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सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

Land matter is life of farmer and country

Raj express Bhopal 24-2-15
ंतो क्या हमारे पास जमीन की कमी है ?
पंकज चतुर्वेदी
कई सालों तक बहस-विमर्ष हुए फिर सितंबर -2013 में कोई 120 साल पुराने भुमि अधिग्रहण कानून-1894 को समाप्त कर  अधिग्रहण, पुनर्वास पर नया अधिनियम आया जिस पर 27 सितंबर 2013 को राश्ट्रपति ने हस्माक्षर कर देषभर में लागू भी कर दिया। कुछ ही महीने बीते कि जनता ने सरकार बदल दी और नई सरकार ने  अध्यादेष ला कर  उस अध्यादेष में भी बदलाव कर दिए। आज हजरों किसान पलवल से दिल्ली को कूच कर गए हैं। इसकी सबसे बडी विडंबना है कि नए अध्यादेष के बाद बहुफसलीय खेतों के अधिग्रहण का रासता भी साफ हो गया । याद करें पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट ने भी किसानों की जमीन के अधिग्रहण के मामले में कुछ तल्ख टिप्पणी की थी। देष के हर छोटे-बड़े षहरों में जहां आज अपार्टमेट बनाने का काम चल रहा है, वहां एक साल पहले तक खेती होती थी। गांव वालों से औद्योगिकीकरण के नाम पर औने-पौने दाम पर जमीन छीन ली गई और उसे हजार गुणा  दर पर बिल्डिरों को दे दिया गया। गंगा और जमुना के दोआब का इलाका सदियों से देष की खेती की रीढ़ रहा है। यहां की जमीन सोना उगलती है। विकास के नाम पर सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की कहानी दुहराई जाने लगी - खेत को उजाड़ कर कंक्रीट के जंगल रोप दिए। मुआवजा बांट दिया और हजारों बेरोजगारों की फौज खड़ी कर दी गई। इससे पहले सिंगूर, नंदीग्राम, पास्को, जैतापुर, भट्टा, पारसौल--- लंबी सूची है, विकास के नाम पर सरकार ने जमीन ली-उपजाऊ जमीन जहां अन्न उगता था। देश में स्पेशल इकानोमिक जोन बनाए जा रहे है, सड़क, पुल, कालोनी- सभी के लिए जंमीन चाहिए और वह भी ऐसी जिस पर किसान का  हल चलता हो। एकबारगी लगता है कि क्या हमारे देष में अब जमीन की कमी हो गई है, जो आधुनिकीकरण की योजनाओं के लिए देष की अर्थ व्यवस्था का मूल आधार रहे खेत को उजाड़ने पर मजबूर होना पड़ रहा है ?
इस तकलीफ को लोग लगातार नजर अंदाज कर रहे हैं या फिर लापरवाह हैं कि जमीन को बरबाद करने में इंसान कहीं कोई कसर नही छोड़ रहा है। जबकि जमीन को सहेजने का काम कर रहे किसान के खेत पर सभी की नजर लगी हुई है। विकास के लिए सड़कें, हवाई अड्डे बन रहे हैं, महानगरों की बढ़ती संख्या और उसमें रहने वालों की जरूरतों से अधिक निवेश के नाम पर बनाई जा रही बहुमंजिली इमारतों का ठिकाना भी उर्वर जमीन ही है । हजारों  घटनाएं गवाह हैं कि कारखानों के लिए जमीन जुटाने की फिराक में खेतों को ही उजाड़ा जाता है तो लोगों का गुस्सा भड़कता है।  यदि नक्शे और आंकड़ों को सामने रखें तो तस्वीर तो कुछ और ही कहती है । देश में लाखेंा -लाख हेक्टर ऐसी जमीन है जिसे विकास का इंतजार है । अब पका पकाया खाने का लालच तो सभी को होता है, सो बेकार पड़ी जमीन को लायक बनाने की मेहनत से बचते हुए लायक जमीन को बेकार बनाना ज्यादा सरल व फायदेमंद लगता है । विदित हो देश में कुछ 32 करोड़ 90 लाख हेक्टर भूमि में से 12 करोड़ 95 लाख 70 हजार बंजर है ।
भारत में बंजर भूमि के ठीक-ठीक आकलन के लिए अभी तक कोई विस्तृत सर्वेक्षण तो हुआ नहीं है, फिर भी केंदªीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का फौरी अनुमान है कि देश में सर्वाधिक बंजर जमीन मध्यप्रदेश में है, जो दो करोड़ एक लाख 42 हेक्टर है । उसके बाद राजस्थान का नंबर आता है जहां एक करोड़ 99 लाख 34 हेक्टर, फिर महाराष्ट्र जहां एक करोड़ 44 लाख एक हजार हेक्टर बंजर जमीन है । आंध्रप्रदेश में एक करोड़ 14 लाख 16 हजार हेक्टर, कर्नाटक में 91 लाख 65 हजार, उत्तरप्रदेश में 80 लाख 61 हजार, गुजरात में 98 लाख 36 हजार, उड़ीसा में 63 लाख 84 हजार तथा बिहार में 54 लाख 58 हजार हेक्टेयर जमीन, अपने जमीन होने की विशिष्टता खो चुकी है । पश्चिम बंगाल में 25 लाख 36 हजार, हरियाणा में 24 लाख 78 हजार, असम में 17 लाख 30 हजार, हिमाचल प्रदेश में 19 लाख 78 हजार, जम्मू-कश्मीर में 15 लाख 65 हजार, केरल में 12 लाख 79 हजार हेक्टर जमीन, धरती पर भार बनी हुई है । पंजाब सरीखे कृषि प्रधान राज्य में 12 लाख 30 हजार हेक्टर, उत्तर-पूर्व के मणिपुर, मेघालय और नागालेंड में क्रमशः 14 लाख 38 हजार, 19 लाख 18 हजार और 13 लाख 86 हजार हेक्टर भूमि बंजर है । सर्वाधिक बंजर भूमि वाले मध्यप्रदेश में भूमि के नष्ट होने की रफ्तार भी सर्वाधिक है । यहां गत दो दशकों में बीहड़ बंजर दो गुने हो कर 13 हजार हेक्टर हो गए हैं ।
धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है तब बरसात का पानी सीधा नंगी धरती पर पड़ता है और वहां की मिट्टी बहने लगती है । जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहां भी जगह मिलती है, मिट्टी काटते हुए वह बहता है । इस प्रक्रिया में नालियां बनती हैं और जो आगे चल कर गहरे होते हुए बीहड़ का रूप ले लेती है । एक बार बीहड़ बन जाए तो हर बारिश में वो और गहरा होता चला जाता है । इस तरह के भूक्षरण से हर साल लगभग चार लाख हेक्टर जमीन उजड़ रही है । इसका सर्वाधिक प्रभावित इलाका चंबल, यमुना, साबरमती, माही और उनकी सहायक नदियों के किनारे के उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार, राजस्थान और गुजरात है । बीहड़ रोकने का काम जिस गति से चल रहा है उसके अनुसार बंजर खतम होने में 200 वर्ष लगेंगे, तब तक ये बीहड़ ढ़ाई गुना अधिक हो चुके होंगे ।
बीहड़ों के बाद, धरती के लिए सर्वाधिक जानलेवा, खनन-उद्योग रहा है । पिछले तीस वर्षों में खनिज-उत्पादन 50 गुना बढ़ा लेकिन यह लाखों हेक्टर जंगल और खेतों को वीरान बना गया है । नई खदान मिलने पर पहले वहां के जंगल साफ होते हैं । फिर खदान में कार्यरत श्रमिकों की दैनिक जलावन की जरूरत पूर्ति हेतु आस-पास की हरियाली होम होती है । तदुपरांत खुदाई की प्रक्रिया में जमीन पर गहरी-गहरी खदानें बनाई जाती है, जिनमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता है । वहीं खदानों से निकली धूल-रेत और अयस्क मिश्रण दूर-दूर तक की जमीन की उर्वरा शक्ति हजम कर जाते हैं । खदानों के गैर नियोजित अंधाधुंध उपायोग के कारण जमीन के क्षारीय होने की समस्या भी बढ़ी है । ऐसी जमीन पर कुछ भी उगाना नामुमकिन ही होता है । हरितक्रांति के नाम पर जिन रासायनिक खादों व्दारा अधिक अनाज पैदा करने का नारा दिया जाता है, वे भी जमीन की कोख उजाड़ने की जिम्मेदार रही हैं । रासायनिक खादों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनी-तिगुनी पैदावार मिली, फिर उसके बाद भूमि बंजर हो रही है । यही नहीं जल समस्या के निराकरण के नाम पर मनमाने ढंग से रोपे जा रहे नलकूपों के कारण भी जमीन कटने-फटने की शिकायतें सामने आई हैं । सार्वजनिक चरागाहों के सिमटने के बाद रहे बचे घास के मैदानों में बेतरतीब चराई के कारण भी जमीन के बड़े हिस्से के बंजर होने की घटनाएं मध्य भारत में सामने आई हैं । सिंचाई के लिए बनाई गई कई नहरों और बांधों के आस-पास जल रिसने से भी दल-दल बन रहे हैं ।़
जमीन को नष्ट करने में समाज का लगभग हर वर्ग और तबका लगा हुआ है, वहीं इसके सुधार का जिम्मा मात्र सरकारी कंधों पर है । 1985 स्थापित राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम के 16 वें सूत्र के तहत बंजर भूमि पर वनीकरण और वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया था । आंकड़ों मुताबिक इस योजना के तहत एक करोड़ 17 लाख 15 हजार हेक्टर भूमि को हरा-भरा किया गया । लेकिन इन आंकड़ों का खोखलापन सेटेलाईट व्दारा खींचे गए चित्रों से उजागर हो चुका है । कुछ सालों पहले बंजर भूमि विकास विभाग द्वारा बंजर भूमि विकास कार्य बल के गठन का भी प्रस्ताव था । कहा गया कि रेगिस्तानी, पर्वतीय, घाटियों, खानों आदि दुर्गम भूमि की गैर वनीय बंजर भूमि को स्थाई उपयोग के लायक बनाने के लिए यह कार्य-बल काम करेगा । लेकिन यह सब कागजों पर बंजर से अधिक साकार नहीं हो पाया ।
प्राकृतिक और मानव-जनित कारणों की संयुक्त लापरवाही के चलते आज खेती, पशुपालन, गोचर, जंगल सभी पर खतरा है । पेयजल संकट गहरा रहा है । ऐसे में केंदª व राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कब्जे में पड़ी ढेर सारी अनुत्पादक भूमि के विकास के लिए कोई कार्यवाही नहीं किया जाना एक विडंबना ही है । आज सरकार बड़े औद्योगिक घरानों को तो बंजर भूमि सुधार के लिए आमंत्रित कर रही है, लेकिन इस कार्य में निजी छोटे काश्तकारों की भागीदारी के प्रति उदासीन है । विदित हो हमारे देश में कोई तीन करोड़ 70 लाख हेक्टर बंजर भूमि ऐसी है, जो कृषि योग्य समतल है । अनुमान है कि प्रति हेक्टर 2500 रूपये खर्च कर इस जमीन पर सोना उगाया जा सकता है । यानि यदि 9250 करोड़ रूपये खर्च किए जाएं तो यह जमीन खेती लायक की जा सकती है, जो हमारे देश की कुल कृषि भूमि का 26 प्रतिशत है ।  सरकारी खर्चाें में बढ़ोत्तरी के मद्देनजर जाहिर है कि इतनी राशि सरकारी तौर पर एकमुश्त मुहैया हो पाना नामुमकिन है । ऐसे में भूमिहीनों को इसका मालिकाना हक दे कर उस जमीन को कृषि योग्य बनाना, देश के लिए क्रांतिकारी कदम होगा । इससे कृषि उत्पाद बढ़ेगा, लोगों को रोजगार मिलेगा और पर्यावरण रक्षा भी होगी । यदि यह भी नहीं कर सकते तो खुले बाजार के स्पेशल इकानामी जोन बनाने के लिए यदि ऐसी ही अनुपयोगी, अनुपजाऊ जमीनों को लिया जाए ।  इसके बहुआयामी लाभ होंगे - जमीन का क्षरण रुकेगा, हरी-भरी जमीन पर मंडरा रहे संकट के बादल छंटेंगे । चूंकि जहां बेकार बंजर भूमि अधिक है वहां गरीबी, बेरोजगारी भी है, नए कारखाने वगैरह लगने से उन इलाकों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी । बस करना यह होगा कि जो पैसा जमीन का मुआवजा बांटने में खर्च करने की योजना है, उसे समतलीकरण, जल संसाधन जुटाने, सड़क-बिजली मुहैया करवाने जैसे कामों में खर्च करना होगा ।

पंकज चतुर्वेदी
यूजी-1 , 3/186 राजेन्द्र नगर सेक्ट2-2 साहिबाबाद, गाजियाबाद 201005
फोन: 0120-4241060, 9891928376



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