तो क्या बहुरेंगे तालाबों के दिन ?
उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन और भाजपा को विशाल बहुमत मिलने के बाद अलग-अलग लोगों के अपने-अपने सरोकार बहुत हैं, लेकिन जल-जंगल-जमीन से प्रेम करने वालों को एक उम्मीद बंधी है कि अब राज्य के उपेक्षित, पारंपरिक और समृद्ध तालाबों के दिन बहुरेंगे। कब्जों, गंदगी और जल-हीनता के शिकार हजारों तालाबों का स्वामी प्रदेश पेय-जल व सिंचाई संकट से सबसे अधिक प्रभावित रहा है। यदि शासन संभालने वाले दल ने अपने चुनाव के संकल्प पत्र पर ईमानदारी से काम किया तो यहां सशक्त ‘तालाब विकास प्राधिकरण’ का गठन होगा, जोकि राज्यभर के तालाबों को एक छतरी के नीचे लाकर उनको संपन्न व समृद्ध करेगा।
यह सच्चाई है कि साल-दर-साल बढ़ती आबादी का कंठ तर करने और उसका पेट भरने के लिए अन्न उगाने के लिए पानी की मांग बढ़ती जा रही है, वहीं जलवायु परिवर्तन के चलते बरसात कम हो रही है, साथ ही जल स्रोतों को ढक कर उसकी जमीन पर मॉल-सड़क बनाने की प्रवृत्ति में भी इजाफा हुआ है। तीन दशक पहले सरकार ने पानी की कमी को पूरा करने के लिए भूजल पर जोर दिया, लेकिन वहां भी इतना उत्खनन हो गया कि पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में बंजर जमीन का खतरा पैदा हो गया। गंगा-यमुना जैसी नदियों के स्वामी उत्तर प्रदेश को जगह-जगह बंध रहे बांध और प्रदूषण के चलते सर्वाधिक जल-हानि झेलनी पड़ी है। संकट अकेले पानी की कमी का नहीं, असल विकराल समस्या धरती के लगातार गरम होने और उसे शीतल रखने में कारगर तालाबों, जलाशयों के नष्ट होने का है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ में अभी एक दशक पहले तक 12,653 ताालाब-पोखर-बावड़ी-कुएं हुआ करते थे। सरकार ने अदालत में स्वीकार किया है कि इनमें से चार हजार को भूमाफियाओं ने पाटकर बहुमंजिला इमारतें खड़ी कर दी हैं, जबकि 2023 पर अभी भी अवैध कब्जे हैं। ऐसे ही इलाहाबाद में तेरह हजार, आजमगढ़ में 10,535, गोरापुर में 3971 कानुपर में 377, सहारनपुर में 6858, मेरठ 1853 आगरा में 591, बनारस में 1611 जल निधियों को मटियामेट करने के आंकड़े सरकारी फाइलों में दर्ज हैं।
बंुदेलखंड तो अपने पारंपरिक तालबों के लिए मशहूर था। सबसे अधिक प्यास, पलायन व मुफलिसी के लिए बदनाम हो गए, बुंदेलखंड के हर गांव में कई-कई तालाब होते थे। आज यहां का कोई भी शहर, कस्बा ऐसा नहीं है, जो पानी की कमी से बेहाल न हो और उसका विस्तार तालाबों के कब्रस्तान पर न हुआ हो। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे। उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है।
पिछले साल ही उत्तर प्रदेश के इटावा की नगर पालिका ने वहां के एक पुराने तालाब को सुंदर बनाने के नाम पर उसके संकरा कर रंगीन नीली टाइल्स लगाने की योजना पर काम शुरू किया है। हो सकता है कि उससे कुछ दिनों शहर में रौनक आ जाए, लेकिन न तो उसमें पानी एकत्र होगा और न ही वहां एकत्र पानी से जमीन की प्यास बुझेगी। यह भी तय है कि ऐसे तालाब में बाहर से पानी भरना होगा। ऐसा ही पूरे देश के सरोवरों के साथ लगातार हो रहा है। तालाब के जलग्रहण व निकासी क्षेत्र में पक्के निर्माण कर उसका आमाप समेट दिया जाता है, सुंदरीकरण के नाम पर पानी के बीच में कोई मंदिर किस्म की स्थाई आकृति बना दी गई व इसकी आड़ में आसपास की जमीन का व्यावसायिक इस्तेमाल कर दिया गया। बलिया का सुरहा ताल तो बहुत मशहूर है, लेकिन इसी जिले का एक कस्बे का नाम रत्सड़ इसमें मौजूद सैकड़ों निजी तालाबों के कारण पड़ा था, सर यानी सरोवर से ‘सड़’ हुआ। कहते हैं कि कुछ दशक पहले तक वहां हर घर का एक तालाब था, लेकिन जैसे ही कस्बे को आधुनिकता की हवा लगी व घरों में नल लगे, फिर गुसलखाने आए, नालियां आईं, इन तालाबों को गंदगी डालने का नाबदान बना दिया गया। फिर तालाबों से बदबू आई तो उन्हें ढंक कर नई कालेानियां या दुकानें बनाने का बहाना तलाश लिया गया। यह दुखद है कि आधुकिनता की आंधी में तालाब को सरकार भाषा में जल संसाधन माना नहीं जाता है, वहीं समाज और सरकार ने उसे जमीन का संसाधन मान लिया। देशभर के तालाब अलग-अलग महकमों में बंटे हुए हैं। मछली विभाग, सिंचाई, वन, स्थानीय प्रशासन आदि। जब जिसे सड़क, कालोनी, मॉल, जिसके लिए भी जमीन की जरूरत हुई, तालाब को पुरा व समतल बना लिया। आज शहरों में आ रही बाढ़ हो या फिर पानी का संकट सभी के पीछे तालाबों की बेपरवाही ही मूल कारण है। इसके बावजूद पारंपरिक तालाबों को सहेजने की कोई साझी योजना नहीं है। यह देश के किसी राज्य में पहली बार होगा, जब कोई सरकार लगभग 73 साल पुरानी एक ऐसी रपट पर गंभीरता से अमल करने की सोचेगी, जोकि सन 1943 के भयंकर बंगाल दुर्भिक्ष में तीन लाख से ज्यादा मौत होने के बाद ब्रितानी सरकार द्वारा गठित एक आयोग की सिफारिशों में थी। सन् 1944 में आई अकाल जांच आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत जैसे देश में नहरों से सिंचाई के बनिस्पत तालाब खोदने व उनके रखरखाव की ज्यादा जरूरत है। सन 1943 में ‘ग्रो मोर कैंपेन’ चलाया गया था, जोकि बाद में देश की पहली पंचवर्षीय योजना का हिस्सा बना, उसमें भी लघु सिंचाई परियोजनाओं यानी तालाबों की बात कही गई थी। उसके बाद भी कई-कई योजनाएं बनीं, मध्य प्रदेश जैसे राज्य में ‘सरोवर हमारी धरोहर’ जैसे अभियान चले, लेकिन जब आंकड़ों पर गौर करें तो दिल्ली हो या बंगलुरु या फिर छतरपुर या लखनऊ, सभी जगह विकास के लिए रोपी गई कालेानियां, सड़कों, कारखानों, फ्लाई ओवरों को तालाब को समाप्त कर ही बनाया गया। तालाब विकास प्राधिकरण इसीलिए आवश्यक है कि वह पहले राज्य के सभी तालाब, पोखरों का सर्वेक्षण कर उनके आंकड़े तो ईमानदारी से एकत्र करे, जिसमें बच गए जल संसाधन, कब्जा किए गए इलाकों, उपलब्ध तालाबों की मरम्मत, उससे जुड़े अदालती पचड़ों के निबटारे जैसे मसलों पर अधिकार संपन्न संस्था के रूप में निर्णायक हो। एक बात और, बंपर बहुमत लाने वाली भाजपा के संकल्प पत्र में तालाब विकास प्राधिकरण की बात को शिामल करने का दबाव बनाने वाले संजय कश्यप गाजियाबाद के एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो नदी और तालाब के लिए गत दो दशकों से काम कर रहे हैं, वे बीते चार सालों से केंद्र व राज्य में तालाब विकास प्राधिकरण के गठन के लिए जल मामलों की संसदीय समिति से ले कर जल संसाधन मंत्री और देश के कई जिलों में जिलाधीश के माध्यम से केंद्र सरकार को ज्ञापन देने का कार्य चुपचाप करते रहे हैं। श्री कश्यप का कहना है कि राज्य सरकार की प्राथमिकता सिंचाई संसाधन विकसित करने की है। और इसके तहत तालाब प्राधिकरण का गठन महत्वपूर्ण कदम होगा। यदि उत्तर प्रदेश में यह योजना सफल हो जाती है तो देश के अन्य राज्यों में भी जल संरक्षण के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं के लिए यह एक नजीर होगा। यदि जल संकटग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए। इस पूरे कार्य का संचालन तालाब प्राधिकरण के अंतर्गत हो। जरूरत इस बात की है कि आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में अपनी जड़ों को लौटने की इच्छा शक्ति विकसित करनी होगी।
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