लापरवाही , बेपरवाही पर सवार कोरोना की विध्वंसक लहर
पंकज चतुर्वेदी
इसे चेतावनी ही मान लें -- कोरोना
का आतंक और असर पिछले साल से कई गुना अधिक है -- दिल्ली एनसीआर में अस्पताल में
बिस्तर नहीं हैं, ऑक्सीजन नहीं है ,
वेंटिलेटर का
अकाल है -- भोपाल, पुणे जैसे शहर मौत घर बने हैं -- सिवनी, छिंदवाडा हो या लखनऊ गुवाहाटी --
मौत नाच रही है -- श्मशान स्थल हों या
कब्रिस्तान जगह कम पड़ गयी है . यह दुखद है
कि एक साल के लम्बे समय का इस्तेमाल हमने अनुभवों से सीखने, समाज को दीर्घजीवी
बदलाव के लिए तैयार करने और चिकित्सा तन्त्र को चुस्त दुरस्त करने में किया नहीं .
इस बीच वायरस अपने रूप बदलता रहा और हम नारे लगाते रहे -- झूठी शान , आपदा के लिए तैयारी
के बनिस्पत श्रेय लूटने के छिछोरेपन और
प्रकृति के विपरीत खड़े होने की जिद ने आज हालात बहुत गमगीन कर दिए हैं --
समाज को कोरोना की भयावह स्थिति की जानकारी उन आंकड़ों से मिलती है जो सरकार जारी करती है . जान लें आंकड़ों के दो इस्तेमाल होते हैं -- भविष्य के लिए तैयारी करना और समाज में भी या आशंका पैदा करना. बीते कुछ दिनों से नापसंद वाली राज्य सरकारों में अधिक आंकड़े दिखाना और चुनाव या व्यापार वाले स्थान पर आंकड़े छुपाना- अब बंगाल में आठ चरण में क्भुनाव है तो वहाँ के आंकड़े जारी किये नहीं जा रहे , जबकि पश्चिम उत्तर प्रदेश के दो बड़े नेता- केन्द्रीय मंत्री संजीव बालियान और विधायक सहदेव पुन्धिर कोरोना पोजिटिव पाए गए, ये दोनों ही बंगाल से चुनाव प्रचार कर लौटे थे . जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बयान दे रहे थे कि यदि इंसान बचेगा तो धर्म भी बचेगा- लोग नवरात्री और रमजान घर पर मनाएं - ठीक उसी समय सटे हुए राज्य उत्त्रनाचल इके एक पन्ने के विज्ञापन अखबार में थे और टीवी के हर चैनल पर एक मिनिट की अपाल चल रही थी कि अधिक से अधिक लोग हरिद्वार कुम्भ में स्नान को आयें , राष्ट्रीय अखाड़ा परिषद के प्रमुख नरेंद्र गिरी खुद कोरोना संक्रमित हो गए , फिर भी कतिपय राजनेता उनके चरण छू कर वोट उगाहने का लोभ नहीं छोड़ पाए . यह बानगी है कि हम एक साल में आम लोगों को तो दूर जिम्मेदार लोगों को भी कोविड की सतर्कता के प्रति संवेदनशील नहीं बना पाए
इस बार का वायरस पिछले साल की तुलना में दो दर्जन बार रूप बदल चूका है .अतः यह इन्सान के रक्त कणिकाओं में अलग तरीके से कब्जा कर रहा रहा है, आँखों में खुजली या पानी आना , पेट खराब होना या कई बार बुखार भी न आना और महज कमजोरी लगने का अर्थ भी है कि कोरोना वायरस आपके शरीर में प्रवेश कर चूका है. इस बार का वायरस इंसान के तरीकों को शायद भांप चुका है सो एक वह इतना ताकतवर है कि एक संक्रमित व्यक्ति पांच मिनिट में आठ से नो लोगों को अपनी चपेट में ले रहा है . इसके बावजूद दिल्ली मेट्रो में भीड़ कम नहीं हैं -- यह दुखद है कि दिल्ली में मेट्रों में सीट पर तो एक छोड़ कर एक बैठना है लेकिन खड़े होने पर सट कर कंधे छिलती भीड़ पर कोई रोक नहीं हैं . जब कोरोना अपने रूप बदल कर गर्मी के माकूल मौसम का इंतज़ार कर रहा था, जब तीन महीने पहले यूरोप में कई जगह फिर से लोकक डाउन लगने ने जता दिया था कि अभी यह महामारी और रंग दिखायेगी, हम लोग जीडीपी , व्यापार और मार्च २०२० के पहले के जीवन में फिर से लोटने की जुगत लगा रहे थे .
बड़ा हाला हुआ कि हमने कोरोना की दवा को खोज लिया है और रेम्डेसीवियर से व्यार्स ग्रस्त मरीज की जान बचायी जा सकती हैं . इधर होली के विदा होते ही कोरोना के पंजे भारत पर मजबूत पकड बना रहे थे और हम अपने यहा हालात बुरे होने तक इस दवाई को दुसरे देशों को बेच रहे थे, दिल्ली- नोयडा में यह इंजेक्शन दस गुना ज्यादा दाम पर मिला, इंदौर, अमदाबाद और पुणे में इसके लिए कई किलोमीटर लम्बी कतारें दिखाएँ, जिसमें जाहिर है कि कोरोना गाइड लाईन का पालन भी नहीं हुआ . . शर्मनाक तो ऑक्सीजन जैसी सामान्य सुबिधा का अकाल पड़ना है -- बिस्तरों की कमी, चिकित्सा स्टाफ का सही प्रशिक्षण और उन्हें इस तनाव के हालात में बेहतर सेवा देने लायक सुविधाएँ देने में हम नाकाम रहे . जाहिर है कि हमारा चिकित्सा तानाबाना इस समय बेदम हो कर गिर रहा है .
एक बात और, जिस जल्दबाजी में
हमने टीका खोजने का जश्न मनाया , वह भी आम लोगों को भ्रमित और कोरोना के प्रति
बेपरवाही के लिए प्रेरित करने वाला था , यह बताया नहीं गया कि इंसान एक या दोनो बार टीका लगवा कर भी निरापद नहीं हैं -- यह टीका
महज साठ फीसदी ही सफल है -- वह भी दूसरी
डोज लगने के तीन हफ्ते बाद महज छः महीने के लिए .
हमारे तन्त्र की सबसे बड़ी विफलता
बड़े शहरों से लोगों का पलायन रोक पाना रही है और जान लें इससे पिछ्ले साल भी और इस
बार भी कोरोना संक्रमण का सबसे तेज विस्तार हुआ है. आज हर एक लाश का गुनाहगार हमरे
वे हड़बड़ी मे उठाये गए कदम हैं जिनके चलते पलायन के बाद लोगों का गाँव से शहर लौटे. , चुनाव के लिए
भीड़ जोड़ना , बगैर सोचे समझे बाजार- यातायात को सामान्य कर देना - शिक्षण संसथान
खोल देना -- जैसी ऐसी गलतियां हैं जो देश को बहुत भार पड़ेंगी . अब हालात बेकाबू
हैं -कुछ सवाल अपने जन प्रतिनिधियों से जरुर पूछें -
1. हम एक साल में वेक्सिन और कोरोना से निबटने की दवा खोजने का दावा
करते रहे लेकिन आपातकाल में चिकित्सा तन्त्र की मजबूती के लिए काम नहीं कर पाए -- एक साल
बाद भी हम बिस्तर, ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे हैं -- वेक्सिन का स्टोक खत्म है और हमारा देश पाकिस्तान तक को मुफ्त में वेक्सीन
बांटता रहा .
२. जान लें कि कोरोना के विस्तार
से उन लोगों की दिक्कतें और बढ़ जाती हैं
जो अन्य बीमारियों से ग्रस्त हैं - दिल्ली एम्स हो या लखनऊ का मेडिकल कालेज
बड़ी संख्या में चिकित्सक संक्रमित हो गये हैं -- वैसे ही हमारे यहाँ डॉक्टरों की
कमी है , यह हालात कई अन्य रोगियों को बगैर इलाज के लिए मरने को मजबूर कर
रहे हैं .
2. आरोग्य
सेतु अस्पताल के आंकड़े जब सरकार के
पास हैं तो प्लाज्मा के लिए लोगों को खोजना क्यों पड़ रहा है ?
3. हर मोहल्ले में वेक्सिन की तैयारी क्यों नहीं -- साथ साल से अधिक और 14 साल से कम के
लोगों को घर में रहना अनिवार्य किया
जाए, यदि
प्रारंभ में केवल शहरी आबादी
(जहां भीड़ के कारण संक्रमण तेजी से फैलता है ) को सामने रखा जाए तो हमें कोई 35 करोड़ को
वेक्सिन करना होगा -- इस योजना से क्यों काम नहीं हुआ ? आज तीन महीने
में महज छः फीसदी लोगों तक ही वेक्सीन पहुंची है , इस गति से तो हमें एक साल लगेगा
और तब तक ना जाने कौन् सा रूप धार कर यह वायरस नए सिरे से कहर बरपाए .
4. कोरोना काल का वसूला गया स्पेशल फंड कहाँ गया जो अब लोगों से
वेक्सिन के पैसे वसूले जा रहे हैं ?
5. आक्सीजन उत्पादन,
वेक्सिन उत्पादन को क्यों नहीं बढ़ाया गया ? वेक्सीन
हमारी सरकारी प्रयोग शालाओं के स्थान पर एक निजी संस्थान में क्यों विकसित किया
गया उअर अब वह संस्थान वेक्सीन का व्यापार कर रहा है .
6. गांधी नगर , गुजरात के स्थानीय निकाय के चुनाव कोरोना के कारण स्थगित कर दिए
गये लेकिन उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव या मध्य प्रदेश की दमोह सीट पर उप चुनाव
या पांच राज्यों में चुनाव क्यों नहीं रोका गया ? काश हमारे नेता थोड़े नैतिक, जिम्मेदार और
सत्ता लूटने के आकांक्षी नहीं होते और घोषण करते कि वे खुद ना
तो रैली करेंगे, न प्रचार -- इस बार जनता बगैर भीड़ जोड़े ही वोट दे -- इसमें सबसे
निरशाजनक, गैरजिम्मेदाराना और नकारा चुनाव आयोग रहा -- उसे केंचुआ नहीं कह
सकता- केंचुआ बहुत काम का होता है
7. अभी प्रकृति नहीं चाहती है कि उसे फिर दूषित करो लेकिन हमने लॉक
डाउन को उसकी मर्जी के विपरीत पूरा खोल दिया और फिर गंदगी मचाना शुरू कर दी . एक
साल में हमारे पास पलायन, दैनिक मजदुर और मजबूर लोगों के आंकड़े थे-- काश विज्ञपन पर पैसे
फूंकने की जगह इन लोगों को नियमित राशन, घर से काम के विकल्प के लिए
योजनाबध्ध काम किया जाता - सरकारी दफ्तर खोलने की जल्दी थी ताकि मलाईदार लगो फिर
जुट सकें ----- आज भी कई निजी कम्पनियाँ वर्क फ्रॉम होम कर रही हैं हैं और उनके
स्टाफ का कोविड आंकडा लगभग शून्य है ---
8. क्या कुम्भ में भीड़ जोड़ने से बचा नहीं जा सकता था ?
लॉक डाउन तो करना होगा लेकिन
पलायन होता है तो संक्रमण तेजी से फैलेगा-- सरकार को अमेरिका की तर्ज पर असंगठित
क्षेत्र के लोगों के खाते में सीधे धन भेजने -- बाज़ार को एक चोथाई खोलने जैसी
योजना पर विचार करना होगा, रात्रि कर्फय महज पुलिस राज कके परिक्षण के लिए हैं -- भीड़ --
बेपरवाही दिन में ज्यादा होती है
जान लें लापरवाह मत रहें --
वायरस बहुत खतरनाक है -- इस बार डिप्रेशन और बैचेनी अभी बढ़ेगी -- घर दोस्तों को
साथ बनाये रखें.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें