My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

Homeless in Delhi dying due to cold

 

                रहने को घर नहीं है,सारा जहां हमारा !
                        पंकज चतुर्वेदी



राजधानी दिल्ली इन दिनों कड़ाके की सर्दी से ठिठुर रही है । बारिश होने के बाद तो हवा हड्डियों पर चोट कर रही है । यह सुनना शायद सभी समाज के लिए शर्मनाक होगा कि सत्ता के केंद्र इस महानगर में कई लोग जाड़े के कारण दम तोड़ चुके हैं । खुद दिल्ली सरकार आंकड़़ों को स्वीकार कर रही है कि पिछले दो सालों की तुलना में इस बार ठंड़ से मरने वालों की संख्या अधिक है । विभिन्न सरकारी एजेंसियों से प्राप्त आंकड़़ों के अनुसार एक से 22 जनवरी के बीच दिल्ली में तकरीबन 180 लोग जाड़े के चलते अपनी जान से हाथ धो  बैठे । इनमें से 80  फीसद लोग वे थे जिनके सिर पर कोई साया नहीं अर्थात वे बेघर थे और उनके शव लावारिस जान आकर जलाए गए । मरने वालों में 30 प्रतिशत वे थे जो पहले से बीमार थे और यह ठंड  झेल नहीं पाए



सेंटर फॉर हॉलिस्टिक डे़वलपमेंट (सीएचड़ी) से मिले आंकड़ों के अनुसार एक से 22 जनवरी के बीच अकेले दिल्ली में हुई इतनी बड़़ी संख्या में बेघरों की मौत सरकार के “हर एक को पक्का घर” के दावों की पोल खोलती है । विदित हो सीएचड़ी और दिल्ली सरकार की स्वायत्त संस्था दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड़ (डु़सिब)  साथ मिलकर बेघरों की मौतों का आंकड़़ा एकत्रित करते हैं। इसमें दिल्ली पुलिस व अन्य निजी एजेंसियां विभिन्न अस्पतालों के पोस्टमार्टम हाउस में रखे गए शवों की शिनाख्त के जरिए पहचान करती है .

कितना दुखद है कि सरकारी उदासीनता के चलते संसद भवन से कुछ ही दूरी पर मौसम की मार से इंसान की जिंदगी ठंड़ी पड़़ जा रही है। आश्रय गृहों का हाल यह है कि सीलन‚ बदबू‚ पानी की कमी जैसी बुनियादी सुविधाएं बेहाल हैं। ऐसे में आसमान के नीचे जिंदगी असमय मौत का शिकार हो रही है। इसके लिए सरकार का संवेदनशील होना बहुत जरूरी है।

सत्ता के केंद्र लुटियनं दिल्ली में ही गोल मार्केट‚ बाबा खड़क सिंह मार्ग‚ बंगला साहिब‚ मिंटो रोड आदि इलाकों में खुले में रात बिताने वाले दिख जाते हैं । इसके अलावा  कड़कड़डूमा‚ आईटीओ‚ यमुना बैंक‚ लक्ष्मी नगर‚ विवेक विहार समेत कई ऐसे इलाके हैं‚ जहां बेघर फुटपाथ पर सोते और अलाव के सहारे रात गुजारते दिख जाएंगे। चिकित्सक बताते हैं कि यदि पेट खाली हो तो ठंड की चोट जानलेवा हो जाती है ।

दिल्ली सरकार का दावा है कि महानगर में स्थापित रैन बसेरों में हर रात बीस हजार लोग आश्रय पा रहे हैं । इनमें स्थाई भवन केवल 82 हैं । पोरता केबिन वाले 103 और अस्थाई टेंट वाले 134  रैन बसेरे सरकारी रिकार्ड में है। इसके बावजूद  आइएसबीटी, उसके पास निगम बोध घाट,  हनुमान मंदिर, कनात प्लेस से ले कर मूलचंद, आईआईटी और  धौलकुआँ के फली ओवर के नीचे हजारों लोग रात काटते मिल जाएंगे । यह कड़वा सच है कि इन रैनबसेरों में मूल भूत सुविधाएं तक नहीं हैं। खासकर औरतों के लिए  शौचालय, कपडे बदलने की जगह  या अपना सामन सुरक्षित रखने की कोई व्यवस्था है नहीं । इन आश्रय घरों में न कोई सुरक्षा की व्यवस्था है , यही नहीं, बहुत से नशेड़ी और असामाजिक तत्व इन पर कब्जा किए हैं,। यहाँ के कंबल- बिस्तर बदबू मारते हैं । दरियाँ _ चादरें सीलन भारी और चूहों द्वारा कुतरी हुई होती हैं । ऐसे स्थान पर रात बिताने वालों में   सांस लेने में तकलीफ होती है‚ सूखी खांसी ‚ सीने में दर्द‚ हाथ पैर सुन्न होने जैसी तकलीफ तो आम शुमार है। सबसे दर्दनाक हालात एम्स व सफदरजंग अस्पताल के पास के हैं, वहां बीमार व उनके साथ आए तिमारदारों की संख्या हजारों में है, जबकि दो रैनबसेरों की क्षमता बामुष्किल 150 है । लोग सारी रात भीगते दिखते हैं ओस व कोहरे में और नए बीमार अस्पताल की शरण में चले जाते हैं। मीना बाजार व जामा मस्जिद के रैन बसेरों में सात से आठ सौ लोगों के सोने की जगह है ।  दिल्ली की त्रासदी है कि यहाँ के रैनबसेरे गैर सरकारी संगठनों के बदौलत हैं और वहाँ काम करने वाली कर्मचारी बहुत मामूली वेतन पाते हैं। सरकारी प्रश्रय वाले संगठनों को ये  रैन बसेरे बाँट दिए जाते हैं और फिर कोई उनकी सुध लेता नहीं ।

एक तो कड़ाके का जादा, ऊपर से न ओढ़ने बिछाने को पर्याप्त  साधन, न ही पौष्टिक भोजन,  न्यूनतम स्वास्थ्य सेवा की तो बात ही क्या की जाए । अनुमान है कि दिल्ली  और उससे सटे यूपी-हरियाणा के जिले, जिन्हें एन सी आर कहा जाता है , कोई दो लाख लोग बेघर हैं । हाल ही में गाजियाबाद में तो प्रशासन ने आदेश दिया है कि रैन बसेरों में रहने वालों की नियमित स्वास्थ्य जांच हो । दिल्ली के  सब्जी मंड़ी मोर्चरी के रिकार्ड में दर्ज है कि वहाँ रखे  लावारिस शवों में साथ-आठ ऐसे हैं जो जाड़े और भूख की दोहरी मार के कारण  मारे गए ।

आखिर इतने सारे लोग क्यों आसमान तले सोते हैं ? यह सवाल करने वाले पुलिसवाले भी होते हैं । इस क्यों का जवाब होता है, पुरानी दिल्ली की पतली-संकरी गलियों में पुश्तों से थोक का व्यापार करने वाले कुशल व्यापारियों के पास । झुग्गी लेंगे तो कहीं दूर से आना होगा । फिर आने-जाने का खर्च बढ़ेगा, समय लगेगा और झुग्गी का किराया देना होगा सो अलग । राजधानी की सड़कों पर कई तरह के भारी ट्राफिक पर पाबंदी के बाद लाल किले के सामने फैले चांदनी चौक से पहाड़ गंज तक के सीताराम बाजार और उससे आगे मुल्तानी ढ़ंाडा व चूना मंडी तक के थोक बाजार में सामान के आवागमन का जरिया मजदूरों के कंधे व रेहड़ी ही रह गए हैं । यह काम कभी देर रात होता है तो कभी अल्लसुबह । ऐसे में उन्हीं मजदूरों को काम मिलता है जो वहां तत्काल मिल जाएं । फिर यदि काम करने वाला दुकान का शटर बंद होने के बाद वहीं चबूतरे या फुटपाथ पर सोता हो तो बात ही क्या है ? मुफ्त का चौकीदार । अब सोने वाले को पैसा रखने की कोई सुरक्षित जगह तो है नहीे, यानि अपनी बचत भी सेठजी के पास  ही रखेगा । एक तो पूंजी जुट गई, साथ में मजदूर की जमानत भी हो गई । बहुत से लोग तो रैन बसेरे में इस लिए नहीं घुस पाते क्योंकि उनके पास आधार कार्ड नहीं होता और बगैर आधार के यहाँ जगह मिलती नहीं।  एक गैरसरकारी संगठन की सर्वे रिपोर्ट से पता चलता  है कि इन बेघरों में से 23.9 प्रतिशत लोग ठेला खींचते हैं व 19.8 की जीविका का साधन रिक्शा  है । इसके अलावा ये रंगाई-पुताई, कैटरिंग, सामान की ढुलाई, कूड़ा बीनने, निर्माण कार्य में मजदूरी जैसे काम करते हैं । कुछ बेहतरीन सुनार, बढ़ई भी है । इनमें भिखारियों की संख्या 0.25 भी नहीं थी । ये सभी सुदूर राज्यों से काम की तलाश  में यहां आए हुए है ।

आज जरूरत है ऐसी नीति की, जो लोकतंत्र में निहित मूलभूत अधिकारों में से एक ‘मकान’ के लिए शहरी परिपेक्ष्य में सोच सके । रैनबसेरों के अस्थाई तंबू या पोर्ट- केबिन के बनिस्पत हर एक को मकान की योजना ज्यादा कारगर होगी और इसके लिए जरूरी है कि हर एक बेघर का बाकायदा सर्वे हो कि कौन स्थाई तौर पर किसी स्थान पर बसने जा रहा है या फिर कुछ दिनों के लिए। रैनबसेरे भी मामूली शुल्क ले कर इंसानियत के मुताबिक न्यूनतम सुविधा के साथ ही हों ।

पंकज चतुर्वेदी

स्वतंत्र टिप्पणीकार

 

 

मंगलवार, 23 जनवरी 2024

Villages Will Not Survive Without Calf

 

             बगैर बछड़े के नहीं बचेगा देहात

                            पंकज चतुर्वेदी



पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के एक चित्र की  काफी प्रशंसा हुई जिसमें वे देशी नस्ल की गायों को चारा खिला रहे हैं । गंभीरता से देखें तो उस चित्र में सफेद गए के साथ काले रंग का एक बैल भी था।  बहुत दूरगामी संदेश छिपा है इस चित्र में – गाय  के साथ बैल भी महत्वपूर्ण है – धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक सशक्तता के लिए ।  दुर्भाग्य  है कि देश के कई राज्य इस दर्शन को नहीं समझ पा रहे हैं कि गौ-वंश संवर्धन  का साकार स्वरूप तभी संभव है जब दूध के लिए गाय  और कृषि कार्यों के लिए  बैल का इस्तेमाल हो। गए की  उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य जहां की अर्थ व्यवस्था या समृद्धि का मूल आधार खेती -किसानी है ; के वर्ष 2019 के सालाना बजट में एक अजब प्रावधान किया गया है- सरकारी स्तर पर ऐसी योजना लागू की जा रही ताकि गाय के बछड़े पैदा हो ही नहीं, बस बछिया ही हो। इसके लिए बजट में पचास करोड़ का प्रावधान रखा गया है ताकि ‘सेक्स सार्टेड सिमेंस’ के जरिये राज्य की देशी गायों का गर्भाधान करवा कर केवल बछिया पैदा होना सुनिश्चित किया जा सके।  इसके पीछे कारण बताया गया है कि इससे आवार पशुओं की समस्या से निजात मिलेगी। कैसी विडंबना है कि जिस देश में मंदिर के बाहर बैठे पाशाण नंदी को पूजने और चढौत के लिए लोग लंबी पंक्तियों में लगते हैं, वहां साक्षात नंदी का जन्म ही ना हो, इसके लिए सरकार भी वचनबद्ध हो रही है। हालांकि यह भारत में कोई सात साल पुरानी योजना है जिसके तहत गाय का गर्भाधान ऐसे सीरम से करवाया जाता है जिससे केवल मादा ही पैदा हो जो दूध दे सके, लेकिन इसे ज्यादा सफलता नहीं मिली है क्योंकि यह देशी गाय पर कारगर नहीं है। महज संकर गाय ही इस प्रयोग से गाभिन हो रही हैं। चूंकि इस कार्य के लिए बीज का संवर्धन और व्यापार में अमेरिका व कनाड़ा की कंपनियां लगी हैं तो जाहिर है कि आज नही ंतो कल इसका बोलबाला होगा। इस तरह के एक ही लिंग के जानवर पैदा करने की योजना बनाने वालों को प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने और ताजा-ताज बीटी कॉटन बीजों की असफलता को भी याद कर लेना चाहिए।

ये कोई ज्यादा पुरानी बात नहीं हैं, बामुश्किल तीन दशक पहले तक गांव में बछड़ा होना षुभ माना जाता था, दो साल उसकी खिलाई-पिलाई हुई और उसके बाद वह पूरे घर के जीवकोपार्जन का आधार होता था घर के दरवाजे पर बंधी सुंदर बैल की जोड़ी ही उसकी संपन्न्ता और रूतबे का प्रमाण होती थी। बछड़ा एक महीने का भी हजार रूपए में बिक जाता था, जबकि गैया या बछड़ी को दान करना पड़ता था। चुपके से खेती के मशीनीकरण का प्रपंच चला । इसमें कुछ मशीन बनाने वाली , कुछ ईंधन बेचने वाली और सबसे ज्यादा बैंकिग को विस्तार देने वाले लोग षामिल थे। दुश्परिणाम सामने हैं कि आबादी के लिहाज से खाद्यान की कमी, पहले की तुलना में ज्यादा भंडारण की सुविधा, विपणन के कई विकल्प होने के बावजूद किसान के लिए खेती घाटे का सौदा बन गई हैं और उसका मूल उसकी लागत बढ़ना है। इसमें कोई षक नहीं है कि इस समय उप्र के आंचलिक क्षेत्रों में आवरा गौवंश आफत बना हुआ है। आए रोज हंगामें-झगड़े हो रहे हैं, लेकिन गंभीरता से देखें तो इन आवरा पशुओं में अधिकांश गाय ही हैं। असल में हम यह मानने को तैयार नहीं है कि हमनें गौवंश का निरादर कर एक तो अपनी खेती की लागत बढ़ाई, दूसरा घर के दरवाजे बंधे लक्ष्मी-कुबेर को कूड़ा खाने को छोड़ दिया। मसला केवल नियोजन का है, ये आवारा पशु करोड़ों की लागत की उर्जा के स्त्रोत और बैशकीमती खाद का जरिया बन सकते हैं।

विदेश से आयातित डीप फ्रोजन सीमेन यानि डीएफएस को प्रयोगशाला में इस तैयार किया जाता है कि इसमें केवल एक्स क्रोमोजोम ही हों। इसे नाईट्रोजन बर्फ वाली ठंडक में सहेज कर रखा जाता है। फिलहाल यह जर्सी और होरेस्टिक  फ्रीजियन नस्ल की गायों में ही सफल है। देशी गाय में इसकी सफलता का प्रतिशत तीस से भी कम है। विदेशी नस्ल की गाय की कीमत ज्यादा, उसका रखरखाव महंगा  और इस वैज्ञानिक तरीके से  गर्भाधान के बाद चार साल बाद उसके दूध की मात्रा में कमी आने का कटु सत्य सबके सामने है लेकिन उसे छुपाया जाता है। यही नहीं इस सीमेन के प्रत्यारोपण में पंद्रह सौ रूपए तक का खर्च आता है सो अलग। सबसे बड़ी बात कि किसी भी देश की संपन्न्ता की बड़ी निशानी माने जाने वाले ‘लाईव स्टॉक’ या पशु धन की हर साल घटती संख्या से जूझ रहे देश में अपनी नस्लों का कम होना एक बड़ी चिंता है। यह एक भ्रम है कि भारत की गायें कम दूध देती है। पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान, बरेली में चार किस्म की भारतीय गायों - सिंघी, थारपारकर, वृंदावनी, साहीवाल पर षोध कर सिद्ध कर दिया है कि इन नस्लों की गाये ंना केवल हर दिन 22 से 35 लीटर दूध देती हैं, बल्कि ये संकर या विदेशी गायों से अधिक काल तक यानि 8 से 10 साल तक ब्याहती व दूध देती हैं। एनडीआरआई, करनाल के वैज्ञानिकां की ताजा रिपोर्ट तो और भी चौंकाने वाली है, जिसमें हो गया है कि ग्लोबल वार्मिग के कारण ज्यादा तपने वाले भारत जैसे देशों में अमेरिकी नस्ल की गायों ना तो जी पाएंगी और ना ही दूधदे पाएंगी। हमारी देशी गायों के चमड़े की मोटाई के चलते इनमें ज्यादा गर्मी सहने, कम भोजन व रखरखाव में भी जीने की क्षमता है।

यदि बारिकी से देखें तो कुछ ही सालों में हमें इन्हीं देशी गायो की षरण में जाना होगा, लेकिन तब तक हम पूरी तरह विदेशी सीमेंस पर निर्भर होंगे और हो सकता हैकि ये ही विदेशी कंपनियां हमें अपने ही देशी सांड का बीज बेचें।

अब जरा हमारे तंत्र में बैल की अनुपयोगिता या उसके आवार होने की हकीकत पर गौर करें तो पाएंगे कि हमने अपनी परंपरा को त्याग कर खेती को ना केवल महंगा किया, बल्कि गुणवत्ता, रोजगार, पलायन, अनियोजित षहरीकरण जै दिक्कतों का भी बीज बोया। पूरे देश में एक हेक्टेयर से भी कम जोत वाले किसानों की तादाद 61.1 फीसदी है। देश में 1950-51 में सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 53.1 फीसदी हुआ करता था। संसद में पेश की गई आर्थिक समीक्षा में अब इसे 13.9 फीसदी बताया गया है। ‘नेशनल सैम्पल सर्वे’ की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 40 फीसदी किसानों का कहना है कि वे केवल इसलिए खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास जीवनयापन का कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा है। जरा गौर करें कि जब एक हैक्टेयर से कम रकबे के अधिकांश किसान हैं तो उन्हें ट्रैक्टर की क्या जरूरत थी, उन्हें बिजली से चलने वाले पंप या गहरे ट्यूब वेल की क्या जरूरत थी। उनकी थोड़ी सी फसल के परिवहन के लिए वाहन की जरूरत ही क्या थी। एक बात जान लें कि ट्रैक्ट ने किसान को सबसे ज्यादा उधार में डुबोया, बैल से चलने वाले रहट की जगह नलकूप व बिजली के पंप ने किसान को पानी की बर्बादी और खेती लागत को विस्तार देने पर मजबूर किया। बैल को घर से दूर रखने के चलते कंपोस्ट की जगह नकली खाद की फिराक में किसान बर्बाद हुआ। सरकार ने खूब कजें्र बांट कर पोस्टर में किसान का मुस्कुराता चेहरा दिखा कर उसकर सुख-चैन सब लूट लिया।  खेत मजदूर का रोजगार छिना तो वह षहरों की और दौड़ा।

1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि गोबर को चूल्हे में जलाया जाना एक अपराध है उर्जा विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारे देश में गोबर के जरिए 2000 मेगावाट उर्जा उपजाई जा सकती है । यह तथ्य सरकार में बैठे लेग जानते हैं कि भारत में मवेशियों की संख्या कोई तीस करोड़ है। इनसे लगभग 30 लाख टन गोबर हर रोज मिलता है।  इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बना कर जला दिया जाता है। यह ग्रामीण उर्जा की कुल जरूरत का 10 फीसदी भी नहीं है । ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल सोलह लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता हे। चीन में डेढ करोड परिवारों को घरेलू उर्जा के लिए गोबर गैस की सप्लाई होती है। यदि गोबर का सही इस्तेमाल हो तो हर साल छह करोड़ टन के लगभग लकड़ी को बचाया जा सकता है। साढे तीन करोड़ टन कोयला बच सकता है। इसे कई करोड़ लेगों को रेजगार  मिल सकता है। बैल को बेकार या आवारा मान कर बेकार कहने वालों के लिए यह आंकड़े विचारणीय है।

यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम अपनी ताकत को पहचान नहीं रहे और किसानी, दुग्ध उत्पादन में वृद्धि, बेकार पशुओं के निदान को उन विदशी विकल्पों में तलाश रहे हैं जो कि ना तो हमारे देश-काल-परिस्थिति के अनुरूप है और ना ही व्याहवारिक।  जान लें कि बगैर बैल के ना तो पर्व-त्योहर हो सकेंगे, ना ही खेती और ना देशी गाय।

 

 

शनिवार, 20 जनवरी 2024

‘No snow’ show in the Himalayas

 

‘No snow’ show in the Himalayas

 

Pankaj Chaturvedi

 


Kashmir, proverbial heaven on earth, is replete with natural beauty and greenery. The livelihoods of its residents depend largely on the winter season. 40 out of this season of 70 days, from 21 December 21 to 31 January, is referred to as “Chilla-e-Kalan”, when the atmospheric temperature is usually several degrees below zero. The subsequent period of nearly 20 days—31 January to 20 February—is called “Chilla-e-Khurd” i.e. the short winter. The period from 20 February to 2 March is called “Chilla-e-Bachha” or the minor winter.

This year, after 25 days of Chilla-e-Kalan, Kashmiris are worried. On 15 January, the water level in the Jhelum River, lifeline of Kashmir, hit its lowest in history—flowing at 0.75 feet at Anantnag and 0.86 feet at Asham. On a day when the temperature in Delhi was 3.5 degrees, the mercury in Jammu was 10.8 degrees: 7.1 degrees <above> normal. The maximum temperature in Pahalgam, a favourite tourist destination for its snowfall and snow games, was 14.1, while in Srinagar it was 13.6 degrees Celsius. There are many districts in Kashmir where temperatures dip below zero at night, while going above 10 degrees during the day.

That explains why, this year, there is no snow on the skiing grounds of Gulmarg. And why only dry grass can be seen in areas where white sheets of snow used to lie several feet high this time of the year.

Zojila Pass, situated at an altitude of about 11,800 feet, connects Ladakh to Kashmir. In the last week of December, it usually witnesses 30 to 40 feet of snow. This year, well past mid-January, there is barely six to seven feet of snow to be seen. There has been no snowfall in most of the state due to which the drinking water crisis is all-too evident. The government may show tourist figures as its prime achievement, but the reality is that amid the glittering advertisements, local people are worried about the harm done to farming and horticulture, and the lack of fodder for cattle.

Kashmir is not alone in worrying over the absence of snow and the change in weather patterns. All the Himalayan regions in the country are facing a similar crisis. In Himachal Pradesh, the Kangra Valley is experiencing drought after 17 years. Snow is missing from the mountains which are usually snowcapped this month. In January, snow is missing from the Dhauladhar mountain range above the lush green Kangra Valley. The days are as sunny as summer but the mornings and evenings are quite cold. A similar situation has arisen in Shimla. Even in Himachal Pradesh’s neighbouring state, Uttarakhand, the situation is not normal. The hope of snowfall has thus far kept tourists waiting in Mussoorie. They waited in vain. There was not a single flake of snow in the last months of 2023. Not even as 2024 began.

Famous for winter sports and skiing, Auli and its surrounding hills appear desolate without snow. Winter sports could not be held. The ropeway from Joshimath to Auli has been closed. Troubled by the lack, local people and hotel owners have taken to praying to Lata Bhagwati and Lord Vishwakarma for snowfall.

 

Box

According to data, Shimla received the following amount of snowfall in the last few years:

Year                        Snow in Centimetres

2010-11                                   31.5

2011-12                                   119.4

2012-13                                   92.8

2013-14                                   76.0

2014-15                                   83.8

2015-16                                   25.0

2016-17                                   106.5

2017–18                                  20.8

2018–19                                  128.8

2019-20                                   198.7

2020-21                                   67.0

2021-22                                   161.7

2022-23                                   6.0                           (Lowest till date)

 

Where has all the snow gone?

Scientists at the India Meteorological Department (IMD) say that a weak western disturbance this year has resulted in the absence of significant snowfall and/ or rainfall in the mountains and/ or plains. The reason for its weakness is said to be the prevalence of El Nino and other meteorological conditions. It is not that western disturbances are not getting created but they are passing over the northern Himalayas. This is why there is no possibility of snowfall and rain on the Indian side of the great mountains.

According to a study, ‘Western Disturbances: A Review’, published in the International Journal of Geophysics in April 2015, snowfall in December, January and February creates snow accumulation on the mountains which is important for India’s water resources. Water in the north Indian rivers comes only from snow melt. This El Nino effect is natural. This time, though, the El Nino pattern is somewhat different. Global warming may be one of the reasons behind it. This had happened in 2009 when it had caused a drought in the country.

We must keep in the mind that mountains are extremely sensitive to climate change. Lack of traditional forests, cutting of mountains and excessive population have intensified the change in weather patterns in these areas.

Warnings disappear in the red bag

In 2010, the IAS Academy at Mussoorie had stated in a research paper that resources in Mussoorie had hit their peak capacity. The population of this hill station is only 30,000, out of which almost 8,000 people live in houses that face the threat of landslides. The arrival of about five lakh people every year in such a small place causes an excessive burden on water, electricity and sewerage systems.

In a workshop on the challenge of development in Himalayan cities organised by the Department of Urban Development at Uttarakhand Administration Academy (ATI) on 6 April 6 2023, Dr. Vikram Gupta, senior scientist at Wadia Institute, Dehradun, said that a study conducted in the last four years under the Indo–Norway Project had concluded that the load carrying capacity of Nainital, Mussoorie, Shimla and other hill stations had been exhausted long ago.

The report ‘Environmental Assessment of Tourism in the Indian Himalayan Region’ released by the Govind Ballabh Pant National Institute of Himalayan Environment (GBNIHE) in June 2022, stated in strong words that increasing tourism in the Himalayan region had increased pressure on hill stations. Besides this, the change of land use is a big problem in itself. The increased destruction of forests has a huge impact on the ecosystem of this region. The report had also pointed out the destruction of wildlife habitats and the adverse impact on biodiversity due to tourist vehicles and roads being built in Himachal Pradesh. The report was sent to the Ministry of Environment, Forest and Climate Change (MoEF&CC) on the orders of the National Green Tribunal (NGT), to no avail.

Sensitive mountains of Himachal

The Himalayan region in India is spread over 13 states and union territories (viz. Jammu and Kashmir, Ladakh, Uttarakhand, Himachal Pradesh, Arunachal Pradesh, Manipur, Meghalaya, Mizoram, Nagaland, Sikkim, Tripura, Assam and West Bengal). The end-to-end length of this mountainous ‘Crown of India’ region is approximately 2,500 kilometres. About five crore people have been living in the lap of the snowcapped mountain ranges for centuries. The rivers that provide water to most of India originate in this region. The glaciers here control the warming of our planet. That is why it is the most sensitive region from the point of view of climate change.

The mountains in the Uttarakhand region are among the entities most affected by climate change. About 12,000 natural watersheds and aquifers in the mountains, where eternal rivers like the Ganga and Yamuna originate, have either dried up or are on the verge of drying up.

Manali turning into a drain

A study conducted in Manali, Himachal Pradesh, showed that the built-up area there had increased from 4.7 per cent in 1989 to 15.7 per cent in 2012. Today, this figure has exceeded 25 per cent. Similarly, between 1980 and 2023, a shocking increase of 5,600 per cent has been recorded in the number of tourists in Manali. This has directly impacted the ecosystem of this area. With the number of hotels increasing in the area, the demand for drinking water and the burden of disposal of dirty water has also gone up. Today, Manali is on the verge of sinking.

 

What happens if there is no snow?

For tourists, cold weather and snow are a matter of joy, but for those living in the Himalayan region, this snow is a matter of life and death. In Uttarakhand, the weather remains dry due to lack of snowfall and rains above Mussoorie. Crops are dying due to lack of rain and frost. Farmers in Chakrata depend on cash crops like ginger, tomato, garlic and peas. All these crops are in dire straits for want of water. With the lack of snow in the hilly areas, farmers growing apples, peaches and apricots have been praying for rain as their only hope. Remember, snowfall is also essential for apples and saffron in, and from, Kashmir.

Agriculture is at the core of the Indian economy and farming cannot happen without irrigation. For irrigation, it is essential that the water flow in the rivers remains uninterrupted. The responsibility of releasing water to the rivers lies with those ice mountains which gradually melt in summers. It is clear that in the coming days, there will be a water crisis not only in Kashmir or Himachal, but in the entire country. A water crisis brings with it agricultural losses, lack of employment, inflation and migration. It has to be understood that increasing migration towards big cities and resultant urban slums are the biggest visible results of climate change.

What should be done

We must understand that the Western Disturbance, or El Nino, is not new a phenomenon affecting climate change. We have been turning our back on those factors that have made the situation lethal. A closer look reveals that whenever and wherever crowds increase in the name of tourism, the environmental balance gets disturbed. With no measures to check it, this imbalance deepens. Secondly, the increased use of concrete in the mountains leads to higher temperatures. The destruction of mountains and forests for roads or construction projects are reasons which even children understand, but no one does anything about it because of skewed perceptions of development.

 

What is ‘El Nino’

The mysteries of changes in weather are still unsolved. The kind of weather we can expect depends on the effect of ‘El Nino’ or ‘La Nina’. In the year 1600, fishermen off the coast of western Peru noticed an unusually high rise in sea levels around Christmas. This seasonal change was defined by the Spanish word ‘El Nino’, which means ‘little child’ or ‘baby Jesus’. El Nino is actually a rise in the temperature of the central and east-central equatorial sea surface at regular intervals, while La Nina is its opposite, i.e. a seasonal phenomenon of lowering of temperature on sea surfaces. La Nina, too, is a Spanish word, which means ‘little girl’.

The biggest reasons for change in weather from South America to India are the El Nino and La Nina effects. El Nino is related to heat and drought in India and Australia, while La Nina is the carrier of good monsoons and can be called a boon for India. Although it may affect India, El Nino and La Nina events occur off the coast of Peru (Eastern Pacific) and the east coast of Australia (Western Pacific). Winds carry these effects across the globe. It is important to know that sunrays fall straight on the equator. In this area, the sun is visible for 12 hours, thus the heat remains on the earth’s surface for a longer period. This causes higher temperatures in the Mediterranean region or the Central Pacific region which affects the temperature of the sea surface. Under normal conditions, Mediterranean winds blow from east to west and carry warm sea water towards the eastern seaboard of Australia. The heated water forms steam that forms clouds, resulting in good rainfall along the east coast. When hot winds laden with moisture rise up, their moisture is removed and they cool down. Then, the cold winds of the troposphere moving from west to east come down to the coast of Peru and its surroundings. These collide with the hot winds rising from the sea of Australia. The cyclone thus formed is called the ‘Walker Cyclone’, named after Sir Gilbert Walker who discovered the phenomenon.

In El Nino conditions, westerly winds become weak and warm sea water returns and collects along the coasts of Peru. This causes a rise of up to 90 cm in sea levels there, which, in turn, results in evaporation and the formation of rain clouds. While this causes heavy rains in Peru, due to its adverse effect on monsoon winds, there is drought from Australia to India.

During the La Nina effect, strong winds, generally blowing from east to west in the Mediterranean region, push the warm waters off the coast of Peru towards Australia. This causes the water level on the Peruvian coast to drop significantly, with cold water from the ocean depths replacing some of the warmer water. This is the time when Peruvian fishermen earn a lot.[SC1] 

_ENDS_

 

 

 

 


 [SC1]This is a very abrupt ending to the piece, and might be better presented as a box or a sidelight

Himalayas longing for snowfall


बर्फबारी  को तरसता हिमालय 

धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर को सुंदर , हरा भरा और वहाँ के वाशिंदों के लिए जीवकोपार्जन का मूल आधार है – जाड़े का मौसम । यहाँ जाड़े के कूल 70 दिन गिने जाते हैं । 21 दिसंबर से 31 जनवरी तक “ चिल्ला – ए –कलाँ “ यानि शून्य से कई डिग्री नीचे वाली ठंड । उसके बाद बीस दिन का “चिल्ला-ए – खुर्द” अर्थात छोटा जाड़ा  , यह होता है -31 जनवरी से 20 फरवरी और उसके बाद 20 फरवरी से 02 मार्च  तक बच्चा जाड़ा  यानि “चिल्ला ए बच्चा “। इस बार  चिल्ला ए कलाँ के 25 दिन बीत जाने के बाद  कश्मीरियों की पेशानी पर  चिंता की लकीरें  हैं । 15 जनवरी को कश्मीर की जीवन रेखा कहलाने वाली  झेलम नदी का जल स्तर इतिहास में सबसे नीचे पहुँच गया । अनतनाफ़ में नदी 0.75 फुट और आशम  ने 0. 86 फुट पर बह रही है । इस दिन जब दिल्ली में ठंड 3.5 डिग्री मापी गई , जम्मू का पारा सामान्य से 7.1 डिग्री नीचे 10.8 डिग्री था। बर्फ और उस पर खेले जाने वाले खेलों के लिए पर्यटकों की पसंदीदा जगह पहलगाव  में तो  अधिकतम तापमान 14.1 और श्रीनगर में 13.6 रहा। कश्मीर के कई जिले ऐसे हैं जहां रात में शून्य से नीचे ठंड है लेकिन दिन चढ़ते ही तापमान 10 तक या जाता है । तभी गुलमर्ग के स्कीईग मैदान में कोई बर्फ है नहीं । गुलमर्ग में जहां इस मौसम में बर्फ की सफेद चादर हर जगह नजर आती थी, वहां सूखी घास देखने को मिल रही है. घास को भी पोषण न मिलने की वजह से वह सूखकर पीली हो गई है. स्‍थानीय लोगों का कहना है कि यहां बर्फ कई फीट इस मौसम में देखी जाती रही है.

कोई 11800 फुट कि ऊंचाई पर स्थित जओजिला दर्रा कश्मीर से लद्दाख को जोड़ता है और दिसंबर के आखिरी हफ्ते से यहाँ 30 से 40 फुट  बर्फ होना आम बात है । इस साल आधा जनवरी बीत जाने के बाद भी वहाँ बमुश्किल छह से सात फुट ही बर्फ है । अधिकांश राज्य में बर्फबारी हुई नहीं और इससे पेयजल का संकट सामने दिख रहा है । पर्यटकों के आँकड़े भले ही सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में उछले लेकिन हकीकत तो यह है कि दमकते इश्तेहारों के बीच स्थानीय लोग खेती और बागवानी को नुकसान, मवेशी के लिए  चारे की कमी जैसी चिंताओं से घिरे हुए हैं ।

बर्फ न गिरने और मौसम के बदलाव की चिंता अकेले कश्मीर की ही नहीं है , देश के सभी ऐसे इलाके जो हिमाचल की गोद में हैं, इस तरह के संकट का सामना कर  रहे हैं । हिमाचल प्रदेश के  कांगड़ा घाटी में 17 साल बाद सूखा पड़ रहा है. पहाड़ों से बर्फ गायब है जो इस महीने में आमतौर पर बर्फ से ढके रहते थे. जनवरी के महीने में हरे-भरे कांगड़ा घाटी के ऊपर धौलाधार पर्वत श्रृंखला सहित पहाड़ों से बर्फ गायब है. गर्मियों की तरह दिन में धूप रहती है लेकिन सुबह और शामें काफी ठंडी होती हैं. ।  शिमला में ऐसी ही स्थिति बनी है. यहां तक कि हिमाचल प्रदेश के पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी हालात सामान्य नहीं हैं। सैलानियों के लिए बर्फ की सौगात लाने वाली मसूरी में भी इस वर्ष बर्फ के दीदार नही हो सके.अपने सौंदर्य और बर्फ की सफेद चादर से सैलानियों को लुभाने वाली मसूरी में साल 2023 में बर्फ नहीं दिखी. वहीं साल 2024 की शुरुआत में पर्यटकों को लगा कि बर्फबारी होगी लेकिन वो भी नही हुई. शीतकालीन खेलों और स्नो स्कींग के लिए प्रसिद्ध औली और आसपास की सभी पहाड़ियां बिना बर्फ के सूनी-सूनी दिखाई देती हैं। इस वर्ष भी औली में बर्फबारी नहीं हुई, इसलिए हिम खेल नहीं हो पाए। जोशीमठ से विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल औली तक चलने वाला रोपवे भी बंद हो गया है। यह भी इस वर्ष औली में पर्यटकों की कमी का एक कारण है। बर्फबारी न होने से परेशान स्थानीय लोगों और होटल मालिकों ने भी देवताओं की शरण ले ली है। बीते एक सप्ताह से लोग लगातार लता भगवती और भगवान विश्वकर्मा से बर्फबारी की मनौतियां मांग रहे हैं।

बॉक्स

आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में शिमला में निम्न मात्रा में बर्फबारी हुई: 
2010-11 (31.5 सेमी), 
2011-12 (119.4 सेमी), 
2012-13 (92.8 सेमी), 
2013-14 (76 सेमी), 
2014-15 (83.8 सेमी), 
2015-16 (25 सेमी), 
2016-17 (106.5 सेमी), 
2017-18 (20.8 सेमी), 2018-19 
(128.8 सेमी), 
2019-20 (198.7 सेमी), 
2020-21 (67 सेमी) और 
2021-22 (161.7 सेमी)
2022-23 (6 से. मी ) अभी तक की सबसे काम बर्फबारी ।
इन आंकड़ों को गौर से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि शिमला में मौसम का बदलाव लगातार उतार-चढ़ाव का है । 

 

 

आखिर कहाँ गई बर्फ ?

हालांकि भारत मौसम विज्ञान विभाग यानी कि IMD के वैज्ञानक कहते हैं कि इस वर्ष कमजोर पश्चिमी विक्षोभ है, इसलिए पहाड़ों या मैदानों में कोई महत्वपूर्ण बर्फबारी या वर्षा नहीं हुई है। , इस साल अल नीनो और अन्य मौसम संबंधी स्थितियों के कारण पश्चिमी विक्षोभ की काम सक्रियता है. ऐसा नहीं कि पश्चिमी विक्षोभ आ नहीं रहे लेकिन उत्तरी हिमालय के ऊपर से गुजर रहे हैं. यही  वजह है कि  पहाड़ों में बर्फबारी और बारिश की संभावना नहीं बन पा रही है.

अप्रैल 2015 के  अंतर्राष्ट्रीय जर्नल जियोफिजिक्स में प्रकाशित एक अध्ययन "पश्चिमी विक्षोभ: एक समीक्षा" के अनुसार, दिसंबर, जनवरी और फरवरी में हुई बर्फबारी पहाड़ों पर बर्फ का अंबार तैयार करती है जो देश के जल-स्रोतों के लिए महत्वपूर्ण जरिया होता है  और यह बर्फबारी पश्चिमी विक्षोभ  पर निर्भर करती है । इसमें कहा गया है कि पहाड़ों पर बर्फ के पिघलने से ही  उत्तर भारतीय नदियों में पानी का आगम होता है ।  अल नीनो  के कारण  विक्षोभ का यह प्रभाव स्वाभाविक भी है । लेकिन इस बार चिंता की बात यह है कि नया जाने किस अज्ञात कारण के अल नीनो के प्रबल प्रभाव  और ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस वर्ष अल नीनो पैटर्न कुछ अलग है। ऐसा 2009 में भी हुआ था, तब साल सूखा गया था । 
यह जान लें कि पहाड़  जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण को ले कर बेहद संवेदनशील हैं । यहाँ पारंपरिक जंगलों की कमी, पहाड़ों की कटाई और जरूरत से अधिक आबादी के भार के चलते मौसम के मिजाज की तबदीली की मार अधिक होगी और इसकी शुरुआत हो चुकी है । 
बॉक्स 
लाल बस्ते में  गुम  होती चेतावनियाँ 
सन 2010 में मसूरी की आईएएस अकादमी ने एक शोध में बता दिया था कि मसूरी के संसाधनों पर दबाव सहने की क्षमता चुक चुकी है।  मसूरी की आबादी मात्र तीस हज़ार है और इनमें भी आठ हज़ार लोग ऐसे मकानों में रहते हैं जहां भूस्खलन का ख़तरा है, इतने छोटे से स्थान पर हर साल कोई पचास लाख लोगों का पहुंचना पानी, बिजली, सीवर सभी पर अत्यधिक बोझ का कारक है। 
छः अप्रेल 2023 को उत्तराखंड प्रशासन अकादमी (एटीआइ) में शहरी विकास विभाग की ओर से हिमालयी शहरों में विकास की चुनौती विषयक कार्यशाला में वाडिया इंस्टीट्यूट देहरादून के वरिष्ठ विज्ञानी डा. विक्रम गुप्ता ने कहा था  कि इंडो-नार्वे प्रोजेक्ट के अंतर्गत पिछले तीन-चार साल में किये गए एक अध्ययन के निष्कर्ष में सामने आया कि नैनीताल, मसूरी, शिमला व अन्य हिल स्टेशनों की भार वहन क्षमता बहुत पहले की खत्म हो चुकी है।

जून 2022 में गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान (जीबीएनआईएचई) द्वारा जारी रिपोर्ट 'एनवायर्नमेंटल एस्सेसमेन्ट ऑफ टूरिज्म इन द इंडियन हिमालयन रीजन' में कड़े शब्दों मे कहा गया था कि हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते पर्यटन के चलते हिल स्टेशनों पर दबाव बढ़ रहा है। इसके साथ ही पर्यटन के लिए जिस तरह से इस क्षेत्र में भूमि उपयोग में बदलाव आ रहा है वो अपने आप में एक बड़ी समस्या है। जंगलों का बढ़ता विनाश भी इस क्षेत्र के इकोसिस्टम पर व्यापक असर डाल रहा है। यह रिपोर्ट नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ और सीसी) को भेजी गई थी । इस रिपोर्ट में हिमाचल प्रदेश में पर्यटकों के वाहनों और इसके लिए बन रही सड़कों के कारण वन्यजीवों के  आवास नष्ट होने और जैवविविधता पर विपरीत असर की बात भी कही गई थी॰

 
संवेदनशील हिमाचल के पहाड़ 

भारत में हिमालयी क्षेत्र का फैलाव 13 राज्यों व  केंद्र शासित प्रदेशों (अर्थात् जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल) में है, जो लगभग 2500 किलोमीटर। भारत के मुकुट कहे जाने वाले हिमाच्छादित पर्वतमाला की गोदी में कोई पाँच करोड़ लोग  सदियों से रह रहे हैं । चूंकि यह क्षेत्र अधिकांश भारत के लिए पानी उपलब्ध करवाने वाली नदियों का उद्गम है , साथ ही यहाँ के ग्लेशियर  धरती के गरम होने को नियंत्रित करते हैं, सो  जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से यह सबसे अधिक संवेदनशील है ।

जलवायु परिवर्तन की मार से सर्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के पहाड़ जैसे अब अपना संयम खो रहे हैं -देश को सदानीरा गंगा-यमुना जैसे नदिया देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने की कगार पर हैं।

 

मनाली बनता  नाली

मनाली, हिमाचल प्रदेश में किए एक अध्ययन से पता चला है कि 1989 में वहां जो 4.7 फीसदी निर्मित क्षेत्र था वो 2012 में बढ़कर 15.7 फीसदी हो गया है। आज यह आंकड़ा 25 फीसदी पार है । इसी तरह 1980 से 2023  के बीच वहां पर्यटकों की संख्या में 5600  फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। जिसका सीधा असर इस क्षेत्र के इकोसिस्टम पर पड़ रहा है। इतने लोगों के लिए होटलों की संख्या भी बढ़ी तो पानी की मांग और  गंदे पानी के निस्तार का वजन भी बढ़ा, आज मनाली भी धँसने की कगार पर है

 

क्या होगा बगैर बर्फ के रह गए पहाड़ तो ?

बाहरी पर्यटक के लिए ठंड- बर्फ एक आनंद है लेकिन हिमालय पर्वत की गोद में रहने वालों के लिए यह बर्फ जीने-मरने का जरिया है । उत्तराखंड में मसूरी से ऊपर बर्फबारी और बारिश न होने से मौसम खुश्क बना हुआ है, बारिश की कमी और पाले की मार से किसानों की फसलें दम तोड़ती नजर आ रही है। जिसके चलते पहाड़ी क्षेत्र चकराता में जहां किसान कैश क्रॉप कहीं जाने वाली फसल अदरक, टमाटर, लहसन, मटर पर ही अपनी आजीविका के लिए निर्भर रहता है, ये सभी फसलें इन दिनों बदहाली के दौर से गुजर रही हैं। वहीं पहाड़ी क्षेत्र में बर्फ ना गिरने की वजह से सेब,आडू और खुमानी की पैदावार करने वाले किसान अब भी बारिश और बर्फबारी की आस लगाए बैठे हैं।  कश्मीर में सेब और केसर सभी के लिए बर्फबारी जरूरी है ।

हमारे देश के सम्पन्न अर्थ व्यवस्था का आधार खेती है और  खेती बगैर सिंचाई के हो नहीं सकती । सिंचाई के लिए अनिवार्य है कि नदियों में जल-धारा अविरल रहे लेकिन नदियों में जल लाने की जिम्मेदारी तो उन बर्फ के  पहाड़ों की है जो गर्मी होने पर धीरे धीरे पिघल कर देश को पानीदार बनाते हैं । साफ है कि आने वाले दिनों में न केवल कश्मीर या हिमाचल, बल्कि सारे देश में जल संकट खड़ा होगा ही । जल संकट अपने साथ खेती का  नुकसान, रोजगार की कमी, महंगाई और पलायन ले कर आता है । समझना होगा कि बड़े शहरों की तरफ बढ़ता  पलायन  और उससे उपजे अरबन स्लम – जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव को बढ़ाने का सबसे बड़ा कारक हैं । कहना होगा कि पहाड़ की बर्फ देश के लिए सौन्दर्य- समृद्धि – और साहचर्य की शीतलता लाती है ।

 

फिर किया क्या जाए

समझ लें कि पहाड़ों के गरम होने के पीछे पश्चिमी विक्षोप या अल नीनो एक व्यापक कारण तो है लेकिन यह सब तो सदियों से होता रहा है । असल में हम ऐसे सटहनीय कारकों से मुंह मोड लेते हैं जिन्होंने  वैश्विक कारकों को अधिक घातक बनाया । बारीकी से देखे तो जब और जहां पर्यटन के नाम पर भीड़ बढ़ी , वहाँ पर्यावरणीय संतुलन गड़बड़ाया और फिर वहीं विक्षोभ की मार गहरी हुई । दूसरा पहाड़ों पर अधिक कंक्रीट के इस्तेमाल ने भी गर्मी में इजाफा किया है ।  सड़क या आने परियोजना के लिए पहड़ों को तोड़ना और वन उजाड़ना तो ऐसे कारण हैं जो बच्चे भी समझते हैं लेकिन “कथित विकास” के कारण कुछ कर नहीं पाते ।

 

क्या है ‘अल नीनो’

 

मौसम में बदलाव की पहेली अभी भी अबुझ  है और हमारे यहां कैसा मौसम होगा उसका निर्णय ‘अल नीनो’ अथवा ‘ला नीना’ प्रभाव पर निर्भर होता है। इस साल  फरवरी कं अंतिम  सप्ताह आते-आते  तमिलनाडु के दो जिलों में तापमान 35 के पार हो गया।  यह तय है कि जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव के चलते मौसम अनियमित या चरम होते रहते हैं लेकिन असल में मौसम की गति सात समुंदर पार निर्धारित होती है।

सन 1600  में पश्चिमी  पेरू के समुद्र तट पर मछुआरों ने क्रिसमस के आसपास सागर का जल स्तर असामान्य रूप से बढ़ता दिखा । इसी मौसमी बदलाव को स्पेनिश  षब्द ‘अल नीनो’ परिभाशित किया गया, जिसका अर्थ होता है- छोटा बच्चा या ‘बाल-यीषु’। अल नीनो असल में मध्य और  पूर्व-मध्य भूमध्यरेखीय समुद्री सतह के तापमान में नियमित अंतराल के बाद होने वाली वृद्धि है जबकि  ‘ला नीना’ इसके विपरीत अर्थात तापमान कम होने की मौसमी घटना को कहा जाता है।  अल नीना भी स्पेनिष भाशा का षब्द है जिसका अर्थ होता है छोटी बच्ची।

दक्षिणी अमेरिका से भारत तक के मौसम में बदलाव के सबसे बड़े कारण अल नीनो और अल नीना प्रभाव ही होते हैं। अलनीनो का  संबंध भारत व आस्ट्रेलिया में गरमी और सूखे से है, वहीं अल नीना के कारण अच्छे मानसून का वाहक है और इसे भारत के लिए वरदान कहा जा सकता है। भले ही भारत में इसका असर हो लेकिन अल नीनो और अल नीना घटनाएं पेरू के तट (पूर्वी प्रषांत) और आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट(पष्चिमी प्रषांत) पर घटित होती हैं। हवा की गति इन प्रभावों को दूर तक ले जाती हे। यहां जानना जरूरी है कि भूमध्य रेखा पर समुद्र की सीधी  किरणें पड़ती हैं। इस इलाके में पूरे 12 घंटे निर्बाध  सूर्य के दर्शन  होते हैं और इस तरह से सूर्य की ऊष्मा  अधिक समय तक धरती की सतह पर रहती है। तभी भूमध्य क्षेत्र या मध्य प्रषांत इलाके में अधिक गर्मी पड़ती है व इससे समुद्र की सतह का तापमान प्रभावित रहता है। आम तौर पर सामान्य परिस्थिति में भूमध्यीय हवाएं पूर्व से पष्चिम (पछुआ) की ओर बहती हैं और गर्म हो चुके समुद्री जल को आस्ट्रेलिया के पूर्वी समुद्री तट की ओर बहा ले जाती हैं। गर्म पानी से भाप बनती है और उससे बादल बनते हैं व परिणामस्वरूप पूर्वी तट के आसपास अच्छी बरसात होती है।  नमी से लछी गर्म हवांए जब उपर उठती हैं तो उनकी नमी निकल जाती है और वे ठंडी हो जाती हैं। तब क्षोभ मडल की पश्चिम  से पूर्व की ओर चलने वाली ठंडी हवाएं पेरू के समुद्री तट व उसके आसपास नीचे की ओर आती हैं । तभी आस्ट्रेलिया के समुन्द्र से उपर उठती गर्म हवाएं इससे टकराती हैं। इससे निर्मित चक्रवात को ‘वॉकर चक्रवात’ कहते हैं। असल में इसकी खेाज  सर गिल्बर्ट वॉकर ने की थी।

अल नीनो परिस्थिति में पछुआ हवांए कमजोर पड़ जाती हैं व समुद्र का गर्म पानी लौट कर पेरू के तटो पर एकत्र हो जाता है। इस तरह समुद्र का जल स्तर 90 सेंटीमीटर तक ऊंचा हो जाता है व इसके परिणामस्वरूप वाष्पीकरण  होता है व इससे बरसात वाले बादल निर्मित होते हैं। इससे पेरू में तो भारी बरसात होती है लेकिन मानसूनी हवाओं पर इसके विपरीत प्रभाव के चलते आस्ट्रेलिया से भारत तक सूखा हो जाता है।

ला नीनो प्रभाव  के दौरान भूमध्य क्षेत्र में सामान्यतया पूर्व से पष्चिम की तरफ चलने वाली अंधड़ हवाएं पेरू के समुद्री तट के गर्म पानी को आस्ट्रेलिया की तरफ ढकेलती है। इससे पेरू के समुद्री तट पर पानी का स्तर बहुत नीचे आ जाता है, जिससे समुद्र की गहराई का ठंडा पानी थोड़े से गर्म पानी को प्रतिस्थापित कर देता है। यह वह काल होता है जब पेरू के मछुआरे खूब कमाते हैं।

 

 

 

Do not burn dry leaves

  न जलाएं सूखी पत्तियां पंकज चतुर्वेदी जो समाज अभी कुछ महीनों पहले हवा की गुणवत्ता खराब होने के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पराली जल...