My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 31 मार्च 2017

How can scavengers get rid of cleaning work


कौन लेगा उपेक्षित समाज की सुध

यह सुनियोजित साजिश नहीं है कि समाज की स्वास्थ्य रक्षा व सफाई के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने वालों की खुद की बस्तियां गंदी, बदबूदार और कुप्रबंध की शिकार होती हैं। समय के साथ बदलते हालात में भले ही भंगी को सिर पर मैला ढोने से मुक्ति मिल रही हो, लेकिन गंदगी, मल से उसका पीछा नहीं छूटा है। गंदगी भरा ट्रक चलाना हो या गहरे जानलेवा सीवर की सफाई करना हो, सभी में उन्हीं लोगों को खपाया जा रहा है


पंकज चतुर्वेदी

आजादी के बाद से भंगी मुक्ति, सिर पर मैला ढोने पर पाबंदी सरीखे कई नारे सरकारी व गैरसरकारी संगठन लगाते रहे। मगर खुद केंद्र सरकार का यह आंकड़ा इन नारों की इछाशक्ति का खुलासा करता है कि देश में हजारों लोग अब भी हाथ से मैला उठाने की अमानवीय प्रथा से मुक्त नहीं हो पाएं हैं। सनद रहे कि कोई चार साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस अनैतिक कार्य पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी थी, बावजूद सरकारी आंकड़े बताते हैं कि ऐसा अब भी 13 रायों में हो रहा है। सबसे बड़े राय उत्तर प्रदेश को केंद्र से इस मद में 175 करोड़ रुपये मिल चुके हैं। बावजूद इसके वहां देशभर के कुल 12,700 में से अभी भी 10,301 ऐसे सफाईकर्मी हैं जो सिर पर मैला ढोते हैं। यह जानकारी संसद में बाकायदा केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत ने एक प्रश्न के जवाब में दी है। इनमें से अधिकांश राजधानी लखनऊ और शाहजहांपुर में हैं।
जनगणना में यह बात उभर कर आई थी कि यूपी में आज भी दो लाख ‘कमाऊ’ शौचालय हैं। इनका मल अपने सिर पर ढ़ोने वालों की सरकारी संख्या तो महज 10,301 है। केंद्र सरकार ने संसद में स्वीकार किया है कि कर्नाटक में 737, तमिलनाडु में 363, राजस्थान में 322, ओडिशा में 237, असम में 191 और बिहार में 137 लोग ऐसे हैं जो सिर पर लोगांे का मल ढोते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सफाई के प्रति जागरूकता बढ़ी है। विचार यह भी करना चाहिए कि आखिर क्यों पूरे देश को झाड़ू हाथ में ले कर उतरने की नौबत आई, जबकि हमारे यहां सफाई कर्मचारियों की बस्तियां हर गांव-कस्बे में है। असल समस्या यह है कि सफाई का जिम्मा निभाने वाला समाज हर समय उपेक्षित रहा और हमारी जातिवादी व्यवस्था ने सफाई का काम एक जाति विषेश का जिम्मा मान कर अपना काम कूड़ा फैलाना समझा। वास्तविकता यह है कि भारतीय समाजिक संरचना में भंगी कभी जाति नहीं हुआ करती थी, यह कर्म था, लेकिन अब यह जाति बन गई वह भी पूरी तरह उपेक्षित। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के कोई एक दर्जन जिलों में विस्तारित भूखंड बुंदेलखंड में सफाई के काम में लगे लोगों की जाति ‘बसोर’ कहलाती है। बसोर यानी बांस का काम करने वाले। वास्तव में अभी भी उनके घरों में बांस की टोकरियां, सूप आदि बनाने का काम होता है। अभी कुछ दशक पीछे ही जाएं तो पता चलता है कि बसोर बांस का बेहतरीन कारीगर हुआ करता था। आधुनिकता की आंधी में बांस की खपचियों की कला कहीं उड़ गई और उनके हाथ आ गए झाड़ू-पंजा। गुजरात की गाथा इससे अलग नहीं है, वहां भी बांस की टोकरी बनाने वालों को भंगी कहा जाता है। भंगी यानी जो बांस को भंग करे। गुजरात और महाराष्ट्र व सीमावर्ती मध्य प्रदेश में सफाई कर्मचारियों के उपनाम ‘वणकर’ हुआ करते हैं, यानी बुनकर। गौरतलब है कि अंग्रेजों के आने के बाद भारत में बड़ी-बड़ी कपड़ा मिलें लगीं और इंग्लैंड से सस्ता कपड़ा आयात होने लगा। फलस्वरूप हथकरघे बंद होने लगे। जब कारखाने खुल रहे थे, तभी शहरीकरण हो रहा था। इन्ही हालातों के चलते बुनकर को ‘वणकर’ बनने पर मजबूर होना पड़ा। अंग्रेज समाजशास्त्री स्टीफन फ्यूकस के मुताबिक मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में जाति-धर्म परिवर्तन की तरह भंगी बनाने की बाकायदा प्रक्रिया होती है।
ऐसे ही कई उदाहरण देश के कोने-कोने में फैले हुए हैं, जो इंगित करते हैं कि समाज के सर्वाधिक उपेक्षित इस वर्ग को ‘जाति’ कहना न्यायोचित नहीं है। मुगलकाल में महलों के शौचालय साफ करने के गुलामों को महतर बनाने व उन्हें किसी लाल बेगी नामक फकीर का चेला बताने के प्रमाण गवाह हैं कि सामंतों ने सुनियोजित साजिश के तहत एक पूरी बिरादरी अमानवीयता के धरातल पर खड़ी कर दी गई थी। प्रागैतिहासिक काल या उससे भी पहले की पौराणिक कथाओं की बात करें या अंग्रेजों के आगमन तक के इतिहास की, कहीं भी सफाई कर्मचारी नामक समाज का उल्लेख नहीं मिलता है। विश्व की सर्वाधिक पुरानी सभ्यताओं में से एक मोहन-जोदड़ों में जब सीवर प्रणाली के प्रमाण मिले हैं तो स्पष्ट है कि भारत में पहले साफ-सफाई समाज की साझा जिम्मेदारी हुआ करती थी न कि किसी समाज विशेष की। इस पेशे को पारंपरिकता से जोड़ना बेमानी होगा। सिर पर मैला ढुलाई का काम करवाना कानून की नजर में जुर्म है। यह कोई अकेला कानून नहीं है, जिसके दम पर सरकार मल साफ करने के अपमान, लाचारी और गुलामी से उपजी कुंठा के निदान का दावा करती है। 1963 में मलकानी समिति ने सिफारिश की थी कि जो सफाई कामगार अन्य कोई नौकरी करना चाहे तो उन्हें चौकीदार, चपरासी आदि पद दे दिए जाएं। लेकिन उन सिफारिशों को सरकारी सिस्टम हजम कर चुका है। आज भी रोजगार कार्यालयों से महज जाति देख कर ग्रेजुएट बचों को सफाई कर्मचारी की नौकरी का परवाना भेज दिया जाता है। योजना आयोग ने 1989 में एक कार्य दल का गठन किया था, जिसने सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास पर कई सुझाव दिए थे। पुनर्वास की राष्ट्रीय योजना की शुरुआत 1992 में हुई भी, लेकिन केवल कागजों पर। फिर 15 अगस्त 1994 को तत्कालीन प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के गठन की घोषणा की। इसके पहले अध्यक्ष मांगीलाल आर्य ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट 17 नवंबर 1995 को तब के समाज कल्याण मंत्री सीताराम केसरी को सौंपी भी। लेकिन उस रिपोर्ट पर शायद ही कोई कार्यवाही हुई हो। इसके बाद आयोग के कई प्रधान बने और वे सफाई कर्मियों के प्रति कम और अपने निजी हितों के प्रति यादा जागरूक दिखे।
यह सुनियोजित साजिश नहीं है कि समाज की स्वास्थ्य रक्षा व सफाई के लिए अपना वर्तमान ही नहीं भविष्य भी दांव पर लगाने वालों की खुद की बस्तियां गंदी, बदबूदार और कुप्रबंध की शिकार होती हैं। दिल्ली से लेकर सुदूर कस्बे तक की वाल्मिकी बस्तियांे पर निगाह डालें, वहां ना तो पक्की सड़क होगी ना ही बिजली व पानी का माकूल इंतजाम। हां, बस्ती के बीचों-बीच या इर्द-गिर्द देशी शराब की दुकान अवश्य मिल जाएगी। नगर पालिका स्तर पर सफाई कर्मचारियों के लिए ‘ट्रांजिट होम’ बनाने का खर्च केंद्र सरकार देती है ताकि सफाई कर्मचारी अपने पेशे से निवृत्त हो कर वहां हाथ-पैर धो कर स्वछ हो सकें। लेकिन पूरे देश में ऐसे ट्रांजिट होम पर पालिका के वरिष्ठ अधिकारियों का कब्जा होता है। यहां तक कि सफाई कर्मचारियों को यह मालूम ही नहीं होता है कि उनके लिए ऐसी कोई व्यवस्था भी है। बदलते परिदृश्य में भले ही भंगी को सिर पर मैला ढोने से मुक्ति मिल रही हो, लेकिन गंदगी, मल से उसका पीछा नहीं छूटा है। गंदगी भरा ट्रक चलाना हो या गहरे जानलेवा सीवर की सफाई का काम, सभी में उन्हीं लोगों को खपाया जा रहा है।

गुरुवार, 30 मार्च 2017

Such Incidents dent image of India on International platform

देश की छवि खराब करती घटनाएं

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यह साजिशन है या संयोग, लेकिन उत्तर प्रदेश में बीते कुछ दिनों से जो कुछ हो रहा है, उससे राज्य के हालात के कारण भारत की छवि पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विषम असर पड़ रहा है। विडंबना है कि सत्ताधारी दल से जुडे़ कुछ लोग हालात संभालने के बजाय ऐसे बयान दे रहे हैं, जो जनाक्रोश भड़का रहे हैं, भीड़ तंत्र को बढ़ावा दे रहे हैं और प्रशासन की राह में रोड़े अटका रहे हैं। राजधानी दिल्ली से सटा ग्रेटर नोएडा सैकड़ों की संख्या में उच्च तकनीकी संस्थानों के लिए मशहूर है। बेहद सुदर, शांत और सुरम्य इस नव विकसित शहर की आबादी का बड़ा हिस्सा बाहर से आए छात्रों का है और यह यहां की अर्थव्यवस्था का भी आधार है। बाहर से आए यानी देश और दुनिया दोनों के। यहां यदा-कदा छात्रों के बीच टकराव या झगड़े भी होते रहते हैं, लेकिन कभी महज रंग या नस्ल को ले कर हिंसा नहीं हुई, जैसी कि गत सोमवार को हुई।हुआ यूं कि सोमवार को 17 साल के मनीष नामक स्थानीय युवक की मौत हो गई। उनके परिवारजनों क कहना था कि मनीष को अंतिम बार अफ्रीकी छात्रों के साथ देखा गया था। उन लोगों का मानना है कि अफ्रीकी छात्र ड्रग्स का ध्ंाधा करते हैं और मनीष की मौत का कारण नशे की ज्यादा मात्रा थी।
हालांकि यह बात सच है कि दिल्ली एनसीआर में कई अफ्रीकी मूल के लोग नशे के कारोबार या ऑनलाइन फ्राड आदि में लिप्त हैं व कई एक पकड़े भी गए हैं। लेकिन कुछ लोगों के इस अपराध में शामिल होने और इसकी सजा उन सभी लोगों को देने के लिए भीड़-तंत्र को उकसाने को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। सोमवार की शाम और मंगलवार को आसपास के गांवों के युवक लाठी-डंडे लेकर सड़क पर थे और जो कोई भी अफ्रीकी मिलता, उसे निमर्मता से पीट रहे थे। कुछ को मॉल के भीतर इस तरह पीटा गया कि उसके सीसीटीवी फुटेज देखे नहीं जा सकते। घंटों यह तमाशा चलता रहा और प्रशासन नदारद था। जब यह बात दिल्ली तक पहुंची, नाइजीरिया के दूतावास ने अपना गुस्सा दिखाया और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से बात की, तब कहीं पुलिस सड़क पर आई। कुछ मुकदमे दर्ज हुए, कुछ पकड़े गए। फ्लेग मार्च भी हुआ, लेकिन अफ्रीकी युवकों के आदमी का मांस खाने, सभी काले लोगों के अपराधी होने जैसी अफवाहें सोशल मीडिया से गुना-गुना वजनी होकर घूमती रहीं और इससे लोगों का गुस्सा और बढ़ता रहा।

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इस बीच मंगलवार को यह बात भी पोस्टमार्टम से सामने आ गई कि मनीष की मौत नशे के करण नहीं हुई थी। इसके बावजूद सत्ताधारी दल से जुड़ी एक महिला नेत्री सहित कई लोगों ने फेसबुक पर ट्वीटर पर दर्ज किया कि सारे अफ्रीकी नशे के कारोबार में लिप्त होते हैं, अत: इन्हें देश से निकाल देना चाहिए। जब पुलिस अपनी मुस्तैदी के किस्सों का बखान कर रही थी, तभी बुधवार की सुबह नालेज पार्क, ग्रेटर नोएडा में ही आटो रिक्शा से अपने कॉलेज जा रही एक केन्या की छात्रा के साथ कोई 10-12 लंपटों ने मारपीट की, उसे सड़क पर लथेड़-लथेड़ कर अपमानित किया। बाद में लड़की को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा, इस बीच अफ्रीकी संघ और नाइजीरिया दूतावास के वरिष्ठ अफसर ग्रेटर नोएडा में ही डेरा डाले हुए हैं। उधर, अफ्रीकी छात्र संगठन ने भी सोशल मीडिया पर अपने लोगों के साथ मारपीट के कई लाइव वीडियो अपलोड किए हैं और इस पर केन्या, यूगांडा, मोजांबिक, कांगो जैसे दशों में भारतीयों के खिलाफ गुस्सा बढ़ रहा है। पूरी घटना से भारत की छवि अफ्रीकी संघ में बेहद धूमिल हुई है। जान लें कि अफ्रीकी संघ में 54 दश हैं और इसका गठन 10 जुलाई, 2002 को हुआ था। व्यापार, निवेश, आतंकवाद, खाद्या सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन, समुद्री सुरक्षा, सहित कई मुद्दों पर यह पूरा संघ भारत का करीबी सहयोगी है। पहले सन् 2008 और उसके बाद 2015 में भारत-अफ्रीकी शिखर सम्मेलन दिल्ली में हो चुका है। भारत सरकार द्वारा किए गए कई समझौतों में से एक अफ्रीकी छात्रों को पचास हजार छात्रवृत्तियां देना भी शामिल हैं और इसी अनुबंध के तहत अफ्रीकी छात्र हमारे यहां पढ़ने आते हैं। असल में उनके प्रवेश के चलते कई भारतीय निजी संस्थाओं को आर्थिक संबल भी मिलता है। दक्षिण अफ्रीका में टाटा, महेंद्रा, रैनबेक्सी, सिपला साहित कई भारतीय कंपनियों के कारखाने हैं। ब्रिटेन और चीन के बाद जंजानिया हमारा सबसे बड़ा निवेशक हैं। केन्या में 1966 में बिड़ला ने अपना व्यापार फैलाया। आज वहां रिलायंस, एस्सार, भारती एयरटेल सहित कई कंपनियां काम कर रही हैं। पूरे अफ्रीका में हमारा हजारों करोड़ का निवेश हैं और कई लाख भारतीय वहां बसे हैं। यह आंकड़े बानगी हैं कि अफ्रीका से यदि हमारे संबंधों में खटास आती हैं तो इसका असर कितना विपरीत होगा। सनद रहे संयुक्त राष्ट्र में भी अफ्रीकी देश हर समय भारत के साथ खड़े रहते हैं। उत्तर प्रदेश में रोमियो-विरोधी अभियान के नाम पर युवाओं को उत्पीड़ित करने और अवैध बूचड़खाने बंद करने की खबरें अंतरराष्ट्रीय मीडिया में उत्तर प्रदेश सरकार की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगा रही हैं। इसी बीच नोएडा में एक अंतरराष्ट्रीय मोबाइल कंपनी के उत्पादन यूनिट में राष्ट्रवाद के नाम पर जो हंगामा हुआ, उससे समूचे प्रदेश में कार्यरत विदेशी कंपनियां सहम गई हैं। हुआ यूं कि ओप्पो कंपनी के सेक्टर-63 स्थित कारखाने के कैंटीन में चीनी अफ्रसर निरीक्षण करने आया। जान लें कि कंपनी के कर्मचारियों ने गत 26 जनवरी को यहां बड़ा आयोजन किया था और आज भी इसके कार्यालय की छत पर तिरंगा लहराता है। चीनी अफसर ने देखा कि कैंटीन की दीवारों पर गंदे पड़ गए तिरंगे के पोस्टर लगे हैं, उसने उन्हें निकाल दिया और कचरा पेटी में डाल दिया। इस बात को कंपनी में ही यूनियन बनाने का प्रयास कर रहे, एक विचारधारा विशेष के लोगों ने राष्ट्रध्वज के अपमान का मसला बना कर हंगामा शुरू कर दिया। 48 घंटे ेतक कंपनी के दरवाजे में गालियां बकने, वालों का हंगामा चलता रहा। कुछ लोग उस होटल में मारापीट करने पहुंच गए, जहां उक्त चीनी अफसर ठहरा था। इस मसले पर भी चीनी दूतावास ने भारत के विदेश मंत्रालय को अपने लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की ताकीद दी। यहां पर चीनी अफसर का समर्थन तो नहीं किया जा सकता, लेकिन यह भी तय है कि उसका कृत्य भारतीय ध्वज को जानबूझ कर अपमानित करने का नहीं था। ऐसे तो प्लास्टिक के झंडे हमारी सड़कों पर बेपरवाही से पड़े दिख जाते हैं। यह स्वीकार करना होगा कि उत्तर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री के कई क्रांतिकारी कदमों, उनकी सतत निगरानी और काम करने की क्षमता के बावजूद उनको लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आशंकाएं हैं। ऐसे में कतिपय लंपट किस्म के लोगों को राष्ट्रवाद के नाम पर हंगामा करना आशंकाओं को बलवति बनाता है। हालांकि इसमें स्थानीय प्रशासन और पुलिस की गैरजिम्मेदाराना हरकत और गैरसंवेदनशील नजरिया ज्यादा जिम्मेदार है, लेकिन इसका खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ सकता है। महज झंडे उठाने, नारे लगाने या उन्माद फैलाने का नाम नहीं है राष्ट्रवाद, उसके लिए अपने अधिकार से ज्यादा कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदार होना, कानून पर भरोसा करना ज्यादा जरूरी है।

शुक्रवार, 24 मार्च 2017

Be always prepare for less rain


तैयार रहना होगा अल्प वर्षा के लिए


अभी गरमी का आगाज हुआ ही है और बस्तर, बुंदेलखंड, तेलंगाना, मराठवाड़ा आदि अंचलों में पानी की कमी की खबरें आने लगी हैं। बुंदेलखंड में बीती बारिश तो बढि़या हुई लेकिन कोई बीस दिन पहले यहां आंधी व ओलावृष्टि ने किसान की उम्मीदों को तोड़ दिया। गांव के पटवारी, सरपंच और सयाने लोग उपलब्ध जल, आने वाले दिनों की मांग, भयंकर गरमी का सटीक आकलन रखते हैं, लेकिन सरकारी अमला इंतजार करता है कि जब प्यास व पलायन से हालात भयावह हों, तब कागजी घोड़े दौड़ाए जाएं। है। इन दिनों जगलों में पानी की कमी है, सो कई जगह मांसभक्षी जीव बस्तियों में आ रहे हैं और मारे भी जा रहे हैं। यह इशारा है कि आने वाले दिन कितने जटिल हैं।

अब यह जान लेना चाहिए कि सूखे या पानी की कमी के लिए हमें हर साल मौसम विभाग या पटवारी की गिरदावरी का इंतजार नहीं करना चाहिए। हमने अपने पारंपरिक जल संसाधनों की जो दुर्गति की है, जिस तरह नदियों के साथ खिलवाड़ किया है, खेतों में रासायनिक खाद व दवा के प्रयोग से सिंचाई की जरूरत में इजाफा किया है, इसके साथ ही धरती का बढ़ता तापमान, भौतिक सुखों के लिए पानी की बढ़ती मांग और भी कई कारक हैं, जिनसे पानी की कमी तो होना ही है। ऐसे में सारे साल, पूरे देश में कम पानी से बेहतर जीवन और जल-प्रबंधन, ग्रामीण अंचल में पलायन थामने और वैकल्पिक रोजगार मुहैया करवाने की योजनाएं बनाना अनिवार्य हो गया है। पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने एक संगठन की जनहित याचिका पर देश में सूखे के हालात पर शासकीय कोताही की धज्जियां उड़ाई थीं। उस समय राज्य अपने यहां सूखे के सही हालात का आकलन तक नहीं कर पा रहे थे, जाहिर था कि जब तक आंकड़े जमा हुए, तब तक बारिश हो गई व लोक समाज अपना पुराना दर्द भूल कर आगे की तैयारी में लग गया। सरकारी अमला यथावत सुप्तावस्था में आ गया। यह बानगी है कि हमारी व्यवस्था किस तरह सांप निकल जाने के बाद लाठी पीटने व लाल बस्ते के घोड़े दौड़ाने में ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है।

आंखें आसमान पर टिकी हैं, तेज धूप में चमकता साफ नीला आसमान! कहीं कोई काला-घना बादल दिख जाए इसी उम्मीद में आषाढ़ निकल गया। सावन में छींटे भी नहीं पड़े। भादो में दो दिन पानी बरसा तो, लेकिन गरमी से बेहाल धरती पर बूंदे गिरीं और भाप बन गईं। अब....? अब क्या होगा....? यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है। देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टर कृषि भूमि प्रत्येक दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। खतरा यह है कि ऐसे जिलों की संख्या अब बढ़ती जा रही है। असल में इस बात को लेाग नजरअंदाज कर रहे हैं कि यदि सामान्य से कुछ बारिश भी हो और प्रबधन ठीक हो तो समाज पर इसके असर को गौण किया जा सकता है। एक तो यह जान लें कि पानी उलीचने की मशीनों ने पानी की सबसे ज्यादा बर्बादी की है। जब आंगन में एक कुआं होता था तो इंसान अपनी जरूरत की एक बाल्टी खींचता था और उसी से काम चलाता था। आज एक गिलास पानी के लिए भी हैंड पंप या बिजली संचालित मोटर का बटन दबा कर एक बाल्टी से ज्यादा पानी बेकार कर देता है। दूसरा शहरी नालियों की प्रणाली, और उनका स्थानीय नदियों में मिलना व उस पानी का सीधा समुद्र के खारे पान में घुल जाने के बीच जमीन में पानी की नमी को सहेज कर रखने के साधन कम हो गए हैं। कुएं तो लगभग खत्म हो गए, बावड़ी जैसी संरचनाएं उपेक्षा की खंडहर बन गईं व तालाब गंदा पानी निस्तारण के नाबदान। जरा इस व्यवस्था को भी सुधारना होगा या यों कहें कि इसके लिए अपने अतीत व परंपरा की ओर लौटना होगा। जरा सरकारी घोषणा के बाद उपजे आतंक की हकीकत जानने के लिए देश की जल-कंुडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है कि बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना चाहिए नहीं। हां, एक बात सही है कि कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती व इस्तेमाल सालोंसाल कम हुआ है, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य केश क्राप ने खेतों में अपना स्थान बढ़ाया है। इसके चलते बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है। तभी थोड़ा भी कम पानी बरसने पर किसान रोता दिखता है। देश के उत्तरी हिस्से में नदियों में पानी का अस्सी फीसदी जून से सितंबर के बीच रहता है, दक्षिणी राज्यों में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत का है। जाहिर है कि शेष आठ महीनों में पानी का जुगाड़ न तो बारिश से होता है और न ही नदियों से। जाहिर है कि इन समस्याओं के लिए इंद्र की कम कृपा की बात करने वाले असल में अपनी नाकामियों का ठीकरा ऊपर वाले पर फोड़ देते हैं।कहने को तो सूखा एक प्राकृतिक संकट है, लेकिन आज विकास के नाम पर इंसान ने भी बहुत कुछ ऐसा किया है जो कम बारिश के लिए जिम्मेदार है। राजस्थान के रेगिस्तान और कच्छ के रण गवाह हैं कि पानी कमी इंसान के जीवन के रंगो को मुरझा नहीं सकती है। वहां सदियों से, पीढि़यों से बेहद कम बारिश होती है। इसके बावजूद वहां लोगों की बस्तियां हैं, उन लोगों का बहुरंगी लोक-रंग है। वे कम पानी में जीवन जीना और पानी की हर बूंद को सहेजना जानते हैं। आज यह आवश्यक हो गया है कि किसी इलाके को सूखाग्रस्त घोषित करने, वहां राहत के लिए पैसा भेजने जैसी पारंपरिक व छिद्रयुक्त योजनाओं को रोक जाए, इसके स्थान पर पूरे देश के संभावित अल्प वर्षा वाले क्षेत्रों में जल संचयन, खेती, रोजगार, पशुपालन की नई परियोजनाएं स्थाई रूप से लागू की जाएं, जोकि इस आपदा को आतंक के रूप में नहीं, प्रकृतिजन्य अनियमितता मान कर सहजता से जूझा जा सके। कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी करना होगा कि पानी की कमी है। दूसरा ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने के बनिस्पत इसे नियमित कार्य मानना होगा। कम पानी में उगने वाली फसलें, कम से कम रसायन का इस्तेमाल, पारंपरिक जल संरक्षण प्रणालियों को जिलाना, ग्राम स्तर पर विकास व खेती की योजना तैयार करना आदि ऐसे प्रयास हैं, जो सूखे पर भारी पड़ेंगे।

बुधवार, 22 मार्च 2017

Ayodhya Dispute : why epex court is not making final verdicts

यदि आपसी सहमति होती तो इतना खून ही क्यों बहता ?
पंकज चतुर्वेदी
सुप्रीम कोर्ट भी अजीब है , जब उसे फैसले दे कर विवादों को विराम देने की पहल करनी थी, तब वह अदालत से बाहर समझौते की समझाईश  दे रहा है।  यह वही सुप्रीम कोर्ट है जिसने इलाहबाद उच्च न्यायालय के फैसले के अमल पर रोक लगाई थी। यह जान लें कि दिनांक 21 मार्च 2017 को सुप्रीम  कोर्ट ने जो कहा है वह आदेश  नहीं है, महज सलाह है। सनद रहे अयोध्या में मंदिर-मस्जिद का विवाद लगभग 290 साल पुराना है, इसमें कई सौ दंगे हो चुके हैं, दस हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। विवादास्पद ढांचे को ले कर सत्ता आती व जाती रही हैं।यदि गंभीरता से देखें तो अयोध्या में राम लला के मंदिर में राजनीति है, अपराध है, अदालत है, सामाजिक समीकरण हैं, व्यवसाय भी है , नहीं है तो बस धर्म जिसके नाम पर यह प्रपंच रचा जा रहा है। एक पक्ष कहता है कि मंदिर बने तो ठीक वहीं क्योंकि वहां भगवान राम का जन्म हुआ, जबकि तीन सौ से ज्यादा उपलब्ध रामायण को देखें व बांचें तो राम का जन्म कहीं मलाया में है तो कही बस्तर में तो कहीं श्रीलंका में , बहरहाल यह एक मिथक या पौराणिक कथा है व मंदिर समर्थक इतिहास और मिथक में फर्क करने को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ मुस्लिम समाज के कुछ नुमाइंदे, इस्लाम के उस सिद्धांत पर अमल करने को तैयार नहीं हैं कि जिस स्थान पर बुतपरस्ती हो वहां नमाज नहीं पढ़ी जा सकती। हर पक्ष अदालत के फैसले का सम्मान करने की बात कहता है। मुस्लिम पक्ष के हाशिम मियां अब दुनिया में हैं नहीं। इस समय इस मासमले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने वाले सुब्रहण्यम स्वामी किसी भी पक्ष से नहीं हैं। सनद रहे कि अयोध्या विवाद में मुकदमा जमीन को ले कर हैं, जिसमें दो बातें महत्वपूर्ण होती हैं - कब्जा और दस्तावेज। दोनों पक्षों के पास इन दोनो मसलों के पर्यापत सबूत हैं। यह भी सच है कि मुस्लिम समाज का बड़ा वर्ग अयोध्या में राम मंदिर के पक्ष मे हैं और वह जानता है कि बीते 70 साल से जहां रोज पूजा हो रही है, वहां वे नमाज नहीं पढ पाएंगे। लेकिन इस आग को जलाए रखने में कई लोगों के हित सध रहे हैं।
अयोध्या के मंदिर का विवाद षुरू हुआ था सन 1528 में , जब मी बाकी नामक एक मुगल सेनापति ने प्राचीन मंदिर को ढहा कर मस्जिद बनाई थी। हालांकि इतिहास में यह सिद्ध हो चुका है कि बाबार कभी अयोध्या आया ही नहीं, फिर भी इसे बाबरी मस्जिद कहा जाता रहा। 1853ः अंग्रेजों के शासनकाल में पहली बार अयोध्या में सांप्रदायिक दंगे हुए। सन 1859 में यानि इस पहले स्वतंत्रता संगाम के ठीक बाद ख्जिसमें अंग्रेजों से हिंदू-मुस्लिम साझा लड़े थे, इस मंदिर को ले कर अयोध्या में दंगे हुए। याद करें कि अवध का इलाका 1857 में साझा विरासत-साझो संघर्श का सबसे बड़ी बानगी रहा था। कहा यह जाता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी समझ गई थी कि दोनो फिरकों को आपस में लड़ाए बगैर षासन कर पाना मुष्किल हैं सो 1859 के दंगे उसी साजिष का हिस्सा थे।  उसके बादअंग्रेजों ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को और बाहरी हिस्से में हिंदुओं को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी।

देष की आजादी के ठीक बाद सन 1949 भीतरी हिस्से, जिसे मस्जिद कहा गया, वहां एक रात राम लला की प्रतिमा रख दी गई। देषभर में तनाव हुआ , मामला अदालत में गया और अदालत के आदेष पर यहां ताला लगा दिया गया। यह बात भी दीगर है कि उस समय प्रषासन के जिम्मेदार अफसर बाद में एक राजनीतिक दल विषेश से जुड़ गए और यह सिलसिला आज भी चल रहा है, अयोध्या विवाद से जुड़े बुहत से अफसर और जज एक राजनीतिक दल से जुड़ जाते हैं और तब समझ आता है कि उनके कार्यकाल में लिए गए फैसले असल में निश्पक्ष नहीं थे।
सन 1984 में जब इंदिरा गांधी मजबूत हो रही थीं  विष्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए एक आंदोलन की तैयारी षुरू कर दी। फिर इंदिराजी की हत्या के बाद राजीव गांधी तीन चौथाई बहुमत से ताकत में आए और सन 1986 में विवादित स्थान पर हिंदुओ को पूजा अर्चना करने की अनुमति कलेक्टर ने दे दी। इसके विरोध में मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन कर लिया। सन 1989 विवादित स्थल के नजदीक ही राम मंदिर की नींव रखी गई।  और फिर 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद या राम मंदिर को ध्वस्त कर दिया।देषभर में दंगे हुए  जिसमें लगभग तीन हजार लोग मारे गए।

जनवरी 2002में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस विवाद को अदालत से बाहर षांतिपूर्ण तरीके से निबटाने के लिए गंभीरता से ्रपयास किए व एक समिति भी बनाइ्र।  अयोध्या विवाद सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री वाजपेयी ने अयोध्या समिति का गठन किया। फिर फरवरी 2002 में साबरमति एक्सप्रेस की कार सेवाकों वाली एक बोगी को गोधरा में आग लगा दी गई  और उसके बाद भडके दंगे देष पर बदनुमा दाग की तरह चिपक गए। इस आग में समझौते व मंदिर की योजनाएं भी राख हो गईं।
फिर षुरू हुई अदालती लड़ाई। 13 मार्च, 2002ः सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अयोध्या में यथास्थिति बरकरार रखी जाएगी। केंद्र सरकार ने कहा कि कोर्ट के फैसले को माना जाएगा। मार्च 2003 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से विवादित स्थल पर पूजापाठ की अनुमति देने का अनुरोध किया जिसे अदालत ने माना नहीं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेष पर अप्रैल 2003 में  पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने विवादित स्थल की खुदाई शुरू की, जो जून महीने तक चली। इसमें मंदिर के कई अवषेश मिले। इसी साल अगस्त में देष के तत्कालीन उप प्रधानमंत्री ने विहिप के इस अनुरोध को ठुकरा दिया कि एक अध्यादेष ला कर अयोध्या में मंदिर निर्माण का मार्ग प्रषस्त किया जाए।  इस बीच विवादित ढांचा गिराने को ले कर लिबा्रहन कमीषन, सीबीआई जांच, जैसी अदालती दांव-पेंच चलते रहे। लेकिन सितंबर, 2010 में इलाहबाद हाई कोर्ट से बहुत स्पश्ट फैसला सुना कर विवादित बाबरी मस्जिद के बीच के गुम्बद को राम जन्म भूमि मानते हुए विवादित डेढ़ हजार वर्ग मीटर जमीन का तीन पक्षों में बंटवारा कर दिया था। लेकिन जो लोग भी अदालती फैसले का सम्मान करने की दुहाई दे रहे थे, इस षानदार फैसले के खिलफ सुप्रीम कोर्ट चले गए और आज अदालत से बाहर समझौते का सुझाव देने वाले सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में हाईकोर्ट के फैसले पर अमल को ही राक लगा दी।



राम जन्मभूमि मंदिर अयोध्या विवाद पिछले तीन दशकों से भारतीय राजनीति को प्रभावित करता है। मंगलवार को भारतीय जनता पार्टी (ठश्रच्) नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या विवाद मामले पर तुरंत सुनवाई की मांग की। सुनवाई करते हुए शीर्ष कोर्ट ने कहा है कि सर्वसम्मति पर पहुंचने के लिए सभी संबंधित पक्ष साथ बैठें।

अयोध्या विवाद आपस में सुलझाएं, जरूरत पड़ी तो करेंगे मध्यस्थताः ैब्

बीजेपी सहित कई हिंदू संगठनों का दावाह है कि हिंदू देवता राम का जन्म ठीक वहीं हुआ जहां बाबरी मस्जिद थी। इसी विवाद के चलते छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई। इसके अलावा यहां जमीन के मालिकाना कब्जे का विवाद है। सितंबर, 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए विवादित बाबरी मस्जिद के बीच के गुम्बद को राम जन्म भूमि मानते हुए विवादित डेढ़ हजार वर्ग मीटर जमीन का तीन पक्षों में बंटवारा कर दिया था।
इस मामले को जल्द से निर्णय करने की अपील को ले कर भाजपा सांसद सुब्रहण्यम स्वामी सुप्रीम कोर्ट गए। उनकी याचिका थी कि शीर्ष अदालत इस मामले में 2010 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई के लिए एक अलग पीठ गठित करे। इस पर सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति जगदीश सिंह केहर, न्यायमूर्ति डी.वाय. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की सदस्यता वाली पीठ ने कहा कि दोनों पक्ष मिलकर राम मंदिर मामले को बातचीत से सुलझाएं, ये धर्म व आस्था से जुड़ा मामला है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अयोध्या राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को न्यायिक तरीके से सुलझाने के बजाय इस मसले का शांतिपूर्ण समाधान निकालना बेहतर होगा।  प्रधान न्यायाधीश जे एस केहर ने कहा कि यदि संबंधित पक्ष उनकी मध्यस्थता चाहते हैं तो वह इस काम के लिए तैयार हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी पक्षों को इस मुद्दे को सुलझाने के नए प्रयास करने के लिए मध्यस्थ चुनने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जरुरत पड़ने पर मामले के निपटान के लिए न्यायालय द्वारा प्रधान मध्यस्थ चुना जा सकता है। न्यायमूर्ति केहर ने भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी से कहा, “आप किसी को भी चुन सकते हैं। अगर आप चाहते हैं कि मैं मध्यस्थता करूं तो मैं मामले की (न्यायिक पहलू से) सुनवाई नहीं करूंगा। या अगर आप चाहें तो मेरे भाई (न्यायमूर्ति कौल) को चुन सकते हैं। विवाद हैं। आप सभी साथ बैठकर फैसला करें।“
ऐसा नहीं है कि पहले भी मध्यस्थता के प्रयास नहीं हुए। अपनी मौत से पहले इस मामले के मूल पक्षकार हाषिम अंसारी ने तो सियासत से दुखी हो कर इसकी आगे से पैरवी करने से इंकार कर दिया था। इसस ेपहले कांग्रेस के षासनकाल में भी बूटा सिंह की गुप्त मंत्रणाओं में विवाद सुलझो का प्रयास हुआ था।
यह तय है कि मामले का हल आपसी समझदारी से ना निकले, यह मसल अदालत में और लंबा खि्ांचता जाए , ऐसा चाहने वाले लेग भीक म नहीं हें। इसमें चंदा और भावनाओं का षोशण, दोनो फिरको को धु्रवीकरण की िसियासत सहित कई पहलु षामिल हैं। यह भी सही है कि देष के आम मुसलमान को ना तो इस खंडहर मस्जिद की जगह किसी विषाल बाबार के नाम की मस्जिद की आकांक्षा है और ना ही आम हिंदू अयोध्या में ठीक उसी जगह पर मंदिर बने, इसके लिए जड़ है। बेहतर होता कि सुप्रीम कोर्ट मध्यस्थता का राग अलापने की जगह हाई कोर्ट के फैसले पर ही अमल कर विवादास्तपद स्थल पर दोनो धार्मिक स्थल और बीच में निरंक स्थान को लागू करने की समय-सीमा तय कर इस विवाद को हमेषा -हमेषा के लिए समाप्त कर देता।

शुक्रवार, 17 मार्च 2017

coastal area are in threat due to soil errosion

किनारों को खाते समुद्र

देश के दक्षिणी राज्यों कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में समुद्र तट पर हजारों गांवों पर इन दिनों सागर की अथाह लहरों का आतंक मंडरा रहा है।



समुद्र के विस्तार की समस्या कर्नाटक या अन्य दक्षिणी राज्यों तक सीमित नहीं है, इसका असर मुंबई, कोलकाता, पुरी और द्वीप-समूहों में भी देखा जा रहा है। वैसे ही बढ़ती आबादी के चलते जमीन की कमी विस्फोटक हालात पैदा कर रही है। ऐसे में बेशकीमती जमीन को समुद्र का शिकार होने से बचाने के लिए केंद्र सरकार को ही सोचना होगा।
देश के दक्षिणी राज्यों कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में समुद्र तट पर हजारों गांवों पर इन दिनों सागर की अथाह लहरों का आतंक मंडरा रहा है। समुद्र की तेज लहरें तट को काट देती हैं और देखते ही देखते आबादी के स्थान पर नीले समुद्र का कब्जा हो जाता है। किनारे की बस्तियों में रहने वाले मछुआरे अपनी झोपड़ियां और पीछे कर लेते हैं। कुछ ही महीनों में वे कई किलोमीटर पीछे खिसक आए हैं। अब आगे समुद्र है और पीछे जाने को जगह नहीं बची है। कई जगह तो समुद्र में मिलने वाली छोटी-बड़ी नदियों को सागर का खारा पानी हड़प कर गया है, सो इलाके में पीने, खेती और अन्य उपयोग के लिए पानी का टोटा हो गया है।
कर्नाटक में उल्लाल के पास स्थित मछुआरों का गांव काटेपुरा पिछले तीन-चार साल में कोई एक किलोमीटर पीछे खिसक चुका है। वहां बहने वाली नेत्रवती नदी से सागर की दूरी बमुश्किल सौ मीटर बची है। मरावंथे गांव किसी भी दिन समुद्र के उदरस्थ हो जाएगा। यहां उमड़ते समुद्र और नदी के बीच महज एक पतली-सी सड़क बची है।
समुद्र की जल-सीमा में हो रहे फैलाव का अभी तक कोई ठोस कारण नहीं खोजा जा सका है। कर्नाटक के सिंचाई विभाग द्वारा तैयार की गई ‘राष्ट्रीय समुद्र तट संरक्षण रिपोर्ट’ में कहा गया है कि सागर-लहरों की दिशा बदलना कई बातों पर निर्भर करता है। लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण समुद्र के किनारों पर बढ़ते औद्योगीकरण और शहरीकरण से तटों पर हरियाली का गायब होना है। इसके अलावा हवा का रुख, ज्वार-भाटे और नदियों के बहाव में आ रहे बदलाव भी समुद्र को प्रभावित कर रहे हैं। कई भौगोलिक परिस्थितियां, जैसे बहुत सारी नदियों के समुद्र में मिलन-स्थल पर बनीं अलग-अलग कई खाड़ियों की मौजूदगी और नदी-मुख की स्थिति में लगातार बदलाव भी समुद्र के अस्थिर व्यवहार के लिए जिम्मेदार है। ओजोन पट्टी के नष्ट होने और वायुमंडल में कार्बन मोनो आक्साइड की मात्रा बढ़ने से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। इससे समुद्री जल का स्तर बढ़ना भी इस तबाही का एक कारक हो सकता है।
राष्ट्रीय समुद्र तट संरक्षण रिपोर्ट में भी चिंता जताई गई है कि समस्या को एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर मोड़ देने से टिकाऊ समाधान की उम्मीद नहीं की जा सकती है। समुद्र के विस्तार की समस्या कर्नाटक या अन्य दक्षिणी राज्यों तक सीमित नहीं है, इसका असर मुंबई, कोलकाता, पुरी और द्वीप-समूहों में भी देखा जा रहा है। वैसे ही बढ़ती आबादी के चलते जमीन की कमी विस्फोटक हालात पैदा कर रही है। ऐसे में बेशकीमती जमीन को समुद्र का शिकार होने से बचाने के लिए केंद्र सरकार को ही सोचना होगा।
पुरी के समुद्र तट को देश के सबसे खूबसूरत समुद्र तटों में गिना जाता था। आज वहां की हरियाली गायब है, सारे कायदे-कानून तोड़ कर तट से सट कर बने होटलों व शहर की बढ़ती आबादी की नालियां सीधे समुद्र में गिर रही हैं। सरकार ने पानी के करीब सुलभ शौचालय बना दिया है तो कुछ आगे चल कर आंध्र प्रदेश से विस्थापित हुए हजारों मछुआरों ने अपनी बस्ती बना ली है। कुल मिलाकर अब यहां बैठना मुश्किल होता जा रहा है। यह दुर्दशा अकेले पुरी की नहीं है, गोवा चले जाएं या फिर दक्षिणी राज्यों के किसी तट पर या फिर बंगाल में गंगासागर- अनियोजित विकास, अंधाधुंध पर्यटन और समुद्र तट संरक्षण कानूनों के प्रति उदासीनता के चलते देश के समुद्र तटों पर गंभीर पर्यावरणीय खतरा मंडरा रहा है। गोवा तो पूरी तरह समुद्र के तट पर ही बसा है और यहां कई जगह समुद्र की लहरें जमीन काट कर बस्ती में घुसती दिखती हैं।
समुद्र किनारे रहने वालों को ही नहीं, वहां के स्थानीय प्रशासन के बहुत कम अफसरान को यह जानकारी है कि 1991 में एक समुद्रतट बंदोबस्त क्षेत्र (कोस्टल रेगुलेशन जोन यानी सीआरजेड) कानून लागू किया गया था। तटों पर लगातार हो रहे निर्माण-कार्यों के चलते वहां का पर्यावरण प्रभावित हो रहा है, इसी को ध्यान में रख कर इस कानून में प्रावधान रखा गया था कि समुद्र तट के पांच सौ मीटर के भीतर किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगा दी गई थी। साथ ही समुद्र में शहरी या औद्योगिक कचरा फेंकने पर पाबंदी का भी इसमें प्रावधान था। शायद ही कहीं इसका पालन हो रहा है।
पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 में बनाए गए सीआरजेड में समुद्र में आए ज्वार की अधिकतम सीमा से पांच सौ मीटर और भाटे के बीच के क्षेत्र को संरक्षित घोषित किया गया है। इसमें समुद्र, खाड़ी, उसमें मिलने आ रहे नदी के प्रवाह को भी शामिल किया गया है। ज्वार यानी समुद्र की लहरों की अधिकतम सीमा के पांच सौ मीटर क्षेत्र को पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील घोषित कर इसे एनडीजेड यानी नो डेवलपमेंट जोन (किसी भी निर्माण के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र) घोषित किया गया। इसे सीआरजेड-1 भी कहा गया। सीआरजेड-2 के तहत ऐसे नगरपालिका क्षेत्रों को रखा गया है, जो कि पहले से ही विकसित हैं। सीआरजेड-3 किस्म के क्षेत्र में वह समुद्र तट आता है जो कि सीआरजेड-1 या 2 के तहत नहीं आता है। यहां किसी भी तरह के निर्माण के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति आवश्यक है। सीआरजेड-4 में अंडमान, निकोबार और लक्षद्वीप की पट्टी को रखा गया है। सन 1998 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय समुद्र तट क्षेत्र प्रबंधन प्राधिकरण और इसकी राज्य इकाइयों का भी गठन किया, ताकि सीआरजेड कानून को लागू किया जा सके।
सीआरजेड कानून लागू होने के बाद भी समुद्र तटों के गांवों में नए मकान बनना और जमीन की खरीद-बिक्री जारी है। कर्नाटक और केरल में कुछ जगहों पर गांववालों व प्राधिकरण के अधिकारियों के बीच टकराव भी हुए। गांववालों ने जब मकान बनाए तो उन्हें रोका गया। लोगों ने पंचायत से मिली अनुमति व उस पर चुकाए जाने वाले टैक्स की रसीदें दिखा दीं। पंचायत का कहना है कि निर्माण-कार्य नया नहीं है, वह तो पुराने मकानों की मरम्मत है। अधिकारियों के पास सैटेलाइट से तैयार नक्शे हैं। इस पर लोगों का कहना है कि सैटेलाइट से नारियल के पेड़ तो आ जाते हैं, लेकिन उनके बीच बने छोटे झोपड़ों की फोटो बनाना संभव नहीं होता है।
लेकिन विडंबना यह है कि समुद्र संरक्षण कानून की मार अकेले गांववालों पर ही पड़ रही है। पर्यटन या व्यावसायिक दृष्टि से महंगे इलाकों में लोग धड़ल्ले से कानून तोड़ रहे हैं। पुरी में समुद्र तट संरक्षण समिति तो हाइकोर्ट तक गई। अदालत ने समुद्र तट के करीब निर्माण करने वालों के खिलाफ आदेश भी सुनाए, लेकिन उनको लागू करवाने के लिए जिम्मेदार स्थानीय प्रशासन का रवैया निहायत संवेदनहीन रहा। ऐसा ही मुंबई और गोवा के समुद्र तटों का पर्यावरण सुरक्षित रखने के लिए संघर्षरत गैरसरकारी संगठनों के साथ भी हुआ।
कनार्टक में एक स्वयंसेवी संस्था नागरिक सेवा ट्रस्ट ने दक्षिण कन्नड़ा, उडुपी और उत्तरी कन्नड़ा जिले के 320 किलोमीटर के समुद्र तट पर सीआरजेड क्षेत्र का विस्तृत अध्ययन किया। पाया गया कि राज्य सरकार ने ही इस कानून की खूब धज्जियां उड़ाई हैं। दरअसल, पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर सीआरजेड कानून में इतनी गुंजाइश जरूर छोड़ी गई है जिसका दुरुपयोग रुतबेदार लोगों के लिए किया जा सके। यदि शहरी क्षेत्रों में सीआरजेड कानून को कड़ाई से लागू नहीं किया गया तो स्वच्छ निर्मल समुद्रों के तट भी कानपुर में गंगा या दिल्ली में यमुना की ही तरह हो जाएंगे।

Golden days of traditional water tanks may come back in UP

तो क्या बहुरेंगे तालाबों के दिन ?


उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन और भाजपा को विशाल बहुमत मिलने के बाद अलग-अलग लोगों के अपने-अपने सरोकार बहुत हैं, लेकिन जल-जंगल-जमीन से प्रेम करने वालों को एक उम्मीद बंधी है कि अब राज्य के उपेक्षित, पारंपरिक और समृद्ध तालाबों के दिन बहुरेंगे। कब्जों, गंदगी और जल-हीनता के शिकार हजारों तालाबों का स्वामी प्रदेश पेय-जल व सिंचाई संकट से सबसे अधिक प्रभावित रहा है। यदि शासन संभालने वाले दल ने अपने चुनाव के संकल्प पत्र पर ईमानदारी से काम किया तो यहां सशक्त ‘तालाब विकास प्राधिकरण’ का गठन होगा, जोकि राज्यभर के तालाबों को एक छतरी के नीचे लाकर उनको संपन्न व समृद्ध करेगा।
यह सच्चाई है कि साल-दर-साल बढ़ती आबादी का कंठ तर करने और उसका पेट भरने के लिए अन्न उगाने के लिए पानी की मांग बढ़ती जा रही है, वहीं जलवायु परिवर्तन के चलते बरसात कम हो रही है, साथ ही जल स्रोतों को ढक कर उसकी जमीन पर मॉल-सड़क बनाने की प्रवृत्ति में भी इजाफा हुआ है। तीन दशक पहले सरकार ने पानी की कमी को पूरा करने के लिए भूजल पर जोर दिया, लेकिन वहां भी इतना उत्खनन हो गया कि पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में बंजर जमीन का खतरा पैदा हो गया। गंगा-यमुना जैसी नदियों के स्वामी उत्तर प्रदेश को जगह-जगह बंध रहे बांध और प्रदूषण के चलते सर्वाधिक जल-हानि झेलनी पड़ी है। संकट अकेले पानी की कमी का नहीं, असल विकराल समस्या धरती के लगातार गरम होने और उसे शीतल रखने में कारगर तालाबों, जलाशयों के नष्ट होने का है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अभी एक दशक पहले तक 12,653 ताालाब-पोखर-बावड़ी-कुएं हुआ करते थे। सरकार ने अदालत में स्वीकार किया है कि इनमें से चार हजार को भूमाफियाओं ने पाटकर बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर दी हैं, जबकि 2023 पर अभी भी अवैध कब्जे हैं। ऐसे ही इलाहाबाद में तेरह हजार, आजमगढ़ में 10,535, गोरापुर में 3971 कानुपर में 377, सहारनपुर में 6858, मेरठ 1853 आगरा में 591, बनारस में 1611 जल निधियों को मटियामेट करने के आंकड़े सरकारी फाइलों में दर्ज हैं।

बंुदेलखंड तो अपने पारंपरिक तालबों के लिए मशहूर था। सबसे अधिक प्यास, पलायन व मुफलिसी के लिए बदनाम हो गए, बुंदेलखंड के हर गांव में कई-कई तालाब होते थे। आज यहां का कोई भी शहर, कस्बा ऐसा नहीं है, जो पानी की कमी से बेहाल न हो और उसका विस्तार तालाबों के कब्रस्तान पर न हुआ हो। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे। उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है।
 पिछले साल ही उत्तर प्रदेश के इटावा की नगर पालिका ने वहां के एक पुराने तालाब को सुंदर बनाने के नाम पर उसके संकरा कर रंगीन नीली टाइल्स लगाने की योजना पर काम शुरू किया है। हो सकता है कि उससे कुछ दिनों शहर में रौनक आ जाए, लेकिन न तो उसमें पानी एकत्र होगा और न ही वहां एकत्र पानी से जमीन की प्यास बुझेगी। यह भी तय है कि ऐसे तालाब में बाहर से पानी भरना होगा। ऐसा ही पूरे देश के सरोवरों के साथ लगातार हो रहा है। तालाब के जलग्रहण व निकासी क्षेत्र में पक्के निर्माण कर उसका आमाप समेट दिया जाता है, सुंदरीकरण के नाम पर पानी के बीच में कोई मंदिर किस्म की स्थाई आकृति बना दी गई व इसकी आड़ में आसपास की जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल कर दिया गया। बलिया का सुरहा ताल तो बहुत मशहूर है, लेकिन इसी जिले का एक कस्बे का नाम रत्सड़ इसमें मौजूद सैकड़ों निजी तालाबों के कारण पड़ा था, सर यानी सरोवर से ‘सड़’ हुआ। कहते हैं कि कुछ दशक पहले तक वहां हर घर का एक तालाब था, लेकिन जैसे ही कस्बे को आधुनिकता की हवा लगी व घरों में नल लगे, फिर गुसलखाने आए, नालियां आईं, इन तालाबों को गंदगी डालने का नाबदान बना दिया गया। फिर तालाबों से बदबू आई तो उन्हें ढंक कर नई कालेानियां या दुकानें बनाने का बहाना तलाश लिया गया। यह दुखद है कि आधुकिनता की आंधी में तालाब को सरकार भाषा में जल संसाधन माना नहीं जाता है, वहीं समाज और सरकार ने उसे जमीन का संसाधन मान लिया। देशभर के तालाब अलग-अलग महकमों में बंटे हुए हैं। मछली विभाग, सिंचाई, वन, स्थानीय प्रशासन आदि। जब जिसे सड़क, कालोनी, मॉल, जिसके लिए भी जमीन की जरूरत हुई, तालाब को पुरा व समतल बना लिया। आज शहरों में आ रही बाढ़ हो या फिर पानी का संकट सभी के पीछे तालाबों की बेपरवाही ही मूल कारण है। इसके बावजूद पारंपरिक तालाबों को सहेजने की कोई साझी योजना नहीं है। यह देश के किसी राज्य में पहली बार होगा, जब कोई सरकार लगभग 73 साल पुरानी एक ऐसी रपट पर गंभीरता से अमल करने की सोचेगी, जोकि सन 1943 के भयंकर बंगाल दुर्भिक्ष में तीन लाख से ज्यादा मौत होने के बाद ब्रितानी सरकार द्वारा गठित एक आयोग की सिफारिशों में थी। सन् 1944 में आई अकाल जांच आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत जैसे देश में नहरों से सिंचाई के बनिस्पत तालाब खोदने व उनके रखरखाव की ज्यादा जरूरत है। सन 1943 में ‘ग्रो मोर कैंपेन’ चलाया गया था, जोकि बाद में देश की पहली पंचवर्षीय योजना का हिस्सा बना, उसमें भी लघु सिंचाई परियोजनाओं यानी तालाबों की बात कही गई थी। उसके बाद भी कई-कई योजनाएं बनीं, मध्य प्रदेश जैसे राज्य में ‘सरोवर हमारी धरोहर’ जैसे अभियान चले, लेकिन जब आंकड़ों पर गौर करें तो दिल्ली हो या बंगलुरु या फिर छतरपुर या लखनऊ, सभी जगह विकास के लिए रोपी गई कालेानियां, सड़कों, कारखानों, फ्लाई ओवरों को तालाब को समाप्त कर ही बनाया गया। तालाब विकास प्राधिकरण इसीलिए आवश्यक है कि वह पहले राज्य के सभी तालाब, पोखरों का सर्वेक्षण कर उनके आंकड़े तो ईमानदारी से एकत्र करे, जिसमें बच गए जल संसाधन, कब्जा किए गए इलाकों, उपलब्ध तालाबों की मरम्मत, उससे जुड़े अदालती पचड़ों के निबटारे जैसे मसलों पर अधिकार संपन्न संस्था के रूप में निर्णायक हो। एक बात और, बंपर बहुमत लाने वाली भाजपा के संकल्प पत्र में तालाब विकास प्राधिकरण की बात को शिामल करने का दबाव बनाने वाले संजय कश्यप गाजियाबाद के एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो नदी और तालाब के लिए गत दो दशकों से काम कर रहे हैं, वे बीते चार सालों से केंद्र व राज्य में तालाब विकास प्राधिकरण के गठन के लिए जल मामलों की संसदीय समिति से ले कर जल संसाधन मंत्री और देश के कई जिलों में जिलाधीश के माध्यम से केंद्र सरकार को ज्ञापन देने का कार्य चुपचाप करते रहे हैं। श्री कश्यप का कहना है कि राज्य सरकार की प्राथमिकता सिंचाई संसाधन विकसित करने की है। और इसके तहत तालाब प्राधिकरण का गठन महत्वपूर्ण कदम होगा। यदि उत्तर प्रदेश में यह योजना सफल हो जाती है तो देश के अन्य राज्यों में भी जल संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं के लिए यह एक नजीर होगा। यदि जल संकटग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए। इस पूरे कार्य का संचालन तालाब प्राधिकरण के अंतर्गत हो। जरूरत इस बात की है कि आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में अपनी जड़ों को लौटने की इच्छा शक्ति विकसित करनी होगी।

रविवार, 12 मार्च 2017

Increasing temrature threat to nature

तापमान वृद्धि से बढ़ेंगी दिक्कतें

इस साल 18 फरवरी को पिछले पांच वर्षो में सबसे गर्म दिन बताया गया। पिछले एक पखवाड़े से कभी तेज धूप होती है तो कहीं बादल और बूंदाबांदी होने लगती है, अचानक ठंड सी लगने लगती है। अतीत में देखें तो पाएंगे कि मौसम की यह स्थिति बीते एक दशक से कुछ यादा ही समाज को तंग कर रही है। हाल में, अमेरिका की अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने भी कहा है कि फरवरी में तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि ने पूर्व के महीनों के रिकॉर्ड को तोड़ दिया है। नासा के आंकड़ों के अनुसार यह पर्यावरण के लिए खतरे के संकेत हैं। जेफ मास्टर्स और बाब हेनसन ने लिखा कि यह मानव द्वारा निर्मित ग्रीन हाउस गैसों के कारण वैश्विक तापमान में लंबे समय में वृद्धि की चेतावनी है। मार्च की शुरुआत में प्रारंभिक नतीजों से यह सुनिश्चित हो गया है कि तापमान में वृद्धि के रिकॉर्ड टूटने जा रहे हैं। 1951 से 1980 के मध्य की आधार अवधि की तुलना में धरती की सतह और समुद्र का तापमान फरवरी में 1.35 सेल्सियस अधिक रहा है जबकि इस साल जनवरी में ही आधार अवधि का रिकॉर्ड टूट चुका है।
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। इस बदलाव के कारण धरती किस दिशा में जा रही है। फरवरी के तापमान में खतरनाक स्तर पर वृद्धि आखिर क्यों हुई? इस महीने वैश्विक तापमान में 1.35 सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई। धरती की सतह का इस तरह गरम होना चिंताजनक है। तापमान ऊर्जा का प्रतीक तो है लेकिन इसके संतुलन बिगड़ने का अर्थ है हमारे अस्तित्व पर संकट। यह तो सभी जानते हैं कि वायुमंडल में सभी गैसों की मात्र तय है और 750 अरब टन कार्बनडाइ ऑक्साइड के रूप में वातावरण में मौजूद है। कार्बन की मात्र बढ़ने का दुष्परिणाम है कि जलवायु परिवर्तन और धरती के गरम होने जैसे प्रकृतिनाशक बदलाव हम ङोल रहे हैं। कार्बन की मात्र में इजाफे से दुनिया पर तूफान, कीटों के प्रकोप, सुनामी या वालामुखी जैसे खतरे मंडरा रहे हैं। दुनिया पर तेजाबी बारिश की आशंका बढ़ने का कारक भी है, कार्बन की बेलगाम मात्र।
धरती में कार्बन का बड़ा भंडार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़, प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानी पांच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते हैं। आज विश्व में अमेरिका सबसे यादा 1,03,30,000 किलो टन कार्बनडाइ ऑक्साइड उत्सर्जित करता है जो कि वहां की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है। उसके बाद कनाडा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन हैं। जापान, जर्मनी, दक्षिण कोरिया आदि औद्योगिक देशों में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज 20 लाख सत्तर हजार किलो टन या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बनडाइ आक्साइड ही उत्सर्जित करता है। अनुमान है कि यह 203 तक तीन गुणा यानी अधिकतम पांच तक जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएं देशों की भौगोलिक सीमाएं देख कर तो हमला करती नहीं हैं। चूंकि भारत नदियों का देश है, वह भी अधिकांश ऐसी नदियां जो पहाड़ों पर बर्फ पिघलने से बनती हैं, सो हमें हरसंभव प्रयास करने ही चाहिए।
कार्बन उत्सर्जन की मात्र कम करने के लिए हमें एक तो स्वछ ईंधन को बढ़ावा देना होगा। हमारे देश में रसोई गैसे की तो नहीं कमी है, हां सिलेंडर बनाने के लिए जरूरी स्टील, सिलेंडर वितरण के लिए आंचलिक क्षेत्रों तक नेटवर्क को विकसित करना और गरीब लोगों को बेहद कम दाम पर गैस उपलब्ध करवाना ही बड़ी चुनौती है। कार्बन उत्सर्जन घटाने में सबसे बड़ी बाधा वाहनों की बढ़ती संख्या, मिलावटी पेट्रो पदार्थो की बिक्री, घटिया सड़कें, ऑटो पुर्जो की बिक्री और छोटे कस्बों तक यातायात जाम होने की समस्या है। देश में बढ़ता कचरे का ढेर और उसके निबटान की माकूल व्यवस्था का ना होना भी कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण की बड़ी बाधा है। सनद रहे कि कूड़ा जब सड़ता है तो उससे बड़ी मात्र में मीथेन, कार्बन मोनोडाइ और कार्बनडाइ ऑक्साइड गैसें निकल कर वायुमंडल में कार्बन के घनत्व को बढ़ाती हैं। साथ ही बड़े बांध, सिंचाई नहरों के कारण बढ़ते दल-दल भी कार्बनडाइ ऑक्साइड पैदा करते हैं। कार्बन की बढ़ती मात्र से तापमान में बढ़ोतरी के कारण दुनिया में भूख, बाढ़, सूखे जैसी विपदाओं का न्यौता है। जाहिर है कि इससे जूझना सारी दुनिया का फर्ज है, लेकिन भारत में मौजूद प्राकृतिक संसाधन और पारपंरकि ज्ञान इसका सबसे सटीक निदान है। छोटे तालाब और कुएं, पारंपरिक मिश्रित जंगल, खेती और परिवहन के पुराने साधन, कुटीर उद्योग का सशक्तीकरण जैसे कुछ प्रयास हैं, जो बगैर किसी मशीन या बड़ी तकनीक या फिर अर्थव्यवस्था को प्रभावित किए बगैर ही कार्बन पर नियंत्रण कर सकते हैं और इसके लिए हमें पश्चिम से उधार में लिए ज्ञान की जरूरत भी नहीं है। धरती के गरम होने से सबसे यादा प्रभावित हो रहे हैं ग्लेशियर। ये हमारे लिए उतने ही जरूरी है जितना साफा हवा या पानी। तापमान बढ़ने से इनका गलना तेजी से होता है। इसके चलते कार्बन उत्सर्जन में तेजी आती है और इससे एक तो धरती के तापमान नियंत्रण प्रणाली पर विपरीत प्रभाव होता है। दूसरा नदियों व उसके जरिये समुद्र में जल का स्तर बढ़ता है। जाहिर है जल स्तर बढ़ने से धरती पर रेत का फैला होता है, साथ ही कई इलाकों के ढूबने की संभावना भी होती है।
ग्लोबल वार्मिग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणाम स्वरूप धरती के शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों पर आ रहे भयंकर संकट और उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब पुस्तकों, सेमीनार तथा चेतावनियों से बाहर निकल कर आम लोगों के बीच जाना जरूरी है। साथ ही इसके नाम पर डराया नहीं जाए बल्कि इससे जूझने के तौर-तरीके भी बताया जाना अनिवार्य है। धरती को इन संकटों से बचाने के लिए समाज का मुख्यधारा कहे जाने वाले समाल को आदिवासियों के जीवन से सीखे जाने की बेहद जरूरत है। आदिवासी समाज का जीवन स्थायित्व वाला है और उनका जीवन प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व को बढ़ावा देने वाला है।

शुक्रवार, 10 मार्च 2017

Government school needs to change there face

चेहरा बदलें सरकारी स्कूलों का 

अगस्त  2015 में लोगों को लगा था कि अब कोई क्रांति आने वाली है, क्योंकि इलाहबाद हाईकोर्ट ने कह दिया था कि अफसरों व नेताओं के बच्चे सरकारी स्कूल में जाएं। कई लोग इसे शिक्षा-जगत में बदलाव का बड़ा फैसला निरूपित कर रहे थे। हालांकि, वह आदेश कहीं लाल बस्ते में बंधकर गुम हो गया, लेकिन कुछ बातें तो स्वीकार करनी होंगी कि मनमानी फीस वसूली और अभिभावकों के शोषण की असहनीय बुराइयों के बावजूद भी निजी या पब्लिक स्कूल आम लोगों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व बेहतर माहौल के प्रति विश्वास जगाने में सफल रहे हैं। यह भी मानना होगा कि देश को निरक्षरता के अंधकार से निकालकर साक्षरता की रोशनी दिखाने में भी ऐसे स्कूलों की महत्वपूर्ण भागीदारी रही है। हालांकि सरकारी स्कूल के शिक्षक की शैक्षिक योग्यता व प्रशिक्षण और वेतन किसी भी नामी-गिरामी स्कूल के शिक्षक के बीस ही होते हैं, इसके बावजूद सरकारी स्कूल के शिक्षक का प्रभामंडल निजी स्कूलों की तुलना में फीका होता है।
इसके मुख्य दो कारण हैं- सरकारी स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं का अभाव व दूसरा सरकारी शिक्षक की ड्यूटी में शिक्षण के अलावा बहुत कुछ होना। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के कर्री कस्बे के हाई स्कूल में बीते तीन सालों से गणित का केवल एक ही शिक्षक है और उसके जिम्मे है कक्षा नौ व 10 के कुल 428 छात्र। क्लास रूम इतने छोटे हैं कि 50 से ज्यादा बच्चे आ नहीं सकते और शिक्षक हर दिन पांच से ज्यादा पीरियड पढ़ा नहीं सकता। जाहिर है कि बड़ी संख्या में बच्चे गणित शिक्षण से अछूते रह जाते हैं।
जिला मुख्यालय में बैठे लोग भी जानते हैं कि उस शाला का अच्छा रिजल्ट महज नकल के भरोसे आता है। ऐसे ‘कर्री’ देश के हर जिले, राज्य में सैकड़ों-हजारों में हैं। वहीं समाज के एक वर्ग द्वारा गरियाए जा रहे निजी स्कूलों में कम से कम यह हालात तो नहीं हैं। यह बेहद आदर्श स्थिति है कि देश में समूची स्कूली शिक्षा का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए व यूरोप जैसे विकसित देशों की तरह आवास के निर्धारित दायरे में रहने वाले बच्चे का निर्धारित स्कूल में जाना अनिवार्य हो। कोई भी स्कूल निजी नहीं होगा व सभी जगह एकसमान टेबल-कुर्सी, भवन, पेयजल, शौचालय, पुस्तकें आदि होंगी। सभी जगह दिन का भोजन भी स्कूल में ही होगा। डेढ़ साल पहले शायद अदालत इस तथ्य से वाकिफ होगी ही कि सुदूर ग्रामीण अंचलों की बात दूर की है, देश की राजधानी दिल्ली में ही कई ऐसे सरकारी स्कूल हैं, जहां ब्लैक बोर्ड व पहंुच-मार्ग या भवन जैसी मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं। अदालत को यह भी पता होगा कि उत्तर प्रदेश में ही पैंतीस प्रतिशत से ज्यादा शिक्षकों के पद रिक्त हैं और यदि सभी स्वीकृत पद पर शिक्षक रख भी दिए जाएं तो सरकारी स्कूल में शिक्षक-छात्र अनुपात औसतन एक शिक्षक पर 110 बच्चों का होगा। यह विडंबना है कि हमारी व्यवस्था इस बात को नहीं समझ पा रही है कि पढ़ाई या स्कूल इस्तेमाल लायक सूचना देने का जरिया नहीं हैं, वहां जो कुछ भी होता है, सीखा जाता है, उसे समझना व व्यावहारिक बनाना अनिवार्य है। हम स्कूलों में भर्ती के बड़े अभियान चला रहे हैं और फिर भी कई करोड़ बच्चों से स्कूल दूर हैं। जो स्कूल में भर्ती हैं, उनमें से भी कई लाख बच्चे भले ही कुछ प्रमाण पत्र पाकर, कुछ कक्षाओं में उर्तीण दर्ज हों, लेकिन हकीकत में ज्ञान से दूर हैं। ऐसे में जो अभिभावक खर्च वहन कर सकते हैं, उन्हें उन स्कूलों में अपने बच्चे को भेजने के लिए बाध्य करना, जोकि सरकारी सहायता के कारण उन लोगों की ज्ञान-स्थली हैं, जो समाज के कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्ग से आते हैं, असल में जरूरतमंदों का हक मारना होगा। यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि केंद्रीय विद्यालय, नवोदय, सैनिक स्कूल ,सर्वोदय या दिल्ली के प्रतिभा विकास विद्यालय सहित कई हजार ऐसे सरकारी स्कूल हैं, जहां बच्चों के प्रवेश के लिए पब्लिक स्कूल से ज्यादा मारामारी होती है।
जाहिर है कि मध्य वर्ग को परहेज सरकारी स्कूल से नहीं, बल्कि वहां की अव्यवस्था और गैर-शैक्षिक परिवेश से है। विडंबना है कि सरकार के लिए भी सरकारी स्कूल का शिक्षक बच्चों का मार्गदर्शक नहीं होता, उसके बनिस्पत वह विभिन्न सरकारी योजनाओं का वाहक या प्रचारक होता है। उसमें चुनाव से लेकर जनगणना तक के कार्य, राशन कार्ड से लेकर पोलिया की दवा पिलाने व कई अन्य कार्य भी शिामल हैं। फिर आंकड़ों में एक शिक्षान्मुखी-कल्याणकारी राज्य की तस्वीर बताने के लिए नए खुले स्कूल, वहां पढ़ने वाले बच्चों की संख्या, मिड डे मील का ब्यौरा बताने का माध्यम भी स्कूल या शिक्षक ही है। काश स्कूल को केवल स्कूल रहने दिया जाता व एक नियोजित येाजना के तहत स्कूलों की मूलभूत सुविधाएं विकसित करने का कार्य होता। गौरतलब है कि देश में हर साल कोई एक करोड़ चालीस लाख बच्चे हायर सेकेंडरी पास करते हैं, लेकिन कॉलेज तक जाने वाले महज 20 लाख होते हैं। यदि प्राथमिक शिक्षा से कॉलेज तक की संस्थाओं का पिरामिड देखें तो साफ होता है कि उत्तरोतर उनकी संख्या कम होती जाती है। केवल संख्या में ही नहीं गुणवत्ता, उपलब्धता और व्यय में भी। गांव-कस्बों में ऐसे लोग बड़ी संख्या में मिल जाते हैं, जो सरकारी स्कूलों की अव्यवस्था और तंगहाली से निराश हो कर अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजते हैं, हालांकि उनकी जेब इसके लिए साथ नहीं देती है।
दुखद यह भी है कि शिक्षा का असल उद्देश्य महज नौकरी पाना, वह भी सरकारी नौकरी पाना बन कर रह गया है। जबकि असल में शिक्षा का इरादा एक बेहतर नागरिक बनाना होता है, जो अपने कर्तव्य व अधिकारों के बारे में जागरूक हो, जो अपने जीवन-स्तर को स्वच्छता-स्वास्थ्य-संप्रेषण की दृष्टि से बेहतर बनाने के प्रयास स्वयं करे। यही नहीं वह अपने पारंपरिक रोजगार या जीवकोपार्जन के तरीके को विभिन्न शासकीय योजनओं व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न व समृद्ध करे। विडंबना है कि गांव के सरकारी स्कूल से हायर सेकेंडरी पास बच्चा बैंक में पैसा जमा करने की पर्ची भरने में झिझकता है। इसका असल कारण उसके स्कूल के परिवेश में ही उन तत्वों की कमी होना है, जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसे शिक्षित किया जा रहा है।यह देश के लिए गर्व की बात है कि समाज का बड़ा वर्ग अब पढ़ाई का महत्व समझ रहा है, लोग अपनी बच्चियों को भी स्कूल भेज रहे हैं, गांवों में विकास की परिभाषा में स्कूल का होना प्राथमिकता पर है। ऐसे में स्कूलों में जरूरतों व शैक्षिक गुणवत्ता पर काम कर के सरकारी स्कूलों का सम्मान वापिस पाया जा सकता है। यह बात जान लें कि किसी को जबरिया उन स्कूलों में भेजने का आदेश एक तो उन लोगों के हक पर संपन्न लोगों के अनाधिकार प्रवेश होंगे, जिनकी पहली पीढ़ी स्कूल की तरफ जा रही है। साथ ही शिक्षा के विस्तार की योजना पर भी इसका विपरीत असर होगा। निजी स्कूलों की मनमानी पर रोक हो, सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर बढ़े, स्कूल के शिक्षक की प्राथमिकता केवल पठन-पाठन हो, इसके लिए एक सशक्त तंत्र आवश्यक है, न कि अफसर, नेताओं के बच्चों का सरकारी स्कूल में प्रवेश की अनिवार्यता। लेकिन यह भी अनिवार्य है कि धीरे-धीरे समाज के ही संपन्न लोग किसी निजी स्कूल में लाखों का डोनेशन देकर अपने बच्चे को भर्ती करवाने के बनिस्पत अपने करीब के सरकारी स्कूल में मूलभूत सुविधाएं विकसित करने की पहल करें और फिर अपने बच्चों को वहां भर्ती करवाएं।

गुरुवार, 9 मार्च 2017

Urbanization swallowing villages

गांवों को लीलते शहर


यदि इस सवाल का ईमानदारी से जवाब तलाशा जाए कि आजादी के बाद भारत की सबसे बड़ी त्रासदी किसे कहा जा सकता है, तो इसका जवाब होगा-करीब पचास करोड़ लोगों का अपने पुश्तैनी गांव-घर, रोजगार से पलायन। और आने वाले दिनों की सबसे भीषण त्रासदी क्या होगी? तो इसका जवाब होगा, ग्रामीण इलाकों से लोगों के पलायन के कारण शहरों का अर्बन स्लम में बदलना। देश की लगभग एक तिहाई आबादी (31.16 प्रतिशत) अब शहरों में रह रही है। 2011 की जनगणना के आंकड़े गवाह हैं कि गांव छोड़कर शहर जाने वालों की संख्या बढ़ रही है और अब 37 करोड 70 लाख लोग शहरों के बाशिंदे हैं। वर्ष 2001 से 2011 के बीच शहरों की आबादी में नौ करोड़ दस लाख का इजाफा हुआ, जबकि गांवों की आबादी नौ करोड़ पांच लाख ही बढ़ी।

देश के सकल घरेलू उत्पाद में सेवा क्षेत्र का योगदान 60 फीसदी पहुंच गया है, जबकि खेती की भूमिका घटकर 15 प्रतिशत रह गई है। गांवों में निम्न जीवन-स्तर, शिक्षा, स्वास्थ्य, मूलभूत सुविधाओं का अभाव, रोजगार की कमी है और लोग बेहतर जीवन की तलाश में शहरों की ओर आ रहे हैं। अब उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें, तो वर्ष 2001 की जनगणना में प्रदेश की आबादी का 80 फीसदी हिस्सा गांवों में रहता था, जो 2011 में घटकर 77.7 फीसदी रह गया। पूरे देश में शहरों में रहने वाले कुल 7.89 करोड़ परिवारों में से 1.37 करोड़ झुग्गियों में रहते हैं। मेरठ की कुल आबादी का 40 फीसदी स्लम में रहता है, जबकि आगरा की 29.8 फीसदी आबादी झुग्गियों में रहती है।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में जनसुविधाएं, सार्वजनिक परिवहन और सामाजिक ढांचा-सब कुछ बुरी तरह चरमरा गया है। इस महानगर की आबादी सवा करोड़ से अधिक हो चुकी है। हर रोज तकरीबन पांच हजार नए लोग यहां बसने आ रहे हैं। यही हाल देश के अन्य सात महानगरों, विभिन्न प्रदेश की राजधानियों और औद्योगिक बस्तियों का है। इसके विपरीत गांवों में ताले लगे घरों की संख्या में इजाफा हो रहा है। खेती और पशुपालन के व्यवसाय पर अब मशीनधारी बाहरी लोगों का कब्जा हो रहा है। गांवों के टूटने और शहरों के बिगड़ने से भारत के पारंपरिक सामाजिक और आर्थिक संस्कारों का चेहरा विद्रूप हो गया है। परिणामतः भ्रष्टाचार, अनाचार, अव्यवस्थाओं का बोलबाला है।

शहर भी दिवास्वप्न से ज्यादा नहीं हैं, देश के दीगर 9,735 शहर भले ही आबादी से लबालब हों, लेकिन उनमें से मात्र 4,041 को ही सरकारी दस्तावेज में शहर की मान्यता मिली है। शेष 3,894 शहरों में नगर पालिका तक नहीं है। यहां बस खेतों को उजाड़कर बेढ़ब मकान खड़े कर दिए गए हैं, जहां पानी, सड़क, बिजली आदि गांवों से भी बदतर है। शहर को बसाने के लिए आसपास के गांवों की बेशकीमती जमीन को होम किया जाता है। खेत उजड़ने पर किसान शहरों में मजदूरी करने के लिए विवश होता है।

गांवों में ही उच्च या तकनीकी शिक्षा के संस्थान खोलना, स्थानीय उत्पादों के मद्देनजर ग्रामीण अंचलों में छोटे उद्योगों को बढ़ावा देना, खेती के पारंपरिक बीज, खाद को प्रोत्साहित करना, ये कुछ ऐसे उपाय हैं, जिनसे ग्रामीण युवाओं के पलायन को रोका जा सकता है। इसमें पंचायत समितियां अहम भूमिका निभा सकती हैं। इसके लिए सरकार और समाज दोनों को साझा तौर पर आज और अभी चेतना होगा। अन्यथा कुछ ही वर्षों में ये हालात देश की सबसे बड़ी समस्या का कारक बनेंगे-जब शहर बेगार, लाचार और कुंठित लोगों से भरे होंगे, और गांव मानव संसाधन विहीन हो जाएंगे।

शुक्रवार, 3 मार्च 2017

Young India needs a proper youth policy

चौराहे पर खड़े युवा 

 


देश के कुछ युवा भोपाल में समानांतर टेलीफोन एक्सचेंज चलाते हुए पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी के नेटवर्क से जुड़े हुए थे। दिल्ली में युवाओं का एक वर्ग अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग पर आंदोलित है तो दूसरा वर्ग राष्ट्रवाद के नाम पर गाली-गलौज को अपना हक मानने पर अड़ा है। देशभर को गंभीरता से देखें तो पाएंगे कि एक-तिहाई युवा आबादी वाले इस देश में असल में युवाओं को बेहतर बनाने की कोई नीति ही नहीं है। एक तरफ महज बेहतर पैकेज या नौकरी के लिए मशीनों के मानिंद युवा गढ़े जाते हैं तो दूसरी ओर देश, खेती, लोग, सामरिक नीति जैसे मसलों पर अधकचरा ज्ञान से लैस लंपटों की सेना स्वयंभू रक्षक बन जाती है।
विभिन्न गंभीर अपराधों में किशोरों की बढ़ती संलिप्तता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिए हैं कि हर थानों में किशोरों के लिए विशेष अधिकारी हों। देश की सबसे बड़ी अदालत अपनी जगह ठीक है, लेकिन सवाल तो यह है कि किशोर या युवा अपराधों की तरफ जाएं ही न, इसके लिए हमारी सरकार के पास क्या कोई ठोस नीति है? असल में किसी भी नीति में उन युवाओं का विचार है ही नहीं। सरकारी मीडिया हो या स्वयंसेवी संस्थाएं, जिस ने भी युवा वर्ग का जिक्र किया तो, अक्सर इसका ताल्लुक शहर में पलने वाले कुुछ सुविधा-संपन्न लड़के-लड़कियों से ही रहा। जींस और रंगबिंरगी टोपियां लगाए, लबों पर फर्राटेदार हिंगरेजी और पश्चिमी सभ्यता का अधकचरा मुलम्मा चढ़ाए युवा। यह बात भुला ही दी जाती है कि इनसे कहीं पांच गुनी बड़ी और इनसे बिलकुल भिन्न युवा वर्ग की ऐसी भी दुनिया है, जो देश पांच लाख गांवों में है। तंगी, सुविधाहीनता व तमाम उपेक्षाओं की गिरफ्त में फंसी एक पूरी कुंठित पीढ़ी। गांव की माटी से उदासीन और शहर की मृग मरीचिका को छू लेने की ललक साधे युवा शक्ति।
भारतीय संस्कार, संस्कृति और सभ्यता की महक अभी कहीं शेष है तो वह है ग्रामीण युवा पीढ़ी। यथार्थता, जिंदादिली और अनुशासन सरीखे गुणों को शहरी सभ्यता लील चुकी है। वस्तुतया कुशल जन-बल के निर्माण के लिए ग्रामीण युवक वास्तव में ‘कच्चे माल’ की तरह है, जिसका मूल्यांकन कभी ठीक से किया ही नहीं गया।यह विडंबना ही है कि ऐसे कई मुद्दे पैदा हुए हैं, जो युवाओं को गांव की जिंदगी से काटते हैं और जिनके चलते उनका मानसिक धरातल जमीन छोड़ रहा है। गांव व शहर के बीच सुविधाओं की चौड़ी खाई बैरी हो गई है। अपने घर-गांव में न तो पारंपरिक रोजगार की गुंजाइश दिखती है और न ही जीवकोपार्जन के नए अवसर गांव तक आ रहे हैं। त्रिशंकु सी हालत है, एक तरफ हैं सहज ग्रामीण संस्कार और दूसरी ओर है शहरी रंगीनियों को पाने की ललक। ऐसे में भटकता हुआ ग्रामीण युवा ख्वाहिशों के घूंट पीकर अपनी राह की खोज में खुद खो जाता है। यह संकेत घातक हैं। कहीं भारतीय आत्मा अपनी जड़ें न छोड़ दें। लड़के तो फिर भी विषम हालातों से जूझकर अपने लिए कुछ पाने में सफल हो जाते हैं, परंतु किशोरियां तो घर की चहारदीवारी में ही कैद रह जाती हैं।
कुछ को दर्जा-दो दर्जा तक पढ़ने स्कूल भेजा गया तो ठीक वरना, रंगीन युवावस्था बर्तन मांजने या गोबर-चारा करने में गुम हो जाती है। 18 साल की होते-होते तीन चौथाई ग्रामीण युवतियां मां बन जाती हैं। कुछ मेले-ठेले, शादी या पवोंर् को छोड़कर उनके सांस्कृतिक विकास का जरिया नदारद है। तीन दशक पहले नेहरू युवा केंद्र के नाम पर एक सार्थक पहल तो हुई थी। लेकिन अन्य सरकारी योजनाओं की ही तरह यह युक्तिपूर्ण कार्यक्रम भी शहरी युवाओं को सिफारिशी नौकरी देने और फिर स्थानीय नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर बलि चढ़ गया।ग्रामीण क्षेत्रों में युवा वर्ग की दुर्दशा के मूल कारण मौजूदा शिक्षा प्रणाली, उद्योगों की गैर मौजूदगी और केवल कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था है। विषमताओं के इस देश में एक तरफ उच्च शिक्षित इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक वगैरह बड़े पैमाने पर विदेश जाने में गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर देश की आधी आबादी अक्षरों से अपरिचित हैं। अधिकांश लोग बाबू, मास्टर या सिपाही की नौकरी हथियाने के लिए मारा-मारी करते हैं। साफ तौर पर दिखता है कि मौजूदा शिक्षा प्रणाली पूरी तरह शहरी रोजगार के मुताबिक है। इसका कुटीर उद्योगों या कृषि से कोई वास्ता नहीं है। जब गांवों में कहीं आलू तो कहीं टमाटर की भारी फसल होने पर किसान को मेहनताना भी नहीं मिल पाता है और मजबूरी में वह अपनी फसल अपने ही हाथों कचरे में फेंक देता है, ऐसे में खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों की अच्छी गुंजाइश गांवों में है। विडंबना है कि ऐसे उद्योगों के लिए भी शहर और भारी पूंजी को बढ़ावा दिया जा रहा है। काश इस पर ग्रामीण अंचलों में रहने वालों का एकाधिकार हो जाए।गांवों में आज ग्रेजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट डिग्रीधारी युवकों के बजाय मध्यम स्तर तक पढ़े-लिखे और कृषि-तकनीक में पारंगत श्रमशील युवाओं की भारी जरूरत है। अत: आंचलिक क्षेत्रों में डिग्री कॉलेज खोलने के बनिस्पत वहां खेती-पशुपालन-ग्रामीण प्रबंधन के प्रायोगिक प्रशिक्षण संस्थान खोलना ही उपयोगी होगा। ऐसे संस्थानों में माध्यमिक स्तर की शिक्षा के बाद एक साल के कोर्स रखे जा सकते हैं, साथ ही वहां आए युवकों को रोजगार की गारंटी देना होगा। इस तरह प्रशिक्षित युवकों का गांव में रहने व ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ओर रुझान खुद-ब-खुद आएगा। इससे एक तो गांवों में आधुनिकता की परिभाषा खुद की तय होगी, साथ ही ग्रामीण युवाओं को शहर भागने या अज्ञात भविष्य के लिए शून्य में भटकने की नौबत नहीं आएगी। वे नई तकनीक पर आधारित कृषि का सकुशल संचालन कर सकेंगे और भविष्य में ‘कृषि पंडित’ होंगे। ऐसे प्रशिक्षण संस्थानों में कुटीर उद्योग, लघु उद्योग, दस्तकारी, खादी-ग्रामोद्योग के कोर्स भी हों। सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश को ओलंपिक या अन्य अंतरराष्ट्रीय खेलों में पदक न या कम मिलने पर सड़क से संसद तक चर्चा होती रही है। लेकिन क्या कभी किसी ने खयाल किया कि खेलनीति के सरकारी बजट का कितना हिस्सा जन्मजात खिलाड़ी यानी ग्रामीण युवकों पर खर्च होता है। ग्रामीण खेलों की सरकारी उपेक्षा का दर्दनाक पहलू हरियाणा में देखा जा सकता है, वहां गांव-गांव में अखाड़ों की परंपरा रही है। इनमें बेहतरीन पहलवान छोटी उम्र में तैयार किए जाते थे। उन्हें कभी सरकारी प्रश्रय मिला नहीं। सो धीरे-धीरे से अखाड़े अपराधियों के अड्डे बन गए। अब ठेका हथियाने, जमीन कब्जाने या चुनावों में वोट लूटने सरीखे कायोंर् में इन अखाड़ों व पहलवानों का उपयोग आम बात है। गौरतलब है कि तीरदांजी, कुश्ती, भारोत्तोलन, तैराकी, दौड़ सरीखे खेलों के खिलाड़ी हर गांव में हैं। जरूरत है तो बस उन्हें थोड़े से प्रशिक्षण और प्रतियोगिताओं के कानून-कायदें सिखाने की। काश गांवों में खेल-कूद प्रशिक्षण का सही जरिया बन पाए। ग्रामीण युवकों का सामान्य ज्ञान बढ़ाने व विकास कायोंर् से परिचित रखने के लिए गांवों में अखबारों, पत्रिकाओं व संबंधित प्रकाशनों की उपलब्धता बहुत जरूरी है। यदि ब्लाक स्तर पर एक चलती-फिरती लाईब्रेरी की योजना चलाई जाए, तो समस्या का युक्तिपूर्ण समाधान हो सकता है। लड़कियों के लिए युवा मनोरंजन शिविरों व युवा मेलों के आयोजन विधायिका में एक-तिहाई आरक्षण की दावेदार ‘आधी आबादी’ की जागरूकता के लिए परिणामदायी रहेंगे।एक बात और, इस समय देश का लेाकतंत्र गांवों की ओर जा रहा है, लाखों पंच, सरपंच, पार्षद नेतृत्व की नई कतार तैयार कर रहे हैं। इन लोगों को सही प्रशिक्षण मिले व योजना बनाने, क्रियान्वयन और वित्तीय प्रबंधन का, इन लोगों को अवसर मिले, नए भारत के निर्माण में इन लोगों को प्रसिद्धी मिले दूरस्थ गांवों, मजरों में पसीना बहाने पर, क्या कोई ऐसी योजना सरकार तैयार कर पाएगी?गांवों में बसने वाले तीन चौथाई नवयुवकों की उपेक्षा से कई राष्ट्रीय स्तर पर कई समस्याएं भी खड़ी हो रही हैं। कश्मीर हो या उत्तर-पूर्व, जहां भी सशस्त्र अलगाववाद की हवा बह रही है, वहां हथियार थामने वाले हाथों में ग्रामीण युवाओं की संख्या ही अधिक हैं। खेती को अलाभकारी कार्य मान कर कृषि भूमि का उपयोग अन्य कायोंर् में करने की घटनाएं बढ़ रही हैं। इससे सालों-साल दलहन, तेल-बीज आदि खाद्य पदाथोंर् के उत्पादन में कमी आ रही है। फलस्वरूप इसकी आपूर्ति के लिए विदेशों की ओर देखना पड़ रहा है। जबकि कुछ साल पहले तक भारत इनका निर्यात किया करता था।गांवों में विकास के नाम पर उसे कस्बाई या शहरी स्वरूप प्रदान करने की प्रवृति पर नियंत्रण करना होगा। ‘असली भारत’ की प्रगति के मानदंड स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप तय करने व नवचेतना जाग्रत करने से युवाओं को उनकी मिट्टी से जुड़े रहने के आत्मिक सुख व गर्व से रूबरू करवाया जा सकेगा।

बुधवार, 1 मार्च 2017

operation green hunt become green cleanng in bastar

क्यों बढ़ गई जंगल की कटाई

छत्तीसगढ़ के बस्तर में केंद्रीय सुरक्षा बलों की पैठ बढ़ने से नक्सलवाद का असर तो कम हुआ है मगर जंगलों का अंधाधुंध दोहन शुरू हो गया है। आदिवासियों का जीवन जंगल पर निर्भर है। लेकिन जंगल कटेंगे तो वहां के बाशिंदों का जनजीवन भी प्रभावित होगा। दुखद है कि जंगलों की कटाई कई जगह उस कथित विकास के नाम पर की जा रही है, जिसके विरोध के नाम पर नक्सली आदिवािसयों को लामबंद करते रहे हैं। जंगल का कटना यहां के पर्यावरण के साथ जनजातियों के जीवन यापन पर भी असर डाल रहा है। असल में, बस्तर के आदिवासियों के लिए सड़क से यादा जरूरी उनके पारंपरिक जंगलों को सहेजना है।
भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि छत्तीसगढ़ में फिर दो फीसदी वन क्षेत्र कम हो गया है। पिछले 10 साल में वन क्षेत्र में लगातार कमी हो रही है। सरकार स्वीकार करती है कि विकास कार्यो के कारण जंगल घटे हैं। बस्तर में 19 वर्ग किलोमीटर, दंतेवाड़ा में 10 वर्ग किलोमीटर, कांकेर में नौ वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र कम हुआ है। हाल में कांकेर के अंतागढ़ के जंगलों में स्थित रावघाट खदान से लौह अयस्क निकालने को वन विभाग ने हामी भर दी है। इसके लिए लगभग 30 लाख पेड़ों को काटा जाएगा। नक्सली और ग्रामीणों के विरोध के कारण लंबे समय से रुकी रावघाट परियोजना अब शुरू हो गई है। प्रशासन के द्वारा ठेकेदारों को सुरक्षा मुहैया कराने के बाद बस्तर में फिर से रावघाट परियोजना के तहत पेड़ों की कटाई शुरू हो गई है। अकेले पेड़ों की कटाई पर व्यय साठ लाख आंका गया है। अभी यह काम शुरू ही हुआ था कि इलाके में एक कंपनी द्वारा मनमाने तरीके से पेड़ कटाई की शिकायतें आने लगीं। राय के वन विकास निगम के अपर प्रबंध संचालक एस.सी. अग्रवाल ने छत्तीसगढ़ शासन के मुख्य सचिव और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को भेजी रिपोर्ट में कहा है कि कंपनी को जिस क्षेत्र का पट्टा स्वीकृत किया गया है उस सीमा क्षेत्र के बाहर जाकर न केवल पेड़ों की कटाई की गई है बल्कि वन मंडल अधिकारी ने तथ्यों को छिपाकर गंभीर अनियमितता बरती है। इस मामले में हरे पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के लिए प्रमुख रूप से डीएफओ राम अवतार दुबे की संलिप्तता पाई गई। खनन कंपनी को खनन के लिए अतिरिक्त भूमि की आवश्यकता थीं, जिसके वास्ते केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रलय ने चौदह सौ सैंतालीस पेड़ काटने की अनुमति दी। लेकिन कंपनी ने डीएफओ की मिलीभगत से निर्धारित संख्या से बहुत अधिक पेड़ काट दिए। बस्तर का इलाका 39,060 वर्ग किलोमीटर में फैला है, जो केरल से बड़ा है। बस्तर यानी बांस की तरी अर्थात बांस की घाटी में कभी बीस फीसदी बांस के जंगल होते थे, जो आदिवासियों के जीवकोपार्जन का बड़ा सहारा थे। इसके अलावा साल, सागौन, जापत्र सहित 15 प्रजातियों के बड़े पेड़ यहां के जंगलों की शान थे। 1956 से 1981 के बीच विभिन्न विकास योजनाओं के नाम पर यहां के 125,483 हेक्टेयर जंगलों को नेस्तनाबूद किया गया। आज इलाके के कोई दो लाख चालीस हजार हेक्टेयर में सघन वन हैं। जानना जरूरी है कि अबुझमाड़ के ओरछा और नारायणपुर तहसीलों के कोई छह सौ गांव-मजरों-टोलों में से बामुश्किल 134 का रिकॉर्ड शासन के पास है। यह बात सरकार स्वीकारती है कि पिछले कुछ वर्षो में बस्तर में 12 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र में कमी आई है। सलवा जुड़ुम की शुरुआत के बाद पेड़ों की कटाई यादा हुई। वैसे तो यहां के घुप्प अंधेरे जंगलों की सघनता व क्षेत्रफल की तुलना में वन विभाग का अमला बेहद कम है, ऊपर से यहां जंगल-माफिया के हौंसले इतने बुलंद हैं कि आए रोज वन रक्षकों पर जानलेवा हमले होते रहते हैं।
बस्तर जिले में गत एक वर्ष के दौरान ग्रामीणों द्वारा बड़े पैमाने पर जंगलात की जमीन पर कब्जे किए गए। सरकार ने ग्रामीणों को वनाधिकार देने का कानून बनाया तो कतिपय असरदार लोग जल्द ही जमीन के पट्टे दिलवाने का लालच दे कर भोले-भाले ग्रामीणों को जंगल पर कब्जा कर वहां सपाट मैदान बनाने के लिए उकसा रहे हैं। महज पांच सौ से हजार रुपये में ये आदिवासी साल या शीशम पेड़ काट देते हैं और जंगल माफिया इसे एक लाख रुपये तक में बेचता है। बस्तर वन मंडल में बोदल, नेतानार, नागलश्वर, कोलावाडा, मिलकुलवाड़ा वन-इलाकों में सदियों से रह रहे लोगों को लगभग 40 हजार एकड़ वन भूमि पर वनाधिकार के पट्टे बांटे जा चुके हैं। इसके बाद वन उजाड़ने की यहां होड़ लग गई है। कुछ लोगों को और जमीन के पट्टे का लोभ है तो कुछ खेती करने के लिए जंगल काट रहे हैं। इनसे मिली लकड़ी को जंगल से पार करवाने वाला गिरोह सीमावर्ती रायों महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड और मध्य प्रदेश तक अपना सशक्त नेटवर्क रखता है। पेड़ की कटाई अकेले जंगलों को ही नहीं उजाड़ रही है, वहां की जमीन और जल-सरिताओं पर भी उसका विपरीत असर पड़ रहा है। धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है तब बरसात का पानी सीधा नंगी धरती पर पड़ता है और वहां की मिट्टी बहने लगती है। जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां भी जगह मिलती है, मिट्टी काटते हुए वह बहता है। इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं और जो आगे चल कर गहरे होते हुए बीहड़ का रूप ले लेती है। बहती हुई मिट्टी नदी-नालों और झरनों को भी उथला करती हैं। बस्तर के नैसर्गिक वातावरण में कई सौ-हजार दुलर्भ जड़ी-बूटियां भी हैं। जैव विविधता से खिलवाड़ आने वाली पीढ़ियों के लिए अपूरणीय क्षति है।
बस्तर में इस समय बीएसएफ की कई टुकड़ियां हैं, सीआपीएफ पहले से है। लेकिन केंद्रीय बल स्थानीय बलों की मदद के बिना असरकारी नहीं होते। जंगलों से नक्सलियों का खौफ कम करने में तो सुरक्षा बल कारगर रहे हैं, लेकिन इसके बाद बेखौफ हो रहे जंगल-माफिया, स्थानीय आदिवासी समाज में वन और पर्यावरण के प्रति घटती जागरूकता तथा शहरी समाज में जैव विविधता के प्रति लापरवाही, नक्सलवाद से भी बड़े खतरे के रूप में उभर रहा है। यह भी किसी से छिपा नहीं है कि जंगल की कटाई में स्वयं सुरक्षा बल भी शामिल हैं और जलावन के नाम पर इमारती लकड़ी का बड़ा भंडार सुरक्षा बलों के प्रत्येक कैंप में देखा जा सकता है। जरूरी है कि केंद्रीय बल जनहित के कार्यो की श्रंखला में जंगल-संरक्षण का कार्य भी करें। वहीं सरकार भी जंगलों के भीतर विकास के नाम पर ऐसी परियोजनओं को न थोपे जिससे आदिवासियों के नैसर्गिक जीनव में व्यवधान पैदा हो।
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Fire in Belandur lake is lesson for entire country

बेंगलुरु की बेलंदूर झील सभी शहरों के लिए सबक 

यह शायद भारत में ही हुआ, जब एक बड़े से तालाब से पहले लपटें उठीं और फिर घना धुआं। बदबू, धुएं से हैरान-परेशान लोग समझ नहीं पा रहे थे कि यह अजूबा है या प्राकृतिक त्रासदी? दैवीय घटना है या वैज्ञानिक प्रक्रिया? पता चला कि कभी समाज को जीवन देने वाले तालाब के नैसर्गिक ढांचे से की गई छेड़छाड़ और उसमें बेपनाह जहर मिलाने से नाराज तालाब ने ही इन चिनगारियों के जरिये समाज को चेताया है। यह हुआ 16 फरवरी को, बेहतरीन मौसम के लिए मशहूर बेंगलुरु में। इससे पहले 2015 में भी यह झील कई बार सुलग चुकी है।
बीती 16 फरवरी की शाम पांच बजे यहां की बेलंदूर झील की सतह से पहले लपटें उठीं और बाद में धुएं की गहरी भूरी-बदबूदार परत ने पूरे इलाके को ढक लिया। इसका असर कई किलोमीटर तक रहा, जिससे लोगों को सांस लेने में परेशानी हुई, यातायात प्रभावित हुआ। हालात सामान्य होने में कई घंटे लग गए। पता चला कि झील के तट को नगर निगम ने कूड़ाघर में तब्दील कर रखा है। उस दिन उसी कूड़ाघर में आग लगा दी गई थी, जिसकी लपटों से झील पर बिछी रसायन की परत ने आग पकड़ ली। दरअसल देश के सबसे खूबसूरत महानगर कहे जाने वाले बेंगलुरु की फिजा अब बदल चुकी है। यहां भीषण गरमी पड़ने लगी है और थोड़ी सी बारिश में जल-प्लावन जैसी स्थिति आ जाती है।
नब्बे साल पहले बेंगलुरु शहर में 2,789 केरे यानी झीलें हुआ करती थीं। सन साठ आते-आते मात्र 230 रह गईं। 1985 में शहर में 34 तालाब थे और अब यह संख्या 30 तक सिमट गई है। जल निधियों की बेरहम उपेक्षा का ही परिणाम है कि न केवल इस शहर का मौसम बदला, बल्कि लोग पानी को भी तरस रहे हैं। सेंटर फॉर कंजर्वेसन, एनवायर्नमेंटल मैनेजमेंट ऐंड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट भी दहलाने वाली है। एक अन्य शोध में चेताया गया है कि शहर के अधिकांश तालाबों के पानी की पीएच वैल्यू बहुत ज्यादा है, यानी वे अम्लीय हो चुके हैं।
बिसरा दी गई बेलंदूर झील शहर के दक्षिण-पूर्व में स्थित है और आज भी यहां की सबसे बड़ी झील है। इसमें आग अचानक नहीं लगी। इससे पहले 26 अप्रैल, 2015 को वर्तुर झील में भी कई-कई फुट ऊंचे सफेद झाग के जंगल खडे़ हो गए थे। जानलेवा बदबू और उसके पानी से शरीर पर छाले पड़ने का नजारा घंटों तक देखा गया था। जब हंगामा हुआ, तो जिम्मेदार महकमों ने एक-दूसरे के ऊपर दोषारोपण करके अपना पल्ला झाड़ लिया था। मई में भी पानी से धुआं उठने और चिनगारी जैसी कई घटनाएं सामने आई थीं।
पारिस्थितिकी विज्ञान केंद्र के पर्यावरण वैज्ञानिक प्रोफेसर वी रामचंद्र के नेतृत्व में शोध के बाद जो निष्कर्ष निकला, वह चौंकाने वाला था। पाया गया कि औद्योगिक इकाइयों में बनने वाले डिटर्जेंट में फॉस्फोरस की मौजूदगी होती है, जिससे फैक्टरियों से निष्कासित प्रवाह के जरिये पानी पर फोम का निर्माण होता है, जो आग का कारण बनता है। वर्तुर झील के शोध में निकला कि इन झीलों का पानी सिंचाई और घरेलू उपयोग के अनुकूल तो नहीं ही है, इनसे भू-जल दूषित होने के भी आसार पैदा हो गए हैं। शोध में कई खतरों की ओर इशारा किया गया था। यह तो सामने आ चुका है कि बेलंदूर में आग लगने का कारण इलाके के कारखानों और गैराज से बहे डीजल, पेट्रोल, ग्रीस, डिटर्जेंट और जल-मल हैं और मीथेन की परत के जल के ऊपरी स्तर पर बढ़ जाने से आग लगी।
बेलंदूर तो एक बानगी है। बेंगलुरु शहर में बस डिपो से लेकर स्टेडियम तक और फ्लाई ओवर से लेकर बड़ी कॉलोनियां तक उन जगहों पर बसी हैं, जहां चार दशक पहले तक उफनते तालाब थे। अब शहर में जरा सी बारिश में सड़कें तालाब बन जाती हैं। रहे-बचे तालाब उफनकर अपने में समाई गंदगी-बदबू को बाहर फेंकने लगते हैं। बेलंदूर की घटना बेंगलुरु ही नहीं, तेजी से विकसित हो रहे तमाम शहरों के लिए एक चेतावनी हैं कि यदि अब भी तालाबों के अतिक्रमण व उनमें गंदगी घोलने का काम बंद न किया गया, तो आज दिख रही छोटी सी चिनगारी कभी भी ज्वाला बन सकती है, जिसमें जल-संकट, बीमारियां, पर्यावरण असंतुलन की लपटें होंगी। दुर्भाग्य है कि तमाम चेतावनियों के बावजूद चीजें अभी बदल नहीं रही हैं।

 

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...