ecology , water and environment

My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 16 मार्च 2024

Why was the elephant not a companion?

 

 

हाथी क्यों न रहा साथी ?

                                                                   पंकज चतुर्वेदी



 

हाथियों और मानव के बीच बढ़ते संघर्ष को देखते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय , प्रोजेक्ट एलीफैंट के तहत 22 राज्यों में जंगल से सटे गांवों को “अर्ली अलर्ट सिस्टम” से जोड़ने जा रहा है ताकि गांव के आसपास हाथियों की हलचल बढ़ने पर उन्हें सतर्क किया जा सके । उधर केरल सरकार ने वायनाड़ के आसपास हिंसक हाथियों के विरुद्ध जन आक्रोश को देखते हुए जानवरों के हमले को “राज्य विशेष आपदा” घोषित का दिया है । फिलहाल सरकार जो भी कदम उठा रही है , वह हाथियों के हिंसक होने के बाद मानवीय जिंदगी बचाने पर अधिक है लेकिन सोचना तो यह पड़ेगा कि आखिर घर-घर में पूजनीय हाथी की इंसान के प्रति नाराजी बढ़ क्यों रही है ?



 बीते एक महीने के दौरान में झारखंड और उससे सटे छत्तीसगढ़, बिहार और मध्य प्रदेश में कई ऐसी घटनाएँ हो चुकी हैं जब गुस्सैल हाथियों के झुण्ड ने गाँव या खेत पर हमला कर नुकसान किया और इनमें कम से कम दस लोग मारे जा चुके हैं .   यह स्थापित तथ्य है कि जब जंगल में हाथी का पेट नहीं भर पाता तो वह बस्ती की तरफ आता है. समझना होगा कि किसी भी वन के पर्यावरणीय तंत्र में हाथी एक अहम् कड़ी है और उसके बैचेन रहने का असर  समूचे परिवेश पर पड़ता है, फिर वह हरियाली हो या जल निधियां या फिर बाघ या तेंदुए .  बीते कुछ सालों में हाथी के पैरों टेल कुचल कर मरने वाले इंसानों की संख्या बढती जा रही है . सन 2018 -19 में 457 लोगों की मौत हाथी के गुस्से से हुई तो  सन 19-20 में यह आंकडा 586 हो गया . वर्ष 2020-21 में मरने वालों की संख्या 464, 21-22 में 545 और बीते साल 22-23 में 605 लोग मारे गए . केरल के वायनाड जिले, जहां 36 फ़ीसदी जंगल है , पिछले साल हाथी- इंसान  के टकराव की 4193 घटनाएं हुई और इनमें 27 लोग मारे गए .  देश में उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, असं, केरल, कर्णाटक सही 16 राज्यों में बिगडैल हाथियों के कारण इन्सान से टकराव बढ़ रहा है. इस झगड़े में हाथी भी मारे जाते हैं .

पिछले  तीन सालों के दौरान लगभग  300 हाथी मारे गए हैं. कहने को और भले ही हम कहें कि हाथी उनके गांव-घर में घुस रहा है, हकीकत यही है कि प्राकृतिक संसाधनों के सिमटने के चलते भूखा-प्यासा हाथी अपने ही पारंपरिक इलाकों में जाता है. दुखद है कि वहां अब बस्ती, सड़क  का जंजाल है. ‘द क्रिटिकल नीड आफ एलेफेंट ’ उब्लूडब्लूएफ-इंडिया की  रिपोर्ट बताती है कि  दुनिया में इस समय कोई 50 हजार हाथी बचे हैं इनमें से साठ फीसदी का आसरा  भारत है.  देश  के 14 राज्यों में 32 स्थान हाथियों के लिए संरक्षित हैं. यह समझना जरूरी है कि धरती पर इंसान का अस्तित्व तभी तक है जब तक जंगल हैं और जंगल में जितना जरूरी बाघ है उससे अधिक अनिवार्यता हाथी की है.

दुनियाभर में हाथियों को संरक्षित करने के लिए गठित आठ देशों के समूह में भारत शामिल हो गया है. भारत में इसे ‘राष्ट्रीय धरोहर पशु’ घोषित किया गया है. इसके बावजूद भारत में बीते दो दशकों के दौरान हाथियों की संख्या स्थिर हो गई हे. जिस देश में हाथी के सिर वाले गणेश को प्रत्येक शुभ कार्य से पहले पूजने की परंपरा है , वहां की बड़ी आबादी हाथियों से छुटकारा चाहती है . 

पिछले एक दशक के दौरान मध्य भारत में हाथी का प्राकृतिक पर्यावास कहलाने वाले झारखंड, छत्तीसगड़, उड़िया राज्यों में हाथियों के बेकाबू झुण्ड  के हाथों कई सौ इंसान मारे जा चुके हैं. धीरे-धीरे इंसान और हाथी के बीच के रण का दायरा विस्तार पाता जा रहा है. कभी हाथियों का सुरक्षित क्षेत्र कहलाने वाले असम में पिछले सात सालों में हाथी व इंसान के टकराव में 467 लोग मारे जा चुके हैं. झारखंड की ही तरह बंगाल व अन्य राज्यों में आए रोज हाथी को गुस्सा आ जाता है और वह खड़े खेत, घर, इंसान; जो भी रास्ते में आए कुचल कर रख देता है . दक्षिणी राज्यों  के जंगलों में गर्मी के मौसम में हर साल 20 से 30 हाथियों के निर्जीव शरीर संदिग्ध हालात में मिल रहे हैं .

जानना जरूरी है कि हाथियों केा 100 लीटर पानी और 200 किलो पत्ते, पेड़ की छाल आदि की खुराक जुटाने के लिए हर रोज 18 घंटेां तक भटकना पड़ता है . गौरतलब है कि हाथी दिखने में भले ही भारीभरकम हैं, लेकिन उसका मिजाज नाजुक और संवेदनशील होता है . थेाड़ी थकान या भूख उसे तोड़ कर रख देती है . ऐसे में थके जानवर के प्राकृतिक घर यानि जंगल को जब नुकसान पहुँचाया  जाता है तो मनुष्य से उसकी भिडंत  होती है . साल 2018 में पेरियार टाइगर कन्जर्वेशन फाउंडेशन  ने केरल में हाथियों के हिंसक होने पर एक अध्ययन किया था . रिपोर्ट में  पता चला कि जंगल में पारंपरिक पेड़ों को कट कर उनकी जगह नीलगिरी और बाबुल बोने से हाथियों का भोजन समाप्त हुआ और यही उनके गुस्से का कारण बना . पेड़ों की ये किस्म जमीन का पानी भी सोखती हैं सो हाथी के लिए पानी की कमी भी हुई .

वन पारिस्थितिकी तंत्र और जैव विविधता को सहेज कर रखने में गजराज की  महत्वपूर्ण भूमिका हैं.  पयार्वरण-मित्र पर्यटन और और प्राकृतिक आपदाओं के बारे में पूर्वानुमान में भी हाथी बेजोड़ हैं. अधिकांश संरक्षित क्षेत्रों में, आबादी हाथियों के आवास के पास रहते हैं और वन संसाधनों पर निर्भर हैं. तभी जंगल में मानव अतिक्रमण और खेतों में हाथियों की आवाजाही ने संघर्ष की स्थिति बनाई और तभी यह विशाल जानवर  खतरे है.

एक बात जान लें किसी भी जंगल के विस्तार में हाथी सबसे बड़ा ‘बीज-वाहक होता है. वह वनस्पति खाता है और उसकी लदी  भोजन करने के 60 किलोमीटर दूर तक जा कर करता है और उसकी लीद में उसके द्वारा खाई गई वनस्पति के बीज होते हैं.  हाथी की लीद  एक समृद्ध खाद होती है और उसमें  बीज भली-भांति  प्रस्फुटित होता है. जान लेें जगल का विस्तार और ारंपरिक वृक्षों का उन्नयन इसी तरह जीव-जंतुओं द्वारा  नैसर्गिक वाहन से ही होता हैं.

यही नहीं हाथी की लीद , कई तरह के पर्यावरण मित्र कीट-भृगों का भोजन भी होता है. ये कीट ना केवल  लीद को खाते हैं बल्कि उसे जमीन के नीचे दबा भी देते हैं जहां उनके लार्वा उसे खाते हैं. इस तरह से  कीट  कठोर जमीन को मुलायम कर देते है. और इस तरह वहां जंगल उपजने का अनुकूल परिवेष तैयार होता हैं.

घने जंगलों में जब हाथी ऊंचे पेड़ों से पत्ती तोड़ कर खाता है तो वह एक प्रकार से  सूरज की रोशनी नीचे तक आने का रास्ता भी बनाता है. फिर उसके चलने से जगह-जगह जमीन कोमल होती है और उस तरह जंगल की जैव विविधता को फलने-फूलने का मौका मिलता हैं.

हाथी भूमिगत या सूख चुके जल-साधनों को अपनी सूंड, भारीभरकम पैर व दांतों की मदद के खोदते हैं. इससे उन्हें तो पानी मिलता ही है, जंगल के अन्य जानवरों की भी प्यास बुझती हैं. कहना गलत ना होगा कि हाथी जंगल का पारिस्थितिकी तंत्र इंजीनियर है. उसके पद चिन्हों से कई छोटे जानवरों को सुरक्षित रास्ता मिलता है. हाथी कि विषाल पद चिन्हों में यदि पानी भर जाता है तो वहां मेंढक साहित कई छोटे जल-जीवों को आसरा मिल जाता हैं.

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि जिस जंगल में यह विषालकाय शाकाहारी जीव का वास होता है वहां आमतौर पर शिकारी या जंगल कटाई करने वाले घुसने का साहस नहीं करते और तभी वहां हरियाली सुरक्षित रहती है और साथ में बाघ, तेंदुए, भालू जैसे जानवर भी  निरापद रहते हैं.

कई-कई सदियों से यह हाथी अपनी जरूरत के अनुरूप अपना स्थान बदला करता था . गजराज के आवागमन के इन रास्तों को ‘‘गज-गलियारा ’’ कहा गया . जब कभी पानी या भोजन का संकट होता है गजराज ऐसे रास्तों से दूसरे जंगलों की ओर जाता है जिनमें मानव बस्ती ना हो. देश  में हाथी के सुरक्षित कोरिडोर या गलियारे  की संख्या 88 हैं, इसमें 22 पूर्वोत्तर राज्यों , 20 केंद्रीय भारत और 20 दक्षिणी भारत में हैं. दरअसल, गजराज की सबसे बड़ी खूबी है उनकी याददाश्त. आवागमन के लिए वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी परंपरागत रास्तों का इस्तेमाल करते आए हैं.

बढ़ती आबादी के भोजन और आवास की कमी को पूरा करने के लिए जमकर जंगल काटे जा रहे हैं. उसे जब भूख लगती है और जंगल में कुछ मिलता नहीं या फिर जल-स्त्रोत सूखे मिलते हैं तो वे खेत या बस्ती की ओर आ जाते हैं . नदी-तालाबों में शुद्ध पानी के लिए यदि मछलियों की मौजूदगी जरूरी है तो वनों के पर्यांवरण को बचाने के लिए वहां हाथी अत्यावश्यक हैं . मानव आबादी के विस्तार, हाथियों के प्राकृतिक वास में कमी, जंगलों की कटाई और बेशकीमती दांतों का लालच; कुछ ऐसे कारण हैं जिनके कारण हाथी को निर्ममता से मारा जा रहा है . हाथी का जंगल में रहना कई  लुप्त हो रहे पेड़-पौधों, सुक्ष्म जीव, जंगली जानवरों और पंक्षियों के संरक्षण को सुनिश्चित  करता है.

कैसी विडंबना है कि हम तस्वीर वाले हाथी को  कमरों में सजावट के लिए इस्तेमाल करते हैं. हाथी  के मुंह वाले गणपति को  मांगलिक कार्यों मे ंसबसे पहले पूजते हैं लेकिन धरती पर इस खुबसूरत जानवर को नहीं देखना चाहते, उसके घर-रास्तों को भी नहीं छोड़ रहे.  जबकि हाथी मानव-अस्तित्व के लिए अनिवार्य हैं.

 

शुक्रवार, 15 मार्च 2024

Why Bangalore is in danger of becoming 'Cape Town'.

 

 

क्यों बंगलूरू पर ‘केपटाउन’ बनने का खतरा मंडरा रहा है। Bangluru 

केरे’ का शहर  बन गया कंक्रीट का ‘काड़ू’

केरे  यानी तालाब ,काडू यानी जंगल (कन्न्ड़ भाशा)

पंकज चतुर्वेदी


 

 

अभी दिवाली के बाद हुई बरसात में जो शहर कई –कई फुट पानी में डूबा था , गर्मी का आगाज़ होते ही  पानी की एक –एक बूँद को तरस  रहा है .  भले ही बहाना  हो कि लगातार दो साल  से बरसात कम हो रही है और राज्य के 256 ताल्लुकों में सूखा घोषित है  लेकिन हकीकत यह है कि बंगलुरु जैसे पानीदार महानगर के यह हालात  पहले से दी गई चेतावनियों पर समय रहते सतर्क न रहने का दुष्परिणाम है . सन  2018 में जब दक्षिण अफी्रका के शहर  केपटाउन में पानी की भयंकर संकट के मद्देनजर दुनिया के जिन पंद्रह शहरों पर ‘शून्य जल’ स्तर के संकट का खतरा बताया था , उसमें भारत का एक ही नाम था  - बंगलूरू। ‘शून्य जल’ स्तर यानि ना तो नलों से पानी की सप्लाई और ना ही नहाने या हाथ धोने को पानी उपलब्ध । आज शहर की जरूरत 2600 एम् एल डी है जबकि  कावेरी नदी से मात्र 460 मिल रहा है  . कोई 1200 से अधिक नलकूप सूख चुके हैं . बरसात अभी कम से कम दो महीने दूर है और इसी लिए कई  स्कूल- कालेज-दफ्तर बंद कर दिए गए . पानी के दुरूपयोग पर पांच हजार के जुर्माने सहित कई  पाबंदियां लगा दी गई है .

 यदि शहर  की जल कुंडली बांचें तो यह बात अस्वाभाविक सी लगती है क्योंकि यहां तो पग-पग पर जल निधियां है।  लेकिन जब इस ‘कुंडली’ की ‘गृह दशा’ देखें तो स्पष्ट  होता है कि अंधाधुंध शहरीकरण और उसके लालच में उजाड़ी जा रही पारंपरिक जल निधियों व हरियाली का यदि यही दौर चला तो बंगलूरू को केपटाउन बनने से कोई नहीं रोक सकता । सरकारी रिकार्ड के मुताबिक नब्बे साल पहले बंगलूरू शहर  में 2789 केरे यानी झील हुआ करती थीं। सन साठ आते-आते इनकी संख्या घट कर 230 रह गई। सन 1985 में शहर  में केवल 34 तालाब बचे और अब इनकी संख्या तीस तक सिमट गई हे। जल निधियों की बेरहम उपेक्षा का ही परिणाम है कि ना केवल शहर  का मौसम बदल गया है, बल्कि लोग बूंद-बूंद पानी को भी तरस रहे हैं। वहीं ईएमपीआरइाई यानी सेंटर फार कन्सर्वेसन, इनवारमेंटल मेनेजमेंट एंड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अपनी रपट में कहा है कि बंगलूरू में फिलहाल 81 जल-निधियों का अस्तित्व बचा है, जिनमें से नौ बुरी तरह  और 22 बहुत  कुछ दूषित  हो चुकी हैं।

शहर की आधी आबादी को पानी पिलाना टीजीहल्ली यानि तिप्पा गोंडन हल्ली तालाब के जिम्मे है । इसकी गहराई 74 फीट है । लेकिन 1990 के बाद से इसमें अरकावति जलग्रहण क्षेत्र से बरसाती पानी की आवक बेहद कम हो गई है । अरकावति के आसपास कालोनियों, रिसोर्ट्स और कारखानों की बढ़ती संख्या के चलते इसका प्राकृतिक जलग्रहण क्षेत्र चौपट हो चुका है । इस तालाब से 140 एमएलडी(मिलियन लीटर डे) पानी हर रोज प्राप्त किया जा सकता है । चूंकि तालाब का जल स्तर दिनों-दिन घटता जा रहा है, सो बंगलूरू जल प्रदाय संस्थान को 40 एमएलडी से अधिक पानी नहीं मिल पाता है । इस साल फरवरी में तालाब की गहराई 15 फीट से कम हो गई । पिछले साल यह जल स्तर 17 फीट और उससे पहले 26 फीट रहा है । बंगलूरू में पानी की मारा-मार चरम पर है । गुस्साए लोग आए रोज तोड़-फोड़ पर उतारू हैं ।  परंतु उनकी जल गगरी ‘टीजी हल्ली’ को रीता करने वाले कंक्रीट के जंगल यथावत फलफूल रहे हैं ।

बंगलूरू के तालाब सदियों पुराने तालाब-शिल्प का बेहतरीन उदाहरण हुआ करते थे । बारिश चाहे जितनी कम हो या फिर बादल फट जाएं, एक-एक बूंद नगर में ही रखने की व्यवस्था थी । ऊंचाई का तालाब भरेगा तो उसके कोड़वे(निकासी) से पानी दूसरे तालाब को भरता था । बीते दो दशकों के दौरान बंगलूरू के तालाबों में मिट्टी भर कर कालेनी बनाने के साथ-साथ तालाबों की आवक व निकासी को भी पक्के निर्माणों से रोक दिया गया । पुट्टन हल्ली झील की जल क्षमता 13.25 एकड़ है ,जबकि आज इसमें महज पांच एकड़ में पानी आ पाता है . जरगनहल्ली और मडीवाला तालाब के बीच की संपर्क नहर 20 फीट से घट कर महज तीन फीट की रह गई ।

अल्सूर झील को बचाने के लिए गठित फाउंडेशन के पदाधिकारी राज्य के आला अफसर हैं । 49.8 हेक्टेयर में फैली इस अकूत जलनिधि को बचाने के लिए जनवरी-99 में इस संस्था ने चार करोड़ की एक योजना बनाई थी । अल्सूर ताल को दूषित करने वाले 11 नालों का रास्ता बदलने के लिए बंगलूरू महानगर पालिका से अनुरोध भी किया गया था । कृष्णम्मा गार्डन, डेविस रोड़, लेज़र रोड़, मोजीलाल गार्डन के साथ-साथ पटरी रोड कसाई घर व  धोबी घाट की 450 मीट्रिक गंदगी इस जलाशय में आ कर मिलती है । समिति ने कसाई खाने को अन्यंत्र हटाने की सिफारिश भी की थी । लेकिन खेद है कि अल्सूर को जीवित रखने के लिए कागजी घोड़ों की दौड़ से आगे कुछ नहीं हो पाया । इस झील का जलग्रहण क्षेत्र(केचमेंट एरिया) 11 वर्ग किमी है , जिस पर कई छोटे-बड़े कारखाने जहर उगल रहे हैं । जाहिर है कि यह गंदगी बेरोक-टोक झील में ही मिलती है . बेलंदूर, जो शहर  के दक्षिण-पूर्व में स्थित है और आज भी यहां की सबसे बड़ी झील है। इसका क्षेत्रफल 148 वर्गकिमी यानि कोई 37 हजार एकड़ है।  कल्पना करें कि 3.6 किलोमीटर लंबी झील , जिसका अतिरिक्त पानी बह कर अन्य झील वर्तुर में जाता है और आगे चल कर यह जल निधि पेन्नियार नदी में मिलती है।

हैब्बाल तालाब , चेल्ला केरे झील को तो देवन हल्ली में बन रहे नए  इंटरनेशनल एयरपोर्ट तक पहुंचने के लिए गढ़े जा रहे एक्सप्रेस हाईवे का ग्रहण लग गया है । कोई एक सदी पहले किसी दानवीर द्वारा गढ़े गए कामाक्षी पाल्या तालाब से तो अब इलाके के बांशदों ने तौबा कर ली है । वे चाहते हैं कि किसी भी तरह यह झील पाट दी जाए । शहर के कई तालाबों को सुखा कर पहले भी मैदान बनाए गए हैं । कर्नाटक गोल्फ क्लब के लिए चेल्ला घट्टा झील को सुखाया गया , तो कंटीरवा स्टेडियम के लिए संपंगी झील से पानी निकाला गया । अशोक नगर का फुटबाल स्टेडियम षुल्या तालाब हुआ करता था तो साईं हाकी स्टेडियम के लिए अक्कीतम्मा झील की बलि चढ़ाई गई । मेस्त्री पाल्या झील और सन्नेगुरवन हल्ली तालाब को सुखा कर मैदान बना दिया गया है । गंगाशेट्टी व जकरया तालाबों पर कारखाने खड़े हो गए हैं । आगसना तालाब अब गायत्रीदेवी पार्क बन गया है । तुमकूर झील पर मैसूर लैंप की मशीनें हैं ।

असल में ये झीलें केवल पानी ही नहीं जोडती थीं, अधिक बरसात होने पर जलभराव का निदान भी इनमें था. शहर के भूजल को बरक़रार रखना, बगीचों का शहर कहे जाने वाले बंगलुरु महानगर के मौसम के मिजाज को भी नियंत्रित करती थीं . यदि आज भी शहर की सभी झीलों को सहेजना शुरू किया जाय  तो बंगलुरु को फिर से “केरे” का शहर बनाया जा सकता है .


 

 

 

 

बंगलूरू : कैसे कंक्रीट के जंगल लील गए तालाबों को

 

 

बीते दो दशकों के दौरान बंगलूरू शहर  की कई बड़ी झीलों को पहले दूशित किया गया, फिर उन्हें पाटा गया और उसके बाद उनका इस्तेमाल षहरीकरण के लिए हो गया। इसी का परिणाम है कि थोड़ी सी बारिश में अब शहर  में बाढ आ जाती है और गर्मी से पहले ही  जल संकट । वहां का मौसम अब इतना खुशगवार रहता नहीं है। शहर  की कुछ ऐसी झीले जो देखते ही देखते नए अवतार में आईं।

 

                                     

क्रमांक पहले यहां तालाब था             आज यहां  यह है

1.       मारेन हल्ली झील        मरेनाहल्ली कालोनी

2.       चैन्नागेरे झील     इजीपुरा कालोनी

3        सारक्की अग्रहारा झील/डोरसानिपाल्या जे पी नगर फेज -4

4.       चलंगघट्टा ताल कर्नाटक गोल्फ क्लब

5.       दोमलुरू झील  दोमलुरू कालोनी स्टेज-2

6        सिद्धपुरा झील  सिद्धपुरा/जयनगर आई ब्लाक

7.       गेद्दला हल्ली    आरएमवी स्टेज-2, ब्लाक-2

8.       नागेशेट्टीहल्ली  आरएमवी स्टेज-2, ब्लाक-2

9.       कदिरेन हल्ली   बनशंकरी स्टेज-2

10.     त्यागराज नगर झील     त्यागराज नगर

11.     तुमकुर ताल     मैसूर लैंप

12      रामशेट्टी पाल्य केरे       मिल्क कालोनी खेल का मैदान

13.     अगसना झील  गायत्रीदेवी पार्क

14.     कट्टेमारन हल्ली लेक    महालक्ष्मीपुरम

15      गंगा षेट्टी लेक  मिनर्वा मिल्स और मैदान

16      जकरया झील   कृश्णा फ्लोर मिल्स

17      धर्मामबुधि झील         केंपेगोडा बस टर्मिनल

18      अग्रहार होसेकेरे चेलुवाडीपाल्या

19      कलासि पाल्या लेक     कलासि पाल्या कालोनी

20      संपंगी लेक      कंटिरवा स्टेडियम

21      षुले तालाब     अशोक नगर फुटबाल स्टेडियम

22      अक्कीतिम्मा ताल       साई हॉकी स्टेडियम

23      सुंकला लेक     कर्नाटक राज्य परिवहन निगम का वर्कशाप

24      कोरामंगला झील        नेशनल डेयरी रिसर्च इन्स्टीट्यूट

25      कोडीहल्ली झील        न्यू तिप्पेसंदरा/सरकारी भवन

26      हॉसकेरे रेसीडेंशियल रेलवे स्टॉक यार्ड

27      सोन्नेनहली झील        आस्टीन टाउन(आरईएस कालोनी)

28      गोकुला तालाब मोतीकेरे कालोनी

29      विद्यारन्यापुरा झील      जालहल्ली ईस्ट कालोनी

30      काडुगोंडाहल्ली लेक   काडुगोंडाहल्ली कालोनी

31      हेन्नूर झील      नागावारा (एचबीआर लेआउट)

32      बाणसवाड़ी तालाब     सुब्बपाल्या एक्सटेंशन नगर

33      चेन्नासंद्रा झील पुल्ला रेड्डी लेआउट

34      विजिनापुरा ताल(कोत्तुरू)        राजराजेश्वरी लेआउट

35      मुरगेशपल्या लेक        मुरगेशपल्या

36      परंगीपलया लेक         एचएसआर लेआउट

37      मेस्ट्रीपलया झील        मेस्ट्रीपलया मैदान

38      टिंबर यार्ड झील          टिंबर यार्ड लेआउट

39      गंगोदनाहल्ली लेक      गंगोदनाहल्ली बस्ती

40      विजय नगर कॉर्ड रोड झील      विजय नगर

41      उदरापल्या झील         राजाजीनगर औद्योगिक क्षेत्र

42      सानेगुरूवन हल्ली       शिवनहल्ली खेल का मैदान

43      कुरूबरहल्ली झील      बसवेश्वर नगर

 

 

 

रविवार, 10 मार्च 2024

To save ganga Yamuna small rivers to be saved

 

छोटी नदियों की सेहत सुधारे बगैर  नहीं बचेंगी  गंगा- यमुना

पंकज चतुर्वेदी


 

गंगा देश की संस्कृति की पहचान और मानव विकास की सहयात्री है । इसके संरक्षण के अभी तक किये गए सभी प्रयास अमूर्त ही रहे हैं । 2014 में सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने गंगा को निर्मल और अविरल बनाने को खासा महत्व दिया था और इसके लिए नमामि गंगे योजना की घोषणा की थी. योजना पर काम अक्टूबर 2016 में आए आदेश के बाद से शुरु हो सका था। वित्त वर्ष 2014-15 से लेकर 2020-2021 तक इस नमामि गंगे योजना के तहत पहले 20 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का रोडमैप तैयार किया गया था जो कि बाद में बढ़ाकर 30 हजार करोड़ रुपए कर दिया गया. वहीं 2022-23 में योजना मद में 2047 करोड़ आवंटित किए गए थे. वित्त वर्ष 2023-24 में 4000 करोड़ रूपए का बजट अनुमान रखा गया हालांकि आवंटन केवल 2400 करोड़ रूपए का ही किया गया. वहीं वित्तीय वर्ष 2024-25 में नमामि गंगे प्रोजेक्ट के फेज दो के लिए 3500 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है। यदि यमुना को लें तो उसमें भी बीते चार दशकों में इतने हजार करोड़ बह गए कि नई यमुना खोद दी  जाती । यह हमारा तंत्र समझ नहीं रहा कि हर बड़ी नदी की शिराएं उनसे जुड़ी छोटी नदियां होती हैं और बढ़ते शहरीकरण ने इन नदियों को समेटना और शून्य करना शुरू आकर दिया है । हम नदियों को सुंदर बनाने का विचार करते हैं लेकिन स्वस्थ बनाने के लिए अनिवार्य उनकी सखा-सहेलियों को गप्प कर रहे हैं ।

वैसे तो हर दिन समाज, देश और धरती के लिए बहुत जरुरी है , लेकिन छोटी  नदियों  पर ध्यान देना अधिक  जरुरी है . गंगा, यमुना जैसी बड़ी नदियों को स्वच्छ रखने पर तो बहुत काम हो रहा है , पर ये नदियाँ बड़ी इसी लिए बनती है  क्योंकि इनमें बहुत सी छोटी नदियाँ आ कर मिलती हैं, यदि छोटी नदियों में पानी कम होगा तो बड़ी नदी भी सूखी रहेंगी , यदि छोटी नदी में गंदगी या प्रदूषण होगा तो वह बड़ी नदी को प्रभावित करेगा .

छोटी नदियां   अक्सर गाँव, कस्बों में बहुत कम दूरी में बहती हैं.  कई बार एक ही नदी के अलग अलग गाँव में अलग-अलग नाम होते हैं . बहुत नदियों का तो रिकार्ड भी नहीं है . हमारे लोक समाज  और प्राचीन मान्यता नदियों   और जल को ले कर बहुत अलग थी , बड़ी नदियों से दूर घर-बस्ती हो . बड़ी नदी को अविरल बहने दिया जाए . कोई बड़ा पर्व या त्यौहार हो तो बड़ी नदी के किनारे एकत्र हों, स्नान करें और पूजा करें . छोटी नदी , या तालाब या झील के आसपास बस्ती . यह जल संरचना दैनिक कार्य के लिए जैसे स्नान, कपडे धोने, मवेशी आदि के लिए . पीने की पानी के लिए घर- आँगन, मोहल्ले में कुआँ , जितना जल चाहिए, श्रम  करिए , उतना ही रस्सी से खिंच कर निकालिए . अब यदि बड़ी नदी बहती रहेगी तो छोटी नदी या तालाब में जल बना रहेगा , यदि तालाब और छोटी नदी में  पर्याप्त जल है तो घर के कुएं में कभी जल की कमी नहीं होगी .

एक मोटा अनुमान है कि आज भी देश में कोई 12 हज़ार छोटी ऐसी नदियाँ हैं , जो उपेक्षित है , उनके अस्तित्व पर खतरा है . उन्नीसवीं सदी तक बिहार(आज के झारखंड को मिला कर ) कोई छः हज़ार  नदियाँ हिमालय से उतर कर आती थी, आज  इनमें से महज 400  से 600 का ही अस्तित्व बचा है . मधुबनी, सुपौल  में बहने वाली  तिलयुगा नदी कभी  कौसी से भी विशाल हुआ करती  थी, आज उसकी जल धरा सिमट कर  कोसी की सहायक नदी के रूप में रह गई है . सीतामढ़ी की लखनदेई  नदी को तो सरकारी इमारतें ही चाट गई. नदियों के इस तरह रूठने और उससे बाढ़ और सुखाड के दर्द साथ –साथ चलने की कहानी  देश के हर जिले और कसबे की है . लोग पानी के लिए पाताल का सीना चीर रहे हैं और निराशा हाथ लगती है , उन्हें यह समझने में दिक्कत हो रही हैं कि धरती की कोख में जल भण्डार  तभी लबा-लब रहता है, जब पास बहने वाली नदिया हंसती खेलती हो .

अंधाधुंध रेत खनन , जमीन  पर कब्जा, नदी के बाढ़ क्षेत्र में स्थाई निर्माण , ही  छोटी नदी के सबसे बड़े दुश्मन हैं – दुर्भाग्य से जिला स्तर पर कई छोटी नदियों का राजस्व रिकार्ड नहीं हैं, उनको  शातिर तरीके से  नाला बता दिया जाता है , जिस साहबी  नदी पर  शहर बसाने से हर साल गुरुग्राम डूबता है, उसका बहुत सा रिकार्ड ही नहीं हैं , झारखण्ड- बिहार में बीते चालीस साल के दौरान हज़ार से ज्यादा छोटी नदी गुम हो गई , हम यमुना में पैसा लगाते हैं लेकिन उसमें जहर ला रही हिंडन, काली को और गंदा करते हैं – कुल  मिला कर यह  नल खुला छोड़ कर पोंछा लगाने का श्रम करना जैसा है .

छोटी नदी केवल पानी के आवागमन का साधन नहीं होती . उसके चारों  तरफ समाज भी होता है और पर्यावरण भी . नदी किनारे  किसान भी है और कुम्हार भी, मछुआरा भी और  धीमर भी – नदी की सेहत बिगड़ी तो तालाब से ले कर कुएं तक में जल का संकट हुआ – सो परोक्ष और अपरोक्ष समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं है  जो  इससे प्रभावित नहीं हुआ हो . नदी- तालाब से जुड़ कर पेट पालने वालों का जब जल-निधियों से आसरा ख़त्म हुआ तो  मजबूरन उन्हें पलायन करना पड़ा. इससे एक तरफ  जल निधियां दूषित हुईं तो  दूसरी तरफ बेलगाम शहरीकरण के चलते महा नगर अरबन स्लम में बदल रहे हैं . स्वास्थ्य , परिवहन और शिक्षा के संसाधन महानगरों में केन्द्रित होने के कारण ग्रामीण सामाजिक- आर्थिक संतुलन भी इससे गड़बड़ा  रहा है . जाहिर है कि नदी- जीवी लोगों की निराशा ने समूचे समाज को समस्याओं की नई सौगात दी है .

सबसे पहले छोटी नदियों का एक सर्वे और उसके जल तन्त्र  का दस्तावेजीकरण हो , फिर छोटी नदियों कि अविरलता सुनिश्चित हो, फिर उससे रेत उत्खनन और  अतिक्रमण को मानव- द्रोह अर्थात हत्या की तरह गंभीर अपराध माना जाए .  नदी के सीधे इस्तेमाल से बचें . नदी में पानी रहेगा तो  तालाब, जोहड़,  सम्रद्ध रहेंगे  और इससे कुएं या भू जल . स्थानीय इस्तेमाल के लिए वर्षा जल को पारम्परिक तरीके जीला कर एक एक बूँद एकत्र किया जाए , नदी के किनारे  कीटनाशक के इस्तेमाल, साबुन  और शौच से परहेज के लिए जन जागरूकता और वैकल्पिक  तंत्र विकसित हो . सबसे बड़ी बात नदी को सहेजने का जिमा स्थानीय समाज, खासकर उससे सीधे जुड़े लोगों को दिया जाए , जैसे कि  मद्रास से पुदुचेरी तक ऐरी के रखरखाव के जल- पंचायत हैं .

बुंदेलखंड तो प्यास , पलायन के लिए बदनाम है . यहाँ के प्रमुख शहर छतरपुर में एक नदी की सेहत बिगड़ने से वेनिस की तरह जल से लबालब रहने वाला शहर भी प्यास हो गया . महाराजा छत्रसाल ने यह शहर बसाया था . यहाँ नदी के उतार चढाव की गुंजाईश कम ही है . तीन बरसाती नाले देखें– गठेवरा नाला, सटई रोड के नाला और चंदरपुरा गांव के बरसाती नाला  । इन तीनों का पानी अलग–अलग रास्तों से डेरा पहाड़ी पर आता और यह जल–धारा  एक नदी बन जाती ।  चूंकि इसमें खूब सिंघाड़े होते तो लोगों ने इसका नाम सिंघाड़ी नदी रख दिया । छतरपुर कभी वेनिस  तरह था– हर तरफ तालाब और उसके किनारे बस्तियां और इन तालाबों से पानी का लेन–देन चलता था -सिंघाड़ी नदी का । बरसात की हर बूंद तीन नालों में आती और फिर एकाकार हो कर सिंघाडी नदी के रूप में प्रवाहित होती । इस नदी से  तालाब जुड़े हुए थे, जो एक तो पानी को बहता हुआ निर्मल रखते, दूसरा यदि तालाब भर जाए तो उसका पानी नदी के जरिये  से दूसरे तालाबों में बह जाता । सिंघाड़ी नदी से शहर का संकट मोचन तालाब और ग्वाल मगरा तालाब भी भरता था । इन तालाबों से प्रताप सागर और किशोर सागर तथा रानी तलैया भी नालों और ओनों (तालाब में ज्यादा जल होने पर जिस रास्ते से बाहर बहता है, उसे ओना कहते हैं ।)से होकर जुड़े थे ।

अभी दो दशक पहले तक संकट मोचन पहाड़िया के पास सिंघाड़ी नदी चोड़े पाट के साथ सालभर बहती थी । उसके किनारे घने जंगल थे , जिनमे हिरन, खरगोश , अजगर , तेंदुआ लोमड़ी जैसे  पर्याप्त जानवर भी थे . नदी किनारे श्मसान  घाट हुआ करता था .  कई खेत इससे सींचे जाते और कुछ लोग  ईंट के भट्टे लगाते थे । 

बीते दो दशक में ही नदी पर घाट, पुलिया  और सौन्द्रयीकरण के नाम पर जम कर सीमेंट तो लगाया गया  लेकिन उसमें पानी की आवक की रास्ते  बंद कर दिए गए. आज नदी के नाम पर नाला रह गया है । इसकी धारा  पूरी तरह सूख गई है । जहाँ कभी पानी था, अब वहां बालू-रेत उत्खनन वालों ने बहाव मार्ग को उबड़-खाबड़ और  दलदली बना दिया .  छतरपुर शहरी सीमा में  एक तो जगह जगह जमीन के लोभ में जो कब्जे हुए उससे नदी का तालाब से जोड़-घटाव की रास्तों पर विराम लग गया , फिर संकट मोचन पहाड़िया पर अब हरियाली की जगह कच्चे-पक्के मकान दिखने लगे , कभी बरसात की हर बूंद इस पहाड  पर रूकती थी और धीरे-धीरे रिस कर नदी को  पोषित करती थी . आज  यहाँ बन गए हजारों मकानों का अमल-मूत्र और गंदा पानी सीधे सिंघाड़ी नदी में गिर कर उसे नाला बना  रहा है  .

जब यह नदी अपने पूरे स्वरूप में थी तो  छतरपुर शहर से निकल कर  कोई 22 किलोमीटर का सफर तय कर हमा, पिड़पा, कलानी गांव होते हुए उर्मिल नदी में मिल जाती थी । उर्मिल भी यमुना तंत्र की नदी है । नदी जिंदा थी तो शहर के सभी तालाब, कुएं भी लबालब रहते थे । दो दशक पहले तक यह नदी 12 महीने कल कल बहती रहती थी । इसमें पानी रहता था । शहर के सभी तालाबों को भरने में कभी सिंघाड़ी नदी की बहुत बड़ी भूमिका होती थी. तालाबों के कारण कुओं में अच्छा पानी रहता था , लेकिन आज वह खुद अपना ही असतित्व से जूझ रही है ।

नदी की मुख्य धारा के मार्ग में अतिक्रमण होता जा रहा है । नदी के कछार ही नहीं प्रवाह मार्ग में ही लोगों ने मकान बना लिए हैं । कई जगह धारा को तोड़ दिया गया है । पूरे नदी में कहीं भी एक बूंद पानी नहीं है । नदी के मार्ग में जो छोटे–छोटे रिपटा ओर बंधान बने थे वे भी खत्म हो गए हैं । पूरी नदी एक पगडंडी और ऊबड़–खाबड़ मैदान के रूप में तब्दील होकर रह गई है । जबकि दो दशक पहले तक इस नदी में हर समय पानी रहता था । नदी के घाट पर शहर के कई लोग हर दिन बड़ी संख्या में नहाने जाते थे । यहां पर पहुंचकर लोग योग–व्यायाम करते थे, कुश्ती लडऩे के लिए यहां पर अखाड़ा भी था । भूतेश्वर भगवान का मंदिर भी यहां प्राचीन समय से है । यह पूरा क्षेत्र हरे–भरे पेड़–पौधों और प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित था, लेकिन समय के साथ–साथ यहां का नैसर्गिक सौंदर्य नष्ट होता चला गया ।  नदी अब त्रासदी बन गई है । आज नदी के आसपास रहने वाले लोग  मानसून के दिनों में भी एक से दो किलोमीटर दूर से  सार्वजानिक हैण्ड पंप  से  पानी लाने को मजबूर है, जब-तब जल संकट का हल्ला होता है तो या तो  भूजल उलीचने के लिए  पम्प रोप जाते है या फिर मुहल्लों में पाइप बिछाए जाने लगते है, लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं होता कि जमीन की कोख या पाइप में पानी कहाँ से आएगा ?

जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम अब सामने आ रहे हैं . ऐसे में  छोटी नदियाँ धरती  के तापमान को नियंत्रित रखने , मिटटी की नमी बनाए रखने और हरियाली के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं . नदिउओन के किनारे से अतिक्रमण हटाने, उसमें से  बालू-रेत उत्खनन को  नियंत्रित करने , नदी की गहराई के लिए उसकी समय समय पर सफाई से इन नदियों को बचाया जा सकता है , सबसे बड़ी बात समाज यदि इन नदियों को अपना मान कर सहेजने लगे तो इससे  समाज का ही भविष्य उज्जवल होगा .

 

River crisis deepens due to silt

 

गाद से गहराता नदियों का संकट

पंकज चतुर्वेदी





पिछले महीने सम्पन्न सतलुज- यमुना जोड़ की बैठक में पंजाब सरकार ने स्पष्ट किया कि उनके राज्य में सतलुज नदी अभी से सूख रही है । दिल्ली में यमुना हो या फिर गाजियाबाद-शामली में हिंडन, सभ की दर सिकुड़ रही है । अभी दो महीने पहले बरसात में तबाही मचाने वाली बिहार के गोपालगंज जिले से गुजरने वाली घोघारी, धमई व स्याही नदियों ने सूखने के लिए गर्मी का इंतजार नहीं किया ।  

गत 12 जुलाई-22  को सी-गंगा यानी सेंटर फार गंगा रिवर बेसिन मेनेजमेंट एंड स्टडीज ने जल शक्ति मंत्रालय को सौंपी गई रिपोर्ट बताती है कि उप्र, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड की 65 नदियां बढ़ते गाद से हाँफ रही हैं. हालांकि गाद नदियों के प्रवाह का नैसर्गिक उत्पाद है और देश के कई बड़े तीर्थ और प्राचीन शहर इसी गाद पर विकसित हुए है , लेकिन जब नदी के साथ बह कर आई गाद को जब किनारों पर माकूल जगह नहीं मिलती तो वह  जल-धारा  के मार्ग में व्यवधान बन जाता है . गाद नदी के प्रवाह मार्ग में जमती रहती है और इसे नदियों उथली होती है , अकेले उत्तरप्रदेश में ऐसी  36 नदियाँ  हैं जिनकी कोख में इतनी गाद है कि न केवल उनकी गति मंथर हो गिया बल्कि कुछ ने अपना मार्ग बदला और उनका पाट संकरा हो गया, रही बची कसार अंधाधुंध बालू उत्खनन ने पूरी कर दी . इनमें से कई का अस्त्तत्व खतरे में है .

उत्तर प्रदेश के कानपुर से  बिठूर तक , उन्नाव के बक्सर – शुक्लागंज तक  गंगा की धार बारिश के बाद घाटों से दूर हो जाती है. वाराणसी, मिर्जापुर और बलिया में गंगा नदी के बीच  टापू बन जाते हो. बनारस के पक्के घाट अंदर से मिट्टी खिसकने से दरकने लगे हो. गाजीपुर, मिर्जापुर, चंदौली में नदी का  प्रवाह कई छोटी-छोटी धाराओं में विभक्त हो जाता है .

 

प्रयाग का खिसकता संगम

प्रयागराज के फाफामऊ, दारागंज, संगम, छतनाग और लीलापुर के पास टापू बनते हो. संगम के आसपास गंगा नदी में चार मिलीमीटर की दर से हर साल गाद जमा हो रहा है। पिछले कई सालों से यह सिलसिला जारी है। गंगा की गहराई कम होने से उसकी धारा में भी परिवर्तन हो रहा है। आगे आने वाले दिनों में गंगा नदी की धारा और तेजी से परिवर्तित होगी, क्योंकि जब नदी की गहराई कम हो जाएगी तो नदी का स्वाभाविक बहाव रुक जाएगा। ऐसे में बाढ़ का खतरा स्‍वाभाविक है।गंगा में प्राकृतिक और आबादी  दोनों ओर से गाद पहुंच रही है। तभी  गंगा का पाट छिछला होता जा रहा है। यह बात सरकारी रिकार्ड में हैं कि आज जहां पर संगम है, वहां यमुना की गहराई करीब 80 फीट है। वहीं, गंगा की गहराई इतनी कम है कि संगम के किनारे नदी में खड़ा होकर कोई भी स्नान कर सकता है, जबकि सहायक नदी यमुना की गहराई कम होनी चाहिए। यमुना की अधिक गहराई के चलते असंतुलन उत्पन्न हो रहा है। तभी संगम पूरब की तरफ बढ़ रहा है। आज संगम का झुकाव अकबर के किले  तक खिसक चुका है . कभी संगम सरस्वती घाट के पास हुआ करता था, लेकिन गंगा की गहराई लगातार कम होने से संगम पूरब की तरफ खिसकते हुए किला के पास आ गया है। यदि यही क्रम जारी रहा तो आने वाले दिनों में संगम और भी पूरब की तरफ खिसक जाएगा।

 

आज़ादी के बाद तक गढ़ मुक्तेश्वर  से कोल्कता तक जहाज चला करते थे . गाद के चलते बीते पांच दशक में यहाँ गंगा की धारा  आठ किमी दूर खिसक गई है. बिजनौर के गंगा बैराज पर गाद की आठ मीटर मोटी परत है. आगरा व मथुरा में यमुना गाद से भर गई है. आजमगढ़ में  घाघरा और तमसा के बीच गाद के कारण कई मीटर ऊँचे टापू बन गए हैं घाघरा, कर्मनाशा, बेसो, मंगई, चंद्रप्रभा, गरई, तमसा, वरुणा और असि नदियां गाद  से बेहाल हैं.

बिहार में तो उथली हो रही नदी में गंगा सहित 29 नदियों का दर्द है .जो नदियाँ तेज बहाव  से    ही हैं , उनके साथ आये मलवे से भूमि कटाव भी हो रहा है, कई एक जगह नदी के बीच टापू बन गए हैं . अकेले फरक्का से होकर गंगा नदी पर हर साल 73.6 करोड़ टन गाद आती है जिसमें से 32.8 करोड़ टन गाद इस बराज के प्रतिप्रवाह में ठहर जाती है। झारखंड के साहिबगंज में गंगा, अपने पारंपरिक घाट से पांच किमी दूर चली गई है.  19वीं सदी में बिहार में (जिसमें आज का झारखण्ड भी है ) 6000 से अधिक नदियां बहती थीं, जो आज सिमट कर  600 रह गई है. बिहार का शोक कहलाने वाली कई नदियाँ जैसे गंडक, कोसी, बागमति, कमला, बलान, आदि नेपाल के उंचाई वाले क्षेत्रों से तेजी से लुढक कर राज्य के समतल पर लपकती हैं और इन सभी नदियों के दोनों किनारों पर बाढ़ से बचने के लिए हज़ारों किलोमीटर के पक्के तटबंध हैं . जाहिर है कि पहाड़ झड़ने से उपजा गाद  किनारे जगह पाता और नदियों की तलहटी में बैठ कर उनकी धीमी मौत की इबादत लिखती हैं. झारखंड के साहिबगंज में फरक्का बराज गंगा में गाद का बड़ा कारक है और इसे नदी प्रवाह कई   ठप्प है. साहिबगंज के रामपुर के पास कोसी का गंगा से मिलन होता है . कोसी वैसे ही अपने साथ ढेर मलवा लाती है और उसके आगे ही फरक्का बराज आ जाता है. तभी यहाँ गंगा गाद से सुस्त हो जाती है. राजमहल पहाड़ी पर धड़üे से चल रहे सैकड़ों खदानें और गंगा किनारे पत्थरों गैरकानूनी भंडारण करने से गाद से उथलेपन की स्थिति उत्पन्न हुई है.

विदित हो सन 2016 में केंद्र सरकार द्वारा गठित चितले कमेटी ने साफ कहा था कि नदी में बढती गाद गाद का एकमात्र निराकरण यही है कि  नदी के पानी को फैलने का पर्याप्त स्थान मिले. गाद को बहने का रास्ता मिलना चाहिए. तटबंध और नदी के बहाव क्षेत्रा में अतिक्रमण न हो और अत्यधिक गाद वाली नदियों के संगम क्षेत्र से नियमित गाद निकालने का काम हो. जाहिर है कि ये सिफारिशे किसी ठंडे बस्ते में बंद हो गई और अब नदियों पर रिवर फ्रंट बनाये जा रहे हैं जो न केवल नदी की चौड़ी को कम अक्र्ते हैं, बल्कि जल विस्तार को सीमेंट कंक्रीट से रोक भी देते हैं . परिणाम सामने है थोड़ी सी बरसात में इस साल गुजरात में जम कर शहर- खेतों में पानी भरा

गाद के कारण नदियों पर  खड़े हो रहे संकट से उत्तरांचल भी अछूता नहीं हैं . यहाँ तीन नदियाँ गाद से बेहाल हैं . गंगा को बढ़ती गाद ने बहुत नुकसान पहुंचाया है. हिमालय जैसे युवा व जिंदा पहाड़ से निकलने वाली  गंगा के साथ  गाद आना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. लेकिन जिस तरह उत्तराखंड में नदी प्रवाह क्षेत्र में बाँध, पनबिजली परियोजनाएं और सड़कें बनीं, उससे एक तो गाद  की मात्रा बढ़ी, दूसरा उसका प्रवाह-मार्ग भी अवरुद्ध हुआ . गाद के चलते ही इस राज्य के कई सौ झरने और सरिताएं  बंद हो गए  और इनसे कई नदियों का उद्गम ही खतरे में है .

 

गौर करना होगा कि इस बार मानसून के बिदा होते ही दक्षिण बिहार की अधिकांश नदियाँ असमय सूखने लगीं . यह सच है कि झारखण्ड से सटे बिहार के इलाकों में इस साल बरसात  कुछ कम हुई लेकिन सदियों से सदा नीरा रहीं नदियों का इस तरह  बेपानी हो जाना साधारण घटना कहा नहीं जा सकता. बांका में चिरुगेरुआ , भागलपुर में खल्खालिया , गया में जमुने और मोरहर  , नालंदा में नोनाई और मोहाने ,पूरी तरह सूख गई, , जबकि सीतामढ़ी की मोराहा हो या कटिहार की कारी कोसी व् दरभंगा में जीवछ, गोपाल गंज के झरही – सभी का जल स्तर  तेजी से घट रहा है . थोडी सी बरसात में उफन जाना और  बरसात थमते ही तलहटी दिखने लगना, गोबर पट्टी कहलाने वाले मैदानी भारत की स्थाई त्रासदी बन गया है. यहां बाढ़ और सुखाड़ एकसाथ डेरा जमाते हैं. बारीकी से देखे तो पायेंगे कि असल में गाद एकत्र होने के कारण नदियों की जल ग्राह क्षमता कम हो रही है , बरसात होते ही उफान जाना और फिर सूख जाने का असल कारण तो नदियों में बढ़ रहा मलवा और गाद है .

यह दुर्भाग्य है कि विकास के नाम पर नदियों के कछार  को सर्वाधिक हडपा गया . असल में कछार नदी का विस्तार होता , ताकि  अधिकतम भी बरसात हो तो नदी के दोनों किनारों पर पानी विस्तार के साथ अविरल बहता रहे. आमतौर पर कचार में केवल मानसून में जल होता है, बाकी समय वहां की नर्म, नम भूमि पर नदी के साथ बह कर आये लावन, जीवाणु का डेरा होता है . फले  इस जमीन पर मौसमी फसल-सब्जी लगाए जाते थे और शायद तभी ऐसे किसानों को “काछी कहा  गया—कछार का रखवाला. काछी, को फ़र्ज़ था कि वह कछार में जमा गाद को आसपास के किसानों को खेत में डालने के लिए दे , जोकि शानदार खाद हुआ करती थी . भूमि के लालच में कछार और उसकी गाद भी लुप्त हो गए और काछी भी और कछार में  आसरा पाने वाले गाद को मज़बूरी में नदी के उदर में ही डेरा ज़माना पड़ता है

 

समझना होगा कि गाद हर एक नदी का स्वाभाविक उत्पाद है  लेकिन  उसका भली भांति प्रबंधन अनिवार्य है . गाद जैसे ही नदी के बीच जमती है तो नदी का प्रवाह बदल जाता है इससे नदी कई धाराओं में बंटे जाती है , किनारें कटते हैं . यदि गाद किनारे से बाहर नहीं फैली, तो नदी के मैदान का उपजाऊपन और ऊंचाई, दोनों घटने लग जाते हैं । ऊंचाई घटने से किनारों पर बाढ़ का दुष्प्रभाव अधिक होता है. 


 

चितले  कमिटी की रिपोर्ट का सारांश 

  • एम.ए. चितले की अध्यक्षता में एक्सपर्ट कमिटी ने मई, 2017 में ‘भीमगौड़ा (उत्तराखंड) से फरक्का (पश्चिम बंगाल) तक गंगा नदी की डीसिल्टेशन (गाद निकालने के काम) के लिए दिशानिर्देशों की तैयारी’ पर अपनी रिपोर्ट जल संसाधननदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय को सौंपी।
     
  • कमिटी के संदर्भ की शर्तों में निम्नलिखित शामिल हैं: (i) गंगा नदी की इकोलॉजी और प्रवाह के लिए डीसिल्टेशन की जरूरत साबित करनाऔर (ii) गंगा नदी के डीसिल्टेशन के लिए दिशानिर्देश तैयार करना। कमिटी के मुख्य निष्कर्ष और सुझाव निम्नलिखित हैं:
     
  • डीसिल्टेशन और इकोलॉजी: कमिटी ने टिप्पणी की कि नदियों में सिल्टेशन (गाद जमा होना) एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। फिर भी भारी वर्षाजंगलों के कटानजलाशयों के जल में संरचनागत हस्तक्षेप और बाड़ बनाने से नदियों में सिल्टेशन बढ़ता है। इसका नतीजा यह होता है कि नदियों की बहाव क्षमता कम होती है और बाढ़ की स्थिति पैदा होती है। साथ ही नदियों में जल भंडारण के उपायों को भी नुकसान पहुंचता है। जब नदी को चौड़ा या गहरा किए बिना उसकी प्राकृतिक क्षमता को बरकरार रखने के लिए महीन गाद और तलछट को निकाला जाता है तो उस प्रक्रिया को डीसिल्टेशन कहा जाता है। डिसिल्टेशन से नदी के हाइड्रॉलिक प्रदर्शन में सुधार होता है। फिर भी अंधाधुंध गाद निकालने से नदी की इकोलॉजी और प्रवाह पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
     
  • डीसिल्टिंग के सिद्धांत: कमिटी ने नदियों में डीसिल्टिंग की योजना बनाने और उसे अमल में लाने के सिद्धांतों को प्रस्तावित किया। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:
     
  • नदियों में गाद के प्रवाह को कम करने के लिए कृषि की बेहतर पद्धतियों और नदी तट के सुरक्षा संबंधी कार्यों/कटाव रोधी कार्यों के साथ यह भी जरूरी है कि कैचमेंट क्षेत्र का प्रबंधन और वॉटरशेड विकास का कार्य व्यापक तरीके से किया जाए;
     
  • कटावप्रवाह और तलछट का जमाव नदी में प्राकृतिक रूप से होता है। ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि बांध/बैराज से नदी में गाद का बहाव कुछ प्रकार हो कि नदी में तलछट का संतुलन बना रहे;

 

  • ड्रेजिंग (डीसिल्टिंग) से सामान्य तौर पर बचना चाहिए। डीसिल्टिंग की मात्रा डिपोजीशन की दर से अधिक नहीं होनी चाहिए। डिपोजीशन वह प्रक्रिया है जिसमें गोला पत्थरकंकड़ और रेत नदी के तल में जमा होते हैं। यानी हर वर्ष इन वस्तुओं की नदी तल में जमा होने वाली मात्रा को इनके नदी के वेग के साथ बहने की मात्रा से ज्यादा होना चाहिए;
     
  • नदियों के घुमाव के लिए पर्याप्त कॉरिडोर दिए जाने चाहिए जिससे उनके प्रवाह में बाधा न पड़ेऔर
     
  • नदी के भीतर तलछट को जमा होने से रोका जाना चाहिएऔर इसकी बजाय भूमि पर इसे जमा किया जाना चाहिए।
     
  • डीसिल्टेशन के काम के लिए दिशानिर्देश: डीसिल्टेशन के बेहतर आकलन और प्रबंधन के लिए कमिटी ने निम्नलिखित उपाय सुझाए हैं:
     
  • डीसिल्टेशन के लिए वार्षिक तलछट बजट बनाने के अतिरिक्त तलछट के बहाव (नदी क्षेत्र से तलछट के बहाव) की प्रक्रिया का अध्ययन किया जाना चाहिएऔर
     
  • तलछट बजट को तैयार करने और डीसिल्टिंग की जरूरत को पुष्टि देने के लिए बाढ़ के मार्ग का अध्ययन करने का काम एक तकनीकी संस्थान को सौंपा जाना चाहिए।
     
  • गंगा नदी में डीसिल्टिंग का काम: गंगा नदी के संबंध में कमिटी ने जिन दिशानिर्देशों का सुझाव दिया हैउनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :
     
  • बाढ़ के मैदानों और नदी किनारे की झीलों के लिए नदियों के आस-पास के क्षेत्रों को खाली रखा जाना चाहिए जिससे बाढ़ की तीव्रता को कम किया जा सके। बाढ़ के मैदानों में अतिक्रमण और झीलों के पुनरुद्धार (रीक्लेमेशन) से बचना चाहिए। इसकी बजाय आस-पास की झीलों को डीसिल्ट किया जाना चाहिए ताकि उनकी भंडारण क्षमता को बढ़ाया जा सके।
     
  • जहां निर्माण कार्यों (जैसे बैराज/पुल) की वजह से बड़े पैमाने पर सिल्टेशन हुआ हैवहां नदी को गहरा करने के लिए प्री सिलेक्टेड चैनल के साथ डीसिल्टेशन किया जाना चाहिए। इससे नदी के प्रवाह को मार्ग मिल सकेगा। नदी तल से निकाली गई गाद को किसी दूसरे स्थान पर डंप किया जा सकता है।

 

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