My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

climate change poses a threat to agriculture

 खेती को खतरा बनता बदलता मौसम 
पंकज चतुर्वेदी


फरवरी-2023 का दूसरा हफ्ता  समूचे हिमाचल प्रदेश के लिए तपती गर्मी ले आया हे। भले ही पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोग  इसे घाटे का मौसम कह रहे हैं लेकिन असली खतरा तो खेती पर मंडरा रहा है। जान लें  इस समय गेंहू जैसी फसलं पकने को तैयार है। और ऐसे में अचानक इतनी गर्मी होने से  दाने  का सिकुड़ना तय है।  कमजोर दाना का अर्थ है, एक तो वजन में कमी और दूसरा पौष्टिकता .  का अब बहुत देर नहीं है जब किसान के सामने बदलते मौसम के कुप्रभाव उसकी मेहनत और प्रतिफल के बीच खलनायक की तरह खड़े दिखेंगें। हालांकि बीते कुछ सालों में मौसम का चरम होना-खासकर अचानक ही बहुत सारी बरसात एक साथ हो जाने से खड़ी फसल की बर्बादी किसान को कमजोर करती रही है। 

धरती के तापमान में लगातार हो रही बढ़ौतरी और उसके गर्भ से उपजे जलवायु परिवर्तन का भीषण खतरा अब दुनिया के साथ-साथ भारत के सिर पर मंडरा रहा है। यह केवल असामयिक मौसम बदलाव या ऐसी ही प्राकृतिक आपदाओं तक सीमित नहीं रहने वाला, यह इंसान के भोजन, जलाशयों में पानी की शुद्धता, खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता, प्रजनन क्षमता से ले कर जीवन के उन सभी पहलुओं पर विषम प्रभाव डालने लगा है जिसके चलते प्रकृति का अस्तित्व और मानव का जीवन  सांसत में है। 

कृषि मंत्रालय के  भारतीय  कृषि  अनुसंधान परिशद का एक षोध बताता है कि सन 2030 तक हमारे धरती के तापमान में 0.5 से 1.2 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि अवश्यंभावी है। साल-दर-साल बढ़ते तापमान का प्रभाव सन 2050 में 0.80 से 3.16 और सन 2080 तक 1.56 से 5.44 डिग्री हो सकता है। जान लेकिन तापमान में एक डिग्री बढ़ौतरी का अर्थ है कि खेत में 360 किलो फसल प्रति हैक्टेयर की कमी आ जाना। इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते खेती के लिहाज से 310 जिलों को संवेदनशील माना गया है।  इनमें से 109 जिले बेहद संवेदनशील हैं जहां आने वाले एक दशक में ही उपज घटने, पशु धन से ले कर मुर्गी पालन व मछली उत्पाद तक कमी आने की संभावना है। तापमान बढ़ने से बरसात के चक्र में बदलाव, बैमौसम व असामान्य बारिश, तीखी गर्मी व लू, बाढ़ व सुखाड़ की सीधी मार किसान पर पड़ना है।  तक अभी तक गौण हैं। सरकारी आंकड़े भी बताते हैं कि खेती पर निर्भर जीवकोपार्जन करने वालों की संख्या भले ही घटे, लेकिन उनकी आय का दायरा सिमटता जा रहा है। सनद रहे कभी सूखे तो कभी बरसात की भरमार से किसान दशकों तक उधार में दबा रहता है और तभी वह खेती छोड़ने को मजबूर है। । 

भारत मौसम, भूमि-उपयोग, वनस्पति , जीव के मामले में व्यापक विविधता वाला देश है और यहां जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी कुछ सौ किलोमीटर की दूरी पर अलग किस्म से हो रहा है।  लेकिन पानी बचाने और कुपोषण व भूख से निबटने की चिंता पूरे देश में एकसमान है। हमारे देश में उपलब्ध ताजे पानी का 75 फीसदी अभी भी खेती में खर्च हो रहा है। तापमान बढ़ने से जल-निधियों पर मंडरा रहे खतरे तो हमारा समाज गत दो दशकों से झेल ही रहा है। प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल अकादमी ऑफ साइंस नामक जर्नल के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक शोध पत्र के अनुसार भारत को जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों को कम करते हुए यदि पोषण के स्तर को कायम रखना है तब रागी, बाजरा और जई जैसे फसलों का उत्पादन बढ़ाना होगा। इस अध्ययन को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट ने किया है।कोलंबिया यूनिवर्सिटी के डाटा साइंस इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ कैले डेविस ने भारत में जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभावों, पोषण स्तर, पानी की कमी, घटती कृषि उत्पादकता और कृषि विस्तार के लिए भूमि के अभाव पर गहन अध्ययन किया है और इस सन्दर्भ में । उनके अनुसार भारत में तापमान वृद्धि के कारण कृषि में उत्पादकता घट रही है और साथ ही पोषक तत्व भी कम होते जा रहे हैं। भारत को यदि तापमान वृद्धि के बाद भी भविष्य के लिए पानी बचाना है और साथ ही पोषण स्तर भी बढ़ाना है तो गेहूं और चावल पर निर्भरता कम करनी होगी। इन दोनों फसलों को पानी की बहुत अधिक आवश्यकता होती है और इनसे पूरा पोषण भी नहीं मिलता। डॉ कैले डेविस के अनुसार चावल और गेहूं पर अत्यधिक निर्भरता इसलिए भी कम करनी पड़ेगी क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है जहां तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर पड़ने की संभावना है और ऐसी स्थिति में इनकी उत्पादकता और पोषक तत्व दोनों पर प्रभाव पड़ेगा।

अमेरिका के आरेजोन राज्य की सालाना जलवायु परिवर्तन रिपोर्ट 2017 में चेता दिया गया था कि मौसम में बदलाव के कारण पानी को सुरक्षित रखने वाले जलाशयों में ऐसे शैवाल विकासित हो रहे हैं जो पानी की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहे हैं।  पिछले दिनो अमेरिका के कोई 60 हजार जलाशयों के जल का परीक्षण  वहां की नेशनल लेक असेसमेंट विभाग ने किया और पाया कि जब जलाशयों में मात्रा से कम पानी होता है तो उसका तापमान ज्यादा होता है और साथ ही उसकी अम्लीयता भी बढ़ जाती हे। जब बांध या जलाशय सूखते हैं तो उनकी तलहटी में कई किस्म के खनिज और अवांछित रसायन भी एकत्र हो जात हैं और जैसे ही उसमें पानी आता है तो वह उसकी गुणवत्ता पर विपरीत असर डालते हैं। सनद रहे ये दोनों ही हालात जल में जीवन यानी- मछली, वनस्पति आदि के लिए घातक हैं। भारत में तो यह हालात हर साल उभर रहे हैं कभी भयंकर सूख तो जलाशय रीते और कभी अचानक बरसात तो लबालब। 

यह तो सभी जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन या तापमान बढ़ने का बड़ा कारण विकास की आधुनिक अवधारणा के चलते वातावरण में बढ़ रही कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा है। हार्वर्ड टी.एच. चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की ताजा रिपोर्ट में बताती है कि इससे हमारे भोजन में पोषक तत्वों की भी कमी हो रही है। रिपेर्ट चेतावनी देती है कि धरती के तापमान में बढ़ौतरी खाद्य सुरक्षा के लिए दोहरा खतरा है। आईपीसीसी समेत कई अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में इससे कृषि उत्पादन घटने की आशंका जाहिर की गई है। इससे लोगों के समक्ष खाद्य संकट पैदा हो सकता है। लेकिन नई रिपोर्ट और बड़े खतरे की ओर आगाह कर रही है। दरअसल, कार्बन उत्सर्जन से भोजन में पोषक तत्वों की कमी हो रही है। रिपोर्ट के अनुसार कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी के कारण चावल समेत तमाम फसलों में पोषक तत्व घट रहे हैं। इससे 2050 तक दुनिया में 17.5 करोड़ लोगों में जिंक की कमी होगी, 12.2 करोड़ लोग प्रोटीन की कमी से ग्रस्त होंगे।.दरअसल, 63 फीसदी प्रोटीन, 81 फीसदी लौह तत्व तथा 68 फीसदी जिंक की आपूर्ति पेड़-पौंधों से होती है। जबकि 1.4 अरब लोग लौह तत्व की कमी से जूझ रहे हैं जिनके लिए यह खतरा और बढ़ सकता है। .

शोध में पाया गया कि जहां अधिक कार्बन डाईऑक्साइड की मौजूदगी में उगाई गई फसलों में तीन तत्वों जिंक, आयरन एवं प्रोटीन की कमी पाई गई है। वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में प्रयोग के जरिए इस बात की पुष्टि भी की है। .रिपोर्ट में कहा गया है कि कार्बन डाई आक्साइड पौधों को बढ़ने में तो मदद करता है। लेकिन पौधों में पोषक तत्वों की मात्रा को कम कर देता है।.यह रिपोर्ट भारत जैसे देशों के लिए अधिक डराती है क्योंकि हमारे यहां पहले से कुपोषण एक बड़ी समस्या है। 


सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

talents crushed in the numbers- race

 नंबरों की दौड़़ में पिसती प्रतिभाएं
पंकज चतुर्वेदी



जिन घरों में किशोर बच्चें हैं ,वहां अजीब सा तनाव है - अल्ल-सुबह या देर रात तक स्कूली बच्चे कंधे पर थैला लटकाए इधर से उधर भड़भड़ाते दिख रहे हैं। आखिर उनके बोर्ड के इम्तेहान अब सिर पर आ गए हैं। कहने को तो सीबीएसई ने नंबर की जगह ग्रेड को लागू कर दिया है, लेकिन इससे उस संघर्श का दायरा और बढ़ गया है जो बच्चों के आगे के एडमीशन, भविश्य या जीवन को तय करते हैं। ज्यादा नंबर लाने की होड़, दवाब, संघर्ष; और इसके बीच में पिसता किशोर ! अभी-अभी बचपन की दहलीज छोड़ी है और पहला अनुभव ही इतना कटु ? दुनिया क्या ऐसे ही गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा से चलती है? एक तरफ कालेजों में दाखिले की मारामार होगी, तो दूसरी ओर हायर सैकेंडरी में अपने पसंद के विषय लेने के लिए माकूल अंकों की दरकार का खेल। 


क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमता का तकाजा महज अंकों का प्रतिशत ही है ? वह भी उस परीक्षा प्रणाली में , जिसकी स्वयं की योग्यता संदेहों से घिरी हुई है । मूल्यांकन का आधार बच्चों की योग्यता ना हो कर उसकी कमजोरी है । यह सरासर नकारात्मक सोच है, जिसके चलते बच्चों में आत्महत्या, पर्चे बेचने-खरीदने की प्रवृति, नकल व झूठ का सहारा लेना जैसी बुरी आदतें विकसित हो रही हैं । शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस नंबर- दौड़ में गुम हो कर रह गया है ।



छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो. यशपाल कर रहे थे । समिति ने देशभर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी । उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है ना समझ पाने का बोझ । सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं । दो साल पहले आई नई शिखा नीति में भी बच्चों के कौशल के मूल्यांकन  पर कई बातें कही गई हैं लेकिन फिलजहाल वह जमीन पर उतरती दिखती नहीं।


चूंकि परीक्षा का वर्तमान स्वरूप आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है । अतः इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए । इसके विपरीत बीते एक दशक में कक्षा में अव्वल आने की गला काट में ना जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं । हायर सैकेंडरी के रिजल्ट के बाद ऐसे हादसे सारे देश में होते रहते हैं । अपने बच्चे को पहले नंबर पर लाने के लिए कक्षा एक-दो में ही पालक युद्ध सा लड़ने लगते हैं ।

समिति की दूसरी सिफारिश पाठ्य पुस्तक के लेखन में शिक्षकों की भागीदारी बढ़ा कर उसे विकेंद्रित  करने की थी । सभी स्कूलों को पाठ्य पुस्तकों और अन्य सामग्री के चुनाव सहित नवाचार के लिए बढ़ावा दिए जाने की बात भी इस रपट में थी । अब प्राईवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के षोशण का जरिया बन गया है । पब्लिक स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं । सरकार बदलने के साथ किताबें बदलने का दौर एनसीईआरटी के साथ-साथ विभिन्न राज्यों के पाठ्य पुस्तक निगमों में भी जारी हैं । पाठ्य पुस्तकों को स्कूल की संपत्ति मानने व उन्हें बच्चों को रोज घर ले जाने की जगह स्कूल में ही रखने के सुझाव ना जाने किस लाल बस्ते में बंध कर गुम हो गए । जबकि बच्च बस्ते के बोझ , कोर्स की अधिकता, अभिभावकों की अपेक्षाओं से कुठित होता जा रहा है ।


कुल मिला कर परीक्षा व उसके परिणामों ने एक भयावह सपने, अनिश्चितता की जननी व बच्चों के नैसर्गिक विकास में बाधा का रूप  ले लिया है । कहने को तो अंक सूची पर प्रथम श्रेणी दर्ज है, लेकिन उनकी आगे की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों ने भी दरवाजों पर षर्तों की बाधाएं खड़ी कर दी हैं । सवाल यह है कि शिक्षा का उद्देश्य क्या है - परीक्षा में स्वयं को श्रेश्ठ सिद्ध करना, विशयों की व्यावहारिक जानकारी देना या फिर एक अदद नौकरी पाने की कवायाद ? निचली कक्षाओं में नामांकन बढ़ाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान और ऐसी ही कई योजनाएं संचालित हैं । सरकार हर साल अपनी रिपोर्ट में ‘‘ड्राप आउट’’ की बढ़ती संख्या पर चिंता जताती है । लेकिन कभी किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि अपने पसंद के विशय या संस्था में प्रवेश ना मिलने से कितनी प्रतिभाएं कुचल दी गई हैं । एम.ए और बीए की डिगरी पाने वालों में कितने ऐसे छात्र हैं जिन्होंने अपनी पसंद के विशय पढ़े हैं । विशय चुनने का हक बच्चों को नहीं बल्कि उस परीक्षक को है जो कि बच्चों की प्रतिभा का मूल्यांकन उनकी गलतियों की गणना के अनुसार कर रहा है ।


नई शिक्षा नीति-2020 के दस्तावेज से यह ध्वनि निकलती थी कि अवसरों की समानता दिलाने तथा खाईयों को कम करके बुनियादी परिवर्तन से शिक्षा में परिवर्तन से आ जाएगा । दस्तावेज में भी शिक्षा के उद्देश्यों पर विचार करते हुए स्त्रोतों की बात आ गई है । उसमें बार-बार आय व्यय तथा बजट की ओर इशारे किए गए थे। इसे पढ़ कर मन में सहज ही प्रश्न उठता था कि देश की समूची आर्थिक व्यवस्था को निर्धारित करते समय ही शिक्षा के परिवर्तनशील ढ़ांचे पर विचार हो जाएगा । सारांश यह है कि आर्थिक ढांचा पहले तय होगा तब शिक्षा का ।  


आजादी के बाद हमारी सरकारों ने शिक्षा विभाग को कभी गंभीरता से नहीं लिया । इसमें इतने प्रयोग हुए कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया । हम गुणात्मक दृष्टि से पीछे जाते गए, मात्रात्मक वृद्वि भी नहीं हुई । कुल मिला कर देखें तो शिक्षा प्रणाली का उद्देश्य और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक दूसरे में उलझ गए व एक गफलत की स्थिति बन गई । शिक्षा या स्कूल एक पाठ्यक्रम को पूरा करने की जल्दी, कक्षा में ब्लेक बोर्ड, प्रश्नों को हल करने की जुगत में उलझ कर रह गया । 

एनसीईआरटी से आए रोज बयान आ रहे हैं जो कि शिक्षा व परीक्षा व्यवस्था को बदलने के सपने दिखा रहे हैं । लेकिन इस साल की प्रतिभाएं तो नंबरों की होड़ में होम हो गई हैं । क्या ये लोग अपने पुराने अनुभवों से कुछ सीखते हुए बच्चों की बौद्धिक समृद्धता व अपने प्रौढ़ जीवन की चुनौतियों से निबटने की क्षमता के विकास के लिए कारगर कदम उठाते हुए नंबरों की अंधी दौड़ पर विराम लगाने की सुध लेंगे ?


यह भी गौरतलब है कि कक्षा 12वीं की जिस परीक्षा को योग्यता का प्रमाणपत्र माना जा रहा है, उसे व्यावसायिक पाठ्यक्रम वाले महज एक कागज का टुकड़ा मानते हैं । इंजीनियरिंग, मेडिकल, चार्टेड एकाउंटेंट; जिस किसी भी कोर्स में दाखिला लेना हो, एक प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करनी होगी। मामला यहीं नहीं रूकता है, बच्चे को 12वीं पास करने के एवज में मिला प्रमाणपत्र उसकी उच्च शिक्षा की गारंटी भी नहीं लेता हैं। डिगरी कालेजों में भी ऊंचे नंबर पाने वालों की लिस्ट तैयार होती है और अनुमान है कि हर साल हायर सैकंडरी (राज्य या केंद्रीय बोर्ड से) पास करने वाले बच्चों का 40 फीसदी आगे की पढ़ाई से वंचित रह जाता है। ऐसे में पूरी परीक्षा की प्रक्रिया और उसके बाद के नतीजों को बच्चों के नजरिए से तौलने-परखने का वक्त आ गया है।


पंकज चतुर्वेदी

9891928376, 


शनिवार, 11 फ़रवरी 2023

Crying Ganga

 गंगा अब भी मैली ही

 ’नमामि गंगे’ की जगह अब ’अर्थ गंगा’ पर जोर जबकि स्वच्छ गंगा मिशन भी मान रहा कि नदी के निर्मल होने का सपना अब भी दूर। तीन साल बाद भी जलयान से माल ढुलाई अधर में। क्रूज कितने दिन चल पाएगाकहना मुश्किल

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पंकज चतुर्वेदी




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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने केन्द्र सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर सितंबर, 2022 में कड़ी टिप्पणी करते हुए यह तक कहा कि राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) ’आंखों में धूल झांक रही है’ और ’गंगा को साफ करने के लिए बहुत थोड़ा काम कर रही है।’ उसने यह भी कहा कि एनएमसीजी धन बांटने का उपकरण मात्र है और गंगा नदी को साफ करने को लेकर कोई भी गंभीर नहीं है।  कोर्ट ने कहा कि उत्तर प्रदेश जल निगम राज्य की कार्यदायी संस्था है लेकिन उसने खुद ही माना है कि इस परियोजना की देखरेख के लिए उसके पास योग्य इंजीनियर नहीं हैं। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास गंगा में प्रदूषण के लिए जिम्मेदार लोगों पर कार्रवाई के अधिकार हैं लेकिन वह किसी तरह की कार्रवाई करने में हिचकिचाई हुई लगती है।

भले ही कोर्ट की पिछले साल पहले की सुनवाई में की गई टिप्पणियों को भी मीडिया में उतनी तवज्जो नहीं मिली लेकिन कोर्ट ने कहा बहुत कुछ, ’हम जानते हैं कि नमामि गंगे परियोजना के अंतर्गत गंगा नदी को साफ करने के लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं लेकिन उनका शायद ही कोई असर हुआ है।’  वैसेयह भी दिलचस्प है कि कोर्ट जिस याचिका की सुनवाई कर रही हैवह पहली बार 2006 में दर्ज की गई थी जिसमें याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि पवित्र मानी जाने वाली नदी के पानी की गुणवत्ता बहुत खराब है और इसमें प्रदूषण भरा पड़ा है। कोर्ट इस पर लगातार सुनवाई कर रही है और पिछले साल ही इसने कम-से-कम चार तिथियों पर सुनवाई की हैहालात कुछ भी बदले हुए लगते तो नहीं।

वैसे भीपिछले दिनोंकोई तीन साल बाद प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में संपन्न हुई नमामि गंगे परियोजना की समीक्षा बैठक में भी ये बातें ही सामने आईं कि जितना धन और लगन इस महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए समर्पित की गईउसके अपेक्षित परिणाम नहीं आए। केन्द्र ने वित्तीय वर्ष 2014-15 से 31 अक्तूबर, 2022 तक इस परियोजना को कुल 13,709,72 करोड़ रुपये जारी किए और इसमें से 13,046,81 करोड़ रुपये खर्च हुए। इनमें से सबसे ज्यादा पैसा- 4,205,41 करोड़ रुपये उत्तर प्रदेश को दिए गए क्योंकि गंगा की 2,525 किलोमीटर लंबाई का लगभग 1,100 किलोमीटर इसी राज्य में है। इतना धन खर्च होने के बावजूद गंगा में गंदे पानी के सीवर मिलने को रोका नहीं जा सका है और यही इसकी असफलता का बड़ा कारण है ।

2014 के बाद से लगभग 30,000 करोड़ रुपये सीवरेज के निर्माण और उसकी बेहतरी के काम करनेसीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) लगाने तथा नदी के कायाकल्प की गतिविधियां चलाने के लिए आवंटित किए गए। स्वच्छ गंगा मिशन के पिछले साल के नवीनतम आकलनों से संकेत मिलता है कि ’इस परियोजना के अंतर्गत आवंटित 408 परियोजनाओं में से 228 पूरी हो गई हैं जबकि 132 पर ’काम चल रहा है।’ लेकिन कुछ खबरें ऐसी भी हैं कि हालांकि आवंटित तो किए गए 30 हजार करोड़ लेकिन सिर्फ 20 हजार करोड़ रुपये जारी किए गए और अक्तूबर, 2022 तक इनमें से भी 13 हजार करोड़ रुपये ही खर्च किए गए।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और यूपी में कार्यदायी संस्था- उत्तर प्रदेश जल निगम द्वारा कोर्ट में पेश रिपोर्टों में बड़े पैमाने पर अनियमितताएं भी बताई गई हैं।  सरकारी एजेंसियों के काम योजनाओं की स्वीकृति और राशि आवंटित करने तक सीमित हो गए हैं जबकि निजी कंपनियों को इस क्षेत्र में किसी पूर्व अनुभव के बिना भी काम करने का दायित्व सौंप दिया गया है। सरकारी एजेंसियां कामों की निगरानी नहीं कर रहीं क्योंकि समय-समय पर शिकायतें मिलने के बावजूद एजेंसियां संबंधित कंपनियों को दंडित नहीं कर रही हैं।

कोर्ट ने पाया कि कुछ एसटीपी का कामकाज निजी कंपनियां संभाल रही हैं लेकिन उन्हें इनके ठेके इस तरह की शर्त के तहत भी दे दिए गए हैं कि अगर बिना शोधन ही प्रदूषित जल नदी में डाल दिया जाता हैतब भी उनको उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा। इनमें कहा गया है कि ये निजी कंपनियां अपनी पूरी क्षमता के साथ एसटीपी चलाएंगी लेकिन ’उनकी क्षमता से बाहर’ एसटीपी अगर प्रदूषित जल का प्रवाह कर देती हैतो वे उत्तरदायी नहीं होंगी। इसके लिए उन्हें दंडित करने का कोई प्रवधान ही नहीं है। ऐसी शर्तों-नियमों पर आश्चर्य और निराशा व्यक्त करते हुए कोर्ट ने कहा भी कि ऐसी हालत में उसे आश्चर्य नहीं है कि नदी सब दिन प्रदूषित ही रहेगी।

नदी के विभिन्न स्थलों के निरीक्षण के बाद यूपी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डकेन्द्र सरकार और एमिकस क्यूरी आदि के प्रतिनिधियों वाली समिति ने फरवरी, 2021 में यह भी सूचना दी थी कि बड़ी मात्रा में बिना शोधन जल नदी में अब भी प्रवाहित हो रहा है और बड़ी मात्रा में सरकारी धन बर्बाद कर दिया गया है। कोर्ट ने तब इन शिकायतों का भी संज्ञान लिया था कि निजी ऑपरटर काफी दिनों तक एसटीपी को बंद रखते हैं ताकि इस पर होने वाले खर्च को बचाया जा सके जिससे जल बिना शोधन ही नदी में जाता रहता है।

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गंगा में जल प्रदूषण में सुधार की नमामि गंगे योजना के इस हिस्से का तो यह हाल है ही, ’अर्थ गंगा’मतलब गंगा से कमाई की योजना अलग से शुरू कर दी गई है। इसका उद्देश्य गंगा में पर्यटनआर्थिक आय बढ़ाना आदि है। इसमें गंगा नदी के इर्द-गिर्द टूरिज्म सर्किट को विकसित करने के साथ-साथ यहां ऑर्गेनिक खेती तथा सांस्कृतिक गतिविधियां बढ़ाना है। अर्थ गंगा के छह हिस्से हैं। पहला नदी के दोनों ओर के हिस्से में 10 किलोमीटर तक रसायन-मुक्त खेती-बाड़ी और गोवर्धन योजना के तहत ’खाद के तौर पर गोबर के अधिकाधिक उपयोग को प्रोत्साहन’ है। दूसरा है सिंचाईउद्योग आदि के लिए बेकार पानी और गाद का पुनःउपयोग करना। स्थानीय उत्पादजड़ी-बूटीऔषधीय पौधों और आयुर्वेदिक आषधियों की बिक्री के लिए नदी तटों पर हाट-बाजार बनाना तीसरा लक्ष्य है। इस योजना के अन्य हिस्सों में नदी की सांस्कृतिक विरासत और पर्यटन संभावनाओंएडवेंचर स्पोर्ट्सलोगों की अधिक-से-अधिक भागीदारी आदि है।

हालांकि कहा नहीं गया लेकिन आम तौर पर यही माना गया कि प्रधानमंत्री ने इसी योजना के तहत पिछले महीने ’दुनिया के सबसे लंबे नदी क्रूज’ को वाराणसी में हरी झंडी दिखाई। वैसेमीडिया रिपोर्टों में बताया गया कि यह क्रूज किसी निजी कंपनी का है। यह सूचना नहीं मिली है कि सरकार से इस कंपनी को कोई अनुदान या कोई अन्य मदद मिली है या नहीं।

लेकिन नदी जिस हाल में है और तब भी बिना तैयारी इसे जिस तरह चलाया गया हैवह जरूर देखने की बात है। थोड़ी-सी बरसात में उफन जाना और  बरसात थमते ही तलहटी दिखने लगना- गोबर पट्टी कहलाने वाले मैदानी भारत की स्थायी त्रासदी बन गया है। यहां बाढ़ और सुखाड़ एकसाथ डेरा जमाते हैं। असल मेंनदियों की जल ग्रहण क्षमता लगातार कम हो रही है और इसकी वजह है बढ़ रहा मलवा और गाद। गाद हर नदी का स्वाभाविक उत्पाद है। जैसे ही यह नदी के बीच जमती है तो नदी का प्रवाह बदल जाता है। इससे नदी कई धाराओं में बंटे जाती हैकिनारें कटते हैं और यदि गाद किनारे से बाहर नहीं फैलीतो नदी के मैदान का उपजाऊपन और ऊंचाई- दोनों घटने लग जाते हैं। 12 जुलाई, 2022  को सी-गंगायानी सेंटर फॉर गंगा रिवर बेसिन मैनेजमेंट एंड स्टडीज ने जल शक्ति मंत्रालय को सौंपी रिपोर्ट में बताया है कि यूपीबिहारउत्तराखंड और झारखंड की 65 नदियां बढ़ते गाद से हांफ रही हैं। अकेले उत्तर प्रदेश में ऐसी 36 नदियां हैं जिनमें इतनी गाद है कि उनकी गति मंथर हो गई हैकुछ ने अपना मार्ग बदल लिया हैउनके पाट संकरे हो गए हैं। रही-सही कसर अंधाधुंध बालू उत्खनन ने पूरी कर दी है।

उत्तर प्रदेश में कानपुर से बिठूर तकउन्नाव से बिहार के बक्सर तक गंगा की धार बारिश के बाद घाटों से दूर हो जाती है। वाराणसीमिर्जापुर और बलिया में गंगा नदी के बीच टापू बन जाते हैं। बनारस के पक्के घाट अंदर से मिट्टी खिसकने से दरकने लगे हैं। गाजीपुरमिर्जापुरचंदौली में नदी का  प्रवाह कई छोटी-छोटी धाराओं में बंट जाता है। प्रयागराज के फाफामऊदारागंजसंगमछतनाग और लीलापुर के पास टापू बन जाते हैं। पिछले कई साल से संगम के आसपास गंगा नदी में चार मिलीमीटर की दर से हर साल गाद जमा हो रहा है। यह गाद प्राकृतिक कारणों से तो जमा हो ही रहाबड़ी वजह आसपास की आबादी भी है।

सन 2016 में केन्द्र सरकार द्वारा गठित चितले कमेटी ने साफ कहा था कि नदी में बढ़ती गाद का एकमात्र निराकरण यही है कि नदी के पानी को फैलने और गाद को बहने का पर्याप्त स्थान मिले तथा अत्यधिक गाद वाली नदियों से नियमित गाद निकालने का काम हो। ये सिफारिशें ठंडे बस्ते में बंद हो गई और अब नदियों पर रिवर फ्रंट बनाए जा रहे हैं जिससे न केवल नदी की चौड़ाई कम होती है बल्कि जल विस्तार को सीमेंट-कंक्रीट से रोक भी देते हैं। थोड़ी-सी बरसात में भी बाढ़ आ जाने की एक वजह यह भी है।

दरअसलविकास के नाम पर नदियों के कछार में धड़ाधड़ निर्माण होते गए जबकि कछार बरसात में नदी के दोनों किनारों पर पानी को फैलने की जगह देते हैं। बरसात के अलावा अन्य दिनों में वहां की नर्म और नम भूमि पर मौसमी फसल-सब्जी लगाए जाते थे। कछार के रखवाले बरसात के बाद कछार में जमा गाद को आसपास के किसानों को खेत में डालने के लिए देते थे क्योंकि वह शानदार खाद हुआ करती है। अब उस पर अधिक-से-अधिक निर्माण हो रहे हैंतो यह सब खत्म हो गया है।

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यह हाल हैतब भी क्रूज को वाराणसी से बांग्लादेश होकर डिब्रूगढ़ तक के लिए 15 जनवरी को रवाना कर दिया गया। बताया गया कि इसमें 36 पर्यटकों के सवार होने की सुविधाएं हैं। 1 फरवरी को ’गंगा विलास’ नामक यह क्रूज बांग्लादेश पहुंच चुका था। आरंभिक खबरों में बताया गया था कि यह पांच महीने की यात्रा होगी और पूरे पैकेज के लिए हर पर्यटक को 2 लाख रुपये देने होंगे। यह भी दावा किया गया कि अगले दो साल तक के लिए क्रूज की बुकिंग हो चुकी है।

क्रूज में सवार पर्यटकों और कर्मचारियों के अलावा किसी को भी अंदर जाने की इजाजत नहीं है। बिहार में जगह-जगह घाट से 800-1000 मीटर दूर लंगर डालने के बाद इस पर सवार सभी सैलानियों को जहाजों से तटों तक लाया गया और घुमा-फिरा कर वापस इन्हीं जहाजों के जरिये क्रूज तक पहुंचा दिया गया। 16 जनवरी को सारण जिले के डोरीगंज के पास पानी कम और गाद ज्यादा होने के कारण क्रूज घाट से करीब 800 मीटर पहले गंगा में थम गया। वहां केन्द्र सरकार के अफसरों ने ही बताया कि गाद के कारण डोरीगंज में क्रूज तट तक नहीं लगा। गाद क्यों है और गंगा का यह हाल किसकी वजह से हैइस पर तो किसी को जवाब देना भी नहीं था। बिहार में सैलानियों का जगह-जगह पारंपरिक ढंग से सत्कार हुआढोल-बाजे के बीच पुष्पवर्षा हुई लेकिन राज्य सरकार के अधिकारी कमोबेश नहीं ही दिखे। हांकई जगह भाजपा नेता जरूर नजर आए।

पटना पहुंचने के बाद से ही क्रूज को बिहार से निकालने की जल्दबाजी भी दिख रही थी। पहले तो पटना में सिर्फ पटना साहिब घुमाकर सैलानियों को आगे बढ़ा दिया गया। क्रूज को बेगूसराय के सिमरिया में रुकना था लेकिन सुरक्षा कारणों का हवाला देकर उसे यहां नहीं रोका गया जबकि केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के इस संसदीय क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए इसके यहां रोकने का प्रचार खूब हुआ था। क्रूज के नहीं रुकने पर भाजपा समर्थकों ने यहां नीतीश कुमार सरकार के खिलाफ नारेबाजी की औपचारिकता भी की। मुंगेर में निर्धारित समय से दो दिन पहले क्रूज पहुंच गया। पूरी यात्रा के दौरान एक बात साफ-साफ नजर आई कि किसी भी जगह बिहार सरकार के प्रतिनिधि के रूप में किसी राजनेता ने स्वागत नहीं किया। यही हाल बंगाल में भी रहा।

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क्रूज की सफलता-विफलता को लेकर उचित आकलन में थोड़ा समय है लेकिन भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) की वाराणसी-हल्दिया के बीच जलयान से माल ढुलाई की तमाम कोशिशों में तो अब तक सफलता नहीं मिल पाई है। इसके लिए आईडब्ल्यूएआई ने बनारस के रामनगर में गंगा के किनारे बंदरगाह का निर्माण कराया है और इसे विकसित करने के नाम पर अब भी खूब पैसे खर्च हो रहे हैं। इसके नाम पर जमीनों के अधिग्रहण का दायरा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। शुरुआत में इस परियोजना के लिए 70 एकड़ जमीन की जरूरत बताई गई थी जिसमें करीब 38 एकड़ में बंदरगाहजेटीप्रशासनिक भवनबिजली घर सहित सड़क मार्ग का निर्माण कराया जा चुका है। दूसरे चरण में दो गांवों की करीब 121 बीघा जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। अफसरों का कहना है कि दूसरे चरण में किए जा रहे जमीन का अधिग्रहण का मकसद कार्गो पार्किंगइलेक्ट्रिक सिटी स्टेशनपावर हाउसरेलवे ट्रैकटीनशेडटर्मिनल आदि का निर्माण है। यह बात दूसरी है कि बनारस और मिर्जापुर की सीमा पर बसे चंदौली के ताहिरपुर और मिल्कीपुर के किसान जमीन अधिग्रहण में मुआवजा को लेकर सवाल खड़े कर रह रहे हैं।

बनारस के रामनगर के समीपवर्ती गांव राल्हूपुर में आईडब्ल्यूएआई के बंदरगाह का उद्घाटन 12 नवंबर, 2018 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था। उस समय दावा किया गया था कि इसके जरिये सस्ती दरों पर माल की ढुलाई हो सकेगी। आईडब्ल्यूएआई के अफसरों का कहना है कि सड़क परिवहन की औसत लागत 1.50 रुपये प्रति टन प्रति किलोमीटर और इतनी दूरी तक रेलवे के लिए एक रुपये प्रति टन है जबकि जलमार्ग से प्रति टन माल की ढुलाई कराने पर खर्च महज 25 से 30 पैसे प्रति किलोमीटर आएगा।

रामनगर स्थित लाल बहादुर शास्त्री बंदरगाह के उद्घाटन से पहले अक्तूबर, 2018 में 1,622 किलोमीटर लंबे वाटर-वे से गंगा के जरिये वाराणसी से कोलकाता के हल्दिया के बीच माल ढुलाई हुई थी। उस समय पेप्सिको के माल से भरे 16 कंटेनर के साथ मालवाहक जहाज एमवी आरएन टैगोर कोलकाता से वाराणसी पहुंचा था। वापसी में यही जहाज इलाहाबाद से इफको का उर्वरक लेकर लौटा था। तबसे लेकर अब तक करीब 100 कंटेनर माल का आवागमन हो चुका है। 20 फरवरी, 2021 को 40 टन धान की भूसी लेकर एक जलपोत वाराणसी से कोलकाता पहुंचा। एग्रो कंपनी के अधिष्ठाता उद्यमी का कहना है धान की भूसी को जल मार्ग से कोलकाता भेजने में 2.70 रुपये प्रति किलो के हिसाब से भाड़े का भुगतान करना पड़ा है जबकि दावा किया गया था कि खर्च 25 से 30 पैसे ही आएंगे।

इन्हीं सब वजहों से उत्तर प्रदेश उद्योग व्यापार प्रतिनिधिमंडल के वाराणसी जोन के अध्यक्ष विजय कहते हैं कि ’वाटरवे-1 योजना सिर्फ मजाक है। रामनगर बंदरगाह तक उद्यमियों के लिए कोई सुविधा नहीं है। भाड़े पर सब्सिडी भी नहीं दी जा रही है।’ गंगा की पारिस्थितिकी के जानकार डॉ. अवधेश दीक्षित कहते हैं कि ’बंदरगाह पर 206 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैंमगर इस प्रोजेक्ट में कमी का सबसे बड़ा कारण  गंगा का गलत सर्वेक्षण है। गंगा में जलपोत चलाने पर हर साल अरबों रुपये ड्रेजिंग पर खर्च करना पड़ेगा। जलपोत चलाने के लिए गर्मी के दिनों में गंगा नदी में तीन मीटर तक गहराई को मेंटन कर पाना कठिन है। 15 जनवरी के बाद गंगा की स्थिति खराब होने लगती है।’ एक अधिकारी ने अनौपचारिक तौर पर कहा कि हमने जलमार्ग तैयार कर दिया है। अगर कोई कारोबारी अपना माल जलमार्ग से लाने के लिए तैयार नहीं है तो इसके लिए आईडब्ल्यूएआई क्या कर सकता है?

मतलबसारा दोष व्यवसायियों का हैसरकार तो मासूम है!

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साथ में वाराणसी से अरुण मिश्रा और पटना से शिशिर

Cleaning Ganga, Hoodwinking Ganga

 Cleaning Ganga, Hoodwinking Ganga

Namami Gange’ is history as the government shifts focus to ‘Arth Ganga’ and National Mission for Clean Ganga (NMCG) admits having failed to clean the river

 

Pankaj Chaturvedi



In scathing comments directed at the union government’s flagship Namami Gange project, the Allahabad High Court pulled up the National Mission for Clean Ganga (NMCG) for “throwing dust in the eyes” (a Hindi proverb which means hoodwinking others) and doing ‘little work to clean the river’. Very little was visible on the ground, went on to observe Chief Justice’s Bench of the Allahabad High Court in September, 2022. The NMCG had become a tool to disperse money and no one was serious about cleaning the river Ganga, it added.

Uttar Pradesh Jal Nigam, the high court noted, was the executing agency in the state but claimed it did not have qualified engineers to oversee the projects. The state pollution control board had power to prosecute those responsible for Ganga pollution but seemed reluctant to take any action.

The observation received little media attention although in an earlier hearing last year, the Bench was equally severe. “We all know that thousands of Crores of Rupees have already been spent to clean the river Ganga under Namami Gange Project but with hardly any result”, it noted. Significantly, the case was first filed way back in 2006 in which the petitioner had alleged that water quality in the supposedly holy river was of poor quality and full of pollutants. But although the court has been hearing arguments and poring over reports, with at least four hearings in 2022, not much appears to have changed.

Since 2014, say reports in the media, close to ₹30,000 Crore were sanctioned for the marquee project; they were meant to build and improve sewerage, putting up Sewage Treatment Plants (STP) and undertake river rejuvenation activities. Updated estimates from the National Mission for Clean Ganga (NMCG) last year indicated that out of 408 projects sanctioned under the programme, 228 had been completed while 132 were still ‘in progress’.  Other reports claim that although Rs 30 thousand Crore were sanctioned, only Rs 20 thousand crore were released and Rs 13 thousand Crore spent till October, 2022. 

Reports submitted to the court by the Pollution Control Board and the UP Jal Nigam, the executing authority in Uttar Pradesh, also point to large scale irregularities. While the task of government agencies have been reduced to sanctioning funds and approving projects, the execution apparently has been left to private bidders with or without any previous experience in the field. Monitoring by government agencies is clearly lax because despite periodic complaints the agencies have not even initiated penal provisions.

The court observed that STPs were being run by private operators and contracts drawn up for them absolved them of any responsibility if the river continued to receive untreated or polluted water. The fine print in the contracts mention that the operators would run STPs to their maximum capacity but would not be responsible if the STPs were fed polluted water ‘beyond their capacity’. No penal clause had apparently been included. Expressing its surprise and dissatisfaction the court had observed that there was no wonder the river remained as polluted as ever.

In February 2021 also a committee comprising representatives of UP State Pollution Control Board, the Central Government and the Amicus Curiae among others had also reported after inspecting various sites that large volume of untreated water was still flowing into the river and huge sums of public money had been wasted. The court had then taken note of complaints that the STPs were shut down by private operators for long periods, presumably to save energy costs, allowing untreated water to pass through.

The committee also apprised the court that use of plastic bags continued to be extensive in the cities on the bank of the river and plastic waste was also choking the sewer lines. The drains were emitting foul smell and the process of treating sewerage water by ‘bioremediation’ did not appear to be effective. What’s more half the existing ‘nallahs’ were either not connected to the STP or, if connected, were overflowing.

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While the ‘Namami Gange Programme’ has seemingly floundered, the emphasis has shifted from cleanliness and sanitation to what the Government now calls ‘Arth Ganga’, which is geared towards tourism, economic livelihood and conservation. The tourism ministry was tasked to develop a comprehensive plan for developing tourism circuits along the Ganga and promote organic farming and cultural activities.

The rechristened project Arth Ganga officially has six components. The first is chemical-free farming on 10 km on either side of the river and ‘promotion of cow dung as fertiliser through the Gobardhan scheme. The monetisation and reuse of sludge and waste water for irrigation, industry etc. is the second. Setting up haats on river banks for people to sell local products, herbs, medicinal plants and Ayurvedi medicine is said to be the third. Promoting cultural heritage and tourism potential of the river, adventure sports, increased public participation and improved water governance are the other thrust areas.

When, therefore, the Prime Minister flagged off last month the “world’s longest river cruise” at Varanasi, it was widely believed to be a part of the ‘Arth Ganga’ thrust. But no such claim was made by the government. On the contrary, media reports held that the cruise was being conducted by a private company. If they received grants or any other help from the government, such information was not shared.

 

The ‘floating five-star hotel’, as the small cruise ship with a capacity to carry just 36 tourists was described, set off from Varanasi on January 15. Initial reports suggested that it would be a five-month cruise and each tourist would be paying Rs 20 lakhs for the entire package. They also claimed that cruise ship ‘Ganga Vilas’ was booked for the next two years.

 

But by the first of February, Ganga Vilas had already entered Bangladesh on its way to Guwahati. What raised eyebrows were carefully planted claims that no liquor was being served to the Swiss nationals who had booked the cruise and no non-vegetarian dishes either. The alacrity with which the cruise ship was received by government officials at different ports of call also raised eyebrows. When Ganga Vilas, it was found, could not reach the bank of the river at Buxur, because of shallow waters, the district administration arranged for the tourists to be shifted in motor boats and arrange for police escorts to take them around.

 

Other reports from Bihar claimed that the tourists had been advised not to drink or eat any kind of meat while on land because of ‘religious sanctions’ in the land of the Buddha, Mahavira and Guru Gobind Singh.

 

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The NMCG website acknowledges the failure of Namami Gange in cleaning the river. But it justifies it by pointing to rising population and growing number of industrial units. This passage on the website reads, “Ganga, in some stretches, particularly during lean seasons has become unfit even for bathing. The threat of global climate change, the effect of glacial melt on Ganga flow and the impacts of infrastructural projects in the upper reaches of the river, raise issues that need a comprehensive response.”

 

It then goes on to admit, “In the Ganga basin approximately 12,000 million litres per day (mld) sewage is generated, for which presently there is a treatment capacity of only around 4,000 mld.” Not a pretty picture after eight years of hype and publicity.

 

It candidly admits that ‘approximately 3000 mld of sewage is discharged into the main stem of the river Ganga from the Class I & II towns located along the banks, against which treatment capacity of about 1000 mld has been created till date. The contribution of industrial pollution, volume-wise, is about 20 per cent but due to its toxic and non- biodegradable nature, this has much greater significance…the major contributors are tanneries in Kanpur, distilleries, paper mills and sugar mills in the Kosi, Ramganga and Kali river catchments”.

 

NMCG claims that out of the 245 existing STPs in five states along the Ganga, only 226 are functioning. It also claims that these STPs are working at 68 per cent of their capacity. After spending Rs 800 Crore in eight years in Kanpur, UP Pollution Control Board admits that water at various places are highly contaminated.

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023

Ganga and her friends suffering from silt

 

गाद से बेहाल गंगा और सखी-सहेलियाँ

पंकज चतुर्वेदी

 



गंगा नदी में वाराणसी से डिब्रूगढ़ तक सैलानियों को घुमाने निकला दुनिया का सबसे लंबा क्रूज 'गंगा विलास' बिहार के सारण में डोरीगंज के पास गाद में अटकने के कारण किनारे तक नहीं पहुंच सका। पानी कम रहने के कारण क्रूज तट से दूर ही अटक गया। फिर वहीं लंगर लगाकर छोटे जहाजों के सहारे सैलानियों को सारण जिले के चिरांद तक लाकर महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों का भ्रमण कराया गया। क्रूज पर सवार सैलानियों को चिरांद का भी भ्रमण करना था और इसकी तैयारियां भी थीं, लेकिन तट से कुछ दूर पहले गाद के कारण यह अटक गया था। जिस तरह बिहार में गंगा ही नहीं उसकी सहायक नदियों में गाद बढ़ रहा है, उससे  नदियों के उथले होने का  विचित्र संकट हर साल गहरा रहा है  .




समझना होगा कि गाद हर एक नदी का स्वाभाविक उत्पाद है  लेकिन  उसका भली भांति प्रबंधन अनिवार्य है . गाद जैसे ही नदी के बीच जमती है तो नदी का प्रवाह बदल जाता है इससे नदी कई धाराओं में बंटे जाती है , किनारें कटते हैं . यदि गाद किनारे से बाहर नहीं फैली, तो नदी के मैदान का उपजाऊपन और ऊंचाई, दोनों घटने लग जाते हैं । ऊंचाई घटने से किनारों पर बाढ़ का दुष्प्रभाव अधिक होता है. 

12 जुलाई-22  को सी-गंगा यानी सेंटर फार गंगा रिवर बेसिन मेनेजमेंट एंड स्टडीज ने जल शक्ति मंत्रालय को सौंपी गई रिपोर्ट बताती है कि उप्र, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड की 65 नदियां बढ़ते गाद से हाँफ रही हैं. हालांकि गाद नदियों के प्रवाह का नैसर्गिक उत्पाद है और देश के कई बड़े तीर्थ और प्राचीन शहर इसी गाद पर विकसित हुए है , लेकिन जब नदी के साथ बह कर आई गाद को जब किनारों पर माकूल जगह नहीं मिलती तो वह  जल-धारा  के मार्ग में व्यवधान बन जाता है . गाद नदी के प्रवाह मार्ग में जमती रहती है और इसे नदियों उथली होती है , अकेले उत्तरप्रदेश में ऐसी  36 नदियाँ  हैं जिनकी कोख में इतनी गाद है कि न केवल उनकी गति मंथर हो गिया बल्कि कुछ ने अपना मार्ग बदला और उनका पाट संकरा हो गया, रही बची कसार अंधाधुंध बालू उत्खनन ने पूरी कर दी . इनमें से कई का अस्त्तत्व खतरे में है .



उत्तर प्रदेश के कानपुर से  बिठूर तक , उन्नाव के बक्सर – शुक्लागंज तक  गंगा की धार बारिश के बाद घाटों से दूर हो जाती है. वाराणसी, मिर्जापुर और बलिया में गंगा नदी के बीच  टापू बन जाते हो. बनारस के पक्के घाट अंदर से मिट्टी खिसकने से दरकने लगे हो. गाजीपुर, मिर्जापुर, चंदौली में नदी का  प्रवाह कई छोटी-छोटी धाराओं में विभक्त हो जाता है .



प्रयागराज के फाफामऊ, दारागंज, संगम, छतनाग और लीलापुर के पास टापू बनते हो. संगम के आसपास गंगा नदी में चार मिलीमीटर की दर से हर साल गाद जमा हो रहा है। पिछले कई सालों से यह सिलसिला जारी है। गंगा की गहराई कम होने से उसकी धारा में भी परिवर्तन हो रहा है। आगे आने वाले दिनों में गंगा नदी की धारा और तेजी से परिवर्तित होगी, क्योंकि जब नदी की गहराई कम हो जाएगी तो नदी का स्वाभाविक बहाव रुक जाएगा। ऐसे में बाढ़ का खतरा स्‍वाभाविक है।गंगा में प्राकृतिक और आबादी  दोनों ओर से गाद पहुंच रही है। तभी  गंगा का पाट छिछला होता जा रहा है। यह बात सरकारी रिकार्ड में हैं कि आज जहां पर संगम है, वहां यमुना की गहराई करीब 80 फीट है। वहीं, गंगा की गहराई इतनी कम है कि संगम के किनारे नदी में खड़ा होकर कोई भी स्नान कर सकता है, जबकि सहायक नदी यमुना की गहराई कम होनी चाहिए। यमुना की अधिक गहराई के चलते असंतुलन उत्पन्न हो रहा है। तभी संगम पूरब की तरफ बढ़ रहा है। आज संगम का झुकाव अकबर के किले  तक खिसक चुका है . कभी संगम सरस्वती घाट के पास हुआ करता था, लेकिन गंगा की गहराई लगातार कम होने से संगम पूरब की तरफ खिसकते हुए किला के पास आ गया है। यदि यही क्रम जारी रहा तो आने वाले दिनों में संगम और भी पूरब की तरफ खिसक जाएगा।




आज़ादी के बाद तक गढ़ मुक्तेश्वर  से कोल्कता तक जहाज चला करते थे . गाद के चलते बीते पांच दशक में यहाँ गंगा की धारा  आठ किमी दूर खिसक गई है. बिजनौर के गंगा बैराज पर गाद की आठ मीटर मोटी परत है. आगरा व मथुरा में यमुना गाद से भर गई है. आजमगढ़ में  घाघरा और तमसा के बीच गाद के कारण कई मीटर ऊँचे टापू बन गए हैं घाघरा, कर्मनाशा, बेसो, मंगई, चंद्रप्रभा, गरई, तमसा, वरुणा और असि नदियां गाद  से बेहाल हैं.

गाद के कारण नदियों पर  खड़े हो रहे संकट से उत्तरांचल भी अछूता नहीं हैं . यहाँ तीन नदियाँ गाद से बेहाल हैं . गंगा को बढ़ती गाद ने बहुत नुकसान पहुंचाया है. हिमालय जैसे युवा व जिंदा पहाड़ से निकलने वाली  गंगा के साथ  गाद आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. लेकिन जिस तरह उत्तराखंड में नदी प्रवाह क्षेत्र में बाँध, पनबिजली परियोजनाएं और सड़कें बनीं, उससे एक तो गाद  की मात्रा बढ़ी, दूसरा उसका प्रवाह-मार्ग भी अवरुद्ध हुआ . गाद के चलते ही इस राज्य के कई सौ झरने और सरिताएं  बंद हो गए  और इनसे कई नदियों का उद्गम ही खतरे में है .


 

विदित हो सन 2016 में केंद्र सरकार द्वारा गठित चितले कमेटी ने साफ कहा था कि नदी में बढती गाद गाद का एकमात्र निराकरण यही है कि  नदी के पानी को फैलने का पर्याप्त स्थान मिले. गाद को बहने का रास्ता मिलना चाहिए. एम.ए. चितले की अध्यक्षता में एक्सपर्ट कमिटी ने मई, 2017 में ‘भीमगौड़ा (उत्तराखंड) से फरक्का (पश्चिम बंगाल) तक गंगा नदी की डीसिल्टेशन (गाद निकालने के काम) के लिए दिशानिर्देशों की तैयारी’ पर अपनी रिपोर्ट जल संसाधननदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय को सौंपी थी । कमिटी ने सुझाव दिया था कि नदियों में सिल्टेशन (गाद जमा होना) एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। फिर भी भारी वर्षाजंगलों के कटानजलाशयों के जल में संरचनागत हस्तक्षेप और बाड़ बनाने से नदियों में सिल्टेशन बढ़ता है। इसका नतीजा यह होता है कि नदियों की बहाव क्षमता कम होती है और बाढ़ की स्थिति पैदा होती है। साथ ही नदियों में जल भंडारण के उपायों को भी नुकसान पहुंचता है। जब नदी को चौड़ा या गहरा किए बिना उसकी प्राकृतिक क्षमता को बरकरार रखने के लिए महीन गाद और तलछट को निकाला जाता है तो उस प्रक्रिया को डीसिल्टेशन कहा जाता है। डिसिल्टेशन से नदी के हाइड्रॉलिक प्रदर्शन में सुधार होता है। फिर भी अंधाधुंध गाद निकालने से नदी की इकोलॉजी और प्रवाह पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।तटबंध और नदी के बहाव क्षेत्र में अतिक्रमण न हो और अत्यधिक गाद वाली नदियों के संगम क्षेत्र से नियमित गाद निकालने का काम हो. जाहिर है कि ये सिफारिशे किसी ठंडे बस्ते में बंद हो गई और अब नदियों पर रिवर फ्रंट बनाये जा रहे हैं जो न केवल नदी की चौड़ी को कम करते  हैं, बल्कि जल विस्तार को सीमेंट कंक्रीट से रोक भी देते हैं


यह दुर्भाग्य है कि विकास के नाम पर नदियों के कचार को सर्वाधिक हडपा गया . असल में कछार नदी का विस्तार होता , ताकि  अधिकतम भी बरसात हो तो नदी के दोनों किनारों पर पानी विस्तार के साथ अविरल बहता रहे. आमतौर पर कछार में केवल मानसून में जल होता है, बाकी समय वहां की नर्म, नम भूमि पर नदी के साथ बह कर आये लावन, जीवाणु का डेरा होता है . फले  इस जमीन पर मौसमी फसल-सब्जी लगाए जाते थे और शायद तभी ऐसे किसानों को “काछी कहा  गया—कछार का रखवाला. काछी, को फ़र्ज़ था कि वह कछार में जमा गाद को आसपास के किसानों को खेत में डालने के लिए दे , जोकि शानदार खाद हुआ करती थी . भूमि के लालच में कछार और उसकी गाद भी लुप्त हो गए और काछी भी और कछार में  आसरा पाने वाले गाद को मज़बूरी में नदी के उदर में ही डेरा ज़माना पड़ता है


 

 

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...