बस्ते के बोझ से दबी शिक्षा
आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के खौफ में जीते हैं। जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी कक्षाओं में बच्चों को गृहकार्य सिर्फ इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठ्यपुस्तक से न हो। छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया को लगातार नीरस होते जाने से बचाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो. यशपाल कर रहे थे। समिति ने देश भर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है न समझ पाने का बोझ। सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं। मगर फिर देश की राजनीति मंदिर-मस्जिद जैसे विवादों में ऐसी फंसी कि उस रिपोर्ट की सुध ही नहीं रही।वैसे सरकार में बैठे लोगों से बात करें तो वे इस बात को गलत ही बताएंगे कि यशपाल समिति की रिपोर्ट लागू करने की ईमानदार कोशिशें नहीं हुर्इं। जमीनी हकीकत जानने के लिए लखनऊ जिले में चिनहट के पास स्थित गणेशपुर गांव के बच्चों का उदाहरण काफी है। कक्षा पांच की विज्ञान की किताब के पहले पाठ के दूसरे पेज पर दर्ज था कि पेड़ कैसे श्वसन क्रिया करते हैं। बच्चों से पूछा गया कि आपमें से कौन-कौन श्वसन क्रिया करता है, सभी बच्चों ने मना कर दिया कि वे ऐसी कोई हरकत करते भी हैं। हां, जब उनसे सांस लेने के बारे में पूछा गया तो वे उसका मतलब जानते थे।
बच्चों से पूछा गया कि सहायता का क्या मतलब है तो जवाब था कि पूछना, रुपया, मांगना। उनके किताबी ज्ञान ने उन्हें सिखाया कि दुनिया का अर्थ शहर, जमीन, पृथ्वी या जनता होता है। आंगनवाड़ी केंद्र में चार्ट के सामने रट रहे बच्चों ने न तो कभी अनार देखा था और न ही उन्हें ईख, ऐनक, एड़ी और ऋषि के मायने मालूम थे। किताबों ने बच्चों को भले ही ज्ञानवान बना दिया हो, पर कल्पना व समझ के संसार में वे दिनोंदिन कंगाल होते जा रहे हैं। यशपाल समिति की पहली सिफारिश थी कि बच्चों को निजी सफलता वाली प्रतियोगिताओं से दूर रखा जाए क्योंकि यह आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है। इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित व पुरस्कृत किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, बीते एक दशक में कक्षा में अव्वल आने की गलाकाट प्रतियोगिता में न जाने कितने बच्चे कुंठा का शिकार हो मौत को गले लगा चुके हैं।
समिति की दूसरी सिफारिश पाठ्यपुस्तक के लेखन में शिक्षकों की भागीदारी बढ़ा कर उसे विकेंद्रित करने की थी। सभी स्कूलों को पाठ्यपुस्तकों और अन्य सामग्री के चुनाव सहित नवाचार के लिए बढ़ावा दिए जाने की बात भी इस रिपोर्ट में थी। अब प्राइवेट स्कूलों को अपनी किताबें चुनने का हक तो मिल गया है, लेकिन यह अच्छा व्यापार बन कर बच्चों के शोषण का जरिया बन गया है। पब्लिक स्कूल अधिक मुनाफा कमाने की फिराक में बच्चों का बस्ता भारी करते जा रहे हैं। उधर सरकारी स्कूलों के लिए पाठ्यपुस्तकें तैयार करने वाला एनसीईआरटी इतने विवादों में है कि वह पुस्तकें लिखने वाले लेखकों का नाम तक गोपनीय रखने लगा है।
ऐसे ही हालात विभिन्न राज्यों के पाठ्यपुस्तक निगमों के हैं। दिल्ली सरकार के स्कूलों के लिए एनसीईआरटी द्वारा तैयार पुस्तकें आधा साल गुजरने के बाद भी बच्चों तक नहीं पहुंचती हैं। जाहिर है कि बच्चों को अब पूरे साल का पाठ्यक्रम तीन महीने में पूरा करने की कवायद करनी होगी। ऐसे में उन पर पढ़ाई का बोझ कम होने की बात करना बेमानी ही होगा। पाठ्यपुस्तकों को स्कूल की संपत्ति मानने व उन्हें बच्चों को रोज घर ले जाने की जगह स्कूल में ही रखने के सुझाव न जाने किस लाल बस्ते में बंध कर गुम हो गए।
समिति की एक राय यह भी थी कि केंद्रीय स्कूलों व नवोदय विद्यालयों के अलावा सभी स्कूलों को उनके राज्य के शिक्षा मंडलों से संबद्ध कर देना चाहिए। लेकिन आज सीबीएसई से संबद्धता स्कूल के स्तर का मानदंड माना जाता है और हर साल खुल रहे नए-नए पब्लिक स्कूलों को अपनी संबद्धता बांटने में सीबीएसई दोनों हाथ खोले हुए है। नतीजा है कि राज्य बोर्ड से पढ़ कर आए बच्चों को दोयम दर्जे का माना जा रहा है। कक्षा दस व बारह के बच्चों को पाठ्य सामग्री रटने की मजबूरी से छुटकारा दिलाने के लिए समिति ने परीक्षा के तरीकों में आमूलचूल बदलाव की बात कही थी। पर बोर्ड की परीक्षाओं में अव्वल आने का सबसे बढ़िया फंडा रटना ही माना जा रहा है।
समिति की एक राय यह भी थी कि केंद्रीय स्कूलों व नवोदय विद्यालयों के अलावा सभी स्कूलों को उनके राज्य के शिक्षा मंडलों से संबद्ध कर देना चाहिए। लेकिन आज सीबीएसई से संबद्धता स्कूल के स्तर का मानदंड माना जाता है और हर साल खुल रहे नए-नए पब्लिक स्कूलों को अपनी संबद्धता बांटने में सीबीएसई दोनों हाथ खोले हुए है। नतीजा है कि राज्य बोर्ड से पढ़ कर आए बच्चों को दोयम दर्जे का माना जा रहा है। कक्षा दस व बारह के बच्चों को पाठ्य सामग्री रटने की मजबूरी से छुटकारा दिलाने के लिए समिति ने परीक्षा के तरीकों में आमूलचूल बदलाव की बात कही थी। पर बोर्ड की परीक्षाओं में अव्वल आने का सबसे बढ़िया फंडा रटना ही माना जा रहा है।
एक और सिफारिश अभी तक मूर्त रूप नहीं ले पाई है, जिसमें सुझाया गया था कि नर्सरी कक्षाओं में दाखिले के लिए होने वाले टेस्ट व इंटरव्यू बंद होने चाहिए। साथ ही गैर-सरकारी स्कूलों को मान्यता देने के मानदंड कड़े करने की बात भी कही गई थी। जगह, स्टाफ, पढ़ाई और खेल के सामान के मानदंड सरकारी स्कूलों पर भी लागू हों। यह सर्वविदित है कि आज दूरस्थ गांवों तक बड़े-बड़े नाम वाले पब्लिक स्कूल खोल कर अभिभावकों की जेब काटने के धंधे पर कहीं कोई अंकुश नहीं है। आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के खौफ में जीते हैं। जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी कक्षाओं में बच्चों को गृहकार्य सिर्फ इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। मिडिल व उससे ऊपर की कक्षाओं में होमवर्क जहां जरूरी हो, वहां भी पाठ्यपुस्तक से न हो। पर आज तो होमवर्क का मतलब ही पाठ्यपुस्तक के सवाल-जवाब को कापी पर उतारना या उसे रटना रह गया है। कक्षा में चालीस बच्चों पर एक शिक्षक, विशेष रूप से प्राइमरी में तीस बच्चों पर एक शिक्षक होने की सिफारिश खुद सरकारी स्कूलों में भी लागू नहीं हो पाई है। अब एक ही शिक्षक को एक साथ कई कक्षाएं पढ़ाने की बाकायदा ट्रेनिंग शुरू हो गई है। पत्राचार के जरिए बीएड की उपाधि देने वाले पाठ्यक्रमों की मान्यता समाप्त करने की सिफारिश भी यशपाल समिति ने की थी। विडंबना यह है कि इस रिपोर्ट को सरकार द्वारा स्वीकार कर लेने के बाद करीब एक दर्जन विश्वविद्यालयों को पत्राचार से बीएड कोर्स की अनुमति सरकार ने ही दी।
समिति ने पाठ्यक्रम तैयार करने में विषयों के चयन, भाषा, प्रस्तुति, बच्चों के लिए अभ्यास आदि पर गहन चिंतन कर कई सुझाव दिए थे। उन सब की चर्चा उससमय खूब हुई। पर धीरे-धीरे शैक्षिक संस्थाओं को दुकान बनाने वालों का पंजा कसा और सबकुछ पहले जैसा ही होने लगा। भाषा के मायने संस्कृतनिष्ठ जटिल वाक्य हो गए, तभी बच्चे कहने में नहीं हिचकिचाते हैं कि वे श्वसन क्रिया तो करते ही नहीं हैं। आज हमारे देश में शिक्षा के नाम पर विदेशी पैसे की बाढ़ आई हुई है। यह धन हमारे देश पर यानी हम सभी पर कर्ज है, जिसे मय सूद के लौटाना है। पैसा विदेशी है तो उससे क्रियान्वित होने वाली अवधारणाएं व प्रक्रियाएं भी सात समंदर पार वाली हैं। डीपीइपी, सर्वशिक्षा अभियान, स्कूल चलो या शिक्षा गारंटी योजना जैसे प्रयोग स्कूल में बच्चों के नामांकन को भले बढ़ा सकते हैं, शब्द व अंक को पहचानने वाले साक्षरों के आंकड़ों में शायद इजाफा भी हो जाए, पर शिक्षा का मूल उद््देश्य (जागरूक नागरिक) कहीं नहीं दिखेगा। अपने वजन से अधिक का बस्ता ढोते बच्चों के लिए शिक्षा भी एक बोझ बन कर रह गई है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें