My writings can be read here मेरे लेख मेरे विचार, Awarded By ABP News As best Blogger Award-2014 एबीपी न्‍यूज द्वारा हिंदी दिवस पर पर श्रेष्‍ठ ब्‍लाॅग के पुरस्‍कार से सम्‍मानित

शनिवार, 31 अगस्त 2019

New Idea for new era education

हमें चाहिए नए जमाने के शिक्षक

पंकज चतुर्वेदी 
जब भारत के समााजिक-आर्थिक समीकरण बदल रहे हैं, जाति-समाज-लिंग की दीवारें छोटी हो रही हैं, जब शिक्षा बदलाव, रोजगार का साधन बन रही है, तब भारत की शिक्षा नीति महज आंकड़ों, दावों और नारों में उलझी है। सरकारें बदलते ही भाषा और इतिहास को बदलने की सियासत शुरू हो जाती है। आजादी के बाद हमारी सरकार ने शिक्षा विभाग को कभी गंभीरता से नहीं लिया । इसमें इतने प्रयोग हुए कि आम आदमी लगातार कुंद दिमाग होता गया । हम गुणात्मक दृष्टि से पीछे जाते गए, मात्रात्मक वृद्वि भी नहीं हुई । कुल मिला कर देखें तो  शिक्षा  प्रणाली का उद्देश्य  और पाठ्यक्रम के लक्ष्य एक दूसरे में उलझ गए व एक गफलत की स्थिति बन गई । शिक्षा  या स्कूल एक पाठ्यक्रम को पूरा करने की जल्दी, कक्षा में ब्लेक बोर्ड,  हल करने की जुगत में उलझ कर रह गया ।

दूसरी तरफ बच्चे के लिए शिक्षा एकालाप है, एक तरफ से सवाल दूसरी तरफ से जवाब और उसी से तय हो जाता है कि बच्चा कितना योग्य है। योग्य? किस बात के लिए योग्य? समाज में जीने के लिए प्रकृति को पहचानने के , रोजगार के या -- ऐसे ही किसी जमीनी धरातल के ? नहीं महज एक ऐसा कागज का टुकड़ा पाने के योग्य हो जाता है जिससे उसका स्कूल का कमरा तो बदल जाता है लेकिन जीवन की असलियत से सामना करने की क्षमता बढ़ती नहीं।
जिस देश में मोबाईल कनेक्शन की संख्या देश की कुल आबादी के लगभग करीब पहुंच रही हो, जहां किशोर ही नहीं 12 साल के बच्चे के लिए मोबाईल स्कूली-बस्ते की तरह अनिवार्य बनता जा रहा है, वहां बच्चों को डिजिटल साक्षरता, जिज्ञासा, सृजनशीलता, पहल और सामाजिक कौशलों की ज़रूरत । हालांकि यह भी सच है कि स्कूल में बच्चों को मोबाईल का इस्तेमाल शिक्षा के राते में बाधक माना जाता है, परिवार भी बच्चों को अनचाहे तरीके से कड़ी निगरानी(जहां तक संभव हो) के बीच मोबाईल थमाते हैं। वास्तविकता यह है कि सस्ते डाटा के साथ हाथों में बढ़ रहे मोबाईल का सही तरीके से इस्तेमाल खुद को शिक्षक कहने वालों के लिए एक खतरा सरीखा है। हमारे यहां बच्चों को मोबाईल के सटीक इस्तेमाल का कोई पाठ किताबांें में हैं ही नहीं।
भारत में शिक्षा का अधिकार  व कई अन्य कानूनों के जरिये बच्चों के स्कूल में पंजीयन का आंकड़ा और साक्ष्रता दर में व ृद्धि निश्चित ही उत्साहवर्धक है लेकिन जब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात आताी है तो यह आंकड़ा हमें शर्माने को मजबूर करता है कि हमारे यहां आज भी 10 लाख शिक्षकों की कमी है। जो शिक्षक हैं भी वे महज उनको दिए गए कोर्स को पढ़ाने को ही अपनी ड्यूटी समझते हैं। कुछ इक्का-दुक्का नवाचार की बात करते हैं तो उन्हें सिस्टम का सहयोग मिलता नहीं है।
आज स्कूली बच्चे को मिडडे मील लेना हो या फिर वजीफा हर जगह डिजिटल साक्षरता की जरूरत महसूस हो रही है।  हम पुस्तकों में पढ़ाते हैं कि गाय रंभाती है या शेर दहाड़ता है। कोई भी शिक्षक यह सब अब मोबाईल पर सहजता से बच्चों को दिखा कर  अपने पाठ को कम शब्दों में सहजता से समझा सकता है। मोबाईल पर सर्च इंजन का इस्तेमाल, वेबसाईट पर उपलब्ध सामग्री में यह चीन्हना कि कोैन सी पुष्ट-तथ्य वाली नहीं है,  अपने पाठ में पढ़ाए जा रहे स्थान, ध्वनि, रंग , आकृति को तलाशना व बूझना प्राथमिक शिक्षा में शमिल होना चाहिए। किसी दृश्य को  चित्र या वीडिया के रूप में सुरक्षित रखना एक कला के साथ-साथ सतर्कता का भी पाठ है। मैंने अपने रास्ते में कठफोडवा देखा, यह जंगल महकमे के लिए सूचना हो सकती है कि हमारे यहां यह पक्षी भी आ गया है। साथ ही आवाजों को रिकार्ड करना, भी महत्वूपर्ण कार्य है।
दुखद है कि जब डिजिटल गजेट्स हमारे लेन-देन, व्यापार, परिवहन, यहां तक कि अपनी पहचान के लिए अनिवार्य होते जा रहे हैं हम बच्चों को वहीं घिसे-पिटे विषयों पर ना केवल पढ़ा रहे हैं, बल्कि रटवा रहे हैं। हाथ व सामज में गहरे तक घुस गए मोबाईल का इस्तेमाल छोटेपन से ही सही तरीके से ना सिखा पाने का ही कुपरिणाम है कि बच्चे पोर्न, अपराध देखने के लिए इस ज्ञान के भंडार का इस्तेमाल कर रहे हैं। यूट्यूब ऐसे वीडियो से पटी पड़ी  है जिनमें सुदूर गांव-देहात में किन्हीं लड़के-लड़कियों के मिलन के दृश्य होते हैं।  काश अपने पाठ के एक हिस्से से संबंधित फिल्म बनाने जैसा कोई अभ्यास इन बच्चों के सामने होता तो वे काले अक्ष्रों में छपी अपनी पाठ्य पुस्तक को दृश्य-श्रव्य से सहजता से प्रस्तुत करते। जान लें इस यंत्र को जागरूकता के लिए इस्तेमाल करने का प्रारंभ स्कूली स्तर से ही होना है।
हमारे शिक्षक आज भी बीएड, एलटी या बीएलएड पाठ्यक्रमांे को उर्त्तीण कर आ रहे है जहां कागज के चार्ट, थर्माकोल के मॉडल या बेकार पड़ी माचिस, आईसक्रीम की डंडी से कुछ बना कर बच्चों को विषय समझाने की प्रक्रिया से गुणवत्ता का निर्धारण होता है। रंग और परिकल्पना के क्षेत्र में वैचारिक रूप से कंगाल हो रहे बच्चों को नकल या नदी-झोपड़ी-पहाड़ वाली सीनरी खींचने से उबारने के लिए शिक्षकों को नई तकनीक का सहरा लेना होगा। एक मोटा अनुमान है कि अभी हमें ऐसे कोई साढ़े छह लाख शिक्षक चाहिए जो कि सूचना-विस्फोट के युग में तेजी से किशोर हो रहे बच्चों में शिक्षा की उदासी व उबासी दूर कर, नए तरीके से , नई दुनिया की समझ विकसित करने में सहायक हों। यह भी  कुटु सत्य है कि अभी इस तरह का कोई पाठ्यक्रम शिक्षकों के लिए ही उपलब्ध नहीं है, बच्चों की बात कौन करे।
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छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देष के आठ षिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रो. यषपाल कर रहे थे । समिति ने देषभर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी । उसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है ना समझ पाने का बोझ । बेहतर समझ के लिए ही हमें नई तकनीकी के सही इस्तेमाल कक्षा में करने वाले शिक्षक चाहिए।  एक मोटा अनुमान है कि आठ करोड़ बच्चे प्राथमिक स्कूल के बाद पढना छोड़े देते हैं। धनाभाव, स्कूल ना होना जैसे कारकों के अलावा सबसे बड़ा कारण है कि बच्चे पढ़ाई में आनंद नहीं ले पाते।

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किसी सुदूर गांव के ऐसे विद्यालय का गंभीरता से आकलन करें तो पाएंगे कि वहां की शिक्ष व्यवस्था की धुरी पाठ् पुस्तक है। बिल्कुल हमारी व्यवस्था को औपनिवेषिक चरित्र प्रदान करती एक किताब । इस किताब से उपजते हैं भय- बच्चे का भय कम अंक लाने का और शिक्षक का भय अच्छा रिजल्ट ना आने का।  शिक्षक भी अनमने मन से उसे पढ़ाता है क्यों कि उसे तो किताब पूरी तरह रट गई है, उसका कोई रस या आनंद बचा नहीं है।
बच्चे का अपना विस्तारित अनुभव जगत, बच्चे का ज्ञान, बच्चे के अपने अनुभवउन सबका यहां ना तो काई अर्थ है ना ही कदर। ऐसे में डिजिटल साक्षरता के उद्देश्य से किए गए कुछ प्रयोग बच्चों को हर दिन कुछ नया करने के उत्साह में स्कूल की ओर खंीच लाएंगे।

शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

safe water for rural India is still a dream

पेयजल को तरसता ग्रामीण भारत

पंकज चतुर्वेदी

सन 1950 में लागू भारत के संविधान के अनुच्छेद 47 में भले ही यह दर्ज हो कि प्रत्येक देशवासी को साफ पानी मुहैया करवाना राज्य का दायित्व है लेकिन 16 करोड़ से अधिक भारतीयों के लिए सुरक्षित पीने का पानी की आस अभी बहुत दूर है। आज भी देश की कोई 17 लाख ग्रामीण बसावटों में से लगभग 78 फीसदी में पानी की न्यूनतम आवश्यक मात्रा तक पहुंच है। यह भी विडंबना है कि अब तक हर एक को पानी पहुंचाने की परियोजनाओं पर 89,956 करोड़ रुपये से अधिक खर्च होने के बावजूद, सरकार परियोजना के लाभों को प्राप्त करने में विफल रही है। आज महज 45,053 गाँवों को नल-जल और हैंडपंपों की सुविधा मिली है, लेकिन लगभग 19,000 गाँव ऐसे भी हैं जहां साफ पीने के पानी का कोई नियमित साधन नहीं है। जहारों बस्तियां ऐसी हैं जहां लोग कई-कई किलोमीटर पैदल चल कर पानी लाते हैं। यह आंकड़े भारत सरकार के पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के हैं।

अगस्त, 2018 में सरकार की ऑडिट रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकारी योजनाएं प्रति दिन प्रति व्यक्ति सुरक्षित पेयजल की दो बाल्टी प्रदान करने में विफल रही हैं जोकि निर्धारित लक्ष्य का आधा था। रिपोर्ट में कहा गया कि खराब निष्पादन और घटिया प्रबंधन के चलते सारी योजनएं अपने लक्ष्य से दूर होती गईं । कारण वितरित करने में विफल रही।
भारत सरकार ने प्रत्येक ग्रामीण व्यक्ति को पीने, खाना पकाने और अन्य बुनियादी घरेलू जरूरतों के लिए स्थायी आधार पर गुणवत्ता मानक के साथ पानी की न्यूनतम मात्रा उपलब्ध करवाने के इरादे से राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम सन 2009 में शुरू किया था। इसमें हर घर को परिशोधित जल घर पर ही या सार्वजनिक स्थानों पर नल द्वारा मुहैया करवाने की योजना थी। इसमें सन 2022 तक देश में षत प्रतिशत षुद्ध पेयजल आपूर्ति का संकल्प था।

भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट बानगी है कि कई हजार करोड़ खर्च करने के बाद भी यह परियेाजना सफेद हाथी साबित हुई है। सन 2017 तक परियोजना की कुल राशि 89,956 करोड़ रुपये का 90 प्रतिशत खर्च करने के बावजूद, कार्यक्रम में अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के  बहुत दूर है।
ग्रामीण भारत में पेय जल मुहैया करवाने के लिए 10वीं पंचवर्षीय योजना(2002-2007) तक 1,105 अरब रुपये खर्च किये जा चुके थे। इसकी शुरुआत 1949 में हुई जब 40 वर्षों के भीतर 90 प्रतिशत जनसंख्या को साफ पीने का पानी उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया। इसके ठीक दो दशक बाद 1969 में यूनिसेफ की तकनीकी मदद से करीब 255 करोड़ रुपये खर्च कर 12 लाख बोरवेल खोदे गए और पाइप से पानी आपूर्ति की 17,000 योजनाएं शुरू की गईं। इसके अगले दो दशकों में सरकार ने एक्सीलरेटेड वाटर सप्लाई प्रोग्राम (एआरडब्ल्यूएसपी), अंतरराष्ट्रीय पेयजल और स्वच्छता दशक के तहत सभी गाँवों को पीने का पानी उपलब्ध कराने के लिये एक शीर्ष समिति का निर्माण, राष्ट्रीय पेयजल मिशन (एनडीडब्ल्यूएम) और 1987 की राष्ट्रीय जलनीति के रूप में कई योजनाएं बनीं।
उसके बाद 2009 से दूसरी योजना प्रारंभ हो गई। हजारों करोड़ रुपये और दसियों योजनाओं के बावजूद आज भी  कोई करीब 3.77 करोड़ लोग हर साल दूषित पानी के इस्तेमाल से बीमार पड़ते हैं। लगभग 15 लाख बच्चे दस्त से अकाल मौत मरते हैं । अंदाजा है कि पीने के पानी के कारण बीमार होने वालों से 7.3 करोड़ कार्य-दिवस बर्बाद होते हैं। इन सबसे भारतीय अर्थव्यवस्था को हर साल करीब 39 अरब रूपए का नुकसान होता है।

देश की जल-कुंडली भी बांच ली जाए। भारत में दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 क्षेत्रफल है। दुनिया के कुल  जल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं व जनसंख्या की भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर साल बारिश से कुल 4000 घन मीटर पानी प्राप्त होता है, जबकि धरातल या उपयोग लायक भूजल 1869 घन किलोमीटर है। इसमें से महज 1122 घन मीटर पानी ही काम आता है। यहां जानना जरूरी है कि भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है जो कि दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। शेष पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र में जा कर मिल जाता है और बेकार हो जाता है।
गौरतलब है कि ग्रामीण भारत की 85 फीसदी आबादी अपनी पानी की जरूरतों के लिए भूजल पर निर्भर है।  एक तो भूजल का स्तर लगातार गहराई में जा रहा है , दूसरा भूजल एक ऐसा संसाधन है जो यदि दूशित हो जाए तो उसका निदान बहुत कठिन होता है। यह संसद में बताया गया है कि करीब 6.6 करोड़ लोग अत्यधिक फ्लोराइड वाले पानी के घातक नतीजों से जूझ रहे हैं, इन्हें दांत खराब होने , हाथ पैरे टेड़े होने जैसे रोग झेलने पड़ रहे हैं।  जबकि करीब एक करोड़ लोग अत्यधिक आर्सेनिक वाले पानी के शिकार हैं। कई जगहों पर पानी में लोहे (आयरन) की ज्यादा मात्रा भी बड़ी परेशानी का सबब है।
यह आंकड़ा वैसे बड़ा लुभावना लगता है कि देश का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 32.80 लाख वर्ग किलोमीटर है, जबकि सभी नदियों को सम्मिलत जलग्रहण क्षेत्र 32.7 लाख वर्गमीटर है। भारतीय नदियों के मार्ग से हर साल 1913.6 अरब घनमीटर पानी बहता है जो सारी दुनिया की कुल नदियों का 4.445 प्रतिशत है।  आंकडों के आधार पर हम पानी के मामले में पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा समृद्ध हैं, लेकिन चिंता का विशय यह है कि पूरे पानी का कोई 85 फीसदी बारिश के तीन महीनों में समुद्र की ओर बह जाता है और नदियां सूखी रह जाती हैं। बढ़ती गरमी, घटती बरसात और जल संसाधनों की नैसर्गिकता से लगातार छेड़छाड़ का ही परिणाम है कि बिहार की 90 प्रतिशत नदियों में पानी नहीं बचा। गत तीन दशक के दौरान राज्य की 250 नदियों के लुप्त हो जाने की बात सरकारी महकमे स्वीकार करते हैं। अभी कुछ दशक पहले तक राज्य की बड़ी नदियां- कमला, बलान, ॅफल्गू, घाघरा आदि कई-कई धाराओं में बहती थीं जो आज नदारद हैं। झारखंड के हालात कुछ अलग नहीं हैं, यहां भी 141 नदियों के गुम हो जाने की बात फाईलों में तो दर्ज हैं लेकिन  उनकी चिंता किसी को नहीं । राज्य की राजधानी  रांची में करमा नदी देखते ही देखते अक्रिमण के घेर में मर गई। हरमू और जुमार नदियों को नाला तो बना ही दिया है। यहां चतरा, देवघर, पाकुड़, पूर्वी सिंहभूम जैसे घने जंगल वाले जिलों में कुछ ही सालों में सात से 12 तक नदियों की जल धारा मर गई। जो नदियों बची भी हैं वे भारी प्रदूशण की मारी हैं। हर घर को नल से जल या ऐसी कोई भी योजना तभी सफल है जब हम बरसात के पानी को सहजेने के संसाधन - नदी, तालाब, जोहड़, बावलियों को उनके मूल स्वरूप में लाने का संकल्प नहीं करते।

बुधवार, 28 अगस्त 2019

Why tribal population is reducing ?


कहां गुम हो रहे हैं आदिवासी

पंकज चतुर्वेदी
झारखंड राज्य की 70 फीसदी आबादी 33 आदिवासी समुदायों की है। हाल ही में एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया कि यहां 10 ऐसी जनजातियां हैं, जिनकी आबादी नहीं बढ़ रही है। ये आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक  रूप से कमजोर तो हैं ही, इनकी आबादी मेे लगातार गिरावट से इनके विलुप्त होने का खतरा भी है। ठीक ऐसा ही संकट बस्तर इलाके में भी देखा गया। जहां छत्तीसगढ़ राज्य की जनसंख्या दर में सालाना वृद्धि 4.32 प्रतिशत है  वहीं बीजापुर जैसे जिले में आबादी की बढ़ौतरी का आंकड़ा 19.30 से घट कर 8.76 रह गया। ध्यान रहे देश भर की दो तिहाई आदिवासी जनजाति मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, गुजरात और राजस्थान में रहती है, और यहीं पर इनकी आबादी लगातार कम होने के आंकड़े हैं। हमें याद करना होगा कि अंडमान निकोबार और कुछ पूर्वोत्तर राज्यों में बीते चार दषक में कई जनजातियां लुप्त हो गईं। एक जनजाति के साथ उसकी भाषा -बोली, मिथक, मान्यताएं, संस्कार, भोजन, आदिम ज्ञान सबकुछ लुप्त हो जाता है।
झारखंड में आदिम जनजातियों की संख्या कम होने के आंकड़ै बेहद चौंकाते हैं जोकि सन 2001 में तीन लाख 87 से हजार से सन 2011 में घट कर दो लाख 92 हजार रह गई। ये जनजातियां हैं - कंवर, बंजारा, बथुडी, बिझिया, कोल, गौरेत, कॉड, किसान, गोंड और कोरा। इसके अलावा माल्तो-पहाड़िया, बिरहोर, असुर, बैगा भी ऐसी जनजातियां हैं जिनकी आबादी लगातार सिकुड़ रही है। इन्हें राज्य सरकार ने पीवीजीटी श्रेणी में रखा है। एक बात आश्चर्यजनक  है कि मुंडा, उरांव, संताल जैसे आदिवासी समुदाय जो कि सामाजिक, राजनीतिक , अािर्थक और शैक्षिक  स्तर पर आगे आ गए, जिनका अपना मध्य वर्ग उभर कर आया, उनकी जनगणना में आंकड़े देश  के जनगणना विस्तार के अनुरूप ही हैं। बस्तर में गौंड , देारले, धुरबे आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा पिछड़ रहे हैं। कोरिया, सरगूजा, कांकेर जगदलपुर,नारायणपुर, दंतेवाड़ा, सभी जिलों में आदिवासी आबादी तेजी से घटी है। यह भी गौर करने वाली बात है कि नक्सलग्रस्त क्षेत्रों में पहले से ही कम संख्या  वाले आदिवासी समुदायों की संख्या और कम हुई है।
इसमें कोई शक  नहीं कि आम आदिवासी शान्ति प्रिय हैं। उनकी जितनी भी पुरानी कथाएं हैं उनमें उनके सुदूर क्षेत्रों से पलायन व एकांतवास का मूल कारण यही बताया जाता है कि वे किसी से युद्ध नहीं चाहते थे। नक्सलवादी हिंसा और प्रतिहिंसा से वे बहुत प्रभावित हुए और बड़ी संख्या में पलायन करते रहे। बस्तर के बासागुड़ को ही लें, एक शा नदार बस्ती था, तीन हजार की आबादी वाला। इधर सलवा जुड़ुम ने जोर मारा और उधर नक्सलियों ने हिंसा की तो आधी से ज्यादा आबादी भाग कर  आंध््रा प्रदेश  के चेरला के जंगलों में चली गई।  अकेले सुकमा जिले से पुराने हिंसा दौर में पलायन किए 15 हजार परिवारों में से आधे भी नहीं लौटे। एक और भयावह बात है कि परिवार कल्याण के आंकड़े पूरे करने के लिए  कई बार इन मजबूर, अज्ञानी लेागों को कुछ पैसे का लालच दे कर नसबंदी कर दी जाती है।
मध्य प्रदेश में 43 आदिवासी समूह हैं जिनकी आबादी डेढ करोड के आसपास हैं। यहां भी बड़े समूह तो प्रगति कर रहे हैं लेकिन कई आदिवासी समूह विलुप्त होने के कगार पर हैं।  इनमें भील-भिलाला आदिवासी समूह की जनसंख्या सबसे ज्यादा (59.939 लाख) है। इसके बाद गोंड समुदाय की जनसंख्या 50.931 लाख, कोल आदिवासियों की जनसंख्या 11.676 लाख, कोरकू आदिवासियों की जनसंख्या 7.308 लाख और सहरिया आदिवासियों की आबादी 6.149 लाख है। इनकी जनसंख्या वृद्धि दर, बाल मृत्यू दर आदि में खासा सुधार है लेकिन दूसरी तरफ बिरहुल या बिरहोर आदिवासी समुदाय की जनसंख्या केवल 52 है। कोंध समूह (मुख्यतः ओडीसा में रहने वाले) की जनसंख्या 109, परजा की जनसंख्या 137 सौंता समूह की जनसंख्या 190 । अब इनके यहां बच्चे कम होना  या ना होना एक बड़ी समस्या है। असल में इनका समुदाय बहुत छोटा है और इनके विवाह संबध्ंा बहुत छोटे समुह में ही होते रहते है। अतः जैनेटिक कारणों से भी वंश -वृद्धि ना होने की एक संभावना है।
भारत में आदिवासियों की भौगौलिक स्थिति तेजी से बदल रही है। यह तथ्य एक सरकारी रिपोर्ट में सामने आया है कि देश की करीब 55 प्रतिशत आदिवासी आबादी अपने पारंपरिक आवास से बाहर निकल कर निवास कर रही है। किसानी या जंगल उत्पादों पर अपना जीवन यापन करने वली जनजातियों को प्राकृतिक संसाधन कम हो गए और इस आर्थिक संकट के कारण भी उनका पलायन हुआ। यह बात स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट “ट्राइबल हेल्थ ऑफ इंडिया” में उजागर होती है। रिपोर्ट के मुताबिक, देश में आदिवासियों की कुल दस करोड़ चालीस लाख लगभग आबादी में से आधी से अधिक 809 आदिवासी बहुल क्षेत्रों से बाहर रहती है। रिपोर्ट में इस तथ्य के समर्थन में 2011 की जनगणना का हवाला दिया गया है। 2001 की जनगणना में जिन गांवों में 100 प्रतिशत आदिवासी थे, 2011 की जनगणना में इन आदिवासियों की संख्या 32 प्रतिशत कम हो गई।
वैज्ञानिक शोध पत्रिका लैंसेट में प्रकाशित 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी जनजाति के लोगों का औसतन जीवन काल 63.9 वर्ष होता है जो कि गैर आदिवासी लोगों से तीन वर्ष कम होता है। आदिवासी जनजाति का औसतन जीवन काल 67 वर्ष होता है। इसका बड़ा कारण आदिवासियों के बीच बेहतर स्वास्थय सेवाओं का अभाव भी है। देश भर में मलेरिया से होने वाली मौतों में 50 फीसदी आदिवासी होते हैं क्यों की इन्हें स्वास्थ्य एवं स्वच्छता सम्बंधित विषयों में जागरूक नहीं किया जाता। आदिवासी स्वास्थ्य समस्याओं में दस सबसे बड़ी समस्याएं मलेरिया, बाल मृत्यु दर, कुपोषण, मातृ स्वास्थ्य, परिवार नियोजन, नशा, सिकल सेल एनीमिया आदि प्रमुख स्वास्थ्य समस्याएं हैं इसकी मुख्य वजह निरक्षरता को माना जाता है। ट्राइबल हेल्थ इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 42 प्रतिशत आदिवासी बच्चों का वज़न उम्र के हिसाब से कम (अंडरवेट) है जो की गैर आदिवासी बच्चों से डेढ़ गुना ज़््यादा है।
प्रत्येक आदिवासी समुदास की अपनी ज्ञान-श्रंखला है। एक समुदाय के विलुप्त होने के साथ ही उनका कृषि , आयुर्वेद, पशु -स्वास्थ्य, मौसम, खेती आदि का सदियों नहीं हजारों साल पुराना ज्ञान भी समाप्त हो जाता है। यह दुखद है कि हमारी सरकारी योजनाएं इन आदिवासियां की परंपराओं और उन्हें आदि-रूप में संरक्षित करने के बनिस्पत उनका आधुनिकीकरण करने पर ज्यादा जोर देती है। हम अपना ज्ञान तो उन्हें देना चाहते हैं लेकिन उनके ज्ञान को संरक्षित नहीं करना चाहते। यह हमें जानना होगा कि जब किसी आदिवासी से मिलें तो पहले उसे ज्ञान को सुनें फिर उसे अपना नया ज्ञान देने का प्रयास करें।  आज जरूरत जनजातियों को उनके मूल स्वरूप में सहेजने की है।

मंगलवार, 27 अगस्त 2019

remembering gur nanak dev visit to Egypt


इजिप्ट में बाबा नानक की  निशानियों को सहेजें
पंकज चतुर्वेदी


यह गुरु नानक देव के प्रकाशोत्सव का ५५०वा साल है . अकेले भारत ही नहीं सारी  दुनिया के सिख पंथ के अनुयायी गुरु महाराज की स्मृतियों  को सहेजने में लगे हैं लेकिन अरब  दुनिया के सबसे बड़े देश इजिप्ट या मिस्र में गुरु नानक देव कई दिनों रहे, लेकिन उनकी यादों को संरक्षित रखने में न तो वहां की सरकार की कोई रूचि है और न ही भारत सरकार का ध्यान उस सुर गया .  यह सभी जानते हैं कि  नानक जी ने सं १४९७ से १५२१ तक चार बड़ी यात्राएँ कीं – जिन्हें “गुरु नानक देव की उदासियाँ” कहा जाता हैं .  उनकी ये यात्राएँ देश-दुनिया के संत-विचारकों से मुलाक़ात करने, जाती-धर्म से ऊपर उठ कर मानवता की सेवा का सन्देश देने के लिए थीं . उनकी चौथी उदासी या यात्रा सन १५१८ से १५२१ के बीच अर्ब की थी, वे मदीना भी गए थे . उनकी यह यात्रा बलूचिस्तान, कराची, हिंगलाज, काबुल, समरकंद, बुखार, तेहरान  सीरिया , तुर्की, रूस , बगदादा, मक्का तक की थी, वे कई कई मील पैदल चले और कुछ यात्रा ऊंट पर भी की .

उसी उदासी के दौरान गुरु नानक देव काहिरा , मिस्र भी आये थे, लेकिन आज उनकी स्मृति के कोई निशान  नहीं हैं. सन 1519 में कर्बला, अजारा होते हुए नानक जी और भाई मर्दाना कैकई नामक आधुनिक शहर में रुके थे, यह मिस्र का आज का काहिरा या कायरो ही है. उस समय यहाँ का राजा सुल्तान माहिरी करू था, जो खुद गुरु जी से मिलने आया था और उन्हें अपने महल में ठहराया था.
ताजुद्दीन नक्शबंदी एक फ़ारसी/अरबी का लेखक थे। वे गुरु नानक देव कि मध्य-पूर्व यात्रा के दौरान उनके साथ कि दो साल साथ रहे थे। वे हर दिन कि डायरी भी लिखते थे। उनकी वह पांडुलिपि सं 1927 में मदीना की एक लायब्रेरी में मिली थी। ताजुद्दीन कि इस पांडुलिपि को मुश्ताक हुसैन शाह ने सं 1927 में खोजा था। बाद में वे सिख बन गए और प्रसिद्ध सिख गुरु संत सैयद प्रितपाल सिंह (1902-1969 ) के नाम से जाने गए। 

इस पांडुलिपि में बताया है कि संत नानक दजला नदी के किनारे चलते हुए कुफा होते हुए कैकई शहर में पहुंचे थे। वहां के खलीफा या सुलतान माहिरी करू के आध्यात्मिक सलाहकार पीर जलाल ने सबसे पहले नानकदेव के अरबी में शब्द सुने, फिर उनसे अनुरोध किया कि वे उनके जिद्दी और क्रूर खलीफा कि सही राह बताएं। कहते हैं कि नानक देव की वाणी का खलीफा पर ऐसा असर हुआ कि उसने बाबा नानक को अपने महल में ठहराया। 
नानक जी वहां दो दिन रुके, कायरो से दूर अलेक्स्जेन्द्रिया की  सूफी मस्जिद में भी नानक जी एक दिन रुके थे .
सन  १८८५ के आसपास सूडान लड़ने गयी भारतीय फौज की  सिख रेजिमेंट के २० सैनिक उस स्थान पर गए भी थे जहां गुरु महाराज ठहरे थे. वहां उन्होंने अरदास की और प्रसाद भी वितरित किया था . यह स्थान आज के मशहूर पर्यटन स्थल सीटाडेल के भीतर  मुहम्मद अली मस्जिद के पास कहीं राज महल में है, इस महल को सुरक्षा की द्रष्टि से आम लोगों के लिए बंद किया हुआ है, इसमें एक चबूतरा है जिसे – अल-वली-नानक कहते हैं, यहीं पर गुरु नानक ने अरबी में कीर्तन और प्रवचन किया था .  सीटाडेल में इस समय किले के बड़े हिस्से को बंद किया हुआ है. यहाँ पुलिस और फौज के दफ्तर हैं किले के बड़े हिस्से को सेना, पुलिस और जेल के म्यूजियम में बदल दिया गया है.
इस किले से स्वेज  नहर के लिए रास्ता था, अभी भी वहां एक विशाल कुआँ और दरवाजा है , गुरूजी का स्थान _ “अल वली नानक मुकाम” वहीँ कहीं हैं . आज सीटाडेल एक व्यस्त पर्यटन स्थल है। यहां की  सुल्तान अल नासिर मुहम्मद मस्जिद की पूरी छत भारत से लाए गए चन्दन से बनी है और निर्माण के कोई आठ सौ साल बाद भी यह खुशबु और ठंडक दे रही है .यह बात वहां के गाइड बताना नहीं भूलते हैं लेकिन इससे बमुश्किल २० मीटर दूर स्थित बाबा नानक की  स्मृति के बारे में कोई जानता नहीं, बताता नहीं .

एक तो लोगों को एस पावन स्थान के  महत्व की  जानकारी नहीं है दूसरा हमने इजिप्ट सरकार को यह सूचना साझाँ नहीं की . भारत, सिख मत और गुरु नानक देव की स्मृतियों के लिहाज से यह बेहद महत्वपूर्ण स्थान है  और भारत सरकार को इस स्थान पर गुरु नानक देव के स्थल पर विशेष प्रदर्शनी के लिए इजिप्ट सरकार से बात करनी ही होगी, जब इजिप्ट सरकार को महसूस होगा कि इससे सिख पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा तो निश्चित ही वह इसके लिए तैयार होगी, क्योंकि इजिप्ट की अर्थ व्यवस्था का आधार पर्यटन ही हैं . काश भारत सरकार इजिप्त सरकार से बात कर इसे सिखों के पवित्र स्थल के रूप में स्थापित करने के लिए कार्यवाही करें . 
यहाँ जानना जरुरी हैं कि इजिप्ट  यानि मिस्र की राजधानी काहिरा या कायरो अरब - दुनिया का सबसे बड़ा शहर है, नब्बे लाख से अधिक आबादी का, यहाँ इसाईओं की बड़ी आबादी है, कोई बारह फीसदी, लेकिन हिन्दू-सिख-जैन-बौध अर्थात भारतीय मूल के धर्म अनुयायी दीखते नहीं हैं, या तो नौकरी करने वाले या फिर अस्थायी रूप से लिखने-पढने आये लोग हेई गैर मुस्लिम-ईसाई मिलते हैं , ऐसा नहीं कि वहां हिन्दू धर्म के बारे में अनभिज्ञता है. वहां हिंदी फ़िल्में बेहद लोकप्रिय हैं और हर दूसरा आदमी यह जानने को जिज्ञासु रहता है कि हिन्दू महिलाएं बिंदी या मांग क्यों भारती हैं, भारत का भोजन या संस्कार क्या-क्या हैं . एक युवा ऐसा भी मिलने आया कि उसके परबाबा सिखा थे और काम के सिलसिले में मिस्र आये थे , यहाँ उन्होंने इस्लाम ग्रहण कर लिया . एक युवा ऐसा भी मिला जिसका नाम नेहरु अहमद गांधी है, इसके बाबा का नाम गांधी है और बाबा ने ही भारत के प्रति दीवानगी के चलते अपने पोते का नाम नेहरु रखा.  इजिप्त की राजधानी कायरो के नए बने उपनगर हेलियोपोलिस में एक हिन्दू मंदिर की संरचना और ग्यारवीं सदी के पुराने सलाउद्दीन के किले यानि सीटा ड़ेल में गुरु नानकदेव के प्रवचन देने और ठहरने की कहानियाँ यहाँ भारतीय धर्म- आध्यात्म के चिन्हों को ज़िंदा रखे हैं .


हालाँकि कायोर के मौलाना आजाद भारतीय सांस्क्रतिक केंद्र में हिंदी प्रशिक्षण कार्यक्रम और अन्य  गतिविधियों के जरिये बहुत से लोग भारत से जुड़े हैं, अल अज़हर यूनिवर्सिटी में भी भारत के सैंकड़ों छात्र हैं , लेकिन अभी यहाँ भारतीयता के लिए कुछ और किया जाना अनिवार्य है, वर्ना मिस्र की नयी पीढ़ी भारत को महज फिल्मों या टीवी सीरियल के माध्यम से अपभ्रंश के रूप में ही पहचानेगी .


Call for a eco friendly festivals

प्रदूषण का कारण न बनें पर्व

भारत में पर्व केवल सामाजिक अनुष्ठान नहीं हैं, बल्कि वे प्रकृति के संरक्षण का संकल्प और कृतज्ञता ज्ञापित करने का अवसर भी होते हैं। भारत के सभी त्योहार सूर्य, चंद्रमा, धरती, जल संसाधनों, पशु-पक्षी आदि की आराधना पर केंद्रित हैं। बीते कुछ वर्षो में भारतीय आध्यात्म को बाजारवाद की ऐसी नजर लगी कि अब पर्व पर्यावरण को दूषित करने का माध्यम बनते जा रहे हैं। हर साल सितंबर महीने के साथ ही बारिश के बादल अपने घरों को लौटने को तैयार हो जाते हैं। सुबह सूरज कुछ देर से दिखता है और जल्दी अंधेरा छाने लगता है। मौसम के इस बदलते
मिजाज के साथ पर्व-त्योहारों का दौर भी शुरू हो जाता है। सनातन मान्यताओं की तरह प्रत्येक शुभ कार्य के पहले गजानन गणपति की आराधना अनिवार्य है और इसीलिए उत्सवों का प्रारंभ गणोश चतुर्थी से ही होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में अगस्त-2016 में अपील कर चुके हैं कि देव प्रतिमाएं प्लास्टर ऑफ पेरिस यानी पीओपी की नहीं बनाएं, मिट्टी की ही बनाएं, लेकिन देश के दूरस्थ अंचलों की छोड़ दें, राजधानी दिल्ली में भी इस पर अमल नहीं दिखता है। गणपति स्थापना तो प्रारंभ होता है, इसके बाद दुर्गा पूजा या नवरात्रि, दीपावली से ले कर होली तक एक के बाद एक आने वाले त्योहार भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं के प्रतीक हैं। विडंबना है कि जिन त्योहरों के रीति रिवाज, खानपान कभी समाज और प्रकृति के अनुरूप हुआ करते थे, आज पर्व के मायने हैं पर्यावरण, समाज और संस्कृति, सभी का क्षरण।
गत एक दशक के दौरान विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं, राज्यों के प्रदूषण बोर्ड आदि ने गंगा, यमुना, गोमती, चंबल जैसी नदियों की जल गुणवत्ता का गणपति या देवी प्रतिमा विसर्जन से पूर्व एवं पश्चात अध्ययन किया और पाया कि आस्था का यह ज्वार नदियों के जीवन के लिए खतरा बना हुआ है। ऐसी कई रिपोर्ट लाल बस्तों में बंधी पड़ी हैं और आस्था के मामले में दखल से अपना वोट-बैंक खिसकने के डर से शासन धरती के अस्तित्व को ही खतरे में डाल रहा है। महाराष्ट्र, उससे सटे गोवा, आंध्र प्रदेश, तेलगांना, छत्तीसगढ़, गुजरात, मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ अंचल में पारंपरिक रूप से मनाया जाने वाला गणोशोत्सव अब देश में हर गांव-कस्बे तक फैल गया है। दिल्ली में ही हजार से ज्यादा छोटी-बड़ी मूर्तियां स्थापित होती हैं। पारंपरिक तौर पर मूर्ति मिट्टी की बनती थी, जिसे प्राकृतिक रंगों, कपड़ों आदि से सजाया जाता था। आज प्रतिमाएं प्लास्टर ऑफ पेरिस से बन रही हैं, जिन्हें रासायनिक रंगों से पोता जाता है। कुछ राज्य सरकारों ने प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों को जब्त करने की चेतावनी भी दी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया और पूरा बाजार रासायनिक रंगों से पुती प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमाओं से पटा हुआ है।
गणोशोत्सव का समापन होता ही है कि नवरात्रि में दुर्गा पूजा शुरू हो जाती है। यह पर्व भी लगभग पूरे भारत में मनाया जाने लगा है। हर गांव-कस्बे में एक से अधिक स्थानों पर सार्वजनिक पूजा पंडाल बनने लगे हैं। बीच में विश्वकर्मा पूजा भी आ जाती है। एक अनुमान है कि हर साल देश में इन तीन महीनों के दौरान कई लाख प्रतिमाएं बनती हैं और इनमें से 90 फीसद प्लास्टर ऑफ पेरिस की होती हैं। इस तरह देश के ताल-तलैया, नदियों-समुद्र में नब्बे दिनों में कई सौ टन प्लास्टर ऑफ पेरिस, रासायनिक रंग, पूजा सामग्री मिल जाती हैं। पीओपी ऐसा पदार्थ है जो कभी समाप्त नहीं होता है। चूंकि ज्यादातर मूर्तियां पानी में न घुलने वाले प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी होती हैं, जिन्हें विषैले एवं पानी में न घुलने वाले रंगों में रंगा जाता है, इसलिए हर साल इन मूर्तियों के विसर्जन के बाद पानी में ऑक्सीजन की मात्र तेजी से घट जाती है जो जलीय जीवों के लिए जानलेवा साबित होती है। कुछ वर्ष पहले मुंबई से वह विचलित करने वाला समाचार मिला था जब मूर्तियों के धूमधाम से विसर्जन के बाद लाखों की तादाद में जुहू किनारे मरी मछलियां पाई गई थीं।
पहले शहरों में कुछ ही स्थानों पर सार्वजनिक पंडाल में विशाल प्रतिमाएं रखी जाती थीं, लेकिन अब अंदाजा है कि अकेले मुंबई में कोई डेढ़ लाख गणपति प्रतिमाएं हर साल समुद्र में विसर्जित की जाती हैं। इसी तरह से कोलकाता की हुबली नदी में ही 15000 से अधिक बड़ी दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन होता है। अनुमान है कि विसर्जित होने वाली प्रतिमाओं में से अधिकांश 15 से 50 फुट ऊंची होती हैं। बंगाल में तो वसंत पंचमी के अवसर पर सरस्वती पूजा के लिए कोई एक करोड़ प्रतिमाएं स्थापित करने और उनको विसर्जित करने का भी रिवाज है। चूंकि ये पर्व बरसात समाप्त होते ही आ जाते हैं, जुलाई महीने में मछलियों के भी अंडे एवं बच्चों का मौसम होता है। ऐसे में दुर्गा प्रतिमाओं का सिंदूर, सिंथेटिक रंग आदि पानी में घुलकर उसमें निवास करने वाले जलचरों को भी जहरीला करते हैं। बाद में ऐसी ही जहरीली मछलियां खाने पर कई गंभीर रोग इंसान के शरीर में घर कर जाते हैं। इसके साथ ही ये धीरे-धीरे भोजन श्रृंखला का हिस्सा बन अनेक बीमारियों का भी कारण बनते हैं।
सवाल खड़ा होता है कि तो क्या पर्व-त्योहारों का विस्तार गलत है? इन्हें मनाना बंद कर देना चाहिए? एक तो हमें प्रत्येक त्योहर की मूल आत्मा को समझना होगा, जरूरी तो नहीं कि बड़ी प्रतिमा बनाने से ही भगवान ज्यादा खुश होंगे! क्या छोटी प्रतिमा बनाकर उसका विसर्जन जल-निधियों की जगह अन्य किसी तरीके से करके अपनी आस्था और परंपरा को सुरक्षित नहीं रखा जा सकता? प्रतिमाओं को बनाने में पर्यावरण मित्र सामग्री का इस्तेमाल करने जैसे प्रयोग तो किए ही जा सकते हैं। पूजा सामग्री में प्लास्टिक का प्रयोग वर्जित करना, फूल-ज्वारे आदि को स्थानीय बगीचे में जमीन में दबाकर उसका खाद बनाना, चढ़ावे के फल, अन्य सामग्री को जरूरतमंदों में बांटना, बिजली की जगह मिट्टी के दीयों का प्रयोग ज्यादा करना, तेज ध्वनि बजाने से बचना जैसे साधारण से प्रयोग हंैं जो पर्वो से उत्पन्न प्रदूषण एवं उससे उपजने वाली बीमारियांे पर काफी हद तक रोक लगा सकते हैं।
पर्व आपसी सौहार्द बढ़ाने, स्नेह एवं उमंग का संचार करने और बदलते मौसम में स्फूर्ति के संचार के वाहक होते हैं। आज इन्हें अपने मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने की चुनौती है
पंकज चतुर्वेदी
पर्यावरण मामलों के जानकार

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

Was partition became essential in 1947

आजादी, जिन्ना और सांप्रदायिकता

पंकज चतुर्वेदी 

जिन लोगों का आज़ादी की लडाई में लेश मात्र का योगदान नहीं रहा- जो भारत छोडो आन्दोलन के समय ब्रितानी हुकुमत के साथ खड़े थे -- वे अक्सर देश के विभाजन के लिए कांग्रेस को दोष देते हैं , एक बात जान लें आज़ादी की लडाई के समय हिन्दू महा सभा, जिसके नेता सवारकर और श्यामा प्रसाद थे, हिन्दू साम्प्रदायिकता को हवा देते और उसके जवाब में जिन्ना का मुस्लिम लीग . यह किसी से छुपा नहीं है कि श्यामा प्रसाद अंग्रेजों के इतने प्रिय थे कि महज ३७ साल की उम्र में उन्हें कोल्कता यूनिवर्सिटी का कुलपति बना दिया था तो सावरकर सं १९४७ तक ब्रितानी हुकुमत से मासिक वजीफा लेते रहे .
इसी के जवाब में मुस्लिम लीग और जिन्ना खुराफात करते रहते
मेरा यह लेख किसी ने नहीं छापा-- बस लखनऊ के जन सन्देश टाइम्स में है , इसे अवश्य पढ़ें और जाने कि किस तरह के सांप्रदायिक हालात और ब्रितानी चालें थीं जिसके चलते देश के विभाजन की शर्त पर आजादी पायी


यदि सवाल किया जाए कि क्या देष की आजादी के लिए उसका विभाजन अनिवार्य था ? यदि उस काल की परिस्थितियों, जिन्ना के सांप्रदायिक कार्ड और ब्रितानी सरकार की फूट डालो वाली नीति को एकसाथ रखें तो स्पष्ट  हो जाता है कि भारत की जनता लंबे संघर्ष  के परिणाम ना निकलने से हताश  हो रही थी और यदि तब आजादी को विभाजन की शर्त  पर नहीं स्वीकाकारा जाता तो देश  भयंकर सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ जाता और उसके बाद आजादी की लड़ाई कुंद हो जाती। धार्मिक, जातीय या सांस्कृतिक टकराव और शासन के कारण पैदा किए गए तनाव  आपस में गुथ कर इस स्थिति में पहुंच गए थे कि या तो गृह युद्ध स्वीकार करो या विभाजन की शर्त पर आजादी।
सन 1935 में अंग्रेज सरकार ने एक एक्ट के जरिये भारत में प्रांतीय असेंबलियों में निर्वाचन के जरिये सरकार को स्वीकार किया। सन 1937 में चुनाव हुए। इसमें कुल तीन करोड़ 60 लाख मतदाता थे, कुल वयस्क आबादी का 30 फीसदी जिन्हें विधानमंडलों के 1585 प्रतिनिधि चुनने थे। इस चुनाव में मुसलमानों के लिए सीटें आरक्षित की गई थीें। कांग्रेस ने समान्य सीटों में कुल 1161 पर चुनाव लड़ा और 716 पर जीत हांसिल की। मुस्लिम बाहुल्य 482 सीटों में से 56 पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा व 28 पर जीत हांसिल की। 11 में से छह प्रांतों में उसे स्पश्ट बहुमत मिला। ऐसा नहीं कि मुस्लिम सीटों पर मुस्लिम लीग को सफलता मिली हो, उसकी हालत बहुत खराब रही व कई स्थाीय छोटे दल कांग्रेस व लीग से कहीं ज्यादा सफल रहे।  पंजाब में मुस्लिम सीट 84 थीें और उसे महज सात सीट पर उम्मीदवार मिल पाए व जीते दो। सिंध की 33 मुस्लिम सीटों में से तीन और बंगाल की 117 मुस्लिम सीटों में से 38 सीट ही लीग को मिलीं। यह स्पष्ट  करती है कि मुस्लिम लीग को मुसलमान भी गंभीरता से नहीं लेते थे। हालांकि इस चुनाव में मुसिलम लीग कांग्रेस के साथ उत्तर प्रदेश  चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन नेहरू ने साफ मना कर दिया। यही नहीं 1938 में नेहरू ने कांग्रेस के सदस्यों की लीग या हिंदू महा सभ देानेां की सदस्यता या उनकी गतिविधियों में षामिल होने पर रेाक लगा दी।  1937 के चुनाव में आरक्षित सीटों पर लीग महज 109 सीट ही जीत पाई। लेकिन सन 1946 के चुनाव के आंकड़ें देखे तो पाएंगे कि बीते नौ सालों में मुस्लिम लीग का सांप्रदायिक एजेंडा खासा फल-फूल गया था।  केंद्रीय विधान सभा में मुसलमानों के लिए आरक्षित सभी 60 सीटों पर लग जीत गई।  राष्ट्रवादी  मुसलमान महज 16 सीट जीत पाए जबकि हिंदू महासभा को केवल दो सीट मिलीं। जाहिर है कि हिंदुओं का बड़ा तबका कांग्रेस को अपना दल मान रहा था, जबकि लीग ने मुसलमानों में पहले से बेहतर स्थिति कर ली थी।  यदि 1946 के राज्य के आंकड़े देखें तो मुस्लिम आरक्षित सीटों में असम में 1937 में महज 10 सीठ जीतने वाली लीग 31 पर बंगाल में 40 से 113पंजाब में एक सीट से 73 उत्तर ्रपदेष में 26 से 54 पर लग पहिुंच गई थी। हालांकि इस चुनाव में कां्रगेस को 1937 की तुलना में ज्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन लीग ने अपने अलग राज्य के दावे को इस चुनाव परिणाम से पुख्ता कर दिया था।
वे लोग जो कहते हैं कि यदि नेहरू जिद नहीं करते व जिन्ना को प्रधानमंत्री मान लेते तो देश  का विभाजन टल सकता था, वे सन 1929 के जिन्ना- नेहरू समझौते की शर्तो के उस प्रस्ताव को गौर करें,(क्या देश  का विभाजन अनिवार्य ही था, सर्व सेवा संघ पृ. 145) जिसमें जिन्न  नौ शर्ते थीें जिनमें  मुसलमानेां को गाय के वध की स्वतंत्रता, वंदेमातरम गीत ना गाने की छूट और तिरंगे झंडे में लीग के झंडे को भी शामिल करने की बात थी और उसे नेहरू ने बगैर किसी तर्क के  अस्वीकार कर दिया था।
सन 1940 के लाहौर सम्मेलन में भी जिन्ना ने कहा था - ‘‘  ंिहंदू और मुसलमान एक जाति में विकसित होंगे, यह एक सपना ही है। उनके धर्म, दर्शन  समाजिक रहन-सहन अलग हैं। वे आपस में षादी नहीं करते, एकसाथ खाते भी नहीं। उन्होेंने हिंदू-मुस्लिम एकता के रास्ते में हदीस और कुरान के निर्देषों का हवाला दे कर अलग देष की मांग को जायज ठहराया।’’ हालांकि मौलाना अब्दुल कलाम आजाद सहित कई राष्ट्रवादी  नेताओं ने इसे मिथ्या  करार दिया लेकिन इस तरह के जुमलों से लीग ने अपना आधार मजबूत कर लिया।
इससे पहले सन 1937 के चुनाव में अपने ही लोगों के बीच हार से बौखला कर जिन्ना ने  कांग्रेस मंत्रीमंडलों के विरूद्ध जांच दल भेजने, आरोप लगाने, आंदोलन करने आदि शुरू  कर दिए थे। उस दौर में ाकंग्रेस की नीतियां भी राज्यों में अलग-अलग थी । जैसे कि संयुक्त प्रांत में कांग्रेस भूमि सुधार के बड़े बदलाव की समर्थक थी लेकिन पंजाब में वह इस मसले पर तटस्थ थ।ि मामला केवल जमीन का नहीं था, यह बड़े मुस्लिम जमीदारों के हितों का था। सन 1944 से 1947 तक भारत के वायसराय रहे फिल्ड मार्शल  ए पी बेवेल के पास आजादी और स्वतंत्रता को अंतिम रूप देने  का जिम्मा था वह मुस्लिम लीग को ना पसंद  करता था। उसका  भी कारण था- असल में जब भी वह लीग से पाकिस्तान के रूप में राष्ट्र  का नक्शा  चाहता, वे  सत्त का संतुलन या मनोवैज्ञानिक  प्रभाव जैसे भावनात्मक मुद्दे पर तकरीर करने लगते, ना उनके पास कोई भौगोलिक नक्शा था ना ही उसकी ठोस नीति।  एक तरह से कांग्रेस  व अंग्रेज दोनो ही भारत का विभाजन नहीं चाहते थे। उन दिनों ब्रितानी हुकुमत के दिन गर्दिश  में थे, ऐसे में अंग्रेज संयुक्त भारत  को आजादी दे कर यहां अपनी विशाल  सेना का अड्डा बरकारार रख  दुनिया में अपनी धाक की आकांक्षा रखते थे। वे लीग और कांग्रेस के मतभेदों का बेजा फायदा उठा कर ऐसा स मझौता  चाहते थे जिसमें सेना के अलावा पूरा शासन देोनों दलों के हाथो में हो । नौ अप्रेल 1946 को पाकिस्तान के गठन का अंतिम प्रस्ताव पास हुआ था। उसके बाद 16 मई 1946 के प्रस्ताव में हिंदू, मुस्लिम और राजे रजवाडों की संयुक्त संसद का प्रस्ताव अंग्रेजों का था।  19 और 29 जुलाई 1946 को नेहरू ने संविधान संप्रभुता पर जोर देते हुए सैनिक  भी अपने देश  को होने पर बल दिया।
फिर 16 अगस्त  का वह जालिम दिन आया जब जिन्ना ने सीधी कार्यवाही के नाम पर खून खराबे का ख्ेाल खेल दिया।  हिंसा गहरी हो  गई और बेवेल की योजना असफल रही।  हिंसा अक्तूबर तक चलती रही और देश  में व्यापक टकराव के हालात बनने लगे। आम लोग अधीर थे, वे रोज-रोज के प्रदर्शन , धरनों, आजादी की संकल्पना और सपनों के करीब आ कर छिटकने से हताश  थे और इसी के बीच विभाजन को अनमने मन से स्वीकार करने और हर हाल में ब्रितानी हुकुमत को भगा देने पर मन मसोस कर सहमति बनी। हालांकि केवल कांग्रेसी ही नहीं, बहुत से लीगी भी यह मानते थे कि एक बार अंग्रेज चलें जाएं फिर दोनो देश   एक बार फिर साथ हो जाएंगे।  आजादी की घोषणा  के बाद बड़ी संख्या में धार्मिक पलायन और घिनौनी हिंसा, प्रतिहिंसा, लूट, महिलओं के साथ पाशविक व्यवहार, ना भूल पाने वाली नफरत में बदल गया। खाोया देानेा तरफ के लोगों ने। पाकिस्तान बनने के हिमायती जमींदार आज  भले ही संपन्न हों लेकिन वे आम आदमी जो उप्र, बिहार से पलायन कर गया था , पकिस्तान में आज भी मुहाजिर के नाम  उपेक्षा की जिंदगी जीता है, वे सामाजिक, अािर्थव और शैक्षिक  स्तर पर बेहद पिछड़े हैं। आजादी की लड़ाई, उसमें गांधी-नेहरू की भूमिका, विभाजन की त्रासदी को ले कर केवल नेहरू की आलोचन करना एक शगल सा बन गया है लेकिन उस मसय के हालात को गौर करें तो कोई एक फैसला लेना ही था और आजादी की लड़ाई चार दशकों से  लड़ रहे लोगों को अपने अनुभवों में जो बेहतर लगा, उन्होंने ले लिया। कौन गारंटी देता है कि आजादी के लिए कुछ और दशक रूकने या ब्रितानी सेना को बनाए रखने के फैसले इससे भी भयावह होते।

गुरुवार, 8 अगस्त 2019

Tribal languages on the verge of extinction

विलुप्ति के कगार पर आदिवासी बोलियां



बोलियां कैसे गुम हो जाती हैं? इसे समझने के लिए बस्तर पर्याप्त है। हिंसा-प्रतिहिंसा के बीच लेागों का पलायन हुआ और नए जगह बसने पर उनकी पारंपरिक बोली पहले कम होती हुई और फिर गुम हुई। एक बोली के लुप्त होने का अर्थ होता है उसके सदियों पुराने संस्कार, भोजन, कहानियां, खानपान सभी का गुम हो जाना। बारूद, बंदूक से बेहाल बस्तर में आंध्र प्रदेश से सटे सुकमा जिले में दोरला जनजाति की बड़ी संख्या है। उनकी बोली है दोरली। बोली के मामले में बड़ा विचित्र है बस्तर। वहां द्रविड़ परिवार की बोलियां भी है, आर्य कुल की भी और मुंडारी भी। उनके बीच इतना विभेद है कि एक इलाके का गोंडी बोलने वाला दूसरे इलाके की गोंडी को भी समझने में दिक्कत महसूस करता है। दोरली बोलने वाले वैसे ही बहुत कम हुआ करते थे, पिछली जनगणना में शायद बीस हजार। फिर खून खराबे का दौर चला, पुलिस व नक्सली दोनों तरफ से पिसने वाले आदिवासी पलायन कर आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) के वारंगल जिले में चले गए। जब वे लौटे तो उनके बच्चों की दोरली में तेलुगू का घालमेल हो चुका था।
ब्रिटिश नृशास्त्री ग्रियर्सन की 1938 में लिखी गई पुस्तक ‘माड़िया गोंड्स ऑफ बस्तर’ की भूमिका में एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख है जो बस्तर की 36 बोलियों को समझता-बूझता था। जाहिर है कि आज से अस्सी साल पहले वहां कम से कम 36 बोलियां तो थी हीं। सभी जनजातियों की अपनी बोली, प्रत्येक हस्तशिल्प या कार्य करने वाले की अपनी बोली।
गोंडी का अर्थ कोई एक बोली मात्र से नहीं है। घोटुल मुरिया की अलग गोंडी तो दंडामी और अबूझमाड़िया की गोंडी में अलग किस्म के शब्द। उत्तरी गोंडी में अलग भेद। राज गोंडी में छत्तीसगढ़ी का प्रभाव ज्यादा है। इसका इस्तेमाल गोंड राजाओं द्वारा किया जाता था। 1961 की जनगणना में इसे बोलने वालों की संख्या करीब 12 हजार थी और आज यह घट कर 500 रह गई है। चूंकि बस्तर भाषा के आधार पर गठित तीन राज्यों महाराष्ट्र, ओड़िशा, तेलंगाना (तब आंध्र प्रदेश) से घिरा हुआ है, सो इसकी बोलियां इन राज्यों की भाषा से अछूती नहीं है।
बस्तर में बारूद की गंध ने पलायन, विस्थापन, प्रकृति संहार को तो आमंत्रित किया ही है, सबसे बड़ा संकट यहां की आदिवासी अस्मिता के बीज यानी बोलियों के समक्ष खड़ा हो गया है। एक तरफ बाजार का प्रवेश तो दूसरी ओर विस्थापन का दंश तो तीसरी तरफ आधुनिक शिक्षा का दबाव, देखते ही देखते कई बोलियां अतीत हो गईं, कई के व्याकरण गड़बड़ा गए और कई ने अपना मूल स्वरूप ही खो दिया। 1960 के दशक तक यहां कोई 36 बोलियां थीं। वर्ष 1910 यानी आज से 107 साल पहले का भूमकाल विद्रोह शायद ही किसी को याद हो जब बस्तर की सबसे ज्यादा बहादुर समङो जाने वाली धुरबा जनजाति ने अपनी संस्कृति की रक्षा के सवाल पर अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाए थे। उस विद्रोह को अंग्रेजों ने इस निर्ममता से कुचला कि शौर्य का प्रतीक माने जाने वाले धुरबा आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन का हक समाप्त हो गया। आज धुारबा शहरों में मजदूर बन कर रहा गया है और धुरबी बोली इलाके की संकटग्रस्त बोली बन गई है। दरभ, छिंदगढ़ के अलावा सीमा से सटे कोई 80 गांवों में धुरबा लोग बचे हैं। लेकिन उनकी पारंपरिक बोली अस्तित्व का संकट ङोल रही है। बस्तर की बोलयां तीन परिवार में बंटी हैं- आर्यन, द्रविड़ और मुंडारी। मुंडारी समुदाय की बोली गदबा लगभग विलुप्त हो गई है। आर्य कुल की बोली में सबसे ज्यादा प्रचलन हल्बी का है। उसके बाद भतरी। नोताकानी, मिरगानी, चंडारी जैसी बोलियां खड़ी हिंदी और हल्बी के प्रचलन में पहले घुली-मिलीं, फिर उन्हीं में समा गई।
कुल मिला कर देखें तो आज बस्तर के शहर-कस्बों में हल्बी और भतरी ही बची है। जबकि दुर्गम आंचलिक क्षेत्रों में गोंडी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। असल में बस्तर में बोलियों पर संकट का प्रारंभ हुआ, आधुनिक विकास की अवधारणा के साथ। बस्तर में बाहरी यानी नेपाली से लेकर मैथिल और बुंदेली से लेकर गुजराती तक सदियों से बसते रहे और वहां की लोक संस्कृति में ‘तर’ कर बस्तरिया बनते रहे। हां, इन लेागांे ने कभी लोक जीवन में घुसपैठ या उनके इलाकों में दखल का प्रयास नहीं किया। वैश्वीकरण के चलते अधिक से अधिक प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की प्रवृत्ति ने आदिवासियों और सरकार के बीच टकराव उत्पन्न किया और उसके गर्भ से नक्सली उपजे। आज भी हजारों आदिवासी कैंप यानी सुरक्षा बलों द्वारा स्थापित कालोनियों में रहते हैं। एक तो उनमें मिश्रित जनसंख्या होती है और दूसरा ऐसे आवास उनकी पुश्तैनी प्रकृति के साथ जीवन की नीति के अनुरूप होते नहीं हैं। पहले उनका भोजन बदलता है, फिर रहन-सहन और फिर बोली बदल जाती है। जो भी आदिवासी ऐसे पलायन कर कस्बों में जाते हैं, वे अपने दैनिक व्यवहार और कामकाज के लिए स्थानीय बोली अपना लेते हैं। उनके पारंपरिक नाम बदल जाते हैं, खानपान बदल जाता है।
यहां बोलियों के लुप्त होने को लेकर समाज की सुप्तता की बानगी है। विडंबना है कि जो लोग भी पलायन कर शहर आ रहे हैं उनके लिए भाषा का सवाल महज रोजगार की प्राप्ति का जरिया है और इस तरह वे सहजता से अपने सांस्कृतिक अस्तित्व की पहचान, अपनी पारंपरिक बोली को बिसरा देते हैं। एक बोली की मौत का अर्थ होता है उससे संबद्ध संस्कृति, लोक व्यवहार, अस्मिता और पहचान, मुहावरे, कथाएं-मिथक आदि का सदा के लिए लुप्त हो जाना। हजारों-लाखों सालों में विकसित हुई एक बोली-भाषा के विलुप्त होते ही एक विरासत, उसके शब्द, उसकी अभिव्यक्ति, खेती, जंगल, इलाज और उसकी तकनीकों का समृद्ध ज्ञान भी दफन हो जाता है।
विगत चार दशकों में ही बस्तर ने ऐसी कई संस्कृतियों को बोली के रास्ते बिसरा दिया। आज जरूरत है कि तत्काल बस्तर में बोलियों का एक संग्रहालय बनाया जाए, जिसमें गुम हो चुकी या संकटग्रस्त बोलियों को ऑडियो, वीडियो और मुद्रित स्वरूप में संरक्षित किया जाए। इसके साथ ही स्थानीय बोलियों में साहित्य लेखन और पठन को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष योजनाएं जिला व राज्य स्तर पर तैयार की जाए। यह भी दुखद है कि नई पीढ़ी में इन बोलियों को लेकर हीन भावना भी आती जा रही है। जाहिर है कि बोलियों का आत्मसम्मान उनको बोलने वाली जनजातियों की अस्मिता का प्रश्न है।

शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

Shallow rivers can not bear normal mansoon

सिमटती नदियों में कैसे समायेगा सावन-भादौ

                                                                                                                                 पंकज चतुर्वेदी
सावन जो झमक कर बरसा तो जो देश एक-एक बूंद पानी के लिए तरस रहा था, घर-गांव- बस्ती में पानी से लबा-लब हो कर हाय-हाय करने लगा। सभी जानते हैं कि बरसात की ये बूंदे सारे साल के लिए यदि सहेज कर नहीं रखीं तो सूखे-अकाल की संभावना बनी रहती है। हर बूंद को सहेजने के लिए हमारे पास छोटी-बड़ी नदियों का जाल है। तपती धरती के लिए बारिश अकेले पानी की बूंदों से महज ठंडक ही नहीं ले कर आती  हैं, यह समृद्धि, संपन्नता की दस्तक भी होती है। लेकिन यह भी हमारे लिए चेतावनी है कि यदि बरसात वास्तव में औसत से छह फीसदी ज्यादा हो गई तो हमारी नदिया में इतनी जगह नहीं है कि वह उफान को सहेज पाए, नतीजतन बाढ और तबाही के मंजर उतने ही भयावह हो सकते हैं जितने कि पानी के लिए तडपते-परसते बुंदेलखंड या मराठवाड़ा के। सन 2015 की मद्रास में बाढ़ बानगी है कि किस तरह शहर  के बीच से बहने वाली नदियों को जब समाज ने उथला बनाया तो पानी उनके घरों में घुस गया था। दूर भारत की बात क्या की जाए, दिल्ली राजधानी में यमुना नदी टनों मलवा उड़ेल देने के कारण  उथली हो गई है। एनजीटी ने दिल्ली मेट्रो सहित कई महकमों को चेताया भी इसके बावजूद निर्माण से निकली मिट्टी व मलवे को यमुना नदी में खपाना आम बात हो गई है।

यह सर्वविदित है कि पूरे देश में कूड़ा बढ़ रहा है और कूड़े के खपाने के स्थान सिमट रहे हैं। विडंबना है कि चलती ट्रैन से पैन्ट्री के कूड़े से ले कर स्थानीय निकाय भी अपने कूड़ा वाहनों को अपने शहर-गांव की नदियों में ढकेलने से बाज नहीं आ रहे हैं। इसका ही कुप्रभाव है कि नदियां मर रही हैं और उथली हो रही हैं। नदियों के सामने खड़े हो रहे संकट ने मानवता के लिए भी चेतावनी का बिगुल बजा दिया है, जाहिर है कि बगैर जल के जीवन की कल्पना संभव नहीं है। हमारी नदियों के सामने मूलरूप से तीन तरह के संकट हैं - पानी की कमी, मिट्टी का आधिक्य और प्रदुषण ।

धरती के तापमान में हो रही बढ़ौतरी के चलते मौसम में बदलाव  हो रहा है और इसी का परिणाम है कि या तो बारिश अनियमित हो रही है या फिर बेहद कम।  मानसून के तीन महीनों में बामुश्किल चालीस दिन पानी बरसना या फिर एक सप्ताह में ही अंधाधंुध बारिश हो जाना या फिर बेहद कम बरसना, ये सभी परिस्थितियां नदियों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रही हैं। बड़ी नदियों में ब्रह्मपुत्र, गंगा, महानदी और ब्राह्मणी के रास्तों में पानी खूब बरसता है और इनमें न्यूनतम बहाव 4.7 लाख घनमीटर प्रति वर्गकिलोमीटर होता है। वहीं कृष्णा , सिंधु, तापी, नर्मदा और गोदावरी का पथ कम वर्षा  वाला है सो इसमें जल बहाव 2.6 लख घनमीटर प्रति वर्गकिमी ही रहता है। कावेरी, पेन्नार, माही और साबरमति में तो बहाव 0.6 लाख घनमीटर ही रह जाता है। सिंचाई व अन्य कार्यों के लिए नदियों के अधिक दोहन, बांध आदि के कारण नदियों के प्राकृतिक स्वरूपों के साथ भी छेड़छाड़ हुई व इसके चलते नदियों में पानी कम हो रहा है।

नदियां अपने साथ अपने रास्ते की मिट्टी, चट्टानों के टुकड़े व बहुत सा खनिज बहा कर लाती हैं। पहाड़ी व नदियों के मार्ग पर अंधाधंुध जंगल कटाई, खनन, पहाड़ों को काटने, विस्फोटकों के इस्तेमाल आदि के चलते थेाडी सी बारिश में ही बहुत सा मलवा बह कर नदियों में गिर जाता है। परिणामस्वरूप नदियां उथली हो रही हैं, उनके रास्ते बदल रहे हैं और थोड़ा सा पानी आने पर ही वे बाढ़ का रूप ले लेती हैं। यह भी खतरनाक है कि सरकार व समाज इंतजार करता है कि नदी सूखे व हम उसकी छोड़ी हुई जमीन पर कब्जा कर लें। इससे नदियांे के पाट संकरे हो रहे हैं उसके करीब बसावट बढ़ने से प्रदुषण  की मात्रा बढ़ रही है।
इस समय नदियों को सबसे बड़ा खतरा प्रदुषण से है। कल-कारखानों की निकासी, घरों की गंदगी, खेतों में मिलाए जा रहे रायायनिक दवा व खादों का हिस्सा, भूमि कटाव, और भी कई ऐसे कारक हैं जो नदी के जल को जहर बना रहे हैं। अनुमान है कि जितने जल का उपयोग किया जाता है, उसके मात्र 20 प्रतिशत की ही खपत होती है, शेष  80 फीसदी सारा कचरा समेटे बाहर आ जाता है। यही अपशिष्ट  या मल-जल कहा जाता है, जो नदियों का दुश्मन है। भले ही हम कारखानों को दोषी यों की गंदगी का तीन चौथाई  हिस्सा घरेलू मल-जल ही है।
आज देश की 70 फीसदी नदियां प्रदूषित हैं और मरने के कगार पर हैं। इनमें गुजरात की अमलाखेडी, साबरमती और खारी, हरियाणा की मारकंडा, मप्र की खान, उप्र की काली और हिंडन, आंध्र की मुंसी, दिल्ली में यमुना और महाराष्ट्र की भीमा मिलाकर 10 नदियां सबसे ज्यादा प्रदूषित हैं।

हालत यह है कि देश की 27 नदियां नदी के मानक में भी रखने लायक नहीं बची हैं। वैसे गंगा हो या यमुना, गोमती, नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, झेलम, सतलुज, चिनाव, रावी, व्यास, पार्वती, हरदा, कोसी, गंडगोला, मसैहा, वरुणा हो या बेतवा, ढौंक, डेकन, डागरा, रमजान, दामोदर, सुवणर्रेखा, सरयू हो या रामगंगा, गौला हो या सरसिया, पुनपुन, बूढ़ी गंडक हो या गंडक, कमला हो या फिर सोन हो या भगीरथी या फिर इनकी सहायक, कमोेबेश सभी प्रदूषित हैं और अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं। दरअसल पिछले 50 बरसों में अनियंत्रित विकास और औद्योगीकरण के कारण प्रकृति के तरल स्नेह को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, श्रद्धा-भावना का लोप हुआ और उपभोग की वृत्ति बढ़ती चली गई। चंूकि नदी से जंगल, पहाड़, किनारे, वन्य जीव, पक्षी और जन जीवन गहरे तक जुड़ा है, इसलिए जब नदी पर संकट आया, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना न रहे और उनके अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा।
अष्ट्रीय  पर्यावरण संस्थान, नागपुर की एक रपट बताती है कि गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी सहित देश की 14 प्रमुख नदियों में देश का 85 प्रतिशत पानी प्रवाहित होता है। ये नदियां इतनी बुरी तरह प्रदूशित हो चुकी हैं कि देश की 66 फीसदी बीमारियों का कारण इनका जहरीला जल है। इस कारण से हर साल 600 करोड़ रूपए के बराबर  सात करोड़ तीस लाख मानव दिवसों की हानि होती है।
दुर्भाग्य है कि विभिन्न कारणो से नदियों के उथला होने, उनकी जल-ग्रहण क्षमता कम होने और प्रदुषण बढ़ने से सामान्य बरसात का पानी भी उसमें समा नहीं रहा है और जो पानी जीवनदायी है, वह  आम लोगों के लिए त्रासदी बन रहा है। यही नहीं एक महीने बाद ही ये लेाग फिर पानी को तरसेंगें।

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