बाढ नहीं बांध मचा रहे हैं तबाही
पंकज चतुर्वेदी
अजीब विडंबना है कि जो मध्यप्रदेश अभी दो महीने पहले तक सूखे की आशंका से कांप रहा था, अब बरसात से हो रही तबाही से टूट रहा है। प्रदेश की जल कुंडली बांचे तो लगता है कि प्रकृति चाहे जितनी वर्षा कर दे, यहां की जल -निधियां इन्हें सहेजने में सक्षम हैं। लेकिन अंधाधुध रेत-उत्खनन, नदी क्षेत्र में अतिक्रमण, तालाबों के गुम होने के चलते ऐसा हो नहींे पा रहा है और राज्य के चालीस फीसदी हिस्से में शहर में नदियां घुस गई हैं। इससे बदतर हालात तो रेगिस्तानी राज्य राजस्थान के हैं। कोटा जैसे शहरों में नावें चल रही हैं। पंजाब, हिमाचल प्रदेश से ले कर केरल और उत्तर प्रदेश तक कुदरत की नियामत कहलाने वाला पानी अब कहर बना हुआ है। जरा बारिकी से देखें तो इस बाढ़ का असल कारण वे बांध हैं जिन्हें भविश्य के लिए जल-संरक्षण या बिजली उत्पापन के लिए अरबों रूपए खर्च कर बनाया गया था। किन्हीं बांधों की उम्र पूरी हो गई है तो कही सिल्टेज है और कई जगह जलवायु परिवर्तन जैसे खतरे के चलते अचानक तेज बरसात के अंदाज के मुताबिक उसकी संरचना ही नहीं रखी गई। जहां-जहां बांध के दरवाजे खोले जा रहे हैं या फिर ज्यादा पानी जमा करने के लालच में खोले नहीं जा रहे, पानी बस्तियों में घुस रहा है। संपत्ति का नुकसान और लोगों की मौत का आकलन करें तो पाएंगे कि बांध महंगा सौदा रहे हैं।
केंद्र सरकार की बाढ़ स्थिति की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक करीब एक करोड़ लोग बाढ़ से प्रभावित हो चुके हैं। इस साल अभी तक बाढ़ की चपेट मे आ कर 868 लोग जान गंवा चुके हैं। ये मौतें असल में पानी के बस्ती में घुसने या तेज धार में फंसने के कारण हुई हैं। अभी तक बाढ़ के कारण संपत्ति के नुकसान का सटीक आंकड़ा नहीं आया है लेकिन सार्वजनिक संपत्ति जैसे सड़क आदि,खेतों में खड़ी फसल, मवेशी, मकान आदि की तबाही करोड़ो में ही है। जिस सरदार सरोवर को देश के विकास का प्रतिमान कहा जा रही है, उसे अपनी पूरी क्षमता से भरने की जिद में उसके दरवाजे खोले नहीं गए और मध्यप्रदेश के बड़वानी और धार जिले के कोई 45 गांव पूरी तरह नष्ट हो गए। निसरपुर, राजघाट, चिखल्दा आदि तो बड़े कस्बे हैं और उनमें कई दिनों से आठ से दस फुट पानी भरा है।
बिहार के 11 जिलों में बाढ़ का कारण केवल और केवल तो बांधों का टूटना है या फिर क्षमता से ऊपर बहने वाले बांधों के दरवाजे खोलना है। मुजफ्फरपुर जिले के महम्मदपुर कोठी स्थित बूढ़ी गंडक की सहयक तिरहुत का बध्ंा टूटा तो कई गांवों में तबाही आ गई दरभंगा के केवटी, बेनीपुरा, पूर्वी महाराजी, कमला बंाध से सौ से अधिक गंावों को जलमग्न कर दिया। सारण और सत्तरघाट के बांध से तो 500 से ज्यादा गांव के लोगों का सबकुछ लुट गया। उप्र के देवरिया में बाया नदी का बंध दूसरी बार टूटा तो 500 परिवार बेध्ज्ञर हुए। मेरठ जिले के हस्तिनापुर में गंगा का तटबंध टूटने से आठ गांव खाली हो गए। बस्तर अंचल में तो ऐसी कई घटनांए हुईं। महाराश्ट्र के गडचिरोली में जब बादल जम कर बरस रहे थे, तभी सीमा पर तेलंगाना सरकार के मेंड्डीकट्टा बांध के सारे 65 दरवाजे खोल दिए गए। जब तीन लाख 81 हजार 600 क्यूसिक पानी सिरोंचा तहाील के गांवों तक भरा तो वहां तबाही ही थी। इधर मध्यप्रदेश में गांधी सागर व बाध सागर डेम के दरवाजे खोलने से नर्मदा व सोन के जल स्तर में भारी वृद्धि से तट पर बसे सैंकड़ों गांव खतरे में है।। आजाद भारत के पहले बड़े बांध ,बिलासपुर जिले में स्थित भाखड़ा बांध के फ्लड गेट खोल कर जैसे ही करीब 63 हजार क्यूसेक पानी छोड़ा गया पंजाब व हिमाचल के कई इलाकों में बाढ़ आ गई। खासतौर पर सतलुज के किनारे बसे इलाकांमें ज्यादा पानी भरा। दक्षिणी राज्यों, खासतौर पर केरल में लगातार दूसरे साल बाढ़ के हालात के लिए पर्यावरणीय कारकों के अलावा बेतहाशा बांधों की भूमिका अब सामने आ रही है। उ.प्र में गंगा व यमुना को जहां भी बांधने के प्रयास हुए, वहां इस बार जल-तबाही हे। दिल्ली में इस बार पानी बरसा नहीं लेकिन हथिनि कुड बेराज में पानी की आवक बढ़ते ही दरवाजे खाले जाते हैं व दिल्ली में हजारों लोगों को विस्थापित करना पड़ता है।
द एशियन डेवलपमेंट बैंक के अनुसार भारत में प्राकृतिक आपदाओं में बाढ़ सबसे ज्यादा कहर बरपाती है। देश में प्राकृतिक आपदाओं के कुल नुकसान का 50 प्रतिशत केवल बाढ़ से होता है। बाढ़ से 65 साल में लोगों की मौत 1,09,414 हुई और 25.8 करोड़ हेक्टेयर फसलों को नुकसान हुआ। अनुमान है कि कुल आर्थिक नुकसान 4.69 लाख करोड़ का होगा। कभी इसका अलग से अध्ययन हुआ नहीं लेकिन बारिकी से देखें तो सबसे ज्यादा नुकसान बांध टूटने या दरवाजे खालने से आई विपदा से हुआ है। मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों का त्रासदी है । बड़े बांध जितना लाभ नहीं देते, उससे ज्यादा विस्थापन, दलदली जमीन और हर बरसात में उससे होने वाली तबाही के खामियाजे हैं। यह दुर्भाग्य है कि हमारे यहां बांधों का रखरखाव हर समय भ्रश्टाचार की भेट चढता है। ना उनकी गाद ठिकाने से साफ होती है और ना ही सालाना मरम्मत। उनसे निकलने वाली नहरें भी अपनी क्षमता से जल -प्रवाह नहीं करतीं क्योंकि उनमें भरी गाद की सफाई केवल कागजों पर होती है। कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विशयों का हमारे यहां कभी निश्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठा कर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी , नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीशण विभीशिका का मुंह-तोड़ जवाब हो सकते हैं।
पानी इस समय विश्व के संभावित संकटों में षीर्श पर है । पीने के लिए पानी, उद्योग , खेेती के लिए पानी, बिजली पैदा करने को पानी । पानी की मांग के सभी मोर्चों पर आशंकाओं व अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं । बरसात के पानी की हर एक बूंद को एकत्र करना व उसे समुद्र में मिलने से रोकना ही इसका एकमात्र निदान है। इसके लिए बनाए गए बड़े भारी भरकम बांध कभी विकास के मंदिर कहलाते थे । आज यह स्पश्ट हो गया है कि लागत उत्पादन, संसाधन सभी मामलों में ऐसे बांध घाटे का सौदा सिद्ध हो रहे हैं । विश्व बांध आयोग के एक अध्ययन के मुताबिक समता, टिकाऊपन, कार्यक्षमता, भागीदारीपूर्ण निर्णय प्रक्रिया और जवाबदेही जैसे पांच मूल्यों पर आधारित है और इसमें स्पश्ट कर दिया गया है कि ऐसे निर्माण उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे हैं । यदि पानी भी बचाना है और तबाही से भी बचना है तो नदियां को अविरल बहने दें और उसे बीते दो सैा साल के मार्ग पर कोई निर्माण न करें।
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