My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

Without healthy lungs coroan can not be cured

 मजबूत फैंफडे ही जूझ सकते हैं कोविड से

                                                                 पंकज चतुर्वेदी



यदि आईआईटी , कानपुर के षोध और एक अमेरिकी संस्था के आकलन को बतौर चेतावनी लें तो मई महीने में कोरोना का कहर और घातक  होगा। उम्मीद तो यही करते हैं कि आने वाले सप्ताह में भारत की सरकारी मशीनरी ,  आक्सीजन, अस्पताल में बिस्तर जैसी मूलभूत सुविधाओ में सुधार करेगी, लेकिन संक्रमण की गति बहुत तेज होगी। बारिकी से देखें तो हमारे देष में  संक्रमण के सहजता से फैलने का करण समाज की  लापरवाहियां तो हैं ही जिसमें सोशल  डिस्टेंस और मास्क लगाने का पालन नहीं करना और खुद  के स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही षामिल है। लेकिन हकीकत यह है कि आम भारतीय खासकार श हरों में रहने वालों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत जर्जर है। ना तो उन्हें सांस लेने को स्वच्छ हवा है और ना कंठ को साफ पानी, जिस भोजन को पौष्टिक  मान कर षहरवासी खा रहे हैं, असल में वह निहयत जहरीले परिवेश  में उगाया जा रहा है। ऐसे में एक तो बाहरी वायरस जल्दी मार करता है दूसरा दवाओं का असर भी अपेक्षाकृत धीरे होता है। 


‘दुनिया के तीस सबसे दूषित शहरों  में भारत के 21 है। हमारे यहां सन 2019 में अकेले वायू प्रदुषण से 17 लाख लोग मारे गए। यह किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना वायरस जब फैंफडों या स्वांस-तंत्र पर अपना कब्जा जमाता है तो रोगी की मृत्यू की संभावना बढ़ जाती है। जिन षहरों के लोगों को फैंफडे वायू प्रदूषण  से जितने कमजोर है, वहां कोविड का कहर उतना ही संहारक है। जान लें कि जैसे-जैसे तापमान बढेगा, दिल्ली एनसीआर में सांस के रोगी भी बढेंगे और इसके साथ ही कोरोना का कहर भी बढ़ेगा।

जरा बारिकी से गौर करें , जिन शहरों - दिल्ली,मुंबई , प्रयागराज, लखनऊ, इंदौर , भोपाल, पुणे  आदि  में कोरोना इस बार सबसे घातक है, वहां की वायु गुणवत्ता बीते कई महीनों से गंभीरता की हद से पार है। दिल्ली से सटे गाजियाबाद को बीते तीन सालों से देष के सबसे प्रदूषित शहरों  की सूची में पहले तीन स्थानों पर रहने की शर्मनाम ओहदा मिला है। गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है। एक अंतर राष्ट्रिय  शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। 


भले ही रास्ते में धुंध के कारण जाम के हालात न हों, भले ही स्माॅग के भय से आम आदमी भयभीत ना हो, लेकिन सूर्य की तपन बढ़ने के साथ ही दिल्ली की सांस ज्यादा अटकती है। एनसीआर में प्रदूशण का स्तर अभी भी उतना ही है जितना कि सर्दियों में धुंध के दौरान हुआ करता था। यही नहीं इस समय की हवा ज्यादा जहरीली व जानलेवा है। देश की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिषत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी व हवा में उड्ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुंए से 17 फीसदी, पैटकाॅक जैसे पेट्रो-इंधन की 16 प्रतिषत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि। जानलें हवा में जहर के ये हालात जैसे दिल्ली-गाजियाबाद के, वैसे ही जयपुर, औरंगाबाद, पटना, प्रयागराज या रांची व रायपुर के हैं।


हानिकारक गैसों एवं सूक्ष्म कणों से परेशान  महानगर वालों के फैंफडों को कुछ महीने हरियाली से उपजे प्रदूषण  से भी जूझना पड़ता है। विडंबना है कि परागण से सांस की बीमारी पर चर्चा कम ही होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की ताकत उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ मिल कर करके अधिक जहरीले हो जाते हैं। ये प्रोटीन जैसे ही हमारे खून में मिलते हैं, एक तरह की एलर्जी को जन्म देते हैं। एक बात और कि हवा में परागणों के प्रकार और घनत्व  का पता लगाने की कोई तकीनीक बनी नहीं है। वैसे तो परागणों के उपजने का महीना मार्च से मई मध्य तक है लेकिन जैसे ही जून-जुलाई में हवा में नमी का स्तर बढ़ता है। तो पराग और जहरीले हो जाते हैं। हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे एलर्जी पैदा होती है।  यह एलर्जी इंसान को गंभीर सांस की बीमारी की तरफ ले जाती है। चूंकि गर्मी में ओजेान लेयर और मध्यम आकार के धूल कणों का प्रकोप ज्यादा होता है , ऐसे में परागण के शिकार  लेागों के फैफडो  ज्यादा क्षतिग्रस्त होते हैं।  यदि ऐसे में इंसान पर कोरोना का आक्रमण हो जाए तो जल्दी ही उसके फेंफडे संक्रमित हो जाएंगे। 


यह तो सभी जानते हैं कि गरमी के दिनों में दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब के बड़े हिस्से में हवा एक से डेढ़ किलोमीटर ऊपर तक तेज गति से बहती है। इसी लिए मिट्टी के कण और राजस्थान -पाकिस्तान के रास्ते आई रेत लेागों को सांस लेने में बाधक बनती है। मानकों के अनुसार पीएम की मात्रा 100 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर वायू होना चाहिए, लेकिन अभी तो पारा 37 के करीब है और यह खतरनाक पार्टिकल 240 के करीब पहंुच गए हैं। इसका एक बड़ा कारण विकास के नाम पर हो रहे ताबड़तोड़ व अनियोजित निर्माण कार्य भी हैं, जिनसे असीमित धूल तो उड़ ही रही है , यातायात जाम के दिक्कत भी उपज रही है। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों में जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा,  और कोविड ।

यह भी जानना जरूरी है कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआई यानि एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलाकांत दिल्ली में यह आंकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुंएं में बड़ी मात्रा में हाईड्रो कार्बन होते हैं और तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोन इंसान के षरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है । इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण फेंफडें बेहद कमजोर  हो जाते हैं । 

वायू प्रदूशण को और खतरनाक स्तर पर ले जाने वाले पैटकाॅन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। साथ ही तेजी से विस्तारित हो रहे षहरों में हरियाली सजाते समय ऐसे पेड़ों से परहेज करना जरूरी है जिनमें परागण बड़े स्तर पर गिरते हैं। इससे बेहतर नीम, पीपल जैसे पारंपरिक पेड़ होते है। जिनकी उम्र भी लंबी होती है और एक बार लगने पर कम रखरखाव मांगते हैं। आने वाले दिन सांसों पर कड़ी निगरानी के हैं और ऐसे में वायू प्रदूशण से जितना बचें, उतना ही कोविड के प्रकोप से बच सकते हैं।  सरकार को भी लोगों के स्वषन तंत्र को ताकतवर बनाने के लिए दूरगामी योजनओं पर काम करना होगा, इसका पहला कदम षहरों में भीड़ कम कीरना ही होगा।


गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

Ground water can not solve water problem of rural India

 

भूजल के बदौलत तो नल रीते ही रहेंगे

पंकज चतुर्वेदी


भारत सरकार सन
2024 तक हर घर में नल के जरिये शुद्ध  पेयजल पहुंचाने की जिस योजना पर काम कर रही है, उनकी हकीकत मार्च में गरमी शुरू  होते ही सामने आने लगी। मध्यप्रदेश  के लगभग सभी जिलों में ऐसी योजनाएं दम तोड़ रही हैं। बिहार में टंकी बनाने व  पाईप बिछाने का काम तो हो गया लेकिन घर में नल सूखे ही रहते हैं। छत्तीसगढ़ के बड़गांव में तो दस साल से टंकी व पाईप हैं लेकिन नहीं है तो पानी। यह कड़वा सच है कि आज भी देश  की कोई 17 लाख ग्रामीण बसावटों में से लगभग 78 फीसदी में पानी की न्यूनतम आवश्यक मात्रा तक पहुंच है। यह भी विडंबना है कि अब तक हर एक को पानी पहुंचाने की परियोजनाओं पर 89,956 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होने के बावजूद, सरकार परियोजना के लाभों को प्राप्त करने में विफल रही है। आज महज 45,053 गाँवों को नल-जल और हैंडपंपों की सुविधा मिली है, लेकिन लगभग 19,000 गाँव ऐसे भी हैं जहां साफ पीने के पानी का कोई नियमित साधन नहीं है। सन 1950 में लागू भारत के संविधान के अनुच्छेद 47 में भले ही यह दर्ज हो कि प्रत्येक देश वासी को साफ पानी मुहैया करवाना राज्य का दायित्व है लेकिन 16 करोड़ से अधिक भारतीयों के लिए सुरक्षित पीने का पानी की आस अभी बहुत दूर है। हजारों बस्तियां ऐसी हैं जहां लोग कई-कई किलोमीटर पैदल चल कर पानी लाते हैं। राजधानी दिल्ली की बीस फीसदी से ज्यादा आबादी पानी के लिए टैंकरों पर निर्भर है। यह आंकड़े भारत सरकार के पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के हैं।

यह जान लें कि जब तक नल या टंकी के लिए पानी का जरिया नहीं खोजा जाता और साथ में घर में नल आने के बाद  वहां से निकलने वाले गंदे पानी के कुषल निबटान व पुनर्चक्रण की योजना नहीं बनती, ऐसी हर योजना पूरी तरह सफल होगी नहीं। इस योजना के साकार होने में सबसे बड़ा अड़ंगा है कि ग्रामीण भारत की 85 फीसदी आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है।  एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है , दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है जो यदि दूशित हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। तीसरा देश  के अधिकांष हिस्से में जिसे भूजल मान कर हैंडपंप रोपे जाते हैं , वह असल में जमीन की अल्प गहराई में एकत्र बरसात की रिसाव होता है जो गरमी आते आते समाप्त हो जाता है।

नल-जल योजना का मूल आधार बरसात के जल को सलीके से एकत्र करना और उसका इस्तेमाल ही है। समझना होगा कि यदि नदी में अविरल धारा रहती है, यदि तालाब में लबालब पानी रहता है तो उसके करीब के कुओं से पंप लगा कर सारे साल घरों तक पानी भेजा जा सकता है।  यदि हर घर तक ईमानदारी से पानी पहुंचाने का संकल्प है तो ओवर हेड टैंक या ऊंची पानी की टंकी बना कर उसमें अधिक बिजली लगा कर पानी भरने और फिर बिजली पंप से दवाब से घर तक पानी भेजन से बेहतर और किफायती  होगा कि हर मुहल्ला-पुरवा में ऐसे कुएं विकसित किए जाएं जो तालाब, झील, जोहड़, नदी के करीब हों व उनमें साल भर पानी रहे। एक कुंए से 75 से 100 घरों को पानी सप्लाई का लक्ष्य रखा जाए व उस कुएं व पंप की देखभाल के लिए उपभोक्ता की ही समिति कार्य करे तो ना केवल ऐसी योजनाएं  दूरगामी रहेंगी, बल्कि समाज भी पानी का मोल समझेगा।

सनद रहे कि हमारे पूर्वजां ने देश -काल परिस्थिति के अनुसार बारिष को समेट कर रखने की कई प्रणालियां विकसित व संरक्षित की थीं, जिसमें तालाब सबसे लोकप्रिय थे। घरों की जरूरत यानि पेयजल व खाना बनाने के लिए मीठे पानी का साधन कुआं कभी घर-आंगन में हुआ करता था। धनवान लोग सार्वजनिक कुएं बनवाते थे। हरियाणा से मालवा तक जोहड़ या खाल जमीन की नमी बरकरार रखने की प्राकृतिक संरचना हैं। ये आमतौर पर वर्षा -जल के बहाव क्षेत्र में पानी रोकने के प्राकृतिक या कृत्रिम बांध के साथ छोटा तालाब की मानिंद होता है। तेज ढलान पर तेज गति से पानी के बह जाने वाले भूस्थल में पानी की धारा को काटकर रोकने की पद्धति ‘‘पाट’’ पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत लोकप्रिय रही है। एक नहर या नाली के जरिये किसी पक्क्े बांध तक पानी ले जाने की प्रणाली ‘‘नाड़ा या बंधा’’ अब देखने को नहीं मिल रही है। कुंड और बावड़िया महज जल संरक्षण के साधन नहीं,बल्कि हमारी स्थापत्य कला का बेहतरीन नमूना रहे हैं। 

राजस्थान में तालाब, बावड़ियां, कुई और झालार सदियों से सूखे का सामना करते रहे। ऐसे ही कर्नाटक में कैरे, तमिलनाडु में ऐरी, नगालेंड में जोबो तो लेह-लद्दाक में जिंग, महाराष्ट्र में पैट, उत्तराखंड में गुल हिमाचल प्रदेश  में कुल और और जम्मू में कुहाल कुछ ऐसे पारंपरिक जल-संवर्धन के सलीके थे जो आधुनिकता की आंधी में कहीं गुम हो गए और अब आज जब पाताल का पानी निकालने व नदियों पर बांध बनाने की जुगत अनुतीर्ण होती दिख रही हैं तो फिर उनकी याद आ रही है। गुजरात के कच्छ के रण में पारंपरिक मालधारी लोग खारे पानी के ऊपर तैरती बारिष की बूंदों के मीठे पानी को विरदाके प्रयोग से संरक्षित करने की कला जानते थे। सनद रहे कि उस इलाके में बारिष भी बहुत कम होती है। हिम-रेगिस्तान लेह-लद्दाक में सुबह बरफ रहती है और दिन में धूप के कारण कुछ पानी बनता है जो शाम  को बहता है। वहां के लोग जानते थे कि षाम को मिल रहे पानी को सुबह कैसे इस्तेमाल किया जाए।

आज जरूरत है कि ऐसी ही पारंपरिक प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के लिए खास योजना बनाई जाए व इसी पर नल-जल योजना स्थापित कर जिम्मेदारी स्थानीय समाज को दी जाए।जान लें भूजल के बदौलत कंठ को गीला रखना संभव नहीं और भूगर्भ यदि सूखा रहा तो रेगिस्तान के विस्तार , भूकंप जैसी कई आपदाएं  इंसानियत के लिए खतरा बनेंगी। 

 

सोमवार, 26 अप्रैल 2021

Rising temperature will be challenge for weaken lungs in Metro cities cause covid attack

 

तापमान बढ़ते ही कोरोना का कहर बढेगा दिल्ली में

पंकज चतुर्वेदी



“दुनिया के तीस सबसे दूषित शहरों  में भारत के 21 है। हमारे यहां सन 2019 में अकेले वायू प्रदूषण  से 17 लाख लोग मारे गए।“ यह किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना वायरस जब फैंफडों या स्वांस-तंत्र पर अपना कब्जा जमाता है तो रोगी की मृत्यू की संभावना बढ़ जाती है। जिन शहरों  के लोगों को फैंफडे वायू प्रदूषण  से जितने कमजोर है, वहां कोविड का कहर उतना ही संहारक है। जान लें कि जैसे-जैसे तापमान बढेगा, दिल्ली एनसीआर में सांस के रोगी भी बढेंगे और इसके साथ ही कोरोना का कहर भी बढ़ेगा।

जरा बारिकी से गौर करें , जिन शहरों - दिल्ली, मंुबई, प्रयागराज, लखनऊ, इंदौर , भोपाल, पुणे  अािद में कोरोना इस बार सबसे घातक है, वहां की वायु गुणवत्ता बीते कई महीनों से गंभीरता की हद से पार है। दिल्ली से सटे गाजियाबाद को बीते तीन सालों से देष के सबसे प्रदूषित  शहर  की सूची में पहले तीन स्थानों पर रहने की षर्मनाम ओहदा मिला है। गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है। एक अंतर्राष्ट्रीय  शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ों के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है।

भले ही रास्ते में धुंध के कारण जाम के हालात न हों, भले ही स्माॅग के भय से आम आदमी भयभीत ना हो, लेकिन सूर्य की तपन बढ़ने के साथ ही दिल्ली की सांस ज्यादा अटकती है। एनसीआर में प्रदूषण  का स्तर अभी भी उतना ही है जितना कि सर्दियों में धुंध के दौरान हुआ करता था। यही नहीं इस समय की हवा ज्यादा जहरीली व जानलेवा है। देष की राजधानी के गैस चैंबर बनने में 43 प्रतिषत जिम्मेदारी धूल-मिट्टी व हवा में उड्ते मध्यम आकार के धूल कणों की है। दिल्ली में हवा की सेहत को खराब करने में गाड़ियों से निकलने वाले धुंए से 17 फीसदी, पैटकाॅक जैसे पेट्रो-इंधन की 16 प्रतिषत भागीदारी है। इसके अलावा भी कई कारण हैं जैसे कूड़ा जलाना व परागण आदि।

हानिकारक गैसों एवं सूक्ष्म कणों से परेषान दिल्ली वालों के फैंफडों को कुछ महीने हरियाली से उपजे प्रदूषण  से भी जूझना पड़ता है। विडंबना है कि परागण से सांस की बीमारी पर चर्चा कम ही होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार पराग कणों की ताकत उनके प्रोटीन और ग्लाइकॉल प्रोटीन में निहित होती है, जो मनुष्य के बलगम के साथ मिल कर करके अधिक जहरीले हो जाते हैं। ये प्रोटीन जैसे ही हमारे खून में मिलते है।, एक तरह की एलर्जी को जन्म देते हैं। एक बात और कि हवा में परागणों के प्रकार और धनत्व का पता लगाने की कोई तकीनीक बनी नहीं है। वैसे तो परागणों के उपजने का महीना मार्च से मई मध्य तक है लेकिन जैसे ही जून-जुलाई में हवा में नमी का स्तर बढ़ता है। तो पराग और जहरीले हो जाते हैं। हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं, जिससे एलर्जी पैदा होती है।  यह एलर्जी इंसान को गंभीर सांस की बीमारी की तरफ ले जाती है। चूंकि गर्मी में ओजेान लेयर और मध्यम आकार के धूल कणों का प्रकोप ज्यादा होता है , ऐसे में परागण के षिकार लेागों के फंैफडे  ज्यादा क्षतिग्रस्त होते हैं।  यदि ऐसे में इंसान पर कोरोना का आक्रमण हो जाए तो जल्दी ही उसके फेंफडे संक्रमित हो जाएंगे।

यह तो सभी जानते है। कि गरमी के दिनों में हवा एक से डेढ़ किलोमीटर ऊपर तक तेज गति से बहती है। इसी लिए मिट्टी के कण और राजस्थान -पाकिस्तान के रास्ते आई रेत लेागों को सांस लेने में बाधक बनती है। मानकों के अनुसार पीएम की मात्रा 100 माईक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर वायू होना चाहिए, लेकिन अभी तो पारा 37 के करीब है और यह खतरनाक पार्टिकल 240 के करीब पहंुच गए हैं। इसका एक बड़ा कारण दिल्ली में विकास के नाम पर हो रहे ताबड़तोड़ व अनियोजित निर्माण कार्य भी हैं, जिनसे असीमित धूल तो उड़ ही रही है , यातायात जाम के दिक्कत भी उपज रही है। पीएम ज्यादा होने का अर्थ है कि आंखों में जलन, फैंफडे खराब होना, अस्थमा,  और कोविड ।

यह भी जानना जरूरी है कि वायुमंडल में ओजोन का स्तर 100 एक्यूआई यानि एयर क्वालिटी इंडेक्स होना चाहिए। लेकिन जाम से हलाकांत दिल्ली में यह आंकड़ा 190 तो सामान्य ही रहता है। वाहनों के धुंएं में बड़ी मात्रा में हाईड्रो कार्बन होते हैं और तापमान चालीस के पार होते ही यह हवा में मिल कर ओजोन का निर्माण करने लगते हैं। यह ओजोज इंसान के षरीर, दिल और दिमाग के लिए जानलेवा है । इसके साथ ही वाहनों के उत्सर्जन में 2.5 माइक्रो मीटर व्यास वाले पार्टिकल और गैस नाइट्रोजन ऑक्साइड है, जिसके कारण फेंफडें बेहद कमजोर  हो जाते हैं ।

वायू प्रदूषण  को और खतरनाक स्तर पर ले जाने वाले पैटकाॅन पर रोक के लिए कोई ठोस कदम ना उठाना भी हालात को खराब कर रहा है। साथ ही दिल्ली में हरियाली सजाते समय ऐसे पेड़ों से परहेज करना जरूरी है जिनमें परागण बड़े स्तर पर गिरते हैं।

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

To prevent covid ecology has to be preserved

 धरती बचाने को आप भी आगे आएं

पंकज चतुर्वेदी


 

इस समय पूरा देश्  बिस्तर, आक्सीजन,  दवा जैसे संकट से जूझ रहा है और इसकी कमी के लिए तंत्र को दोष  दे रहा है। यदि बारिकी से देखें तो हम किसी बीमारी के फैल जाने के बाद उसके निदान के लिए  हैरान-परेशां हैं , जबकि देश्  की सोच समस्या को आने या उसके विकराल होने से पहले रोकना होना चाहिए। यह एक कड़वा सच है कि एक सौ पैतीस करोड़ की आबादी , वह भी बेहद असमान सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि  की, उसके सामने ऐसी विपदा में तंत्र के ढह कर बेहाल हो जाना लाजिमी है, लेकिन इससे बड़ा दुख यह है कि तंत्र हालात को गंभीर होने के कारकों पर नियंत्रण करने में असफल रहा है सारी दुनिया जिस कोरोना से कराह रही है, वह असल में जैव विविधता से छेड़छाड़, धरती के गरम होते मिजाज और वातावरण में कार्बन की मात्रा बढ़ने के मिलेजुले प्रभाव की महज झांकी है। पर्यावरण पर खतरा धरती के अस्तित्व के लिए चुनौती बन गया है, महज पानी के दूशित होने या वायु में जहर तक बात नहीं रह गई है, इन सबका समग्र कुप्रभाव जलवायु परिवर्तन के रूप में सामने आ गया है। मौसम चक्र का अस्त-व्यस्त होना, गरमी हो या सर्दी या फिर बरसात , पूरे मौसम के चार महीने के स्थान पर अचानक ही कुछ दिनों पर चरम पर और अचानक ही न्यूनतम हो जाना।


जरा बारिकी से गौर करें , जिन श् हरों - दिल्ली, मुंबई, प्रयागराज, लखनऊ, इंदौर , भोपाल, पुणे  आदि  में कोरोना इस बार सबसे घातक है, वहां की वायु गुणवत्ता बीते कई महीनों से गंभीरता की हद से पार है। दिल्ली से सटे गाजियाबाद को बीते तीन सालों से देश्  के सबसे प्रदूषित शहर  की सूची में पहले तीन स्थानों पर रहने की श्र्मनाम ओहदा मिला है। गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है। एक अंतरराश्ट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। सनद रहे कि आंकड़ोंं के मुताबिक वायु प्रदूषण के कारण दिल्ली में हर घंटे एक मौत होती है। ‘दुनिया के तीस सबसेदूषित शहरों  में भारत के 21 है। हमारे  यहां सन 2019 में अकेले वायू प्रदुषण  से 17 लाख लोग मारे गए। 


खतरे का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वायु प्रदूषण करीब 25 फीसदी फेंफड़े के कैंसर की वजह है। यह तो किसी से छिपा नहीं है कि कोरोना वायरस जब फैंफडों या स्वांसतंत्र पर अपना कब्जा जमाता है तो रोगी की मृत्यू की संभावना बढ़ जाती है। जान लें कि जिन श्हरों के लोगों को फैंफडे वायू प्रदूषण  से जितने कमजोर है, वहां कोविड का कहर उतना ही संहारक है।

अब सारे देश्  से खबर आ रही है कि अमुक सरकारी अस्पताल में पिछले साल ख़रीदे  गए वैंटलेटर खोले तक नहीं गए या उनकी गुणवत्ता घटिया है या फिर उन उपकरणों को संचालित करने वाला स्टाफ तक नहीं है। यह बानगी है कि हमारा चिकित्सा तंत्र स्वांस रोग से जूझने को कितना तैयार है।


 दिल्ली हो या रोहतक या पंजाब ठंड के दिनों में पराली को ले कर चिल्लाते मिलेंगे लेकिन षहरों की आवोहवा खराब होने के मूल कारण - बढ़ती आबादी, व्यापार-सत्ता और पूंजी का महानगरों में सिमटना, निजी वाहनों की संख में इजाफा, विकास के नाम पर लगातार ध्ूल उगलने वाली गतिविधियां, सड़कों पर जाम से निबटने के तरीकों पर कभी किसी ने काम नहीं किया। यह एक कड़वी चेतावनी है कि यदि श्हर में रहने वालों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई नहीं गई, उन्हें पर्याप्त पौश्टिक आहार नहीं मिला, यदि यहां सांस लेने को साफ  हवा नहीं मिली तो कोरोना से भी खतरनाक महामारियाँ समाज में स्थाई रूप से घर कर जाएंगी। यह किसी से छुपा नहीं है है कि वैष्विक भूख तालिका में हमारा स्थान दयनीय स्थिति पर है और पिछले साल की बेरोजगारी की झड़ी के बाद यह समस्या विकराल हो गई है। भूखा रहेगा इंडिया तो करोनो से कैसे लडेगा इंडिया ?


आखिर एक नैनो महीन वायरस ने इंसान के डीएनए पर कब्जा करने काबिल ताकत हांसिल कैसे कर ली? पिछले एक दशक के दौरान देखा गया कि मानवीय जीवन पर संक्रामक रोगों की मार बहुत जल्दी- जल्दी पड रही है और ऐसी बीमारियों का 60 फीसदी हिस्सा जन्तुजन्य है और इस तरह की बीमारियों का 72 फ़ीसदी जानवरों से सीधा इंसान में आ रहा है । कोविड-19 हो याएच आई वी , सार्स, जीका ,हेन्द्रा, ईबोला, बर्ड फ्लू आदि सभी रोग भी जंतुओं से ही इंसानों को  लगे हैं । दुखद है कि अपनी भौतिक सुखों की चाह में इंसान ने पर्यावरण के साथ जमकर छेड़छाड़ की और इसी का परिणाम है की जंगल, उसके जीव्  और इंसानों के बीच दूरियां कम होती जा रही है । जंगलों की अंधाधुंध कटाई और उसमें बसने वाले जानवरों के नैसर्गिक पर्यावास के नष्ट होने से इंसानी दखल से दूर रहने वाले जानवर सीधे मानव के संपर्क में आ गए और इससे जानवरों के वायरसों के इंसान में संक्रमण और इंसान के शरीर के अनुरूप खुद को ढालने की क्षमता भी विकसित हुई। यह बात जानते-समझते हुए भी भारत में गत साल के संपूर्ण तालाबंदी के दौरान भी कोई ऐसी पचास से ज्यादा परियोजनाओं को पर्यावरणी नियमों को ढली दे कर मंजूरी दी गई जिनकी चपेट में पष्चिमी घाट से ले कर पूर्व का अमेजान कहलाने वाले सघन पररंपरिक वन क्षेत्र आ रहे हैं।  नए जंगल के आंकड़े बेमानी है क्यों कि जैव विविधता की रक्षा के लिए प्राकृतिक रूप से लगे, पारपंपरिक और ऐसे सघन वन अनिवार्य है जहां इंसान का दखल लगभग ना हो। 


पहले कहा जाता था कि प्रदूषण  का असर केवल श्हरों में है, गांव में तो शुध्ध  हवा-पानी है ना, लेकिन आज के हालात सबसे ज्यादा गांव वालों को ही प्रभावित कर रहे हैं। गांव अर्थात जीवकोपार्जन का मूल आधार खेती-किसानी वह भी प्रकृतिपर आधारित। हालात इतने विषम  हैं कि खेती अब अनिष्चितता से गुजर रही है। उत्पाद की गुणवत्ता गिर रही है, वहीं मवेषियों के प्रजनन और दुग्ध क्षमता पर भी असर हो रहा है।  उधर करोनो के भय से हुए पलायन के चलते गावों पर आबादी का बोझ बढ़ा तो साफ पानी के संकट ने गांवों के निरापद स्वरूप को छिन्न-भिन्न कर दिया। खासकर खान, रेत उत्खनन और उज्जवला सिलेंडर  की अनउपलब्धता से फिर से लकड़ी से चूल्हा फूंकने के कारण गांवों में कोविड के पनपने के पर्याप्त अवसर बन गए हैं।

असल में कोविड का पहले से भी भयावह स्वरूप  इंसान की प्रकृति के विरूद्ध जिद का नतीजा है। बीते साल तालाबंदी में प्रकृति खिलखिला उठी थी, हवा-पानी साफ था, पक्षी-जानवर भी स्वच्छंद थे लेकिन इंसान जल्द से जल्द प्रकृति की इच्छा के विपरीत फिर से कोरोना-पूर्व के जीवन में लाटनके को आतुर था  सरकार व समाज दोनों को समझना होगा कि उत्तर-कोरोना काल अलग है, इसमें विकास, जीडीपी की परिभाषाएं  बदलना होगा। थोडा पर्यावरण को अपने मूल स्वरूप में आने दें, जबरदस्ती करेंगे तो प्रकृति भयंकर प्रकोप दिखाएगी। 


मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

Do not break the path of most pure river of world

 

अविरल उमनगोत के लिए लड़ते आदिवासी

पंकज चतुर्वेदी



कोई कहता है कि यह एशिया की तो, कोई दुनिया की सबसे स्वच्छ नदी है- पानी इतना साफ है कि तैरती नावें कांच पर स्थापित प्रतिमा के मानिंद नजर आती हैं। आखिर हो भी क्यों न , वहां का समाज इस नदी को जान से ज्यादा चाहता है और इसकी सफाई उनकी अपनी जिम्मेदारी है . इतनी विरली नदी के किनारों पर इन दिनों असंतोष की आग सुलग रही है . सरकार चाहती है कि इस नदी की अविरल धरा को बाँध कर उससे बिजली उगाई जाए, जबकि समाज इस नदी के मूल स्वरुप से किसी भी किस्म की छेड़छाड़ को स्वीकार नहीं कर रहा है .  मेघालय में शिलांग से  कोई 85 किलोमीटर दूर उमनगोत को धरती का  एक आश्चर्य कहें तो अतिशियोक्ति नहीं होगी .

मेघालय ऊर्जा निगम लिमिटेड ने जब से उमनगोत नदी पर बांध बना कर  210 मेगावाट बिजली उत्पादन की परियोजना की घोषणा की है , खेती, मछली पकड़ने और पर्यटन से अपना जीवकोपार्जन करने वाला स्थानीय समाज सड़कों पर हैं, गत दो महीने से वहां आन्दोलन हो रहे हैं . इस बीच मेघालय राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दो बार जनसुनवाई का आयोजन किया लेकिन प्रदर्शनकारियों ने यहाँ तक अफसरों को पहुँचने नहीं दिया . पूर्वी खासी हिल्स जिले के मवाकिन्यू ब्लॉक के अंतर्गत सियांगखनाई गांव में पहली जन  सुनवाई से पहले लोगों ने 20 किमी दूर म्यांगसंग गांव में अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट सहित अधिकारियों को रोक दिया है। किसानों ने अधिकारियों के किसी भी वाहन को नहीं जाने दिया।

उमनगोत नदी का उद्गम उमंगोट नदी पूर्वी शिलांग में समुद्र तल से 1,800 मीटर ऊपर स्थित एक पहाड़ की छोटी से . पर्यवरण-मित्र पर्यटन के लिए विश्व मानचित्र पर चर्चित दावकी शहर के पास यह नदी बांग्लादेश में कुछ देर को प्रवेश करती है और वहां इसे डावी नदी कहते हैं। उसके बाद मेघालय में यह नदी, री पनार (जयंतिया पहाड़ियों में निवास करने वाली जनजाति) तथा हेमा खिरिम (खासी पहाड़ियों में निवास करने वाली जनजाति) के बीच एक नैसर्गिक सीमा का काम करती  है .

उमनगोत जिन तीन गांवों - दावकी, दारंग और शेंनान्गडेंग से बहती है, वहां के निवासी खासी आदिवासी  ही इसको पवित्र और उसके प्राकृतिक  स्वरुप में रखने का काम करते हैं. जब पर्यटक कम आते हैं और मौसम ठीक होता है तब सारे गाँव वाले “सामुदायिक सेवा “ कर नदी और उसके आसपास सफाई का काम करते हैं . इस दिन गांव के हर घर से कम से कम एक व्यक्ति नदी की सफाई के लिए आता है. यदि कोई किसी भी तरह की गंदगी फैलाते देखा जाए तो उस पर 5000 रु. तक जुर्माना लगता है . तभी इस नदी में 15 फीट गहराई तक पानी के नीचे का एक एक पत्थर क्रिसटल की तरह साफ-साफ नजर आता है। पानी में धूल का एक भी कण दिखाई नहीं देता. इस पूरे इलाके को साफ - सुथरा और प्लास्टिक मुक्त रखने की जिम्मेदारी यहाँ का हर एक ग्रामीण निभाता है ये लोग  नदी में मछली पकड़ना पसंद करते हैं, लेकिन जाल या रासायनिक चारा का उपयोग कतई नहीं करते . यहाँ कोई शोर नहीं है – पक्षी से ले कर अपने साँस का स्वर भी साफ़ सुन सकते हैं . हवा में कोई प्रदूषण नहीं , तभी स्थानीय लोग इसे अपना स्वर्ग मानते हैं . यहाँ नवंबर से अप्रैल तक सबसे अधिक पर्यटक आते हैं. मानसून में बोटिंग बंद रहती है, विदित हो एशिया के सबसे साफ गांव का दर्जा हासिल मावलिननॉन्ग भी उमनगोत के करीब ही है .

मेघालय के जल-जंगल –जमीं- जन और जानवर को पीढ़ियों से अपने मूल स्वरुप में सहेज कर रख रहे आदिवासियों का कहना है कि नदी पर बाँध बनने के बाद उनके गाँवों  तक नदी में पानी का बहाव कम हो जाएगा, खासकर सर्दियों में , जब सबसे ज्यादा पर्यटक आते हैं, यह जल धरा सूख जायेगी .  पूर्वी खासी हिल्स जिले के किसानो में यह भय है कि प्रस्तावित जलविद्युत परियोजना के कारण उनकी खेती योग्य भूमि डूब जाएगी. पश्चिम जयंतिया हिल्स और पूर्वी खासी हिल्स में के 13 गांवों की लगभग 296 हेक्टेयर खेती लायक भूमि यह बाँध खा जाएगा . परियोजना के दस्तावेज बानगी हैं कि इसके कारण निचली ढलान के कई गाँवों को विस्थापित करना पड़ेगा और संभव है कि शोंपडेंग और दावकी  जैसे पर्यटन केन्द्रों का नामोनिशान मिट जाए . 
उधर सरकार का दावा है कि बांध से उत्पन्न बिजली से गाँवों में विकास आएगा , उपरी हिस्से में कुछ गाँव इस परियोजना का समर्थन भी इसी लिए कर रहे हैं क्योंकि उन्हें भरोसा है कि बाँध के जलाशय सयून्हें ज्यादा पानी मिलेगा. नदी पर निर्भर लोगों की चिंता है कि यदि बाँध बनता है तो पर्यटक वहां ज्यादा जायेंगे, विस्थापन और डूब से उनके पारम्परिक रोजगार छूट जायेंगे और साथ ही बाँध के पानी के कारण मछलियों की पारंपरिक प्रजातियों पर भी संकट होगा . जान लें इस पहाड़ी क्षेत्र में वैसे भी खेती लायक मैदानी जमीं का अभाव होता है और यदि थोड़े भी खेत डूब में आते हैं तो किसान को मिलने वाले मुआवजे से उनका जीवन नहीं कटेगा , अब पहाड़ों की कतई या जंगल जला कर झूम खेती पर वैसे ही पाबन्दी है और ऐसे में नए खेत की कोई संभावना नहीं है .
प्रकृति पर निर्भर आदिवासी विकास की नयी परिभाषा से सहमत नहीं हैं . उनका कहना है कि एक सडक या बिजली के लोभ में वे अपनी नदी , पेड़ , स्वच्छता से समझौता कर नहीं सकते , वे अपने जीवन से संतुष्ट हैं और प्रकृति के बलिदान की कीमत पर कोई समझौता करना नहीं चाहते . 

 

 

 

 

 

 

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

Negligence, carelessness and lack of infrastructure make corona more dreaded

 

लापरवाही , बेपरवाही पर सवार  कोरोना की विध्वंसक लहर

पंकज चतुर्वेदी




इसे चेतावनी ही मान लें -- कोरोना का आतंक और असर पिछले साल से कई गुना अधिक है -- दिल्ली एनसीआर में अस्पताल में बिस्तर नहीं हैं, ऑक्सीजन नहीं है , वेंटिलेटर  का अकाल है -- भोपाल, पुणे जैसे शहर मौत घर बने हैं -- सिवनी, छिंदवाडा हो या लखनऊ गुवाहाटी -- मौत नाच रही है --  श्मशान स्थल हों या कब्रिस्तान जगह कम पड़ गयी है .  यह दुखद है कि एक साल के लम्बे समय का इस्तेमाल हमने अनुभवों से सीखने, समाज को दीर्घजीवी बदलाव के लिए तैयार करने और चिकित्सा तन्त्र को चुस्त दुरस्त करने में किया नहीं . इस बीच वायरस अपने रूप बदलता रहा और हम नारे लगाते रहे -- झूठी शान , आपदा के लिए तैयारी  के बनिस्पत श्रेय लूटने के छिछोरेपन और प्रकृति के विपरीत खड़े होने की जिद ने आज हालात बहुत गमगीन कर दिए हैं --

समाज को कोरोना की भयावह स्थिति की जानकारी उन आंकड़ों से मिलती है जो सरकार जारी करती है . जान लें आंकड़ों के दो इस्तेमाल होते हैं -- भविष्य के लिए तैयारी करना और समाज में भी या आशंका पैदा करना.  बीते कुछ दिनों से नापसंद वाली राज्य सरकारों में अधिक आंकड़े दिखाना और  चुनाव या व्यापार  वाले स्थान पर आंकड़े छुपाना- अब बंगाल में आठ चरण में क्भुनाव है तो वहाँ के आंकड़े जारी किये नहीं जा रहे , जबकि पश्चिम उत्तर प्रदेश के दो बड़े नेता- केन्द्रीय मंत्री  संजीव बालियान और विधायक सहदेव पुन्धिर कोरोना पोजिटिव पाए गए, ये दोनों ही बंगाल से चुनाव प्रचार कर लौटे थे . जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बयान दे रहे थे कि यदि इंसान बचेगा तो धर्म भी बचेगा- लोग नवरात्री और रमजान घर पर मनाएं - ठीक उसी समय  सटे हुए राज्य उत्त्रनाचल इके एक पन्ने के विज्ञापन अखबार में थे और टीवी के हर चैनल पर एक मिनिट की अपाल चल रही थी कि अधिक से अधिक लोग हरिद्वार कुम्भ में स्नान को आयें , राष्ट्रीय अखाड़ा परिषद के प्रमुख नरेंद्र गिरी खुद कोरोना संक्रमित हो गए , फिर भी कतिपय राजनेता उनके चरण छू कर वोट उगाहने का लोभ नहीं छोड़ पाए .  यह बानगी है कि हम एक साल में आम लोगों को तो दूर जिम्मेदार लोगों को भी कोविड की सतर्कता के प्रति संवेदनशील नहीं बना पाए


इस बार का वायरस पिछले साल की तुलना में दो दर्जन बार रूप बदल चूका है .अतः  यह इन्सान के रक्त कणिकाओं में अलग तरीके से कब्जा कर रहा रहा है, आँखों में खुजली या पानी आना , पेट खराब होना या कई बार बुखार भी न आना और महज कमजोरी लगने का अर्थ भी है कि कोरोना वायरस आपके शरीर  में प्रवेश कर चूका है. इस बार का वायरस इंसान के तरीकों को शायद भांप चुका है सो एक वह  इतना ताकतवर है कि एक संक्रमित व्यक्ति पांच मिनिट में आठ से नो लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है . इसके बावजूद दिल्ली मेट्रो में भीड़ कम नहीं हैं -- यह दुखद है कि दिल्ली में मेट्रों में सीट पर तो एक छोड़ कर एक बैठना है लेकिन खड़े होने पर सट  कर   कंधे छिलती भीड़ पर कोई रोक नहीं हैं .  जब कोरोना अपने रूप बदल कर गर्मी के माकूल मौसम का इंतज़ार कर रहा था, जब तीन महीने पहले यूरोप में कई जगह  फिर से लोकक डाउन लगने ने जता दिया था कि अभी यह महामारी और रंग दिखायेगी, हम लोग जीडीपी , व्यापार और  मार्च २०२० के पहले के जीवन में फिर से लोटने की जुगत लगा रहे थे .


बड़ा हाला हुआ कि हमने कोरोना की दवा को खोज लिया है और रेम्डेसीवियर से व्यार्स ग्रस्त मरीज की जान बचायी जा सकती हैं . इधर  होली के विदा होते ही कोरोना के पंजे भारत पर मजबूत पकड बना रहे थे और हम  अपने यहा हालात बुरे होने तक इस दवाई को दुसरे देशों को बेच रहे थे, दिल्ली- नोयडा में यह इंजेक्शन दस गुना ज्यादा दाम पर मिला, इंदौर, अमदाबाद और पुणे में इसके लिए कई किलोमीटर लम्बी कतारें दिखाएँ, जिसमें जाहिर है कि कोरोना गाइड लाईन का पालन भी नहीं हुआ . . शर्मनाक तो ऑक्सीजन जैसी सामान्य सुबिधा का अकाल पड़ना  है -- बिस्तरों की कमी, चिकित्सा स्टाफ का सही प्रशिक्षण और उन्हें इस तनाव के हालात में बेहतर सेवा देने लायक सुविधाएँ देने में हम नाकाम रहे . जाहिर है कि हमारा चिकित्सा तानाबाना इस समय बेदम हो कर गिर रहा है .


एक बात और, जिस जल्दबाजी में हमने टीका खोजने का जश्न मनाया , वह भी आम लोगों को भ्रमित और कोरोना के प्रति बेपरवाही के लिए प्रेरित करने वाला था , यह बताया नहीं गया कि इंसान एक या दोनो  बार टीका लगवा कर भी निरापद नहीं हैं -- यह टीका महज साठ  फीसदी ही सफल है -- वह भी दूसरी डोज लगने के तीन हफ्ते बाद महज छः महीने के लिए .

हमारे तन्त्र की सबसे बड़ी विफलता बड़े शहरों से लोगों का पलायन रोक पाना रही है और जान लें इससे पिछ्ले साल भी और इस बार भी कोरोना संक्रमण का सबसे तेज विस्तार हुआ है. आज हर एक लाश का गुनाहगार हमरे वे हड़बड़ी मे उठाये गए कदम हैं जिनके चलते  पलायन के बाद लोगों  का गाँव से शहर लौटे. , चुनाव के लिए भीड़ जोड़ना , बगैर सोचे समझे बाजार- यातायात को सामान्य कर देना - शिक्षण संसथान खोल देना -- जैसी ऐसी गलतियां हैं जो देश को बहुत भार पड़ेंगी . अब हालात बेकाबू हैं -कुछ सवाल अपने जन प्रतिनिधियों से जरुर पूछें -

1. हम एक साल में वेक्सिन और कोरोना से निबटने की दवा खोजने का दावा करते रहे लेकिन आपातकाल में चिकित्सा  तन्त्र की मजबूती के लिए काम नहीं कर पाए -- एक साल बाद भी हम बिस्तर, ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे हैं -- वेक्सिन का स्टोक खत्म है  और हमारा देश पाकिस्तान तक को मुफ्त में वेक्सीन बांटता रहा .

२. जान लें कि कोरोना के विस्तार से उन लोगों  की दिक्कतें और बढ़ जाती हैं जो अन्य बीमारियों से ग्रस्त हैं - दिल्ली एम्स हो या लखनऊ का मेडिकल कालेज बड़ी संख्या में चिकित्सक संक्रमित हो गये हैं -- वैसे ही हमारे यहाँ डॉक्टरों की कमी है , यह हालात कई अन्य रोगियों को बगैर इलाज के लिए मरने को मजबूर कर रहे हैं .

2. आरोग्य सेतु अस्पताल के आंकड़े जब सरकार के पास हैं तो प्लाज्मा के लिए लोगों को खोजना क्यों पड़ रहा है ?

3. हर मोहल्ले में वेक्सिन की तैयारी क्यों नहीं -- साथ साल से अधिक और 14 साल से कम के लोगों को घर में रहना अनिवार्य किया जाए, यदि प्रारंभ में केवल शहरी आबादी (जहां भीड़ के कारण संक्रमण तेजी से फैलता है ) को सामने रखा जाए तो हमें कोई 35 करोड़ को वेक्सिन करना होगा -- इस योजना से क्यों काम नहीं हुआ ? आज तीन महीने में महज छः फीसदी लोगों तक ही वेक्सीन पहुंची है , इस गति से तो हमें एक साल लगेगा और तब तक ना जाने कौन् सा रूप धार कर यह वायरस नए सिरे से कहर बरपाए .

4. कोरोना काल का वसूला गया स्पेशल फंड कहाँ गया जो अब लोगों से वेक्सिन के पैसे वसूले जा रहे हैं ?

5. आक्सीजन उत्पादन, वेक्सिन उत्पादन को क्यों नहीं बढ़ाया गया ? वेक्सीन हमारी सरकारी प्रयोग शालाओं के स्थान पर एक निजी संस्थान में क्यों विकसित किया गया उअर अब वह संस्थान वेक्सीन का व्यापार कर रहा है .

6. गांधी नगर , गुजरात के स्थानीय निकाय के चुनाव कोरोना के कारण स्थगित कर दिए गये लेकिन उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव या मध्य प्रदेश की दमोह सीट पर उप चुनाव या पांच राज्यों में चुनाव क्यों नहीं रोका गया ? काश हमारे नेता थोड़े नैतिक, जिम्मेदार और सत्ता लूटने के आकांक्षी नहीं होते और घोषण करते कि वे खुद ना तो रैली करेंगे, न प्रचार -- इस बार जनता बगैर भीड़ जोड़े ही वोट दे -- इसमें सबसे निरशाजनक, गैरजिम्मेदाराना और नकारा चुनाव आयोग रहा -- उसे केंचुआ नहीं कह सकता- केंचुआ बहुत काम का होता है

7. अभी प्रकृति नहीं चाहती है कि उसे फिर दूषित करो लेकिन हमने लॉक डाउन को उसकी मर्जी के विपरीत पूरा खोल दिया और फिर गंदगी मचाना शुरू कर दी . एक साल में हमारे पास पलायन, दैनिक मजदुर और मजबूर लोगों के आंकड़े थे-- काश विज्ञपन पर पैसे फूंकने की जगह इन लोगों को नियमित राशन, घर से काम के विकल्प के लिए योजनाबध्ध काम किया जाता - सरकारी दफ्तर खोलने की जल्दी थी ताकि मलाईदार लगो फिर जुट सकें ----- आज भी कई निजी कम्पनियाँ वर्क फ्रॉम होम कर रही हैं हैं और उनके स्टाफ का कोविड आंकडा लगभग शून्य है ---

8. क्या कुम्भ में भीड़ जोड़ने से बचा नहीं जा सकता था ?

लॉक डाउन तो करना होगा लेकिन पलायन होता है तो संक्रमण तेजी से फैलेगा-- सरकार को अमेरिका की तर्ज पर असंगठित क्षेत्र के लोगों के खाते में सीधे धन भेजने -- बाज़ार को एक चोथाई खोलने जैसी योजना पर विचार करना होगा, रात्रि कर्फय महज पुलिस राज कके परिक्षण के लिए हैं -- भीड़ -- बेपरवाही दिन में ज्यादा होती है

जान लें लापरवाह मत रहें -- वायरस बहुत खतरनाक है -- इस बार डिप्रेशन और बैचेनी अभी बढ़ेगी -- घर दोस्तों को साथ बनाये रखें.

 

Why was the elephant not a companion?

    हाथी क्यों न रहा साथी ?                                                                    पंकज चतुर्वेदी   हाथियों और मानव के ब...