My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

रविवार, 30 जुलाई 2017

knowledge of languages make comfortable to mix with mass




भाषाओं के परिचय से मिलता आनंद 


 कुछ साल पहले की बात है- नेशनल बुक ट्रस्ट (एनबीटी) ने असम के नलबारी में पुस्तक मेला आयोचित किया। तय किया गया कि मेला परिसर में एक बाल-मंडप बनाया जाएगा, जहां हर रोज कुछ न कुछ गतिविधियों का आयोजन होगा। जिम्मेदारी मुझ पर थी। नलबाड़ी यानि नल का गांव! असम के अधिकांश हिंसक आंदोलनों की नाल में यह इलाका अग्रणी रहा है। यूं भी कहा जा सकता है कि जब कभी सामाजिक, सांस्कृतिक अस्मिता पर खतरा उठता दिखता है तो उसके निराकरण के लिए यहां के लोग बंदूक की नाल को अधिक सहज राह मानते हैं । मन में विचार आया कि कहीं इसीलिए तो इसे नलबाड़ी नहीं कहते हैं, बंदूक की नाल वाली नलबाड़ी! नहीं, ऐसा नहीं है ; भारत के पिता 'नल' यानि नल-दमयंती वाले नल के नाम पर इस शहर का नाम पड़ा है। यहां के लोगों का विश्वास है कि हमारे देश की प्रारंभ भूमि यही है और इस देश में सूरज की सबसे पहले किरणें यहीं पड़ती है। या यूं कहें कि ज्ञान की किरणें यहीं दमकती है। भूटान की सीमा पर लगे इस हरे-भरे कस्बे में स्कूली बच्च्यिां पारम्परिक मेखला यानी साड़ी से मिलता-जुलता परिवेश पहनकर ही स्कूल जाती हैं। बाल मंडप में पहले ही दिन दो सौ से ज्यादा बच्चे थे। हालांकि एक स्थानीय व्यक्ति सहयोग के लिए था, लेकिन मेरी हिंदी और संपर्क व्यक्ति की असमिया के जरिये बात जब तक बच्चों तक पुहंचती तो कुछ न कुछ ट्रांसमिशन-लाॅस हो जाता। आमतौर पर पूर्वोत्तर राज्य के लोगों के लिए दिल्ली और दिल्ली वाले दूर के ही महसूस होते हैं। साफ झलक रहा था कि बच्चों में स्कूल के क्लास रूम की तरह उबासी है। तभी कुछ शब्द बोर्ड पर लिखने की बात आई। मैंने अपनी टूटी-फूटी बांग्ला में वे शब्द लिख दिए। मुझे पता था कि र और व के अलावा बांग्ला और असमिया लिपि लगभग एक ही है। जैसे ही मैंने बोर्ड पर उनकी लिपि में कुछ लिखा, बच्चों के चेहरे पर चमक लौट आई। 'सर आप असमिया जानते हैं?' मैंने हंसकर बात टाल दी। लेकिन वह एक पहला सूत्र था जब बच्चों ने मेरे साथ खुद का जुड़ाव महसूस किया।
फिर अगले आठ दिन खूब-खूब बच्चे आते, वे असमिया में बोलते, कुछ हिंदी के शब्द होते, वे मेरी हिंदी खूब समझते और जब-तब मैं कुछ वाक्य उनकी लिपि में बोर्ड पर लिखकर उन्हें अपने ही बीच का बना लेता। यह मेरे लिए एक अनूठा अवसर और अनुभव था कि किस तरह एक भाषा पूरे समाज से आपको जोड़ती है। अभी कुछ दिनों पहले की बता है, मेरे कार्यालय में एक परिचित पुस्तक वितरक आए, उन्हें किसी स्कूल से गुजराती पुस्तकों का आर्डर मिला था। वे खुद गुजराती जानते नहीं थे, न ही मेरी बुक शॉप में किसी को गुजराती आती है। हमारे गुजराती संपादक टूर पर थे। निराश सज्जन मेरे पास आए और मैंने उनकी पुस्तकों के नाम अंग्रेजी या हिंदी में लिख दिए। कुछ ही देर में उन्हें भी पुस्तकें मिल गईं। इस बात से वे सज्जन, बुक शॉप वाले और मैं स्वयं बहुत आनंदित था कि मेरे थोड़े से भाषा-परिचय के चलते दिल्ली का कोई स्कूल गुजराती पुस्तकों से वंचित होने से रह गया।
मैं कक्षा आठ से 11 वीं तक मध्यप्रदेश के जावरा जिला रतलाम के जिए स्कूल में पढ़ा था। वहां के प्राचार्य ज्ञान सिंह का ही सपना था कि बच्चे एक से अधिक भारतीय भाषा सीखें, सो उन्होंने कक्षा नौ से आगे अनिवार्य कर दिया कि हर बच्चा एक भाषा जरूर पढ़ेगा- गुजराती, मराठी, बांग्ला या उर्दू। उर्दू जाफरी साहब पढ़ाते थे और उनकी छड़ी उर्दू की कोमलता के बिल्कुल विपरीत थी। हिंेदी वाले जोशी सर एक पीरियड गुजराती का लेते थे, जबकि अंग्रेजी के एसआर मिश्र सर बांग्ला पढ़ाते थे । एक भाषा पढ़ना ही होगा, उसका इम्तेहान भी देना होगा , हां सालाना नतीजे में उसके परिणाम का कोई असर नहीं होता था। मैंने वहां एक साल गुजराती और दूसरे साल बांग्ला पढ़ी। कई-कई बार हम लोग इतिहास जैसे विषयों के नोट उन लिपियों में लिखते थे और शाम को उसे फिर से हिंदी या अंग्रेजी में उतारने की मगजमारी होती थी। आज पीछे पलटकर देखता हूं और कई भाषाओं को थोड़ा-थोड़ा समझ लेता हूं और इसका लाभ मुझे पूरे देश में भ्रमण, खासतौर पर बच्चों के साथ काम करन के दौरान िलता है तो याद आता है कि सरकारी स्कूल भी उतने ही बेहतर इंसान बनाते हैं जितना कि 'मशहूर वाले' स्कूल। एक प्राचार्य ने अपनी इच्छा-शक्ति के चलते देश का स्वप्न बन गया 'त्रिभाषा फॉर्मूला' सार्थक किया था। यह आज भी मेरे काम आ रहा है। मुझे आनंद दे रहा है और दूसरों को आनंद दे रहा है कि मध्यप्रदेश या दिल्ली का कोई व्यक्ति उनकी भाषा के कुछ शब्द जानता-समझता है।


शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

In the memory of Prof Yashpal , :report on education policy

बस्ते के बोझ से दबी शिक्षा

आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के खौफ में जीते हैं। जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी कक्षाओं में बच्चों को गृहकार्य सिर्फ इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठ्यपुस्तक से न हो। 
छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया को लगातार नीरस होते जाने से बचाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो. यशपाल कर रहे थे। समिति ने देश भर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है न समझ पाने का बोझ। सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं। मगर फिर देश की राजनीति मंदिर-मस्जिद जैसे विवादों में ऐसी फंसी कि उस रिपोर्ट की सुध ही नहीं रही।
वैसे सरकार में बैठे लोगों से बात करें तो वे इस बात को गलत ही बताएंगे कि यशपाल समिति की रिपोर्ट लागू करने की ईमानदार कोशिशें नहीं हुर्इं। जमीनी हकीकत जानने के लिए लखनऊ जिले में चिनहट के पास स्थित गणेशपुर गांव के बच्चों का उदाहरण काफी है। कक्षा पांच की विज्ञान की किताब के पहले पाठ के दूसरे पेज पर दर्ज था कि पेड़ कैसे श्वसन क्रिया करते हैं। बच्चों से पूछा गया कि आपमें से कौन-कौन श्वसन क्रिया करता है, सभी बच्चों ने मना कर दिया कि वे ऐसी कोई हरकत करते भी हैं। हां, जब उनसे सांस लेने के बारे में पूछा गया तो वे उसका मतलब जानते थे।
बच्चों से पूछा गया कि सहायता का क्या मतलब है तो जवाब था कि पूछना, रुपया, मांगना। उनके किताबी ज्ञान ने उन्हें सिखाया कि दुनिया का अर्थ शहर, जमीन, पृथ्वी या जनता होता है। आंगनवाड़ी केंद्र में चार्ट के सामने रट रहे बच्चों ने न तो कभी अनार देखा था और न ही उन्हें ईख, ऐनक, एड़ी और ऋषि के मायने मालूम थे। किताबों ने बच्चों को भले ही ज्ञानवान बना दिया हो, पर कल्पना व समझ के संसार में वे दिनोंदिन कंगाल होते जा रहे हैं। यशपाल समिति की पहली सिफारिश थी कि बच्चों को निजी सफलता वाली प्रतियोगिताओं से दूर रखा जाए क्योंकि यह आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है। इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, बीते एक दशक में कक्षा में अव्वल आने की गलाकाट प्रतियोगिता में न जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं।
समिति की दूसरी सिफारिश पाठ्यपुस्तक के लेखन में शिक्षकों की भागीदारी बढ़ा कर उसे विकेंद्रित करने की थी। सभी स्कूलों को पाठ्यपुस्तकों और अन्य सामग्री के चुनाव सहित नवाचार के लिए बढ़ावा दिए जाने की बात भी इस रिपोर्ट में थी। अब प्राइवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के शोषण का जरिया बन गया है। पब्लिक स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं। उधर सरकारी स्कूलों के लिए पाठ्यपुस्तकें तैयार करने वाला एनसीईआरटी इतने विवादों में है कि वह पुस्तकें लिखने वाले लेखकों का नाम तक गोपनीय रखने लगा है।
ऐसे ही हालात विभिन्न राज्यों के पाठ्यपुस्तक निगमों के हैं। दिल्ली सरकार के स्कूलों के लिए एनसीईआरटी द्वारा तैयार पुस्तकें आधा साल गुजरने के बाद भी बच्चों तक नहीं पहुंचती हैं। जाहिर है कि बच्चों को अब पूरे साल का पाठ्यक्रम तीन महीने में पूरा करने की कवायद करनी होगी। ऐसे में उन पर पढ़ाई का बोझ कम होने की बात करना बेमानी ही होगा। पाठ्यपुस्तकों को स्कूल की संपत्ति मानने व उन्हें बच्चों को रोज घर ले जाने की जगह स्कूल में ही रखने के सुझाव न जाने किस लाल बस्ते में बंध कर गुम हो गए।
समिति की एक राय यह भी थी कि केंद्रीय स्कूलों व नवोदय विद्यालयों के अलावा सभी स्कूलों को उनके राज्य के शिक्षा मंडलों से संबद्ध कर देना चाहिए। लेकिन आज सीबीएसई से संबद्धता स्कूल के स्तर का मानदंड माना जाता है और हर साल खुल रहे नए-नए पब्लिक स्कूलों को अपनी संबद्धता बांटने में सीबीएसई दोनों हाथ खोले हुए है। नतीजा है कि राज्य बोर्ड से पढ़ कर आए बच्चों को दोयम दर्जे का माना जा रहा है। कक्षा दस व बारह के बच्चों को पाठ्य सामग्री रटने की मजबूरी से छुटकारा दिलाने के लिए समिति ने परीक्षा के तरीकों में आमूलचूल बदलाव की बात कही थी। पर बोर्ड की परीक्षाओं में अव्वल आने का सबसे बढ़िया फंडा रटना ही माना जा रहा है।
एक और सिफारिश अभी तक मूर्त रूप नहीं ले पाई है, जिसमें सुझाया गया था कि नर्सरी कक्षाओं में दाखिले के लिए होने वाले टेस्ट व इंटरव्यू बंद होने चाहिए। साथ ही गैर-सरकारी स्कूलों को मान्यता देने के मानदंड कड़े करने की बात भी कही गई थी। जगह, स्टाफ, पढ़ाई और खेल के सामान के मानदंड सरकारी स्कूलों पर भी लागू हों। यह सर्वविदित है कि आज दूरस्थ गांवों तक बड़े-बड़े नाम वाले पब्लिक स्कूल खोल कर अभिभावकों की जेब काटने के धंधे पर कहीं कोई अंकुश नहीं है। आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के खौफ में जीते हैं। जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी कक्षाओं में बच्चों को गृहकार्य सिर्फ इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठ्यपुस्तक से न हो। पर आज तो होमवर्क का मतलब ही पाठ्यपुस्तक के सवाल-जवाब को कापी पर उतारना या उसे रटना रह गया है। कक्षा में चालीस बच्चों पर एक शिक्षक, विशेष रूप से प्राइमरी में तीस बच्चों पर एक शिक्षक होने की सिफारिश खुद सरकारी स्कूलों में भी लागू नहीं हो पाई है। अब एक ही शिक्षक को एक साथ कई कक्षाएं पढ़ाने की बाकायदा ट्रेनिंग शुरू हो गई है। पत्राचार के जरिए बीएड की उपाधि देने वाले पाठ्यक्रमों की मान्यता समाप्त करने की सिफारिश भी यशपाल समिति ने की थी। विडंबना यह है कि इस रिपोर्ट को सरकार द्वारा स्वीकार कर लेने के बाद करीब एक दर्जन विश्वविद्यालयों को पत्राचार से बीएड कोर्स की अनुमति सरकार ने ही दी।
समिति ने पाठ्यक्रम तैयार करने में विषयों के चयन, भाषा, प्रस्तुति, बच्चों के लिए अभ्यास आदि पर गहन चिंतन कर कई सुझाव दिए थे। उन सब की चर्चा उससमय खूब हुई। पर धीरे-धीरे शैक्षिक संस्थाओं को दुकान बनाने वालों का पंजा कसा और सबकुछ पहले जैसा ही होने लगा। भाषा के मायने संस्कृतनिष्ठ जटिल वाक्य हो गए, तभी बच्चे कहने में नहीं हिचकिचाते हैं कि वे श्वसन क्रिया तो करते ही नहीं हैं। आज हमारे देश में शिक्षा के नाम पर विदेशी पैसे की बाढ़ आई हुई है। यह धन हमारे देश पर यानी हम सभी पर कर्ज है, जिसे मय सूद के लौटाना है। पैसा विदेशी है तो उससे क्रियान्वित होने वाली अवधारणाएं व प्रक्रियाएं भी सात समंदर पार वाली हैं। डीपीइपी, सर्वशिक्षा अभियान, स्कूल चलो या शिक्षा गारंटी योजना जैसे प्रयोग स्कूल में बच्चों के नामांकन को भले बढ़ा सकते हैं, शब्द व अंक को पहचानने वाले साक्षरों के आंकड़ों में शायद इजाफा भी हो जाए, पर शिक्षा का मूल उद््देश्य (जागरूक नागरिक) कहीं नहीं दिखेगा। अपने वजन से अधिक का बस्ता ढोते बच्चों के लिए शिक्षा भी एक बोझ बन कर रह गई है।
 

Expensive Medical education making hole in pocket of patients


ऐसा डॉक्टर तो पैसा कमाएगा ही

पंकज चतुर्वेदी
अभी-अभी सरकार ने संसद में स्वीकार किया कि देश में कोई 8.18 लाख डॉक्टर मौजूद हैं , यदि आबादी को 1.33 अरब मान लिया जाए तो औसतन प्रति हजार व्यथ्तिक पर एक डाक्ट का आंकडज्ञ भी बहुत दूर लगता है। तिस पर मेडिकल की पढ़ाई इतनी महंगी कर दी है कि जो भी बच्चा डाक्टर बनेगा, उसकी मजबूरी होगी कि वह दोनेा हाथों से केवल नोट कमाए। मेडिकल कालेज में प्रवेश के आकांक्षी बच्चे दसवीं कक्षा पास कर ही नामी-गिरामी कोचिंग संस्थानों  की शरण में चले जाते हैं जिसकी फीस कई-कई लाख होती है। इतनी महंगी है मेडिकल की पढ़ाई, इतना अधिक समय लगता है इसे पूरा करने में , बेहद कठिन है उसमें दाखिला होना भी---- पता नहीं क्यों इन तीन समस्याओं पर सरकार कोई माकूल कदम क्यों नही उठा पा रह है।

 हर राजनीतिक दल चुनाव के समय ‘सभी को स्वास्थ्य’’ के ंरंगीन सपने भी दिखाता है, लेकिन इसकी हकीकत किससी सरकारी अस्पताल में हनीं बल्कि कसिी पंच सितारा किस्म के बड़े अस्पताल में जा कर उजागर हो जाती है- भीड़, डाक्टरों की कमी, बेतहाशा फीस और उसके बावजूद भी बदहवास तिमारदार। सनद रहे हमारे देश में पहले से ही राश्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, ईएसआई, सीजीएचएस जैसी कई स्वास्थ्य योजनाएं समाज के विभिन्न वर्गों के लिए हैं व सभी के हितग्राही असंतुश्ट, हताश  हैं। देशभर के सरकारी अस्पताल मशीनरी, डाक्टर तकनीशियनों के स्तर पर कितने कंगाल हैं, उसके किस्से आए रोज हर अखबार में छपते रहते हैं । भले ही केाई कुछ भी दावे कर ले, लेकिन हकीकत तो यह है कि हमारे यहां इतने डाक्टर ही नहीं है कि सभी को इलाज की कोई भी योजना सफल हो। यदि डाक्टर मिल भी जाएं तो आंचलिक क्षेत्र की बात दूर है, जिला स्तर पर जांच-दवा का इस स्तर का मूलभूत ढ़ांचा विकसित करने में दशकों लगेंगे ताकि मरीज महानगर की ओर ना भागे। 
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इस बार मेडिकल कालेजों में प्रवेश की परीक्षा राश्ट्रीय स्तर पर आयोजित की गई। अब बच्चे हर राज्य में जा कर वहां के मेडिकल कालेजों में अपनी प्राथमिकता दर्ज करवा रहे हैं, इसके लिए उन्हें उस राज्य की यात्रा करनी पड़ रही है। मान लें कि यदि दिल्ली का कोई बच्चा कर्नाटक, महाराश्ट्र और त्रिपुरा राज्यों के कालेजों में जा कर अपना विकल्प भरता है। यानि बच्चा और उसके माता या पिता को साळथ जाना होगा, वक्त कम है अर्थात हवाई यात्रा की मजबूरी होगी। फिर उस राजधानी में जा कर कम से कम दो दिन ठहरना, भोजन, परिवहन आदि यानि तीन राज्यों के कालेजों के लिए ही कम से कम दो लाख जेब में होना जरूरी है। इसके बाद भी यह गारंटी नहीं कि प्रवेश हो ही जाएगा। खर्च यहीं नहीं थमते , यदि प्रवेश मिल गया तो एक साल की ट्यूशन फीस कम से कम आठ लाख। हॉस्टल, पुस्तकें व अन्य व्यय हर महीने कम से कम चालीस हजार  यानि पांच साल में चालीस लाख फीस और न्यूनतम पच्चीस लाख उपर से। अब महज एमबीबीएस करने से काम चलता नहीं है, यदि पोस्ट ग्रेजुएट किया तो एक से डेढ करोड प्रवेश व ट्यूशन फीस। आठ साल लगा कर दो करोड़ रूप्ए व्यय कर जो डाक्टर बनेगा, वह किसी गांव में जा कर सेवा करेगा या फिर मरीजों पर दया करेगा, इसकी संभावना बहुत कम रह जाती है।

गाजियाबाद  दिल्ली से सटा एक विकसित जिला कहलाता है, उसे राजधानी दिल्ली का विस्तार कहना ही उचित होगा। कोई 43 लाख आबादी वाले इस जिले में डाक्टरों की संख्या महज 1800 है, यानी एक डाक्टर के जिम्मे औसतन तीस हजार मरीज। इनका बीस फीसदी भी आम लोगों की पहुंच में नहीं है, क्योंकि अधिकांश डाक्टर उन बड़े-बड़े अस्पतालो में काम कर रहे है, जहां तक औसत आदमी का पहुंचना संभव नहीं होता। राजधानी दिल्ली में ही चालीस फीदी आबादी झोला छाप , नीमहकीमों या छाड़-फूंक वालों के बदौलत अपने स्वास्थ्य की गाड़ी खींचती है। कहने की जरूरत नहीं है कि ग्रामीण स्तर पर स्वास्थ सेवा की बानगी उ.प्र. का ‘‘एन एच आर एम’’ घेाटाला है। विश्व स्वास्थ्य सांख्यिकी संगठन के ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत में 13.3 लाख फीजिशियन यानी सामान्य डाक्टरों की जरूरत है जबकि उपलब्ध हैं महज 6.13 लाख।

 सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रति 1667 व्यक्ति पर औसतन एक डाक्टर उपलब्ध है। अब गाजियाबाद जैसे षहरी जिले और सरकार के आंकड़ों को आमने-सामने रखें तो सांख्यिकीय-बाजीगरी उजागर हो जाती है। यहां जानना जरूरी है कि अमेरिका में आबादी और डाक्टर का अनुपात 1ः 375 है, जबकि जर्मनी में प्रति 283 व्यक्ति पर एक डाक्टर उपलब्ध है। भारत में षहरी क्षेत्रों में तो डाक्टर हैं भी, लेकिन गांव जहां 70 फीसदी आबादी रहती है, डाक्टरों का टोटा है। षहरों में भी उच्च आय वर्ग या आला ओहदों पर बैठे लोगों के लिए तो स्वास्थ्य सेवाएं सहज हैं, लेकिन आम लोगों की हालत गांव की ही तरह है।

जब तब संसद में जर्जर स्वास्थ्य सेवाओं की चर्चा होती है तो सरकार डाक्टरों का रोना झींकती है, लेकिन उसे दूर करने के प्रयास कभी ईमानदारी से नहीं हुए। हकीकत में तो कई सांसदों या उनके करीबियों के मेंडिकल कालेज हैं और वे चाहते नहीं हैं कि देश में मेडिकल की पढ़ाई सहज उपलब्ध हो। बकौल मेडिकल कांउसिंल भारत में 335 मेडिकल कालेजों में 40,525 सीटें एमबीबीएस की हैं। कुछ साल पहले तब के केंद्र सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अलग से डाक्टर तैयार करने के चार साला कोर्स की बात कही थी, लेकिन सरकारी दम पर उसका क्रियान्वयन संभव था हीं नहीं, और प्राईवेट कालेज वाले ऐसी किसी को परवान चढ़ने नहीं देना चाहते।  हमारे देश के लगभग 400 जिलो में विशाल व सुविधा संपन्न सरकारी जिला अस्पताल हैं जहां अनुभवी डाक्टर भी हैं। यह कोई बड़ी बात नहीं है कि ऐसे  अस्पतालों में महज 20 या 40 सीट के मेडिकल कालेज शुरू कर दिए जाएं। इससे स्थानीय डाक्टर को ऐकेडमिक येागदान का अवसर भी मिलेगा, साथ ही सरकारी अस्पतालों की परिसंपत्ति व संसाधन का इस्त्ेमाल बहुत कम लागत में एक रचनात्मक कार्य के लिए हो सकेगा।  तात्कालीक जरूरत तो इस बात की है कि हर राज्य में जा कर काउंसलिंग के नाम पर अपने दस्तावेज परीक्षण करवाने के आदेश पर रोक लगा कर इसकी कोई केंद्रीकृत व आनलाईन व्यवस्था लागू की जाए। साथ ही निजी या सरकारी मेडिकल कालेज में ट्यूशन फीस कम करना, सबसिडी दर पर पुस्तकें उपलब्ध करवाने जैसे प्रयोग किये जा सकते है। ताकि भारत में सभी को स्वास्थ्य का नारा साकार रूप ले सके।
हाल के वर्शों में इंजीनियरिंग और बिजनेस की पढ़ाई के लिउ जिस तरह से कालेज खुले, उससे हमारा देश तकनीकी शिक्षा और विशेशज्ञता के क्षेत्र में दुनिया के सामने खड़ा हुआ है। हमारे यहां महंगी मेडिकल की पढ़ाई, उसके बाद समुचित कमाई ना होने के कारण ही डाक्टर लगातार विदेशों की ओर रूख कर रहे हैं। यदि मेडिकल की पढ़ाई सस्ती की जाए, अधिक मेडिकल कालेज खोलने की पहल की जाए, ग्रामीण क्षेत्र में डाक्टरों को समुचित सुविधाएं दी जाएं तो देश के मिजाज को दुरूस्त करना कोई बड़ी बात नहीं है, लेकिन मेडिकल की पढ़ाई में जिस तरह सरकार ने निजी क्षेत्र को विस्तार से रोक रखा है, जिस तरह अंधाधुंध फीस ली जा रही है; उससे तो यही लगता है कि सरकार ही नहीं चाहती कि हमारे यहां डाक्टरों की संख्या बढ़े। और जब तक डाक्टर नहीं बढ़ेंगे सबके लिए स्वास्थ्य की बात महज लफ्फाजी से ज्यादा नहीं होगी।


रविवार, 23 जुलाई 2017

Flyover-unnder pass cause of jam in rainy season

शहरी विकास की पोल खोलती बारिश

महानगरों में बढ़ते यातायात को सहज बनाने के लिए बीते एक दशक के दौरान ढेर सारे फ्लाईओवर और अंडरपास बने। दावे किए गए कि अमुक सड़क अब ट्रैफिक सिग्नल से मुक्त हो गई है। इसके बावजूद वहां प्रति दिन जाम लगना आम बात है। यदि मानवजन्य कारणों को अलग कर दिया जाए तो दिल्ली जैसे शहरों में जाम लगने के अधिकांश स्थान या तो फ्लाईओवर हैं या फिर अंडरपास। यह मुसीबत बरसात के दिनों में और गंभीर हो जाती है

फजीहत करवाते फ्लाईओवर
पंकज चतुर्वेदी

 

अभी कुछ फुहारें क्या पड़ी ,दिल्ली और उसके आसपास के सभी महानगर- गाजियाबाद, नोएडा, गुडगांव पानी-पानी हो गए। कई सड़कों पर पांच किलोमीटर तक लंबा जाम लग गया। गरमी से निजात के आनंद की कल्पना करने वाले सड़कों पर जगह-जगह पानी भरने से ऐसे दो-चार हुए कि अब बारिश के नाम से ही डर रहे हैं। बारिश भले ही रिकार्ड में बेहद कम थी, लेकिन आधी दिल्ली ठिठक गई। जहां उड़ कर जाने को यह भी नहीं कि ऐसा केवल दिल्ली में ही हो रहा है। यह तो हर साल की कहानी है और देश के कोई दो दर्जन महानगरों की त्रासदी है। हर बार सारा दोष नालों की सफाई ना होने ,बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप दिया जाता हैं । विडंबना है कि शहर नियोजन के लिए गठित लंबे-चौडे़ सरकारी अमले पानी के बहाव में शहरों के ठहरने पर खुद को असहाय पाते हैं । दुखद है कि जाम का कारण बनने वाला पानी का भराव उन जगहों पर होता है जिन्हे सड़क निर्माण तकनीक की आधुनिक संरचना कहते हैं - अंडर पास व फ्लाई ओवर।
देश की राजधानी दिल्ली में सुरसामुख की तरह बढ़ते यातायात को सहज बहाव देने के लिए बीते एक दशक के दौरान ढेर सारे फ््लाई ओवर और अंडरपास बने। कई बार दावे किए गए कि अमुक सड़क अब ट्राफिक सिग्नल से मुक्त हो गई है, इसके बावजूद दिल्ली में हर साल कोई 185 जगहों पर 125 बड़े जाम और औसतन प्रति दिन चार से पांच छोटे जाम लगना आम बात है।  इनके प्रमुख कारण किसी वाहन का खराब होना, किसी धरने-प्रदर्शन की वजह से यातायात  का रास्ता बदलना, सड़कांे की जर्जर हालत ही होते हैं । लेकिन जान कर आश्चर्य होगा कि यदि मानवजन्य जाम के कारणों को अलग कर दिया जाए तो महानगर दिल्ली में जाम लगने के अधिकांश स्थान या तो फ्लाई ओवर हैं या फिर अंडर पास। और यह केवल बरसात के दिनों की ही त्रासदी नहीं है, यह मुसीबत बारहों महीने, किसी भी मौसम में आती है। कहीं इसे डिजाईन का देाश कहा जा रहा है तो कहीं लोगों में यातायात-संस्कार का अभाव। लेकिन यह तय है कि अरबों रूपए खर्च कर बने ये हवाई दावे हकीकत के धरातल पर त्रासदी ही हैं।
बारिश के दिनों में अंडर पास में पानी भरना ही था, इसका सबक हमारे नीति-निर्माताओं ने आईटीओ के पास के शिवाजी ब्रिज और कनाट प्लेस के करीब के मिंटो ब्रिज से नहीं लिया था। ये दोनों ही निर्माण बेहद पुराने हैं और कई दशकों से बारिश के दिनों में दिल्ली में जल भराव के कारक रहे हैं। इसके बावजूद दिल्ली को ट्राफिक सिग्नल मुक्त बनाने के नाम पर कोई चार अरब रूपए खर्च कर दर्जनभर अंडरपास बना दिए गए। लक्ष्मीनगर चुंगी, द्वारका मार्ग, मूलचंद,पंजाबी बाग आदि कुछ ऐसे अंडर पास हैं जहां थोड़ी सी बारिश में ही कई-कई फुट पानी भर जाता है। सबसे षर्मनाम तो है हमारे अंतरराश्ट्रीय हवाई अड्डे को जोड़ने वाले अंडर पास का नाले में तब्दील हो जाना। कहीं पर पानी निकालने वाले पंपों के खराब होने का बहाना है तो सड़क डिजाईन करने वाले नीचे के नालों की ठीक से सफाई ना होने का रोना रोते हैं तो दिल्ली नगर पालिका अपने यहां काम नहीं कर रहे कई हजार कर्मचारियों की पहचान ना कर पाने की मजबूरी बता देती है। इन अंडरपास की समस्या केवल बारिश के दिनों में ही नहीं है। आम दिनों में भी यदि यहां कोई वाहन खराब हो जाए या दुर्घटना हो जाए तो उसे खींच कर ले जाने का काम इतना जटिल है कि जाम लगना तय ही होता है। असल में इनकी डिजाईन में ही खामी है जिससे बारिश का पूरा जल-जमाव उसमें ही होता है। जमीन के गहराई में जा कर ड्रैनेज किस तरह बनाया जाए, ताकि पानी की हर बूंद बह जाए, यह तकनीक अभी हमारे इंजीनियरों को सीखनी होगी।
ठीक ऐसे ही हालात फ्लाईओवरों के भी हैं। जरा पानी बरसा कि उसके दोनो ओर यानी चढ़ाई व उतार पर पानी जमा हो जाता है। कारण एक बार फिर वहां बने सीवरों की ठीक से सफाई ना होना बता दिया जाता है। असल में तो इनकी डिजाईन में ही कमी है- यह आम समझ की बात है कि पहाड़ी जैसी किसी भी संरचना में पानी की आमद ज्यादा होने पर जल नीचे की ओर बहेगा। मौजूदा डिजाईन में नीचे आया पानी ठीक फ्लाईओवरों से जुड़ी सड़क पर आता है और फिर यह मान लिया जाता है कि वह वहां मौजूद स्लूस से सीवरों में चला जाएगा। असल में सड़कों से फ्लाईओवरों के जुड़ाव में मोड़ या अन्य कारण से एक तरफ गहराई है और यहीं पानी भर जाता है। कई स्थान पर इन पुलों का उठाव इतना अधिक है और महानगर की सड़कें हर तरह के वाहनों के लिए खुली भी हुई हैं, सो आए रोज इन पर भारी मालवाहक वाहनों का लोड ना ले पाने के कारण खराब होना आम बात है। एक वाहन खराब हुआ कि कुछ ही मिनटों में लंबा हो जाता है। ऐसे हालात सरिता विहार, लाजपत नगर, धौलाकुआं, नारायणा, रोहिणी आदि में आम बात हैं।
अंडर पास का हर बार तालाब बन जाना गाजियाबाद के गौशाला अंडरपास की स्थाई समस्या है तो जयपुर जाने वाले राश्ट्रीय राजमार्ग 8 पर गुडगांव के लिए जाने वाले प्रत्येक रपटे पर बारिश का पानी जमा होता ही है। दिल्ली के हवाई अड्डे स ेले कर दिलशाद गार्डन तक के अंडर पास जरा से बादल बरसने पर दरिया बन जाते हैं। फरीदाबाद में प्रत्येक पुल बरसात के बाद जाम हो जाता है। यह दिक्कत अकेले दिल्ली एनसीआर तक ही नहीं है, लखनउ, इंदौर, पटियाला, सूरत जैसे षहर भी पुल व भूमिगत पथों के बारिश में बेकार होने की शिकायतें करते रहते हैं। भले ही अब बरसात कुछ ही दिनों होती हो, लेकिन कुछ ही दिनों में कुछ ही घंटों में होने वाला जाम ईंधन की बर्बादी, उससे उपजे कार्बन के कारण धरती को स्थाई नुकसान तथा ईंधन की खरीद पर भारत के विदेशी पूंजी के व्यय में इजाफा करता है। जाहिर है कि फ्लाई ओवर और अंडरपास के डिजाईन बरसात को ध्यान में रख कर बनाए जाने आवश्यक हैं ताकि उससे पानी को बचाया भी जा सके।
अब षायद दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के स्वप्नदृश्टाओं को सोचना होगा कि कई अरब-खरब खर्च कर यदि ऐसी ही मुसीबत को झेलना है तो फिर ट्राफिक सिग्नल सिस्टम ही क्या बुरा है ? जैसे हाल ही में सरकार को समझ में आया कि कई-कई करोड़ खर्च कर बनाए गए भूमिगत पैदल पारपथ आमतौर पर लोग इस्तेमाल करते ही नहीं हैं और नीतिगत रूप से इनका निर्माण बंद कर दिया गया है। 
यह विडंबना है कि हमारे नीति निर्धारक यूरोप या अमेरिका के किसी ऐसे देश की सड़क व्यवस्था का अध्ययन करते हैं जहां ना तो दिल्ली की तरह मौसम होता है और ना ही एक ही सड़क पर विभिन्न तरह के वाहनों का संचालन। उसके बाद सड़क, अंडरपास और फ्लाईओवरों की डिजाईन तैयार करने वालों की शिक्षा भी ऐसे ही देशों में लिखी गई किताबों से होती हैं। नतीजा सामने है कि ‘‘आधी छोड़ पूरी को जावे, आधी मिले ना पूरी पावे’’ का होता है। हम अंधाधंुध खर्चा करते हैं, उसके रखरखाव पर लगातार पैसा फूंकते रहते हैं- उसके बावजूद ना तो सड़कों पर वाहनों की औसत गति बढ़ती है और ना ही जाम जैसे संकटों से मुक्ति। काश! कोई स्थानीय मौसम, परिवेश और जरूरतों को ध्यान में रख कर जनता की कमाई से उपजे टैक्स को सही दिशा में व्यय करने की भी सोचे। सरकार में बैठे लोग भी इस संकट को एक खबर ेस कहीं आगे की सोच के साथ देखे।

पंकज चतुर्वेदी
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सेक्टर-2
साहिबाबाद
गाजियाबाद 201005
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चब7001010/हउंपसण्बवउ

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शुक्रवार, 21 जुलाई 2017

sewar death spot for cleaner

गंदगी के समंदर में गर्क होती जिंदगी

सीवर सफाई में लगे श्रमिकों के बीच किए गए सर्वे से मालूम चलता है कि उनमें से 49 फीसदी लोग सांस की बीमारियों, खांसी व सीने में दर्द के रोगी हैं। 11 प्रतिशत को डरमैटाइसिस, एक्जिमा और ऐसे ही चर्म रोग हैं।

अभी बीते शनिवार को दिल्ली के घिटोरनी में एक फार्म हाउस के सीवर की सफाई के दौरान चार लोग काल के गाल में समा गए। इसी साल अप्रैल महीने में दिल्ली एनसीआर के फरीदाबाद और गाजियाबाद में सीवर की जानलेवा गैस से दम घुटने के चलते छह लोग मरे हैं। एक अप्रैल को उदयपुर में एक ही स्थान पर पांच लोग मारे गए। ऐसी मौतें हर साल हजार से ज्यादा होती हैं। हर मौत का कारण सीवर की जहरीली गैस बताया जाता है।

हर बार कहा जाता है कि यह लापरवाही का मामला है। पुलिस ठेकेदार के खिलाफ मामला दर्ज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। यही नहीं अब नागरिक भी अपने घर के सैप्टिक टैंक की सफाई के लिए अनियोजित क्षेत्र से मजदूरों को बुला लेते हैं और यदि उनके साथ कोई दुर्घटना होती है तो न तो उनके आश्रितों को कोई मुआवजा मिलता है और न ही कोताही करने वालों को कोई समझाईश। शायद यह पुलिस को भी नहीं मालूम है कि सीवर सफाई का ठेका देना हाईकोर्ट के आदेश के विपरीत है। समाज के जिम्मेदार लोगों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि नरक-कुंड की सफाई के लिए बगैर तकनीकी ज्ञान व उपकरणों के निरीह मजदूरों को सीवर में उतारना अमानवीय है।
विडंबना है कि सरकार व सफाई कर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने के नारों से आगे इस तरह से हो रही मौतों पर ध्यान ही नहीं देते। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मुंबई हाईकोर्ट ने सात साल पहले सीवर की सफाई के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे, जिनकी परवाह और जानकारी किसी को नहीं है। सरकार ने भी सन 2008 में एक अध्यादेश लाकर गहरे में सफाई का काम करने वाले मजदूरों को सुरक्षा उपकरण प्रदान करने की अनिवार्यता की बात कही थी। नरक कुंड की सफाई का जोखिम उठाने वाले लेागों की सुरक्षा-व्यवस्था के कई कानून हैं और मानव अधिकार आयोग के निर्देश भी।

लंकिन इनके पालन की जिम्मेदारी किसी की नहीं। कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजंसी के पास सीवर लाईन के नक्शे, उसकी गहराई से संबंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई का दैनिक रिकॉर्ड, काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य जांच, आवश्यक सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना, काम में लगे कर्मचारियों का नियमित प्रशिक्षण, सीवर में गिरने वाले कचरे की नियमित जांच कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं गिर रहे हैं, जैसे निर्देशों का पालन होता कहीं नहीं दिखता।

यह एक शर्मनाक पहलू है कि यह जानते हुए भी कि भीतर जानलेवा गैसें और रसायन हैं, एक इंसान दूसरे इंसान को बगैर किसी बचाव या सुरक्षा-साधनों के भीतर ढकेल देता है । सनद रहे कि महानगरों के सीवरों में महज घरेलू निस्तार ही नहीं होता, उसमें ढेर सारे कारखानों की गंदगी भी होती है। यही नहीं सीवर के काम में लगे लोगों को सामाजिक उपेक्षा का भी सामना करना होता है। दिल्ली में सीवर सफाई में लगे कुछ श्रमिकों के बीच किए गए सर्वे से मालूम चलता है कि उनमें से 49 फीसदी लोग सांस की बीमारियों, खांसी व सीने में दर्द के रोगी हैं। 11 प्रतिशत को डरमैटाइसिस, एक्जिमा और ऐसे ही चर्म रोग हैं। लगातार गंदे पानी में डुबकी लगाने के कारण कान बहने व कान में संक्रमण, आंखों में जलन व कम दिखने की शिकायत करने वालों का संख्या 32 फीसदी थी। भूख न लगना उनका एक आम रोग है।

इतना होने पर भी सीवरकर्मियों को उनके जीवन की जटिलताओं की जानकारी देने के लिए न तो सरकारी स्तर पर कोई प्रयास हुए हैं और न ही किसी स्वयंसेवी संस्था ने इसका बीड़ा उठाया है। आज के अर्थ-प्रधान और मशीनी युग में सफाईकर्मियों के राजनीतिक व सामाजिक मूल्यों के आकलन का नजरिया बदलना जरूरी है। सीवरकर्मियों को देखें तो महसूस होता है कि उनकी असली समस्याओं के बनिस्पत भावनात्मक मुद्दों को अधिक उछाला जाता रहा है। केवल छुआछूत या अत्याचार जैसे विषयों पर टिका चिंतन-मंथन उनकी व्यावहारिक दिक्कतों से बेहद दूर है। सीवर में काम करने वालों को काम के लिए आवश्यक सुरक्षा उपकरण, आर्थिक संबल और स्वास्थ्य की सुरक्षा मिल जाए जो उनके बीच नया विश्वास पैदा किया जा सकता है।

Why was the elephant not a companion?

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