्ध के मैदान में.

जब से शी जिनपिंग ने चीन पर पूरी तरह नियंत्रण किया है, तब से वह न केवल अपने देश में बल्कि अन्य देशों में भी मीडिया को नियंत्रित करने पर बहुत काम कर रहे हैं. सभी जानते हैं कि चीन में अखबार, टीवी, सोशल मीडिया से लेकर सर्च इंजन तक सरकार के नियंत्रण में है. वहां का प्रकाशन उद्योग भी सरकार के कब्जे में है. हर वर्ष जुलाई के अंतिम सप्ताह में लगने वाला पेइचिंग पुस्तक मेला दुनियाभर के बड़े प्रकाशकों को आकर्षित करता है. वहां चीन के फॉरेन पब्लिशिंग डिपार्टमेंट का असली उद्देश्य अपने यहां की पुस्तकों के अधिक से अधिक राइट्स बेचना होता है.

बीते दस वर्षों में अकेले दिल्ली में चीन से प्राप्त अनुदान के आधार पर सैकड़ा भर चीनी पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद हुआ. भारत-चीन के विदेशी विभाग भी ऐसी ही अनुवाद परियोजना पर काम कर रहे हैं. दिल्ली के कई निजी प्रकाशक चीनी पुस्तकों के अनुवाद छापकर मालामाल हो रहे हैं. इस तरह चीन दुनियाभर के जनमत निर्माताओं, पत्रकारों, विश्लेषकों, राजनेताओं, मीडिया हाउसों और लेखकों-अनुवादकों का समूह बनाने में भारी निवेश कर रहा है, जो अपने-अपने देशों में चीनी हित को बढ़ावा देने के लिए प्रयत्नशील और इच्छुक हैं.

इसके पीछे असली एजेंडा शांति और युद्ध के समय चीन की भव्यता, ताकत, क्षमता को दूसरे देशों में प्रसारित करना है. ऑस्ट्रेलिया से संचालित होनेवाली कई चीनी कंपनियां, भारत जैसे देशों में होनेवाले एकेडमिक सेमिनारों में अपने प्रतिनिधि भेजती हैं, जो सेमिनार में पढ़े गये शोध पत्रों को हासिल करते हैं और चुपचाप वापस चले जाते हैं. ऐसे शोध का वे अपने यहां विस्तार से अध्ययन करते हैं और उसके उत्पादों का पेटेंट भी हासिल कर लेते हैं.

चीनी सरकार भारत सहित कई देशों में मीडिया में निवेश के लिए अरबों डॉलर खर्च कर रही है. हाल ही में, चीन ने विदेशी मीडिया प्रकाशनों में विज्ञापन स्थान की खरीद के माध्यम से भारी निवेश किया है. चीन मुख्य रूप से एशिया और अफ्रीकी देशों के विदेशी पत्रकारों के लिए फेलोशिप कार्यक्रम भी चलाता है़, जिसके तहत प्रतिवर्ष सौ पत्रकारों को अपने देशों में चीनी विचारों का प्रचार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. पेइचिंग विश्वविद्यालय सहित कई जगह हिंदी के कोर्स हैं, जहां छात्रों का कार्य होता है नियमित भारतीय अखबार पढ़ना, उसमें चीन के उल्लेख को अनुदित करना, उसके अनुरूप सामग्री तैयार करना.

टीवी बहस में शामिल होनेवाले कई सेवानिवृत सैन्य अधिकारी ऐसे हैं, जिन्होंने कभी लेह-लद्दाख, अरुणाचल प्रदेश या उत्तराखंड के सीमाई इलाकों में सेवा नहीं दी. असल में ऐसे अधिकारी या लेखक किसी हथियार एजेंसी या अन्य उत्पाद संस्था के भारतीय एजेंट के तौर पर काम करते हैं. उनकी सेवा शर्तों में भारतीय सैन्य स्थिति का अनुमान, उसकी सतही व्याख्या, किसी हथियार या उपकरण की आवश्यकता के बारे में बातें करना, अन्य देश के वैसे ही उपकरण की तुलना में चीनी उत्पाद को बेहतर बताना, आदि का उल्लेख होता है.

लोगों का विश्वास जीतना और फिर उनमें अपने विचार संप्रेषित करना चीन का बौद्धिक युद्ध कौशल है. सैन्य स्तर पर हम चीन से निश्चित ही निबट लेंगे, लेकिन आर्थिक और बौद्धिक स्तर पर निपटने के लिए हमें अभी और तैयारी करनी होगी़

(ये लेखक के नि


रविवार, 27 सितंबर 2020

sucker-mouth-fish-a-big-ecological-threat

 

सकर माउथ फिश : पारिस्थितिकी के लिए बड़ा खतरा

पंकज चतुर्वेदी


हाल ही में वाराणसी में रामनगर के रमना से होकर गुजरती गंगा में डाल्फिन के संरक्षण के लिए काम कर रहे समूह को एक ऐसी विचित्र मछली मिली, जिसका मूल निवास हजारों किलोमीटर दूर दक्षिणी अमेरिका में बहने वाली अमेजन नदी है।



चूंकि गंगा का जल तंत्र किसी भी तरह से अमेजान से संबद्ध है नहीं तो इस सुंदर सी मछली के मिलने पर आश्चर्य से ज्यादा चिंता हुई। हालांकि दो साल पहले भी इसी इलाके में ऐसी ही एक सुनहरी मछली भी मिली थी।
सकर माउथ कैटफिश नामक यह मछली पूरी तरह मांसाहारी है और जाहिर है कि यह इस जल-क्षेत्र के नैसर्गिक जल-जंतुओं का भक्षण करती है। इसका स्वाद होता नहीं , अत: ना तो इसे इंसान खाता है और ना ही बड़े जल-जीव। सो इसके तेजी से विस्तार की संभावना होती है। यह नदी के पूरे पर्यावरणीय तंत्र के लिए इस तरह हानिकारक है कि ‘नमामि गंगे परियोजना’ पर व्यय हजारों करोड़ इसे बेनतीजा हो सकते हैं। हालांकि गंगा नदी पर मछलियों की कई प्रजातियों के गायब होने का खतरा कई साल पुराना है। पहाड़ों से उतर कर गंगा जैसे ही मैदानी इलाकों में आती है तो उसकी जल-धारा के साथ आने वाली मछलियों की कई प्रजातियां ढूंढे नहीं मिल रही। छह साल पहले राट्रीय मत्स्य विकास बोर्ड द्वारा करवाए गए सव्रे में पता चला कि गंगा की पारंपरिक रीठा, बागड़, हील समेत छोटी मछलियों की 50 प्रजातियां लुप्त हो गई हैं। जान लें जैव विविधता के इस संकट का कारण हिमालय पर नदियों के बांध तो है। ही, मैदानी इलाकों में तेजी से घुसपैठ कर रही विदेशी मछलियों की प्रजातियां भी इनकी वृद्धि पर विराम लगा रही हैं। गंगा और इसकी सहायक नदियों में पिछले कई वर्षो के दौरान  थाईलैंड, चीन व म्यांमार से लाए बीजों से मछली की पैदावार बढ़ाई जा रही है। ये मछलियां कम समय में बड़े आकार में आ जाती हैं और मछली-पालक अधिक मुनाफे के फेर में इन्हें पालता है। हकीकत में ये मछलियां स्थानीय मछलियों का चारा हड़प करने के साथ ही छोटी मछलियों को भी अपना शिकार बना लेती हैं।

इससे कतला, रोहू और नैन जैसी देसी प्रजाति की मछलियों के अस्तित्व पर खतरा हो गया है। किसी भी नदी से उसकी मूल निवासी जलचरों के समाप्त होने का असर उसके समूचे पारिस्थितिकी तंत्र पर इतना भयानक होता है कि जल की गुणवत्ता, प्रवाह आदि नट हो सकते हैं। मछली की विदेशी प्रजाति खासकर तिलैपिया और थाई मांगुर ने गंगा नदी में पाई जाने वाली प्रमुख देसी मछलियों की प्रजातियों कतला, रोहू और नैन के साथ ही पड़लिन, टेंगरा, सिंघी और मांगुर आदि का अस्तित्व खतरे में डाल दिया है। गंगा के लिए खतरा बन रही विदेशी मछलियों की आवक का बड़ा जरिया आस्था भी है। विदित हो हरिद्वार में मछलियां नदी में छोड़ने को पुण्य कमाने का जरिया माना जाता है। यहां कई लोग कम दाम व सुंदर दिखने के कारण विदेशी मछलियों को बेचते हैं। इस तरह पुण्य कमाने के लिए नदी में छोड़ी जाने वाली यह मछलियां स्थानीय मछलियों और उसके साथ गंगा के लिए खतरनाक हो जाती हैं। एक्सपर्ट के मुताबिक, गंगा में देसी मछलियों की संख्या करीब 20 से 25 प्रतिात तक हो गई है, जिसकी वजह ये विदेशी मछलियां हैं। गंगा नदी में 143 किस्म की मछलियां पाई जाती हैं। हालांकि अप्रैल 2007 से मार्च 2009 तक गंगा नदी में किए गए एक अध्ययन में 10 प्रजाति की विदेशी मछलियां मिली थीं। अंधाधुंध और अवैध मछली पकड़ने, प्रदूषण, जल अमूर्तता, गाद और विदेाशी प्रजातियों के आक्रमण भी गंगा में मछली की विविधता को खतरा पैदा कर रहे हैं और 29 से अधिक प्रजातियों को खतरे की श्रेणी में सूचीबद्ध किया गया है। वैसे गंगा में सकर माउथ कैट फिश के मिलने का मूल कारण घरों में सजावट के लिए पाली गई मछलियां हैं। चूंकि ये मछलियां दिखने मेंंसुदर होती हैं साम सजावटी मछली के व्यापारी इन्हें अवैध रूप से पालते हैं।  
कई तालाब, खुली छोड़ दी गई खदानों व जोहड़ों में ऐसे मछलियों के दाने विकसित किए जाते हैं और फिर घरेलू एक्वेिरियम टैंक तक आते हैं। बाढ़, तेज बरसात की दशा में ये मछलियां नदी-जल धारा में मिल जाती हैं वहीं घरों में ये तेजी से बढ़ती हैं व कुछ ही दिनों में घरेलू एक्वेिरियम टैंक इन्हें छोटा पड़ने लगता हैं। ऐसे में इन्हें नदी-तालाब में छोड़ दिया जाता हैं। थोड़ी दिनों में वे धीरे-धीरे पारिस्थितिक तंत्र घुसपैठ कर स्थानीय जैव विविाता और अर्थव्यवस्था को खत्म करना शुरू कर देती हैं। चिंता की बात यह है कि अभी तक किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश में ऐसी आक्रामक सजावटी और व्यावसायिक रूप से महत्त्वपूर्ण मछली प्रजातियों के अवैध पालन, प्रजनन और व्यापार पर कोई मजबूत नीति या कानून नहीं है।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

My video on Traditional water resources with Rajendra Singh

इस कार्यक्रम में जल संरक्षण की परंपराओं पर चर्चा की गयी है। इस कार्यक्रम में जल संरक्षण संबंधी विभिन्न परंपराओं पर जल पुरुष राजेन्द्र सिंह के विचारों से हम अवगत हो सकेंगे। कार्यक्रम में पंकज चतुर्वेदी द्वारा परंपरागत जल संरचनाओं की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है।


https://www.youtube.com/watch?v=IsIXwV3o7Kk&feature=youtu.be

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

negligence enhancing corona

 कोताही से कहर बनता कोरोना

पंकज चतुर्वेदी 



ज्यों-ज्यों समय बीत रहा है, कोरोना वायरस के रंग हर दिन बदल रहे हैं। कई बार लगता है कि सारी दुनिया में सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक व्यवस्थ को तहस-नहस करने वाले इस वायरस की नब्ज पकड़ में आई है, अगले ही पल इसे बदलते स्वरूप, इसकी मार के परिवर्तित कुप्रभाव और इससे निबटने के सलीकों के असफल होने की निराशा के घनघोर बादल और घने हो जाते हैं। इसकी वैक्सीन की आस अभी कुछ महीनों तक तो नहीं दिख रही। 17 सितंबर को जब आंकड़ों का विश्लेशण किया गया तो पता चला कि कोरोना वायरस से फैलने वाले रोग कोविड-19 की गति दस दिन में तीन गुना तक हो गई है। अब कई चर्चित चैहरे व राजनेता इसकी गिरफ्त में आ रहे है। कम से कम दस विधायक या सांसद इसके शिकार हो कर काल के गाल में समा चुके हैं। विडंबना यह है कि जैसे-जैसे चुनौतियां दूभर हो रही हैं, वैसे-वैसे आम लोगों की लापरवाही कोरोनो को फलने-फूलने का अवसर दे रही हैं।

राजधानी दिल्ली, जहां कोरोना की मार सबसे तगड़ी है, जहां कई लोगों को एक बार ठीक होने के बाद फिर से इसने जकड़ लिया, वहां दिलशाद गार्डन, जाफराबाद, रोहिणी या मेहरोली, कोई भी इलाके में तीन सवारियों के लिए अधिकृत तिपहिया स्क्ूटर में आठ से दस लोगों की सवारी, बगैर मास्क के ठुंसे हुए लोग देखने को मिल जाएंगे। हर बार सवारी के उतरने-चढ़ने पर सेनीटाइजर से सीट को साफ करने की सरकार के दिशा-निर्देश तो कही दिखते ही नहीं। सार्वजनिक बसों के पीछे भागते लोग, बाहर तक लटकी सवारियों के साथ ग्रामीण सेवा, यह दृश्य पूरे दिल्ली एनसीआर में आम हैं। सनद रहे दो महीने पहले लागू हुए नए परिवहन कानून में क्षमता से अधिक सवारी बैठाने पर बहुत अधिक जुर्माना राशि है, लेकिन ना किसी को जान की परवाह है न ही जुर्माना की। यदि एक लाख से कम आबादी वाले कस्बे में जाएं तो पूरे देश में एक से हालात हैं- ना मास्क है, ना षारीरिक दूरी और ना ही बार-बार हाथ धोने  की अनिवार्यता। जाहिर है कि इस तरह की अव्यवस्था, समाज और सरकार दोनो के सहकार से ही संभव होती है। 

यह तो एक बानगी है कि अब लोग या तो उकता गए हैं या अभी उनके लिए कोरोना एक सामान्य सी बात हैं। गौर करना होगा कि इजराइल में फिर से दो सप्ताह का लॉकडाउन लागू करना पड़, क्योंकि वहां तालाबंदी खुलने के बाद आम लोगों की बाजार-व्यापार, सामाजिक आयोजनों में आमदरफ्त इतनी बढ़ी कि वहां के आंकड़े डराने लगे। छत्तीसगढ़ के शहरी क्षेत्रों में कई जगह लॉकडाउन की वापिसी हो गई है। राजस्थान में भी ऐसी संभावना बन रही है। भारत में राजनीति, चुनाव व सस्ती लोकप्रियता  के कारण कोरोना अनियंत्रित हो रहा है, यदि यह कहा जाए तो अतिशियोक्ति नहीं होगा। मध्य प्रदेश का इंदौर चीन के वुहान से अधिक भयानक हालत में हैं, उसके बावजूद वहां ताजिया हो या एक राजनीतिक दल की कलश यात्रा, पांच से दस हजार लोग एकत्र हो रहे हैं। प्रदेाके ग्वालियर में उपचुनाव की घोशण होने से पहले ही हर राजनीतिक दल हजारों लोगों का जमावड़ा कर रहा है। यह भी दुर्भायपूर्ण है कि इस प्रदेश में मुख्यमंत्री सहित कम से कम तीस विधायक इस रोग की चपेट में आ चके हैं व दो की मौत भी हुई। जब इस तरह की राजनीतिक भीड़ सड़क पर होती है तो रोजगार, अन्य बीमारियों, सामाजिक प्रतिबद्धता के कार्यों से लोग सड़क पर निकलते ही हैं और उनका तर्क भी ताकतवर होता है कि जब अमुक की रैली में हजारों के एकत्र होने से कोरोना नहीं फैला तो अकेले मुझसे क्यों फैलेगा। बिहार में तो चुनावी चकल्लस में कोरोना के संक्रमण को जमींदोज ही कर दिया गया है। 


यह बात सच है कि हमोर देश में अभी तक सात करोड़ से ज्यादा लोगों के टेस्ट हो चके है। और अधिक टेस्ट का ही परिणाम है कि मरीजों की संख्या बढ़ रही है। लेकिन यह जान लें कि टेस्ट व जागरूकता अभी महानगर या राजधानी में अधिक हैं। तभी एकबारगी लगता है कि दिल्ली-मुंबई महानगरों में इसका चरम हो गया व अब यहां खतरा ज्यादा नहीं है। मध्यम व छोटे कस्बों तक जब यह परीक्षण पहुंचेगा तब वहां कोरोना का कहर चरम पर होगा। यह भी समझना होगा कि जो लोग मार्च-अप्रेल में तालाबंदी से उपजे बेराजगारी व भूख के हालात से उम्मीदों के साथ अपने गांव - कस्बे गए थे, अब उनका  ‘‘अतिथि-काल’’ समाप्त हो गया है व उनके सामने फिर से रोजगार का संकट मुंह बाए खड़ा है।  उनमें से अधिकशं लेाग फिर से अपने पुराने काम-धंधे वाले महानगरों की तरफ लौट रहे हैं। ऐसे में इस बासत की बड़ी संभावना है कि अभी तक लापरवाही के साथ जीवन जी रहे ये गांव-कस्बे के लोग महानगरों तक कोरोना का संक्रमण फिर से ले कर आ जाएं। अर्थात एक तरफ जब गांवों तक कोरोना की तगड़ी मार होगी, ठीक तभी बड़े षहरों में भी संक्रमितों की संख्या में इजाफा होगा। मार्च की भरी गरमी में षुरू हुए कोरोना वायरस के संक्रमण से सारी दुनिया के सामाजिक-आर्थिक तानेबाने को छिन्न-भिन्न करने वाले रोग कोविड ने घनघोर बरसात भी देख ली और अब अपने हर दिन बदलते स्वरूप के साथ यह ठंड में प्रवेश कर रहा है। ठंड में बड़े षहर वाहन व औद्योगिक प्रदूशण के चलते वैसे ही सांस की बीमारियों का घर बन जाते हैं। ऐसे में नोबल-कोरोना वायरस के प्रसार को गति मिलना संभव है। 

कोरोना ने देश को एक बात की चेतावनी दे दी कि स्वास्थ्य सेवाएं भी राश्ट्रीय सुरक्षा का मसला है। कोरोना ने यह भी बता दिया कि हर इंसान को पर्याप्त मात्रा में साफ पानी लिम, यह भी देश की सुरक्षा के लिए उतना ही जरूरी है जितना फौज के लिए गोला-बारूद की आपूर्ति। जब तक कोई माकूल इलाज या वैक्सीन नहीं मिलती, तब तक देश को इस संक्रमण से बचाने का एकमात्र उपाय व्यक्तिगत स्वच्छता और उसमें भी बार-बार  साबुन से हाथ धोना है। कोरोना से जूझते समय चिकित्सा तंत्र के अलावा दूसरी सबसे बड़ी चुनौती इस संग्राम के लिए अनिवार्य साफ पानी की बेहद कमीऔर उसका लाचार सा प्रबंधन। 

सनद रहे बीस सैकंड हाथ धोने के लिए कम से कम दो लीटर पानी की जरूरत होती है। इस तरह पांच लोगों को परिवार को यदि दिन में पांच से सात बार हाथ धोना पड़े तो उसका पचास लीटर पानी इसी मद में चाहिए, जबकि देश में औसतन 40 लीटर पानी प्रति व्यक्ति बामुश्किल मिल पा रहा है। नेशनल सैंपल सर्वे आफिस(एनएसएसओ) की ताजा 76वीं रिपोर्ट बताती है कि देश में 82 करोड़ लोगों को उनकी जरूरत के मुताबिक पानी  मिल नहीं पा रहा है। देश के महज 21.4 फीसदी लोगों को ही घर तक सुरक्षित जल उपलब्ध है।  78 फीसदी ग्रामीण और 59 प्रतिशत षहरी घरों तक स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं हैं। आज भी देश की कोई 17 लाख ग्रामीण बसावटों में से लगभग 78 फीसदी में पानी की न्यूनतम आवश्यक मात्रा तक पहुंच है। 


यह बेहद कडव़ी सच्चाई है कि  कोविड-19 का इलाज दुनिया में किसी के पास नहीं हैं। जो लोग ठीक भी हुए हैं वे वायरस के प्रभाव के प्रारंभिक असर में थे। यहां तक कि एचआईवी, टीबी, मलेरिया आदि की दवाएं भी इस वायरस के विरूद्ध प्रभावी नहीं रही हैं। प्लाज्मा थैरेपी की सफलता की संदिग्धता अब सरकारी एजेंसी भी मान रही हैं। ऐसे में केवल सतर्कता, लापरवाहों पर कड़ाई और बेवजह सार्वजनिक स्थानों पर लोगों को आने से रोकना, गरीब लोगो के लिए रोजगार की व्यवस्था, व्यापार-उद्योग को नए सलीके से संचालन को अपनी जीवन षैली में स्थाई रूप से जोड़ना होगा। जान लें वैक्सीन की खोज होने के बाद सवा अरब से अधिक आबादी वाले देश में उसके आम लोगों को तक पहुंचने में भी सालों लगेंगे। 


शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

Camera-court can not able to deliver justice to mass

 वर्चुअल कोर्ट से न्याय की अधूरी आस

                                                                                                                        पंकज चतुर्वेदी



 लोकतंत्र के दो प्रमुख स्तंभ - कार्यपालिका व विधायिका अब ठीक गति से काम करने लगी हैं। सरकारी आफिस खुल ही रहे हैं और संसद व कई राज्यों की विधानसभाएं भी काम कर रही हैं। लेकिन तीसरे स्तंभ न्यायपालिका के कार्य करने की गति इतनी मंथर है कि हर दिन एकत्र हो रहें लंबित मामले, अदालतों में रिक्त पड़े न्याय अधिकारियों के पदों को देखते हुए साफ लगा रहा है कि न्याय के मामले में हम कई दशक पीछे खिसक रहे है। कोरोना संकट के कारण बंद हुई अदालतों ने आम लोगांे ही नहीं, बल्कि न्याय के लिए सहयोगी अधिवक्तओं के लिए भी कई संकट खड़े कर दिए हैं। कहने को अदालतें कैमरों पर चल रही है। लेकिन कड़वी हकीकत यह है कि इस तरह की अदालतें केवल अत्यधिक आवश्यक प्रकरणों पर ही ध्यसान दे पा रही हैं, दूसरा देश के अधिकांश वकील इस उच्च तकनीक से  अभ्यस्त भी नहीं है और हमारा सिस्टम अभी इतने ताकतवर इंटरनेट कनेक्शन व कैमरों से लैस नहीं है कि समूची कार्यवाही सहजतासे हो। यह दुर्भायपूर्ण सच है कि कौरोना काल में अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या में इजाफा हुआ है, साथ ही न्यायिक अभिरक्षा या विचाराधीन कैदियों की संख्या अब असहनीय हो गई है। दूसरी तरफ देश के हजारों वकील, उनके स्टाफ के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है वहीं, कैमरे वाली अदालतों में षामिल हो रहे वकीलों की फस भी बढ़ गई है। यह डराने वाला आंकड़ा है कि आज जितने मामले लंबित हैं और इसी गति से मुकदमों का निबटान होता रहा तो सभी को न्याय मिलने के लिए 340 साल चाहिए। लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था तीसरा स्तंभ है और उसकी ऐसी जर्जर हालत पूरे तंत्र को कमजोर कर रही 



 पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस.ए बोबडे भी कोरोना के चलते लंबित मामलों की बाढ़ के प्रति चिंता जताते हुए अधिक संे अधिक मध्यस्थता पर जोर दे चुके हैं। यदि विधि मंत्रालय के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो इस समय देश के सभी अदालतों में लगभग 3.38 करोड़ मामले लंबित हैं । यह संख्या इस साल अप्रैल में 3.21 करोड़ थी । जाहिर है कि तीन महीने में लंबित मामलों में इजाफा 17 लाख हुआ है। वहीं जेल में कैदियों की संख्या कुल क्षमता के 117 फीसदी हो गई है। हमारे यहां आबादी की तुलना में न्यायाधीशों का अनुपात प्रति 10 लाख पर 17.86 न्यायाधीशों का है। मिजोरम में यह अनुपात सर्वाधिक है। वहां प्रति 10 लाख पर 57.74 न्यायाधीश हैं। दिल्ली में यह अनुपात 47.33 है और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में प्रति 10 लाख आबादी पर मात्र 10.54 न्यायाधीश हैं। पश्चिम बंगाल में न्यायाधीशों का यह अनुपात सबसे कम है। वहां प्रति 10 लाख की आबादी पर सिर्फ 10.45 न्यायाधीश हैं। कोई भी जज हर साल 2600 से ज्यादा मुकदमों का निबटारा नहीं कर पाता , जबकि नए दर्ज मालों की संख्या इससे कहीं अधिक होती है। दरअसल, ऊपरी अदालतों में न्यायाधीशों की संख्या संसद द्वारा कानून बनाकर ही बढ़ाई जा सकती है। विडंबना तो यह है कि काम के बोझ को देखते हुए नई नियुक्तियां तो हो नहीं रहीं, हां कुल स्वीकृत पदों पर भी जज आसीन नहीं है। 

आज कैमरों पर चल रही अदालतें  जमीन, निर्माण, पारिवारिक वाद और छोटे-मोटे मुकदमों में गवाही या फैसलों को टाल रहे हैं। जहां आम अदालतों मे हर दिन 60 से 70 केस सुने जाते थे, अजा दिल्ली जैसे महानगर में इनकी संख्या 10 से 12 रह गई है। निश्चित ही इससे लंबित मामलों की संख हर दिन बढ़ रही है और बंदियों की संख्या से भी जेल परेशान हैं। यह विडंबना है कि देश का बहुत बड़ा तबका थोडे़ से भी न्याय की उम्मीद न्यायपालिका से कर ही नहीं पाता है। गरीब लोग तो न्यायालय तक पहुंच ही नहीं पाते। इसकी औपचारिकताओं और जटिल प्रक्रियाओं के कारण केवल वकीलों द्वारा ही न्यायालय में बात कही जा सकती है, लेकिन गरीब लोग वकीलों की बड़ी-बड़ी फीसें नहीं दे सकते, वे न्याय से वंचित रह जाते हैं। वर्चुअल अदालत के दौर में देश के अस्सी फसदी वकील भी अदालत में खड़े नहीं हो पा रहे हैं। जो कुछ लोग न्यायालय तक पहुंच पाते हैं उन्हें यह उम्मीद नहीं होती कि एक निश्चित समयावधि में उनके विवाद का निपटारा हो पाएगा। मुकदमे के निर्णय में जितने समय की सजा दी जाती है उससे ज्यादा समय तो मुकदमों की सुनवाई में ही लग जाता है। 



वैसे भी हमारे न्याय-तंत्र में पुलिस और प्रभावशाली लोग न्यायिक प्रक्रिया को और भी ज्यादा दूरूह बना रहे हैं क्योंकि प्रभावशाली लोग पुलिस को अपने इशारों पर नचाते हैं और उन लोगों को डराने धमकाने और चुप कराने के लिए पुलिस का इस्तेमाल करते हैं जो अत्याचारी और शोषणपूर्ण व्यवस्था को बदलने का प्रयास कर रहे हैं। एक तरफ कैमरों पर न्याय प्रक्रिया जटिल है तो दूसरी ओर वकील या अदालतों पर कोई जिम्मेदारी या समयबद्धता का दवाब नहीं है। एक पेशी चूकने से उनके मुवक्किल की न्याय से दूरी कई साल की बढ़ जाती है। 



 हाल ही में दिल्ली दंगो के आरोप में गिरफ्तार उमर खलिद के वकील को जाच एजंसी ने बाकायदा मोबाईल पर संदेश भेज कर सूचित किया कि उनके मुवक्किल को अदालत में पेश किया जाएगा। जब वकील साहब कोई 30 किलोमीटर गाड़ी चला कर कोर्ट पहुंचे तो कह दिया कि अब वीडियो से पेशी होगी। अब वकील साहब के पास अदालत परिसर से सुनवाई के लिए अपने मोबाईल का सहारा रह गया और सभी जानते हैं कि दिल्ली में डाटा की स्पीड, कॉल ड्रापआउट की तरह हैं। यह बानगी है कि राजधानी दिल्ली में हाई प्रोफाईल केसों में वर्चुअल कोर्ट के नाम पर वकील व  अभियुक्त देानेंा निराश हैं। इस समय अदालतों का नियमित खुलना बेहद जरूरी है क्योंकि विचाराधीन कैदियों की जमानत या जमीन-जायदाद के मुकदमें जो आगे चल कर कानून-व्यवस्था को चुनौती बनते है।, पर नियमित सुनवाई अनिवार्य है। अदालतों में भीड़ नियंत्रित करने के कई तरीके हैं। मुजरिमों को कैमरे से जज के सामने पेश कर दिया जाए, मुजरिम की पैरवी वाले की संख्या एक ही रखी जाए, टाईपिंग, स्टांप वैंडर को रोस्टर के अनुसार एक दिन छोड़ कर एक दिन बुलाया जाए, वकेवल मुकदमें वाले वकीलों को ही अदालत आने दिया जाए- ऐसे कई एक उपाय हैं जिनके साथ अदालतो ंपर बढ़ रहे मुकदमों के बोझ को कम किया जा सकता है । साथ ही न्याय की आस में बैठे लोगों का इस प्रणाली पर भरोंसा भी जीवित रखा जा सकता है। 



क्या यह वक्त नही आ गया है कि लिखे कानून के बनिस्पत सुधार के लिए जरूरी कदमों या अपराध-निवारण को अपनाया जाए ?आज की न्यायीक व्यवस्था बेहद महंगी, डरावनी, लंबी खिंचने वाली है। गरीब लोग तो अदालतों की प्रक्रिया में सहभागी ही नहीं हो पाते हैं। उनके लिए न्याय की आस बेमानी है। साक्ष्य अधिनियम को सरल बनाना, सात साल से कम सजा वाले मामालों में सयब़ नीति बनाना, अदालतों में बगैर वकील की प्रक्रिया को प्रेरित करना, कोरोना जैसे हालत में तारीख आगे बढ़ाने की हर मुकदमें को समयबद्ध मान कर सुनवाई करना जैसे कदम अदालतों के प्रति आम आदमी के विश्वास को बहाल करने में मददगार हो सकते हैं। 

पंकज चतुर्वेदी






शनिवार, 12 सितंबर 2020

Need of special authority to protect traditional water tanks

 जरूरत है तालाबों को बचाने के लिए एक सशक्त निकाय की 

पंकज चतुर्वेदी 



यह बात किसी से छुपी नहीं है कि देश के 32 फीसदी हिस्से को पानी की किल्लत के लिए गरमी के मौसम का इंतजार भी नहीं करना पड़ता है- बारहों महीने, तीसों दिन यहां ‘जेठ’ ही रहता है। सरकार संसद में बता चुकी है कि देश की 11 फीसदी आबादी साफ पीने के पानी से महरूम है। वहीं जिन इलाकों की जनता जुलाई-अगस्त में अतिवृश्टि के लिए हाय-हाय करती दिखती है, सितंबर आते-आते उनके नल सूख जाते हैं। बारिश से सड़क व नदियां उफनती हैं और पानी देखते ही देखते गायब हो जाता है। इस पानी को सहेजने के लिए पारंपरिक स्त्रोत ताल-तलैया को तो सड़क, बाजार, कालोनी के कंक्रंीट जंगल खा गए । दूसरी तरफ यदि कुछ दशक पहले पलट कर देखें तो आज पानी के लिए हाय-हाय कर रहे इलाके अपने स्थानीय स्त्रोतों की मदद से ही खेत और गले दोनों के लिए अफरात पानी जुटाते थे। एक दौर आया कि अंधाधुंध नलकूप रोपे जाने लगे, जब तक संभलते जब तक भूगर्भ का कोटा साफ हो चुका था। ण्क बात और आज थोड़ी सी बरसात में आधुनिकता के प्रतीक षहरों में जिस तरह जल-भ्राव हो रहा है, उसका बारिकी से अध्ययन करे तो पता चलेगा कि पानी वहीं रूक रहा है जहां किसी पुराने तालाब , जोहड़ या जल-धारा को सुखा कर आबादी बसाई गई। जाहिर है कि तालाबों का न बचाना बाढ़ और सुखाड़ दोनों को न्यौता दे रहा है। 

समाज को एक बार फिर बीती बात बन चुके जल-स्त्रोतों की ओर जाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है - तालाब, कुंए, बावड़ी। लेकिन एक बार फिर पीढ़ियों का अंतर सामने खड़ा है, पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी ओर काम में लग गए और अब तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई है। यही नहीं सरकार का भी कोई एक महकमा मुकम्मल नहीं है जो सिमटते तालाबों के दर्द का इलाज कर सके। तालाब कहीं कब्जे से तो कहीं गंदगी से तो कहीं तकनीकी ज्ञान के अभाव से सूख रहे है।। कहीं तालाबों को जानबूझ कर गैरजरूरी मान कर समेटा जा रहा है तो कही उसके संसाधनों पर किसी एक ताकतवर का कब्जा है। ऐसे कई मसले हैं जो अलग-अलग विभागों, मंत्रालयों, मदों में बंट कर उलझे हुए हैं। देश के इतने बड़े प्राकृतिक संसाधन, जिसकी कीमत खरबों-खरब रूप्ए हैं के संरक्षण के लिए एक स्वतंत्र, ताकतवर प्राधिकरण महति है। 

तालाब केवल इस लिए जरूरी नहीं हैं कि वे पारंपरिक जल स्त्रोत हैं, तालाब पानी सहेजते हैं, भूजल का स्तर बनाए रखते हैं, धरती के बढ़ रहे तापमान को नियंत्रित करने में मदद करते हैं और उससे बहुत से लोगों को रोजगार मिलता है। सन 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे । कमीशन की रिर्पाट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई । आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया । चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना ; देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक ही है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक कई-कई सौ बेहतरीन तालाब होते थे। यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी होते थे । मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा , कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी ; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं । तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे  । शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है । 

वैसे तो मुल्क के हर गांव-कस्बे- क्षेत्र के तालाब अपने समृद्ध अतीत और आधुनिकता की आंधी में बर्बादी की एक जैसी कहानी कहते हैं। जब पूरा देश पानी के लिए त्राहि-त्राहि करता है, सरकारी आंकड़ो के षेर दहाड़ते हैं तब उजाड़ पड़े तालाब एक उम्मीद की किरण की तरह होते हैं। इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीटयूट फार द सेडिएरीडट्रापिक्स के विशेषज्ञ बोन एप्पन और श्री सुब्बाराव का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होता है । उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए ‘भारतीय तालाब प्राधिकरण’ का गठन किया जाना चाहिए । पूर्व कृषि आयुक्त बी. आर. भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिमि है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है । 

एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार तालाब और मैसूर राज्य में 39 हजार होने की बात अंग्रेजों का रेवेन्यू रिकार्ड दर्शाता है। दुखद है कि अब हमारी तालाब-संपदा अस्सी हजार पर सिमट गई है। देश भर में फैले तालाबों ,बावड़ियों और पोखरों की 2001-02 में गिनती की गई थी। देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या साढे पांच लाख से ज्यादा है, इसमें से करीब 4 लाख 70 हजार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं, जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं। यानी आजादी के बाद के 53 सालों में हमारा समाज कोई 20 लाख तालाब चट कर गया। बीस लाख तालाब बनवाने का खर्च आज बीस लाख करोड़ से कम नहीं होगा। दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 2005 में केंद्र सरकार ने जलाशयों  की मरम्मत , नवीकरण और जीर्णोध्दार ( आर आर आर ) के लिए योजना बनाई। ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया, योजना के अनुसार राज्य सरकारों को योजना को अमली जामा पहनाना था। इसके लिए कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ से और कुछ विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से मिलना था। इस योजना के तहत इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना, सामुदायिक  स्तर पर  बुनियादी ढाँचे का विकास करना था। गाँव ,ब्लाक, जिला व राय स्तर पर योजना को लागू किया गया है। हर स्तर पर तकनीति सलाहकार समिति का  गठन किया जाना था। केंद्रीय जल आयोग और  केंद्रीय भूजल बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने का  जिम्मा दिया गया, जबकि निरीक्षण का काम जल संसाधन मंत्रालय कर रहा है। बस खटका वही है कि तालाब का काम करने वाले दीगर महकमें तालाब तो तैयार कर रहे हैं, लेकिन तालाब को तालाब के लिए नहीं। मछली वाले को मछली चाहिए तो सिंचाई वाले को खेत तक पानी। जबकि तालाब र्प्यावरण, जल, मिट्टी, जीवकोपार्जन की एक एकीकृत व्यवस्था है और इसे अलग-अलग आंकना ही बड़ी भूल है। एक प्राधिकरण ही इस काम को सही तरीके से संभाल सकता है।

असल में तालाबों पर कब्जा करना इसलिए सरल है कि पूरे देश के तालाब अलग-अलग महकमों के पास हैं - राजस्व, विभाग, वन विभाग, पंचायत, मछली पालन, सिंचाई, स्थानीय निकाय, पर्यटन ...षायद और भी बहुत कुछ हों। कहने की जरूरत नहीं है कि तालाबों को हड़पने की प्रक्रिया में स्थानीय असरदार लोगों और सरकारी  कर्मचारी की भूमिका होती ही है। अभी तालाबों के कुछ मामले राश्ट्रीय हरित प्राधिकरण के पास हैं और चूंकि तालाबों के बारे में जानकारी देने का जिम्मा उसी विभाग के पास होता हे, जिसकी मिली-भगत से उस की दुर्गति होती है, सो हर जगह लीपापोती होती रहती हैं। आज जिस तरह जल संकट गहराता जा रहा है, जिस तरह सिंचाई व पेयजल की अरबों रूप्ए वाली योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं रही हैं, तालाबों का सही इस्तेमाल कम लागत में बड़े परिणाम दे सकता है। इसके लिए जरूरी है कि केंद्र में एक सशक्त तालाब प्राधिकरण गठित हो, जो सबसे पहले देशभर की जल-निधियों का सवे।ं करवा कर उसका मालिकाना हक राज्य के माध्यम से अपने पास रखे, यानी तालाबों का राश्ट्रीयकरण हो,। फिर तालाबों के संरक्षण, मरम्मत की व्यापक योजना बनाई जाए। यहां उल्लेखनीय है कि बुंदेलखंड के टीकमगढ जिले में  बराना के चंदेलकालीन तालाब को 35 किलोमीटर लंबी नहर के माध्यम से जामनी नदी से जोड़ा जा रहा है। इससे 18 गांव लाभान्वित होंगे। अब इस इलाके में केन-बेतवा नदी को जोड़ने की कई अरब की योजना लागू करने पर सरकार उतारू है, जबकि उसके बीस फीसदी व्यय पर छोटी, मौसमी नदियों को तालाबों से जोड़ने, तालाबों की मरम्मत और सहेजने का काम आसानी से हो सकता है। इस तरह की लघु योजनाएं तभी संभव है जब न्यायिक, राजस्व अधिकार प्राप्त तालाब प्राधिकरण पूरे देश के तालाबों को संरक्षित करने की जिम्मेदारी ले। 

हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नही है ,ना ही इसके लिए भारीभरकम मशीनों की जरूरत होती है। यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ठ पदार्थो के कारण ही उपजी है, जो उम्दा दर्जे की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट किया है? यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट व अन्य देशी खादों की ओर है। किसानों को यदि इस खादरूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे वे सहर्ष राजी हो जाते हैं।यदि जल संकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर्र इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है । एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए । जरूरत इस बात की है कि आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में ‘‘अपनी जड़ों को लौटने’’ की इच्छा शक्ति विकसित करनी होगी ।






शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

Hindon River producing illness for Delhi

करोड़ों को बीमारी बांट रहा हिंडन का जहरीला जल



 दिल्ली के पड़ोसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहने वार्ली हिंडन और उसकी सहायक कृष्णा व काली नदियों के हालात अब इतने खराब हो गए हैं कि उनसे दिल्ली के लोगों की सेहत खराब हो रही है। सहारनपुर, बागपत, मेरठ, शामली, मुजफ्फरनगर और गाजियाबाद के ग्रामीण अंचलों में इन नदियों ने भूजल तक को जहरीला बना दिया है। अक्तूबर 2016 में ही एनजीटी ने हिंडन के किनारे के हजारों हैंडपंप को बंद करके गांवों में पानी की वैकल्पिक व्यवस्था का आदेश दिया था। कुछ हैंडपंप बंद भी हुए, लेकिन चार साल बाद भी जब साफ पानी का विकल्प नहीं मिला, तो बेबस ग्रामीणों ने फिर उसी पानी को पीना शुरू कर दिया। विडंबना यह कि कोरोना-काल में कारखाने बंद होने के बावजूद हिंडन के हालात ज्यादा नहीं सुधरे, क्योंकि असल में यह नदी अब नाबदान बन गई है।

अगस्त 2018 में एनजीटी के सामने बागपत के गांगनोली गांव पर किया गया एक अध्ययन प्रस्तुत किया गया, जिसमें बताया गया था कि इस गांव में 71 लोग कैंसर के कारण मर चुके हैं और 47 अन्य इसकी चपेट में हैं। गांव में हजार से अधिक लोग पेट के गंभीर रोगों से ग्रस्त हैं और इसका मुख्य कारण हिंडन व कृष्णा का जल है। इस पर एनजीटी ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया, जिसने फरवरी 2019 में अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि हिंडन और उसकी सहायक नदियों के प्रदूषण के लिए मुजफ्फरनगर, शामली, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद और गौतमबुद्ध नगर के अशोधित सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट जिम्मेदार हैं। एनजीटी ने तब आदेश दिया था कि हिंडन का जल कम से कम नहाने के काबिल हो, यह सुनिश्चित किया जाए। मार्च 2019 में कहा गया कि इसके लिए एक ठोस कार्ययोजना छह महीने के भीतर पेश की जाए। समय-सीमा निकल गई, लेकिन बात कागजी घोड़ों से आगे बढ़ी ही नहीं। 
लेकिन हिंडन का जहर अब दिल्ली के लिए भी काल बन रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश चूंकि गंगा और यमुना का दोआब क्षेत्र है, इसलिए इसकी भूमि काफी उपजाऊ है और यहां के किसान दिल्ली की आबादी के लिहाज से ही अपने खेतों में फल-सब्जी, अनाज उगाते हैं। चूंकि इन फसलों की सिंचाई ज्यादातर हिंडन के जहरीले पानी से हो रही है, ऐसे में खाद्य पदार्थों के जरिए दिल्ली वालों की सेहत भी अब इससे प्रभावित होने लगी है।
ऐसी अनेक रिपोर्टें सरकारी फाइलों में दबी हुई हैं, जिनमें कहा गया है कि हिंडन के पानी को जहरीले रसायन का मिश्रण कहना बेहतर होगा। इसके पानी में ऑक्सीजन शून्य है। हालत यह है कि यदि कोई पानी में अपना हाथ डुबो दे और उसे फिर स्वच्छ  पानी से साफ न करे, तो उसे चर्मरोग हो सकता है। हिंडन को सीवर से रिवर बनाने के लिए एनजीटी चाहे जितने भी आदेश दे, मगर जब तक नीति-निर्माता इसकी मूल समस्याओं को नहीं समझेंगे, इस नदी का कायाकल्प नहीं हो सकता। इस नदी की मूल समस्याएं हैं- इसके नैसर्गिक मार्ग को बदलना, इसमें शहरी व औद्योगिक नालों का बिना किसी उपचार के गिरना, और तीसरा, इसके जलग्रहण क्षेत्र का अतिक्रमण। इन तीनों समस्याओं पर एक साथ काम किए बगैर हिंडन को बचाना मुश्किल है। 
दिक्कत यह है कि कुछ उद्योगों का बचाव कर रही राज्य सरकार अभी भी यह मानने को तैयार नहीं कि हिंडन का पानी जहरीला हो चुका है, जबकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण समिति ने राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण में कुछ ही वर्ष पहले बाकायदा यह स्वीकार किया था कि सहारनपुर से लेकर गौतमबुद्ध नगर तक हिंडन नदी का पानी काफी दूषित हो गया है।
हिंडन जहां भी शहरी क्षेत्रों से गुजर रही है, इसके जल-ग्रहण क्षेत्र में बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर दी गई हैं और इन कॉलोनियों के अपशिष्ट सीधे इसी में जाने लगे हैं। गाजियाबाद जिले में हिंडन तट पर कूड़ा फेंकने या इसमें मलबा डालने को लेकर न तो किसी को कोई भय है, और न ही संकोच। जाहिर है, इसके जहर का दायरा अब विस्तारित होता जा रहा है और देर-सवेर इसकी जद में वे भी आएंगे, जो इसे जहरीला बनाने में लिप्त हैं। सरकार गाजियाबाद में हिंडन पर रिवर फ्रंट बनाने की योजना बना रही है, लेकिन जब तक नदी का पानी साफ नहीं होगा, तब तक ऐसी कोई भी योजना नदी तट की जमीन को कब्जाने की कवायद ही मानी जाएगी।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

flood is becoming disaster due to dams

 बाढ नहीं बांध मचा रहे हैं तबाही 

पंकज चतुर्वेदी



अजीब विडंबना है कि जो मध्यप्रदेश अभी दो महीने पहले तक सूखे की आशंका से कांप रहा था, अब बरसात से हो रही तबाही से टूट रहा है। प्रदेश की जल कुंडली बांचे तो लगता है कि प्रकृति चाहे जितनी वर्षा कर दे, यहां की जल -निधियां इन्हें सहेजने में सक्षम हैं। लेकिन अंधाधुध रेत-उत्खनन, नदी क्षेत्र में अतिक्रमण, तालाबों  के गुम होने के चलते ऐसा हो नहींे पा रहा है और राज्य के चालीस फीसदी हिस्से में शहर में नदियां घुस गई हैं। इससे बदतर हालात तो रेगिस्तानी राज्य राजस्थान के हैं।  कोटा जैसे शहरों में नावें चल रही हैं। पंजाब, हिमाचल प्रदेश से ले कर केरल और उत्तर प्रदेश तक कुदरत की नियामत कहलाने वाला पानी अब कहर बना हुआ है। जरा बारिकी से देखें तो इस बाढ़ का असल कारण वे बांध हैं  जिन्हें भविश्य के लिए जल-संरक्षण या बिजली उत्पापन के लिए अरबों रूपए खर्च कर बनाया गया था। किन्हीं बांधों की उम्र पूरी हो गई है तो कही सिल्टेज है और कई जगह जलवायु परिवर्तन जैसे खतरे के चलते अचानक तेज बरसात के अंदाज के मुताबिक उसकी संरचना ही नहीं रखी गई।  जहां-जहां बांध के दरवाजे खोले जा रहे हैं या फिर ज्यादा पानी जमा करने के लालच में खोले नहीं जा रहे, पानी बस्तियों में घुस रहा है। संपत्ति का नुकसान और लोगों की मौत का आकलन करें तो पाएंगे कि बांध महंगा सौदा रहे हैं। 



केंद्र सरकार की बाढ़ स्थिति की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक करीब एक करोड़ लोग बाढ़ से प्रभावित हो चुके हैं। इस साल अभी तक बाढ़ की चपेट मे आ कर 868 लोग जान गंवा चुके हैं। ये मौतें असल में पानी के बस्ती में घुसने या तेज धार में फंसने के कारण हुई हैं। अभी तक  बाढ़ के कारण संपत्ति के नुकसान का सटीक आंकड़ा नहीं आया है लेकिन सार्वजनिक संपत्ति जैसे सड़क आदि,खेतों में खड़ी फसल, मवेशी, मकान आदि की तबाही करोड़ो में ही है। जिस सरदार सरोवर को देश के विकास का प्रतिमान कहा जा रही है, उसे अपनी पूरी क्षमता से भरने की जिद में उसके दरवाजे खोले नहीं गए और मध्यप्रदेश के बड़वानी और धार जिले के कोई 45 गांव पूरी तरह नष्ट हो गए। निसरपुर, राजघाट, चिखल्दा आदि तो बड़े कस्बे हैं और उनमें कई दिनों से आठ से दस फुट पानी भरा है। 



बिहार के 11 जिलों में बाढ़ का कारण केवल और केवल तो बांधों का टूटना है या फिर क्षमता से ऊपर बहने वाले बांधों के दरवाजे खोलना है। मुजफ्फरपुर जिले के महम्मदपुर कोठी स्थित बूढ़ी गंडक की सहयक तिरहुत का बध्ंा टूटा तो कई गांवों में तबाही आ गई दरभंगा के केवटी, बेनीपुरा, पूर्वी महाराजी, कमला बंाध से सौ से अधिक गंावों को जलमग्न कर दिया।  सारण और सत्तरघाट के बांध से तो 500 से ज्यादा गांव के लोगों का सबकुछ लुट गया। उप्र के देवरिया में बाया नदी का बंध दूसरी बार टूटा तो 500 परिवार बेध्ज्ञर हुए। मेरठ जिले के हस्तिनापुर में गंगा का तटबंध टूटने से आठ गांव खाली हो गए।  बस्तर अंचल में तो ऐसी कई घटनांए हुईं। महाराश्ट्र के गडचिरोली में जब बादल जम कर बरस रहे थे, तभी सीमा पर तेलंगाना सरकार के मेंड्डीकट्टा बांध के सारे 65 दरवाजे खोल दिए गए। जब तीन लाख 81 हजार 600 क्यूसिक पानी सिरोंचा तहाील के गांवों तक भरा तो वहां तबाही ही थी। इधर मध्यप्रदेश में गांधी सागर व बाध सागर डेम के दरवाजे खोलने से नर्मदा व सोन के जल स्तर में भारी वृद्धि से तट पर बसे सैंकड़ों गांव खतरे में है।। आजाद भारत के पहले बड़े बांध ,बिलासपुर जिले में स्थित भाखड़ा बांध के फ्लड गेट खोल कर जैसे ही करीब 63 हजार क्यूसेक पानी छोड़ा गया पंजाब व हिमाचल के कई इलाकों में बाढ़ आ गई। खासतौर पर सतलुज के किनारे बसे इलाकांमें ज्यादा पानी भरा। दक्षिणी राज्यों, खासतौर पर केरल में  लगातार दूसरे साल बाढ़ के हालात के लिए पर्यावरणीय कारकों के अलावा बेतहाशा बांधों की भूमिका अब सामने आ रही है। उ.प्र में गंगा व यमुना को जहां भी बांधने के प्रयास हुए, वहां इस बार जल-तबाही हे। दिल्ली में इस बार पानी बरसा नहीं लेकिन हथिनि कुड बेराज में पानी की आवक बढ़ते ही दरवाजे खाले जाते हैं व दिल्ली में हजारों लोगों को विस्थापित करना पड़ता है। 



द एशियन डेवलपमेंट बैंक के अनुसार भारत में प्राकृतिक आपदाओं में बाढ़ सबसे ज्यादा कहर बरपाती है। देश में प्राकृतिक आपदाओं के कुल नुकसान का 50 प्रतिशत केवल बाढ़ से होता है। बाढ़ से 65 साल में लोगों की मौत 1,09,414 हुई और 25.8 करोड़ हेक्टेयर फसलों को नुकसान हुआ।  अनुमान है कि कुल आर्थिक नुकसान 4.69 लाख करोड़ का होगा। कभी इसका अलग से अध्ययन हुआ नहीं लेकिन बारिकी से देखें तो सबसे ज्यादा नुकसान बांध टूटने या दरवाजे खालने से आई विपदा से हुआ है। मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों का त्रासदी है । बड़े बांध जितना लाभ नहीं देते, उससे ज्यादा विस्थापन, दलदली जमीन और हर बरसात में उससे होने वाली तबाही के खामियाजे हैं। यह दुर्भाग्य है कि हमारे यहां बांधों का रखरखाव हर समय भ्रश्टाचार की भेट चढता है। ना उनकी गाद ठिकाने से साफ होती है और ना ही सालाना मरम्मत। उनसे निकलने वाली नहरें भी अपनी क्षमता से जल -प्रवाह नहीं करतीं क्योंकि उनमें भरी गाद की सफाई केवल कागजों पर होती है। कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विशयों का हमारे यहां कभी निश्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठा कर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी , नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीशण विभीशिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।

पानी इस समय विश्व के संभावित संकटों में षीर्श पर है । पीने के लिए पानी, उद्योग , खेेती के लिए पानी, बिजली पैदा करने को पानी । पानी की मांग के सभी मोर्चों पर आशंकाओं व अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं । बरसात के पानी की हर एक बूंद को एकत्र करना व उसे समुद्र में मिलने से रोकना ही इसका एकमात्र निदान है। इसके लिए बनाए गए बड़े भारी भरकम बांध कभी विकास के मंदिर कहलाते थे । आज यह स्पश्ट हो गया है कि लागत उत्पादन, संसाधन सभी मामलों में ऐसे बांध घाटे का सौदा सिद्ध हो रहे हैं । विश्व बांध आयोग  के एक अध्ययन के मुताबिक समता, टिकाऊपन, कार्यक्षमता, भागीदारीपूर्ण निर्णय प्रक्रिया और जवाबदेही जैसे पांच मूल्यों पर आधारित है और इसमें स्पश्ट कर दिया गया है कि ऐसे निर्माण उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे हैं ।  यदि पानी भी बचाना है और तबाही से भी बचना है तो नदियां को अविरल बहने दें और उसे बीते दो सैा साल के मार्ग पर कोई निर्माण न करें। 


Technology can prepare excellent teacher for New Education policy

 नई शिक्षा नीति के लिए महिला हो सकती हैं बेहतर नई शिक्षक 

पंकज चतुर्वेदी 




33 साल बाद देश के लिए बनी नई शिक्षा. नीति का दर्शन भारतीय लोकाचार में निहित एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का विकास करना है जो कि  जो “इंडिया” को “भारत” में बदलने की षक्ति बन सके। कोई तीन साल तक देश के हजारों लोगों से विमर्श के बाद तैयार इस दस्तावेज में शिक्षा को डिगरी से कहीं ज्यादा व्यावसायिक कौशल से जोड़ने और समतामूलक और जीवंत ज्ञान समाज के निर्माण की बात कही गई है।  सभी को उच्च-गुणवत्ता की शिक्षा मिले, ताकि भारत एक वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बन सके , इसके लिए ढेर सारे प्रायोगिक, ई-लर्निंग और आर्टिफिशयल इंटेलीजेंस जैसी तकनीक के इस्तेमाल के साथ शिक्षण संस्थाओं को साधन संपन्न बनाने पर ज्यादा ध्यान दिया गया है। गौर करने वाली बात है कि वैसे भी शिक्षिका का कार्य महिलाओं की पहली पसंद होता है। अब बदलने वाले पढ़ने-पढ़ाने के रंग-ढंग में महिलाओं के लिए संभावना और प्राथमिकता भी अधिक दिख रही है।

इस नीति का असल उद्देशय है कि हमारे संस्थानों के पाठ्यक्रम और शिक्षाशास्त्र इस तरह हों ताकि मौलिक कर्तव्यों और संवैधानिक मूल्यों के प्रति सम्मान की गहरी भावना, अपने देश के साथ अटूट संबंध, और एक बदलती दुनिया में अपनी  भूमिकाओं और जिम्मेदारियों के बारे में जागरूकता विकसित की जा सके । न केवल विचार में, बल्कि आत्मा, बुद्धि और कर्मों में, बल्कि भारतीय होने में एक गहन-गर्वित गर्व पैदा करने के लिए, साथ ही साथ ज्ञान, कौशल, मूल्यों और प्रस्तावों को विकसित करने के लिए, जो मानव अधिकारों के लिए जिम्मेदार प्रतिबद्धता का समर्थन करते हैं, सतत विकास और जीवन ,और वैश्विक कल्याण, जिससे वास्तव में एक वैश्विक नागरिक प्रतिबिंबित हो। जाहिर है कि इस तरह की एक सामाजिक भावना का संचार करने में एक मां या बहन की भूमिका ज्यादा कारगर होगी क्योंकि वह अपने परिवार में यह भूमिका निभाती रहती है। 

नई शिक्षा नीति में प्रौद्योगिकी के उपयोग और एकीकरण पर सर्वाधिक जोर दिया गया है। विद्यालयीन और उच्च शिक्षा दोनों के लिए , एक स्वायत्त निकाय, राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी फोरम (एनईटीएफ) का गठन होगा जो , सीखने, मूल्यांकन, नियोजन, प्रशासन, आदि के लिए प्रौद्योगिकी के उपयोग पर विचारों के मुक्त आदान-प्रदान के लिए एक मंच प्रदान करेगा । एनईटीएफ ,शैक्षिक प्रौद्योगिकी में बौद्धिक और संस्थागत क्षमता का निर्माण, अनुसंधान और नवाचार के लिए नई दिशाओं को विकसित करना जैसे कार्य करेगी। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में तकनीकी हस्तक्षेप  के साथ मूल्यांकन, टीचर-ट्रैनिंग और वंचित और अभी तक शिक्षा से दूर समुदाय तक अक्षर ज्योति पहुंचाने का कार्य किया जाएगा। 

इस नई नीति में शिक्षकों के अत्याधुनिक तकनीक के साथ प्रशिक्षण, उन्हें  विभिन्न दूरस्थ शिक्षा उपकरणों पर काम करने, ई लर्निंग के नए पाठ्यक्रम खुद तैयार  करने, स्थानीय भाशा बोली में शिक्षा और एक से अधिक भाशा के ज्ञान के लिए सॉफ्टवेयर के प्रयोग के सतत प्रशिक्षण की बात की गई है। 

स्पश्ट है कि अब दूरस्थ अंचलों तक भवन बनाने, उसमें शिक्षक व अन्य स्टाफ की नियुक्ति, वे सही समय पर पहुच रहे हैं कि नहीं, इसकी मानिटरिंग जैसे खर्चीले काम के बनिस्पत सरकार हर हाथ में स्मार्ट फोन या टैबलेट देना चाहती है ताकि कहीं दूर बैठा एक शिक्षक इन्हें पाठ पढ़ा सके, उनकी परीक्षा भी ले सके। अभी तक ग्रामीण क्षेत्रों में मलिा शिक्षक की नियुक्ति में सबसे बड़ी दिक्कत उनका वहां तक आना-जाना या वहां रह नहीं पाना होता था। नए प्रणाली में श्क्षििका जो उर्जा व समय आने-जाने में व्यय करती, उसका इस्तेमाल बेहतर दूरस्थ कक्षा प्रबध्ंान में कर पाएंगी।

इस नीति के मूल में शिक्षक को बदलती दुनिया के मुताबिक प्रशिक्षित करने पर बहुत अधिक और समयबद्व जोर दिया गया है। कहा गया है कि स्कूलों में शिक्षकों के लिए ऐसे उपयुक्त उपकरण उपलब्ध कराए जाएंगे ताकि वे सीखने-सीखाने के तरीकों का ई-सामग्री के साथ सामंजस्य बैठा सकें  और ऑन लाइन ओर डिजिटल शिक्षा-तकनीक का उचित इस्तेमाल सुनिश्चित कर सर्कें  । ऑनलाइन शिक्षण मंच और उपकरण ,मौजूदा ई-लर्निंग प्लेटफॉर्म जैसे स्वयं, दीक्षा आदि को इस तरह विस्तारित किया जाएगा ताकि शिक्षकों को शिक्षार्थियों की प्रगति की निगरानी के लिए एक संरचित, उपयोगकर्ता के अनुकूल, समृद्ध माध्यम मिल सके।

जब भारत के समााजिक-आर्थिक समीकरण बदल रहे हैं, जाति-समाज-लिंग की दीवारें छोटी हो रही हैं, जब शिक्षा बदलाव, रोजगार का साधन बन रही है, तब भारत की शिक्षा नीति महज आंकड़ों, दावों और नारों में उलझी है। सरकारें बदलते ही भाषा और इतिहास को बदलने की सियासत शुरू हो जाती है। आजादी के बाद हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग को कभी गंभीरता से नहीं लिया । इसमें इतने प्रयोग हुए कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया । हम गुणात्मक दृष्टि से पीछे जाते गए, मात्रात्मक वृद्वि भी नहीं हुई । कुल मिला कर देखें तो शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक दूसरे में उलझ गए व एक गफलत की स्थिति बन गई । शिक्षा या स्कूल एक पाठ्यक्रम को पूरा करने की जल्दी, कक्षा में ब्लेक बोर्ड, प्रश्नों को हल करने की जुगत में उलझ कर रह गया । दूसरी तरफ बच्चे के लिए शिक्षा एकालाप है, एक तरफ से सवाल दूसरी तरफ से जवाब और उसी से तय हो जाता है कि बच्चा कितना योग्य है। योग्य? किस बात के लिए योग्य? समाज में जीने के लिए प्रकृति को पहचानने के , रोजगार के या -- ऐसे ही किसी जमीनी धरातल के ? नहीं महज एक ऐसा कागज का टुकड़ा पाने के योग्य हो जाता है जिससे उसका स्कूल का कमरा तो बदल जाता है लेकिन जीवन की असलियत से सामना करने की क्षमता बढ़ती नहीं। 

जिस देश में मोबाईल कनेक्शन की संख्या देश की कुल आबादी के लगभग करीब पहुंच रही हो, जहां किशोर ही नहीं 12 साल के बच्चे के लिए मोबाईल स्कूली-बस्ते की तरह अनिवार्य बनता जा रहा है, वहां बच्चों को डिजिटल साक्षरता, जिज्ञासा, सृजनशीलता, पहल और सामाजिक कौशलों की ज़रूरत । हालांकि यह भी सच है कि स्कूल में बच्चों को मोबाईल का इस्तेमाल शिक्षा के राते में बाधक माना जाता है, परिवार भी बच्चों को अनचाहे तरीके से कड़ी निगरानी(जहां तक संभव हो) के बीच मोबाईल थमाते हैं। वास्तविकता यह है कि सस्ते डाटा के साथ हाथों में बढ़ रहे मोबाईल का सही तरीके से इस्तेमाल खुद को शिक्षक कहने वालों के लिए एक खतरा सरीखा है। हमारे यहां बच्चों को मोबाईल के सटीक इस्तेमाल का कोई पाठ किताबांें में हैं ही नहीं। 

भारत में शिक्षा का अधिकार  व कई अन्य कानूनों के जरिये बच्चों के स्कूल में पंजीयन का आंकड़ा और साक्षरता दर में वृद्धि निश्चित ही उत्साहवर्धक है लेकिन जब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात आती है तो यह आंकड़ा हमें शर्माने को मजबूर करता है कि हमारे यहां आज भी 10 लाख शिक्षकों की कमी है। जो शिक्षक हैं भी वे महज उनको दिए गए कोर्स को पढ़ाने को ही अपनी ड्यूटी समझते हैं। कुछ इक्का-दुक्का नवाचार की बात करते हैं तो उन्हें सिस्टम का सहयोग मिलता नहीं है। 

आज स्कूली बच्चे को मिडडे मील लेना हो या फिर वजीफा हर जगह डिजिटल साक्षरता की जरूरत महसूस हो रही है।  हम पुस्तकों में पढ़ाते हैं कि गाय रंभाती है या शेर दहाड़ता है। कोई भी शिक्षक यह सब अब मोबाईल पर सहजता से बच्चों को दिखा कर  अपने पाठ को कम शब्दों में सहजता से समझा सकता है। मोबाईल पर सर्च इंजन का इस्तेमाल, वेबसाईट पर उपलब्ध सामग्री में यह चीन्हना कि कोैन सी पुष्ट-तथ्य वाली नहीं है,  अपने पाठ में पढ़ाए जा रहे स्थान, ध्वनि, रंग , आकृति को तलाशना व बूझना प्राथमिक शिक्षा में शमिल होना चाहिए। किसी दृश्य को  चित्र या वीडिया के रूप में सुरक्षित रखना एक कला के साथ-साथ सतर्कता का भी पाठ है। मैंने अपने रास्ते में कठफोडवा देखा, यह जंगल महकमे के लिए सूचना हो सकती है कि हमारे यहां यह पक्षी भी आ गया है। साथ ही आवाजों को रिकार्ड करना, भी महत्वूपर्ण कार्य है। 

दुखद है कि जब डिजिटल गजेट्स हमारे लेन-देन, व्यापार, परिवहन, यहां तक कि अपनी पहचान के लिए अनिवार्य होते जा रहे हैं हम बच्चों को वहीं घिसे-पिटे विषयों पर ना केवल पढ़ा रहे हैं, बल्कि रटवा रहे हैं। हाथ व समाज में गहरे तक घुस गए मोबाईल का इस्तेमाल छोटेपन से ही सही तरीके से ना सिखा पाने का ही कुपरिणाम है कि बच्चे पोर्न, अपराध देखने के लिए इस ज्ञान के भंडार का इस्तेमाल कर रहे हैं। यूट्यूब ऐसे वीडियो से पटी पड़ी  है जिनमें सुदूर गांव-देहात में किन्हीं लड़के-लड़कियों के मिलन के दृश्य होते हैं।  काश अपने पाठ के एक हिस्से से संबंधित फिल्म बनाने जैसा कोई अभ्यास इन बच्चों के सामने होता तो वे काले अक्ष्रों में छपी अपनी पाठ्य पुस्तक को दृश्य-श्रव्य से सहजता से प्रस्तुत करते। जान लें इस यंत्र को जागरूकता के लिए इस्तेमाल करने का प्रारंभ स्कूली स्तर से ही होना है। 

हमारे शिक्षक आज भी बीएड, एलटी या बीएलएड पाठ्यक्रमांे को उर्त्तीण कर आ रहे है जहां कागज के चार्ट, थर्माकोल के मॉडल या बेकार पड़ी माचिस, आईसक्रीम की डंडी से कुछ बना कर बच्चों को विषय समझाने की प्रक्रिया से गुणवत्ता का निर्धारण होता है। रंग और परिकल्पना के क्षेत्र में वैचारिक रूप से कंगाल हो रहे बच्चों को नकल या नदी-झोपड़ी-पहाड़ वाली सीनरी खींचने से उबारने के लिए शिक्षकों को नई तकनीक का सहरा लेना होगा। एक मोटा अनुमान है कि अभी हमें ऐसे कोई साढ़े छह लाख शिक्षक चाहिए जो कि सूचना-विस्फोट के युग में तेजी से किशोर हो रहे बच्चों में शिक्षा की उदासी व उबासी दूर कर, नए तरीके से , नई दुनिया की समझ विकसित करने में सहायक हों।  इस तरह के नए माध्यम में एक महिला की सृजनात्मक अभिरूचि, सकारात्मक दृश्टिकोण और बालमन को परखने की क्षमता जादूई असर कर सकती हैं।


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