बर्फबारी को तरसता हिमालय
धरती का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर को सुंदर , हरा भरा और
वहाँ के वाशिंदों के लिए जीवकोपार्जन का मूल आधार है – जाड़े का मौसम । यहाँ जाड़े
के कूल 70 दिन गिने जाते हैं । 21 दिसंबर से 31 जनवरी तक “ चिल्ला – ए –कलाँ “
यानि शून्य से कई डिग्री नीचे वाली ठंड । उसके बाद बीस दिन का “चिल्ला-ए – खुर्द”
अर्थात छोटा जाड़ा , यह होता है -31 जनवरी
से 20 फरवरी और उसके बाद 20 फरवरी से 02 मार्च
तक बच्चा जाड़ा यानि “चिल्ला ए
बच्चा “। इस बार चिल्ला ए कलाँ के 25 दिन
बीत जाने के बाद कश्मीरियों की पेशानी
पर चिंता की लकीरें हैं । 15 जनवरी को कश्मीर की जीवन रेखा कहलाने
वाली झेलम नदी का जल स्तर इतिहास में सबसे
नीचे पहुँच गया । अनतनाफ़ में नदी 0.75 फुट और आशम
ने 0. 86 फुट पर बह रही है । इस दिन जब दिल्ली में ठंड 3.5 डिग्री मापी गई
, जम्मू का पारा सामान्य से 7.1 डिग्री नीचे 10.8 डिग्री था। बर्फ और उस पर खेले
जाने वाले खेलों के लिए पर्यटकों की पसंदीदा जगह पहलगाव में तो
अधिकतम तापमान 14.1 और श्रीनगर में 13.6 रहा। कश्मीर के कई जिले ऐसे हैं
जहां रात में शून्य से नीचे ठंड है लेकिन दिन चढ़ते ही तापमान 10 तक या जाता है ।
तभी गुलमर्ग के स्कीईग मैदान में कोई बर्फ है नहीं । गुलमर्ग में जहां इस मौसम में बर्फ की सफेद चादर हर जगह नजर आती थी, वहां सूखी घास देखने को मिल रही है. घास को भी पोषण न
मिलने की वजह से वह सूखकर पीली हो गई है. स्थानीय लोगों का कहना है कि यहां बर्फ
कई फीट इस मौसम में देखी जाती रही है.
कोई 11800 फुट कि ऊंचाई पर स्थित जओजिला दर्रा कश्मीर
से लद्दाख को जोड़ता है और दिसंबर के आखिरी हफ्ते से यहाँ 30 से 40 फुट बर्फ होना आम बात है । इस साल आधा जनवरी बीत
जाने के बाद भी वहाँ बमुश्किल छह से सात फुट ही बर्फ है । अधिकांश
राज्य में बर्फबारी हुई नहीं और इससे पेयजल का संकट सामने दिख रहा है । पर्यटकों
के आँकड़े भले ही सरकार अपनी उपलब्धि के रूप में उछले लेकिन हकीकत तो यह है कि
दमकते इश्तेहारों के बीच स्थानीय लोग खेती और बागवानी को नुकसान, मवेशी के
लिए चारे की कमी जैसी चिंताओं से घिरे हुए
हैं ।
बर्फ
न गिरने और मौसम के बदलाव की चिंता अकेले कश्मीर की ही नहीं है , देश के सभी ऐसे
इलाके जो हिमाचल की गोद में हैं, इस तरह के संकट का सामना कर रहे हैं । हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा घाटी में 17 साल बाद सूखा पड़ रहा है. पहाड़ों से बर्फ गायब है जो
इस महीने में आमतौर पर बर्फ से ढके रहते थे. जनवरी के महीने में हरे-भरे कांगड़ा
घाटी के ऊपर धौलाधार पर्वत श्रृंखला सहित पहाड़ों से बर्फ गायब है. गर्मियों की
तरह दिन में धूप रहती है लेकिन सुबह और शामें काफी ठंडी होती हैं. । शिमला में ऐसी ही स्थिति बनी है. यहां तक कि
हिमाचल प्रदेश के पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी हालात सामान्य नहीं हैं।
सैलानियों के लिए बर्फ की सौगात लाने वाली मसूरी में भी इस वर्ष बर्फ के दीदार नही
हो सके.अपने सौंदर्य और बर्फ की सफेद चादर से सैलानियों को लुभाने वाली मसूरी में
साल 2023 में बर्फ नहीं
दिखी. वहीं साल 2024 की शुरुआत में पर्यटकों को लगा कि बर्फबारी होगी लेकिन वो भी नही हुई. शीतकालीन
खेलों और स्नो स्कींग के लिए प्रसिद्ध औली और आसपास की सभी पहाड़ियां बिना बर्फ के
सूनी-सूनी दिखाई देती हैं। इस वर्ष भी औली में बर्फबारी नहीं हुई, इसलिए हिम
खेल नहीं हो पाए। जोशीमठ से विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल औली तक चलने वाला रोपवे भी
बंद हो गया है। यह भी इस वर्ष औली में पर्यटकों की कमी का एक कारण है। बर्फबारी न
होने से परेशान स्थानीय लोगों और होटल मालिकों ने भी देवताओं की शरण ले ली है।
बीते एक सप्ताह से लोग लगातार लता भगवती और भगवान विश्वकर्मा से बर्फबारी की
मनौतियां मांग रहे हैं।
बॉक्स
आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में शिमला में निम्न मात्रा में बर्फबारी हुई:
2010-11 (31.5 सेमी),
2011-12 (119.4 सेमी),
2012-13 (92.8 सेमी),
2013-14 (76 सेमी),
2014-15 (83.8 सेमी),
2015-16 (25 सेमी),
2016-17 (106.5 सेमी),
2017-18 (20.8 सेमी), 2018-19
(128.8 सेमी),
2019-20 (198.7 सेमी),
2020-21 (67 सेमी) और
2021-22 (161.7 सेमी)
2022-23 (6 से. मी ) अभी तक की सबसे काम बर्फबारी ।
इन आंकड़ों को गौर से देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि शिमला में मौसम का बदलाव लगातार उतार-चढ़ाव का है ।
आखिर कहाँ गई
बर्फ ?
हालांकि
भारत मौसम विज्ञान विभाग यानी कि IMD के वैज्ञानक कहते हैं कि इस वर्ष कमजोर पश्चिमी
विक्षोभ है, इसलिए पहाड़ों या
मैदानों में कोई महत्वपूर्ण बर्फबारी या वर्षा नहीं हुई है। , इस साल अल नीनो और अन्य मौसम संबंधी स्थितियों के
कारण पश्चिमी विक्षोभ की काम सक्रियता है. ऐसा नहीं कि पश्चिमी विक्षोभ आ नहीं रहे
लेकिन उत्तरी हिमालय के ऊपर से गुजर रहे हैं. यही
वजह है कि पहाड़ों में बर्फबारी और
बारिश की संभावना नहीं बन पा रही है.
अप्रैल 2015 के अंतर्राष्ट्रीय जर्नल जियोफिजिक्स में प्रकाशित एक अध्ययन "पश्चिमी विक्षोभ: एक समीक्षा" के अनुसार, दिसंबर, जनवरी और फरवरी में हुई बर्फबारी पहाड़ों पर बर्फ का अंबार तैयार करती है जो देश के जल-स्रोतों के लिए महत्वपूर्ण जरिया होता है और यह बर्फबारी पश्चिमी विक्षोभ पर निर्भर करती है । इसमें कहा गया है कि पहाड़ों पर बर्फ के पिघलने से ही उत्तर भारतीय नदियों में पानी का आगम होता है । अल नीनो के कारण विक्षोभ का यह प्रभाव स्वाभाविक भी है । लेकिन इस बार चिंता की बात यह है कि नया जाने किस अज्ञात कारण के अल नीनो के प्रबल प्रभाव और ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस वर्ष अल नीनो पैटर्न कुछ अलग है। ऐसा 2009 में भी हुआ था, तब साल सूखा गया था ।
यह जान लें कि पहाड़ जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण को ले कर बेहद संवेदनशील हैं । यहाँ पारंपरिक जंगलों की कमी, पहाड़ों की कटाई और जरूरत से अधिक आबादी के भार के चलते मौसम के मिजाज की तबदीली की मार अधिक होगी और इसकी शुरुआत हो चुकी है ।
बॉक्स
लाल बस्ते में गुम होती चेतावनियाँ
सन 2010 में मसूरी की आईएएस अकादमी ने एक शोध में बता दिया था कि मसूरी के संसाधनों पर दबाव सहने की क्षमता चुक चुकी है। मसूरी की आबादी मात्र तीस हज़ार है और इनमें भी आठ हज़ार लोग ऐसे मकानों में रहते हैं जहां भूस्खलन का ख़तरा है, इतने छोटे से स्थान पर हर साल कोई पचास लाख लोगों का पहुंचना पानी, बिजली, सीवर सभी पर अत्यधिक बोझ का कारक है।
छः अप्रेल 2023 को उत्तराखंड प्रशासन अकादमी (एटीआइ) में शहरी विकास विभाग की ओर से हिमालयी शहरों में विकास की चुनौती विषयक कार्यशाला में वाडिया इंस्टीट्यूट देहरादून के वरिष्ठ विज्ञानी डा. विक्रम गुप्ता ने कहा था कि इंडो-नार्वे प्रोजेक्ट के अंतर्गत पिछले तीन-चार साल में किये गए एक अध्ययन के निष्कर्ष में सामने आया कि नैनीताल, मसूरी, शिमला व अन्य हिल स्टेशनों की भार वहन क्षमता बहुत पहले की खत्म हो चुकी है।
जून 2022 में गोविंद बल्लभ पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान (जीबीएनआईएचई) द्वारा
जारी रिपोर्ट 'एनवायर्नमेंटल एस्सेसमेन्ट ऑफ टूरिज्म इन द इंडियन हिमालयन रीजन' में कड़े शब्दों मे कहा गया था कि हिमालयी क्षेत्र में बढ़ते पर्यटन के चलते हिल स्टेशनों पर दबाव बढ़
रहा है। इसके साथ ही पर्यटन के लिए जिस तरह से इस क्षेत्र में भूमि उपयोग में
बदलाव आ रहा है वो अपने आप में एक बड़ी समस्या है। जंगलों का बढ़ता विनाश भी इस
क्षेत्र के इकोसिस्टम पर व्यापक असर डाल रहा है। यह
रिपोर्ट नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के आदेश पर पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफ और सीसी) को भेजी गई थी । इस रिपोर्ट में हिमाचल प्रदेश में
पर्यटकों के वाहनों और इसके लिए बन रही सड़कों के कारण वन्यजीवों के आवास नष्ट होने और जैवविविधता पर विपरीत असर की
बात भी कही गई थी॰
संवेदनशील हिमाचल के पहाड़
भारत में
हिमालयी क्षेत्र का फैलाव 13 राज्यों व
केंद्र शासित प्रदेशों (अर्थात् जम्मू और कश्मीर, लद्दाख,
उत्तराखंड, हिमाचल
प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश,
मणिपुर, मेघालय,
मिजोरम, नागालैंड,
सिक्किम, त्रिपुरा,
असम और पश्चिम बंगाल) में है, जो
लगभग 2500 किलोमीटर। भारत के मुकुट कहे जाने वाले हिमाच्छादित पर्वतमाला की गोदी
में कोई पाँच करोड़ लोग सदियों से रह रहे
हैं । चूंकि यह क्षेत्र अधिकांश भारत के लिए पानी उपलब्ध करवाने वाली नदियों का
उद्गम है , साथ ही यहाँ के ग्लेशियर धरती के गरम होने को नियंत्रित करते हैं,
सो जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से यह सबसे
अधिक संवेदनशील है ।
जलवायु परिवर्तन की मार से सर्वाधिक प्रभावित उत्तराखंड के पहाड़ जैसे अब अपना संयम खो रहे हैं -देश को सदानीरा गंगा-यमुना जैसे नदिया देने वाले पहाड़ के करीब 12 हजार प्राकृतिक स्रोत या तो सूख चुके हैं या फिर सूखने की कगार पर हैं।
मनाली बनता नाली
मनाली, हिमाचल प्रदेश में किए एक
अध्ययन से पता चला है कि 1989 में वहां जो
4.7 फीसदी निर्मित क्षेत्र था वो 2012
में बढ़कर 15.7 फीसदी हो
गया है। आज यह आंकड़ा 25 फीसदी पार है । इसी तरह 1980 से
2023 के
बीच वहां पर्यटकों की संख्या में 5600 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई
है। जिसका सीधा असर इस क्षेत्र के इकोसिस्टम पर पड़ रहा है। इतने लोगों के लिए
होटलों की संख्या भी बढ़ी तो पानी की मांग और
गंदे पानी के निस्तार का वजन भी बढ़ा,
आज मनाली भी धँसने की कगार पर है।
क्या होगा बगैर बर्फ के रह गए पहाड़ तो ?
बाहरी पर्यटक के लिए ठंड- बर्फ एक आनंद है
लेकिन हिमालय पर्वत की गोद में रहने वालों के लिए यह बर्फ जीने-मरने का जरिया है ।
उत्तराखंड में मसूरी से ऊपर बर्फबारी और बारिश न होने से मौसम खुश्क बना हुआ है, बारिश की कमी और पाले की
मार से किसानों की फसलें दम तोड़ती नजर आ रही है। जिसके चलते पहाड़ी क्षेत्र
चकराता में जहां किसान कैश क्रॉप कहीं जाने वाली फसल अदरक, टमाटर, लहसन, मटर पर ही
अपनी आजीविका के लिए निर्भर रहता है, ये सभी फसलें इन दिनों बदहाली के दौर से
गुजर रही हैं। वहीं पहाड़ी क्षेत्र में बर्फ ना गिरने की वजह से सेब,आडू और
खुमानी की पैदावार करने वाले किसान अब भी बारिश और बर्फबारी की आस लगाए बैठे हैं। कश्मीर में सेब और केसर सभी के लिए बर्फबारी
जरूरी है ।
हमारे देश के सम्पन्न अर्थ
व्यवस्था का आधार खेती है और खेती बगैर
सिंचाई के हो नहीं सकती । सिंचाई के लिए अनिवार्य है कि नदियों में जल-धारा अविरल
रहे लेकिन नदियों में जल लाने की जिम्मेदारी तो उन बर्फ के पहाड़ों की है जो गर्मी होने पर धीरे धीरे पिघल
कर देश को पानीदार बनाते हैं । साफ है कि आने वाले दिनों में न केवल कश्मीर या
हिमाचल, बल्कि सारे देश में जल संकट खड़ा होगा ही । जल संकट अपने साथ खेती का नुकसान, रोजगार की कमी, महंगाई और पलायन ले कर
आता है । समझना होगा कि बड़े शहरों की तरफ बढ़ता
पलायन और उससे उपजे अरबन स्लम –
जलवायु परिवर्तन के कुप्रभाव को बढ़ाने का सबसे बड़ा कारक हैं । कहना होगा कि पहाड़
की बर्फ देश के लिए सौन्दर्य- समृद्धि – और साहचर्य की शीतलता लाती है ।
फिर किया क्या जाए
समझ लें कि पहाड़ों के गरम
होने के पीछे पश्चिमी विक्षोप या अल नीनो एक व्यापक कारण तो है लेकिन यह सब तो
सदियों से होता रहा है । असल में हम ऐसे सटहनीय कारकों से मुंह मोड लेते हैं
जिन्होंने वैश्विक कारकों को अधिक घातक
बनाया । बारीकी से देखे तो जब और जहां पर्यटन के नाम पर भीड़ बढ़ी , वहाँ पर्यावरणीय
संतुलन गड़बड़ाया और फिर वहीं विक्षोभ की मार गहरी हुई । दूसरा पहाड़ों पर अधिक
कंक्रीट के इस्तेमाल ने भी गर्मी में इजाफा किया है । सड़क या आने परियोजना के लिए पहड़ों को तोड़ना और
वन उजाड़ना तो ऐसे कारण हैं जो बच्चे भी समझते हैं लेकिन “कथित विकास” के कारण कुछ
कर नहीं पाते ।
क्या है ‘अल नीनो’
मौसम में बदलाव की पहेली
अभी भी अबुझ है और हमारे यहां कैसा मौसम
होगा उसका निर्णय ‘अल नीनो’ अथवा ‘ला नीना’ प्रभाव पर निर्भर होता है। इस साल फरवरी कं अंतिम सप्ताह आते-आते तमिलनाडु के दो जिलों में तापमान 35 के पार
हो गया। यह तय है कि जलवायु परिवर्तन के
कुप्रभाव के चलते मौसम अनियमित या चरम होते रहते हैं लेकिन असल में मौसम की गति
सात समुंदर पार निर्धारित होती है।
सन 1600 में पश्चिमी
पेरू के समुद्र तट पर मछुआरों ने क्रिसमस के आसपास सागर का जल स्तर
असामान्य रूप से बढ़ता दिखा । इसी मौसमी बदलाव को स्पेनिश षब्द ‘अल नीनो’ परिभाशित किया गया, जिसका
अर्थ होता है- छोटा बच्चा या ‘बाल-यीषु’। अल नीनो असल में मध्य और पूर्व-मध्य भूमध्यरेखीय समुद्री सतह के तापमान
में नियमित अंतराल के बाद होने वाली वृद्धि है जबकि ‘ला नीना’ इसके विपरीत अर्थात तापमान कम होने
की मौसमी घटना को कहा जाता है। अल नीना भी
स्पेनिष भाशा का षब्द है जिसका अर्थ होता है छोटी बच्ची।
दक्षिणी अमेरिका से भारत तक
के मौसम में बदलाव के सबसे बड़े कारण अल नीनो और अल नीना प्रभाव ही होते हैं।
अलनीनो का संबंध भारत व आस्ट्रेलिया में
गरमी और सूखे से है, वहीं अल नीना के कारण अच्छे मानसून का वाहक है और इसे
भारत के लिए वरदान कहा जा सकता है। भले ही भारत में इसका असर हो लेकिन अल नीनो और
अल नीना घटनाएं पेरू के तट (पूर्वी प्रषांत) और आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट(पष्चिमी
प्रषांत) पर घटित होती हैं। हवा की गति इन प्रभावों को दूर तक ले जाती हे। यहां
जानना जरूरी है कि भूमध्य रेखा पर समुद्र की सीधी
किरणें पड़ती हैं। इस इलाके में पूरे 12 घंटे निर्बाध सूर्य के दर्शन होते हैं और इस तरह से सूर्य की ऊष्मा अधिक समय तक धरती की सतह पर रहती है। तभी
भूमध्य क्षेत्र या मध्य प्रषांत इलाके में अधिक गर्मी पड़ती है व इससे समुद्र की
सतह का तापमान प्रभावित रहता है। आम तौर पर सामान्य परिस्थिति में भूमध्यीय हवाएं
पूर्व से पष्चिम (पछुआ) की ओर बहती हैं और गर्म हो चुके समुद्री जल को आस्ट्रेलिया
के पूर्वी समुद्री तट की ओर बहा ले जाती हैं। गर्म पानी से भाप बनती है और उससे
बादल बनते हैं व परिणामस्वरूप पूर्वी तट के आसपास अच्छी बरसात होती है। नमी से लछी गर्म हवांए जब उपर उठती हैं तो उनकी
नमी निकल जाती है और वे ठंडी हो जाती हैं। तब क्षोभ मडल की पश्चिम से पूर्व की ओर चलने वाली ठंडी हवाएं पेरू के
समुद्री तट व उसके आसपास नीचे की ओर आती हैं । तभी आस्ट्रेलिया के समुन्द्र से उपर
उठती गर्म हवाएं इससे टकराती हैं। इससे निर्मित चक्रवात को ‘वॉकर चक्रवात’ कहते
हैं। असल में इसकी खेाज सर गिल्बर्ट वॉकर
ने की थी।
अल नीनो परिस्थिति में पछुआ
हवांए कमजोर पड़ जाती हैं व समुद्र का गर्म पानी लौट कर पेरू के तटो पर एकत्र हो
जाता है। इस तरह समुद्र का जल स्तर 90 सेंटीमीटर तक ऊंचा हो जाता है व इसके
परिणामस्वरूप वाष्पीकरण होता है व इससे
बरसात वाले बादल निर्मित होते हैं। इससे पेरू में तो भारी बरसात होती है लेकिन
मानसूनी हवाओं पर इसके विपरीत प्रभाव के चलते आस्ट्रेलिया से भारत तक सूखा हो जाता
है।
ला नीनो प्रभाव के दौरान भूमध्य क्षेत्र में सामान्यतया पूर्व
से पष्चिम की तरफ चलने वाली अंधड़ हवाएं पेरू के समुद्री तट के गर्म पानी को
आस्ट्रेलिया की तरफ ढकेलती है। इससे पेरू के समुद्री तट पर पानी का स्तर बहुत नीचे
आ जाता है, जिससे समुद्र की गहराई का ठंडा पानी थोड़े से गर्म पानी को प्रतिस्थापित कर
देता है। यह वह काल होता है जब पेरू के मछुआरे खूब कमाते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें