My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

BHAGORIYA : COLOR FESTIVAL OF BHIL'S, THE TRIBES OF MADHY PRADESH



भीलों का भगोरिया


पंकज चतुर्वेदी

टेसू के फूलों की महक एवं आम के पेड़ो पर छाई मोरों अमराई की भीनी भीनी खुशबु ने फागुन की दस्तक दे दी है। भगोरिया उत्सव का मौसम आ गया है। मध्यप्रदेश भारत के हृदय प्रदेश के रूप में प्रतिष्ठित है। मालवा अंचल मध्यप्रदेश का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक इलाके के रूप में जाना जाता है। धार, झाबुआ, खरगोन जिले मालवा अंचल के आदिवासी संस्कृति के प्रमुख केन्द्र हैं। भगोरिया राजा भोज के समय से ही मनाया जाता है। उस समय के दो भील राजाओं कासूमार व बालून ने अपनी राजधानी भागोर में विशाल मेले और हाट का आयोजन करना शुरू किया। ऐसा आदिवासी संस्कृति पर रचित पुस्तकों में उल्लेख मिलता है। इन संदर्भां के अनुसार भगोरिया का प्रारम्भ राजा भोज के समय लगने वाले हाटों को कहा जाता था। ऐसी मान्यता है कि क्षेत्र का भगोर नाम का गाँव देवी मां के श्राप के कारण उजड़ गया था। वहॉ के राजा ने देवी को प्रसन्न करने के लिए गाँव के नाम से वार्षिक मेले का आयोजन शुरू कर दिया। चूँकि यह मेला भगोर से शुरू हुआ, इसलिये इसका नाम भगोरिया रख दिया गया। वैसे इसे गुलालिया हाट यानी गुलाल फेंकने वालों का हाट भी कहा जाता है। धीरे-धीरे भील राजाओं ने इन्ही का अनुसरण करना शुरू किया जिससे हाट और मेलों को भगोरिया कहना शुरू हुआ। अन्य राय के अनुसार चूँकि इन मेलों में युवक युवतियॉ अपनी मर्जी से भागकर शादी करते हैं इसलिए इसे भगोरिया कहा जाता है। भगोरिया उत्सव होली का ही एक रूप है और हर तरफ फागुन और प्यार का रंग बिखरा नजर आता है।

यह पर्व धार, झाबुआ, अलिराजपुर व बड़वानी जिले के आदिवासियों के लिए खास महत्व रखता है। आदिवासी समाज मुलतरू किसान हैं। ऐसी मान्यता है कि यह उत्सव फसलों के खेंतो से घर आने के बाद आदिवासी समाज हर्ष-उल्लास और मोज-मस्ती को पर्व के रूप में सांस्कृतिक परिवेश में मनाता है। इस पर्व में समाज का हर आयु वर्ग सांस्कृतिक पर्व के रूप में सज-धज कर त्यौहार के रूप में मनाता है। भगोरिया पर्व आदिवासी संस्कृति के लिए धरोहर है इसलिए ये वाद्य यंत्र के साथ मांदल की थाप पर हाट-बाजार में पहुंचते हैं और मोज-मस्ती के साथ उत्सव के रूप में मनाते हैं। भगोरिया के समय धार, झाबुआ, खरगोन आदि क्षेत्रों के हाट-बाजार मेले का रूप ले लेते हैं और हर तरफ फागुन और प्यार का रंग बिखरा नजर आता है ।
हर साल टेसू (पलाश) के पेड़ों पर खिलने वाले सिंदूरी फूल पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासियों को फागुन के आने की खबर दे देते हैं और वे भगोरिया मनाने के लिये तैयार हो जाते हैं। भगोरिया हाट-बाजारों में युवक-युवती बेहद सजधज कर अपने भावी जीवनसाथी को ढूँढने आते हैं। इनमें आपसी रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है। सबसे पहले लड़का लड़की को पान खाने के लिए देता है। यदि लड़की पान खा ले तो हाँ समझी जाती है। इसके बाद लड़का लड़की को लेकर भगोरिया हाट से भाग जाता है और दोनों विवाह कर लेते हैं। इसी तरह यदि लड़का लड़की के गाल पर गुलाबी रंग लगा दे और जवाब में लड़की भी लड़के के गाल पर गुलाबी रंग मल दे तो भी रिश्ता तय माना जाता है।
फागुन की मदमाती बयारों और बसंत के साथ मध्यप्रदेश और बस्तर आदिवासी इलाकों में भगोरिया पर्व का शुभारंभ हो जाता है। रंग-रंगीले, मस्ती भरे, परंपरागत लोक-संस्कृति के प्रतीक भगोरिया पर्व में ढोल-मांदल की थाप, बाँसुरी की मधुर धुन और थाली की झंकार के साथ युवाओं की उमंग का आलम देखने को मिलता है।

नव पल्लवित वृक्षों के समान ही नए-नए आवरणों में सजे युवक और युवतियाँ जब इस उत्सव को मनाने टोलियों में आते हैं तो उनके मन की उमंग देखते ही बनती है। युवतियों का श्रृंगार तो दर्शनीय होता ही है, युवक भी उनसे पीछे नहीं रहते। आदिवासियों को मुख्य धारा से पिछड़ा मानने वाले हम यदि इनकी परंपराओं पर बारीकी से नजर डालें तो पाएँगे कि जिन परंपराओं के अभाव में हमारा समाज तनावग्रस्त है वही परंपराएँ इन वनवासियों ने बखूबी से विकसित की हैं।


हमारे सभ्य समाज में मनपसंद जीवनसाथी की तलाश करने में स्वेदकण बहाने वालों को अपने गरेबान में झाँककर देखना चाहिए कि हमारे पास अपनी युवा पीढ़ी को देने के लिए क्या है? क्या हमारे पास हैं ऐसे कुछ उत्सव जो सिर्फ और सिर्फ प्रणय-परिणय से संबंधित हों? लेकिन आदिवासियों के पास हैं इस मामले में वे हमसे अधिक समृद्ध हैं।

भगोरिया हाट के दिन सभी गाँवों, फलियों और घरों में एक विशेष उत्साह, उन्माद व सरगर्मी नजर आती है। गाँवों में ढोलों के स्वर दूर-दूर तक प्रतिध्वनित होते हैं। कहीं घुँघरुओं की छम-छम तो कहीं थाली की झंकार, कहीं कुंडी या फिर शहनाई का तीव्र नाद, कहीं मांदल की थाप से उपजे संगीत के मधुर स्वर, बड़ी दूर-दूर तक वन प्रांतों, पहाड़ों की घाटियों, नदियों व जलाशयों की तरंगों, खेतों व खलिहानों में अविरल और सहज प्रतिध्वनित हो उठते हैं।

बाजारों की सरहदों पर ढोल-मांदलों आदि के संगीत पर नृत्य करती टोलियों की बड़ी संख्या से धूम बढ़ जाती है। भगोरिया हाट में दूर-दूर से कई किस्म की दुकानें नए-पुराने व्यापारी लाते व लगाते हैं। इनमें झूले, मिठाइयाँ, वस्त्र, सोने-चाँदी आदि धातुओं व प्लास्टिक के आभूषण, श्रृंगार के प्रसाधन, खिलौने, भोजन सामग्री आदि प्रमुख रहते हैं।

भील युवा तरह-तरह की समस्याओं से घिरे रहने के बावजूद सदा खिले ही रहते हैं। यह अनूठा प्रेम है, जो इस समाज के लिए परमात्मा का वरदान है। भगोरिया शब्द की व्युत्पत्ति भगोर क्षेत्र से तथा उसके आसपास होने वाले होलिका दहन के पूर्व के अंतिम हाट से हुई है। वैसे इसका असली नाम गलालिया हाट यानी गुलाल फेंकने वालों का हाट भी कहा गया है।

पूरे वर्ष हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले आदिवासी युवक-युवती इंतजार करते हैं इस उत्सव का जब वे झूमेंगे नाचेंगे गाएँगे, मौसम की मदमाती ताल पर बौरा जाएँगे। फिर उनके पास भगौरिया भी तो है अपनी पसंद को निःसंकोच अपने प्रिय के समक्ष जाहिर कर सकने का पर्व। इस अवसर को उन्होंने मदमाते मौसम में ही मनाना तय किया जो अपने आपमें उत्सव की प्रासंगिकता को और भी बढ़ा देता है। होली के पूर्व हठवारे में झाबुआ में लगने वाले अंतिम हाटों को, जो रबी की फसल के तुरंत बाद लगते हैं और यहाँ के भील जिसमें सर्वाधिक क्रय-विक्रय करते हैं, उस हाट को भगोरिया हाट या फिर गलालिया हाट कहते हैं।
भगोरिया हाट को आदिवासी युवक-युवतियों का मिलन समारोह कहा जा सकता है। परंपरा के मुताबिक भगोरिया हाट में आदिवासी युवक, युवती को पान का बीड़ा पेश करके अपने प्रेम का मौन इजहार करता है। युवती के बीड़ा ले लेने का मतलब है कि वह भी युवक को पसंद करती है।
   
इसके बाद यह जोड़ा भगोरिया हाट से भाग जाता है और तब तक घर नहीं लौटता, जब तक दोनों के परिवार उनकी शादी के लिये रजामंद नहीं हो जाते।
   
बहरहाल, आधुनिकता का रंग प्रेम की इस सदियों पुरानी जनजातीय परंपरा पर भी गहराता जा रहा है। जनजातीय संस्कृति के जानकार बताते हैं कि भगोरिया हाट अब मेलों में तब्दील हो गये हैं और इनमें परंपरागत तरीके से जीवनसाथी चुनने के दृश्य उतनी प्रमुखता से नहीं दिखते। मगर वक्त के तमाम बदलावों के बावजूद भगोरिया का उल्लास जस का तस बना हुआ है। भगोरिया प्राचीन समय में होनेवाले स्वयंवर का ही जनजातीय स्वरूप है। इन हाट बाजारों मे युवक युवती बेहद सजधज कर जीवन साथी ढूँढते है ये दृश्य बहुत ही मनमोहक होते हैं। फिर देवता की पूजा अर्चना के साथ शुरू होता है उत्सव पूजा के बाद बुजुर्ग पेड़ के नीचे बैठकर विश्राम करते हैं और युवाओं की निगाहें भीड़ में मनपसंद जीवन साथी तलाशती हैं। फिर शुरू होता है प्रेम के इजहार का सिलसिला। लाल गुलाबी, हरे पीले फेटे, कानों में चांदी की लड़ें, कलाइयों और कमर में कंदोरे, आँखों पर काला चश्मा और पैरों में चांदी के मोटे कड़े पहने नौजवानों की टोलियॉ हाट की रंगीनी बढाती है। वहीं सुर्ख लाल, नांरगी, नीले, जामुनी, बैंगनी, काले कत्थई आदि चटख शोख रंग मे भिलोंडी लहॅगें और औढनी पहने, सिर से पाँव तक चांदी के गहनों से सजी अल्हड़ बालाओं की शोखियाँ भगोरिया की मस्ती को सुरूर में तब्दील करने के लिए काफी हैं। अब इन पारंपारिक वेशभूषा में हेडफोन व मोबाइल भी विशेष रूप से युवक युवतियों की पसंद बनते जा रहे हैं जिनका प्रयोग ये बात करने में कम एफएम रेडियो ओर गाने सुनने में ज्यादा करते हैं। प्रसिद्व रिबोक व एक्शन जैसी अन्य नामी कम्पनियों की तरह बनने वाले स्पोटर्स शू का फैशन भी बढा है।

हालाँकि भगोरिया हाटों में अब परंपरा की जगह आधुनिकता हावी होती नजर आती है। ताड़ी की जगह शराब का सुरूर सिर चढ कर बोलता है। छाछ नींबू व रंगीन शरबत की जगह प्रसिद्व कंपनियों के पेय ने ले ली है। लेकिन रंगीन शरबत आज भी पहली पसंद बना हुआ है। ऐसा कहने में अतिश्योक्ति नहीं कि भगोरिया के आदर्शो, गरिमाओं और भव्यता के आगे योरप और अमेरिका के प्रेम पर्वो की संस्कृतियों को भी फीका करने का माद्दा है, क्योंकि ये अपनी पवित्रता, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर से आज भी ओतप्रोत है।


दो दशक पूर्व तक प्रणय निवेदन तथा स्वीकृति के बीच दोनों पक्षों मे खून-खराबा होना बहुत सामान्य बात थी। लेकिन अब प्रशासन की चुस्त व्यवस्था से पिछले वर्षो में कोई अप्रिय घटना नहीं हुई है। मेलों में अब सशस्त्र बल व घुड़सवार पुलिस की तैनाती से अब मामले हिंसक नहीं होते।
     

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

flood of corrupting in the name of river purification

देश की नदियों में पानी नहीं, पैसा बहता है

हिंदुस्तान २७ फरवरी १५ 
दिल्ली में यमुना नदी को लंदन की टेम्स नदी-सा बनाने की चर्चा कई दशक से चली आ रही है। अब सुनने में आया है कि लखनऊ  में शामे अवध की शान गोमती नदी को टेम्स नदी की तरह संवारा जाएगा। शहर में इसके आठ किलोमीटर के बहाव मार्ग को घाघरा और शारदा नहर से जोड़कर नदी को सदानीरा बनाया जाएगा। साथ ही, इसके सभी घाटों व तटों को चमकाया जाएगा। इस पर खर्च आएगा 600 करोड़ रुपये। पहले भी गोमती को पावन बनाने पर कोई 300 करोड़ रुपये खर्च हुए थे,  लेकिन इसकी निचली लहर में बॉयोऑक्सीजन डिमांड, यानी बीओडी की मात्रा तयशुदा मानक से बहुत नीचे जा चुकी है। यह हाल देश की लगभग सभी नदियों का है। पैसे को पानी की तरह बहाया जाता है, फिर भी नदियों का पानी ठीक तरह से नहीं बह पाता। एक अनुमान है कि आजादी के बाद से अभी तक गंगा की सफाई के नाम पर कोई 20 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। इसके लिए विश्व बैंक से कर्ज भी लिया गया, लेकिन न गंगा साफ हुई और न ही इसका प्रदूषण ही रुका। सरकारी रिकॉर्ड से मिलने वाली जानकारी तो दर्शाती है कि नदियों में पानी नहीं नोट बहते हैं, वह भी भ्रष्टाचार व अनियमितता की दलदल के साथ। साल 2000 से 2010 के बीच देश के 20 राज्यों को नदी संरक्षण योजना के तहत  2,607 करोड़ रुपये जारी किए गए। इस योजना में कुल 38 नदियां आती हैं। राष्ट्रीय नदी निदेशालय के अनुसार, 2001 से 2009-10 तक  दिल्ली में यमुना की सफाई पर 322 करोड़ व हरियाणा में 85 करोड़ का खर्च कागजों पर दर्ज है। उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना, गोमती की सफाई में 463 करोड़ की सफाई हो जाना, बिहार में गंगा के शुद्धीकरण के लिए 50 करोड़ का खर्च सरकारी दस्तावेज स्वीकार करते हैं। गुजरात में साबरमती के संरक्षण पर 59 करोड़, कर्नाटक में भद्रा, तुंगभद्रा, कावेरी, तुंपा नदी को साफ करने पर 107 करोड़, मध्य प्रदेश में बेतवा, तापी, बाणगंगा, नर्मदा, कृष्णा, चंबल, मंदाकिनी को स्वच्छ बनाने के मद में 57 करोड़ का खर्चा किया गया। सतलुज को प्रदूषण मुक्त करने के लिए पंद्रह करोड़ से अधिक रुपये खर्च किए गए, जबकि तमिलनाडु में कावेरी, अडियार, बैगी, वेन्नार नदियों की सफाई का बिल 15 करोड़ का रहा। उत्तराखंड में गंगा को पावन रखने के मद में 47 करोड़ रुपये खर्च हुए। ऐसे ढेर सारे उदाहरण हैं। नदियों की सफाई, संरक्षण तो जरूरी है, लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है कि नदियों के नैसर्गिक मार्ग व बहाव से छेड़छाड़ न हो, उसके तटों पर लगे वनों में पारंपरिक वनों का संरक्षण हो, नदियों के जल-ग्रहण क्षेत्र में आने वाले इलाकों के खेतों में रासायनिक खाद व दवा का कम से कम इस्तेमाल हो। नदी अपने मार्ग में आने वाली गंदगी को पावन बना देती है, लेकिन मिलावट भी प्रकृति-सम्मत हो, तब तक ही। - See more at: http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/article1-Pankaj-Chaturvedi-senior-journalist-Delhi-Yamuna-River-London-Thames-57-62-472521.html#sthash.gu5sTJTg.dpuf

सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

Land matter is life of farmer and country

Raj express Bhopal 24-2-15
ंतो क्या हमारे पास जमीन की कमी है ?
पंकज चतुर्वेदी
कई सालों तक बहस-विमर्ष हुए फिर सितंबर -2013 में कोई 120 साल पुराने भुमि अधिग्रहण कानून-1894 को समाप्त कर  अधिग्रहण, पुनर्वास पर नया अधिनियम आया जिस पर 27 सितंबर 2013 को राश्ट्रपति ने हस्माक्षर कर देषभर में लागू भी कर दिया। कुछ ही महीने बीते कि जनता ने सरकार बदल दी और नई सरकार ने  अध्यादेष ला कर  उस अध्यादेष में भी बदलाव कर दिए। आज हजरों किसान पलवल से दिल्ली को कूच कर गए हैं। इसकी सबसे बडी विडंबना है कि नए अध्यादेष के बाद बहुफसलीय खेतों के अधिग्रहण का रासता भी साफ हो गया । याद करें पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने भी किसानों की जमीन के अधिग्रहण के मामले में कुछ तल्ख टिप्पणी की थी। देष के हर छोटे-बड़े षहरों में जहां आज अपार्टमेट बनाने का काम चल रहा है, वहां एक साल पहले तक खेती होती थी। गांव वालों से औद्योगिकीकरण के नाम पर औने-पौने दाम पर जमीन छीन ली गई और उसे हजार गुणा  दर पर बिल्डिरों को दे दिया गया। गंगा और जमुना के दोआब का इलाका सदियों से देष की खेती की रीढ़ रहा है। यहां की जमीन सोना उगलती है। विकास के नाम पर सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की कहानी दुहराई जाने लगी - खेत को उजाड़ कर कंक्रीट के जंगल रोप दिए। मुआवजा बांट दिया और हजारों बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दी गई। इससे पहले सिंगूर, नंदीग्राम, पास्को, जैतापुर, भट्टा, पारसौल--- लंबी सूची है, विकास के नाम पर सरकार ने जमीन ली-उपजाऊ जमीन जहां अन्न उगता था। देश में स्पेशल इकानोमिक जोन बनाए जा रहे है, सड़क, पुल, कालोनी- सभी के लिए जंमीन चाहिए और वह भी ऐसी जिस पर किसान का  हल चलता हो। एकबारगी लगता है कि क्या हमारे देष में अब जमीन की कमी हो गई है, जो आधुनिकीकरण की योजनाओं के लिए देष की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार रहे खेत को उजाड़ने पर मजबूर होना पड़ रहा है ?
इस तकलीफ को लोग लगातार नजर अंदाज कर रहे हैं या फिर लापरवाह हैं कि जमीन को बरबाद करने में इंसान कहीं कोई कसर नही छोड़ रहा है। जबकि जमीन को सहेजने का काम कर रहे किसान के खेत पर सभी की नजर लगी हुई है। विकास के लिए सड़कें, हवाई अड्डे बन रहे हैं, महानगरों की बढ़ती संख्या और उसमें रहने वालों की जरूरतों से अधिक निवेश के नाम पर बनाई जा रही बहुमंजिली इमारतों का ठिकाना भी उर्वर जमीन ही है । हजारों  घटनाएं गवाह हैं कि कारखानों के लिए जमीन जुटाने की फिराक में खेतों को ही उजाड़ा जाता है तो लोगों का गुस्सा भड़कता है।  यदि नक्शे और आंकड़ों को सामने रखें तो तस्वीर तो कुछ और ही कहती है । देश में लाखेंा -लाख हेक्टर ऐसी जमीन है जिसे विकास का इंतजार है । अब पका पकाया खाने का लालच तो सभी को होता है, सो बेकार पड़ी जमीन को लायक बनाने की मेहनत से बचते हुए लायक जमीन को बेकार बनाना ज्यादा सरल व फायदेमंद लगता है । विदित हो देश में कुछ 32 करोड़ 90 लाख हेक्टर भूमि में से 12 करोड़ 95 लाख 70 हजार बंजर है ।
भारत में बंजर भूमि के ठीक-ठीक आकलन के लिए अभी तक कोई विस्तृत सर्वेक्षण तो हुआ नहीं है, फिर भी केंदªीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का फौरी अनुमान है कि देश में सर्वाधिक बंजर जमीन मध्यप्रदेश में है, जो दो करोड़ एक लाख 42 हेक्टर है । उसके बाद राजस्थान का नंबर आता है जहां एक करोड़ 99 लाख 34 हेक्टर, फिर महाराष्ट्र जहां एक करोड़ 44 लाख एक हजार हेक्टर बंजर जमीन है । आंध्रप्रदेश में एक करोड़ 14 लाख 16 हजार हेक्टर, कर्नाटक में 91 लाख 65 हजार, उत्तरप्रदेश में 80 लाख 61 हजार, गुजरात में 98 लाख 36 हजार, उड़ीसा में 63 लाख 84 हजार तथा बिहार में 54 लाख 58 हजार हेक्टेयर जमीन, अपने जमीन होने की विशिष्टता खो चुकी है । पश्चिम बंगाल में 25 लाख 36 हजार, हरियाणा में 24 लाख 78 हजार, असम में 17 लाख 30 हजार, हिमाचल प्रदेश में 19 लाख 78 हजार, जम्मू-कश्मीर में 15 लाख 65 हजार, केरल में 12 लाख 79 हजार हेक्टर जमीन, धरती पर भार बनी हुई है । पंजाब सरीखे कृषि प्रधान राज्य में 12 लाख 30 हजार हेक्टर, उत्तर-पूर्व के मणिपुर, मेघालय और नागालेंड में क्रमशः 14 लाख 38 हजार, 19 लाख 18 हजार और 13 लाख 86 हजार हेक्टर भूमि बंजर है । सर्वाधिक बंजर भूमि वाले मध्यप्रदेश में भूमि के नष्ट होने की रफ्तार भी सर्वाधिक है । यहां गत दो दशकों में बीहड़ बंजर दो गुने हो कर 13 हजार हेक्टर हो गए हैं ।
धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है तब बरसात का पानी सीधा नंगी धरती पर पड़ता है और वहां की मिट्टी बहने लगती है । जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां भी जगह मिलती है, मिट्टी काटते हुए वह बहता है । इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं और जो आगे चल कर गहरे होते हुए बीहड़ का रूप ले लेती है । एक बार बीहड़ बन जाए तो हर बारिश में वो और गहरा होता चला जाता है । इस तरह के भूक्षरण से हर साल लगभग चार लाख हेक्टर जमीन उजड़ रही है । इसका सर्वाधिक प्रभावित इलाका चंबल, यमुना, साबरमती, माही और उनकी सहायक नदियों के किनारे के उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान और गुजरात है । बीहड़ रोकने का काम जिस गति से चल रहा है उसके अनुसार बंजर खतम होने में 200 वर्ष लगेंगे, तब तक ये बीहड़ ढ़ाई गुना अधिक हो चुके होंगे ।
बीहड़ों के बाद, धरती के लिए सर्वाधिक जानलेवा, खनन-उद्योग रहा है । पिछले तीस वर्षों में खनिज-उत्पादन 50 गुना बढ़ा लेकिन यह लाखों हेक्टर जंगल और खेतों को वीरान बना गया है । नई खदान मिलने पर पहले वहां के जंगल साफ होते हैं । फिर खदान में कार्यरत श्रमिकों की दैनिक जलावन की जरूरत पूर्ति हेतु आस-पास की हरियाली होम होती है । तदुपरांत खुदाई की प्रक्रिया में जमीन पर गहरी-गहरी खदानें बनाई जाती है, जिनमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता है । वहीं खदानों से निकली धूल-रेत और अयस्क मिश्रण दूर-दूर तक की जमीन की उर्वरा शक्ति हजम कर जाते हैं । खदानों के गैर नियोजित अंधाधुंध उपायोग के कारण जमीन के क्षारीय होने की समस्या भी बढ़ी है । ऐसी जमीन पर कुछ भी उगाना नामुमकिन ही होता है । हरितक्रांति के नाम पर जिन रासायनिक खादों व्दारा अधिक अनाज पैदा करने का नारा दिया जाता है, वे भी जमीन की कोख उजाड़ने की जिम्मेदार रही हैं । रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनी-तिगुनी पैदावार मिली, फिर उसके बाद भूमि बंजर हो रही है । यही नहीं जल समस्या के निराकरण के नाम पर मनमाने ढंग से रोपे जा रहे नलकूपों के कारण भी जमीन कटने-फटने की शिकायतें सामने आई हैं । सार्वजनिक चरागाहों के सिमटने के बाद रहे बचे घास के मैदानों में बेतरतीब चराई के कारण भी जमीन के बड़े हिस्से के बंजर होने की घटनाएं मध्य भारत में सामने आई हैं । सिंचाई के लिए बनाई गई कई नहरों और बांधों के आस-पास जल रिसने से भी दल-दल बन रहे हैं ।़
जमीन को नष्ट करने में समाज का लगभग हर वर्ग और तबका लगा हुआ है, वहीं इसके सुधार का जिम्मा मात्र सरकारी कंधों पर है । 1985 स्थापित राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम के 16 वें सूत्र के तहत बंजर भूमि पर वनीकरण और वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया था । आंकड़ों मुताबिक इस योजना के तहत एक करोड़ 17 लाख 15 हजार हेक्टर भूमि को हरा-भरा किया गया । लेकिन इन आंकड़ों का खोखलापन सेटेलाईट व्दारा खींचे गए चित्रों से उजागर हो चुका है । कुछ सालों पहले बंजर भूमि विकास विभाग द्वारा बंजर भूमि विकास कार्य बल के गठन का भी प्रस्ताव था । कहा गया कि रेगिस्तानी, पर्वतीय, घाटियों, खानों आदि दुर्गम भूमि की गैर वनीय बंजर भूमि को स्थाई उपयोग के लायक बनाने के लिए यह कार्य-बल काम करेगा । लेकिन यह सब कागजों पर बंजर से अधिक साकार नहीं हो पाया ।
प्राकृतिक और मानव-जनित कारणों की संयुक्त लापरवाही के चलते आज खेती, पशुपालन, गोचर, जंगल सभी पर खतरा है । पेयजल संकट गहरा रहा है । ऐसे में केंदª व राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कब्जे में पड़ी ढेर सारी अनुत्पादक भूमि के विकास के लिए कोई कार्यवाही नहीं किया जाना एक विडंबना ही है । आज सरकार बड़े औद्योगिक घरानों को तो बंजर भूमि सुधार के लिए आमंत्रित कर रही है, लेकिन इस कार्य में निजी छोटे काश्तकारों की भागीदारी के प्रति उदासीन है । विदित हो हमारे देश में कोई तीन करोड़ 70 लाख हेक्टर बंजर भूमि ऐसी है, जो कृषि योग्य समतल है । अनुमान है कि प्रति हेक्टर 2500 रूपये खर्च कर इस जमीन पर सोना उगाया जा सकता है । यानि यदि 9250 करोड़ रूपये खर्च किए जाएं तो यह जमीन खेती लायक की जा सकती है, जो हमारे देश की कुल कृषि भूमि का 26 प्रतिशत है ।  सरकारी खर्चाें में बढ़ोत्तरी के मद्देनजर जाहिर है कि इतनी राशि सरकारी तौर पर एकमुश्त मुहैया हो पाना नामुमकिन है । ऐसे में भूमिहीनों को इसका मालिकाना हक दे कर उस जमीन को कृषि योग्य बनाना, देश के लिए क्रांतिकारी कदम होगा । इससे कृषि उत्पाद बढ़ेगा, लोगों को रोजगार मिलेगा और पर्यावरण रक्षा भी होगी । यदि यह भी नहीं कर सकते तो खुले बाजार के स्पेशल इकानामी जोन बनाने के लिए यदि ऐसी ही अनुपयोगी, अनुपजाऊ जमीनों को लिया जाए ।  इसके बहुआयामी लाभ होंगे - जमीन का क्षरण रुकेगा, हरी-भरी जमीन पर मंडरा रहे संकट के बादल छंटेंगे । चूंकि जहां बेकार बंजर भूमि अधिक है वहां गरीबी, बेरोजगारी भी है, नए कारखाने वगैरह लगने से उन इलाकों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी । बस करना यह होगा कि जो पैसा जमीन का मुआवजा बांटने में खर्च करने की योजना है, उसे समतलीकरण, जल संसाधन जुटाने, सड़क-बिजली मुहैया करवाने जैसे कामों में खर्च करना होगा ।

पंकज चतुर्वेदी
यूजी-1 , 3/186 राजेन्द्र नगर सेक्ट2-2 साहिबाबाद, गाजियाबाद 201005
फोन: 0120-4241060, 9891928376



Hills are part of envioranment

डेली न्‍यूज, जयपुर 24.2.15
खोदते-खोदते खो रहे हैं पहाड़
पंकज चतुर्वेदी

पहाड़ की नाराजी समय-समय पर सामने आ रही है, कभी हिमाचल में तो कभी कष्मीर में। बीते साल 30जुलाई को पुणे जिले के अंबेगांव तहसील के मालिण गांव में यदि बस का ड्रायवर नहीं पहुंचता तो पता ही नहीं चलता कि कभी वहां बस्ती भी हुआ करती थी।  गांव एक पहाड के नीचे था और बारिष में ऊपर से जो मलवा गिरा कि पूरा गांव ही गुम गया। अब धीरे धीरेे यह बात सामने आ रही है कि पहाड़ खिसकने के पीछे असल कारण उस बेजान खडी संरचना के प्रति बेपरवाही ही था। पहाड़ के नाराज होने पर होने वाली त्रासदी का सबसे खौफनाक मंजर अभी एक साल पहले ही उत्तराख्ंाड में केदारनाथ यात्रा के मार्ग पर देखा गया था। देष में पर्यावरण संरक्षण के लिए जंगल, पानी बचाने की तो कई मुहीम चल रही है, लेकिन मानव जीवन के विकास की कहानी के आधार रहे पहाड़-पठारों के नैसर्गिक स्वरूप को उजाड़ने पर कम ही विमर्ष है। समाज और सरकार के लिए पहाड़ अब जमीन या धनार्जन का माध्यम रह गए हैं और पहाड़ निराष-हताष से अपनी अंतिम सांस तक समाज को सहेजने के लिए संघर्श कर रहे हैं।
हजारों-हजार साल में गांव-षहर बसने का मूल आधार वहां पानी की उपलब्धता होता था। पहले नदियों के किनारे सभ्यता आई, फिर ताला-तलैयों  के तट पर बस्तियां बसने लगीं। जरा गौर से किसी भी आंचलिक गांव को देखंे, जहां नदी का तट नहीं है- कुछ पहाड़, पहाड़े के निचले हिस्से में झील व उसके घेर कर बसी बस्तियों का ही भूगोल दिखेगा। बीते कुछ सालों से अपनी प्यास के लिए बदनामी झेल रहे बुंदेलखंड में सदियों से अल्प वर्शा का रिकार्ड रहा है, लेकिन वहां कभी पलायन नहीं हुआ, क्योंकि वहां के समाज ने पहाड़ के किनारे बारिष की हर बूंद को सहेजने तथा पहाड़ पर नमी को बचा कर रखने की तकनीक सीख लीथी। छतरपुर षहर बानगी है- अभी सौ साल पहले तक षहर के चारों सिरों पर पहाड़ थे, हरे-भरे पहाड़, खूब घने जंगल वाले पहाड़ जिन पर जड़ी बुटियां थी, पंक्षी थे, जानवर थे। जब कभी पानी बरसता तो पानी को अपने में समेटने का काम वहां की हरिाली करती, फिर बचा पानी नीचे तालाबों में जुट जाता। भरी गरमी में भी वहां की षाम ठंडी होती और कम बारिष होने पर भी तालाब लबालब। बीते चार दषकों में तालाबों की जो दुर्गति हुई सो हुई, पहाड़ों पर हरियाली उजाड़ कर झोपड़-झुग्गी उगा दी गईं। नंगे पहाड़ पर पानी गिरता है तो सारी पहाडी काट देता है, अब वहां पक्की सडक डाली जा रही हैं। इधर हनुमान टौरिया जैसे पहाड़ को नीचे से काट-काट कर  दफ्तर, कालोनी सब कुछ बना दिए गए हैं। वहां जो जितना रूतबेदार है, उसने उतना ही हाड़ काट लिया।  वह दिन कभी भी आ सकता है कि वहां का कोई पहाड़ नीचे धंस गया और एक और मालिण बन गया।
खनिज के लिए, सड़क व पुल की जमीन के लिए या फिर निर्माण सामग्री के लिए, बस्ती के लिए, विस्तार के लिए , जब जमीन बची नहीं तो लोगों ने पहाड़ों को सबसे सस्ता, सुलभ व सहज जरिया मान लिया। उस पर किसी की दावेदारी भी नहीं थी।  अब गुजरात से देष की राजधानी को जोड़ने वाली 692 किलोमीटर लंबी अरावली पर्वतमाला को ही लें, अदालतें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि पहाड़ों से छेड़छाड़ मत करो, लेकिन बिल्डर लाॅबी सब पर भारी है। कभी सदानीरा कहलाने वो इस इलाके में पानी का संकट जानलेवा स्तर पर खड़ा हो गया है। सतपुडा, मेकल, पष्चिमी घाट, हिमालय, कोई भी पर्वतमालाएं लें, खनन ने पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। रेल मार्ग या हाई वे बनाने के लिए पहाड़ों को मनमाने तरीके से बारूद से उड़ाने वाले इंजीनियर इस तथ्य को षातिरता से नजरअंदाज कर देते हैं कि पहाड़ स्थानीय पर्यावास, समाज, अर्थ व्यवस्था, आस्था, विष्वास का प्रतीक होते हैं। पारंपरिक समाज भले ही इतनी तकनीक ना जानता हो, लेकिन इंजीनियर तो जानते हैं कि धरती के दो भाग जब एक-दूसरे की तरफ बढ़ते हैं या सिकुडते हैं तो उनके बीच का हिस्सा संकुचित हो कर ऊपर की ओर उठ कर पहाड़ की षक्ल लेता है। जाहिर है कि इस तरह की संरचना से छोड़छाड़ के भूगर्भीय दुश्परिणाम  उस इलाके के कई-कई किलोमीटर दूर तक हो सकते हैं। पुणे जिले के मालिण गांव से कुछ ही दूरी पर एक बांध है, उसको बनाने में वहां की पहाडि़यों पर खूब बारूद उड़ाया गया था। यह जांच का विशय है कि इलाके के पहाड़ों पर हुई तोड़-फोड़ का इस भूस्खलन से कहीं कुछ लेना-देना है या नहीं। किसी पहाड़ी की तोड़फोड़ से इलाके के भूजल स्तर पर असर पड़ने, कुछ झीलों का पानी पाताल में चले जाने की घटनाएं तो होती ही रहती हैं।
आज हिमालय के पर्यावरण, ग्लेषियर्स के गलने आदि पर तो सरकार सक्रिय हो गई है, लेकिन देष में हर साल बढ़ते बाढ़ व सुखाड़ के क्षेत्रफल वाले इलाकों में पहाड़ों से छेड़छाड़ पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती। पहाड़ नदियों के उदगम स्थल हैं। पहाड़ नदियों का मार्ग हैं, पहाड़ पर हरियाली ना होने से वहां की मिट्टी तेजी से कटती है और नीचे आ कर नदी-तालाब में गाद के तौर पर जमा हो कर उसे उथला बना देती है। पहाड़ पर हरियाली बादलों को बरसने का न्यौता होती है, पहाड़ अपने करीब की बस्ती के तापमान को नियंत्रित करते हैं, इलाके के मवेषियेां का चरागाह होते हैं। ये पहाड़ गांव-कस्बे की पहचान हुआ करते थे। और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है इन मौन खड़े छोटे-बड़े पहाड़ों के लिए, लेकिन अब आपको भी कुछ कहना होगा इनके प्राकृतिक स्वरूप को अक्षुण्ण रखने के लिए।

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

My New Books during 23 New Delhi world Book fair





नई दिल्‍ली विश्‍व पुस्‍तक मेला का 23वां संस्‍करण का समापन हो गया, बहुत सी नई पुस्‍तकें देखीं, मेरी भी तीन पुसतकें इस अवधि में आईं दो अनुवाद तथा एक मूल हिंदी में , सबसे पहले मूल पुस्‍तक का जिक्र, यह मेरी आठ बाल कहानियों का संकलन है '' बेलगाम घोडा व अन्‍य कहानियां'' इस तरह के संकलन की यह मेरी पहली पुस्‍तक हैं, इसे शरारे प्रकाशन, नई दिल्‍ली ने छापा है, यदि वक्‍त मिले तो खरीद कर पढें, कीमत 100 रूपए है ,शरारे प्रकाशन, बी बी/6 बी, जनकपुरी नई दिल्‍ली 110058 sharareprakashan@gmail.com पर इसे पा सकते हैं
शिल्‍पायन प्रकाशन ने ज्‍यूल्‍स गेब्रियल वर्न के मशहूर विज्ञान कथानक 20000 league under the sea का मेरे द्वारा किया गया अनुवाद तथा भारतीय पाठकाें के अनुरूप रूपांतरित भी किया है, इसका नाम है ''सागर की गहराईयों में'' इसे पढकर आपको कहीं नहीं लगेगा कि यह कोई अनुवाद है, इसमें रेखा चित्र भी हैं हार्ड बाउंड पुस्‍तक की कीमत है रूञ 150 / इसे शिल्‍पायन फोन 9899486788 पर पा सकते हैं
आैर तीसरी पुस्‍तक हे सिंगापुर के दो बार राष्‍टपति रहे एस आर नाथन के जीवन की 50 कहानियों के अनुवाद की जिसे नेशनल बुक ट्रस्‍ट ने ही छापा है इसका उल्‍लेख पहले कर चुका हूं

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

thrusty tikamgarh with Thousands Water body

jansatta ravivari 22-2-15
हजार तालाब की धरती से पानी के लिए पलायन
                              पंकज चतुर्वेदी

बुंदेलखंड की पारंपरिक संस्कृति का अभिन्न अंग रहे हैं ‘तालाब’ । आम बुंदेली गांव की बसावट एक पहाड़, उससे सटे तालाब के इर्द-गिर्द हुआ करती थी । यहां के टीकमगढ़ जिले के तालाब नौंवी से 12वी सदी के बीच वहां के शासक रहे चंदेल राजाओं की तकनीकी सूझबूझ के अद्वितीय उदाहरण है । कालांतर में टीकमगढ़ जिले में 1100 से अधिक चंदेलकालीन तालाब हुआ करते थे । कुछ को समय की गर्त लील गई और कुछ आधुनिकीकरण की आंधी में ओझल हो गए । आज सरकारी रिकार्ड में यहां 995 ताल दर्ज थे । परंतु हकीकत में इनकी संख्या 400 के आसपास सिमट गई है । सरकारी रिकार्ड के मुताबिक 995 में से नौ वन विभाग, 88 सिंचाई, 211 पंचायतों, 36 राजस्व विभाग, 55 आम निस्तारी और 26 निजी काश्तकारों के कब्जे में है । इन 421 तालाबों के अतिरिक्त बकाया बचे 564 तालाब लावारिस हालत में तकरीबन चैरस मैदान बन गए हंै । 1907 के ओरछा स्टेट के गजट से जानकारी मिलती है कि उन दिनों जिले की कुल कृषि जोत 5.366 लाख एकड़ में से 1,48,500 एकड़ भूमि इन तालाबों से सींची जाती थी । 1947 में यह रकवा घटकर मात्र 19,299 एकड़ रह गया । ताजा आंकडे बताते हैं कि टीकमगढ़ जिले के 3,31,586 हेक्टर में खेती होती है । उसमें सिर्फ 811527 हेक्टर सिंचित है । जबकि तालाबों से महज 10.82 हजार हेक्टर ही सींचा जा रहा है । साफ जाहिर है कि साल दर साल यहां के तालाब और उनसे सिंचाई की परंपरा खत्म होती जा रही है ।
इस क्षेत्र की तीन चैथाई आबादी के जीविकोपार्जनका जरिया खेती-किसानी है । पानी और साधन होने के बावजूद उनके खेत सूखे रहते हैं । हर साल हजारों लोग रोजगार और पानी की तलाश में दिल्ली, पंजाब की तरफ पलायन करते हैं । दूसरी और तालाबों के क्षरण की बेलगाम रफ्तार बंुदेलखंड की यह बेशकीमती पारंपरिक धरोहर का अस्तित्व मिटाने पर तुली है ।
बुंदेलखंड में जलप्रबंध की कुछ कौतुहलपूर्ण बानगी टीकमगढ़ जिले के तालाबों से उजाकर होती है । एक हजार वर्ष पूर्व ना तो आज के समान मशीनें-उपकरण थे और ना ही भूगर्भ जलवायु, इंजीनियरिंग आदि के बड़े-बडे़ इंस्टीट्यूट । फिर भी एक हजार से अधिक गढे़ गए तालाबों में से हर एक को बनाने में यह ध्यान रखा गया कि पानी की एक-एक बूंद इसमें समा सके । इनमें कैचमेंट एरिया (जलग्रहण क्षेत्र) और कमांड (सिंचन क्षेत्र) का वो बेहतरीन अनुपात निर्धारित था कि आज के इंजीनियर भी उसे समझ नहीं पा रहे हैं । पठारी इलाके का गणित बूझ कर तब के तालाब शिल्पियों ने उसमें आपसी ‘फीडर चेनल’ की भी व्यवस्था कर रखी थी । यानि थोड़ा सा भी पानी तालाबों से बाहर आ कर नदियों में व्यर्थ जाने की संभावना नही रहती थी । इन तालाबों की विशेषता थी कि सामान्य बारिश का आधा भी पानी बरसे तो ये तालाब भर जाएंगे । इन तालाबों को बांधने के लिए बगैर सीमेंट या चूना लगाए, बड़े-बड़े पत्थरों को सीढ़ी की डिजाइन में एक के ऊपर एक जमाया था ।
यदि आजादी के बाद विभिन्न सिंचाई योजनाओं पर खर्च बजट व उससे हुई सिंचाई और हजार साल पुराने तालाबों को क्षमता की तुलना करें तो आधुनिक इंजीनियरिंेग पर लानत ही जाएगी । अंगे्रज शासक चकित थे, यहां के तालाबों की उत्तम व्यवस्था देख कर । उन दिनों कुंओं के अलावा सिर्फ तालाब ही पेयजल और सिंचाई के साधन हुआ करते थे । 1944 में गठित ‘फेमिन इनक्वायरी कमीशन’ ने साफ निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे । कमीशन की रिर्पाट तो लाल बस्ते में कहीं दब गई । आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करना तो दूर, उनकी दुर्दशा करना शुरू कर दिया । आईए, टीकमगढ़ जिले के तालाबों के प्रति बरती जा रही कोताही पर सरसरी नजर डालें ।
टीकमगढ़ जिले में 49 तालाब 100 एकड़ से अधिक साइज के हैं । इनमें से 16 से लगभग ना के बराबर सिंचाई होती है । इंजीनियर बताते है कि मामूली मरम्मत के बाद इन तालाबों से 9777 हेक्टर खेतों को सींचा जा सकता है । जबकि आज मात्र 462 हेक्टर सिंचाई ही हो पाती है । जिले के नौ तालाब राजशाही काल से ही जंगल महकमे के अधीन हैं । जिनसे विकासखंड की आलपुरा पंचायत में आलपुरा ताल, मांचीगांव में माचीगढ़ तालाब, रायपुर गांव का तालाब ओर महेबा गांव का रानीताल, पलेरा विकासखंड में पलेरा कस्बे का सुरेन तालाब और झिझारिया ताल, रामनगर गांव का चरोताल बड़ागांव ब्लाक के नारायणपुर में सुकौरा ताल भी वन विभाग के कब्जे में है । इन सभी तालाबों तक अच्छा खासा पहुंज मार्ग भी है । वन विभाग के तालाबों की मरम्मत पर ढाई से तीन लाख रू. प्रति तालाब खर्च होने के बाद हजारों लोगों के लाभान्वित होने की बात, सिंचाई विभाग के अफसर स्वीकारते हैं ।
जिले के दस तालाबों पर कृषि विभाग का हक है । लेकिन इनसे भी कोई सिंचाइ्र ही नहीं होती है । पलेरा ब्लाक के गांव टपरियन में चोर रांगना ताल, निवारी गांव के दो तालाब इनमें से है । बलदेवगढ़ विकासखंड में पटौरी, बालमऊ और जुहर्रा गांव के तालाब भी बेकार पडे़ सिकुड़ते जा रहे हैं । जतारा ब्लाक में बाजीतपुरा गांव का तालाब और गौरगांव में गांव अबेरा का जटेरा ताल, निवाड़ी ब्लाक में लथेसरा का विशाल तालाब पक्की सड़कों के किनारे होने के बावजूद अनुपयोगी पड़े हुए हैं । जनपद पंचायतों के अधीन तालाबों से भी मौजूद क्षमता की एक चैथाई भी सिंचाई नहीं होती है । टीकमगढ़ जनपद के माड़वार गांव के गिरोरा ताल से 45 एकड़, महाराजपुरा तालाब से 40 एकड़, मजना ताल से 30 एकड़, बम्हेरीनकीबन ताल से 20 एकड़ और पुरनैया (रामनगर) तालाब से सिर्फ 20 एकड़ खेत ही सींचे जाते हैं । बलदेवगढ़ जनपद के अधिकार में 14 तालाब हैं । जिनमें तुहर्रा ताल से 50 एकड़ वेसा ताल से 35 एकड़, सुजानपुरा से 75 एकड़ जटेरा ताल से 70 एकड़, तालमऊ से 60 एकड,़ गुखरई से 60 एकड,़ बृषभानपुर से 70 एकड़, हटा ताल से 50 एकड़ सूरजपुर से 30 एकड़, हीरापुरा से 65 एकड़ बवर तालाब 40 एकड़ रामसगरा से 45 एकड़, गैसी ताल धरंगवां 35 एकड़ और गुना तालाब से 55 एकड़ खेतों कोे पानी मिलता है ।
जनपद पंचायत जतारा के पास 33 तालाब हैं, लेकिन इनमें से मात्र पांच से कोई डेढ़ सौ एकड़ में सिंचाई होती है । ये हैं जतारा का मीठा तालाब, गौरताल, बनगांय का टौरिया तालाब, जस्बा का रघुनाथ तालाब और भरगुवां तालाब । शेष 28 तालाब गाद भरे गड्ढों के रूप में वातावरण को दूषित कर रहे हैं । इनका कुल क्षेत्रफल 200 एकड़ से अधिक है । निवाड़ी जनपद के अधीन सभी 14 तालाबों से थोड़ी सी ही सिंचाई होती है । ये हंै लड़वारी 20 एकड़, कुलुवा 10 एकड़, नीमखेरा 20 एकड,़ अस्तारी एकड़ कुठार पुरैलिया लड़वारी 20 एकड़ सादिकपुरा 10 एकड़ सकूली के दो तालाब 20 एकड़ धुधनी 10 एकड़ लाडपुर 15 एकड़, पठारी का लेठसरा और पठारी ताल 10 एकड़ व 20 एकड़ महाराजपुरा 20 एकड़ और जनौली तालाब 10 एकड़ । इस विकासखंड के उमरी गांव के पास स्थित उमरी जलाशय के बांध का ऊपरी हिस्सा क्षतिग्रस्त है । बांध में रिसन भी है । फुटैरा के विशाल तालाब का भराव क्षेत्र वन विभाग के अधीन है । गिदरानी गांव के तालाब का जलग्रहण क्षेत्र कोई पौन वर्ग मील है । इसका बांध टूटा है । इसके भराव क्षेत्र में लोग खेती करने लगे हैं । निवाड़ी-सेंदरी मार्ग पर तरीचर कला के तालाब का कैचमेंट एरिया एक वर्ग किलोमीटर अधिक हैै । पर वो पूरी तरह बेकार पड़ा है ।
जतारा ब्लाक के बरमा ताल से 10 साल पहले तक 15-20 एकड़ सिंचाई हो जाती थी । यदि इसमें मात्र 70 हजार रू. खर्च किया जाऐ तो 50 हेक्टर खेतों को आराम से पानी मिल सकता था । गा्रम पड़वार के पास जंगल में स्थित बमरा तालाब की नहर टूट चुकी है । यह गांव गौर के तहत है । अनुमान है कि मात्र 50 हजार रू. खर्च कर इससे 40 हेक्टर पर खेती की सिंचाई हो सकती है । मोहनगढ़-दिगौड़ा रोड पर बनगांय तालाब से भारी रिसन हो रही है । यहां जमीन धंसने की आंशका भी है ।
पृथवीपुर जनपद पंचायत का 18 तालाबों पर अधिकार है, जिनका मौजूदा सिंचाई रकबा शून्य है । इनमें से पाराखेरा गांव में चमरा ताल, मने बतलैया और छुरिया ताल, ककावनी का तालाब, मंडला गांव के अमछरूमाता व पुरैनिया तालाब काफी बड़े-बडे़ हैं । यहां के सकेरा गांव में दो विशाल ताल हैं जिनका जलग्रहण क्षेत्र एक वर्ग किलोमीटर है । इनके बांध और सलूस(स्थानीय भाषा में इसे ‘औना’ कहते हैं) पूरी तरह टूट गए हैं । अतः यहां पानी भर नही पाता है । बरूआ सागर रेलवे स्टेशन से पांच किलोमीटर दूर स्थित दुलावनी ग्राम का कंधारी तालाब भी लगभग बिखर गया है । इससे 50 हेक्टर में सिचंाई हुआ करती थी । विकासखंड पलेरा के तहत 18 तालाब है । इनमें से 13 तालाबों से कुल मिलाकर 50 एकड़ से भी कम सिंचाई होती है । जबकि कुडवाला तालाब से 130 बन्ने पुरवा के गजाधर ताल से 120 एकड़ और सुम्मेरा तालाब से 110 एकड़ खेतों को पानी मिलता है । जंगपाली गांव के मझगुवंा ताल से 120 एकड़ और महेन्द्र कहेबा के लिधौरा तालाब से 100 एकड़ सिंचाई के आंकड़े दर्ज हैं । पलेरा ब्लाक के हिरनी सागरताल का जलग्रहण क्षेत्र एक वर्ग किमी है । इस 450 मीटर लंबा और 4.30 मीटर ऊंचा बांध है । जो पूरी तरह से फूट चुका है । गा्रम मुर्राहा बाब के करीब गजाधर ताल का जलग्रहण क्षमता 8.7 वर्ग किमी है । इस पर 330 मीटर लंबा और छह मीटर ऊंचा बांध है । इसकी मरम्मत न होने से इसका लाभ लोागों को नहीं मिल पा रहा है । जतारा पलेरा रोड पर कुडयाला के पास गुरेरा तालाब की एक वर्ग किमी जलग्रहण की क्षमता है । इसका 120 मीटर लंबा व साढे़ छह मीटर ऊंचाई का बांध पूरी तरह नष्ट हो चुका है । लिधौरा ताल का जलग्रहण क्षेत्र 1.90 वर्ग मीटर है । इसकी भी दुर्गति है ।
पृथवीपुर तहसील का नदरवारा तालाब से इस इलाके के चुनावों का अहम मुद्दा बन गया है । इस तालाब से सटाकर गौरा पत्थर नामक कीमती खनिज का भंडार है । इसके अंधाधुंध खनन से तालाब का किसी भी दिन टूट जाना तय है । इस तालाब की जलग्रहण क्षमता 945.36 लाख वर्गफुट है । इससे 4495 एकड़ खेतों की सिंचाई होती है । इसके चारों ओर  केसरगंज (जनसंख्या 700) बदर खरबम्हेरी (500) खाखरोन (1600) ककावनी (4500) लुहरगवां (5000) हथेरी (4642) केशवगढ़ (5600) भगौरा (5800) गांव बसे हुए हैं । इस तालाब से सट कर हर रोज करीब 100 से 150 डायनामाइट विस्फोट होते हैं । जिससे पूरे ताल की संरचना जर्जर हो गई है । विदित हो यहां से खनिज खनन का ठेका ऐसे रुतबेदार के पास है जो हर राजनैतिक दल को चुनावों में चंदा देता है । पिछले सालों जनता के आंदोलन करने पर जिला प्रशासन ने जब वहां खनन पर रोक लगाई तो ठेकेदार हाईकोर्ट से स्टे ले आए और आज भी खनन जोरो पर है । जिस रोज यह तालाब फूटेगा उस दिन आस-पास बसे एक दर्जन गांव, हजारों एकड़ फसल का जडमूल से चैपट हो जाना तय है ।
जिले के 13 तालाब पंचायत और समाज कल्याण विभाग के आधीन है । इनमें से भिडोरा, शिवपुरा, जगतनग, मांची, बरया (तालाब) (वर्माताल) कोडिया तालाब से बिल्कुल सिंचाई नही होती है । शेष तालाबों की क्षमता कुल मिलाकर 40 एकड़ से भी कम है । एक मजेदार बात और कि जिले के गांवों में कोई देा दर्जने तालाब ऐसे भी हैं, जिनका रिकार्ड सरकरी बही में दर्ज ही नहीं हैं । हालांकि हर साल विभिन्न विभाग इन तालाबों की मरम्मत गहरीकरण और सफाई के नाम पर भारी धन खर्च करते रहे है । लेकिन तालाबों की दिनों-दिन होती जर्जर स्थिति और इलाके के बांशिदे बताते हैं कि यह धन सिर्फ कागजों पर ही व्यय होता रहा है । निवाड़ी तिगैला मुख्य राजकीय मार्ग के कृषकों ने बताया कि पंद्रह साल पहले सरकारी अफसर उन्हें घेर कर तालाब की सफाई के लिए ले गए थे । उन्हें इस काम का कोई पैसा ही नहीं दिया गया । कहा गया था कि यह सब उन्ही किसानों के लिए हो रहा है, लेकिन जब किसानों ने इस तालाब का पानी सिंचाई के लिए मांगा तो उनसे 50 रू. प्रति एकड़ से किराया वसूला गया । उधर विकासखंड कार्यालय के रिकार्ड में तालाब सफाई की मजदूरी भुगतान के बाकायदा बिल वाउचर लगे हैं ।
दो दषक पहले कन्नपुर तालाब के नवीनीकरण व वेस्टवियर निर्माण पर दो लाख 99 हजार रू. खर्च किए गये थे । निर्भयसागर तालाब के गहरीकरण पर तीन लाख खर्चा दिखाया गया है । पूरे ताल की फीडर केनाल निर्माण पर 4.79 लाख, फुटेरा तालाब के गहरीकरण पर 1.72 का खर्चा दिखाया गया । इस प्रकार 21 तालाबों की मरम्मत पर 21 लाख 27 हजार रू. फूंके गए । परंतु वहां गहरीकरण के नाम पर कुछ हुआ नही । जिन नहरों की मरम्मत की गई, वहां रिसन यथावत है ।
जिले के जल संसाधान विभाग में सालाना लाखों का खर्च सिर्फ सर्वे पर होना दर्शाया जाता है । जिले के हर शहर, कस्बे, पुरवा गांवों में छितरे इन चंदेलकालीन जीवनदायी तालाबों के संरक्षण की दिशा में बीते 90 वर्षो के दौरान कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया । लगभग 80 तालाब तो मिट्टी धूल और नजदीकी पेडो़े की पत्तियां गिरने से पुर चुके हैं । इनमें से कुछ पर खेती हेो रही है और कही-कही सीमेंट, कंकीट के जंगल उगा दिए गए है ।
जिला मुख्यालय टीकमगढ़ शहर की कभी खूबसूरती का कारण रहे, आधा दर्जन तालाबों में से तीन तो अब चैरस मैदान में तबदील हो गए हैं । इन पर अब कालोनियां बन गई हैं । शेष तीन में शहर की गंदी नालियां गिर रही हैं । और अब वे विभिन्न संक्रामक रोग फैलाने वाले कीटाणुओं की उत्पादन स्थली बन कर रह गए हंै । 10 साल पहले म. प. शासन ने पांच जून ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ पर ‘सरोवर हमारी धरोहर’ नामक योजना की घोषणा की थी । इसके तहत शहर के महेन्दª सागर तालाब का सौंदर्यीकरण किया जाना था । पर अभी तक उस योजना पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया है । हां, इसमें पानी भराव का क्षेत्र साल हर साल सिकुड़ता जा रहा है ।
जिले के एक अन्य कस्बे बलदेवगढ़ के तालाबों की मछलियां तो कलकत्ता के मछली बाजार में आवाज दे कर विशेष रूप से बिका करती थी । बलदेवगढ़ में विक्रम संवत 1185 से 1220 के बीच राज्य करने वाले चंदेली शासक मदनवर्मन ने वहां सात तालाब बनवाए थे ग्वालासागर, जुगल सागर, धर्म सागर, सौतेला, मुचया, गगनताल की विशालता वास्तव में सागर के सामन हुआ करती थी । पिछली सदी में इन तालाबों में ‘पंडरा’ नामक काई हो गई । जिससे पानी विषैला हो गया और कस्बे में पांडू, मलेरिया और हैजा का प्रकोप होने से बस्ती वीरान हो गई । तब ओरछा के अंतिम शासक बीरसिंह जू देव (द्वितीय) ने ‘धर्मसागर’ तालाब तुड़वा दिया था । उसके बाद बढ़ती आबादी ने इन्हीं तालाबों पर अपना कब्जा बढ़ाया । आज वहां सिर्फ तीन तालाब ग्वाल सागर, जुगल सागर ओर मुचया ताल रह गए हैं ।
टीकमगढ़ जिले में इतने तालाब होने के बावजूद जलसंकट रहता हैं, जब कही से पानी की मांग होती हैं, तो सरकार वहां जमीन खोद कर ट्यूब वेल लगा रही है । जबकि वर्षो पूर्व भूवैज्ञानिक चेतावनी दे चुके थे कि इस ग्रेनाइट स्ट्रक्चर वाले क्षेत्र में भूगर्भ उत्खनन सफल नही है । इसके बावजूद रोपे जा रहे ट्यूब वेल यहां 40 फीसदी की दर से असफल हो रहे हैं । तालाब मिटने से जिलेे के 46 हजार से अधिक कुंओं का जलस्तर भी बुरी तरह नीचे गिर रहा है । इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीटयूट फार द सेडिएरीडट्रापिक्स के विशेषज्ञ बोन एप्पन ओर सुब्बाराव का कहना है कि तालाबों से सिंचाई करना आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होता है । उनका सुझाव है कि पुराने तालाबों के संरक्षण और नए तालाब बनाने के लिए ‘भारतीय तालाब प्राधिकरण’ का गठन किया जाना चाहिए । पूर्व कृषि आयुक्त बी. आर. भंबूला का मानना है कि जिन इलाकों में सालाना बारिश का औसत 750 से 1150 मिमि है, वहां नहरों की अपेक्षा तालाब से सिंचाई अधिक लाभप्रद होती है । टीकमगढ़ भी इसी प्रकार का क्षेत्र है ।
तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नही है । यह सर्वविदित है कि तालाबों में भरी गाद, सालों साल से सड़ रही पत्तियों और अन्य अपशिष्ठ पदार्थो के कारण ही उपजी है । जो उम्दा दर्जे की खाद है । किसानों को इस खाद रूपी कीचड़ की खुदाई का जिम्मा सौंपने पर वे सहर्ष राजी हो जाएंगे । उल्लेखनीय है कि राजस्थान के झालावाड़ जिले में ‘‘खेतों मे पालिश करने’’ के नाम से यह प्रयोग अत्यधिक सफल व लोकप्रिय रहा है । इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक मिलेगा साथ ही साथ उनकी सिंचाई सुविधा भी बढ़ेगी । जरूरत है तो सिर्फ आपसी तालमेल, समझदारी और अपनी पंरपरा तालाबों के संरक्षण की दिली भावना की ।
14 फरवरी 94 को बुंदेलख्ंाड के दौरे के दौरान प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने चंदेलकालीन तालाबों के सरक्षण हेतु विशेष योजना की घोषणा, आम सभाओं में की थी, पर अभी तक उस योजना का कार्यरूप कही उजाकर नही हो पाया है । इसकी जगह दिसंबर-96 से ‘राजीव गांधी जलग्रहण मिशन’ के सफेद हाथी की सौगात जरूर मिली । अब राज्य की भाजपा सरकार जगह-जगह   ‘‘जलाभिशेक’’ का नारा दे रही है।
आंकडों़ की बाजीगरी में उस्ताद रहे इसके अफसर साढे़ तीन करोड़ का खर्चा कर 15 मिनी और 38 माईक्रो वाटर रोड़ बनाने की बात करते हैं । यह बात दीगर है कि जिले में हजार साल पुराने ‘वाटर शेडो़’ की जिंदा बनाए रखे के लिए एक छदाम भी नहीं खर्च किया गया । अन्ना हजारें के ‘रालेगांव प्रयोग’ की नकल पर जन भगीदारी से पानी पैदा करने की इस परियोजना में जनता तो क्या निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की भी भागीदारी नहीं रही । टीकमगढ़ जिला पिछले पांच सालों से  बीते सौ सालों का सर्वाधिक भीषण सूखा झेल रहा हैं यहां की 32 फीसदी पानी के लिए पलायन कर चुकी हैं । राजीव गांधी मिशन की हकीकत दिवंगत राजीव गांधी के उस बयान की तर रही है कि ग्राम विकास का 85 फीसदी पैसा पाईप लाईन में ही उड़ जाता हैं । टीकमगढ़ में कथित रूप  से विकसित दिए गए वाटर शेडों़ का स्वीकृत क्षेतफल 35 हजार 397 हेक्टर निर्धारित था , जबकि उपचारित क्षेत्रफल मात्र छह हजार, 170 हेक्टर रहा है । काश, वाटर शेड़ कार्यक्रम के तहत योजना स्थानीय स्तर पर तैयार की गई होती, यहां के पारंपरिक तालाबों को सहेजने के लिए स्थानीय लोगों को एकजुट दिया जाता ।
टीकमगढ़ मध्यप्रदेश के उन जिलों में शीर्ष पर है जहां की 25 प्रतिशत आबादी गरमी आने से पहले ही पानी के संकट के चलते गांव-घर छोड़ कर दिल्ली-पंजाब मजदूरी के लिए चली जाती है । यहां के तालाब केवल लोगों की प्यास ही नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार भी थे । मछली, कमल गट्टा , सिंघाड़ा , कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी ; यहां के हजारों-हजार घरों के लिए खाना उगाहते रहे हैं । तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे  । शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है । गांव या शहर के रूतबेदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं, पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है - न भरेगा पानी, ना रह जाएगा तालाब । गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है तो शहरों में कालोनियां बनाने वाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं ।
एक तरफ प्यास से बेहाल हो कर अपने घर-गांव छोड़ते लोगों की हकीकत है तो दूसरी ओर पानी का अकूत भंडार ! यदि जिले के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो यहां के हर्र इंच खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है । जरूरत इस बात की है कि आधुनिकता की आंधी के विपरीत दिशा में ‘‘अपनी जड़ों को लौटने’’ की इच्छा शक्ति विकसित करनी होगी ।
एक तो यहां के तालाबों का पूरा सर्वेक्षण हो फिर उनको जीवित करने के लिए कौन से उपाय व कितने खर्चे की जरूरत होगी, इसका सही-सही आकलन हो । अलग-अलग महकमों के अंतर्गत आने वाले तालाबों को किसी एक महकमे(यदि इसके लिए अलग से तालाब विकास प्राधिकरण हो तो बेहतर होगा) के अंर्तगत कर दिया जाए । एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांवों की जल बिरादरी को शामिल किया जाए । यहां जानना जरूरी है कि अभी एक सदी पहले तक इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे । वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते - ऐवज में तालाब की मछली, सिंघाड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता । तालाब यहां की संस्कृति  सभ्यता का अभिन्न अंग हैं और इन्हें सरकारी बाबुओं के लाल बस्ते के बदौलत नहीं छोड़ा जा सकता ।

पंकज चतुर्वेदी
सहायक संपादक
नेशनल बुक ट्रस्ट
5 नेहरू भवन वसंत कुंज इंस्टीट्यूषनल एरिया फेज-2
नई दिल्ली-110070

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

Primary Education must be in mother tongue



जरूरी है स्थानीय बोली में प्राथमिक शिक्षा

                                                                                   पंकज चतुर्वेदी


बारूद, बंदूक से बेहाल बस्तर में आंध््रा प्रदेश से सटे सुकमा जिले में देारला जनजाति की बड़ी संख्या है। उनकी बोली हैं दोरली। बोली के मामले में बड़ा विचित्र है बस्तर, वहां द्रविड परिवार की बोलिसां भी है, आर्य कुल की भी और मुंडारी भी। उनके बीच इतना विभेद है कि एक इलाके का गोंडी बोलने वाला दूसरे इलाके की गोंडी को भी समझने में दिक्क्त महसूस करता है। दोरली बोलने वाले बहुत कम हुआ करते थे, पिछली जनगणना में शायद  बीस हजार । फिर खून खराबे का दौर चला, पुलिस व नक्सली दोनेा तरफ से पिसने वाले आदिवासी पलायन कर आंध्रप्रदेश के वारंगल जिले में चले गए। जब वे लौटे तो उनके बच्चों की दोरली में तेलुगू का घालमेल हो चुका था। एक तो बड़ी मुष्किल से दोरली बोलने वाला शिक्षक मिला था और जब उसने देखा कि उसके बच्चों की दोरली भी अपभ्रंष हो गई है तो उसकी चिंता असीम हो गई कि अब पढाई कैसे आगे बढ़ाई जाए। यह चिंता है कोटां गांव के शिक्षक कट्टम सीताराम की।
ठेठ गंाव के बच्चों को पढाया जाता है कि ’ ‘अनारका, ना तो उनके इलाके में अनार होता है और ना ही उन्होंने
दैनिक जागरण 21.2.15
उसे देखा होता है
, और ना ही उनके परिवार की हैसियत अनार को खरीदने की होती है। सारा गांव जिसे गन्ना कहता है, उसे ईख के तौर पर पढ़ाया जाता है। यह स्कूल में घुसते ही बच्चे को दिए जाने वाले अव्यावहारिक ज्ञान की बानगी है। असल में रंग-आकृति- अंक-शब्द की दुनिया में बच्चे का प्रवेष ही बेहद नीरस और अनमना सा होता है। और मन और सीखने के बीच की खाई साल दर साल बढती जाती है।
संप्रेषणीयता की दुनिया में बच्चे के साथ दिक्कतों का दौर स्कूल में घुसते से ही से शुरू हुआ- घर पर वह सुनता है मालवी, निमाडी, आओ, मिजो, मिसिंग, खासी, गढवाली,राजस्थानी , बुंदेली, या भीली, गोंडी, धुरबी या ऐसी ही अपनीबोली-भाषा। स्कूल में गया तो किताबें खड़ी हिंदी या अंग्रेजी यया राज्य की भाषा में और उसे तभी से बता दिया गया कि यदि असल में पढ़ाई कर नौकरी पाना है तो उसके लिए अंग्रेजी ही एकमात्र जरिया है - आधी छोड़ पूरी को जाए, आधी मिले ना पूरी पाए’’। बच्चा इसी दुरूह स्थिति में बचपना बिता देता है कि उसके पहले अध्यापकमां-पिता को सही कहूं या स्कूल की पुस्तकों की भाषाा को जो उसे सभ्यबनाने का वायदा करती है या फिर  जिंदगी काटने के लिए जरूरी अंग्रेजी को अपनाऊं।
स्कूल में भाषा-शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण व पढ़ाई का आधार होती है। प्रतिदिन के कार्य बगैर भाषा के सुचारू रूप से कर पाना संभव ही नहीं होता। व्यक्तित्व के विकास में भाषा एक कुंजी है , अपनी बात दूसरों तक पहुंचाना हो या फिर दूसरों की बात ग्रहण करना, भाषा के ज्ञान के बगैर संभव नहीं है।  भाषा का सीधा संबंध जीवन से है और मात्रभाषा ही बच्चे को परिवार, समाज से जोड़ती है। भाषा शिक्षण का मुख्य उद्देश्यभ बालक को सोचने-विचारने की क्षमता प्रदान करना, उस सोच को निरंतर आगे बढ़ाए रखना, सोच को सरल रूप में अभिव्यक्त करने का मार्ग तलाशना होता है।  अब जरा देखें कि मालवी व राजस्थानी की कई बोलियो में का उच्चारण होता है और बच्चा अपने घर में वही सुनता है, लेकिन जब वह स्कूल में शिक्षक या अपनी पाठ्य पुस्तक पढ़ता है तो उससे संदेश मिलता है कि उसके माता-पिता गलतउच्चारण करते हैं।  बस्तर की ही नहीं, सभी जनजातिया बोलियों में हिंदी के स्वर-व्यंजन में से एक चैाथाई होते ही नहीं है। असल में आदिवासी कम में काम चलाना तथा संचयय ना करने के नैसर्गिक गुणों के साथ जीवनयापन करते हैं और यही उनकी बोली में भी होता है। लेकिन बच्चा जब स्कूल आता है तो उसके पास बेइंतिहां शब्दों का अंबार होता है जो उसे दो नाव पर एकसाथ सवारी करने की मानिंद अहसास करवाता है।
स्थानीय बोलियों में प्राथमिक शिक्षा का सबसे बड़ा लाभ तो यह होता है कि बच्चा अपने कुल-परिवार की बोली में जो ज्ञान सीखता है, उसमें उसे अपने मां-बाप की भावनाओं का आस्वाद महसूस होता है। वह भले ही स्कूल जाने वाले या अक्षर ज्ञान वाली पहली पीढ़ी हो, लेकिन उसे पाठ से उसके मां-बाप बिल्कुल अनभिज्ञ नहीं होते। जब बच्चा खुद को अभिव्यक्त करना, भाषा का संप्रेषण सीख ले तो उसे खड़ी बोली या राज्य की बोली में पारंगत किया जाए, फिर साथ में करीबी इलाके की एक भाषा और। अंग्रेेजी को पढ़ाना कक्षा छह से पहले करना ही नहीं चाहिए। इस तरह बच्चे अपनी शिक्षा में कुछ अपनापन महसूस करेंगे। हां, पूरी प्रक्रिया में दिक्कत भी हैं, हो सकता है कि दंडामी गोंडी वाले इलाके में दंडामी गोंडी बोलने वाला शिक्षक तलाशना मुश्किल हो, परंतु जब एकबार यह बोली भी रोजगार पाने का जरिया बनती दिखेगी तो लोग जरूर इसमें पढ़ाई करना पसंद करेंगे। इसी तरह स्थानीय आशा कार्यकर्ता, पंचायत सचिव  जैसे पद भी स्थानीय बोली के जानकारों को ही देने की रीति से सरकार के साथ लोगों में संवाद बढ़ेगा व उन बोलियों में पढ़ाई करने वाले भी हिचकिचांएगे नहीं।
कुछ विकासवादीयह कहते नहीं अघाते हैं कि भाषाओं का नश्ट होना या ‘‘ज्ञान’’ की भाषा में शिक्षा देना स्वाभविक प्रक्रिया है और इस पर विलाप करने वाले या तो ‘‘नास्तेल्जिया’’ ग्रस्त होते हैं या फिर वे ‘‘षुद्ध नस्ल’’ के फासीवादी। जरा विकास के चरम पर पहुंच गए मुल्कों की सामामजिक व सांस्कृतिक दरिद्रता पर गौर करें कि वहां इंसान महज मषीन  बन कर रह गया है मानवीय संवेदनाएं षून्य हैं और अब वे षांति, आध्यात्म के लिए ‘‘पूर्व’’ की ओर देख रहे हैं। यदि कोई समाज अपने अनुभवों से सीखता नहीं है और वही रास्ता अपनाता है जो संवेदना-षून्य समाज का निर्माण करे तो जाहिर है कि यह एक आत्मघती कदम ही होगा। इंसान को इंसान बना रहने के लिए स्थानीयता पर गर्व का भाव, भाश-संस्कार का वैवेध्यि महति है। और इस लिए भी प्राथमिक शिक्षा में स्थानीय बोली-भाषा को षामिल करना व उसे जीवंत रखना जरूरी है।
आए रोज अखबारों में छपता रहता है कि यूनेस्को बार-बार चेता रही हे कि भारत में बोली-भाषाएं गुम हो रही है और इनमें भी सबसे बड़ा संकट आदिवासी बोलियों पर है। अंग्रेजीदां-शहरी युवा या तो इस से बेपरवाह रहते हैं या यह सवाल करने से भी नहीं चूकते कि हम क्या करेंगे इन गंवार-बोलियोंको बचा कर। यह जान लेना जरूरी है कि ‘‘गूगल बाबा‘‘ या पुस्तकों में इतना ज्ञान, सूचना, संस्कृति, साहित्ये उपलब्ध नहीं है जितना कि हमारे पारंपरिक  मूल निवासियों के पास है। उनका ज्ञान निहायत मौखिक है और वह भीली, गोंडी, धुरबी, दोरली, आओ, मिससिंग, खासी, जैसी छोटी-छोटी बोलियों में ही है। उस ज्ञान को जिंदा रखने के लिए उन बोलियों को भी जीवंत रखना जरूरी है और देश की विविधता, लारेक जीवन, ज्ञान, गीत, संगीत, हस्त कला, समाज को आने वाली पीढि़यों तक अपने मूल स्वरूप में पहुंचाने के लिए बोलियों को जिंदा रखना भी जरूरी है। यदि हम चाहते हैं कि स्थानीय समाज स्कूल में हंसते-खेलते आए, उसे वहां अन्यमनस्कता ना लगे तो उसकी अपनी बोली में भाषा का प्रारंभिक पाठ अनिवार्य होगा।

Why was the elephant not a companion?

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