पुलिस-तंत्र के बस का नहीं है नक्सलवाद से निबटना
पंकज चतुर्वेदी
बस्तर के बीजापुर में तर्रेम गांव के पास षनिवार की सुबह किसी फिल्म की शूटिंग जैसा दृश्य था, एक तरफ हजार से अधिक नक्सली सुरक्षित आउ़ में आग बरसा रहे थे तो दूसरी तरफ खुद को बचाते, अपने घायल साथियों को सहेजते सात सौ से अधिक जवान खुले मैदान से जवाब दे रहे थे.चार घंटे तक दोनों तरफ से गोलियां चलती रहीं और उसके बाद वहाँ मौत का सन्नाटा था.नक्सली तो अपने मारे गए साथियों को ट्रैक्टरों में लाद कर ले गए लेकिन मृतक जवानों के शरीर में बम होने या इलाके में लैंड माईन्स के भय से श्हीद जवानों की लाशें चौबीस घंटे तक खुले में पड़ी रहीं.रविवार को जब पर्याप्त बल वहां पहुंचा व अपने साथियों के षरीरों को उठाने लगा तो कई के षरीर पर असंख्य चीटिंया हमारे 22 जवान श्हीद हुए, इससे अधिक गंभीर रूप से घायल हुए, नक्सनियों ने हथियार, कपड़े, खाने का सामान, दवाई जो भी मिला लूट लिया.
मारे गए जवानों में बड़ी संख्या स्थानीय आदिवासी युवाओं की है.इस घटना का दुभाग्यपूर्ण पक्ष यह है कि गत एक दश्क में नक्सलियों ने कम से कम 15 बार ऐसे ही घात लगा कर हमले किए, ऐसे ही इलाके को उन्होंने चुना.फिर भी हमारे सुरक्षा बल सीख नहीं ले रहे हैं.एक राज्य के एक छोटे से हिस्से में(हालांकि यह हिस्सा केरल राज्य के क्षेत्रफल के बराबर है ) स्थानीय पुलिस, एसटीएफ, सीआरपीएफ और बीएसएफ की कई टुकड़ियां मय हेलीकॉप्टर के तैनात हैं और हर बार लगभग पिछले ही तरीके से सुरक्षा बलों पर हमला होता है.नक्सली खबर रखते हैं कि सुरक्षा बलों की पेट्रोलिंग पार्टी कब अपने मुकाम से निकली व उन्हें किस तरफ जाना है.वे खेत की मेंढ तथा ऊंची पहाड़ी वाले इलाके की घेराबंदी करते हैं और जैसे ही सुरक्षा बल उनके घेरे के बीच पहुंचते है।, अंधाधुंध फायरिंग करते हैं.इस बार इस हमले के लिए नक्सलियों ने कोई डेढ किलोमीटर तक यू आकार में घात लगा कर व्यू रचना तैयार की थी.
यह सभी जानते हैं कि बीजापुर -सुकमा में खूंखर आतंकी नक्सली हिडमा की तूती बोलती है.वह वह पीपुल्य लिबरेश्न ग्रुप आर्मी का प्लाटून कमांडर है.उसकी सुरक्षा तीन परतों में होती है.पहली परत उसके ठहरने के स्थान से एक किलोमीटर दूर, दूसरी परत आधा किलोमीटर व आखिरी लेयर 200 मीटर दूर होती है.इसमें पाचं सौ से लगभग छोटी दूरी की मार वाले हथियार से लैस जवान होते हैं.षनिवार की सुबह गश्ती दल जल्दी सुबह निकला और हिडमा के गांव टेकलागुड़ा के पास तक दल गया.सुबह नौ बजे जब दल वापिस आ रहा था तब प्लाटून के अंतिम टुकड़ी पर हमला किया गया.आगे निकल गए दल जब तक वापिस आए तब तक वहां लाषें थीं.पिछले कई हमलों में ठीक इसी तरह नक्सली छुप कर सुरक्षा बलों को फंसाते रहे हैं और वे खुद को सुरक्षित स्थानों पर ऊंचाई में अपनी जगह बना कर सुरक्षा बलों पर हमला करते रहे हैं.हर बार पिछली घटनाओं से सबक लेने की बात आती है, लेकिन कुछ ही हफ्ते में सुरक्षाबल पुराने हमलों को भूल जाते हैं व फिर से नक्सलियों के फंदे में फंस जाते हैं.
बदले, प्रतिहिंसा और प्रतिषोध की भावना के चलते ही देष के एक तिहाई इलाके में ‘लाल सलाम‘ की आम लोगों पर पकड़ सुरक्षा बलों से ज्यादा है.नक्सली हिंसा को समाप्त करने के लिए बातचीत षुरू करने के लिए कुछ साल पहले सुपी्रम कोर्ट भी कह चुका है लेकिन जब तक इस पर कोई पहल होती है, नक्सली ऐसे पाषविक नरसंहार कर बातचीत का रास्ता बंद कर देते हैं.
बस्तर के जिस इलाके में सुरक्षा बलों का खून बहा है, वहां स्थानीय समाज दो पाटों के बीच पिस रहा है और उनके इस घुटनभरे पलायन की ही परिणति है कि वहां की कई लोक बोलियां लुप्त हो रही हैं.धुरबी बोलने वाले हल्बी वालों के इलाकों में बस गए हैं तो उनके संस्कार, लोक-रंग, बोली सबकुछ उनके अनुरूप हो रही है.इंसान की जिंदगी के साथ-साथ जो कुछ भी अकल्पनीय नुकसान हो रहे हैं, इसके लिए स्थानीय प्रषासन की कोताही ही जिम्मेदार है.नक्सलियों का अपना खुफिया तंत्र सटीक है जबकि प्रषासन खबर पा कर भी कार्यवाही नहीं करता.खीजे-हताष सुरक्षा बल जो कार्यवाही करते हैं, उनमें स्थानीय निरीह आदिवासी ही षिकार बनते हैं और यही नक्सलियों के लिए मजबूती का आधार होता है।
एक तरफ सरकारी लूट व जंगल में घुस कर उस पर कब्जा करने की बेताबी है तो दूसरी ओर आदिवासी क्षेत्रों के संरक्षण का भरम पाले खून बहाने पर बेताब ‘दादा’ लोग.बीच में फंसी है सभ्यता, संस्कृति, लोकतंत्र की साख.नक्सल आंदोलन के जवाब में ‘सलवा जुड़ुम’ का स्वरूप कितना बदरंग हुआ था और उसकी परिणति दरभा घाटी में किस नृषंसता से हुई ; सबके सामने है.बंदूकों को अपनों पर ही दाग कर खून तो बहाया जा सकता है, नफरत तो उगाई जा सकती है, लेकिन देष नहीं बनाया जा सकता.तनिक बंदूकों को नीचे करें, बातचीत के रास्तें निकालें, समस्या की जड़ में जा कर उसके निरापद हल की कोषिष करें- वरना सुकमा की दरभा घाटी या बीजापुर के आर्सपेटा में खून के दरिया ऐसे ही बहते रहेंगे.लेकिन साथ ही उन खुफिया अफसरों, वरिश्ठ अधिकारियों की जिम्मेदारी भी तय की जाए जिनकी लापरवाही के चलते 22 सुरक्षाकर्मी के गाल में बेवहज समा गया.सनद रहे उस इलाके में खुफिया तंत्र विकसित करने के लिए पुलिस को बगैर हिसाब-किताब के अफरात पैसा खर्च करने की छूट है और इसी के जरिये कई बार बेकार हो गए या फर्जी लोगों का आत्मसमर्पण दिखा कर पुलिस वाहवाही लूटती हैं.एक बात और, अभी तक बस्तर ुपलिस कहती रही कि नक्सली स्थानीय नहीं हैं और वे सीमायी तेलंगाना के हैं, लेकिन इस बार उनकी गोंडी सुन कर साफ हो जाता है कि विद्रोह की यह नरभक्षी ज्वाला बस्तर के अंचलों से ही हैं. गौरतलब है कि एक हजार से ज्यादा नक्सली मय हथियार के जमा होते रहे व खुफिया तंत्र बेखबर रहा, जबकि उस इलाके में फोर्स के पास मानवरहित विमान द्रोण तक की सुविधा है.
यह हमला उन कारणों को आंकने का सही अवसर हो सकता है जिनके चलते आम लोगों का सरकार या पुलिस से ज्यादा नक्सलियों पर विष्वास है, यह नर संहार अपनी सुरक्षा व्यवस्था व लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आए झोल को ठीक करने की चेतावनी दे रहा है, दंडकारण्य में फैलती बारूद की गंध नीतिनिर्धारकों के लिए विचारने का अवसर है कि नक्सलवाद को जड से उखाडने के लिए बंदूक का जवाब बंदूक से देना ही एकमात्र विकल्प है या फिर संवाद का रास्ता खोजना होगा या फिर एक तरफ से बल प्रयोग व दूसरे तरफ से संवाद की संभावनाएं खोजना समय की मांग है.आदिवासी इलाकां की कई करोड अरब की प्राकृतिक संपदा पर अपना कब्जा जताने के लिए पूंजीवादी घरानों को समर्थन करने वाली सरकार सन 1996 में संसद द्वारा पारित आदिवासी इलाकों के लिए विषेश पंचायत कानून(पेसा अधिनियम) को लागू करना तो दूर उसे भूल ही चुकी है.इसके तहत ग्राम पंचायत को अपने क्षेत्र की जमीन के प्रबंधन और रक्षा करने का पूरा अधिकार था.इसी तरह परंपरागत आदिवासी अधिनियम 2006 को संसद से तो पारित करवा दिया लेकिन उसका लाभ दंडकारण्य तक नहीं गया, कारण वह बड़े धरानों के हितों के विपरीत है.असल में यह समय है उन कानूनों -अधिनियमों के क्रियान्वयन पर विचार करने का, लेकिन हम बात कर रहे हैं कि जनजातिय इलाकों में सरकारी बजट कम किया जाए, क्यांकि उसका बड़ा हिस्सा नक्सली लेवी के रूप में वसूल रहे हैं.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें